शीर्षक:
वन अधिकार और आदिवासी कानून: परंपरा, संविधान और न्याय के बीच संतुलन की तलाश
परिचय:
भारत का एक बड़ा हिस्सा घने जंगलों और प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर है। इन क्षेत्रों में सदियों से रहने वाले आदिवासी समुदायों (Scheduled Tribes) का जीवन जंगलों, नदियों और पहाड़ों से गहराई से जुड़ा हुआ है। लेकिन उपनिवेशकालीन वन कानूनों और विकास के आधुनिक मॉडल ने उनके पारंपरिक अधिकारों को सीमित कर दिया। इसी असंतुलन को दूर करने के लिए भारतीय विधि व्यवस्था ने वन अधिकार अधिनियम, 2006 (The Scheduled Tribes and Other Traditional Forest Dwellers (Recognition of Forest Rights) Act) और अन्य संबंधित आदिवासी कानूनों की स्थापना की।
यह लेख भारत में वन अधिकारों और आदिवासी कानूनों का विस्तारपूर्वक विश्लेषण करता है—उनके ऐतिहासिक संदर्भ, कानूनी प्रावधान, व्यावहारिक चुनौतियाँ और न्याय की दिशा में प्रयास।
1. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: वनों में आदिवासी जीवन
- पूर्व-औपनिवेशिक काल में आदिवासी समुदायों को जंगलों में रहने, शिकार, खेती, जड़ी-बूटी संग्रह और धार्मिक गतिविधियों की स्वतंत्रता प्राप्त थी।
- ब्रिटिश शासन में, जंगलों को “राजकीय सम्पत्ति” घोषित किया गया और Indian Forest Act, 1927 जैसे कानूनों के माध्यम से आदिवासियों को जंगलों से बेदखल किया गया।
- इससे आदिवासी समुदायों का जीविका, पहचान और संस्कृति खतरे में पड़ गई।
2. वन अधिकार अधिनियम, 2006 (FRA, 2006)
उद्देश्य:
वन क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों और पारंपरिक वनवासियों को उनके भूमि और संसाधनों पर अधिकार देना।
मुख्य अधिकार:
(i) व्यक्तिगत भूमि अधिकार (Section 3(1)(a))
- आदिवासी परिवार जो पीढ़ियों से वन भूमि पर खेती कर रहे हैं उन्हें 4 हेक्टेयर तक भूमि का अधिकार मिलता है।
(ii) सामुदायिक वन अधिकार (Section 3(1)(b–m))
- लकड़ी, चारा, फल, जड़ी-बूटी इत्यादि एकत्र करने का अधिकार
- धार्मिक और सांस्कृतिक स्थलों पर पहुँच का अधिकार
- जल, मछली और चारागाहों के उपयोग का अधिकार
- वन प्रबंधन में भागीदारी
(iii) वन संसाधनों पर संरक्षण अधिकार (Community Forest Resource Rights – CFR):
- समुदाय स्वयं जंगल का संरक्षण और प्रबंधन कर सकता है।
3. पात्रता और मान्यता की प्रक्रिया
- पात्रता:
- अनुसूचित जनजाति सदस्य या परंपरागत वनवासी
- 13 दिसंबर 2005 से पहले से निवास या वन संसाधनों पर निर्भरता
- प्रक्रिया:
- ग्रामसभा (Gram Sabha) दावा सत्यापित करती है
- SDLC (Sub-Divisional Level Committee) जांच करती है
- DLC (District Level Committee) अंतिम अधिकार देती है
4. भारतीय संविधान में आदिवासी अधिकार
(i) अनुच्छेद 244 – पाँचवीं और छठवीं अनुसूचियाँ
- जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन हेतु विशेष प्रावधान
(ii) अनुच्छेद 46
- आदिवासियों की सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक सुरक्षा की जिम्मेदारी
(iii) पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम, 1996 (PESA Act)
- ग्रामसभा को शक्तिशाली बनाता है
- खनन, भूमि अधिग्रहण और वन प्रबंधन में स्थानीय स्वशासन को मान्यता
5. संबंधित अन्य कानून
- Indian Forest Act, 1927
(अभी भी लागू है, लेकिन FRA से अधीनस्थ माना जाता है) - Wildlife Protection Act, 1972
संरक्षण के नाम पर कई आदिवासी विस्थापित हुए - Environment Protection Act, 1986
पर्यावरण मंजूरी प्रक्रिया में आदिवासियों की भागीदारी सीमित
6. व्यावहारिक चुनौतियाँ
- कागज़ी सबूत की माँग:
अधिकांश आदिवासियों के पास स्वामित्व के लिखित प्रमाण नहीं होते। - ग्रामसभा की भूमिका कमजोर:
कई राज्यों में ग्रामसभाओं के फैसले नहीं माने जाते। - खनन और विकास परियोजनाएँ:
कॉर्पोरेट परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण, आदिवासियों को विस्थापित करता है। - बेदखली का डर:
सुप्रीम कोर्ट के 2019 के आदेश से लाखों आदिवासियों पर बेदखली का खतरा मंडराया, हालाँकि सरकार ने हलफनामा देकर राहत दी।
7. न्यायालयों की भूमिका
- नर्मदा बचाओ आंदोलन:
विस्थापन के विरुद्ध एक ऐतिहासिक संघर्ष - संपत मीणा बनाम भारत संघ:
वन अधिकार अधिनियम के तहत दावा खारिज होने पर पुनः अपील का अधिकार मान्य किया गया - Orissa Mining Corporation vs MoEF (Vedanta Case):
सर्वोच्च न्यायालय ने ग्रामसभा की अनुमति को अनिवार्य माना
8. सकारात्मक प्रयास और जन आंदोलनों
- Dongria Kondh जनजाति ने ओडिशा में वेदांता के खनन प्रोजेक्ट को ग्रामसभा के माध्यम से रोका
- साहिया (Jharkhand), Baiga (MP) जैसे समुदायों ने सामुदायिक वन प्रबंधन में सफलता पाई
9. आगे की राह: सुधार और सुझाव
- दावा प्रक्रिया को सरल और स्थानीय भाषा में बनाया जाए
- ग्रामसभा को संवैधानिक दर्जा मिले
- आदिवासी युवाओं को कानूनी साक्षरता और दस्तावेज तैयार करने का प्रशिक्षण मिले
- खनन परियोजनाओं में पर्यावरणीय एवं सामाजिक प्रभाव आकलन (EIA) में ग्रामसभा की राय निर्णायक हो
निष्कर्ष:
वन अधिकार और आदिवासी कानून भारत की लोकतांत्रिक और बहुलतावादी पहचान के मूल स्तंभ हैं। ये न केवल आदिवासियों की आजीविका और संस्कृति की रक्षा करते हैं, बल्कि उनके संवैधानिक सम्मान और गरिमा की पुनः स्थापना करते हैं। लेकिन इन अधिकारों को कागज़ों से ज़मीन पर लाने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति, न्यायिक संरक्षण और प्रशासनिक पारदर्शिता आवश्यक है। जब तक जंगलों में रहने वाला अंतिम आदिवासी सुरक्षित और सम्मानित नहीं होगा, तब तक विकास अधूरा रहेगा।