“ट्रांसजेंडर महिला भी दहेज उत्पीड़न के विरुद्ध दर्ज कर सकती है शिकायत: आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट का ऐतिहासिक फैसला”

“ट्रांसजेंडर महिला भी दहेज उत्पीड़न के विरुद्ध दर्ज कर सकती है शिकायत: आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट का ऐतिहासिक फैसला”


🔍 मामले का संक्षिप्त विवरण:

आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले में स्पष्ट किया कि एक ट्रांसजेंडर महिला, जिसने एक विषमलैंगिक (Heterosexual) विवाह किया है, भारतीय दंड संहिता की धारा 498A के तहत अपने पति और ससुराल वालों के खिलाफ दहेज उत्पीड़न की शिकायत दर्ज करा सकती है

यह निर्णय न केवल LGBTQIA+ समुदाय के अधिकारों की दिशा में एक बड़ी कानूनी जीत है, बल्कि यह भारत में विवाह के पारंपरिक दृष्टिकोण से इतर लैंगिक पहचान की कानूनी मान्यता की दिशा में भी एक सशक्त कदम है।


⚖️ मुख्य कानूनी मुद्दा:

क्या एक ट्रांसजेंडर महिला, जिसने एक पुरुष से विवाह किया है, धारा 498A IPC के अंतर्गत अपने पति और ससुराल पक्ष के विरुद्ध दहेज उत्पीड़न की शिकायत दर्ज करा सकती है?


📜 प्रासंगिक कानूनी प्रावधान:

  • भारतीय दंड संहिता, 1860 – धारा 498A:

    “यदि कोई पति या उसके संबंधी किसी विवाहित महिला के साथ क्रूरता करता है, तो वह दंडनीय अपराध होगा।”

  • सुप्रीम कोर्ट का ‘NALSA बनाम भारत सरकार’ (2014) का निर्णय:

    ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को ‘तीसरे लिंग’ (Third Gender) के रूप में मान्यता, और उन्हें संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 19 और 21 के तहत समान अधिकार।


📌 न्यायालय की टिप्पणी:

  • अदालत ने माना कि याचिकाकर्ता (ट्रांसजेंडर महिला) “महिला” की परिभाषा में आती है, और इसलिए 498A IPC के तहत संरक्षण की हकदार है।
  • अदालत ने यह भी कहा:

    “लैंगिक पहचान के आधार पर किसी महिला को विधिक संरक्षण से वंचित नहीं किया जा सकता।”

  • विवाह को अदालत ने वास्तविक और विधिसम्मत माना, क्योंकि दोनों वयस्कों की सहमति से हुआ था।

🧾 फैसले के प्रमुख बिंदु:

  1. ट्रांसजेंडर महिला, जिसने पुरुष से विवाह किया है, “कानूनन पत्नी” मानी जा सकती है।
  2. उसे दहेज उत्पीड़न सहित अन्य वैवाहिक अपराधों की शिकायत दर्ज कराने का पूरा अधिकार है।
  3. यह निर्णय लैंगिक समानता, मानव गरिमा, और संवैधानिक संरक्षण के सिद्धांतों की पुष्टि करता है।

💬 फैसले का सामाजिक और विधिक महत्व:

  • LGBTQIA+ समुदाय के अधिकारों की पुष्टि: विवाह के बाद ट्रांसजेंडर महिलाओं को मिलने वाले कानूनी सुरक्षा कवच को मजबूत किया गया।
  • विधिक परिभाषाओं का लचीलापन: अदालत ने कानून की व्याख्या में समावेशिता (Inclusivity) और संवेदनशीलता का दृष्टिकोण अपनाया।
  • दहेज और घरेलू हिंसा कानूनों का विस्तार: अब केवल जैविक महिला ही नहीं, बल्कि ट्रांसजेंडर महिला भी इन कानूनों की संरक्षित श्रेणी में आती हैं।

🔚 निष्कर्ष:

आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट का यह ऐतिहासिक निर्णय यह दर्शाता है कि कानून को समय, समाज और संवैधानिक मूल्यों के साथ विकसित होते रहना चाहिए। ट्रांसजेंडर महिलाओं को केवल मान्यता ही नहीं, बल्कि वास्तविक न्यायिक संरक्षण मिलना LGBTQIA+ समुदाय की समानता की दिशा में एक निर्णायक कदम है।