शीर्षक: ऑनलाइन सर्विलांस और व्यक्तिगत स्वतंत्रता: तकनीकी निगरानी बनाम नागरिक अधिकारों की लड़ाई
भूमिका:
डिजिटल युग ने जहां संचार और सूचना के नए द्वार खोले हैं, वहीं इससे जुड़ी एक गहरी चिंता भी सामने आई है — “ऑनलाइन सर्विलांस” यानी इंटरनेट पर नागरिकों की गतिविधियों पर निगरानी।
सरकारें, निजी कंपनियाँ, और यहां तक कि विदेशी ताकतें भी यूज़र्स की ऑनलाइन गतिविधियाँ, बातचीत, लोकेशन, व्यवहार, सोशल मीडिया गतिविधियाँ और ब्राउज़िंग डेटा को ट्रैक कर रही हैं।
यह स्थिति हमें एक मौलिक प्रश्न की ओर ले जाती है:
क्या ऑनलाइन निगरानी के नाम पर हमारी व्यक्तिगत स्वतंत्रता, निजता और लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन हो रहा है?
यह लेख इसी प्रश्न की पड़ताल करता है — तकनीक की निगरानी शक्ति बनाम व्यक्ति की स्वतंत्रता।
1. ऑनलाइन सर्विलांस क्या है?
ऑनलाइन सर्विलांस वह प्रक्रिया है जिसमें किसी व्यक्ति, समूह या समाज की डिजिटल गतिविधियों की निगरानी, संग्रहण और विश्लेषण किया जाता है।
उदाहरण:
- कॉल रिकॉर्ड और चैट्स की निगरानी
- सोशल मीडिया पोस्ट्स की स्कैनिंग
- लोकेशन ट्रैकिंग
- ब्राउज़िंग हिस्ट्री, खरीदारी व्यवहार का विश्लेषण
- चेहरे की पहचान और सार्वजनिक स्थानों पर कैमरा निगरानी
2. किसके द्वारा होती है यह निगरानी?
✅ सरकारी एजेंसियाँ:
राष्ट्रीय सुरक्षा, आतंकवाद रोधी उपायों, और सार्वजनिक व्यवस्था के नाम पर।
भारत में IB, RAW, NATGRID, ED, CBI जैसी एजेंसियाँ डिजिटल सर्विलांस का उपयोग करती हैं।
✅ निजी कंपनियाँ:
सोशल मीडिया, ई-कॉमर्स और विज्ञापन कंपनियाँ यूज़र डेटा का विश्लेषण कर उसे विज्ञापनदाताओं को बेचती हैं।
✅ विदेशी सरकारें/हैकर्स:
जासूसी, साइबर युद्ध और डेटा चोरी के लिए।
3. ऑनलाइन सर्विलांस के प्रभाव: व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर संकट
❌ गोपनीयता का हनन:
निजी बातचीत, आदतें और रुचियाँ सार्वजनिक हो जाती हैं।
❌ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रभाव:
जब व्यक्ति जानता है कि वह निगरानी में है, तो वह खुलकर बोलने से डरता है — जिससे लोकतांत्रिक संवाद बाधित होता है।
❌ डिजिटल प्रोफाइलिंग और भेदभाव:
डेटा विश्लेषण के आधार पर जाति, धर्म, आय या राजनीतिक विचारधारा के आधार पर लक्षित निगरानी और भेदभाव संभव है।
❌ न्यायिक निगरानी की कमी:
भारत जैसे देशों में सर्विलांस के लिए न तो पूर्व अनुमति की व्यवस्था है, न ही स्वतंत्र न्यायिक समीक्षा।
4. भारत में ऑनलाइन सर्विलांस की कानूनी स्थिति
📌 सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 69
सरकार को यह शक्ति देती है कि वह किसी भी कंप्यूटर प्रणाली की जानकारी इंटरसेप्ट या मॉनिटर कर सकती है — यदि वह “संप्रभुता, अखंडता या राज्य की सुरक्षा” के लिए खतरा हो।
📌 टेलीग्राफ अधिनियम, 1885 की धारा 5(2)
कॉल टैपिंग की अनुमति देता है — लेकिन इसमें भी न्यायिक समीक्षा का अभाव है।
❌ व्यापक डेटा संरक्षण कानून में खामियाँ
DPDP Act 2023 में सरकार को कुछ मामलों में पूरी छूट है कि वह बिना अनुमति डेटा एक्सेस कर सकती है।
5. सुप्रीम कोर्ट और गोपनीयता का अधिकार
Puttaswamy बनाम भारत सरकार (2017):
- न्यायालय ने गोपनीयता को मौलिक अधिकार घोषित किया।
- कहा कि कोई भी निगरानी व्यवस्था तभी वैध होगी जब उसमें वैधानिक आधार, जरूरत, और प्रत्याशित न्यायिक संतुलन हो।
लेकिन Pegasus जासूसी कांड और बिना पारदर्शिता वाले सर्विलांस से यह सिद्ध होता है कि इस अधिकार का हनन अभी भी संभव है।
6. अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण
देश | स्थिति |
---|---|
🇺🇸 अमेरिका | NSA की व्यापक निगरानी, लेकिन कोर्ट निगरानी की समीक्षा करती है (FISA Court) |
🇪🇺 यूरोप | GDPR और ePrivacy Directive नागरिकों को मजबूत संरक्षण देता है |
🇨🇳 चीन | पूर्ण सरकारी निगरानी — सोशल क्रेडिट सिस्टम के माध्यम से नागरिक व्यवहार पर अंक |
🇮🇳 भारत | निगरानी के लिए स्पष्ट कानून और पारदर्शिता की कमी |
7. डिजिटल स्वतंत्रता की रक्षा कैसे हो?
✅ निगरानी के लिए न्यायिक पूर्व अनुमति अनिवार्य हो
✅ निजी कंपनियों को डेटा संग्रह की सीमाएं तय की जाएं
✅ निगरानी नीतियों में पारदर्शिता और रिपोर्टिंग
✅ नागरिकों को डेटा और निगरानी के खिलाफ शिकायत करने का अधिकार
✅ सिविल सोसायटी और मीडिया की स्वतंत्र निगरानी व्यवस्था
8. निष्कर्ष
ऑनलाइन सर्विलांस जहां सुरक्षा के लिए एक उपकरण हो सकता है, वहीं बिना संतुलन और पारदर्शिता के यह एक अत्याचारी प्रणाली भी बन सकता है।
व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गोपनीयता को लोकतंत्र की आत्मा कहा गया है। यदि यह ऑनलाइन स्पेस में सुरक्षित नहीं है, तो लोकतंत्र का डिजिटल भविष्य भी संकट में है।
अंतिम प्रश्न:
क्या हम डिजिटल युग में सिर्फ नागरिक हैं, या एक डेटा प्रोफ़ाइल बन चुके हैं जिसकी हर गतिविधि पर नजर रखी जा रही है?
क्या सुरक्षा के नाम पर दी गई निगरानी की छूट, हमारी स्वतंत्रता को निगल रही है?
उत्तर आज हमें तय करना होगा — वरना कल हमारी आज़ादी इतिहास बन जाएगी।