जल एवं वायु प्रदूषण निवारण अधिनियमों की तुलना कीजिए तथा पर्यावरण संरक्षण में उनकी भूमिका पर आलोचनात्मक टिप्पणी कीजिए।

प्रश्न 3: जल एवं वायु प्रदूषण निवारण अधिनियमों की तुलना कीजिए तथा पर्यावरण संरक्षण में उनकी भूमिका पर आलोचनात्मक टिप्पणी कीजिए।

उत्तर:

परिचय:

भारत में पर्यावरण संरक्षण की दिशा में जल (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम, 1974 और वायु (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम, 1981 दो प्रमुख विधिक उपाय हैं। इन अधिनियमों का मुख्य उद्देश्य जल एवं वायु जैसे प्रमुख प्राकृतिक संसाधनों को प्रदूषण से बचाना है। यद्यपि दोनों अधिनियम अलग-अलग माध्यमों पर केंद्रित हैं, लेकिन उनकी संरचना, उद्देश्यों और क्रियान्वयन तंत्र में कई समानताएँ और भिन्नताएँ हैं।


1. दोनों अधिनियमों की तुलना (Comparison):

1. उद्देश्य:
जल अधिनियम, 1974 का उद्देश्य जल स्रोतों को प्रदूषण से बचाना और उसकी गुणवत्ता बनाए रखना है, जबकि वायु अधिनियम, 1981 का मुख्य उद्देश्य वायुमंडलीय वायु को शुद्ध बनाए रखना और प्रदूषकों को नियंत्रित करना है।

2. लागू होने की तिथि:
जल अधिनियम को 23 मार्च 1974 को अधिनियमित किया गया, जबकि वायु अधिनियम 29 मार्च 1981 को अस्तित्व में आया।

3. प्रदूषण की परिभाषा:
जल अधिनियम में प्रदूषण को जल की भौतिक, रासायनिक या जैविक गुणवत्ता में उस परिवर्तन के रूप में परिभाषित किया गया है जिससे मानव, पशु या जलजीवों के लिए खतरा उत्पन्न हो। वायु अधिनियम में वायु में ऐसे किसी भी तत्व की उपस्थिति को प्रदूषण माना गया है जो जीवन, संपत्ति या पर्यावरण को हानि पहुँचा सकता है।

4. नियंत्रण बोर्डों की भूमिका:
दोनों अधिनियमों के तहत केंद्रीय और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों की स्थापना की गई है। जल अधिनियम के तहत ये बोर्ड जल प्रदूषण नियंत्रण हेतु कार्य करते हैं, जबकि वायु अधिनियम के अंतर्गत वही बोर्ड वायु प्रदूषण पर निगरानी रखते हैं।

5. अनुमति और अनुज्ञापन:
जल अधिनियम के अनुसार, कोई भी उद्योग अपशिष्ट जल को जल स्रोत में प्रवाहित करने से पहले राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से अनुमति प्राप्त करना अनिवार्य होता है। वायु अधिनियम में भी इसी प्रकार किसी औद्योगिक इकाई को प्रदूषण फैलाने से पहले स्वीकृति लेनी होती है।

6. दंडात्मक प्रावधान:
दोनों अधिनियमों में उल्लंघन की स्थिति में कारावास और जुर्माने का प्रावधान है। हालाँकि, दंड की तीव्रता सीमित मानी जाती है और बड़े उद्योगों पर इसका प्रभाव कमजोर पड़ सकता है।

7. नियंत्रण क्षेत्र की परिकल्पना:
वायु अधिनियम के अंतर्गत राज्य सरकार किसी विशेष क्षेत्र को ‘वायु प्रदूषण नियंत्रण क्षेत्र’ घोषित कर सकती है। इसी प्रकार जल अधिनियम में भी विभिन्न जल स्रोतों की निगरानी के लिए प्राधिकृत क्षेत्र निर्धारित किए जा सकते हैं।


2. पर्यावरण संरक्षण में भूमिका (Role in Environmental Protection):

(क) सकारात्मक भूमिका:

  1. कानूनी ढांचा प्रदान करना: दोनों अधिनियमों ने जल एवं वायु प्रदूषण के विरुद्ध कानूनी ढांचा तैयार किया जिससे नियमन संभव हुआ।
  2. प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों की स्थापना: केंद्र और राज्य स्तर पर संस्थागत व्यवस्था द्वारा निगरानी और नियंत्रण संभव हुआ।
  3. जनजागरूकता: इन अधिनियमों के चलते पर्यावरणीय मुद्दों पर जनता में जागरूकता बढ़ी।
  4. उद्योगों पर नियंत्रण: इन कानूनों ने औद्योगिक इकाइयों को प्रदूषण नियंत्रण उपाय अपनाने के लिए बाध्य किया।

(ख) आलोचनात्मक टिप्पणी:

  1. कमी है कड़ाई से अनुपालन में: कई बार इन अधिनियमों का पालन केवल कागजों तक सीमित रह जाता है और निरीक्षण व्यवस्था में भ्रष्टाचार की शिकायतें मिलती हैं।
  2. निगरानी की सीमित क्षमता: प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों के पास पर्याप्त तकनीकी संसाधन और मानवबल की कमी देखी गई है।
  3. दंडात्मक प्रावधान प्रभावी नहीं: दंड बहुत हल्के हैं जो बड़े उद्योगों को नहीं रोक पाते। पर्यावरणीय अपराधों में कड़ी सजा का प्रावधान अपेक्षित है।
  4. प्रौद्योगिकी का अभाव: प्रदूषण नियंत्रण के लिए उन्नत उपकरणों की अनिवार्यता का पालन कम होता है।
  5. जन भागीदारी की कमी: कानूनों में जनसहभागिता के लिए बहुत कम अवसर दिए गए हैं, जिससे स्थानीय समुदाय पर्यावरणीय फैसलों से वंचित रह जाते हैं।

निष्कर्ष:

जल एवं वायु अधिनियम भारत में पर्यावरण संरक्षण की दिशा में महत्वपूर्ण मील के पत्थर हैं। हालांकि इनकी संरचना और उद्देश्य प्रभावशाली हैं, लेकिन इनकी प्रभावशीलता कार्यान्वयन पर निर्भर करती है। यदि सरकार, उद्योग, और आम नागरिक मिलकर इन अधिनियमों के प्रावधानों का पालन करें और तकनीकी व संस्थागत सुधार लाएं, तो पर्यावरण संरक्षण की दिशा में ठोस परिणाम सामने आ सकते हैं।