राज्य बनाम आरोपी : रिश्वतखोरी के मामले में आरोपी की बरी किए जाने की पुष्टि | गुजरात उच्च न्यायालय का निर्णय | LAWS(GJH)-2024-3-62
🔹 प्रस्तावना:
भ्रष्टाचार को भारतीय विधि में गंभीर अपराध माना गया है। भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 (Prevention of Corruption Act) के तहत यदि कोई सरकारी कर्मचारी अवैध रूप से किसी लाभ के लिए घूस लेता है, तो वह आपराधिक दायित्व से घिरता है। हालाँकि, भारतीय आपराधिक विधि का आधार “संदेह से परे” (beyond reasonable doubt) सिद्धांत पर आधारित है। इसी सिद्धांत की कसौटी पर खरे न उतरने के कारण गुजरात उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार की अपील खारिज कर दी और ट्रायल कोर्ट के बरी करने के निर्णय को सही ठहराया।
🔹 मामले की पृष्ठभूमि:
इस केस में राज्य सरकार द्वारा दो सरकारी कर्मचारियों के विरुद्ध आरोप लगाए गए थे कि उन्होंने ₹200/- और ₹100/- की रिश्वत माँगी और स्वीकार की। यह राशि एक प्रमाणपत्र (certificate) जारी करने के एवज में कथित रूप से माँगी गई थी। शिकायतकर्ता द्वारा एंटी करप्शन ब्यूरो (ACB) में शिकायत दर्ज की गई। एक ट्रैप (trap) ऑपरेशन किया गया, जिसमें आरोप था कि दोनों आरोपी घूस लेते समय पकड़े गए और उनके पास से रंग लगे नोट बरामद हुए।
🔹 आरोप एवं विधिक प्रावधान:
- धारा 5(1)(d) व 5(2), भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988
यह धारा उस स्थिति से संबंधित है जब कोई लोक सेवक अपने पद का दुरुपयोग करके किसी से अवैध रूप से लाभ प्राप्त करता है। - मुख्य आरोप:
- आरोपीगण ने मिलकर प्रमाण पत्र जारी करने के लिए अवैध gratification की माँग की।
- शिकायतकर्ता से ₹200/- व ₹100/- रिश्वत ली।
- ट्रैप के दौरान रंग लगे नोट आरोपीगण के कब्जे से बरामद किए गए।
🔹 ट्रायल कोर्ट की कार्यवाही:
सत्र न्यायालय (Sessions Court) में मुकदमे की सुनवाई के दौरान:
- अभियोजन द्वारा प्रस्तुत गवाहों की गवाही में विरोधाभास था।
- “डिमांड” (Demand) और “स्वीकृति” (Acceptance) के साक्ष्य अस्पष्ट थे।
- महज़ रंग लगे नोटों की बरामदगी को पर्याप्त नहीं माना गया जब तक कि माँग और स्वीकृति संदेह से परे साबित न हो।
- ट्रायल कोर्ट ने इस आधार पर आरोपी को बरी कर दिया।
🔹 राज्य सरकार द्वारा उच्च न्यायालय में अपील:
राज्य ने उक्त निर्णय को चुनौती दी और आरोप लगाया कि:
- ट्रायल कोर्ट ने सबूतों का ठीक से मूल्यांकन नहीं किया।
- रंग लगे नोटों की बरामदगी व ट्रैप की सफलता को नजरअंदाज किया गया।
हालांकि, अपील के दौरान यह तथ्य भी सामने आया कि उत्तरदायी आरोपी क्रमांक 2 की मृत्यु हो चुकी थी, अतः उनके विरुद्ध अपील “abated” मानी गई।
🔹 उच्च न्यायालय का अवलोकन एवं निर्णय:
गुजरात उच्च न्यायालय ने विस्तार से पूरे केस का पुनर्मूल्यांकन किया और निम्नलिखित बिंदुओं पर बल दिया:
- “बियॉन्ड रीजनेबल डाउट” सिद्धांत:
आपराधिक न्यायशास्त्र में यह आवश्यक है कि अभियोजन अपने आरोपों को पूरी स्पष्टता और साक्ष्यों के माध्यम से सिद्ध करे। केवल शक या परिस्थिति पर्याप्त नहीं होती। - रंग लगे नोटों की बरामदगी पर्याप्त नहीं:
उच्चतम न्यायालय के कई निर्णयों में स्पष्ट किया गया है कि महज़ रिश्वत की राशि बरामद होना पर्याप्त नहीं होता, जब तक माँग और स्वीकृति के स्पष्ट, विश्वसनीय और स्वतंत्र साक्ष्य न हों। - प्रक्रियात्मक न्याय:
ट्रायल कोर्ट ने सभी साक्ष्यों का उचित परीक्षण किया। निर्णय में कोई कानूनी या प्रक्रियात्मक त्रुटि नहीं थी। - अदालत का विश्वास:
हाईकोर्ट ने कहा कि ट्रायल कोर्ट द्वारा रिकार्ड किए गए निष्कर्ष उचित हैं और किसी भी रूप में हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है।
👉 इसलिए, गुजरात उच्च न्यायालय ने अपील खारिज कर दी और ट्रायल कोर्ट द्वारा आरोपियों को बरी करने के निर्णय को बरकरार रखा।
🔹 निर्णय का महत्व:
यह निर्णय हमें यह स्मरण कराता है कि:
- अभियोजन को केवल आरोप लगाने से नहीं, बल्कि उन्हें न्यायिक मानकों के अनुसार साक्ष्य के माध्यम से साबित करना होता है।
- “माँग” और “स्वीकृति” — दोनों का स्पष्ट, प्रत्यक्ष और ठोस साक्ष्य आवश्यक है।
- न्यायालयों द्वारा आरोपी को बरी करने के निर्णयों में तब तक हस्तक्षेप नहीं किया जाता जब तक कि वह पूरी तरह से दुर्भावनापूर्ण या कानून के विपरीत प्रतीत न हो।
🔹 निष्कर्ष:
गुजरात उच्च न्यायालय ने भ्रष्टाचार से संबंधित एक मामले में न्यायिक संतुलन एवं विधिक सिद्धांतों का पालन करते हुए यह स्पष्ट किया कि:
“सिर्फ़ रिश्वत की रकम की बरामदगी पर्याप्त नहीं है; माँग और स्वीकृति का साक्ष्य भी संदेह से परे सिद्ध होना चाहिए।“
इस निर्णय से न्यायालयों द्वारा अपनाए जाने वाले न्यायिक मानकों और अभियोजन की जिम्मेदारी की स्पष्ट व्याख्या होती है।