इंसोल्वेंसी और दिवालियापन कानून (Insolvency & Bankruptcy Law)

इंसोल्वेंसी और दिवालियापन कानून (Insolvency & Bankruptcy Law)

इंसोल्वेंसी और दिवालियापन कानून (Insolvency & Bankruptcy Law) एक कानूनी प्रक्रिया है, जिसके तहत कोई कंपनी या व्यक्ति अपने बकाया कर्ज को चुकाने में असमर्थ होने पर कानूनी समाधान खोज सकता है। भारत में, इंसॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड, 2016 (IBC) इस प्रक्रिया को नियंत्रित करता है।

मुख्य विशेषताएँ

  1. तेज़ और प्रभावी समाधान – IBC, 2016, कर्जदार और लेनदार दोनों के लिए एक समयबद्ध प्रक्रिया प्रदान करता है।
  2. कॉर्पोरेट इनसॉल्वेंसी रिजॉल्यूशन प्रोसेस (CIRP) – यदि कोई कंपनी कर्ज चुकाने में असमर्थ होती है, तो इसे 180+90 दिनों में समाधान खोजने का अवसर मिलता है।
  3. नैशनल कंपनी लॉ ट्राइब्यूनल (NCLT) – यह प्राधिकरण इनसॉल्वेंसी मामलों की सुनवाई करता है।
  4. इंडिविजुअल और पार्टनरशिप इनसॉल्वेंसी – व्यक्तियों और साझेदारी फर्मों के लिए भी समाधान प्रक्रियाएं उपलब्ध हैं।
  5. नया व्यवसायी वातावरण – IBC ने कर्ज समाधान प्रक्रिया को पारदर्शी और व्यवस्थित बनाया है, जिससे निवेशकों का विश्वास बढ़ा है।

प्रक्रिया

  1. कर्जदाता या कर्जदार द्वारा NCLT में आवेदन।
  2. इंटरिम रिज़ॉल्यूशन प्रोफेशनल (IRP) की नियुक्ति।
  3. समाधान योजना तैयार करने के लिए लेनदारों की समिति (CoC) का गठन।
  4. यदि समाधान संभव नहीं होता, तो परिसमापन (Liquidation) की प्रक्रिया शुरू होती है।

महत्व

  • दिवालिया कंपनियों के पुनर्गठन में मदद।
  • कर्जदारों और निवेशकों के हितों की सुरक्षा।
  • भारतीय अर्थव्यवस्था में वित्तीय स्थिरता को बढ़ावा।

दिवालिया कंपनियों के पुनर्गठन (Corporate Restructuring in Bankruptcy) की प्रक्रिया इंसॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड, 2016 (IBC) के तहत की जाती है। इसका मुख्य उद्देश्य उन कंपनियों को बचाना है जो वित्तीय संकट में हैं लेकिन उनके पास पुनर्जीवित होने की संभावना है।

कैसे मदद करता है IBC?

IBC कंपनियों को दिवालिया घोषित करने के बजाय पुनर्गठन का मौका देता है ताकि वे दोबारा अपने व्यवसाय को स्थिर कर सकें। इसके लिए कॉर्पोरेट इनसॉल्वेंसी रिजॉल्यूशन प्रोसेस (CIRP) का उपयोग किया जाता है।

पुनर्गठन की प्रक्रिया

  1. इनसॉल्वेंसी आवेदन – यदि कोई कंपनी अपने कर्ज का भुगतान करने में असमर्थ होती है, तो कर्जदाता या खुद कंपनी NCLT (National Company Law Tribunal) में आवेदन कर सकती है।
  2. इनसॉल्वेंसी प्रोफेशनल (IP) की नियुक्ति – एक पेशेवर नियुक्त किया जाता है जो कंपनी की वित्तीय स्थिति का विश्लेषण करता है।
  3. लेनदारों की समिति (Committee of Creditors – CoC) का गठन – इसमें सभी कर्जदाता शामिल होते हैं और वे पुनर्गठन या परिसमापन पर निर्णय लेते हैं।
  4. समाधान योजना (Resolution Plan) प्रस्तुत करना – इच्छुक निवेशक या प्रमोटर कंपनी को पुनर्जीवित करने के लिए एक समाधान योजना प्रस्तुत करते हैं।
  5. NCLT की मंजूरी – यदि CoC किसी समाधान योजना को मंजूरी देता है, तो इसे NCLT से अनुमोदन लेना पड़ता है।
  6. पुनर्गठन और संचालन शुरू – समाधान योजना के अनुसार कंपनी का पुनर्गठन किया जाता है, जिससे वह वित्तीय रूप से मजबूत होकर व्यवसाय जारी रख सके।

पुनर्गठन के लाभ

रोजगार की सुरक्षा – कंपनी के संचालन को जारी रखने से नौकरियां बचती हैं।
लेनदारों को अधिक वसूली – पुनर्गठन से कर्जदाता अपने पैसे का अधिक हिस्सा प्राप्त कर सकते हैं।
आर्थिक स्थिरता – संकटग्रस्त कंपनियों को बचाने से भारतीय अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
नए निवेश के अवसर – पुनर्गठित कंपनियां नए निवेशकों को आकर्षित कर सकती हैं।

उदाहरण

  • Essar Steel – IBC के तहत इसका पुनर्गठन हुआ और इसे ArcelorMittal ने अधिग्रहण कर लिया।
  • Jet Airways – IBC के जरिए इसके पुनरुद्धार का प्रयास किया गया।

कर्जदारों और निवेशकों के हितों की सुरक्षा इंसॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड (IBC), 2016 के प्रमुख उद्देश्यों में से एक है। यह कानून दिवालियापन प्रक्रिया को सुव्यवस्थित और पारदर्शी बनाकर कर्जदाताओं (Creditors) और निवेशकों (Investors) के अधिकारों की रक्षा करता है।


कर्जदारों (Creditors) के हितों की सुरक्षा

  1. तेजी से समाधान प्रक्रिया – IBC के तहत कॉर्पोरेट इनसॉल्वेंसी रिज़ॉल्यूशन प्रोसेस (CIRP) अधिकतम 330 दिनों में पूरा किया जाना चाहिए, जिससे कर्जदाताओं को समय पर वसूली का अवसर मिलता है।
  2. लेनदारों की समिति (Committee of Creditors – CoC) – सभी कर्जदाताओं को CIRP में भाग लेने का अधिकार मिलता है और वे पुनर्गठन या परिसमापन पर निर्णय ले सकते हैं।
  3. सुरक्षित और असुरक्षित कर्जदाताओं की पहचान – IBC सिक्योर्ड (Secured) और अनसिक्योर्ड (Unsecured) क्रेडिटर्स के बीच स्पष्ट भेद करता है, जिससे बैंकों और वित्तीय संस्थानों को अधिक सुरक्षा मिलती है।
  4. संपत्ति का निपटान (Liquidation Preference) – परिसमापन की स्थिति में संपत्तियों को बेचकर कर्जदाताओं को उनकी देनदारियों के अनुसार भुगतान किया जाता है।
  5. फ्रॉडulent ट्रांजेक्शन्स पर नियंत्रण – यदि प्रमोटर या कर्जदार ने संपत्ति को छिपाने या गबन करने की कोशिश की, तो IBC उसे अवैध घोषित कर देता है और लेनदारों को उनका हक दिलाता है।

निवेशकों (Investors) के हितों की सुरक्षा

  1. पारदर्शिता और निष्पक्षता – IBC निवेशकों के लिए एक पारदर्शी प्रक्रिया सुनिश्चित करता है, जिससे वे सुरक्षित वातावरण में निवेश कर सकते हैं।
  2. नए निवेशकों के लिए अवसर – यदि कोई कंपनी संकट में है, तो नए निवेशक उसका अधिग्रहण कर सकते हैं और पुनर्गठन कर सकते हैं।
  3. मार्केट स्टेबिलिटी – दिवालिया कंपनियों की व्यवस्थित पुनर्बहाली से शेयर बाजार में स्थिरता बनी रहती है, जिससे निवेशकों को नुकसान नहीं होता।
  4. प्रवर्तकों (Promoters) की भूमिका सीमित – यदि कोई कंपनी दिवालियापन में जाती है, तो उसके मौजूदा प्रमोटरों को समाधान प्रक्रिया से बाहर रखा जाता है, जिससे नए निवेशकों को कंपनी को पुनर्जीवित करने का मौका मिलता है।
  5. न्यायिक संरक्षण – यदि कोई निवेशक या कर्जदाता धोखाधड़ी का शिकार होता है, तो NCLT और NCLAT (National Company Law Appellate Tribunal) के माध्यम से न्याय प्राप्त कर सकता है।

उदाहरण

  • Essar Steel का अधिग्रहण ArcelorMittal द्वारा किया गया, जिससे कर्जदाता और निवेशक दोनों को लाभ मिला।
  • DHFL (Dewan Housing Finance Limited) के दिवालियापन के बाद Piramal Group ने इसे पुनर्जीवित किया, जिससे निवेशकों के हितों की रक्षा हुई।

निष्कर्ष

IBC, 2016 ने भारत में कर्ज समाधान प्रक्रिया को मजबूत और प्रभावी बनाया है, जिससे न केवल कर्जदाताओं को समय पर भुगतान मिलता है, बल्कि निवेशकों का भरोसा भी बना रहता है।