LAW OF TORTS – Long Answer Part-1

– प्रथम सेमेस्टर-

(अपकृत्य विधि)

(Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1. अपकृत्य विधि के विकास पर संक्षित निबन्ध लिखें। “जहाँ उपचार है वहाँ अधिकार है तथा जहाँ अधिकार है वहाँ उपचार है।” इस सूक्ति का क्या तात्पर्य है। भारत में अपकृत्य विधि के धीमे विकास के क्या कारण हैं ? Write down short essay on development of Law of Torts. “UBI REMEDIUM IBI JUS, UBI JUS IBI REMEDIUM” What is meant by these maxims? What are reasons for slow development of Law of Torts in India.

उत्तर – अंग्रेजी विधि का महत्वपूर्ण विकास नार्मन विजय के पश्चात् हुआ। इसके पूर्व अपराध (Crime) तथा अपकृत्य विधि में कोई अन्तर नहीं था। इस काल में अधिकतर मामले प्रतिकर तथा प्रशमन (समझौते) के आधार पर तय किए जाते थे। नार्मन विजय के पश्चात् हेनरी द्वितीय के शासन काल में राजा को शांति भंग के मामलों में सभी प्रकार की हिंसा को दण्डित करने का अधिकार प्राप्त हुआ तथा इस निमित्त न्यायालय स्थापित किए गए। 13वीं शताब्दी में अतिचार की याचिका (Writ of Trespass) का प्रारम्भ हुआ। इसमें सम्पत्ति के विरुद्ध अतिचार तथा व्यक्ति के विरुद्ध अतिचार अर्थात् दीवानी अतिचार तथा अपराधिक अतिचार में कोई अन्तर नहीं था। अतिचार की याचिका (Writ of trespass), जिसे याचिकाओं की जननी (Mother of Writs) कहा जाता था प्रतिकर तथा दण्ड दोनों अपने में समाविष्ट किये थी।

          चूँकि भारतीय अपकृत्य विधि, अंग्रेजी अपकृत्य विधि (Law of Torts) पर आधारित है अत: अंग्रेजी अपकृत्य विधि के विकास का अध्ययन आवश्यक है। प्रारम्भिक काल में अंग्रेजी कामन लॉ (English Common Law) मुख्यतया अधिकारों से सम्बन्धित न होकर उपायों से सम्बन्धित था। किसी व्यक्ति की शिकायत पर उसे तभी उपचार (Remedy) उपलब्ध हो पाता था जब न्यायालय के पास उसकी व्यथा या शिकायत के लिए उपचार पहले से उपलब्ध था। इस प्रकार 14वीं शताब्दी में वादों या शिकायतों की सफलता रिटों (writs) या उपचार की उपलब्धता पर निर्भर रहती थी। उस समय सूक्ति या सिद्धान्त था ‘जहाँ उपचार है। वहीं अधिकार है’ (UBI REMEDIUM IBI JUS) । इस सूक्ति के अनुसार किसी व्यक्ति की व्यथा का परिहार या परिमार्जन इस तथ्य पर निर्भर रहता था कि क्या उस व्यक्ति की शिकायत या व्यथा के परिमार्जन के लिए न्यायालय के पास कोई उपचार (याचिका-writ) पहले से उपलब्ध है कि नहीं? यदि इस प्रश्न का उत्तर नकारात्मक होता था तो उस परिस्थिति में व्यथित व्यक्ति को कोई उपचार प्राप्त नहीं हो पाता था। दूसरे शब्दों में कोई भी व्यक्ति अधिकारपूर्वक न्याय की माँग नहीं कर सकता था। न्याय की उपलब्धता व्यथा या शिकायत के लिए उपचार की उपलब्धता पर निर्भर रहती थी। यदि एक व्यथित व्यक्ति यह सिद्ध नहीं कर पाता था कि उसकी शिकायत या रिट के अनुरूप न्यायालय के पास उपचार उपलब्ध है तो उसकी शिकायत कितनी भी न्यायसंगत क्यों न हो उसे उपचार प्राप्त नहीं हो पाता था। इस प्रकार यदि न्यायालय के पास उपचार (Remedy) उपलब्ध रहता था तभी उसकी शिकायत या व्यथा के लिए उपचार प्राप्त करने के उसके अधिकार को मान्यता दी जाती थी अन्यथा नहीं। इसके अतिरिक्त बादी को सही प्रकार की रिट का चयन करने में सावधानी लेनी पड़ती थी क्योंकि यदि उसने अपनी व्यथा के लिए गलत रिट (writ) का चुनाव किया है जिसके अन्तर्गत उसकी व्यथा नहीं आती थी तो उसका बाद असफल हो जाता था। संक्षेप में इस अवधि में व्यथित पक्षकार को उपचार या न्याय अधिकारपूर्वक प्राप्त नहीं होता था न्याय की उपलब्धता, न्यायालय के पास उपचार (writs) की उपलब्धता पर निर्भर होती थी तथा सिद्धान्त था जहाँ उपचार है वहाँ (अधिकार) न्याय है।

      इस प्रकार न्याय की उपलब्धता प्रक्रिया पर निर्भर रहने की प्रवृत्ति पाँच सौ वर्षों तक चलती रही। सन् 1832 तथा 1833 के दौरान विधि में कुछ परिवर्तन किया गया तथा अन्त में सन् 1852 में कामन ला प्रोसिजर एक्ट, 1852 (Common Law Procedure Act. 1852) पारित किया गया। इस अधिनियम द्वारा रिटों को समाप्त कर दिया गया। अब यह आवश्यक नहीं था कि उपचार की उपलब्धता के लिए व्यथित पक्षकार यह साबित करे कि उसकी व्यथा के अनुरूप उपचार या रिट न्यायालय के पास उपलब्ध है। सन् 1873 के जुडीकेचर अधिनियम में यह स्पष्ट प्रावधान किया गया कि व्यथित पक्षकार के शिकायत पत्र (अभिवचन-Pleadings) में सिर्फ सारवान् तथ्यों का संक्षेप सम्मिलित होना चाहिए, जिस पर वादी अपना मामला आधारित करना चाहता है। अब स्थिति यह है कि जहाँ न्यायालय इस तथ्य से सन्तुष्ट है कि, किसी व्यक्ति का विधिक अधिकार है तथा उस विधिक अधिकार का उल्लंघन, हनन या अतिक्रमण हुआ है तो उसके लिए उपचार उपलब्ध होगा। इस प्रकार अब स्थिति यह है कि न्यायालय द्वारा किसी व्यक्ति के विधिक अधिकारों को मान्यता दी जानी थी। कोई व्यक्ति उपचार, रिटों की उपलब्धता के आधार पर नहीं परन्तु विधिक अधिकार की उपलब्धता के आधार पर उपचार (Remedy) प्राप्त कर सकता था। अब यह सिद्धान्त अस्तित्व में आया जहाँ अधिकार है वहाँ उपचार है (UBI JUS IBI REMEDIUM) इस प्रकार व्यथित पक्षकारों की शिकायतों के आधार पर विभिन्न परिस्थितियों तथा तथ्यों को ध्यान में रखते हुए नवीन रिटों के विकास का युग प्रारम्भ हुआ। अब रिटें या उपचार सीमित न होकर विभिन्न परिस्थितियों तथा तथ्यों के आधार पर भिन्न-भिन्न होने लगे। अब कोई व्यक्ति अधिकारपूर्वक न्याय या उपचार की माँग करने के लिए सक्षम हो गया। संक्षेप में अब स्थिति यह हो गई कि जहाँ कहीं भी न्यायालय को यह प्रतीत होता है। कि किसी व्यक्ति के विधिक अधिकारों का हनन या उल्लंघन हुआ है न्यायालय उसके विधिक अधिकारों को मान्यता देते हुए उसे उपचार प्रदान करेगा। अर्थात् अब उपचार प्राप्त करने का आगर रिटों (writs) की उपलब्धता न होकर उसके विधिक अधिकारों का उल्लंघन हो गया। अब वादी को सिर्फ यही साबित करना होता है कि उसके किसी विधिक अधिकार का उल्लंघन हुआ है यदि न्यायालय इस बात से सन्तुष्ट है कि शिकायतकर्ता के किसी विधिक अधिकारों का अतिक्रमण हुआ है तो न्यायालय उसे उपचार उपलब्ध कराने के लिए। बाध्य है।

     इस “जहाँ अधिकार है वहीं उपचार है” (UBI JUS IBI REMEDIUM), की सूक्ति का उपयुक्त (appropriate) उदाहरण, ऐशबी बनाम व्हाइट (Ashbyv White, (1703) 2LD. Reus 738) नामक बाद है। इस बाद में एक मतदान अधिकारी ने वादी मतदाता को द्वेषपूर्ण रूप से उसके मतदान के अधिकार से वंचित कर दिया था। यद्यपि जिस उम्मीदवार को वादी मत देना चाहता था वह चुनाव जीत गया था तथा बादी को किसी प्रकार की आर्थिक हानि नहीं हुई थी फिर भी मुख्य न्यायाधीश होल्ट (Holt C.J.) ने यह निर्णय किया कि यदि वादी का कोई अधिकार है तो उसे आवश्यक रूप से उस अधिकार को बनाये रखने का कोई साधन (उपाय) भी होना चाहिए तथा यदि वह उस विधिक अधिकार का उपयोग करने से रोक दिया जाता है तो उसके इस अधिकार हनन के विरुद्ध उसे कोई उपचार आवश्यक रूप से उपलब्ध होना चाहिए क्योंकि उपचार के अभाव में अधिकार की उपलब्धता निरर्थक है। इस प्रकार मतदाता को उपचार उपलब्ध कराया गया। इस वाद में जहाँ अधिकार है वहाँ उपचार है (UBI JUS IBI REMEDIUM) के सिद्धान्त का प्रतिपादन करके न्यायमूर्ति होल्ट ने विधि विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

भारत में अपकृत्य विधि का विकास (Development of Law of Tort in India)— भारतीय अपकृत्य विधि अंग्रेजी विधि पर आधारित है। अपकृत्य विधि का भारत में प्रवेश, अंग्रेजों द्वारा अपने शासन काल में कराया गया। सन् 1726 में प्रथम ब्रिटिश न्यायालय, मेयर न्यायालय, स्थापित हुआ जिसका जन्म ब्रिटिश सम्राट के द्वारा प्रदत्त अधिकार के अन्तर्गत हुआ। यह प्रथम न्यायालय था जिसको ब्रिटेन ने मान्यता प्रदान की तथा उसके निर्णयों की अपील इंग्लैण्ड में स्थित प्रिवी काउन्सिल को जाती थी। इस न्यायालय द्वारा अंग्रेजी विधि ही प्रयोग में लाई जाती थी परन्तु जहाँ उपयुक्त (appropriate) विधि उपलब्ध नहीं होती थी वहाँ उस न्यायालय के न्यायाधीश न्याय, साम्या तथा सद्विवेक के सिद्धान्तों के आधार पर निर्णय देते थे। यह सिद्धान्त अत्यन्त विस्तारित था तथा इन सिद्धान्तों की आड़ में ब्रिटिश या अंग्रेजी विधि भारत में प्रविष्ट करायी गयी। अपकृत्य विधि चूँकि ब्रिटिश कामन लॉ का अंग थी अतः इस आड़ में अपकृत्य विधि भारत में प्रवेश करती गयी। भारत में आज भी अपकृत्य विधि संहिता बद्ध विधि नहीं है तथा यह इंग्लैण्ड की सामान्य विधि के नियमों पर आधारित है।

भारत में अपकृत्य विधि के धीमी विकास गति के कारण -इसके प्रमुख कारण निम्न हैं-

(1) जागरूकता की कमी (Lack of Consciousness) अधिकांश भारतीय जनता आज भी साक्षर नहीं है, जो साक्षर है उनमें भी अपने अधिकारों प्रति जागरुकता की कमी है। अधिकांश भारत गाँवों में निवास करता है तथा अधिकांश ग्रामीण जनता अपने •विधिक अधिकारों को जानती ही नहीं है, जो विधिक अधिकारों से भिज्ञ भी हैं उनमें सहन शक्ति की भावना अधिक है। इंग्लैण्ड में जहाँ एक नाई की उपेक्षा के कारण चर्म रोग होने पर उसके विरुद्ध उपचार के लिए वाद लाया जाता है वहीं भारत में यदि नाई की उपेक्षा के कारण कुछ हो जो पर भी उसे सहन कर लिया जाता है। इसी प्रकार यदि अंतः वस्त्र के पहनने पर कोई चर्मरोग या परेशानी हो जाती है तो उसके विरुद्ध इंग्लैण्ड में मुकदमा हो जायेगा परन्तु भारत में इस स्थिति को सहन कर लिया जायेगा। परन्तु अब भारत भी अपकृत्य के मामले में कुछ जागरूक व्यक्ति न्यायालय की शरण में जाने लगे हैं। एक मामले में बस स्टाप पर हाथ देने पर भी दिल्ली नगर निगम की बस के न रोकने पर एक वकील ने वाद संस्थित किया तथा दिल्ली के न्यायालय द्वारा उसे डेढ़ रुपये के साथ-साथ बाद खर्च तथा शारीरिक तथा मानसिक कष्ट एवं अन्य बातों के लिए प्रतिकर दिलाया।

(2) अत्यधिक खर्च (Undue Expenses) तथा विलम्बकारी न्यायिक प्रक्रिया – भारत में विधिक प्रक्रिया विदेशों की अपेक्षा अधिक खचलो है। न्यायिक प्रक्रिय अधिक खचली होने के कारण यह आम भारतीय की पहुँच के बाहर है। श्यामसुन्दर बनाम राजस्थान (ए० आई० आर० 1974 सु० को० 890) नामक बाद में एक विधवा को प्रतिक्रय प्राप्त करने हेतु उच्चतम न्यायालय तक जाना पड़ा तथा उसे 21 वर्षों पश्चात् अपने पति को मृत्यु के कारण सिर्फ 15,000 रुपये प्रतिकर प्राप्त हुआ।

      इस विषय में एक उदाहरण देना चाहूँगा। एक अध्यापक को प्रबन्ध तन्त्र ने वैध नियुक्ति के पश्चात् भी पद ग्रहण नहीं करवाया। उसने बाद किया। वह बाद 30 वर्षों से अधिक अवधि तक चला। जब बाद का निर्णय हुआ तब वह अध्यापक सेवा-निवृत्ति की आयु प्राप्त कर चुका था। न्यायालय ने निर्णय दिया कि चूँकि अध्यापक सेवा-निवृत्ति को आयु प्राप्त कर चुका है अत: उसे उसके पद पर स्थापित तो नहीं किया जा सकता परन्तु उसे उसका वेतन तथा अन्य भत्ते उस अवधि के लिए प्राप्त होंगे जो उसे तब प्राप्त होते यदि उसे नियुक्ति के पश्चात् पद ग्रहण करा दिया गया होता।

(3) क्षमाशीलता की प्रवृत्ति – भारत में एक प्रवृत्ति यह भी है कि अपराध करने वाले को दण्ड भगवान देगा इसलिए हम अपराधी को अपने स्तर पर क्षमा कर देते हैं। साथ ही भारतीय लोग छोटे-छोटे अधिकारों के अविलंघन को चुपचाप सहन कर लेते हैं जबकि इसके विपरीत इंग्लैण्ड में अपने अधिकारों के प्रति सजगता देखी गयी है जिसका परिणाम है कि वहाँ अपकृत्य विधि विकसित है।

( 4 ) निर्धनता – भारत की जनसंख्या का अधिकांश भाग गाँवों में रहता है और उनमें भी ज्यादातर गरीब एवं अनपढ़ है, कुछ तो गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करते हैं। उन्हें अपने अधिकारों के बारे में कोई ज्ञान नहीं है। जिन्हें थोड़ा बहुत ज्ञान है भी वे इतने निर्धन हैं कि न्यायालयों में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। वैसे भारतीय न्यायालयों एवं विधिज्ञों ने गरीबों के लिए सस्ता न्याय सुलभ कराने की व्यवस्था की है लेकिन यह भी जानकारी के. अभाव में लोगों की पहुँच से बाहर है।

(5) अपकृत्य विधि का संहिताबद्ध न होना- यह सुविदित है कि अपकृत्य विधि एक सॉहताबद्ध विधि नहीं है। संहिताबद्ध विधि न होने के कारण इसके नियमों और सिद्धान्तों में निश्चितता और एकरूपता का अभाव है। किसी विधि की अनिश्चितता उस दशा में और भी बढ़ जाती है जब इसमें पूर्व निर्णयों का अभाव होता है। इंग्लैण्ड में यद्यपि पूर्व निर्णय अधिक सुलभ हैं, किन्तु भारत की परिस्थितियों में वे सब लागू नहीं किये जा सकते हैं। भारत में इस विधि पर निर्णयज विधि का अभाव है। इंग्लैण्ड में यद्यपि पूर्व निर्णय अधिक सुलभ हैं, किन्तु भारत की परिस्थितियों में वे सब लागू नहीं किये जा सकते हैं। भारत में इस विधि पर निर्णयज विधि का अभाव है। इसलिए भारत में अपकृत्य विधि धीरे-धीरे एक विकासशील विधि के रूप में अपना अस्तित्व कायम कर रही है जबकि इंग्लैण्ड में यह एक विकसित विधि के रूप में अस्तित्व में है।

     उपर्युक्त कठिनाइयों के बावजूद भारत में अपकृत्य विधि विकासोन्मुख है। मोटर यान अधिनियम, 1939 के अन्तर्गत अब काफी मामले न्यायालय के समक्ष आ रहे हैं। भोपाल गैस काण्ड के कारण व्यक्ति व्यक्तियों को भारतीय न्यायालयों ने उपयुक्त प्रतिकर दिलाया तथा उनके लिए अस्पताल निर्माण का दायित्व यूनियन कारबाइड पर डाला गया। एम० सी० मेहता बनाम भारत संघ (ए० आई० आर० 1987 सू० को० 1086) नामक बाद में उच्चतम न्यायालय ने यहाँ तक कहा कि हम रैलेण्ड बनाम फ्लैचर नामक बाद में सन् 1868 में हाउस ऑफ लाईस द्वारा प्रतिपादित कठोर दायित्व के सिद्धान्त को मानने के लिए बाध्य नहीं हैं तथा न्यायालय ने आगे बढ़ कर पूर्ण दायित्व के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।

      इसी तरह के० एम० बनाम ईस्ट इण्डिया होटल्स लि०, ए० आई० आर० 1997 दिल्ली 201 के बाद में दिल्ली के पाँच सितारा होटल के तरणताल में नुक्स के कारण एक जर्मन अतिथि द्वारा उस ताल में गोता लगाने के लिए छलाँग लगायी गयी और उसे सिर में गम्भीर चोटें आई व 13 वर्ष बाद उसकी मृत्यु हो गयी। दिल्ली उच्च न्यायालय ने पूर्ण दायित्व सिद्धान्त के तहत होटल मालिक को दोषी ठहराया।

प्रश्न 2. अपकृत्य की परिभाषा दीजिए। अपकृत्य तथा अपराध एवं अपकृत्य तथा संविदा भंग में अन्तर स्पष्ट करें। अपकृत्य विधि, अपकृत्य की विधि (Law of Tort) है, या अपकृत्यों की विधि (Law of Torts) है?

Define Tort? Distinguish between Tort and Crime, and Tort and Breach of Contract. Whether Law of Tort is Law of Tort or Law of Torts?

उत्तर- सामान्य रूप से अपकृत्य एक ऐसा वक्र (Twisted) या दुष्टतापूर्ण (wicked) कार्य या चूक है जिससे किसी के विधिक अधिकारों का उल्लंघन होता है। भारत में अपकृत्य या दुष्कृति की परिकल्पना अंग्रेजी विधि की देन है। अपकृत्य, अंग्रेजी शब्द (Tort) टार्ट या (wrong) राँग का हिन्दी रूपान्तरण है। अंग्रेजी शब्द टार्ट (Tort) लैटिन शब्द Tortum (टार्टम) से लिया गया है जिसका अर्थ है, वक्र करना या घुमाना। इसका अर्थ है कि टार्ट या अपकृत्य एक ऐसा कार्य है जो सीधी न होकर घुमावदार या वक्र है। संक्षेप में टार्ट या अपकृत्य एक ऐसा कार्य है जो विधिपूर्ण न होकर अविधिपूर्ण है, जो सीधा न होकर वक्र या घुमावदार है, जो सद्भावपूर्ण न होकर दुर्भावपूर्ण है।

      अपकृत्य विधि विधि की वह शाखा है जो विभिन्न अपकृत्यों से सम्बन्ध रखती है। इस विधि के अन्तर्गत वे मामले आते हैं जहाँ एक व्यक्ति ने किसी अन्य व्यक्ति के विधिक अधिकारों का अतिक्रमण या हनन किया होता है। विधि सभी व्यक्तियों पर यह कर्तव्य अधिरोपित करती है कि वह दूसरे के विधिक अधिकारों का सम्मान करे तथा इस कर्तव्य का उल्लंघन करने वाले कृत्य या चूक को ही हम अपकृत्यपूर्ण कार्य कहते हैं। अपराध एक ऐसा कृत्य है जो आपराधिक विधि द्वारा मान्य कृत्य कर्तव्यों के उल्लंघन से सम्बन्धित है जबकि संविदा भंग, पक्षकारों द्वारा आपसी सहमति से अधिरोपित कर्तव्यों के उल्लंघन या भंग से सम्बन्धित है।

     चूँकि अपकृत्य विधि के अन्तर्गत सम्मिलित किए गए विभिन्न अपकृत्यों की विभिन्न प्रजातियाँ हैं तथा उनकी अलग पृष्ठभूमि होती है अतः अपकृत्य को परिभाषित किया जाना कठिन है। परन्तु विभिन्न विधि शास्त्रियों ने अपकृत्य को निम्न रूप से परिभाषित किया है।

     “अपकृत्य एक दीवानी अपकृत्य है जिसके लिए उपचार सामान्य विधि के अनुसार अपरिनिर्धारित नुकसानी की कार्यवाही करना है तथा जो एकमात्र संविदा भंग तथा न्यास भंग या केवल किसी अन्य साम्यिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं है।”- सामण्ड

       Tort is a civil wrong for which the remedy is a common law action for unliquidated damages and which is not exclusively breach of contract, breach of trust or the breach of other merely equitable obligation.”-Solmond

      सामण्ड अपकृत्य को एक दीवानी अपकृत्य (civil wrong) मानते हैं। इसका अर्थ है सामण्ड के अनुसार अपकृत्य, आपराधिक कृत्य या अपराध से भिन्न है। अपकृत्य तथा अपराध में मुख्य अन्तर यह है कि अपराध में दोषी व्यक्ति को कारावास या अन्य दण्ड से दण्डित किया जाता है जबकि दीवानी कार्यवाहियों का अन्त सामान्यतः अधिकारों का पुनःस्थापन या प्रतिकर दिलाये जाने से होता है। सामण्ड के अनुसार अपकृत्य एक दीवानी (अप) कृत्य है। परन्तु उस दीवानी (अप) कृत्य के लिए उपचार सिर्फ अपरिनिर्धारित प्रतिकर के लिए वाद है। इस प्रकार अपकृत्य एक दीवानी (अप) कृत्य होते हुए अन्य दीवानी दायित्वों के भंग से भिन्न है। अपकृत्य, संविदा भंग, न्यास भंग तथा अन्य साम्यिक दायित्वों से भिन्न है। अपकृत्य में वाद सिर्फ अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ण के लिए लाया जा सकता है। जबकि संविदा भंग जैसे दीवानी अपकृत्य में बाद परिनिर्धारित (liquidated) या अपरिनिर्धारित (unliquidated) क्षति या प्रतिकर के लिए लाया जाता है। सामण्ड अपकृत्य को अपराध, संविदा भंग, न्यास भंग तथा अन्य साम्यिक दायित्वों के भंग से भिन्न (अप) कृत्य मानते हैं। संक्षेप में सामण्ड की परिभाषा के विश्लेषण से अपकृत्य (Tort) के लिए निम्न आवश्यकताएँ हैं –

(1) अपकृत्य एक दीवानी दोष है।

(2) इसका उपचार अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ति के लिए लाया जाने वाला वाद है।

(3) अपकृत्य अन्य दीवानी दोष जैसे, संविदा भंग, न्यास भंग तथा अन्य साम्यिक दायित्व भंग से भिन्न होता है।

     “अपकृत्य पूर्ण दायित्व विधि द्वारा पूर्व निश्चित कर्तव्य भंग से उत्पन्न होता है। यह कर्तव्य सामान्य व्यक्तियों के प्रति होता है। इसके उल्लंघन के लिए उपचार अपरिनिर्धारित नुकसानी या प्रतिकर या क्षतिपूर्ति (Unliquidated damages) के लिए चलाया जाने वाला वाद है।’- विनफील्ड

       “Tortious liability arises from the breach of duty primarily fixed by law, this duty is towards persons generally and its breach is redressible by an action for unliquidated damages.” – Winfield

      विनफील्ड व्यक्ति को लक्ष्य में रख कर अपकृत्य को परिभाषित करते हैं। विनफील्ड के अनुसार अपकृत्य एक ऐसा कृत्य है जो कर्तव्य भंग है, यह कर्तव्य किसी व्यक्ति विशेष के प्रति नहीं होना चाहिए जैसा कि आमतौर पर संविदा भंग के मामलों में होता है। अपकृत्य एक ऐसे कर्तव्य का भंग है जो विधि द्वारा अधिरोपित होता है व्यक्ति द्वारा नहीं। विधि द्वारा अधिरोपित यह कर्तव्य किसी व्यक्ति विशेष के प्रति न होकर सभी (सामान्य) आम व्यक्तियों के प्रति होता है। यह तत्व अपकृत्य को अपराध के निकट लाता है। परन्तु फिर विनफील्ड कहते हैं कि यदि कोई व्यक्ति उस कर्तव्य को भंग करता है तो व्यथित पक्षकार को सिर्फ यही उपचार है कि वह अपकृत्यकर्ता के विरुद्ध अपरिनिर्धारित (Unliquidated) नुकसानी या प्रतिकर के लिए वाद लाये। यह लक्षण अपकृत्य को अपराध से भिन्न करता है क्योंकि अपराध में नुकसानी के लिए वाद नहीं लाया जाता। अपराध में दोषी व्यक्ति को उसके कृत्य (दोष) के लिए न्यायालय द्वारा दण्डित किया जाता है। इस प्रकार विनफील्ड भी अपकृत्य को एक दीवानी दोष या कर्तव्य भंग मानते हैं परन्तु यह कर्तव्य भंग अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ति के लिए बाद के उपचार में परिणत होता है। संक्षेप में विनफील्ड की परिभाषा के विश्लेषण से अपकृत्य के निम्न लक्षण हैं –

(1) अपकृत्य पूर्ण दायित्व विधि द्वारा पूर्व निश्चित कर्तव्य के भंग से उत्पन्न होता है।

(2) ये विधिक कर्तव्य सभी व्यक्तियों के प्रति समान रूप से होते हैं। (3) विधिक कर्तव्य भंग के लिए अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ति के लिए वाद लाया जाता है।

      सामण्ड की परिभाषा से मिलती-जुलती परिभाषा परिसीमन अधिनियम, 1963 की धारा 2 (अ) में दी गई है। इस परिभाषा के अनुसार अपकृत्य एक ऐसा सिविल (दीवानी) अपकार है जो केवल संविदा भंग या न्यास भंग नहीं है- धारा 2 (एम) परिसीमन अधिनियम, 1963

     Tort means a civil wrong which is not exclusively a breach of contract or breach of trust.-Section 2(m) Limitation Act, 1963.

        किसी भी विद्वान द्वारा दी गई अपकृत्य की परिभाषा पूर्ण नहीं है। परन्तु अधिकतर विद्वान विनफील्ड की परिभाषा को बेहतर मानते हैं। संक्षेप में कहें तो अपकृत्य एक ऐसी चूक या कार्य है जिससे विधि द्वारा आम जनता को प्राप्त (जिसमें व्यथित पक्षकार भी हैं) किसी विधि अधिकारों का उल्लंघन होता है। परन्तु यह दीवानी दोष होने के कारण इसमें उपचार अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ति के लिए लाया जाने वाला वाद है तथा यह संविदा भंग या न्यास भंग या अन्य साम्यिक भंग से भिन्न है।

अपकृत्य तथा अपराध में अन्तर –

अपकृत्य (Tort)

(1) अपकृत्य एक दीवानी दोष है।

(2) अपकृत्य में वाद व्यथित पक्षकार लाता है।

(3) अपकृत्य में उपचार सिर्फ अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ति के लिए वाद है।

(4) अपकृत्य एक व्यक्तिगत दोष होता है।

अपराध (Crime )

(1) अपराध एक आपराधिक दोष है।

(2) अपराध में सरकार की ओर से अभियुक्त का अभियोजन किया जाता है।

(3) अपराध समाज के विरुद्ध दोष माना जाता है अतः दोषी व्यक्ति को कारावास या अर्थ दण्ड से दण्डित किया जाता है।

(4) अपराध सामाजिक दोष होता है।

अपकृत्य तथा संविदा-भंग में अन्तर –

अपकृत्य

(1) अपकृत्य एक ऐसा कर्तव्य भंग है जहाँ कर्तव्य विधि द्वारा अधिरोपित है।

(2) अपकृत्य में व्यथित पक्षकार को उपचार के रूप में अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ति हेतु वाद लाना है।

(3) अपकृत्य में कर्तव्य एक विशिष्ट व्यक्ति के प्रति न होकर सामान्य जन के प्रति होता है।

(4) अपकृत्य में कोई भी व्यक्ति जिसके विधिक अधिकारों का हनन हुआ है क्षतिपूर्ति हेतु वाद ला सकता है।

संविदा भंग

(1) संविदा भंग में कर्तव्य सक्षम पक्षकारों की आपसी सहमति से अधिरोपित होते हैं ।

(2) संविदा भंग के लिए उपचार के रूप में वाद परिनिर्धारित तथा अपरिनिर्धारित दोनों प्रकार की क्षतिपूर्ति प्रदान करने हेतु वाद लाया जाता है।

(3) संविदा भंग के मामले में संविदा पूरा करने का कर्तव्य सिर्फ उसी व्यक्ति का होता है जिसने संविदा पालन का वचन दिया है।

(4) संविदा भंग के लिए वह व्यक्ति जो संविदा का पक्षकार नहीं है वाद नहीं ला सकता ।

       क्या अपकृत्य विधि अपकृत्य की विधि है या अपकृत्यों की विधि? (Is it Law of Tort or Law of Torts!)– अपकृत्य विधि के सम्बन्ध में यह प्रश्न उठता है कि अपकृत्य विधि, अपकृत्यों की विधि है या अपकृत्य की विधि है? दूसरे शब्दों में क्या अपकृत्य विधि के अन्तर्गत वे विशिष्ट अपकृत्य ही सम्मिलित हैं जिसके परे विधि की इस शाखा में कोई दायित्व अस्तित्व में नहीं है (अपकृत्यों की विधि) या क्या प्रत्येक अपकृत्यपूर्ण कार्य जिसका कोई औचित्य या अपवाद नहीं है अपकृत्य माना जाना चाहिए।

     उपरोक्त विभेद या मतभेद सामण्ड तथा विनफील्ड के मध्य अपकृत्य विधि को प्रकृति के बारे में विद्यमान मतभेद से उत्पन्न हुआ। सामण्ड ने अपनी पुस्तक “अपकृत्यों की विधि (Law of Torts)” में अपकृत्य विधि को अपकृत्यों की विधि माना है। सामण्ड के अनुसार अपकृत्य विधि कुछ विशिष्ट अपकृत्यों की विधि है तथा व्यथित पक्षकार को सफल होने के लिए यह साबित करना होता है कि उसका मामला कुछ निर्धारित या निश्चित अपकृत्यों में से एक है जिसके लिए पहले से ही उपचार की व्यवस्था है। अर्थात् सामण्ड जहाँ उपचार है वहीं अधिकार (न्याय) है (UBI REMEDIUM IBI JUS) के सिद्धान्त को मान्यता देते हैं। सामण्ड कबूतर के दरबों (Pigeon hole) के सिद्धान्त को मान्यता देते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार प्रत्येक कबूतरों के लिए उनके दरबे निर्धारित होते हैं उसी प्रकार प्रत्येक अपकृत्य के निर्धारित उपचार होने चाहिए। इससे निश्चितता बनी रहती है तथा वादी एवं प्रतिवादी दोनों को निश्चितता के साथ यह विदित रहता है कि उसे सफल होने के लिए क्या साबित करना होगा तथा प्रतिवादी को यह विदित रहता है कि उसे कौन से बचाव उपलब्ध हैं। सामण्ड के सिद्धान्त की आलोचना इस आधार पर की जाती है कि इससे अपकृत्य विधि का विकास बाधित होता है क्योंकि एक बार अपकृत्य विधि को अपकृत्यों की सीमा में बाँध देने से नवीन अपकृत्य विकसित नहीं हो पाते। सामण्ड के समर्थक उसे अपकृत्यों में सीमित करने का लाभ भारतीय दण्ड संहिता के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं जहाँ विधि निश्चित अपराधों को परिभाषित करती है तथा उन अपराधों के लिए निश्चित दण्ड का प्रावधान करती है।

      दूसरी ओर विनफील्ड अपनी पुस्तक अपकृत्य विधि के अन्तर्गत अपकृत्य विधि को अपकृत्य की विधि मानते हैं। विनफील्ड के अनुसार अपकृत्य विधि के अन्तर्गत वह प्रत्येक अपकृत्यपूर्ण कार्य अपकृत्य है जिसके लिए कोई औचित्य या अपवाद (Justification or (excuse) नहीं है। विनफील्ड के समर्थकों के अनुसार अपकृत्य विधि को किन्हीं निश्चित अपकृत्यों की सीमा में बाँधना उचित नहीं है। विनफील्ड के अनुसार विधि एक विकसित विधि है। प्रत्येक व्यक्ति जिसके विधिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ है उसे उपचार प्राप्त करने का अधिकार है। UBI JUS IBI REMEDIUM जहाँ अधिकार (न्याय) है वहाँ उपचार है नामक सिद्धान्त को विनफील्ड ने मान्यता दी 1702 में एशबी बनाम ह्लाइट के बाद में इस सिद्धान्त को मान्यता दी गई थी। इस बाद में मुख्य न्यायाधीश होल्ट (Holt) ने कहा “यदि क्षति कई प्रकार की हो सकती है तो बाद भी कई प्रकार के होंगे तथा प्रत्येक व्यक्ति को अपनी क्षति के लिए उपचार प्राप्त करने का अधिकार होना चाहिए”। चाहे उसका मामला निर्धारित उपचारों के अन्तर्गत आता हो या नहीं।

     चैपमैन बनाम पिकरसगिल, (1762) केवाद में मुख्य न्यायाधीश प्राट ने कहा है कि ” अपकृत्य असीम है, अनन्त है, न तो वे सीमित है और न ही नियन्त्रित है।”

      दोनों सिद्धान्तों में कुछ-कुछ सच्चाई की मात्रा है। दोनों सिद्धान्तों के समर्थक भी अनेक हैं। प्रारम्भ में अपकृत्यों की एक निश्चित संख्या थी जिसके आधार पर ही कार्यवाही की जा सकती थी। कालान्तर में इसका विकास हुआ और अपकृत्यों की संख्या में वृद्धि हुई है। डॉ० ग्लेनविल विलियम्स ने दोनों के मतभेद को संक्षेप में निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किया है

       पहला सिद्धान्त कहता है कि दायित्व के नियम विस्तृत हैं और दूसरा सिद्धान्त कहता है कि दायित्व की अनुपस्थिति के नियम भी विस्तृत हैं, लेकिन किसी सिद्धान्त में कोई सामान्य नियम नहीं दिखाई देता है। डॉ० ग्लेनबिल विलियम्स के अनुसार विधि को निश्चित अपकृत्यों (Pigeon Holes) में एकत्र किया जा सकता है, इसका तात्पर्य यह नहीं है कि पीजियन होल में अपकृत्यों की कमी हैं या उनमें और अपकृत्य जोड़े नहीं जा सकते हैं।

      प्रो० विनफील्ड भी सर जॉन सामण्ड के सिद्धान्त को कुछ हद तक मान्यता देते हैं। प्रोफेसर विनफील्ड कहते हैं कि संकुचित दृष्टिकोण पर व्यावहारिक दृष्टिकोण से सामण्ड का सिद्धान्त यथेष्ट है, लेकिन विस्तृत दृष्टिकोण में पहला सिद्धान्त हो वैध है। यदि हम वर्तमान अपकृत्य विधि को इसके भूत और भविष्य के समस्त विकास से अलग करके देखें तो यह दूसरे सिद्धान्त से अधिक मेल खाता है। लेकिन यदि हम विस्तृत दृष्टिकोण से देखें कि अपकृत्य विधि हजारों वर्षों से विकसित होती आयी है और आज भी विकासशील है, तो पहला सिद्धान्त ही उचित है।

      अतः इससे स्पष्ट है कि प्रो० विनफील्ड का सिद्धान्त अधिक उचित एवं व्यावहारिक है। यदि हम मानते हैं कि अपकृत्य विधि का विकास हुआ है तो हम इस सिद्धान्त की सत्यता को मानने से इन्कार नहीं कर सकते हैं कि अपकृत्य विधि का विकास हो रहा है।

प्रश्न 3. अपकृत्य के आवश्यक तत्वों (लक्षणों) को बताइये। क्या एक हा कृत्य अपकृत्य तथा अपराध, एवं अपकृत्य तथा संविदा भंग दोनों हो सकता है? उदाहरण से समझाइए।

Discuss the essential characteristic (elements) of Tort. Can an act be Tort as well as crime, can an act be Tort as well as breach of contract? Explain with the help of examples.

उत्तर – अपकृत्य की सामान्य संक्षिप्त परिभाषा के अनुसार अपकृत्य एक ऐसा कृत्य या चूक है जिससे किसी व्यक्ति के विधिक अधिकारों का उल्लंघन होता है तथा जिसका उपचार अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ति है।

      इस प्रकार एक कृत्य को अपकृत्य होने के लिए निम्न लक्षण या तत्व का होना आवश्यक हैं –

(1) प्रतिवादी की ओर से कोई कृत्य या चूक होनी चाहिए।

(2) इस (कार्य) कृत्य या चूक के परिणाम स्वरूप कोई विधिक क्षति (injury) होनी चाहिए अर्थात् वादी के किसी विधिक अधिकारों का उल्लंघन होना चाहिए।

(3) इस विधिक क्षति के उल्लंघन का उपचार अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ति होनी चाहिए।

(1) प्रतिवादी की ओर से कोई कृत्य या चूक (Some act or omission on the part of defendant)—किसी व्यक्ति को अपकृत्य के लिए उत्तरदायी बनाने के लिए यह साबित करना आवश्यक है कि उसने कोई ऐसा कार्य किया है जो विधितः उसे नहीं करना चाहिए था या उसने ऐसा कुछ करने में चूक की है जो करना विधितः उसका कर्तव्य था। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति किसी की भूमि पर अनधिकृत प्रवेश करता है या अपमानजनक कथन का प्रकाशन करता है, या किसी व्यक्ति को अनधिकृत रूप से निरुद्ध करता है वह क्रमशः अतिचार, अपमान या मिथ्या कारावास का दोषी माना जायेगा। उसी प्रकार यदि कुछ करना किसी व्यक्ति का विधिक कर्तव्य है तथा वह अपना विधिक कर्तव्य करने में असफल रहता है तो वह उस चूक (omission) के लिए उत्तरदायी होगा। ग्लासगो कारपोरेशन बनाम टेलर [ (1992) 1 अपील केसेज 440] नामक बाद में एक औषधिक उद्यान जो नगर निगम द्वारा संस्थित था, नगर निगम का कर्तव्य था कि वह उद्यान की उचित घेराबन्दी करे जिससे बच्चे जहरीले पौधों पर पहुँच न सकें। नगर निगम ऐसा करने में असफल रहा। एक बच्चा एक विषैला फल खाकर मर गया। नगर निगम को उसकी उस चूक या असफलता के लिए उत्तरदायी ठहराया गया। यह उल्लेखनीय है कि इस शीर्षक के अन्तर्गत चूक ऐसे कर्तव्य की होनी चाहिए जिसको विधि द्वारा मान्यता प्राप्त हो अर्थात् कर्तव्य नैतिक या धार्मिक कर्तव्य न होकर विधिक कर्तव्य होना चाहिए। इस प्रकार यदि कोई भूखे व्यक्ति को खाना देने में चूक करता है या डूबते बच्चे को बचाने में चूक करता है तो ये कर्तव्य नैतिक या सामाजिक प्रकृति के होने के कारण इनके सम्बन्ध में की गई चूक उन्हें उसके परिणामों के लिए उत्तरदायी नहीं बनाती।

      विधिक क्षति (Legal Damage)- अपकृत्य के बाद में सफल होने के लिए वादी को यह साबित करना होगा कि उसे विधिक क्षति हुई है। दूसरे शब्दों में कोई कार्य या चूक हुई है जिससे या तो विधिक कर्तव्य का भंग हुआ है या किसी व्यक्ति में निहित विधिक अधिकारों का उल्लंघन या हनन हुआ है। जब तक विधिक अधिकारों का उल्लंघन या हनन नहीं होता अपकृत्य के अन्तर्गत कोई बाद नहीं लाया जा सकता। इसी प्रकार यदि किसी कार्य या चूक के परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति के विधिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ है तो वह अपकृत्य के लिए प्रतिकर पाने का हकदार होगा भले ही उसे कोई आर्थिक क्षति हुई हो या न हुई हो। इसी प्रकार, यदि किसी कार्य या चूक के फलस्वरूप किसी व्यक्ति के विधिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं होता है परन्तु उसे आर्थिक नुकसान होता है तो वह अपकृत्य के बाद में सफल नहीं हो पायेगा क्योंकि अपकृत्य के वाद में सफल होने के लिए विधिक अधिकारों का उल्लंघन साबित करना आवश्यक है, न कि आर्थिक क्षति। उपरोक्त बातों को निम्न दो सूक्तियों (Maxims) द्वारा प्रकट किया जाता है –

(1) हानि से परे क्षति (INJURIA SINE DAMNO) बिना हानि के क्षति।

(2) क्षति से परे हानि (DAMNUM SINE INJURIA) बिना क्षति के हानि।

(1) हानि से परे क्षति (INJURIA SINE DAMNO) बिना हानि के क्षति (Injury without damage) – सूक्ति, हानि से परे क्षति अपकृत्यके उन मामलों में लागू होती है जो स्वतः अनुयोज्य होते हैं। ऐसे मामलों में वादी द्वारा यह साबित किया जाना आवश्यक नहीं है कि प्रतिवादी के किसी अपकृत्य पूर्ण कार्य या चूक द्वारा उसे आर्थिक हानि हुई है। वादी को सिर्फ यही साबित करना होता है कि प्रतिवादी के कार्य या चूक द्वारा उसके किसी विधिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ है, जैसे भूमि के प्रति अतिचार।

    इस सूक्ति के अनुसार क्षति का तात्पर्य विधिक अधिकारों के उल्लंघन से है। जहाँ क्षति या विधिक अधिकारों का अतिक्रमण या उल्लंघन प्रतिवादी द्वारा किया गया होता है तो उसे उसके परिणामों का दायित्व भुगतना पड़ेगा चाहे उसके कार्य या चूक के कारण वादी को कोई आर्थिक हानि न हुई हो। इस सूक्ति के अनुसार वादी को सिर्फ यह साबित करना होगा कि उसे कोई विधिक अधिकार प्राप्त था तथा प्रतिवादी के अपने कार्य या चूक से उसके इस विधिक अधिकार का उल्लंघन हुआ है। इसमें आर्थिक नुकसान साबित करना आवश्यक होता है।

      एशबी बनाम ह्वाइट [(1703) 3 Lord Raym | Sim LC 13th Ed.) नामक वाद इस बिन्दु पर प्रमुख है। इस वाद में वादी संसद चुनाव का अर्ह (eligible) मतदाता था परन्तु प्रतिवादी मतदान अधिकारी ने अपकृत्य पूर्ण ढंग से उसे मतदान से वंचित कर दिया। जिस प्रत्याशी को वह मत (Vote) देना चाहता था वह विजयी हुआ। इस प्रकार उसे कोई नुकसान नहीं हुआ। परन्तु न्यायालय ने मतदान अधिकारी को अपकृत्य के लिए उत्तरदायी माना। मुख्य न्यायमूर्ति होल्ट ने कहा; यदि किसी व्यक्ति को कोई विधिक अधिकार प्राप्त है तो उसे अपने विधिक अधिकार के प्रयोग करने तथा उसे बनाये रखने का साधन उपलब्ध होना चाहिए तथा यदि उसे उसके अधिकारों के प्रयोग से वंचित किया जाता है तो उसके निमित्त उसे कुछ उपचार उपलब्ध होना चाहिए। उपचार के बिना किसी अधिकार का अस्तित्व व्यर्थ है। विधिक अधिकारों के उल्लंघन में ही नुकसान अन्तर्निहित है। यह आवश्यक नहीं है कि नुकसान आर्थिक ही हो। यहाँ वादी की सफलता का तात्पर्य उसके विधिक अधिकारों को मान्यता देना है। यहाँ जो प्रतिकर दिया जाता है वह प्रतीकारात्मक होता है जो नाममात्र (Nominal) भी हो सकता है। एक रुपया प्रतिकर भी वादी के विधिक अधिकारों को मान्यता देने के लिए पर्याप्त है।

(2) क्षति से परे हानि (DAMNUM SINE INJURIA) बिना क्षति के हानि- इस सूक्ति के अनुसार यदि किसी कार्य या चूक द्वारा किसी व्यक्ति को आर्थिक हानि होती है परन्तु उस व्यक्ति के किसी भी विधिक अधिकार का उल्लंघन नहीं होता तो वह व्यक्ति अपकृत्य के लिए प्रतिकर प्राप्त नहीं कर सकता। इस प्रकार अपकृत्य के बाद में सफल होने के लिए किन्हीं विधिक अधिकारों का उल्लंघन होना एक अपरिहार्य आवश्यकता है। परन्तु यदि किसी व्यक्ति के विधिक अधिकारों का उल्लंघन होता है साथ ही साथ उसे हानि भी होती है तो वह अपकृत्य के बाद में सफल होगा तथा प्रतिकर का अधिकारी होगा। कुछ ऐसे अपकृत्य हैं जिनमें प्रतिकर प्राप्त करने हेतु विधिक अधिकार के उल्लंघन के साथ-साथ आर्थिक नुकसान (damage) भी साबित किया जाना आवश्यक है। इस सूक्ति को स्पष्ट करने हेतु ग्लाइसेस्टर ग्रामर स्कूल बाद [(1410) Y.B. Hill 11 Hen. 4g 47P. 21-36) नामक बाद महत्वपूर्ण है। इस बाद में एक स्कूल अध्यापक ने वादी के स्कूल के सामने एक प्रतिस्पर्धी स्कूल स्थापित किया इसके फलस्वरूप वादी को शुल्क 40 पेन्स से 12 पेन्स शुल्क घटाना पड़ा। इस नुकसान या आर्थिक क्षति के लिए वादी को कोई उपचार नहीं प्रदान किया गया न्यायमूर्ति हैंकफोर्ड ने कहा आर्थिक हानि विधिक अधिकारों के उल्लंघन के बिना भी हो सकती हैं। अपकृत्य के बाद में सफलता के लिए विधिक अधिकारों का अतिक्रमण हुआ है। यह साबित करना आवश्यक है न कि आर्थिक नुकसान।

(3) अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ति (Unliquidated damage)- अपकृत्य का एक आवश्यक लक्षण यह भी है कि इसके उपचार के रूप में न्यायालय द्वारा अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ति उपचार के रूप में प्रदान किया जाता है। अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ति वह है जिसका निर्धारण न्यायालय द्वारा किया जाता है, पक्षकारों द्वारा नहीं। यही तत्व या लक्षण अपकृत्य को संविदा भंग से पृथक् करता है।

क्या एक ही कृत्य अपकृत्य तथा संविदा भंग दोनों हो सकता है?

      कुछ कृत्य ऐसे हो सकते हैं जो अपकृत्य तथा संविदा भंग दोनों हो सकते हैं तथा व्यथित पक्षकार अपकृत्य तथा संविदा भंग दोनों के अन्तर्गत कार्यवाही कर सकता है। उदाहरण के लिए क, अपने पुत्र की चिकित्सा एक चिकित्सक से कराता है। चिकित्सक उपेक्षापूर्ण कार्य करते हुए उसे गलत दवा दे देता है जिससे के के पुत्र की मृत्यु हो जाती है। यहाँ चिकित्सक उपेक्षा (Negligence) के अपकृत्य के अन्तर्गत दोषी होगा तथा क, स्वयं चिकित्सक के साथ उचित चिकित्सा करने की विवक्षित संविदा करता है। जिसका चिकित्सक द्वारा पालन न किए जाने के कारण चिकित्सक संविदा भंग का दोषी होगा। इस प्रकार के चिकित्सक के विरुद्ध उपेक्षा के अपकृत्य तथा संविदा भंग के कारण हुई हानि के लिए नुकसानी का वाद चला सकता है। इसी प्रकार यदि मैं अपना घोड़ा व को उधार देता हूँ तथा व घोड़े को अत्यधिक सवारी लाद कर घायल कर देता है। यहाँ व अपकृत्य तथा संविदा भंग दोनों के लिए दोषी होगा। संविदा के अन्तर्गत इसलिए क्योंकि उसने संविदा की शर्तों के अनुससार घोड़े की सावधानीपूर्वक सवारी नहीं की और अपकृत्य में इसलिए क्योंकि उसने अत्यधिक सवारी द्वारा घोड़े को चोट पहुँचाई।

क्या एक ही कृत्य अपराध एवं अपकृत्य दोनों हो सकता है?

      कई अपकृत्यों को भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत अपराध के रूप में परिभाषित किया गया है। अतः उन्हें अपकृत्य तथा अपराध दोनों माना गया है। अपकृत्य के अन्तर्गत उपचार के रूप में अपरिनिर्धारित क्षतिपूर्ति देय होगी जबकि अपराध के अन्तर्गत दोषी व्यक्ति को दण्डित किए जाने के लिए कार्यवाही की जा सकती है। उदाहरणार्थ आक्रमण, अपलेख, अतिचार, उपेक्षा उपताप आदि ऐसे अपकृत्य हैं जिन्हें भारतीय दण्ड संहिता, 1860 के अन्तर्गत अपराध के रूप में भी परिभाषित किया गया है। आक्रमण एक व्यक्ति के शरीर के विरुद्ध अपकार है तथा उसके लिए उसे अपकृत्य के अन्तर्गत क्षतिपूर्ति भी प्राप्त हो सकती है। जबकि आक्रमण समाज की सुरक्षा के प्रति संकट है। अतः दोषी व्यक्ति को आपराधिक विधि के अन्तर्गत दण्डित किया जा सकता है।

प्रश्न 4. बिना हानि के क्षति एवं बिना क्षति के हानि से आप क्या समझते हैं? समझाइये ।

What do you understand by Injuria Sine Damnum and Damnum Sine Injuria? Explain it.

उत्तर– अपकृत्यात्मक दायित्व के लिए क्षति का होना आवश्यक है। क्षति प्रतिवादी के कृत्य का प्रत्यक्ष परिणाम होती है। सामान्यतया किसी व्यक्ति को पहुँचायी गई सभी क्षति अपकृत्य होती है जब तक कि इसके लिए कोई विधिक औचित्य न हो किन्तु कानून की दृष्टि में प्रत्येक क्षति ‘क्षति’ नहीं होती। अपकृत्य की कार्यवाही करने के लिए वादी को यह साबित करना आवश्यक होता है कि प्रतिवादी के कृत्य से उसे कोई विधिक क्षति हुई हैं। संक्षेप में बिना क्षति के भी किसी विधिक अधिकार का अतिक्रमण हो सकता है। किन्तु क्षति विधिक अधिकार की अवहेलना के बिना नहीं हो सकती है। इस विधिक क्षति का स्पष्टीकरण दो सूत्रों द्वारा किया जाता है –

(i) बिना हानि के क्षति (Injuria Sine Damnum)

(ii) विना क्षति के हानि (Damnum Sine Injuria) |

(i) बिना हानि के क्षति ( Injuria Sine Damnum)- Injuria Sine Damnum का अर्थ हुआ बिना हानि के क्षति। किसी व्यक्ति के विधिक अधिकारों पर हुआ कोई भी हस्तक्षेप अनुयोज्य (actionable) होता है, चाहे उससे उसे कोई वास्तविक हानि हुई हो या नहीं। सामण्ड के अनुसार, अपकृत्य दो प्रकार के होते हैं- एक जो स्वतः अनुयोज्य होता है और दूसरे वे जो केवल वास्तविक क्षति के साबित होने पर ही अनुयोज्य होते हैं। बिना हानि के क्षति, स्वतः अनुयोज्य की श्रेणी में आता है। सारांशतः विधि द्वारा सुरक्षित व्यक्तिगत अधिकारों के अतिक्रमण के लिए अपकृत्य का वाद चलाया जा सकता है, भले ही उससे धन, स्वास्थ्य आदि के रूप में किसी को कोई हानि हो अथवा नहीं। कुछ अधिकार ऐसे होते हैं। जिनके अतिक्रमण के विरुद्ध प्रतिवादी पर बाद तभी चलाया जा सकता है जब उससे वादी को कोई वास्तविक क्षति हुई हो। इसे संक्षेप में इस प्रकार भी कह सकते हैं- बिना हानि के क्षति का तात्पर्य है कि हालांकि वादी को क्षति (विधिक क्षति) हुई है, अर्थात् उसमें निहित किसी विधिक अधिकार का अतिलंघन हुआ है, किन्तु उसको कोई हानि कारित न हुई हो, यह फिर भी प्रतिवादी के विरुद्ध वाद ला सकता है।

      ऐशबी बनाम ह्वाइट (1703) 2 एल० ओ० रेमण्ड 938 का वाद ‘बिना हानि की क्षति’ सूत्र का स्पष्टीकरण करता है। इस वाद में वादी एक संसदीय निर्वाचन क्षेत्र में मतदाता था प्रतिवादी ने, जो एक निर्वाचन अधिकारी था, भूल से वादी के मत को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया जिससे वह अपने इच्छित प्रत्याशी को मत नहीं दे सका इसके बावजूद उसका प्रत्याशी विजयाँ रहा। वादी ने प्रतिवादी पर नुकसानी को वाद संस्थित किया। प्रतिवादी ने यह दलील दी कि उसके द्वारा मत को न लेने के कारण वादी को कोई हानि नहीं हुई थी क्योंकि उसका प्रत्याशी सफल हुआ था अतएव वह किसी प्रकार की नुकसानी पाने का हकदार नहीं था। यह धारित किया गया कि प्रतिवादी उत्तरदायी है।

      मुख्य न्यायाधिपति होल्ट ने कहा कि, “प्रत्येक विधिक अधिकार के अतिक्रमण से हानि होती है चाहे उससे किसी को एक पैसे का भी नुकसान न हो। हानि केवल धन की ही नहो होती है। किसी व्यक्ति के अधिकार के उपयोग में बाधा डालना स्वयं में ही एक हानि है। मानहानि के मामले में व्यक्ति को एक पैसे का भी नुकसान नहीं होता फिर भी वह अनुयोज्य है, क्योंकि इससे उस व्यक्ति के विधिक अधिकार का अतिक्रमण होता है। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति दूसरे का कान पकड़ता है जिससे उसे तनिक भी चोट नहीं पहुँचती फिर भी उसको इसके लिए वाद संस्थित करने का अधिकार है क्योंकि यह उसके व्यक्तिगत अधिकार का अतिलंघन है।”

     म्युनिसिपल बोर्ड आगरा बनाम अशर्फीलाल, (1921) 1 आई० एल० आर० 44 इलाहाबाद 202 के मामले में वादी एक वैध मतदाता के रूप में मतदाता सूची में अपना नाम शामिल किये जाने का हकदार था, किन्तु उसका नाम अवैध रूप से मतदाता सूची में शामिल नहीं किया गया था। इसके परिणामस्वरूप वह अपना मत देने के विधिक अधिकार का प्रयोग करने से वंचित रह गया था। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि उसे विधिक क्षति हुई है और वह इसके लिए नुकसानी पाने का हकदार है।

(ii) बिना क्षति के हानि (Damnum Sine Injuria)- Damnum Sine Injuria का तात्पर्य हानि जो बिना क्षति के अर्थात् विधिक अधिकारों के अतिक्रमण के बिना होती हैं। विधिक अधिकार के उल्लंघन के बिना जो हानि होती है वह चाहे कितनी ही अधिक क्यों न हो अपकृत्य में अनुयोज्य नहीं होती।

      केवल धन या सम्पत्ति की हानि से क्षति नहीं होती है। ऐसे अनेक कार्य होते हैं जो हानिकारक तो होते हैं किन्तु अनुचित नहीं होते और उनके आधार पर अपकृत्य में बाद नहीं चलाया जा सकता है। अपकृत्य में अनुचित कृत्य वे होते हैं जिनके द्वारा वादी के विधिक अधिकारों का किसी प्रकार उल्लंघन होता है। किसी व्यक्ति द्वारा दूसरे को बड़ी से बड़ी पहुँचायी गयी हानी या क्षति के लिए वाद संस्थित नहीं किया जा सकता है, जब तक कि ऐसे अनुचित कृत्य द्वारा बादी के किसी विधिक अधिकार का अतिक्रमण न हुआ हो। यदि किसी व्यक्ति के विधिक अधिकार के प्रयोग से किसी दूसरे व्यक्ति की हानि होती है तो उसके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती है। संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि यदि कोई व्यक्ति उचित सीमा के भीतर अपने सामान्य अधिकारों का प्रयोग करते हुए किसी अन्य व्यक्ति को कोई हानि पहुँचाता है तो उसके विरुद्ध अपकृत्य के लिये कार्यवाही नहीं की जा सकती है। इस सम्बन्ध में सर फ्रेडरिक पोलक ने कहा है कि मनुष्य ऐसे अनेक कार्य करता है जिनसे दूसरों को कुछ न कुछ असुविधा या हानि पहुँचती है या उनसे हानि या असुविधा पहुंचने की सम्भावना रहती है किन्तु इनको किये बिना उसके लिए समाज में अपने साधारण क्रियाकलापों को चलाना भी असम्भव है, अतएव इस प्रकार की हानि या असुविधा के लिए शिकायत नहीं की जा सकती है।

      ग्लूसेस्टर ग्रामर स्कूल का मामला – इस बाद में प्रतिवादी ने जो एक अध्यापक था, बादी की प्रतिद्वन्द्विता में एक नया विद्यालय स्थापित किया। प्रतियोगिता के कारण वादी को छात्रों के शुल्क में अत्यन्त कमी करनी पड़ी। जहाँ वह प्रति छात्र तिमाही शुल्क के रूप में 40 पेंस लेता था वहीं इस नयी परिस्थिति के कारण उसे प्रति छात्र तिमाही शुल्क 12 पेंस ही निर्धारित करना पड़ा। यह धारित किया गया कि इस हानि के लिए वादी को कोई उपचार नहीं मिल सकता। न्यायाधीश हेन्कफोर्ड ने अभिमत व्यक्त किया कि हानि यदि किसी ऐसे कार्य के परिणामस्वरूप होती है, जो विशुद्ध प्रतियोगिता के अन्तर्गत अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए किया गया है, तो वह अवैध नहीं है, चाहे भले ही ऐसे कार्य के परिणामस्वरूप दूसरे पक्ष को हानि उठानी पड़ी हो। ऐसे कार्यों को निरपेक्ष अपकृत्य की संज्ञा दी जा सकती है।

      सीतारमैया बनाम महालक्षम्मा, ए० आई० आर० 1958 ए० पी० 103 इस वाद में चार प्रतिवादियों ने एक जल प्रवाह से आने वाली जलधारा को अपनी भूमि में न आने देने के लिए अपनी ही भूमि में एक खाई बाँधकर बाँध बना दिया। पाँचवें प्रतिवादी ने भी इसी प्रकार स्वतन्त्र रूप से अपनी भूमि पर एक बाँध बनवाया, ताकि जल का प्रवाह उसकी भूमि में भी न आ सके। पाँचों प्रतिवादियों के इन कार्यों के परिणामस्वरूप वर्षा का जल, वादी की भूमि में प्रवाहित होने लगा जिसके परिणामस्वरूप उसे हानि भी कारित हुई। वादी ने न्यायालय से निवेदन किया कि आज्ञापक व्यादेश जारी करके प्रतिवादियों द्वारा अपनी भूमि में बनाये गये बाँधों को तोड़वा दिया जाय तथा खाइयों को भरवा दिया जाये। उसने स्थायी व्यादेश की भी माँग की जिसमें उसने भविष्य में प्रतिवादियों द्वारा खाई और बाँध बनवाने से निवारित करने का निवेदन किया। उसकी भूमि में जल प्रवाह के कारण उसे जो हानि हुई थी, उसकी पूर्ति के निमित्त उसने 300 रुपये के क्षति मूल्य की भी माँग की उच्च न्यायालय ने यह धारित किया कि किसी नदी के समीप भू-स्वामी को यह अधिकार है। भू वह अपनी भूमि पर बाँध बनवा कर नदी के जल प्रवाह को मोड़कर अपनी हानि का निवारण करे, चाहे भले ही उसके ऐसे कार्य के परिणामस्वरूप नदी का प्रवाह मुड़कर पड़ोस की भूमि पर चला जाय और उसको हानि कारित करे यह चूँकि “बिना क्षति के हानि” सूत्र के अन्तर्गत आने वाला एक स्पष्ट वाद था, अतः बादी को कारित हानि के लिए प्रतिवादी उत्तरदायी नहीं ठहराये गये।

     इस प्रकार उषाबेन बनाम भाग्यलक्ष्मी चित्र मन्दिर, ए० आई० आर० 1978 गुजरात 13 के मामले में वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध वाद दायर करके न्यायालय से प्रार्थना किया कि प्रतिवादी को ‘जय संतोषी माँ’ नामक चलचित्र को प्रदर्शित करने से रोक दे क्योंकि इससे उसका धार्मिक भावना को ठेस पहुँचती है। न्यायालय ने निर्णय दिया कि धार्मिक भावना कोई विधिक अधिकार नहीं है इसलिए वादी के किसी विधिक अधिकार का अतिक्रमण नहीं हुआ। अतः प्रतिवादी को दायी नहीं ठहराया गया।

प्रश्न 5. ” सहमति से क्षति नहीं”इस सूक्ति के अन्तर्गत उपलब्ध बचाव को समझाते हुए इस बचाव के अपकारों को वादों की सहायता से समझाइए। क्या आप इस बात से सहमत हैं कि सूक्ति यह है कि “जो स्वेच्छया सहमति देता है उसे क्षति नहीं होती न कि जो जानता है कि उसे क्षति नहीं होगी ?

Explaining the defence available under maxim “VOLENTI NON FIT INJURIA” discuss the exception to this maxim with helps of cases. Do you agree with the view that maxim is Volunti non fit injuria and not scienti not fit Injuria?

उत्तर – यदि कोई व्यक्ति क्षति के लिए सहमति देता है तो वह उस क्षति के विरुद्ध शिकायत नहीं कर सकता। ऐसे व्यक्ति को जिसने किसी क्षति (कार्य) के लिए सहमति दी है। अपकृत्य के अन्तर्गत उपचार प्राप्त नहीं कर सकता। यहाँ वादी स्वेच्छया कोई क्षति सहन करता है तो उसकी सहमति उसके विरुद्ध एक अच्छा बचाव होती है। सामण्ड के अनुसार कोई भी व्यक्ति किसी ऐसे अतिचार को प्रवर्तित (लागू) नहीं करवा सकता जिसका उसने स्वेच्छया परित्याग कर दिया है। इस प्रकार यदि आप किसी व्यक्ति को अपने घर आमन्त्रित करते हैं तो आप उस व्यक्ति के विरुद्ध भूमि के अतिचार के लिए वाद नहीं ला सकते। इसी प्रकार यदि आपने किसी सर्जन को सर्जरी के सामान्य खतरों के प्रति सहमति दी है तो आप सर्जन के विरुद्ध उन सामान्य क्षतियों के लिए शिकायत नहीं कर सकते जो सर्जन द्वारा सद्भावपूर्वक कार्य करते हुए घटित होती है।

       इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति अपने ही प्रतिकूल किसी मानहानि विषय के प्रकाशन की सहमति दे देता है तो वह ऐसे प्रकाशन के लिए प्रकाशक को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकता।

      सहमति विवक्षित या अभिव्यक्त हो सकती है। विवक्षित सहमति (Consent) वह है जो पक्षकारों के आचरण के आधार पर अनुमानित की जाती है। उदाहरण के लिए यदि किसी खिलाड़ी ने किसी खतरनाक खेल में सम्मिलित होने की सहमति दी है तो वह उस विशिष्ट खेल में सामान्य चोटों के विरुद्ध शिकायत नहीं कर सकता। इसी प्रकार क्रिकेट या मोटर रेस सका दर्शक उस क्षति के लिए शिकायत नहीं कर सकता जो उसे क्रिकेट बॉल लगने के कारण या मोटर कार के ट्रैक पर आने के कारण होती है। इसी प्रकार सहमति अभिव्यक्त रूप से बोल कर या लिख कर दी जा सकती है। यह उल्लेखनीय है कि कोई भी व्यक्ति अवैध कार्य या अपराध किए जाने के लिए सहमति नहीं दे सकता। अतः यह तथ्य कि वादी ने स्वयं आक्रमण या प्रहार या हत्या या चोरी किये जाने की सहमति दी थी बचाव के रूप में स्वीकार नहीं होगा।

     हाल बनाम ब्रुकलैण्ड्स आटो रेसिंग क्लब, [(1932) आल० ई० आर० 208.] नामक बाद में वादी प्रतिवादी की भूमि पर आयोजित मोटर रेस का दर्शक था। यहाँ रेस के दौरान दो कारों की भिड़न्त हो गई। एक कार दर्शकों के मध्य घुस गई जिससे वादी को चोट आई। यह निर्णय किया गया कि दर्शक ऐसे खतरनाक खेलों के आयोजन में सम्मिलित होकर उन खतरों के लिए विवक्षित सहमति देते हैं जो ऐसे खेलों में आमतौर पर अन्तर्निहित होते हैं। अतः वादी उपचार का अधिकारी नहीं है।

     पद्मावती बनाम दुग्गा नाइका ( (1975) ए० सौ० जे० 222 | नामक बाद में एक जोप जब पेट्रोल पम्प पर ले जायी जा रही थी अचानक उस जीप के अगली पहिया का एक बोल्ट निकल गया जिससे जीप पलट गई तथा दो यात्री मर गए। बाद लाने पर न्यायालय ने प्रतिकर से इन्कार कर दिया क्योंकि एक तो यह एक अपरिहार्य दुर्घटना थी तथा दूसरे यात्री स्वेच्छा से (सहमति से) जीप में सवार हुए थे।

   न्यायमूर्ति पोलक ने कहा यदि मैं अपने मनोरंजन के लिए विस्फोटक सामग्री (पटाखें) के निर्माण के कारखानों को देखने जाता हूँ। दुकान में विस्फोट हो जाता है, ऐसा प्रतीत होता है कि मैंने उस खतरे के प्रति अपनी सहमति दी थी जो विस्फोट के कारण मुझे हुई है और मेरे पास शिकायत का कोई कारण नहीं है।

सहमति (consent) बचाव के रूप में तभी उपलब्ध होगी यदि यह साबित कर दिया जाय कि –

(1) सहमति स्वतन्त्र थी- यदि सहमति दबाव (उत्पीड़न), कपट या भूल के अन्तर्गत प्राप्त की गई थी तो सहमति स्वतन्त्र नहीं कहीं जा सकती। क्षति उसी कार्य के कारण हुई होनी चाहिए जिसके लिए सहमति दी गई थी। इस प्रकार यदि मैंने किसी व्यक्ति को बैठक में आने के लिए आमन्त्रित किया है परन्तु वह बिना किसी औचित्य के शयनकक्ष में चला जाता है तो वह अतिचार के अपकृत्य का दोषी होगा।

   सिर्फ ज्ञान (जानकारी) होने मात्र से सहमति अनुमानित नहीं की जा सकती क्योंकि सूक्ति है सहमति से क्षति नहीं न कि यह कि ज्ञान से क्षति नहीं है। (The maxim is volunti non fit Injuria not scienti non fit Injuria)- सहमति से क्षति नहीं (volunti non fit injuria) के बचाव का सफलतापूर्वक दावा करने के लिए दो बातें साबित की जानी आवश्यक है-

(1) वादी यह जानता था कि जोखिम (Risk) का अस्तित्व था। (2) जोखिम के अस्तित्व की जानकारी होते हुए भी उसने क्षति सहन करने की सहमति दी थी।

      यदि उपरोक्त शर्तों में से एक शर्त विद्यमान है अर्थात् वादी को खतरे का सिर्फ ज्ञान (जानकारी) थी तो सहमति का बचाव प्रतिवादी को प्राप्त नहीं होगा क्योंकि इस कारण कि वादी को खतरे की जानकारी थी यह अनुमानित नहीं किया जा सकता कि वादी ने खतरों से होने वाली क्षति के लिए अपनी सहमति दी थी क्योंकि कभी-कभी ऐसा होता है कि खतरे को जानते हुए भी व्यक्ति मजबूरी में सहमति देता है

     बाउटर बनाम रॉले रेगिस कार्पोरेशन [(1994) के० बी० 476.] नामक वाद में वादी द्वारा एक घोड़ा-गाड़ी के चालक को उस घोड़ा-गाड़ी को चलाने के लिए कहा गया जिसका घोड़ा भागता था। वादी ने मालिक के आदेश का पालन करते हुए घोड़े को बाहर निकाला घोड़ा उछला और वादी क्षतिग्रस्त हो गया। यहाँ घोड़ा निकालने की सहमति वादी द्वारा नौकर होने की मजबूरी के अन्तर्गत दी गई थी। ऐसी सहमति स्वतन्त्र नहीं हो सकती। न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रतिवादी को सहमति का बचाव उपलब्ध नहीं होगा। वादी प्रतिकर का हकदार है।

      स्मिथ बनाम बाकर ((1891) ए० सी० 325.] इस बाद में वादी प्रतिवादी की खदान में चट्टानों को काटने के लिए छेद करने के लिए नियोजित था। रस्से की सहायता से क्रेन द्वारा पत्थर के टुकड़ों को एक ओर से दूसरी ओर ले जाया जा रहा था। क्रेन वादी के सर के ऊपर में होकर गुजरती थी जब वह कार्य में व्यस्त था क्रेन से एक परिसर पर गिरा, उसे चोट लगी यहाँ नियोजक प्रतिवादी घटना के समय वादी को चेतावनी न देने की उपेक्षा का दोषी यद्यपि वादी को सामान्यतः जोखिम की जानकारी थी। हाउस ऑफ लाईस ने निर्णय दिया कि यहाँ वादी को सिर्फ खतरे की जानकारी थी। अतः “सहमति से क्षति नहीं” का प्रतिवाद प्रतिवादी को उपलब्ध नहीं होगा। इस प्रकार यदि जानकारी के बचाव को सहमति के लिए स्वीकार कर लिया जाय तो आमतौर पर नियोजक अपने दायित्व से बचने के लिए जानकारी के तर्क का प्रयोग करेंगे। था

     डैन बनाम हेमिल्टन [ (1939) 1 के० बी० 509.] नामक बाद में एक महिला एक ऐसी कार में यह जानते हुए चढ़ी कि चालक नशे के अन्तर्गत है। चालक की उपेक्षा के कारण हुई दुर्घटना के फलस्वरूप चालक की मौत तथा उस महिला को चोट लगी। वाद लाये जाने पर महिला के विरुद्ध सहमति का तर्क दिया गया। परन्तु न्यायालय ने इस तर्क को अस्वीकार कर दिया तथा महिला को प्रतिकर दिलाया। न्यायालय ने कारण बताते हुए कहा कि चालक के नशे का स्तर इतना नहीं था कि यह माना जा सके कि महिला ने स्पष्ट खतरे के प्रति अपनी सहमति दी थी।

सहमति के बचाव के अपवाद या सीमाएँ।

(Limitations or Exceptions of Defence of Consent)

सहमति के बचाव के विरुद्ध निम्न अपवाद या सीमाएँ हैं –

(1) बचाव के मामले (Rescue cases)

(2) अनुचित संविदा शर्तें अधिनियम, 1977 (इंग्लैण्ड) ।

(1) बचाव के मामले (Rescue Cases)- “सहमति से क्षति नहीं” सूक्ति का एक अपवाद बचाव के मामले में है। यदि कोई व्यक्ति बचाव करते समय सहमति से भी कोई कार्य करता है तथा उसके परिणामस्वरूप यह क्षतिग्रस्त हो जाता है तो उसे प्रतिकर प्राप्त होगा तथा प्रतिवादी, वादी के विरुद्ध सहमति का बचाव, प्रतिवाद लेकर अपने दायित्वों से बच नहीं सकता। इस अपवाद को लागू होने की महत्वपूर्ण शर्त यह है कि जस खतरे से बचाव किया गया है वह खतरा आसन्न (Imminent) था।

       इस विषय पर प्रमुख वाद हेयन्स बनाम हारवुड [ (1935) 1. किंग बेन्च 146.] है। इस वाद में प्रतिवादी के नौकर ने दो घोड़ा-गाड़ी बिना किसी देख-भाल के सड़क पर छोड़ दी थी, एक लड़के ने घोड़ों पर एक पत्थर फेंका जिससे घोड़े बिदक गये। ऐसा होने से सड़क पर उपस्थित महिलाओं तथा बच्चों के प्रति खतरा उत्पन्न हो गया। एक पुलिस कान्स्टेबिल ने जो निकट थाने पर अपनी ड्यूटी पर था, वह देखते ही दौड़ कर घोड़ों को रोकने लगा। ऐसा करते समय उसे चोट लगी। इसके लिए प्रतिवादी ने सहमति का बचाव लेते हुए कहा कि कान्स्टेबल ने अपनी सहमति से कार्य किया था अतः प्रतिवादी उत्तरदायी नहीं था। न्यायालय ने इस तर्क को अस्वीकार करते हुए वादी को प्रतिकर दिलाया। लार्ड न्यायमूर्ति ग्रोवर ने कहा कि जोखिम स्वीकार करने का सिद्धान्त उस समय लागू नहीं होता जहाँ वादी को प्रतिवादी के अपकृत्य पूर्ण कार्य द्वारा उत्पन्न खतरों से निपटने के लिए अपनी सहमति से बचाव कार्य करते हुए क्षति हुई थी।

    वेगनर (Wagner) बनाम इन्टरनेशनल रेलवे [(1921) 232 New York 176 ] नामक बाद में रेलवे कम्पनी की उपेक्षा के कारण एक यात्री चलती हुई गाड़ी से नीचे गिर गया। जब गाड़ी रुकी तो उसका साथी उसकी खोज में नीचे उतरा, अन्धेरा होने के कारण वह गिर पड़ा। यह निर्णय दिया गया कि यह बचाव का मामला होने के कारण रेल कम्पनी उत्तरदायी थी भले ही वादी स्वेच्छया अपने साथी के बचाव के लिए नीचे उतरा था।

(2) उपेक्षा (Negligence)- उपेक्षा Volenti non fit injuria सिद्धान्त का अपवाद है, अर्थात् जहाँ प्रतिवादी उपेक्षापूर्ण आचरण द्वारा वादी को क्षति पहुँचाता है वहाँ प्रतिवादी यह तर्क नहीं ले सकता कि वादी खतरा जानता था और खतरा जानते हुए उसने खतरे से होने वाली हानि सहन करने की सम्मति दी। सम्मति का यह अर्थ नहीं होता कि प्रतिवादी कोई भी उपेक्षा बरतने के लिए स्वतन्त्र है, विधि की मान्यता यह है कि सम्मति देने के बावजूद, प्रतिवादी को असावधानी नहीं बरतनी चाहिए, और यदि प्रतिवादी असावधानी बरतता है तो उसे सम्मति के बचाव का लाभ उपलब्ध नहीं होगा। यदि किसी व्यक्ति ने शल्य चिकित्सा हेतु सम्मति दी है तो शल्यक्रिया असफल होने पर चिकित्सक के विरुद्ध कोई मामला नहीं बनता, परन्तु यदि चिकित्सक की उपेक्षा के कारण शल्य चिकित्सा असफल रहती है तो चिकित्सक सम्मति का बचाव ले कर अपने दायित्व से नहीं बच सकता।

उदाहरण-‘अ’ एक महिला है जिसके गुर्दे में पथरी है। वह सर्जन ‘ब’ से आपरेशन कराती है। आपरेशन से पहले ‘अ’ नामक महिला खतरा सहन करने की सम्मति देती है। सर्जन ‘ब’ आपरेशन करते समय उपेक्षा से कैंची ‘अ’ के पेट में छोड़ देता है और पेट सिल देता है। ‘अ’ को इससे बहुत हानि होती है, दुबारा आपरेशन कराना पड़ता है। ‘सर्जन’ ‘ब’ दायी होगा क्योंकि उसने आपरेशन में उपेक्षा बरती थी।

सहमति से क्षति नहीं तथा योगदायी उपेक्षा (Contributory Negligence) में अन्तर –

सहमति से क्षति नहीं

(1) सहमति एक पूर्ण अपवाद है। इसके अन्तर्गत प्रतिवादी दायित्व से पूर्ण रूप से मुक्त हो जाता है।

(2) सहमति का तर्क दोषी प्रतिवादी नहीं ले सकता अर्थात् यदि प्रतिवादी दोषी है तो वह यह तर्क नहीं ले सकता।

(3) सहमति के प्रतिवाद में दी जिस खतरे को उठाता है उसके खतरे के स्तर को जानता है।

सहदायी या योगदायी उपेक्षा

(1) योदायी उपेक्षा में वादी तथा प्रतिवादी के मध्य उनके दोष के अनुपात में प्रतिकर का विभाजन हो जाता है वादी के दोष के अनुपात में उसे देय प्रतिकर कम हो जाता है।

(2) योगदायी उपेक्षा में वादी तथा प्रतिवादी दोनों दोषी होते हैं ।

(3) योगदायी उपेक्षा में वादी खतरे से अनभिज्ञ हो सकता है जबकि उसे खतरों की जानकारी होनी चाहिए थी।

प्रश्न 6. (i) अवश्यम्भावी दुर्घटना से आप क्या समझते हैं? क्या प्रतिवादी अवश्यम्भावी दुर्घटना का बचाव ले सकता है? निर्णीत वादों की सहायता से स्पष्ट करें।

(ii) क्या दैवकृत्य एक उचित प्रतिरक्षा है? निर्णीत वादों की सहायता से स्पष्ट करें।

Is good defence an act of God? Explain with the help of decided cases.

उत्तर – (i) अवश्यम्भावी दुर्घटना (Inevitable Accident)- ऐसी दुर्घटना जिसका कि पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता उसे अवश्यम्भावी दुर्घटना की संज्ञा दी जाती है। “दुर्घटना” से तात्पर्य अप्रत्याशित क्षति से है।

       प्रतिवादी द्वारा अवश्यम्भावी दुर्घटना का बचाव लिया जा सकता है। सर फ्रेडरिक पोलक द्वारा अपनी पुस्तक ‘अपकृत्यों की विधि’ (Law of Torts) में कहा है कि अवश्यम्भावी दुर्घटना से तात्पर्य ऐसी दुर्घटना से है जिसे किसी भी सतर्कता द्वारा बचाना सम्भव नहीं था।

      अतः प्रतिवादी यदि यह साबित कर देता है कि न तो उसका आशय बादी को क्षति पहुंचाना था और न ही वह युक्तियुक्त सावधानी बरत कर वादी को क्षति से बचा सकता है, तो यह एक उचित प्रतिरक्षा मानी जाएगी। स्टैनले बनाम पॉविल, (1891) 11 क्यू० बी० के बाद में बादी और प्रतिवादी एक आखेट पार्टी के सदस्य थे और दोनों चिड़ियों तथा चकोर के शिकार पर गये थे। प्रतिवादी ने चकोर पर गोली चलायो परन्तु उसके बन्दूक से निकली हुई गोली एक वृक्ष से टकरा गई और वहाँ से पलट कर वादी को जा लगो जिसे परिणामस्वरूप बादी को क्षति पहुंची। यह अभिनिर्धारित किया गया कि बादी की क्षति दुर्घटनात्मक थी और प्रतिवादी उसके लिए उत्तरदायी नहीं थाfenney

      होम्स बनाम मेथर, (1975) एल० आर० 10 एक्स० 261 के बाद में प्रतिवादी के घोड़ों को उसका सेवक एक राजमार्ग पर चला रहा था। एक कुत्ते के भौंकने से घोड़े इतने भड़क गये कि उन पर नियन्त्रण स्थापित करना कठिन हो गया, अन्ततः उन्होंने बादी को ठोकर मार दी। यह धारित किया गया कि यह एक दुर्घटना थी जिसे सम्यक् सतर्कता एवं सावधानी बरत कर भी टाला जा सकता था, अतः प्रतिवादी उत्तरदायी न थे।

     ब्राउन बनाम केन्डल, (1850) 6 Cush के बाद में बादी और प्रतिवादी के कुत्ते आपस में लड़ रहे थे। प्रतिवादी जय उन्हें एक दूसरे को छड़ी से अलग करने का प्रयास कर रहा था तब दुर्घटनात्मक ढंग से उसके द्वारा वादी की आँख में चोट लग गई जो उसके समीप ही खड़ा था। वादी को हुई क्षति विशुद्ध दुर्घटना का परिणाम माना गया, और यह धारित किया गया कि उसके लिए कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती।

      पद्मावती बनाम डुग्गानाइका, (1975) 1 कर्ना० एल० जे० 93 के बाद में दो अपरिचित व्यक्ति एक जीप में सवार हो गया। उसके कुछ ही देर बाद जीप के सामने के दाहिने पहिये को घुरे से जोड़ने वाला वोल्ट निकल गया और पहिया अक्ष दण्ड (axle) से अलग हो गया। जीप दुर्घटनाग्रस्त हो गई और ये दोनों अपरिचित व्यक्ति गम्भीररूप से घायल हो गये जिसमें से बाद में एक की मृत्यु हो गई। जाँच के परिणामस्वरूप यह ज्ञात हुआ कि यह एक विशुद्ध दुर्घटना का मामला था और कोई साक्ष्य नहीं था, जो यह प्रदर्शित करता कि जीप की खराबी प्रकट थी और ऐसा सांविधिक जाँच के परिणामस्वरूप उसे माना जा सकता था। प्रतिवादी अर्थात् जीप का चालक और उसका स्वामी उत्तरदायी नहीं माने गये।

      श्रीधर तिवारी बनाम उत्तर प्रदेश सड़क परिवहन निगम, (1987) ए० सी० जे० 636 के मामले में उत्तर प्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम की एक बस जब एक गाँव के करीब पहुँची तो एक साइकिल सवार अचानक बस के सामने आ गया और जब बस के चालक ने उसे बचाने के लिए ब्रेक लगाया तो बस सड़क से उछल गई और इस बस का पिछला भाग दूसरी दिशा से आने वाली बस के अगले भाग से टकरा गया। वर्षा होने के कारण सड़क भीग गई थी। यह पाया गया कि दोनों बसें मध्यम गति से चल रही थीं और दोनों बसों के चालको की पूर्ण सावधानी के बावजूद दुर्घटना घटी थी। यह अभिनिर्धारित किया गया कि यह एक अवश्यम्भावी दुर्घटना थी जिसके लिए निगम दायी नहीं है।

(ii) दैवकृत्य (Act of God) – एक उचित प्रतिरक्षा है। दैवकृत्य की परिभाषा देते हुए। पोलक ने कहा कि “दैव कृत्य प्राकृतिक क्रियाओं के अप्रत्याशित परिचालन को कहते हैं जिनका मनुष्य असाधारण बुद्धि का प्रयोग करके भी पूर्वानुमान नहीं कर सकता है।” दैवकृत्य भी एक प्रकार की अनिवार्य दुर्घटना है, अन्तर केवल यह है कि दैवकृत्य के अन्तर्गत प्रतिफलित क्षति अत्यधिक वर्षा, आँधी, तूफान, ज्वार-भाटा और ज्वालामुखी फोस्फो विस्फोट जैसे प्राकृतिक बलों से कारित होती है। निकोलस् बनाम मार्सलैण्ड (1876) 2 एक्स० डी० का मामला इस विषय पर प्रमुख मामला है। प्रतिवादी की भूमि पर वर्षा का पानी एकत्र होने से स्वतः एक कृत्रिम झील बन गयी थी। इसमें पानी एक प्राकृतिक स्रोत से आता था जो कहीं ऊपर से प्रारम्भ होकर प्रतिवादी की झील में आता था। एक वर्ष असाधारण वर्षा होने के कारण यह झील भर गयी और पानी उसके कगारों को तोड़ कर वादी की भूमि पर बहने लगा। पानी के बहाव में वादी के चार पुल बह गये। वादी ने प्रतिवादी पर नुकसानी का दावा दायर किया।

     न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रतिवादी दायी नहीं था, क्योंकि उक्त दुर्घटना एक दुर्घटना थी जिसका पूर्वानुमान प्रतिवादी किसी भी तरह नहीं कर सकता था।

     रामलिंगा नादर बनाम नारायण रेडियार, ए० आई० आर० 1973 केरल 197 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि किसी अनियन्त्रित भीड़ के आपराधिक कार्यकलाप को, जिसके अन्तर्गत प्रतिवादी की लारी द्वारा परिवहन किये गये माल को लूट लिया गया था, दैवकृत्य नहीं माना जा सकता और सामान्य वाहक के रूप में प्रतिवादी इस माल की हानि के लिए उत्तरदायी है। इस वाद में न्यायालय ने यह विचार व्यक्त किया कि “दुर्घटना या तो प्राकृतिक शक्तियों के प्रभाव के कारण हो सकती है, अथवा वह मानव अभिकरणों के हस्तक्षेप अथवा दोनों कारणों से हो सकती है।

      इसी प्रकार कल्लू लाल बनाम हेमचन्द्र, ए० आई० आर० 1958 म० प्र० 48 में सामान्य वर्षा से दोवाल गिरने से दो बच्चों की मृत्यु को दैवकृत्य नहीं माना गया क्योंकि दैवकृत्य के लिए असामान्य वर्षा या प्राकृतिक प्रकोप होना आवश्यक है। ग्रीनाक कारपोरेशन बनाम कैलेडोनियन रेलवे, (1917) ए० सी० 556 के बाद में भी प्रतिवादी को दैवकृत्य का बचाव नहीं दिया गया था क्योंकि इस वाद में भी घटना मानवीय क्रियाओं के कारण हुई थी न कि प्राकृतिक प्रकोप से।

     श्रीराम एजूकेशन ट्रस्ट बनाम सीताबेन अनिल भाई पटेल, ए० आई० आर० (2011) एन० ओ० सी० 221 गुजरात के बाद में भूकम्प के परिणामस्वरूप एक विद्यालय भवन गिर गया और कुछ बच्चों की मृत्यु हो गयी न्यायालय के समक्ष विद्यालय प्राधिकारियों द्वारा “दैव कृत्य” का प्रतिवाद लिया गया जिसे कि न्यायालय ने स्वीकार नहीं किया व निर्णय दिया कि विद्यालय भवन का निर्माण निर्धारित मानक स्तर के अनुसार नहीं था, प्राधिकारियों से भवन उपयोग की अनुज्ञा नहीं प्राप्त की गयी थी, एवं नगर निगम की उपविधियों के अधीन आपेक्षित भवन स्थल की मिट्टी की जाँच व भार सहन करने सम्बन्धी जाँच भी नहीं करायी यौ थी। ऐसी दशा में भूकम्प के रूप में प्राकृतिक महाविपत्ति का अभिवचन विद्यालय प्राधिकारियों/अपीलार्थियों को उनकी उपेक्षा के फलस्वरूप उत्पन्न दायित्व से निर्मुक्ति प्रदान नहीं करता। अपीलार्थी इस बात की सावधानी बरतने के लिए कर्तव्यबद्ध थे कि भवन निर्माण उचित रीति से किया जाय, उसकी नींव मजबूत हो व मिट्टी की प्रकृति निर्माण में सहायक हो एवं निर्माण सामग्री अच्छी हो।

प्रश्न 7 स्वतन्त्र एवं संयुक्त अपकृत्यकर्ता किसे कहते हैं? क्या यह नियम भारत में लागू है? इनमें क्या अन्तर है? स्पष्ट करें।

What do you understand by Independent and Joint Tort Feasors? Is this rule applied in India? Distinguish between Independent and Joint Tort-Feasors.

उत्तर- स्वतन्त्र अपकृत्यकर्ता (Independent Tort Feasors)– जब दो या दो से अधिक व्यक्तियों का कार्य, जब कि वे स्वतन्त्र रूप से उस कार्य को कर रहे हों, किसी एक क्षति को उत्पन्न करने के लिए संवर्तित होता है, तब ऐसे व्यक्तियों को स्वतन्त्र अपकृत्यकर्ता कहा जाता है। ऐसे अपकृत्यकर्ताओं द्वारा पूर्व विचार-विमर्श के बाद कार्य नहीं किया जाता। उनके कार्य के अभिकल्प में केवल समानता रहती हैं, किन्तु वे एक दूसरे से पूर्णतः स्वतन्त्र रहकर उस कार्य को सम्पादित करते हैं। उदाहरणत:- दो मोटर चालक असावधानी से मोटर चलाते हुए एक दूसरे की विपरीत दिशा में से आते हैं और आपस में उनकी भिडन्त हो जाती है। इन दोनों के बीच में एक पैदल यात्री कुचल कर मारा जाता है। वे मोटर चालक स्वतन्त्र अपकृत्यकर्ता हैं।

    द कोर्सक के वाद में दो जलपोतों की अपनी-अपनी उपेक्षा से एक-दूसरे से भिड़न्त हो गई, जिसके परिणामस्वरूप एक जलपोत डूबने लगा और उसने अपने साथ एक तीसरे जलपोत को भी डुवा दिया। यह धारित किया गया कि दोनों जलपोत संयुक्त अपकृत्यकर्ता न होकर एक-दूसरे से स्वतन्त्र अपकृत्यकर्ता थे। स्वतन्त्र अपकृत्यकर्ताओं का दायित्व संयुक्त न होकर एक दूसरे से पूर्णतः पृथक् होता है, अतः जितने अपकृत्यकर्ता होते हैं, उतने ही कार्यवाही के आधार होते हैं। इसके अतिरिक्त यह धारित किया गया कि चूँकि ऐसे मामलों में हर अपकृत्यकर्ता स्वतन्त्र रूप से उत्तरदायी होता है, अः एक अपकृत्यकर्ता के विरुद्ध की गई। कार्यवाही दूसरे अपकृत्यकर्ता के विरुद्ध कार्यवाही करने में बाधक नहीं बनती है।

     संयुक्त अपकृत्यकर्ता (Joint Tort-Feasors)– जब दो या दो से अधिक व्यक्ति मिलकर एक संयुक्त योजना की पूर्ति के आशय से कोई अपकृत्य करते हैं तो वे संयुक्त अपकृत्यकर्ता (Joint fort-feasors) कहे जाते हैं। इसमें संयुक्त रूप से वादी को क्षति पहुँचाने का आशय होना आवश्यक है। किन्तु जब कई व्यक्तियों के स्वतन्त्र अपकृत्य से वादी को क्षति पहुंचती है तो वे संयुक्त अपकृत्यकर्ता नहीं कहे जा सकते हैं और उनके विरुद्ध बाद का कारण एक न होकर भिन्न-भिन्न हो जाता है। उदाहरण- यदि ‘अ’ ‘व’ की मानहानि करता है और ‘स’ बिल्कुल स्वतन्त्र रूप से कार्य करता हुआ ‘ब’ की मानहानि करता है तो ‘अ’ और ‘स’ स्वतन्त्र अपकृत्यकर्ता होंगे और उनके विरुद्ध ‘ब’ अलग-अलग बाद ला सकता है। किन्तु यदि ‘अ’ और ‘स’ दोनों मिल कर ‘ब’ की मानहानि करते हैं तो वे संयुक्त अपकृत्यकर्ता होंगे। इस प्रकार उन व्यक्तियों को संयुक्त अपकृत्यकर्ता कहा जाता है जो एक सामान्य उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपकृत्य करते हैं। किन्तु व्यक्तियों द्वारा केवल उद्देश्य को एक रुपता ही पर्याप्त नहीं है वरन् उस उद्देश्य को पूरा करने के लिए सम्मिलित रूप से कार्यवाही भी आवश्यक है। बूक बनाम बूख, (1928) 2 के० बी० 578 का मामला संयुक्त अपकृत्यकर्ताओं का एक बढ़िया उदाहरण है। इसमें प्रतिवादीगण ‘क’ और ‘ख’ तथा वादी एक ही मकान के दो अलग-अलग भाग में रह रहे थे। रात्रि में प्रतिवादी को ऐसा अनुभव हुआ कि वादी के भाग से गुजरने वाले पाइप से गैस निकल रही है। दोनों खुले टार्च से बारी बारी पाइप की जाँच करने के लिए गये। ‘ख’ जब ऐसा कर रहा था तो पाइप में आग लग गयी और एक बड़ा विस्फोट हो गया। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि प्रतिवादीगण ‘क’ और ‘ख’ संयुक्त अपकृत्यकर्ता थे। यद्यपि विस्फोट केवल एक व्यक्ति के अपकृत्य का परिणाम था किन्तु दोनों का उद्देश्य एक था और दोनों के आपस में पारस्परिक सम्बन्ध भी थे।

संयुक्त दायित्व निम्नलिखित मामलों में उत्पन्न होता है –

(1) अभिकरण (Agency)

(2) प्रतिनिहित दायित्व (Vicarious Liability)

(3) संयुक्त कार्य (Joint of Common Action)।

(1) अभिकरण (Agency)– यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को अपने कार्यों को करने के लिए प्राधिकृत करता है और वह व्यक्ति कोई अपकृत्यपूर्ण कार्य करता है तो विधि के अधीन दोनों को संयुक्त रूप से उत्तरदायी ठहराया जाता है।

(2) प्रतिनिहित दायित्व (Vicarious Liability)– जब एक व्यक्ति एक-दूसरे व्यक्ति के अपकृत्यपूर्ण कार्य के लिए समान रूप से उत्तरदायी ठहराया जाता है तो वे अपकृत्यकर्ता की श्रेणी में आते हैं, जैसे-स्वामी और सेवक के सम्बन्धों से उत्पन्न होने वाले दायित्व।

(3) संयुक्त कार्य (Joint of Common Action)- जब एक से ज्यादा व्यक्ति एक साथ मिल कर कोई अपकृत्यपूर्ण कार्य करते हैं तो सब के सब उत्तरदायी होते हैं और उन पर संयुक्त कार्यवाही का दायित्व होता है।

      संयुक्त अपकृत्यकर्ताओं का दायित्व संयुक्त तथा व्यक्तिगत दोनों प्रकार का होता है, अर्थात् क्षतिग्रस्त व्यक्ति नुकसानी की पूरी धनराशि के लिए उनमें से किसी एक या कुछ पर या उनमें से सभी पर संयुक्त रूप से बाद चला सकता है चाहे उनके भाग लेने की सोमा कुछ भी रही हो। प्रत्येक प्रतिवादी नुकसानी की पूरी धनराशि के लिए दायी होता है। इन सभी के विरुद्ध संयुक्त रूप से दी गयी डिक्री का धन उनमें से किसी एक से वसूल किया जा सकता है।

      भारत के संदर्भ में – भारत में इंग्लैण्ड की भाँति विधि-सुधार अधिनियम, 1945 और सिविल लायेबिलिटी (कान्ट्रीब्यूशन) ऐक्ट, 1978 जैसे अधिनियम नहीं पारित किये गये हैं। इंग्लैण्ड के मेरीबेदर बनाम निक्सन में प्रतिपादित नियम पर भारतीय न्यायालयों में मतैक्य नहीं है। जहाँ कुछ उच्च न्यायालयों ने इस नियम को मान्यता दी है वहीं कई अन्य उच्च न्यायालयों ने इस नियम के भारत में लागू होने पर सन्देह व्यक्त किया है।

      खुशहाल राव बनाम बापूराव गनपतराव, (1912) नागपुर 52 के मामले में एक फर्म में पाँच व्यक्ति भागीदार थे। उन लोगों ने स्वतन्त्र रूप से जंगल में लकड़ी काटने की अनुज्ञा तो ली लेकिन बाद में कुछ कारणवश उसने अपनी स्वीकृति वापस ले ली और भागीदारों से नयो शर्त के आधार पर पुनः समझौता करने के लिए कहा और उन्हें लकड़ी काटने से इन्कार कर दिया। भागीदारों ने इसे मानने से इन्कार कर दिया और सोलह महोने तक लकड़ी काटने का काम चालू रखा। जंगल के स्वामी ने संयुक्त अपकृत्यकर्ताओं के विरुद्ध अनधिकार प्रवेश के लिए वाद चलाया जिसमें न्यायालय ने उसे नुकसानी की डिक्री प्रदान की। डिक्री में उल्लिखित नुकसानी की धनराशि एक ही अपकृत्यकर्ता से वसूल की गई थी। उसने अपने सह-अपकृत्यकर्ताओं पर नुकसानी की धनराशि के परस्पर अंशदान के लिए बाद संस्थित किया। सह-अपकृत्यकर्ताओं ने अपने बचाव में मेरीवेदर बनाम निक्सन, (1799) के नियम का तर्क प्रस्तुत किया। न्यायालय ने यह निर्णय किया कि मेरीवेदर के मामले में प्रतिपादित नियम यहाँ नहीं लागू होता है और वादी को अपने सह अपकृत्यकर्ताओं से नुकसानी को धनराशि के बराबर अंशदान पाने का अधिकार है।

      जबकि इंग्लैण्ड की सामान्य विधि के अधीन नियम यह था कि यदि वादी द्वारा संयुक्त अपकृत्यकर्ताओं के विरुद्ध कार्यवाही करके उनमें से किसी एक से नुकसानी की पूरी रकम वसूल की जा चुकी है तो वह व्यक्ति अपने सह अपकृत्यकर्ताओं से उस रकम का कोई भी भाग वसूल नहीं कर सकता था। संक्षेप में नियम यह था कि संयुक्त अपकृत्यकर्ताओं में अंशदान नहीं किया जा सकता है। यह नियम मेरीवेदर बनाम निक्सान, (1799) 8 टी० आर० 186 के प्रमुख वाद में प्रतिपादित किया गया था।

      परन्तु विधि सुधार अधिनियम, 1925 में मेरीवेदर बनाम निकसन में प्रतिपादित नियम को समाप्त कर दिया गया है। यह अधिनियम यह उपबन्धित करता है कि यदि संयुक्त अपकृत्यकर्ताओं में से किसी एक से नुकसानी को पूरी धनराशि वसूल की जा चुकी हो तो उसे अपने सह-अपकृत्यकर्ताओं के विरुद्ध नुकसानी की धनराशि के परस्पर अंशदान के लिए वाद संस्थित करने का हक होगा।

     संयुक्त एवं स्वतन्त्र अपकृत्यकर्ता में अन्तर– (1) संयुक्त अपकृत्यकर्ता की स्थिति में में यह माना गया है कि इसमें केवल एक ही बाद कारण होता है और इसलिए संयुक्त अपकत्यकर्ताओं में से यदि केवल ही के विरुद्ध निर्णय प्राप्त किया जाता है तो वाद का हेतुक समाप्त हो जाता है। दूसरी तरफ, स्वतन्त्र अपकृत्यकर्ता की स्थिति में यह माना गया है कि उतने वाद कारण हो सकते हैं, जितने कि स्वतन्त्र अपकृत्यकर्ता होते हैं। अत: ऐसे किसी एक अपकृत्यकर्ता के विरुद्ध की गई कार्यवाही अन्य अपकृत्यकर्ताओं के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए बाधा नहीं बन सकती।

      संयुक्त अपकृत्यकर्ताओं में से किसी एक की मुक्ति अन्य समस्त को मुक्ति में प्रतिफलित होती है जब तक कि इसके विपरीत कोई अभिसंविदा न हो। स्वतन्त्र अपकृत्यकर्ताओं की स्थिति इससे भिन्न है अर्थात् उनमें से किसी एक स्वतन्त्र अपकृत्यकर्ता की मुक्ति अन्य अपकृत्यकर्ताओं को मुक्त नहीं करती।

प्रश्न 8. (अ) प्रतिनिहित दायित्व से आप क्या समझते हैं? यह कैसे उत्पन्न होता है?

(ब) सेवक से आप क्या समझते हैं? सेवक तथा स्वतन्त्र ठेकेदार में क्या अन्तर है? एक स्वामी अपने सेवकों द्वारा किये गये अपकृत्यात्मक परिणामों के लिए किन परिस्थितियों में उत्तरदायी होता है? क्या एक व्यक्ति स्वतन्त्र ठेकेदार द्वारा किए गए अपकृत्यात्मक परिणामों के लिए उत्तरदायी होता है? यदि हाँ तो कब ?

(अ) What do you understand by vicarious liability ? How does it arise?

(ब) What do you understand by a servant? What is the difference between servant and independent contractor? In what circumstances, is a master liable for the consequences of tortious act of his servant? Can a person be held liable for the tortuous act of an independent contractor?

उत्तर (अ) – प्रतिनिहित या प्रतिनिधायी दायित्व (Vicarious Liability) – साधारणतया एक व्यक्ति अपने स्वयं द्वारा किये गये अपकृत्यात्मक कार्यों के परिणामों के लिए उत्तरदायी ठहराया जाता है। परन्तु कुछ परिस्थितियाँ ऐसी हैं जिनमें एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा किए गए अपकृत्यात्मक कार्यों के परिणामों के लिए भी उत्तरदायी ठहराया जाता है। ऐसे दायित्व को प्रतिनिधायी (प्रतिनिहित) दायित्व (Vicarious liability) को संज्ञा दी गई है। इसका सबसे प्रमुख उदाहरण सेवक द्वारा किये गए अपकृत्यात्मक कार्यों के लिए स्वामी का उत्तरदायी होना है।

प्रतिनिधायी दायित्व निम्न रीतियों द्वारा उत्पन्न होता है –

(1) अनुसमर्थन द्वारा (By Ratification) 0inaqabat

(2) विशेष सम्बन्ध द्वारा (By Special Relation)

(3) उत्प्रेरण द्वारा (By Abetament)

(1) अनुसमर्थन द्वारा (By Ratification)– यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की ओर से कोई अपकृत्य पूर्ण कार्य करता है जिसके लिए उसे प्राधिकृत (authorised) नहीं किया गया था, परन्तु बाद में यदि वह व्यक्ति उस कार्य का अनुसमर्थन कर देता है तो अनुसमर्थन करने वाला व्यक्ति उस अपकृत्य पूर्ण कार्य के परिणामों के लिए उत्तरदायी होगा जिसका उसने अनुसमर्थन किया है। यहाँ यह अनुमान किया जाता है कि उस कार्य को करने के लिए पहले से ही प्राधिकार दिया गया था। ऐसी परिस्थिति में वह कार्य अनुसमर्थन देने वाले व्यक्ति का कार्य माना जाता है। चाहे उस कार्य से उसे कोई लाभ हुआ हो। या नहीं।

(2) विशेष सम्बन्ध के कारण दायित्व (Liability due to Certain Relationship)- इस शीर्षक के अन्तर्गत दायित्व निम्न सम्बन्धों के अस्तित्व के कारण उत्पन्न होता है –

(i) स्वामी तथा सेवक।

(ii) प्रधान स्वामी (Principal) तथा अभिकर्ता (Agent)1)

(iii) फर्म तथा उसके भागीदार (Firm and its partners)

      ये सम्बन्ध ऐसे हैं जहाँ एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का अभिकर्ता (agent) माना जाता है। इस सम्बन्ध में ऐसा माना जाता है कि अभिकर्ता स्वामी के लिए कार्य करता है तथा अभिकर्ता का कार्य स्वामी का कार्य माना जाता है।

(3) उत्प्रेरण के मामलों में (In cases of Abetement)— यदि एक व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को कोई अपकृत्यात्मक कार्य करने के लिए उत्प्रेरित करता है तो वह उत्प्रेरित करने वाला व्यक्ति उसके उत्प्रेरण के फलस्वरूप किए गए कार्यों के लिए प्रतिनिधायो उत्तरदायित्व के सिद्धान्त के अन्तर्गत उत्तरदायी होता है।

(B) सेवक कौन है? (Who is a servent?)– एक सेवक वह व्यक्ति है जिसे दूसरे व्यक्ति (नियोक्ता स्वामी) द्वारा अपने नियंत्रण तथा निर्देश में कार्य करने हेतु नियोजित किया जाता है। स्वामी (master) वह व्यक्ति होता है जो सेवक को नियुक्त करता है तथा उसे अपने सेवक को आदेशों को देने तथा उनका पालन कराने का अधिकार होता है। सामान्य तौर पर सेवक की नियुक्ति पारिश्रमिक या ईनाम के लिए होती है परन्तु ऐसी भी परिस्थिति हो सकती है जहाँ एक व्यक्ति निःशुल्क (gratuitious) सेवक हो सकता है। स्वामी तथा सेवक का सम्बन्ध तभी स्थापित होता है जब दो व्यक्तियों में से एक आदेश देता है तता दूसरा उसके आदेश का पालन करता है।

      सामान्य नियम के अनुसार स्वामी अपने सेवक द्वारा किए गए कार्यों के परिणामों के लिए उत्तरदायी होते हैं किन्तु वह स्वतन्त्र ठेकेदार (Independent Contractor) के कृत्यों के लिए उत्तरदायी नहीं होता।

      स्वतन्त्र ठेकेदार (Independent Contractor)– एक स्वतन्त्र ठेकेदार वह व्यक्ति होता है जिसे एक व्यक्ति निश्चित कार्य करने के लिए नियुक्त करता है। जहाँ तक उस कार्य के वास्तविक निष्पादन का सम्बन्ध है, वह उस व्यक्ति के नियन्त्रण तथा निरीक्षण निर्देश में नहीं रहता। कार्य करने का उसका अपना स्वतन्त्र ढंग होता है। वह अपने मरजी या विवेक के अनुसार कार्य करता हुआ अपेक्षित परिणाम पर पहुँचता है। वह केवल संविदा की शर्तों के अनुसार कार्य करने के लिए कर्तव्यबद्ध होता है न कि अपने स्वामी के निर्देश या आदेशों के अनुसार।

       उदाहरण के लिए, यदि मेरी मोटर का चालक उपेक्षापूर्ण ढंग से कार चलाता है तथा किसी व्यक्ति को क्षति पहुँचाता है तो मैं उस क्षति के लिए उत्तरदायी हूँ। परन्तु यदि मैं एक टैक्सी में सवारी करता हूँ तथा टैक्सी चालक उपेक्षापूर्ण ढंग से कार्य करते हुए किसी व्यक्ति को क्षति पहुँचाता है तो उस क्षतिकारक परिणाम के लिए टैक्सी चालक स्वयं उत्तरदायी होगा।

       वी० जे० आचार्या बनाम रतीलाल फूलचन्द्र ( ए० आई० आर० 1984 बम्बई 335 ) नामक बाद में डॉ० आचार्य अपनी कार ठीक कराने एक गैराज में ले गए। उन्होंने गैराज के स्वामी को कार की त्रुटि बतायी तथा उसे ठीक करने का आदेश देकर घर चले गये। गैराज का एक मैकेनिक कार को गैराज में ले जा रहा था तथा उसकी उपेक्षा के कारण एक महिला टकरा गई। यहाँ मैकेनिक की उपेक्षा के कारण हुई क्षति के लिए डॉ० आचार्य उत्तरदायी नहीं होंगे क्योंकि मैकेनिक डॉ० आचार्य का सेवक न होकर स्वतन्त्र ठेकेदार था।

      सेवक तथा स्वतन्त्र ठेकेदार में अन्तर- एक सेवक तथा स्वतन्त्र ठेकेदार में प्रमुख अन्तर यह है कि नौकर को कौन सा कार्य किया जाना है यह बताने के साथ-साथ कार्य कैसे किया जायेगा इसका भी निर्देश दिया जाता है तथा उसकी कार्य प्रणाली पर स्वामी का नियन्त्रण रहता है जबकि स्वतन्त्र ठेकेदार को सिर्फ क्या कार्य किया जाना है बताया जाता है तथा कार्य कैसे किया जायेगा उस बारे में स्वतन्त्र ठेकेदार का अपना विवेक होता है।

सेवक

(1) सेवक स्वामी के नियन्त्रण तथा निर्देश में कार्य करता है।

(2) सेवक को ‘क्या (What) किया जाना हैं बताने के साथ कैसे (How) कार्य किया जायेगा यह भी बताना होता है।

(3) एक स्वामी अपने सेवक द्वारा किए गए कार्यों के परिणामों के लिए उत्तरदायी होता है।

(4) सेवक की नियुक्ति तथा पदमुक्ति का अधिकार स्वामी को होता है।

स्वतन्त्र ठेकेदार

(1) स्वतन्त्र ठेकेदार स्वामी के निर्देश में कार्य नहीं करता तथा उसकी कार्यप्रणाली स्वविवेकानुसार होती है।

(2) स्वतन्त्र ठेकेदार को सिर्फ क्या (What) किया जाना है बताना होता है परन्तु कार्य कैसे (How) किया जाता है उस पर स्वामी का नियन्त्रण नहीं रहता।

(3) एक स्वामी अपने स्वतन्त्र ठेकेदारों के द्वारा किए गए कार्यों के परिणामों के लिए उत्तरदायी नहीं होता।

(4) स्वतन्त्र ठेकेदार की नियुक्ति तथा पदमुक्ति का अधिकार स्वामी को नहीं है।

     बड़ोदरा म्युनिसिपल कार्पोरेशन बनाम पुरुषोत्तम वी० मुरुजनी (2015) 3 सुप्रीम कोर्ट केसेस के मामले में एक नाव दुर्घटना में 22 लोगों की डूबकर मृत्यु हो गयी थी। दुर्घटना गुजरात के बड़ोदरा स्थित सूर सागर झील में हुई थी जब नाव अपनी क्षमता से दुगुने यात्रियों को वहन कर रही थी। नाव की क्षमता 20 यात्रियों की थी जबकि उसमें दुर्घटना के समय 38 यात्री थे और उस समय नाव में न तो जीवन रक्षक जैकेट्स थे और न तो जीवन रक्षक गार्ड्स ही तैनात किये गये थे जिससे कि डूब रहे यात्रियों की जान बचाई जा सकती। प्रस्तुत मामले में उच्चतम न्यायालय ने राज्य प्राधिकारियों को प्रतिनिधायी रूप से दायित्वाधीन ठहराया और यह निष्कर्ष दिया कि सूरसागर झील बड़ोदरा म्युनिसिपल कार्पोरेशन के प्रबन्धन एवं नियंत्रण के अधीन थी। म्युनिसिपल कार्पोरेशन ने लोगों के झील में घूमने-फिरने हेतु नाव की व्यवस्था अनुबन्ध द्वारा संविदाकर्मियों से कर रखी थी। कार्पोरेशन के अधिकारियों ने नाव में क्षमता से अधिक यात्रियों के भर लेने की एक प्रकार से अनुमति दे रखी थी, क्योंकि इस मामले में वे उपेक्षावान व लापरवाह थे कि नावों में क्षमता के अनुसार यात्री बैठाये जायँ। कार्पोरेशन का सावधानी बरतने का और उचित निगरानी बरतने का विधिक कर्त्तव्य है कि सार्वजनिक झील में नावों की गतिविधियाँ सुरक्षित प्रकार से हों। मात्र संविदाकर्मियों और कर्मचारियों को ऐसी गतिविधियों के लिए नियुक्त कर देना ही कार्पोरेशन को उसके दायित्वों से उन्मुक्ति प्रदान करने का उचित आधार नहीं हो सकता है और न केवल यह दायित्व संविदाकर्मियों पर हो डाला जा सकता है। विशेषकर ऐसी सार्वजनिक गतिविधियों में जहाँ इस प्रकार की दुर्घटना की सम्भावना हो एवं खतरा स्पष्टतः सन्निहित हो जब तक कि जीवन रक्षक उपायों की व्यवस्था नावों में न कर ली गयी हो जो कि प्रस्तुत मामले में नहीं की गयी थी। अतः शीर्ष न्यायालय ने राज्य आयोग और राष्ट्रीय आयोग द्वारा अनुबन्धित कर्मियों को प्राथमिक रूप से और बड़ोदरा म्युनिसिपल कार्पोरेशन को दुर्घटना हेतु प्रतिनिधायी रूप से दायित्वाधीन ठहराया जाना उचित माना।

     सेवक द्वारा किए गए अपकृत्यों के लिए स्वामी का दायित्व- एक व्यक्ति अपने सेवक द्वारा किए गए अपकृत्यों के लिए निम्न परिस्थितियों में उत्तरदायी होता है –

(1) जिस व्यक्ति द्वारा अपकृत्य किया गया था वह सेवक के रूप में नियोजित था।

(2) अपकृत्य पूर्ण कार्य सेवायोजन के दौरान (In the course of employment ) (सेवा के दौरान) किया गया था।

(1) सेवक के रूप में नियोजन– स्वामी के दायित्व की पहली शर्त यह है कि अपकृत्यकर्ता सेवक था अर्थात् वह सेवक के रूप में स्वामी द्वारा नियोजित होकर कार्य कर रहा था। सेवक होने की सबसे प्रमुख शर्त यह है कि सेवक स्वामी के नियन्त्रण या निर्देश में वेतन या पारितोषिक या पारिश्रमिक के लिए कार्य करता होना चाहिए। परन्तु कुछ वि परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं जहाँ सेवक एक व्यक्ति द्वारा नियोजित होता है परन्तु वह दूसरे व्यक्ति के नियन्त्रण में कार्य कर रहा होता है या कुछ तकनीकी मामलों में जहाँ विशिष्ट ज्ञान या तकनीकी जानकारी के अनुसार कार्य करना आवश्यक होता है वहाँ सेवक अपने विवेक के अनुसार कार्य करता है तथा ऐसी परिस्थितियों में स्वामी के निर्देश के अन्तर्गत कार्य करना परिस्थितियों के अनुसार उचित नहीं होता। उपरोक्त दोनों परिस्थितियों में सेवक- स्वामी की कसौटी, नियन्त्रण या निर्देशन की नहीं रह जाती। ऐसी परिस्थितियों में यह देखा जाता है कि कौन भुगतान कर्ता है तथा किसे पदनियुक्ति तथा पदमुक्ति का अधिकार है। (Who is pay master? Who has right to hire and fire?)

       श्रीमती कुन्दन कौर बनाम शंकर सिंह ( ए० आई० आर० 1966 पंजाब 394. नामक बाद में शंकर सिंह एक फर्म का भागीदार था जो ट्रक स्वामी थे। उन्होंने अपना ट्रक एक ट्रान्सपोर्ट कम्पनी को किराये पर दिया। जब ट्रान्सपोर्ट कम्पनी द्वारा माल ले जाया जा रहा था। चालक की उपेक्षा के कारण उसके साथ बैठा व्यक्ति मारा गया। इस वाद में यह प्रश्न उठा कि क्या शंकर सिंह की फर्म इस क्षति के लिए उत्तरदायी थी? उच्च न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया कि यहाँ चालक का स्वामी शंकर सिंह की फर्म थी। यहाँ केवल सेवाओं का अन्तरण हुआ था। चालक पर नियन्त्रण या अन्तरण नहीं हुआ था। चालक के सम्बन्ध में भुगतान करने तथा पदमुक्ति का अधिकार हो सेवक-स्वामी सम्बन्धों की कसौटी थी तथा चूँकि यह नियन्त्रण शंकर सिंह की फर्म में निहित था अतः ये ही वास्तविक स्वामी होने के कारण उत्तरदायी थे।

      इसी प्रकार अस्पताल के मामलों में चिकित्सक, तकनीशियन, जहाज तथा वाहनों के बारे में चालक भले ही स्वामी के निर्देशों के अनुसार कार्य नहीं करते वहाँ जिस व्यक्ति के हाथ में भुगतान तथा पदनियुक्ति तथा पदमुक्ति का अधिकार है वही व्यक्ति स्वामी के रूप में उत्तरदायी होगा।

      के० सी० डी० बनाम मिनिस्ट्री ऑफ हेल्थ [ (1951) 1 आल इंग्लैण्ड रिपोर्टर (All Ex.) 574.] नामक बाद में एक हाउस सर्जन तथा अन्य स्टाफ की उपेक्षा के लिए अस्पताल के प्राधिकारियों को उत्तरदायी ठहराया गया।

(2) सेवा के दौरान (In the course of Employment)– ‘सेवा के दौरान शब्दावली उस समयावधि का द्योतक है जिसके दौरान एक व्यक्ति अपने स्वामी की सेवा में रहता है। चूँकि इस अवधि में सेवक स्वामी के लाभ के लिए कार्य करता है, अतः स्वामी सेवक द्वारा उस सेवा अवधि के दौरान किए गए अपकृत्यों के परिणामों के लिए उत्तरदायी होगा।

    स्टेट बैंक बनाम श्यामा देवी आई० आर० 1978 सु० को० 1263.) नामक वाद में एक बैंक के ग्राहक के कुछ रुपये एक बैंक के लिपिक को घर पर जमा करने को दिया तथा रसीद भी नहीं ली। उस लिपिक ने धन जमा नहीं किया। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि यह नहीं कहा जा सकता कि लिपिक ने स्वामी के सेवा के दौरान रुपया प्राप्त किया था। अतः स्वामी (बैंक) उत्तरदायी नहीं होगा।

     लायड बनाम ग्रेस स्मिथ एण्ड कम्पनी [(1972) ए० सी० 716.] नामक बाद में एक वकील के लिपिक ने सेवा के दौरान एक महिला को उसके घर के लाभ पूर्ण उपयोग के लिए घर बेच देने की सलाह दी परन्तु धोखे से घर अपने नाम लिखवा लिया। हाउस ऑफ लाईस ने एक मत से वकील की फर्म को उत्तरदायी ठहराया क्योंकि वकील फर्म का सेवक था और सेवा योजन (In the course of employment) के दौरान कार्य कर रहा था।

      स्वतन्त्र ठेकेदार के द्वारा किए गए कार्यों के लिए दायित्व (Liability for Torts committed by independent contractor) – सामान्य नियम के अनुसार एक व्यक्ति स्वतन्त्र ठेकेदार के द्वारा किए गए अपकृत्यों के परिणामों के लिए उत्तरदायी नहीं होता। क्योंकि स्वतन्त्र ठेकेदार स्वयं के हित के लिए कार्य करता है। स्वतन्त्र ठेकेदार स्वामी के नियन्त्रण तथा नियोजन में कार्य नहीं करता। उसे सिर्फ क्या करना है, यही बताना पड़ता है। वह कार्य कैसे किया जाना है उसके बारे में स्वतन्त्र ठेकेदार स्वतन्त्र होता है। परन्तु निम्न अपवादित परिस्थितियों में एक व्यक्ति स्वतन्त्र ठेकेदार (Independent Contractor) द्वारा किए गए कार्यों के परिणामों के लिए उत्तरदायी होता है।

(1) यदि स्वामी अवैध कार्य करने के लिए स्वतन्त्र ठेकेदार को अधिकृत करता है तो उससे होने वाली समस्त क्षतियों के लिए नियोजक या स्वामी उत्तरदायी होता है क्योंकि यहाँ स्वामी स्वयं अवैध कार्य का पक्षकार होता है। अतः वह संयुक्त अपकृत्यकर्ता होता है।

        मगरभाई बनाम ईश्वर भाई (ए० आई० आर० 1984 गुजरात 69.) नामक बाद में एक मंदिर के न्यासी ने सजावट कर रहे विद्युत मिस्त्री को अवैध ढंग से बिजली लेने के लिए प्राधिकृत किया। इससे खेत में कार्य कर रहे कृषक को क्षति हुई। गुजरात उच्च न्यायालय ३ निर्णय दिया कि स्वामी इस स्वतन्त्र ठेकेदार के द्वारा सम्पन्न किए गए कार्य से उत्पन्न क्षति के लिए उत्तरदायी होगा।

(2) कठोर दायित्व के मामले में- जैसा कि रैलेण्ड बनाम फ्लेचर [(1868) L.R 3 H.L. 330.) नामक बाद में नियम प्रतिपादित किया गया यदि एक व्यक्ति अपनी भूमिका असहज एवं अस्वाभाविक उपयोग करते हुए अपनी भूमि पर खतरनाक वस्तु लाता है, या संग्रहीत करता है और यदि उस वस्तु का उसके नियन्त्रण से पलायन हो जाता है तो उससे होने वाली क्षति के लिए उसका कठोर दायित्व होगा अर्थात् यह बचाव उपलब्ध नहीं होगा कि उसने कार्य स्वतन्त्र ठेकेदार द्वारा कराया था। ऐसी दशा में वह उत्तरदायी होगा भले ही उसने कार्य स्वतन्त्र ठेकेदार द्वारा करवाया था।

(3) राजमार्ग पर हुए क्षतिकारक निर्माणों से क्षति– यदि आम रास्ते पर कोई कार्य कराया जाता है तो उस कार्य से होने वाली क्षति के लिए स्वामी उत्तरदायी होता है भले ही वह कार्य स्वतन्त्र ठेकेदार द्वारा कराया गया हो। टैरी बनाम एण्टन [ (1876) क्वीन बेंच डिवीजन 314.] नामक बाद में प्रतिवादी के घर के निकट प्रतिवादी द्वारा पगडंडी पर एक लैंप लटकाया गया था। यह कार्य स्वतन्त्र ठेकेदार द्वारा कराया गया था तो भी उसके टूटकर गिर जाने से वादी को हुई क्षति के लिए स्वामी को उत्तरदायी ठहराया गया।

(4) यदि प्रतिवादी द्वारा कराया गया कार्य किसी पड़ोसी की भूमि से समर्थन (support) वापस ले लिया गया है तो भले ही स्वतन्त्र ठेकेदार द्वारा कराया गया हो, स्वामी इससे होने वाली क्षति के लिए उत्तरदायी होगा।

प्रश्न 9. (i) राज्य के प्रतिनिधायी दायित्व पर संक्षिप्त निबन्ध लिखें।

Write short essay on Vicarious Liability of State.

(ii) विद्वेषपूर्ण अभियोजन के आवश्यक तत्व बताइए। उसमें क्या साबित किया जाना आवश्यक है?

Discuss the essential elements of malicious prosecution. What is essential to be proved under malicious prosecution?

उत्तर (i)-राज्य का प्रतिनिधायी दायित्व (Vicarious Liability of State) प्रतिनिधायी दायित्व के सम्बन्ध में जहाँ एक व्यक्ति के अपकृत्यपूर्ण कार्य से होने वाली क्षति के लिए दूसरा अन्य व्यक्ति उत्तरदायी होता है, एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि राज्य अपने कर्मचारियों या सेवकों द्वारा किये गये अपकृत्य से होने वाली क्षति के लिए किस सीमा तक उत्तरदायी होता है।

      इस विषय में भारतीय विधि, आंग्ल विधि के सिद्धान्तों पर आधारित है। कामन लॉ में पहले यह सिद्धान्त था कि राजा न्याय का स्रोत है तथा राजा अपकृत्य कर ही नहीं सकता अतः राजा पर एक अपकृत्य पूर्ण कार्य करने के लिए उत्तरदायित्व डालने का प्रश्न ही नहीं उठता। राजा सभी दायित्वों से मुक्त है और इसलिए राजा अपने सेवकों द्वारा किये गये अपकृत्य के लिए उत्तरदायी नहीं है। अपकृत्य करने वाला व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होता था तथा यह बचाव नहीं ले सकता था कि यह सम्राट के आदेशों के अन्तर्गत किया गया था या ऐसा करना राज्य की आवश्यकता थी। परन्तु इंग्लैण्ड की इस कामन लॉ विधि में क्रान्तिकारी परिवर्तन हो गया तथा Crown Proceedings Act, 1947 (क्राउन प्रोसीडिंग एक्ट, 1947) के पारित होने के पश्चात् सम्राट अपने सेवकों द्वारा किए गए अपकृत्य से किसी को होने वाली क्षति के लिए उसी प्रकार उत्तरदायी होगा जिस प्रकार एक व्यक्तिगत स्वामी।

भारत में क्राउन प्रोसीडिंग अधिनियम, 1947 की भाँति कोई अधिनियम या सांविधिक प्रावधान नहीं है जिसमें राज्य के दायित्वों के बारे में उल्लेख हो। राज्य के दायित्व के बारे में कुछ प्रावधान भारतीय संविधान के अनुच्छेद 300 में मिलते हैं। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 300 यह प्रावधान करता है कि संघ सरकार तथा राज्य सरकार के विरुद्ध वाद लाया जा सकता है तथा वे भी अन्य व्यक्तियों के विरुद्ध वाद ला सकते हैं। परन्तु यह किन परिस्थितियों में किया जा सकता है, इसका उल्लेख नहीं किया गया है। अनुच्छेद 300 के अनुसार संघ सरकार तथा राज्य सरकारें उसी प्रकार वाद ला सकती हैं या उन पर उसी प्रकार बाद लाया जा सकता है जैसे कि यदि संविधान न आया हो तो वे करतीं। इस स्थिति की जानकारी करने हेतु हमें संविधान आने के पूर्व की स्थिति से परिचित होना होगा। भारत सरकार अधिनियम, 1935 भी इस अधिनियम के पारित होने के पूर्व की स्थिति को मान्यता देता है। इसी प्रकार के प्रावधान भारत सरकार अधिनियम, 1935 तथा 1858 में मिलते हैं। अतः वर्तमान स्थिति जानने के लिए हमें सन् 1858 से पूर्व की स्थिति का अवलोकन करना होगा। सन् 1858 के पूर्व देश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रशासन में था। प्रशासन के लिए उत्तरदायित्व के अतिरिक्त ईस्ट इण्डिया कम्पनी अपने लिए व्यापार भी करती थी। पेनेन्स्यूलर एण्ड ओरिएण्टल स्टीम नेवीगेशन कं० बनाम सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर इण्डिया (1861) में प्रीवो काउन्सिल ने निर्णय दिया कि यदि कार्य सम्प्रभु कार्यों के अन्तर्गत किया गया है तो कम्पनी उत्तरदायी नहीं होगी। परन्तु यदि अपकृत्यपूर्ण कार्य असम्प्रभु कार्यों के अन्तर्गत किया गया है तो ईस्ट इण्डिया कम्पनी उत्तरदायी होगी। उपरोक्त बाद में बन्दरगाह का रख-रखाव एक असम्प्रभु कार्य माना गया। अत: उसके सेवकों की उपेक्षा के लिए सरकार उत्तरदायी होगी। आज से 150 साल पूर्व सम्प्रभु कार्यों की व्याख्या की गई। सम्प्रभु कार्य वे हैं। जो कोई व्यक्तिगत क्षमता के अन्तर्गत नहीं कर सकता। यदि सरकार का कार्य इस प्रकृति का है कि उसे करने की क्षमता एक निजी व्यक्ति में है तो उस कार्य को असम्प्रभु कार्य कहा जायेगा तथा सरकार के सेवकों द्वारा उस प्रकृति के कार्यों को करने में हुई क्षति के लिए सरकार उसी प्रकार उत्तरदायी होगी जिस प्रकार व्यक्तिगत स्वामी तथा जिस कार्य को एक व्यक्तिगत आदमी नहीं कर सकता जैसे प्रतिरक्षा, सेना, विदेश नीति आदि उसे सम्प्रभु कार्य कहा गया तथा उसके अन्तर्गत किये गए कार्यों के परिणामस्वरूप यदि किसी व्यक्ति को क्षति होती है तो सरकार उत्तरदायी नहीं होगी। नोबिन चन्द्र डे बनाम सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फार इण्डिया [(1975) 1 Cal 11.] में सम्प्रभु (अधिकारी) शक्ति के अन्तर्गत किये गए कार्यों के लिए सरकार को उत्तरदायी नहीं निर्णीत किया गया। नोबिन चन्द्र के बाद में वादी का तर्क था कि राज्य ने उससे गाँजा बेचने की संविदा की थी तथा संविदा भंग के लिए राज्य उत्तरदायी था। साक्ष्य में यह पाया गया कि कोई संविदा नहीं थी परन्तु यदि होती भी तो भी यह सम्प्रभु कार्य होने के कारण राज्य उत्तरदायी नहीं था। जमानत वापस नहीं मिल सकती।

      नोबिन चन्द्र के वाद में जहाँ बादी ने गाँजा की दुकान के लिए अनुज्ञप्ति की नीलामी में उच्चतम बोली बोलने पर अनुज्ञप्ति प्राप्त करना चाहा वहाँ कलकत्ता उच्च न्यायालय ने राज्य को न तो अनुज्ञप्ति देने के लिए बाध्य किया और न ही वह जमा धनराशि वापस पा सकता है क्योंकि राज्य का उक्त कार्य सम्प्रभ कार्यों में से एक है। इसके विपरीत सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फार इण्डिया बनाम हरी भानजी ((1882) 1 LR. Mad. 273.] के बाद में वादी ने आयात कर (Import duty) के रूप में उससे अवैध रूप से जमा किया गया धन वापस माँगा और सफल हुआ। हरी भान जी के बाद में मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा, “जहाँ वह कार्य जिसके बारे में शिकायत की गई थी देश की विधि के अन्तर्गत किया जा सकता है तथा विधि द्वारा किये गये अधिकार के अन्तर्गत किया गया यह तथ्य कि वह कार्य सम्प्रभु शक्ति द्वारा किया गया था वह ऐसा निजी व्यक्ति द्वारा किया जा सकने वाला कार्य नहीं है तो वह दीवानी न्यायालय के क्षेत्राधिकारों के बाहर नहीं करेगा। हरी भानजी के बाद का निर्णय नोबिन चन्द्र के निर्णय से भिन्न है। इस विचारधारा के अनुसार राज्य के कार्य का प्रतिवाद राज्य अपने नागरिकों के विरुद्ध नहीं ले सकता। इस विचारधारा के अनुसार राज्य अपने नागरिकों के प्रति सम्प्रभु कार्यों के निष्पादन में होने वाली क्षति में भी उत्तरदायी होगा तथा सम्प्रभु कार्य का तर्क अपने नागरिकों के विरुद्ध नहीं लिया जा सकता तथा अपने नागरिकों के प्रति राज्य सामान्य नियोजक की भाँति उत्तरदायी होगी।

      शोभाग मल जैन बनाम राजस्थान राज्य, ए० आई० आर० (2006) राजस्थान 66 के बाद में पिटीशनर ने अपनी गर्भवती पत्नी को एक सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया। उसने जुड़वा बच्चे को जन्म दिया किन्तु जन्म के पश्चात् डॉक्टरों की उपेक्षा के कारण अत्यधिक रक्तस्राव के नियंत्रित न होने के कारण उसकी मृत्यु हो गयी। चिकित्सा निदेशक ने अपनी रिपोर्ट में डॉक्टरों को उपेक्षावान ठहराया और यह कहा कि चिकित्सकों ने वादी की पत्नी को देखभाल में विलम्ब किया जिसके कारण उसकी मृत्यु हुयी। न्यायालय ने निर्णय दिया कि राज्य सरकार सम्बन्धित चिकित्सकों के उपेक्षापूर्ण कृत्य के लिए दायी थी, न्यायालय ने प्रतिकर की रकम के मामले में निर्णय दिया चूँकि पत्नी की आयु 30-35 वर्ष के बीच थी। अतः मोटरबान अधिनियम के अधीन अनुसूची में विहित 17 के गुणांक तथा उच्चतम न्यायालय के लता वाधवा बनाम बिहार राज्य, (2001) एस० सी० 3218 के मामले में दिए निर्णय का अनुसरण करते हुए उसके द्वारा परिवार को प्रदान की गई विभिन्न सेवाओं को आधार मान कर 3,000 रुपये प्रतिमाह और 36,000 रुपये वार्षिक प्रतिकर निर्धारित किया। इस प्रकार न्यायालय ने पिटीशनर की प्रतिकर की रकम 3,000×12 x 17= 6,12,000 तथा 50,000 पारम्परिक रकम कुल मिलाकर 6,62,000 रुपये निर्धारित किया।

    इस प्रकार हम देखते हैं कि सरकार अपने कर्मचारियों द्वारा किये गए अपकृत्य के लिए होने वाली क्षति के लिए सिर्फ उन्हीं अवस्थाओं में उत्तरदायी होती है जब कि किया गया कार्य असम्प्रभु प्रकृति का है अर्थात् जिन कार्यों की प्रकृति ऐसी है जो एक सामान्य व्यक्ति द्वारा किया जा सकता है, वह असम्प्रभु कार्य है तथा जो कार्य एक सामान्य व्यक्ति नहीं कर सकता, उसे सम्प्रभु कार्य कहा गया है और इससे होने वाली क्षति के लिए सरकार का प्रतिनिधिक दायित्व (vicarious liability) नहीं है। सम्प्रभु कार्य तथा असम्प्रभु कार्यों की यह परिभाषा आज से करीब 150 वर्ष पूर्व पी० एण्ड ओ० नेविगेशन के बाद में प्रीवी काउन्सिल द्वारा निर्धारित की गई थी जो आज तक भारत के न्यायालयों का इस विषय पर मार्गदर्शन करती आ रही है। इंग्लैण्ड में क्राउन प्रोसीडिंग एक्ट के पारित हो जाने के बाद उस अधिनियम के अन्तर्गत सरकार अपने कर्मचारियों द्वारा कारित अपकृत्य के लिए उत्तरदायी है। अमेरिका में सरकारी दायित्वों के लिए फेडरल टॉर्टस क्लेम अधिनियम, 1946 है। जिसके प्रावधानों के अनुसार इंग्लैण्ड की भाँति अमेरिका में भी सरकार अपने सेवकों द्वारा किये गए अपकृत्यों से होने वाली क्षति के लिए उत्तरदायी है। इसी प्रकार की कोई विधि भारत में भी आवश्यक है। जिससे न्यायालय को मार्गदर्शन मिले। हरी भानजी के बाद द्वारा उत्पन्न विवाद के पश्चात् स्वतन्त्र भारत में प्रथम विधि आयोग की रिपोर्ट को प्रभावशाली बनाने हेतु सन् 1967 में एक विधेयक “अपकृत्य में सरकारी दायित्व विधेयक, 1965” नाम से संसद में पेश किया गया परन्तु दुर्भाग्य तथा खेद का विषय है कि यह विधेयक आज तक विधि का रूप नहीं ले सका।

     उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के अनेक निर्णयों में राज्य के प्रतिनिधिक दायित्व को स्वीकार कर के कस्तूरीलाल के मामले में धारित राज्य की दायित्व से उन्मुक्ति के नियम की अवहेलना की गई। हाल ही में दिये गये नगेन्द्र राव बनाम स्टेट ऑफ आन्ध्र प्रदेश, ए० आई० आर० एस० सी० 2663 के निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने राज्य के दायित्व से उन्मुक्ति के सिद्धान्त को वर्तमान परिस्थिति में असम्भव ठहरायों और विधान द्वारा राज्य के दायित्व को मान्यता देने सिफारिश की। लेखक को आशा और पूर्ण विश्वास है कि आने वाले भविष्य में भी राज्य के दायित्व के विषय में ऐसे ही निर्णय होंगे तथा विधान द्वारा राज्य के दायित्व को मान्यता दी जायेगी।

उत्तर (ii)- विद्वेषपूर्ण अभियोजन विधिक प्रक्रिया के दुरुपयोग शीर्षक के अन्तर्गत आता है। दीवानी प्रक्रिया खर्चीली होती है। इसे वादी को प्रारम्भ करना होता है। इसके प्रारम्भ तथा संचालन का खर्च तथा दायित्व का भार वादी को उठाना पड़ता है। अतः यह कम सम्भावना रहती है कि कोई व्यक्ति बिना कारण सिर्फ विद्वेष या परेशान करने के आशय से दीवानी प्रक्रिया का संचालन किसी व्यक्ति के विरुद्ध करेगा। परन्तु आपराधिक या दाण्डिक प्रक्रिया का संचालन सरकार द्वारा सरकारी खर्च से किया जाता है। इसमें पीड़ित पक्षकार को कोई खर्च वहन नहीं करना होता चूँकि अपराध समाज के विरुद्ध कार्य होता है। अतः राज्य का यह दायित्व होता है कि वह विधिक प्रक्रिया का संचालन कर दोषी या अपराधी को न्यायालय के माध्यम से दण्डित कराये। यहाँ पीड़ित व्यक्ति सिर्फ अपराध की प्रथम सूचना दे कर अपना दायित्व पूर्ण करता है उसके पश्चात् राज्य सम्पूर्ण प्रक्रिया का खर्च वहन करती है। इसलिए यह अधिक सम्भावना रहती है कि कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के विरुद्ध आपराधिक प्रक्रिया अभियोजन को विद्वेषता के कारण परेशान करने के आशय से प्रारम्भ कराये। इसी दुरुपयोग को समाप्त करने हेतु विद्वेषपूर्ण अभियोजन को एक अपकृत्य माना गया है तथा जिस व्यक्ति के विरुद्ध विद्वेषतापूर्वक या परेशान करने के आशय से अभियोजन प्रारम्भ कराता है तथा वादी यदि अन्तिम सक्षम न्यायालय द्वारा दोष मुक्त कर दिया जाता है तो उसे प्रतिवादी से प्रतिकर प्राप्त करने का अधिकार होगा।

      विद्वेषपूर्ण अभियोजन के बाद में प्रतिकर प्राप्त करने हेतु वादी को सफलतापूर्वक निम्न आवश्यक तत्व साबित करना होता है –

(1) वादी का प्रतिवादी द्वारा अभियोजन हुआ था,

(2) अभियोजन बिना किसी उपयुक्त तथा सम्भाव्य कारणों से प्रारम्भ किया गया था,

(3) प्रतिवादी ने विद्वेषतापूर्वक कार्य किया था न कि विधिक प्रक्रिया के द्वारा विधिक उद्देश्य को पूरा करने के आशय से,

(4) अभियोजन का अन्त वादी के पक्ष में हुआ था,

(S) अभियोजन के परिणामस्वरूप वादी को नुकसान या हानि (damage) हुई थी।

(1) वादी का प्रतिवादी द्वारा अभियोजन किया जाना (Prosecution of Plaintiff by defendant)- इस आवश्यक तत्व को साबित करने के लिए दो शर्तें साबित किया जाना आवश्यक है –

(i) यह कि बादी का अभियोजन हुआ था।

(ii) यह कि बादी का अभियोजन प्रतिवादी द्वारा किया गया था।

(i) यह कि बादी का अभियोजन हुआ था ( That Plaintiff was (Prosecuted)- अभियोजन से तात्पर्य विधिक न्यायालय के समक्ष आपराधिक विचारण (Criminal proceedings) है। अभियोजन तब प्रारम्भ होता है जब किसी न्यायिक अधिकारी या अधिकरण के समक्ष आपराधिक आरोप लगाया जाता है।

     एक पुलिस अधिकारी के समक्ष कार्यवाही अभियोजन नहीं है- नगेन्द्रनाथ राय बनाम बसंत दास वैराग्य [ आई० एल० आर० (1929) 47 कलकत्ता 25.] नामक बाद में प्रतिवादी के घर में चोरी हुई। प्रतिवादी ने उसकी सूचना पुलिस को दी तथा वादी पर अपना सन्देह व्यक्त किया। इस पर वादी गिरफ्तार हुआ। परन्तु चूँकि प्रश्नगत चोरी में वादी के संलग्न होने का कोई भी साक्ष्य नहीं मिला अतः मजिस्ट्रेट ने उसे मुक्त कर दिया। विद्वेषपूर्ण अभियोजन की कार्यवाही में वादी को सफलता नहीं मिली क्योंकि यहाँ वादी का विचारण किसी न्यायिक अधिकारी या अधिकरण के समक्ष नहीं हुआ था।

      भोलानाथ पेमय्या बनाम अयारा दार (ए० आई० आर० 1966 मैसूर 13. ) नामक वाद में प्रतिवादी द्वारा वादी के विरुद्ध पुलिस उपनिरीक्षक को शिकायत की गई। पुलिस अधीक्षक ने जाँच की तथा चूँकि परिवाद झूठा पाया गया अतः परिवाद दाखिल दफ्तर कर दिया गया। वादी द्वारा विद्वेषपूर्ण अभियोजन के लिए लाया गया बाद इसलिए सफल नहीं हुआ कि इस बाद में वादी का अभियोजन नहीं हुआ क्योंकि उसका विचारण किसी न्यायिक अधिकारी या अधिकरण के समक्ष नहीं हुआ था।

       किसी अर्द्ध न्यायिक निकाय के समक्ष चली कार्यवाही को भी अभियोजन माना गया। कपूरचन्द बनाम जगदीश चन्द्र (ए० आई० आर० 1964 पंजाब तथा हरियाणा 215. ) नामक बाद में आयुर्वेदिक तथा यूनानी परिषद के समक्ष चली कार्यवाही को भी अभियोजन माना गया।

(1) अभियोजन प्रतिवादी द्वारा किया गया हो (Prosecution must be instituted by defendant) – यदि कोई व्यक्ति राज्य के अभियोजन तन्त्र को गतिमान करने के लिए उत्तरदायी है तो यह कहा जायेगा कि उसने अभियोजन प्रारम्भ किया। बलभद्दर बनाम बद्री शाहू नामक वाद में प्रोवी काउन्सिल ने कहा अन्य स्थानों की भाँति

      भारत में भी शाब्दिक अर्थों में अभियोजन निजी व्यक्ति द्वारा प्रारम्भ नहीं किया जाता परन्तु ऐसी सूचना दिया जाना जिससे स्वाभाविक रूप से अभियोजन प्रारम्भ हो जाता है, पर्याप्त है, तथा यदि यह किया गया है तो वाद कारण उत्पन्न हो गया माना जायेगा।

      परन्तु यह स्मरणीय है कि सिर्फ प्रथम सूचना या परिवाद दाखिल कर देने मात्र से कोई व्यक्ति अभियोजक नहीं हो जाता जब तक यह साबित न कर दिया जाय कि प्रतिवादी ने अभियोजन में सक्रिय योगदान किया था तथा वह अभियोजन के लिए प्राथमिक रूप से तथा प्रत्यक्ष रूप से उत्तरदायी था।

      दत्तात्रेय पाण्डुरंग दातार बनाम हरि किशन (ए० आई० आर० 1949 बम्बई 100.) नामक बाद में प्रतिवादी ने अपनी दुकान में चोरी के लिए प्रथम सूचना प्रतिवेदन दाखिल किया। इसमें अपने सेवक को नामित किया। सेवक गिरफ्तार हुआ, जाँच पर पुलिस को पर्याप्त साक्ष्य नहीं मिले, वादी को छोड़ दिया गया। प्रतिवादी को अभियोजक नहीं माना गया तथा वादी प्रतिकर का हकदार नहीं माना गया।

        पन्ना लाल बनाम श्रीकृष्णा (ए० आई० आर० 1955 मध्य प्रदेश 124.) नामक वाद में प्रतिवादी ने डकैती का परिवाद दाखिल किया जिसमें बादी को शामिल किया गया। प्रतिवादी ने जाँच के दौरान वादी के विरुद्ध पुलिस में बयान दिया। वादी दोष मुक्त किया गया। वादी को विद्वेषपूर्ण अभियोजन के लिए प्रतिकर का अधिकारी नहीं माना गया क्योंकि यह साबित नहीं हुआ कि प्रतिवादी ने वादी का अभियोजन किया था।

       टी० एस० भट्ट बनाम ए० के० भट्ट (ए० आई० आर० 1978 केरल 111.) नामक बाद में प्रतिवादी परिवाद करने के पश्चात् चुप नहीं बैठा। पुनर्विलोकन (Review) के लिए सेशन जज के यहाँ प्रार्थना पत्र दिया तथा वहाँ गवाही दी। उच्च न्यायालय ने पुनर्निरीक्षण के लिए अपने आप को सम्मिलित किया। प्रतिवादी यह जानता था कि आरोप असत्य था, यहाँ यह माना गया कि प्रतिवादी वास्तविक अभियोजक था।

(2) अभियोजन बिना किसी सम्भाव्य तथा उपयुक्त कारण के किया गया हो- विद्वेषपूर्ण अभियोजन के बाद में वादी द्वारा सफल होने के लिए यह साबित किया जाना आवश्यक है कि उसका अभियोजन बिना किसी उपयुक्त तथा सम्भाव्य कारण के किया गया। था उपयुक्त तथा सम्भाव्य कारण था या नहीं यह प्रत्येक मामले के तथ्य तथा परिस्थितियों पर निर्भर करेगा। सम्भाव्य तथा उपयुक्त कारण तब माना जाता है जब अभियुक्त के दोष में सद्भावपूर्वक विश्वास हो तथा आरोप पूर्ण विश्वास तथा पर्याप्त आधारों पर आधारित हो तथा उस स्थिति में स्थित एक सामान्य बुद्धि के चरित्र के विश्वास में आरोपी व्यक्ति आरोपित दोष का दोषी माना जा सकता हो। पक्का सन्देह पर्याप्त है, पूर्ण सबूत आवश्यक नहीं है।

     व्याट बनाम ह्वाइट [ (1860) 5 एच० एण्ड एन० 371.] नामक बाद इस बिन्दु पर महत्वपूर्ण है। इस बाद में प्रतिवादी ने वादी की गोदाम में कई बोरे देखें। कुछ नवीन बोरे (sacks) पर उसके व्यक्तिगत चिन्ह लगे थे तथा कुछ पुराने बोरों चिन्हों को काट दिया गया था। इन बोरों को अपना मानते हुए प्रतिवादी ने चोरी के लिए मजिस्ट्रेट के समक्ष परिवाद किया। बादी दोषमुक्त कर दिया गया तथा उसने विद्वेषपूर्ण अभियोजन के लिए वाद चलाया। यह निर्णय दिया गया कि चूँकि वादी का अभियोजन करने के लिए प्रतिवादी के पास युक्तियुक्त तथा सम्भाव्य कारण था, अतः प्रतिवादी उत्तरदायी नहीं थे।

      अन्तर्जामी शर्मा बनाम पदमा बेवा, ए० आई० आर० (2007) उड़ीसा 107 के बाद से प्रत्यर्थियों ने वादी के विरुद्ध एक बेवा स्त्री (पदमा) के शीलभंग का झूठा अभियोग फाइल किया परीक्षण के पश्चात् वादी को न्यायालय ने उसे दोषमुक्त घोषित कर दिया। वादी ने प्रत्यर्थियों के विरुद्ध विद्वेषपूर्ण अभियोजन चलाने के लिए नुकसानी का वाद संस्थित किया। उसके अनुसार इससे उसको प्रतिष्ठा समाज में गिर गई और उससे उसे वित्तीय हानि पहुँची है। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि अभियोजन बिना किसी युक्तियुक्त और सम्भाव्य कारण के चलाया गया था, अतः प्रत्यर्थीगण प्रतिकर देने के लिए बाध्य हैं।

(3) प्रतिवादी ने विद्वेषतापूर्वक कार्य किया था न कि विधिक प्रक्रिया का सदुपयोग करने के प्रयोजन से– विद्वेषपूर्ण अभियोजन के बाद में वादी द्वारा यह साबित किया जाना आवश्यक है कि प्रतिवादी ने उसका अभियोजन करने में विद्वेषता या दुर्भाव या परेशान करने की नियत से कार्य किया था। उसका अभियोजन का उद्देश्य अप्रत्यक्ष तथा अवैध था। विद्वेष का अर्थ कोई अनुचित तथा अपकृत्य पूर्ण आशय विद्यमान होना है। इसका अर्थ है प्रतिवादी का आशय विधिक प्रक्रिया का सदुपयोग करना न होकर वादी को परेशान करना था।

     कामता प्रसाद गुप्ता बनाम नेशनल बिल्डिंग कन्स्ट्रक्शन कार्पोरेशन लि० (ए. आई० आर० 1992 दिल्ली 275.) नामक वाद में निगम के एक अधिकारी ने जाँच के दौरान पाया कि स्टाक में कुछ वस्तुएँ कम थीं तथा अधिकारी ने वादी का अभियोजन किया था। इसे विद्वेष के अन्तर्गत अभियोजन नहीं माना गया।

      सम्भाव्य तथा उपयुक्त कारण के अभाव का अर्थ आवश्यक रूप से विद्वेष की उपस्थिति नहीं है।

      अब्दुल मजीद बनाम हरवंश चौबे (ए० आई० आर० 1974 इला० 129.) नामक वाद में वादी पर हँसुली चोरी का आरोप लगाया गया। थानेदार ने दूसरे व्यक्तियों से षड्यन्त्र का बादी के विरुद्ध हँसुली चोरी की झूठी कहानी गढ़ी तथा हँसुली वादी के घर से बरामद की। वादी को सन्देह का लाभ देकर छोड़ दिया गया। विद्वेषपूर्ण अभियोजन के बाद में प्रतिवादी को विद्वेषपूर्ण अभियोजन का दोषी माना गया।

(4) कार्यवाही का वादी के पक्ष में समापन (Termination of Proceedings in favour of Plaintifl)—विद्वेषपूर्ण अभियोजन के बाद में सफल होने के लिए यह भी साबित किया जाना आवश्यक है कि अभियोजन की कार्यवाही का समापन वादी के पक्ष में हुआ था। यदि अभियोजन की कार्यवाही के अन्त में वादी को न्यायालय द्वारा दोषसिद्ध किया गया हो तो वादी विद्वेषपूर्ण अभियोजन का वाद नहीं ला सकता भले ही अभियोजन दुर्भाव य विद्वेष के अन्तर्गत किया गया हो या आरोप विद्वेषपूर्ण तथा बिना आधार के ही रहे हों।

      कार्यवाही के वादी के पक्ष में समापन का अर्थ यह नहीं है कि वह निर्दोष था। परन्तु यह है कि न्यायिक कार्यवाही में उसका दोष साबित न हो पाया। कार्यवाही का वादी के पक्ष में समापन का अर्थ यह भी है कि कार्यवाही का समापन वादी के विरुद्ध नहीं हुआ था। इस प्रकार यदि वादी तकनीकी आधार पर दोषमुक्त हो जाता है, उसकी दोषसिद्धि निरस्त कर द जाती है। उसका अभियोजन त्याग दिया जाता है या अभियुक्त छोड़ दिया जाता है तो यह माना जाता है कि अभियोजन की कार्यवाही का समापन वादी के पक्ष में हुआ।

     यदि अपील में वादी दोषमुक्त कर दिया गया है तो यह माना जायेगा कि अभियोजन की कार्यवाही वादी के पक्ष में निर्णीत हुई तथा उसे विद्वेषपूर्ण अभियोजन के विरुद्ध वाद लाने का अधिकार है।

      जहाँ अपील का अधिकार उपलब्ध था परन्तु अपील नहीं की गई है या अपील का प्रावधान नहीं है तथा प्रथम विचारण में अभियुक्त कि दोषसिद्ध किया गया था तो उसे विद्वेषपूर्ण अभियोजन का वाद लाने का अधिकार नहीं होगा। वेसबी बनाम मैथ्यू [ (1867) एल० आर० 2 सी० पी० 684.]

(5) नुकसान या हानि (Damage)–विद्वेषपूर्ण अभियोजन के बाद में सफल होने के लिए वादी द्वारा यह साबित किया जाना आवश्यक है कि उसे विद्वेषपूर्ण अभियोजन के फलस्वरूप कोई नुकसान या हानि हुई है। यद्यपि अभियोजन की कार्यवाही का समापन वादी के पक्ष में हुआ है परन्तु अभियोजन की कार्यवाही के फलस्वरूप उसे हानि या नुकसान (damage) हुआ हो।

     विद्वेषपूर्ण अभियोजन के दावे में वादी निम्न के लिए प्रतिकर की माँग कर सकता है –

(1) वादी की प्रतिष्ठा को हुई क्षति के लिए,

(2) वादी के शरीर को हुई क्षति के लिए,

(3) वादी की सम्पत्ति को हुई क्षति के लिए (आर्थिक क्षति)।

      इस प्रकार एक विद्वेषपूर्ण अभियोजन के बाद में सफल होने के लिए वादी द्वारा उपरोक्त आवश्यक तत्वों को साबित किया जाना आवश्यक है।

प्रश्न 10. कठोर दायित्व का सिद्धान्त जैसा कि राइलैण्ड्स बनाम फ्लेचर नामक वाद में प्रतिपादित किया गया है, समझाइए। इस सन्दर्भ में लार्ड केर्न्स के उपान्तर को समझाइए। क्या यह नियम भारत में लागू है?

Explain the rule of strict liability as laid down in case Rylands vs. Fletecher. Discuss the transformation of Lord Cairns in this regard. Is this rule applied in India?

उत्तर– कभी-कभी एक व्यक्ति अपकृत्य पूर्ण कार्य के लिए उत्तरदायी होता है यद्यपि अपकृत्य में उसका कोई दोष या त्रुटि नहीं होती। ऐसे उत्तरदायित्व या दायित्व को दोषहीन दायित्व (No fault liability) या त्रुटिहीन दायित्व भी कहा जाता है। ऐसे मामलों में दायित्व कठोर (strict) होता है। यहाँ दायित्व निर्धारण में अपकृत्यकर्ता की उपेक्षा या आशय ध्यान में नहीं लिया जाता है। दूसरे शब्दों में ऐसे मामलों में अपकृत्यकर्ता पर दायित्व अधिरोपित किया जाता है भले ही वह उपेक्षा (Negligence) का दोषी नहीं होता या अपकृत्य पूर्ण कार्य करने में उसका कोई आशय (intention) नहीं होता। ऐसे मामलों में दायित्व निर्धारण का नियम, सन् 1868 में प्रसिद्ध वाद, राइलैण्ड्स बनाम फ्लेचर [(1868) L.R. 3 H.C. 330.]कवाद में प्रतिपादित किया गया था। इस वाद में प्रतिपादित सिद्धान्त के अनुसार कठोर दायित्व के कुछ मामलों में अपकृत्य कर्ता को कोई प्रतिवाद उपलब्ध नहीं होगा सिवाय उन प्रतिवाद या अपवादों के, जिनकों इस वाद में हाउस ऑफ लाइंस द्वारा उल्लिखित किया गया था। इन प्रतिवादों या अपवादों की उपलब्धता के कारण इस नियम को विनफील्ड पूर्ण दायित्व न कहकर कठोर दायित्व का सिद्धान्त कहते

       राइलैण्ड्स बनाम फ्लेचर नामक बाद में फ्लेचर प्रतिवादी ने अपनी भूमि पर एक विशाल जलाशय का निर्माण कराया। यह निर्माण एक स्वतन्त्र ठेकेदार द्वारा कराया गया था। यह जलाशय प्रतिवादी की मिल को जल की आपूर्ति के आशय से कराया गया था। जलाशय के नीचे अनुपयोगी पुराने गड्डे थे जिन्हें बन्द करना स्वतन्त्र ठेकेदार भूल गया था। जब जलाशय में पानी भरा गया तब इन गड्डों में पानी भर गया तथा इन गड्ढों से होकर जल खादी की (पड़ोसी) कोयले की खानों में भर गया। प्रतिवादी को गड्ढों का पता नहीं था तथा प्रतिवादी की उपेक्षा साबित नहीं की गई थी। इसके अतिरिक्त जलाशय का निर्माण स्वतन्त्र ठेकेदार द्वारा कराया गया था इस आधार पर प्रतिवादी ने अपना बचाव किया। इसके बावजूद न्यायालय द्वारा प्रतिवादी को उत्तरदायी ठहराया गया।

      इस वाद में हाउस ऑफ लाईस द्वारा समर्थित तथा मान्यकृत नियम प्रथम बार न्यायमूर्ति ब्लैक बर्न द्वारा फ्लेचर बनाम राइलैण्ड्स [ (1868) एल० आर० एक्स० 265.] में प्रतिपादित किया गया था। न्यायमूर्ति ब्लैक बर्न ने यह नियम्न एक्सचेकर न्यायालय में प्रतिपादित किया न्यायमूर्ति ब्लैक बर्न ने कहा:

       “हमारे विचार में नियम यह है-एक व्यक्ति जो अपने प्रयोजन के लिए अपनी भूमि पर कोई ऐसी वस्तु लाता है तथा उसे अपनी भूमि पर रखता है, जो यदि वहाँ से निकल जावे तो सम्भवतः क्षति कारित कर सकती है तो ऐसा व्यक्ति उस व्यक्ति को अपनी भूमि पर अवश्यत: अपनी जोखिम पर रखे; यदि वह व्यक्ति ऐसा नहीं करता तो वह प्रथम दृष्ट्या (Prima facie) उन समस्त हानियों के लिए उत्तरदायी है जो उस वस्तु के नियन्त्रण से पलायन (escape) के स्वाभाविक परिणाम से कारित हुई है परन्तु वह यह बचाव ले सकता है कि (1) वह वस्तु स्वयं वादी की गलती (त्रुटि, दोष) से पलायन कर गई थी अथवा (2) यह कि उस वस्तु का पलायन दैवकृत (Vis Major Act of God) का परिणाम था।”

      ऐसे मामलों में जहाँ दायित्व उपेक्षा या जानकारी के अभाव में तथा आशय के अभाव में निर्धारित किया जाता है कठोर दायित्व कहा गया है। इसे पूर्ण दायित्व इसलिए नहीं कहा गया क्योंकि एक्सचेकर न्यायालय के न्यायमूर्ति ब्लैक बर्न ने ऐसे मामलों में भी दो अपवादों या बचावों को मान्यता दी थी। यदि इन बचावों को स्वीकार नहीं किया गया होता तो यह पूर्ण दायित्व (absolute) कहलाता।

       फ्लेचर बनाम राइलैण्ड्स की अपील हाट.स ऑफ लाईस में की गई। हाउस ऑफ लाईस ने उपर्युक्त नियम के साथ एक अन्य महत्वपूर्ण शर्त जोड़ दी। हाउस ऑफ लाईस ने कहा कि कठोर दायित्व का सिद्धान्त उन परिस्थितियों में लागू होगा जहाँ प्रतिवादी अपनी भूमि का असहज-अप्राकृतिक-अस्वाभाविक उपयोग कर रहा था। इस प्रकार अब हाउस ऑफ लाईस के निर्णय के पश्चात् कठोर दायित्व के सिद्धान्त के तीन अपवाद स्वीकार किए गए।

(1) वादी स्वयं अपकृत्यकर्ता (Plaintiff wrong doer).

(2) दैवी कृत्य (Vis Major Act of God).

(3) भूमि का असहज या अस्वाभाविक या अप्राकृतिक उपयोग (Unnatural use of Land)

        कठोर दायित्व का सिद्धान्त– इस सिद्धान्त के अनुसार यदि एक व्यक्ति अपनी भूमि का असहज या अप्राकृतिक उपयोग करते हुए अपनी भूमि पर अपने नियन्त्रण में कोई खतरनाक वस्तु लाता है तथा उसकी सतर्कता, या जानकारी के अभाव में भी यदि उस खतरनाक वस्तु का उस व्यक्ति के नियन्त्रण से पलायन हो जाता है जिसके परिणामस्वरूप किसी को क्षति होती है, तो वह व्यक्ति उस क्षति के परिणामों के लिए उत्तरदायी होगा भले ही उस क्षति का उसका आशय न हो या वह उपेक्षा का दोषी न हो। वह व्यक्ति सिर्फ यह बचाव ले सकता है कि मामले में (1) वादी स्वयं दोषी था (2) क्षति के लिए दैवी कृत्य मुख्य कारण था, या (3) खतरनाक वस्तु भूमि के सहज या प्राकृतिक उपयोग में लायी गयी थी।

कठोर दायित्व की आवश्यक शर्तें (Essential Conditions of Strict Liability)

(1) किसी व्यक्ति द्वारा अपनी भूमि पर कुछ खतरनाक वस्तु (dangerous thing) अवश्य लाई गई हो।

(2) उस पर लाई गई अथवा रखी गई वस्तु अवश्य ही नियन्त्रण से (बाहर निकली) पलायन की हो।

(3) इस भूमि पर खतरनाक वस्तु भूमि के असहज या अप्राकृतिक उपयोग करते हुए लाई गई हो।

(1) खतरनाक वस्तु ( Dangerus Things) – खतरनाक वस्तु क्या है यह मामले की परिस्थितियों पर आधारित है। कठोर दायित्व का सिद्धान्त लागू होने के लिए यह साबित किया जाना आवश्यक है कि जो वस्तु प्रतिवादी अपनी भूमि पर लाया था वह खतरनाक थी। गैस, विद्युत, प्रकम्पन, विषैले वृक्ष, मल प्रवाह (sewage), विस्फोटक, हानिकारक धूम (Noxious fumes), जंग लगे तार आदि वस्तुएँ खतरनाक वस्तु हैं। बाघ, चीता, भालू, हाथी, लोमड़ी, लकड़बग्घा आदि हिंसक जानवर भी खतरनाक वस्तु की श्रेणी में आते हैं। जल या आग उसके संग्रहण की मात्रा के आधार पर खतरनाक वस्तु हो जाती हैं। पानी यदि अल्प मात्रा में है तो वह खतरनाक नहीं है, परन्तु जल की विशाल मात्रा खतरनाक स्वरूप धारण करती है। इसी प्रकार आग अल्पमात्रा में खतरनाक वस्तु नहीं है परन्तु आग की विशाल मात्रा खतरनाक वस्तु हो जाती है। संक्षेप में खतरनाक वस्तु वह है जिसके पलायन से मानवीय क्षति कारित होती हो या हो सकने की सम्भावना होती है। राइलैण्ड्स बनाम फ्लेचर नामक वाद में जल का विशाल मात्रा में संग्रह किया गया था, अतः जल एक खतरनाक वस्तु माना गया।”

(2) वस्तु का प्रतिवादी के नियन्त्रण से बाहर निकलना (पलायन-Escape ) – कठोर दायित्व के सिद्धान्त को लागू होने के लिए यह आवश्यक है कि खतरनाक वस्तु प्रतिवादी के नियन्त्रण से अर्थात् प्रतिवादी के भूमि या परिसर की सीमा से बाहर निकली हो, यदि वस्तु प्रतिवादी के परिसर की सीमा में है तथा उस वस्तु से किसी प्रकार की क्षति होती है तथा यदि प्रतिवादी की उपेक्षा साबित नहीं हुई है तो प्रतिवादी उत्तरदायी नहीं होगा, तथा कठोर दायित्व का सिद्धान्त लागू नहीं होगा। रीड बनाम लायन्स एण्ड कम्पनी (1947) ए० सी० 156.] नामक बाद में प्रतिवादी कम्पनी की परिसर की सीमाओं के भीतर एक विस्फोट के कारण कम्पनी की एक कर्मचारी घायल हुई चूक क्षतिकारक वस्तु का परिसर से पलायन नहीं हुआ था तथा चूँकि प्रतिवादी उपेक्षा का दोषी नहीं था अतः प्रतिवादी उत्तरदायी नहीं ठहराया गया।

        राइलैण्ड्स बनाम फ्लेचर नामक बाद में पानी की विशाल मात्रा का संग्रह किया गया था जिसका परिसर से पलायन हो गया था अतः प्रतिवादी उस क्षति के लिए कठोर दायित्व के सिद्धान्त के अन्तर्गत उत्तरदायी ठहराया गया। इसी प्रकार यदि विषैले वृक्ष की पत्तियाँ परिसर से बाहर चली गई हैं तथा वादी का पशु उसे खा लेता है तो प्रतिवादी कठोर दायित्व के सिद्धान्त के अन्तर्गत उत्तरदायी होगा। परन्तु यदिवादी का घोड़ा प्रतिवादी के परिसर में अनधिकृत रूप से प्रवेश कर लेता है तथा जहरीले वृक्ष की पत्तियाँ खा जाता है तथा मर जाता है तो उपेक्षा के अभाव में प्रतिवादी उत्तरदायी नहीं होगा।

(3) भूमि का असहज या अस्वाभाविक उपयोग (Un-Natural Use) – भूमि या परिसर का अस्वाभाविक या असहज उपयोग या प्रयोग उसे कहते हैं जब भूमि का उपयोग किसी विशेष प्रयोजन से किया जाता है तथा उस विशेष प्रयोजन से भूमि तथा परिसर का उपयोग करने से खतरे में वृद्धि हो जाती है। ऐसा प्रयोग भूमि का साधारण प्रयोग नहीं होता। किसी भूमि पर सामान्य मात्रा में जल एकत्रित करना भूमि का सामान्यतया सहज एवं स्वाभाविक प्रयोग है। परन्तु किसी विशेष आशय से भूमि पर विशाल मात्रा में पानी का संग्रह करना भूमि का असहज, असामान्य एवं अप्राकृतिक प्रयोग माना जायेगा। भूमि पर छायादार या फलदार पौधे लगाना भूमि या परिसर का सामान्य तथा सहज उपयोग है। परन्तु भूमि या भवन पर जहरीले या विषैले पौधे लगाना भूमि या परिसर का असहज एवं असामान्य उपयोग माना जाता है।

       टी० सी० बाल कृष्ण मेनन बनाम टी० आर० सुनामनियन (ए० आई० आर० 1986 केरल 151.) नामक बाद में केरल उच्च न्यायालय द्वारा यह निर्धारित किया गया कि मैदान में विस्फोटक का प्रयोग चाहे भले ही किसी पर्व या अवसर पर ही क्यों न हो भूमि का असहज तथा अस्वाभाविक उपयोग है।

       कठोर दायित्व के सिद्धान्त के अपवाद के बाद में प्रतिपादित नियम के अपवादराइलैण्ड्स बनाम फ्लेचर के बाद में एक्सचेकर न्यायालय द्वारा सिर्फ दो अपवादों को मान्यता दी गई –

(1) दैवी कृत्य, (2) वादी द्वारा स्वयं अपकृत्य कार्य।

      परन्तु हाउस ऑफ लाईस ने “भूमि का असहज उपयोग” नामक अपवाद जोड़ दिया। अपवादों के साथ राइलैण्ड्स बनाम फ्लेचर नामक वाद में प्रतिपादित नियम के निम्न अपवाद हैं –

(1) वादी का स्वयं का दोष-वादी स्वयं अपकृत्यकर्ता (Plaintiff wrong doer)– यदि वादी को हुई क्षति में वादी का स्वयं का दोष कारण है तो कठोर दायित्व का सिद्धान्त लागू नहीं होता है। पीटिंग बनाम नोक्स [ (1894) 2 क्वीन बैंच 281.] नामक वाद इस बिन्दु पर महत्वपूर्ण है। इस बाद में वादी का घोड़ा प्रतिवादी की भूमि पर गया तथा प्रतिवादी के परिसर में स्थित जहरीले पौधे के पत्ते खाने के कारण मर गया। यदि वादी का घोड़ा प्रतिवादी की भूमि पर अनधिकृत रूप से प्रवेश न करता तो उसे क्षति न होती, अतः प्रतिवादी उत्तरदायी नहीं ठहराया गया।

(2) दैवी कृत्य (Act of God or Vis Major) – राइलैण्ड्स बनाम फ्लेचर नामक बाद में न्यायमूर्ति ब्लैक बर्न द्वारा दैवी कृत्य के बचाव को कठोर दायित्व के नियम के अपवाद के रूप में स्वीकार किया था। ऐसे कृत्य को दैवी कृत्य कहा जाता है जो मानवीय बलों के कारण नहीं परन्तु प्राकृतिक या दैवी कारणों से सम्पन्न होता है। यहाँ क्षति को निवारित करना प्रतिवादी के वश में नहीं होना चाहिए। यह असाधारण तथा असामान्य प्रकृति का कार्य होना चाहिए। निकोलस बनाम मार्सलैण्ड [ (1876) 2 एक्सचेकर डिवीजन 1.] नामक वाद इस बिन्दु पर मुख्य है-इस मामले में प्रतिवादी ने प्रकृति जलप्रवाह को रोककर अपनी भूमि पर कृत्रिम झीलों का निर्माण किया था। उस साल इतनी असाधारण वर्षा हुई थी कि इतनी मानव स्मृति में कभी नहीं हुई थी। इस जल प्रवाह के कारण झील इस प्रकार उमड़ पड़ों कि इन झीलों के निमित्त जो बाँध बनाये गये थे जो साधारण वर्षा के निमित्त पर्याप्त थे अचानक टूट गए तथा वादी के चार पुल बह गए। इस वाद में दैवी कृत्य के बचाव को स्वीकार किया गया तथा यह निर्णय दिया गया कि प्रतिवादी उत्तरदायी नहीं था।

(3) भूमि का सहज उपयोगराइलैण्ड्स बनाम फ्लेचर नामक बाद में हाउस ऑफ लाईस ने निर्णय दिया कि कठोर दायित्व के सिद्धान्त को लागू करने के लिए यह साबित किया जाना आवश्यक है कि भूमि का असहज उपयोग करते हुए प्रतिवादी अपनी भूमि पर खतरनाक वस्तु लाया।

(4) किसी अन्य व्यक्ति के अनुचित कार्य से हुई क्षति (Acts of a Stranger) — यदि क्षति या हानि किसी तीसरे पक्ष के कृत्य का परिणाम है तो राइलैण्ड्स बनाम फ्लेचर का नियम नहीं लागू होगा। बाक्स बनाम जब, (1879) 4 एक्स० डी० 76 के बाद में प्रतिवादी के एक तालाब से अधिक पानी के निकलने के लिए एक नाली बनी थी। किसी अन्य व्यक्ति ने उस नाली को अवरुद्ध कर दिया जसके कारण पानी तालाब के कगारों के ऊपर से बहने लगा और वादी को क्षति पहुँची। निर्णय दिया गया कि प्रतिवादी क्षति के लिए दायी नहीं था।

     मध्य प्रदेश विद्युत परिषद् बनाम शैल कुमारी, ए० आई० आर० 2002 सु० को० 55 के बाद में एक साइकिल सवार की मृत्यु बिजली के टूटे तार से हो गई थी, बिजली के तार का टूटना अन्य व्यक्तियों के कटिया लगाने से हुआ था, अतः विद्युत परिषद् का कहना था कि वह उसे आश्रितों को प्रतिकर देने के लिए दायी नहीं है किन्तु उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में विद्युत परिषद् को दायी ठहराया क्योंकि विद्युत परिषद् द्वारा अन्य व्यक्तियों के गलत कृत्यं का पूर्वानुमान किया जा सकता था तथा विद्युत परिषद् का यह काम है कि वह विद्युत चोरी रोकने के लिए सुरक्षात्मक उपाय करे।

     एस० प्रेम सिंह बनाम जम्मू कश्मीर राज्य, ए० आई० आर० (2011) जम्मू कश्मीर 50 के बाद में एक ट्रक-मार्जक की मृत्य 11 के० वी० की उच्च शक्ति वाले आकाशीय तार के सम्पर्क में आने से हो गयी थी। प्रतिकर दावे के विरुद्ध राज्य ने प्रतिवाद लिया कि मृतक स्वयं उपेक्षावान था क्योंकि घटना के समय वह ट्रक की छत पर चढ़ा हुआ था। किन्तु यह पाया गया कि जब मार्जक ट्रक पर चढ़ कर रस्सियाँ रख रहा था तभी वह विहित मानक स्तर से अधिक नीचे लटकते आकाशीय तार की चपेट में आ गया था। इस प्रकार की 11 के० वी० की उच्च विद्युत शक्ति के तार नियमों के अनुसार भूमि की सतह से कम से कम 20 फीट ऊपर होने चाहिये। न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि राज्य उक्त उच्च शक्ति के विद्युत तार के खतरे व संकट से नागरिक की सुरक्षा कर पाने के अपने कर्तव्य में असफल रहा है अत: उपेक्षा का दायी है।

      भारतीय स्थिति (Indian Position) तथा पूर्ण दायित्व का सिद्धान्त (Doctrine of Absolute Liability) – कठोर दायित्व के सिद्धान्त के अन्तर्गत दायित्न के निर्धारण से सम्बन्धित भारतीय वादों में भोपाल गैस काण्ड एक सबसे प्रमुख उदाहरण है। 2/3 दिसम्बर, 1984 की मध्यरात्रि को भोपाल स्थित यूनियन कारबाइड के कीट नाशक निर्माण करने वाले कारखाने से मिसाइल आइसो साइनाइड नामक जहरीली गैर का रिसाव हुआ। इससे कम से कम 2500 व्यक्तियों की मृत्यु हो गई तथा करीब ढाई लाख लोग भीषण रोगों से ग्रस्त हो गये। इस बाद में वादियों की अत्यधिक संख्या तथा इनकी आर्थिक स्थिति को देखते हुए सरकार ने उनकी ओर से वाद का प्रतिनिधित्व करने हेतु “द भोपाल गैस लीक डिजास्टर प्रोसेसिंग ऑफ क्लेम्स एक्ट, 1985” पारित कर गैस पीड़ितों का प्रतिनिधित्व करने का अधिकार प्राप्त कर लिया। पहले वाद अमेरिका के न्यूयार्क शहर में किया गया क्योंकि यूनियन कारबाइड (प्रतिवादी) कम्पनी का मुख्यालय वहाँ स्थित था। परन्तु अमेरिकी न्यायालय ने निर्णय दिया कि सहूलियत की दृष्टि से उचित बाद स्थल भारत ही है। तत्पश्चात् वाद भारत के मध्य प्रदेश के भोपाल स्थित जिला न्यायालय में दायर किया गया। जिला न्यायालय ने 350 करोड़ रुपये की क्षतिपूर्ति प्रदान की उच्च न्यायालय ने इसे घटाकर 250 करोड़ कर दिया। उच्चतम न्यायालय ने कई अन्य उपचारों के साथ मामले में अपना निर्णय दिया। यहाँ कठोर दायित्व के अन्तर्गत प्रतिवादी पर दायित्व निर्धारित किया गया कम्पनी का आशय तथा जानकारी के अभाव एवं उपेक्षा के अभाव का तर्क अस्वीकार कर दिया गया।

       एम० सी० मेहता बनाम भारत संघ (ए० आई० आर० 1987 सु० को० 1086.) नामक वाद में 4 तथा 6 दिसम्बर, 1985 को डी० सी० एम० के एक उद्योग से जहरीली ओलियम गैस का रिसाव हुआ उससे एक वकील की मृत्यु हो गई तथा अनेक व्यक्ति प्रभावित हुए। इस बाद में जनहित याचिका पर उच्चतम न्यायालय ने पूर्ण दायित्व के नियम का प्रतिपादन किया न्यायाधिपति भगवती ने यह निर्णय दिया कि भारतीय न्यायालय राइलैण्ड्स बनाम फ्लेचर नामक बाद में मान्य तथा प्रतिपादित सिद्धान्त के अपवाद से बाध्य नहीं हैं। न्यायालय के अनुसार इस विषय में परिसर के स्वामी का पूर्ण दायित्व होता है तथा उसे किसी भी प्रकार के अपवाद या बचाव का प्रतिवाद उपलब्ध नहीं होता। चूँकि प्रतिवादी कुछ अपवादों का सहारा लेकर बच सकता था। अतः न्यायालय ने पूर्ण दायित्व के सिद्धान्त के अन्तर्गत प्रतिवादी को उत्तरदायी ठहराया।

        पूर्ण दायित्व का नियम – पूर्ण दायित्व के सिद्धान्त अनुसार यदि कोई उद्योग किसी ऐसे खतरनाक अथवा स्वभाव से संकटपूर्ण व्यवसाय में रत है जिससे लोगों के स्वास्थ्य तथा सुरक्षा को भय है या भय की सम्भावना है तब उद्योग स्वामी का यह दायित्व पूर्ण (absolute) होता है तथा उसका अनियोज्य (Non delegable) कर्तव्य है कि वह यह सुनिश्चित करे कि उस कार्य से किसी व्यक्ति को किसी प्रकार की क्षति घटित न हो। यदि उस कार्य से किसी को क्षति होती है तब वह उद्योग उस क्षति की क्षतिपूर्ति के लिए पूर्णतया उत्तरदायी होगा तथा वह अपने इस दायित्व का इस दलील से निवारण नहीं कर सकता कि उसकी कोई उपेक्षा नहीं थी तथा राइलैण्ड्स बनाम फ्लेचर में प्रतिपादित कठोर दायित्व का सिद्धान्त भारतीय परिस्थितियों पर लागू नहीं होगा।

     रूपान्तरण अपकृत्य (Transformative Tort)-  यह अमेरिकी सिद्धान्त है जो भोपाल गैस त्रासदी तथा श्रीराम फूड्स रिसाव जैसे मामलों में लागू होता है जहाँ प्रभावित व्यक्तियों की संख्या एक से अधिक (सामूहिक) होती है। रूपान्तरण अपकृत्य से तात्पर्य ऐसे विस्तार तथा आकार की दुर्घटनाओं से है जो अधिनिर्णय की सीमाओं का उल्लंघन करती हैं।

प्रश्न 11. (i) एम० सी० मेहता बनाम भारत संघ, (1987) एस० सी० सी० 395 की सहायता से खतरनाक उद्योगों द्वारा कारित अपहानि के लिए दायित्वों का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।

Critically examine the liabilities for the harm caused by Hazardous Industries, with the help of M.C. Mehta v. Union of India, (1987) SCC 395.

(ii) कठोर दायित्व और पूर्ण दायित्व में अन्तर करें।

Distinguish between Strict Liability and Absolute Liability.

उत्तर (i) –‘पूर्ण दायित्व का नियम’ भारत में उच्चतम न्यायालय द्वारा एम० सी० मेहता बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया (1987) के बाद में सृजित किया गया, इसलिए इसे ‘एम० सी० मेहता का नियम’ भी कहा जाता है। इसको पूर्ण दायित्व का नियम इसलिए कहते हैं कि इसके अन्तर्गत बिना किसी दोष के भी दायित्व उत्पन्न होता है तथा इस नियम के अन्तर्गत वह अपवाद मान्य नहीं हैं जो राइलैण्ड्स बनाम फ्लेचर, के कठोर दायित्व के नियम के अन्तर्गत मान्य है।

      एम० सी० मेहता के वाद में देहली स्थित डी० सी० एम० के एक उद्योग से 4 तथा 6 दिसम्बर, 1985 को जहरीली ओलियम गैस के रिसने से अनेक व्यक्तियों पर हानिकारक प्रभाव पड़ा तथा एक वकील की मृत्यु भी हो गई।

      लोकहित के एक वाद में उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर करके प्रतिकर का दावा किया गया। ऐसे खतरनाक उद्योग के दायित्व के विषय में निर्णय देने के समय न्यायालय के विचार में यह बात भी थी कि इस देहली गैस रिसाव को दुर्घटना से ठीक एक वर्ष पहले ही भोपाल में यूनियन कार्बाइड के उद्योग से जहरीली गैस रिसने से कम से कम 4,000 व्यक्तियों की मृत्यु हो गई थी और लाखों लोग विभिन्न रोगों से ग्रस्त हो गये थे। न्यायालय के विचार में यह बात भी थी कि ऐसी दुर्घटनाओं में गैस पीड़ितों को राइलैण्ड्स बनाम फ्लेचर में सृजित किये गये कठोर दायित्व के नियम के अन्तर्गत प्राय: कोई राहत देने की सम्भावना इसलिए नहीं थी कि उस नियम के कई अपवादों के कारण प्रतिवादी अपने दायित्व से बच सकता था, जैसे कि यदि गैस का रिसाव किसी अन्य व्यक्ति द्वारा तोड़-फोड़ के अन्तर्गत हुआ हो तो कठोर दायित्व के नियम के अन्तर्गत उद्योग का कोई दायित्व नहीं बनता।

      उपरोक्त परिस्थितियों को ध्यान में रख कर उच्चतम न्यायालय ने एक नया नियम “पूर्ण दायित्व का नियम” सृजित किया और कठोर दायित्व के सिद्धान्त को भारत में अमान्य ठहराया।”

      “पूर्ण दायित्व के नियम के अनुसार यदि कोई उद्योग किसी ऐसे खतरनाक अथवा स्वभाव से संकटपूर्ण व्यवसाय में रहा है जिससे लोगों के स्वास्थ्य तथा सुरक्षा को भय की सम्भावना होती है तब उसका वह पूर्ण तथा अनियोज्य (Non-delegable) कर्तव्य है कि वह यह सुनिश्चित करें कि उस कार्य से किसी को किसी प्रकार की क्षति घटित न हो। यदि उस कार्य से किसी को क्षति होती है तब यह उद्योग उस क्षति की क्षतिपूर्ति के लिए पूर्णतया उत्तरदायी होगा तथा वह अपने दायित्व का इस दलील से निवारण नहीं कर सकता कि उसकी कोई उपेक्षा न थी। इसके अतिरिक्त यह भी निर्णय दिया गया कि राइलैण्ड्स बनाम फ्लेचर, के नियम के अपवाद इस पूर्ण दायित्व के नियम पर लागू नहीं होंगे।

      इसी प्रकार कुछ नवीनतम वादों में भी ‘पूर्ण दायित्व के नियम’ को अपनाया गया। जैसे-  इण्डियन कौसिल फॉर एनवायरो लीगल एक्शन बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया, ए० आई० आर० 1996 एस० सी० 1446 के बाद में प्रतिवादियों के संयन्त्र से जहाँ ‘एच’ ऐसिड एवं सल्फ्यूरिक एसिड का उत्पादन होता था, उत्पादों के निकास से बिच्छरी गाँव तथा उससे संलग्न गाँवों में पर्यावरण प्रदूषित हो गया। प्रदूषण से प्रभावित गाँव वासियों की ओर से संविधान के अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय में जनहित याचिका लाई गई जिसमें प्रदूषण से गाँव वासियों के संविधान के अनुच्छेद 21 में निहित जीवन के अधिकार का उल्लंघन बताया गया।

     उच्चतम न्यायालय ने यह निर्देश दिया कि केन्द्रीय सरकार प्रतिवादी उद्योगों से पर्यावरण को स्वच्छ बनाने के लिए किये गये उपचारों में लगी धनराशि वसूल करें। प्रतिवादियों के कारखाने, संयन्त्र, मशीनें तथा सभी अचल सम्पत्ति को भी कुर्क करने का आदेश दिया गया ताकि उससे प्राप्त होने वाली धनराशि से ऐसे उपचार किये जाएँ जिससे प्रदूषण से प्रभावित क्षेत्र को पुनः प्रदूषण मुक्त किया जा सके। यह भी आदेश दिया गया कि प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों को बन्द कर दिया जाए तथा वह उद्योग आवेदक को 50,000 रुपये वाद-व्यय अर्थात् वाद के खर्चे के लिए दें।

      Klaus Mittal Bachert v. East Indian Hotels Ltd., A.L.R. 1997 Delhi 201 के बाद में दिल्ली उच्च न्यायालय ने पूर्ण दायित्व का सिद्धान्त लागू किया। इस वाद में एक पाँच सितारा होटल का निवासी उस समय बुरी तरह घायल हो गया जब उसने वहाँ स्थित तैरने के ताल में गोता लगाने के लिए छलाँग लगाई।

      उस ताल के निर्माण में नुक्स था तथा उसमें पानी की भी कमी थी, इसलिए यह ताल में खतरनाक था। दुर्घटना से वादी को पक्षाघात हो गया और 13 वर्ष बाद उसकी मृत्यु हो गई। यहाँ यह निर्धारित किया गया कि प्रत्यक्ष जोखिम के कारण प्रतिवादी का पूर्ण दायित्व हो जाता है। इसके अतिरिक्त अपनी सेवाओं के लिए अत्यधिक मूल्य वसूल करने के कारण एक पाँच सितारा होटल का दायित्व प्रतिकर देने का हो जाता है। इस दुर्घटना के लिए वादी को 50 लाख रुपये का मुआवजा प्रदान किया गया।

उत्तर (ii)-कठोर दायित्व और पूर्ण दायित्व में अन्तर (Distinction between Strict Liability and Absolute Liability) –

कठोर दायित्व

(1) कठोर दायित्व में प्रतिवादी का दायित्व बिना दोषपूर्ण आचरण के ही उत्पन्न हो जाता है किन्तु इसमें कुछ अपवाद भी हैं जिसके सिद्ध होने पर प्रतिवादी बचाव ले सकता है।

(2) कठोर दायित्व के नियम का उद्भव राइलैण्ड्स बनाम फ्लेचर के वाद से हुआ जो एक इंग्लिश वाद है।

पूर्ण दायित्व

(1) पूर्ण दायित्व के नियम के अधीन कोई अपवाद मान्य नहीं है अर्थात् पूर्ण दायित्व के वाद में प्रतिवादी किसी अपवाद का सहारा लेकर बच नहीं सकता है।

(2) जबकि पूर्ण दायित्व के नियम का उद्भव एम० सी० मेहता बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया के वाद से हुआ जो एक भारतीय वाद है।

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