सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय: “T.N. Godavarman Thirumalpad बनाम भारत संघ एवं अन्य” — पुणे की संरक्षित वन भूमि का आवंटन और विक्रय अवैध घोषित

🔖 सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय: “T.N. Godavarman Thirumalpad बनाम भारत संघ एवं अन्य” — पुणे की संरक्षित वन भूमि का आवंटन और विक्रय अवैध घोषित


🧾 केस शीर्षक:
T.N. Godavarman Thirumalpad v. Union of India & Ors
न्यायालय: सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया
मुख्य विषय: संरक्षित वन भूमि (Reserved Forest Land) का अनधिकृत आवंटन और विक्रय
स्थान: कोंधवा बुद्रुक (Kondhwa Budruk), पुणे
भूमि क्षेत्रफल: 11.89 हेक्टेयर


🧩 निर्णय का सारांश:

सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक पर्यावरणीय निर्णयों की श्रृंखला में एक बार फिर पर्यावरण संरक्षण को प्राथमिकता देते हुए यह घोषित किया कि:

“कोंधवा बुद्रुक, पुणे की 11.89 हेक्टेयर संरक्षित वन भूमि का निजी परिवार को आवंटन और बाद में हाउसिंग सोसाइटी को उसका स्थानांतरण अवैध है।”


⚖️ न्यायालय की प्रमुख टिप्पणियाँ:

  1. वन भूमि का संरक्षण सर्वोपरि:
    कोर्ट ने कहा कि वन भूमि केवल राज्य की है और किसी भी स्थिति में निजी स्वामित्व या व्यावसायिक विकास हेतु आवंटित नहीं की जा सकती, जब तक कि विधिवत रूप से उसे ‘वन’ की श्रेणी से हटाया न गया हो।
  2. Forest (Conservation) Act, 1980 का उल्लंघन:
    यह ट्रांसफर स्पष्ट रूप से वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 का उल्लंघन था, जो किसी भी प्रकार के गैर-वानिकी उपयोग के लिए केंद्र सरकार की पूर्व अनुमति आवश्यक मानता है।
  3. भूमि का स्वामित्व और उपयोग अवैध:
    सुप्रीम कोर्ट ने यह स्वीकार किया कि मूल आवंटन के समय ही यह भूमि संरक्षित वन के रूप में अधिसूचित थी, अतः उस पर किसी भी प्रकार की निजी बिक्री, निर्माण या हाउसिंग सोसाइटी का गठन पूर्णतः अवैध है।
  4. पर्यावरणीय संतुलन बनाये रखने की प्राथमिकता:
    अदालत ने दोहराया कि पर्यावरणीय सुरक्षा और पारिस्थितिक संतुलन के लिए संरक्षित वनों का संरक्षण अति आवश्यक है, और व्यावसायिक हितों के आगे प्राकृतिक विरासत को क्षति नहीं पहुँचाई जा सकती।

📌 न्यायालय की टिप्पणी:

“Once a land is notified as Reserved Forest under the law, no private individual or entity can claim ownership or transfer it for non-forestry purposes without statutory approval. Any such transaction is null and void ab initio.”


📚 निष्कर्ष:

✅ यह निर्णय वन संरक्षण अधिनियम और सुप्रीम कोर्ट की पर्यावरणीय न्यायशृंखला में एक और मील का पत्थर है।
✅ यह स्पष्ट संकेत है कि वन भूमि का निजीकरण या व्यावसायिक उपयोग कानूनन अस्वीकार्य है, चाहे वह किसी भी स्तर पर क्यों न किया गया हो।
✅ यह फैसला भारत के वन क्षेत्र और जैव विविधता के संरक्षण हेतु सख्त कानूनी रुख को दर्शाता है।