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📰 “बदले की भावना से केस दर्ज कर मुकरना आम चलन, कानून नहीं बन सकता साजिश का हथियार : इलाहाबाद हाईकोर्ट”

📰 शीर्षक: “बदले की भावना से केस दर्ज कर मुकरना आम चलन, कानून नहीं बन सकता साजिश का हथियार : इलाहाबाद हाईकोर्ट”

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सामूहिक दुष्कर्म, लूट और जान से मारने की धमकी जैसे गंभीर आरोपों में दर्ज मुकदमे को, दोनों पक्षों के बीच हुए समझौते के आधार पर रद्द कर दिया। लेकिन कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह एक खतरनाक प्रवृत्ति बन गई है, जहाँ लोग बदले की भावना से केस दर्ज कराते हैं और बाद में बयान से मुकर जाते हैं, जिससे कानून और अदालत की प्रक्रिया का दुरुपयोग होता है।


⚖️ कोर्ट की मुख्य टिप्पणियाँ:

  1. कानून न्याय का माध्यम है, साजिश का हथियार नहीं
    न्यायमूर्ति डॉ. गौतम चौधरी की एकलपीठ ने कहा कि अब यह आम चलन हो गया है कि कोई व्यक्ति विपक्षी को सबक सिखाने के लिए मुकदमा दर्ज करता है और बाद में समझौते या बयान से पलटने का सहारा लेता है। अदालत इस प्रवृत्ति के प्रति मूकदर्शक नहीं रह सकती।
  2. दोनों पक्षों पर ₹2,000 का हर्जाना
    अदालत ने पीड़िता और याचिकाकर्ताओं — बदायूं निवासी मुनीश और दो अन्य — दोनों पर ₹2,000-₹2,000 का प्रतीकात्मक जुर्माना लगाया, जिसे उन्हें राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण में तीन सप्ताह में जमा करना होगा।
  3. समझौते का असर, लेकिन आरोपी निर्दोष नहीं ठहराए गए
    अदालत ने कहा कि यह निर्णय इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचता कि आरोपी निर्दोष हैं, बल्कि मुकदमा रद्द करने का निर्णय सिर्फ इसलिए लिया गया क्योंकि:

    • पीड़िता ने बयान बदल दिया
    • दोषसिद्धि की संभावना अत्यंत कम थी
    • अदालत का बहुमूल्य समय बचाया जा सके

🧾 केस का संक्षिप्त विवरण:

  • स्थान: थाना उधैती, बदायूं
  • मूल आरोप: सामूहिक दुष्कर्म, लूट, हत्या की धमकी
  • याचिकाकर्ता: मुनीश व दो अन्य
  • घटना के बाद: ट्रायल के दौरान 27 सितंबर 2024 को समझौता हुआ, पीड़िता ने कहा कि मामला गलतफहमी में दर्ज हुआ था।
  • याचिका: कार्यवाही रद्द करने की मांग करते हुए हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की गई।

📌 न्यायिक महत्व:

यह निर्णय इस ओर संकेत करता है कि:

  • झूठे मुकदमे दर्ज कराना गंभीर समस्या बन चुका है, जिससे न्यायिक व्यवस्था का दुरुपयोग हो रहा है।
  • अदालतों का कर्तव्य है कि वे केवल तकनीकी आधारों पर नहीं, बल्कि मामले के व्यावहारिक पहलुओं को भी देखें।
  • गंभीर अपराधों में समझौता, केवल तभी मान्य हो सकता है जब दोषसिद्धि की संभावना न्यूनतम हो, और समाजहित में हो।

📚 निष्कर्ष:

इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह निर्णय न्यायपालिका की इस सोच को दर्शाता है कि न्याय का मकसद सिर्फ मुकदमे निपटाना नहीं, बल्कि सच और झूठ में फर्क कर समाज को न्याय देना है। ऐसे मामलों में अदालत ने साफ किया कि वह कानून के हथियार से बदला लेने की प्रवृत्ति को कभी प्रोत्साहित नहीं करेगी।