“सेवा संबंधी विवादों में विलंबित अभ्यावेदन से नहीं बढ़ेगा सीमाबद्धता का काल: सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय”

शीर्षक: “सेवा संबंधी विवादों में विलंबित अभ्यावेदन से नहीं बढ़ेगा सीमाबद्धता का काल: सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय”

प्रस्तावना:
सेवा संबंधी विवादों में समय-सीमा (Limitation Period) का विशेष महत्व होता है, ताकि न्यायिक प्रणाली में अनुशासन और निश्चितता बनी रहे। हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने “The Chief Executive Officer & Others बनाम एस. ललिता एवं अन्य” मामले में एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया है, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि यदि कोई सेवा विवाद समय-सीमा के बाहर उठाया गया है, तो उसे केवल एक विलंबित अभ्यावेदन (belated representation) दायर कर के पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता।

यह निर्णय भारत के प्रशासनिक न्यायाधिकरण अधिनियम (Administrative Tribunals Act) की धारा 21 की व्याख्या के संदर्भ में दिया गया है, जो सेवा संबंधी मामलों में दावा दाखिल करने की समयसीमा को नियंत्रित करता है।


पृष्ठभूमि और तथ्य:
मामले में याचिकाकर्ता एस. ललिता ने अपनी सेवा से संबंधित विवाद को काफी लंबे समय बाद उठाया। उनका तर्क था कि उन्होंने संबंधित अधिकारियों को अभ्यावेदन प्रस्तुत किया था, और इस कारण उनकी याचिका देरी से दायर करने के बावजूद स्वीकार की जानी चाहिए।

प्रशासनिक न्यायाधिकरण ने उनकी याचिका स्वीकार करते हुए मामले की सुनवाई की अनुमति दे दी, लेकिन इसके विरुद्ध संबंधित विभाग ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की।


सुप्रीम कोर्ट का निर्णय:
माननीय न्यायालय ने स्पष्ट किया कि—

“किसी पुराने सेवा विवाद को केवल इस आधार पर पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता कि कर्मचारी ने देरी से एक अभ्यावेदन दायर कर दिया है।”

मुख्य टिप्पणियां:

  1. सीमाबद्धता का उल्लंघन अनुचित: यदि याचिका सीमित समयावधि (जैसे 1 वर्ष या 6 महीने) के बाद दायर की गई है, तो वह केवल इस कारण से वैध नहीं हो जाती कि याचिकाकर्ता ने एक विलंबित प्रार्थना पत्र (representation) दे दिया था।
  2. Administrative Tribunals Act, 1985 की धारा 21 की व्याख्या: इस धारा में याचिका दायर करने की एक निश्चित समय सीमा निर्धारित की गई है। कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि इस समयसीमा का पालन अनिवार्य है।
  3. प्रशासनिक व्यवस्था में स्थायित्व: सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि इस तरह से विलंबित अभ्यावेदनों को समयसीमा से बाहर सुनवाई योग्य माना जाएगा, तो इससे सेवा संबंधी विवादों में अनिश्चितता और अस्थिरता उत्पन्न होगी।

न्यायिक दृष्टिकोण:
यह निर्णय पूर्ववर्ती न्यायिक दृष्टांतों के अनुरूप है, जिसमें कहा गया है कि—

“एक बार जब कोई कारण सीमाबद्धता के अंतर्गत नहीं आता, तो उसे केवल इस कारण से न्यायालय के समक्ष नहीं लाया जा सकता कि याचिकाकर्ता ने संबंधित अधिकारी को पत्र लिख दिया था।”


प्रभाव और महत्व:

  1. नौकरशाही में अनुशासन: यह निर्णय सरकारी सेवाओं में अनुशासन बनाए रखने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।
  2. अदालती प्रक्रिया में निश्चितता: न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या को सीमित करने और न्यायिक प्रक्रिया को समयबद्ध बनाने के लिए यह दृष्टिकोण आवश्यक है।
  3. Representation का दुरुपयोग रोका: अब कर्मचारी केवल देरी से पत्र भेजकर पुराना मामला खोलने की कोशिश नहीं कर सकेंगे।

निष्कर्ष:
“The Chief Executive Officer & Others बनाम एस. ललिता” मामले में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय न केवल सेवा संबंधी न्यायिक प्रक्रिया में स्पष्टता और अनुशासन स्थापित करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि सीमाबद्धता के प्रावधानों का पालन बाध्यकारी है। यह निर्णय उन कर्मचारियों के लिए एक चेतावनी है जो लंबे समय बाद केवल एक पत्र भेजकर अपना सेवा विवाद फिर से उठाने की कोशिश करते हैं।