ADMINISTRATIVE LAW से संबंधित महत्वपूर्ण प्रश्न

प्रशासनिक कानून का स्वरूप और क्षेत्र

प्रश्न 1: प्रशासनिक कानून का स्वरूप और क्षेत्र पर चर्चा कीजिए।

या
प्रशासनिक कानून की वृद्धि, कार्य और भारत में इसकी स्थिति पर चर्चा कीजिए।
या
हाल के समय में प्रशासनिक कानून भारत में सबसे महत्वपूर्ण शाखा के रूप में उभरा है। स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:

प्रशासनिक कानून की परिभाषा:
प्रशासनिक कानून वह विधि है जो कार्यपालिका (Executive) की शक्तियों, कर्तव्यों, प्रक्रियाओं और अधिकार-सीमाओं को नियंत्रित करती है। यह सरकारी अधिकारियों और संस्थानों के कार्यों को कानून के दायरे में रखने का कार्य करती है।

प्रशासनिक कानून का स्वरूप:

  1. गतिशीलता: प्रशासनिक कानून एक विकसित और गतिशील विधि है जो समय और परिस्थितियों के अनुसार बदलती रहती है।
  2. विषय-वस्तु की व्यापकता: यह विभिन्न प्रशासनिक कार्यों, निर्णयों और नीतियों को नियंत्रित करता है।
  3. व्यापक हस्तक्षेप: यह सरकार के विभिन्न विभागों, एजेंसियों और अधिकारियों के कार्यों को विनियमित करता है।

प्रशासनिक कानून का क्षेत्र:

  1. न्यायिक नियंत्रण: यह प्रशासनिक कार्यों पर न्यायिक समीक्षा के माध्यम से नियंत्रण रखता है।
  2. सरकारी कार्यों की निगरानी: यह सरकारी अधिकारियों द्वारा की गई मनमानी को रोकता है।
  3. लोक कल्याण: यह नागरिकों के अधिकारों और स्वतंत्रताओं की रक्षा करता है।

भारत में प्रशासनिक कानून की वृद्धि:

  • स्वतंत्रता के बाद भारत में कल्याणकारी राज्य (Welfare State) की स्थापना के कारण प्रशासनिक कानून का महत्व बढ़ा।
  • न्यायपालिका ने अनुच्छेद 32 और 226 के अंतर्गत प्रशासनिक निर्णयों की न्यायिक समीक्षा को बढ़ावा दिया।
  • विभिन्न न्यायिक निर्णयों जैसे कि ए. के. कृष्णन बनाम स्टेट ऑफ केरल और मनोज नारायण बनाम भारत सरकार में प्रशासनिक कानून के विकास को मजबूती मिली।

प्रशासनिक कानून की परिभाषा और महत्व

प्रश्न 2: प्रशासनिक कानून की परिभाषा दीजिए। कल्याणकारी राज्य में इसका महत्व स्पष्ट कीजिए।

या
क्या यह कहना सही होगा कि प्रशासनिक कानून प्रशासन के कार्यों को नियंत्रित करने का प्रयास करता है?

उत्तर:

प्रशासनिक कानून की परिभाषा:
प्रसिद्ध विधिवेत्ता वेडेल के अनुसार, “प्रशासनिक कानून वह विधि है जो कार्यपालिका की शक्तियों, उनके उपयोग और नागरिकों के अधिकारों के बीच संतुलन स्थापित करती है।”

कल्याणकारी राज्य में प्रशासनिक कानून का महत्व:

  1. व्यवस्थापित शासन: प्रशासनिक कानून सरकारी कार्यों को व्यवस्थित रूप से संचालित करने में सहायक होता है।
  2. नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा: यह मनमाने प्रशासनिक आदेशों और निर्णयों से नागरिकों को बचाने का कार्य करता है।
  3. सरकारी जवाबदेही: यह सरकारी अधिकारियों को उनके कार्यों के लिए उत्तरदायी बनाता है।
  4. कल्याणकारी योजनाओं का क्रियान्वयन: यह सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं और नीतियों के प्रभावी कार्यान्वयन में सहायक होता है।
  5. न्यायिक समीक्षा: यह न्यायपालिका को प्रशासनिक कार्यों की समीक्षा करने का अधिकार देता है ताकि कोई भी गैर-कानूनी कार्यवाही न हो।

निष्कर्ष:
प्रशासनिक कानून प्रशासन पर नियंत्रण रखकर नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करता है, जिससे एक कुशल और पारदर्शी शासन प्रणाली सुनिश्चित की जाती है।


प्रशासनिक कानून के स्रोत

प्रश्न 3 (a): प्रशासनिक कानून के स्रोत क्या हैं?

उत्तर:

प्रशासनिक कानून के मुख्य स्रोत निम्नलिखित हैं:

  1. संविधान: भारतीय संविधान प्रशासनिक कानून का प्रमुख स्रोत है।
  2. विधायी अधिनियम: संसद और राज्य विधानमंडलों द्वारा बनाए गए अधिनियम प्रशासनिक कानून को आकार देते हैं।
  3. न्यायिक निर्णय: उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के फैसले प्रशासनिक कानून के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
  4. विनियम और उप-विधियाँ: कार्यपालिका द्वारा बनाए गए नियम, उपविधियाँ और अधिनियम प्रशासनिक कानून का एक प्रमुख भाग हैं।
  5. अंतरराष्ट्रीय संधियाँ: विभिन्न अंतरराष्ट्रीय समझौते और संधियाँ प्रशासनिक कानून को प्रभावित करती हैं।

प्रशासनिक कानून और संवैधानिक कानून का संबंध

प्रश्न 3 (b): प्रशासनिक कानून संवैधानिक कानून का एक भाग है, लेकिन हाल ही में यह स्वतंत्र अध्ययन शाखा बन गया है। चर्चा कीजिए।

उत्तर:

प्रशासनिक कानून और संवैधानिक कानून का संबंध:

  1. समानता: दोनों विधाएं सरकार की शक्तियों और नागरिकों के अधिकारों से संबंधित हैं।
  2. संविधान का आधार: प्रशासनिक कानून संवैधानिक कानून पर आधारित होता है।
  3. न्यायिक समीक्षा: दोनों विधाएं न्यायपालिका को सरकारी कार्यों की समीक्षा करने की शक्ति देती हैं।

प्रशासनिक कानून की स्वतंत्र पहचान:

  • प्रशासनिक कानून ने अपनी अलग पहचान इसलिए बनाई क्योंकि यह विशेष रूप से कार्यपालिका के कार्यों और नियंत्रण से संबंधित है।
  • यह सरकारी अधिकारियों, नियमों, आदेशों और नीतियों पर केंद्रित होता है, जबकि संवैधानिक कानून व्यापक रूप से नागरिकों के मौलिक अधिकारों और सरकार की संरचना पर ध्यान केंद्रित करता है।

कानून का शासन (Rule of Law) का महत्व

प्रश्न 4: ‘कानून का शासन’ को परिभाषित कीजिए। भारत में इस सिद्धांत को कैसे लागू किया गया है? क्या यह प्रशासनिक कानून के प्रतिकूल है?

उत्तर:

‘कानून का शासन’ की परिभाषा:
ए. वी. डाइसी के अनुसार, “कानून का शासन का अर्थ यह है कि कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं है और सभी को समान रूप से कानून का पालन करना होगा।”

भारत में ‘कानून का शासन’ का अनुप्रयोग:

  1. संविधान में निहित मौलिक अधिकारों की सुरक्षा (अनुच्छेद 14, 19, 21)।
  2. मनमाने प्रशासनिक आदेशों पर न्यायिक समीक्षा।
  3. लोक प्रशासन में पारदर्शिता और जवाबदेही।

प्रशासनिक कानून और ‘कानून का शासन’ के बीच संबंध:

  • प्रशासनिक कानून, ‘कानून के शासन’ की भावना को मजबूत करता है क्योंकि यह सरकारी अधिकारियों के मनमाने कार्यों पर नियंत्रण रखता है।
  • ‘कानून का शासन’ प्रशासनिक कार्यों को पारदर्शी और न्यायसंगत बनाता है।

शासन के शक्तियों के पृथक्करण (Separation of Powers) का सिद्धांत

प्रश्न 5: ‘शासन के शक्तियों के पृथक्करण’ के सिद्धांत से आप क्या समझते हैं? प्रशासनिक कानून के संदर्भ में इसकी महत्ता का वर्णन कीजिए।

उत्तर:

परिभाषा:
शासन के शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत यह कहता है कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की शक्तियाँ एक-दूसरे से अलग होनी चाहिए ताकि संतुलन बना रहे।

महत्व:

  1. सरकारी शक्तियों में संतुलन: इससे कोई भी शाखा अत्यधिक शक्तिशाली नहीं बनती।
  2. न्यायपालिका की स्वतंत्रता: इससे न्यायपालिका कार्यपालिका और विधायिका के हस्तक्षेप से मुक्त रहती है।
  3. लोकतंत्र की रक्षा: यह लोकतंत्र को मजबूत करता है और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करता है।

भारत में स्थिति:
भारत में पूर्ण रूप से इस सिद्धांत का पालन नहीं किया जाता, लेकिन न्यायपालिका स्वतंत्र रूप से प्रशासनिक कार्यों की समीक्षा कर सकती है।


निष्कर्ष:

प्रशासनिक कानून भारत में एक महत्वपूर्ण शाखा के रूप में उभरा है जो शासन की पारदर्शिता और न्याय सुनिश्चित करता है।

भारत में शक्ति पृथक्करण (Separation of Powers) का सिद्धांत

प्रश्न 1: क्या भारत में कार्यपालिका (Executive), विधायिका (Legislature) और न्यायपालिका (Judiciary) एक-दूसरे से पृथक हैं? इन तीनों शाखाओं के कार्यों के अतिक्रमण की क्या सीमाएँ हैं?

या
भारतीय संविधान ने शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत को पूर्ण रूप से स्वीकार नहीं किया है, लेकिन सरकार की विभिन्न शाखाओं के कार्यों में पर्याप्त भेद किया गया है। चर्चा कीजिए।
या
भारत में शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत पूर्ण रूप से लागू नहीं होता। टिप्पणी कीजिए।
या
मोंटेस्क्यू के शक्ति पृथक्करण सिद्धांत की व्याख्या कीजिए और भारतीय संविधान में इसके अनुप्रयोग की समीक्षा कीजिए।

उत्तर:

मोंटेस्क्यू का शक्ति पृथक्करण सिद्धांत

मोंटेस्क्यू ने अपनी पुस्तक “The Spirit of Laws” में शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत प्रस्तुत किया। इसके अनुसार, सरकार की तीन शाखाएँ – विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका – स्वतंत्र होनी चाहिए ताकि सत्ता का केंद्रीकरण न हो और लोकतंत्र सुरक्षित रहे।

भारत में शक्ति पृथक्करण का अनुप्रयोग

भारतीय संविधान ने शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत को पूर्ण रूप से स्वीकार नहीं किया, लेकिन सरकारी शक्तियों का एक निश्चित बंटवारा किया गया है:

  1. विधायिका (Legislature): संसद और राज्य विधानमंडल कानून बनाते हैं।
  2. कार्यपालिका (Executive): राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और प्रशासनिक अधिकारी कानूनों को लागू करते हैं।
  3. न्यायपालिका (Judiciary): उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय कानूनों की व्याख्या करते हैं और उनकी संवैधानिकता की समीक्षा करते हैं।

शक्ति पृथक्करण की सीमाएँ और अतिक्रमण

भारत में शक्ति पृथक्करण पूर्ण रूप से लागू नहीं किया गया है, क्योंकि:

  1. कार्यपालिका का विधायिका में हस्तक्षेप:
    • मंत्रिपरिषद संसद का हिस्सा होती है और कानून निर्माण में भूमिका निभाती है।
  2. विधायिका का कार्यपालिका में हस्तक्षेप:
    • संसद अविश्वास प्रस्ताव लाकर सरकार को हटा सकती है।
  3. न्यायपालिका का कार्यपालिका और विधायिका पर नियंत्रण:
    • न्यायपालिका के पास न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) की शक्ति है, जिससे वह सरकार के किसी भी असंवैधानिक निर्णय को अमान्य कर सकती है (केशवानंद भारती बनाम राज्य केस, 1973)।

निष्कर्ष

भारत में शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत पूर्ण रूप से लागू नहीं है, लेकिन सरकार की विभिन्न शाखाओं के कार्यों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है।


विनियोजित विधान (Delegated Legislation)

प्रश्न 6 (a): विनियोजित विधान (Delegated Legislation) क्या है? इसके विकास के कारणों की व्याख्या कीजिए।

या
“आधुनिक युग में विनियोजित विधान अनिवार्य है।” चर्चा कीजिए और इसके विकास के कारणों को स्पष्ट कीजिए।
या
विनियोजित विधान का अर्थ, स्वरूप और क्षेत्र की व्याख्या कीजिए।

उत्तर:

विनियोजित विधान का अर्थ:

विनियोजित विधान का अर्थ है कि संसद या विधानमंडल अपने कुछ विधायी अधिकार कार्यपालिका को सौंप देती है ताकि प्रशासनिक आवश्यकताओं के अनुसार नियम बनाए जा सकें।

विनियोजित विधान के विकास के कारण:

  1. तकनीकी और जटिल कानूनों की आवश्यकता: आधुनिक कानून तकनीकी होते हैं, जिनके लिए विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है।
  2. संसद का सीमित समय: संसद के पास प्रत्येक छोटे नियम को स्वयं बनाने का समय नहीं होता।
  3. गति और लचीलापन: तत्काल आवश्यक कानूनों को कार्यपालिका द्वारा शीघ्रता से लागू किया जा सकता है।
  4. कल्याणकारी राज्य की आवश्यकताएँ: सरकार की कई नीतियाँ और योजनाएँ विनियोजित विधान पर निर्भर करती हैं।

प्रश्न 6 (b): भारत में विधायी प्रत्यायोजन (Legislative Delegation) की सीमाएँ क्या हैं? अपने उत्तर को न्यायिक निर्णयों से स्पष्ट कीजिए।

या
विधायिका कौन-कौन सी शक्तियाँ कार्यपालिका को प्रत्यायोजित नहीं कर सकती?
या
दिल्ली लॉज केस (In re Delhi Laws Case) के आलोक में विनियोजित विधान की सीमाओं पर चर्चा कीजिए।
या
क्या भारत में विधायिका कार्यपालिका को विधायी शक्ति सौंप सकती है? यदि हाँ, तो किस सीमा तक? निर्णयों के उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:

विधायी प्रत्यायोजन की सीमाएँ:

  1. विधायिका अपनी मूल विधायी शक्ति का हस्तांतरण नहीं कर सकती।
  2. संविधान में दी गई मौलिक संरचना को प्रभावित करने वाले कानून नहीं बनाए जा सकते।
  3. महत्वपूर्ण विषयों (Essential Legislative Functions) को प्रत्यायोजित नहीं किया जा सकता।

न्यायिक निर्णय:

  1. दिल्ली लॉज केस (1951):
    • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संसद कार्यपालिका को कुछ सीमित विधायी शक्तियाँ सौंप सकती है, लेकिन “महत्वपूर्ण विधायी कार्य” नहीं।
  2. गुलाम क़ादिर बनाम जम्मू-कश्मीर (1967):
    • विधायिका अपनी संपूर्ण विधायी शक्ति कार्यपालिका को नहीं सौंप सकती।
  3. ए. के. रॉय बनाम भारत सरकार (1982):
    • कार्यपालिका को असंवैधानिक ढंग से नए अपराधों को परिभाषित करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता।

विनियोजित विधान पर संसदीय, प्रक्रियात्मक और न्यायिक नियंत्रण

प्रश्न 7 (a): भारत में विनियोजित विधान पर संसदीय नियंत्रण का वर्णन कीजिए।

उत्तर:

संसद निम्नलिखित तरीकों से विनियोजित विधान पर नियंत्रण रखती है:

  1. रिव्यू कमेटी: संसद नियमों और उप-विधियों की समीक्षा कर सकती है।
  2. प्रकाशन और विचार: बनाए गए नियमों को संसद के सामने रखा जाता है।
  3. विचार-विमर्श: संसद इन नियमों पर बहस कर सकती है और आवश्यकतानुसार संशोधन कर सकती है।

प्रश्न 7 (b): भारत में विनियोजित विधान पर प्रक्रियात्मक नियंत्रण का वर्णन कीजिए।

उत्तर:

  1. प्री-पब्लिकेशन: किसी नियम को लागू करने से पहले जनता से सुझाव लिए जाते हैं।
  2. समिति द्वारा जाँच: संसद की स्थायी समिति इन नियमों की जांच करती है।
  3. संशोधन का अधिकार: संसद द्वारा किसी नियम को रद्द या संशोधित किया जा सकता है।

प्रश्न 7 (c): न्यायपालिका द्वारा विनियोजित विधान पर नियंत्रण पर चर्चा कीजिए।

या
क्या न्यायालय सरकार द्वारा बनाए गए नियमों को अमान्य घोषित कर सकता है? यदि हाँ, तो किस आधार पर?

उत्तर:

न्यायपालिका निम्नलिखित आधारों पर विनियोजित विधान को अमान्य कर सकती है:

  1. संविधान के विरुद्ध होने पर (Ultra Vires Doctrine): यदि कोई नियम संविधान के विरुद्ध है तो न्यायालय उसे रद्द कर सकता है।
  2. मूल अधिनियम से बाहर होने पर: यदि कार्यपालिका अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर नियम बनाती है, तो वह अवैध होगा।
  3. मनमाने ढंग से बनाए गए नियम: यदि कोई नियम उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना बनाया गया है, तो न्यायालय उसे निरस्त कर सकता है।

निष्कर्ष:
विनियोजित विधान आधुनिक शासन प्रणाली का आवश्यक अंग है, लेकिन इस पर विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का संतुलित नियंत्रण बना रहना चाहिए।

न्यायपालिका द्वारा विनियोजित विधान (Delegated Legislation) पर नियंत्रण

प्रश्न 7 (c): न्यायपालिका द्वारा विनियोजित विधान पर नियंत्रण की व्याख्या कीजिए।

या
क्या न्यायालय सरकार द्वारा बनाए गए नियमों को अमान्य घोषित कर सकता है? यदि हाँ, तो किस आधार पर?
या
अल्ट्रा वायर्स (Ultra Vires) सिद्धांत के संदर्भ में विनियोजित विधान पर न्यायिक नियंत्रण की व्याख्या कीजिए।

उत्तर:

न्यायपालिका का नियंत्रण:
न्यायपालिका का कार्य यह सुनिश्चित करना है कि सरकार द्वारा बनाए गए नियम और विनियम संविधान और मूल अधिनियम की सीमाओं के भीतर हों। यदि कोई विनियोजित विधान न्यायिक सिद्धांतों के विरुद्ध पाया जाता है, तो न्यायालय उसे अमान्य घोषित कर सकता है।

अल्ट्रा वायर्स (Ultra Vires) सिद्धांत:

Ultra Vires का अर्थ है “अधिकार से बाहर”। जब कोई विनियोजित विधान मूल अधिनियम की शक्ति से परे जाकर बनाया जाता है, तो वह अल्ट्रा वायर्स होता है और न्यायालय उसे अमान्य घोषित कर सकता है।

Ultra Vires के प्रकार:

  1. मूल अधिनियम से बाहर (Substantive Ultra Vires):
    • यदि कार्यपालिका द्वारा बनाया गया कोई नियम उस विधेयक की सीमा से बाहर हो जिससे उसे शक्ति प्राप्त हुई थी, तो न्यायालय उसे अवैध ठहरा सकता है।
    • उदाहरण: राजा बनाम बर्कशायर जस्टिस (1878) मामले में, न्यायालय ने एक ऐसा नियम अमान्य कर दिया जो मूल अधिनियम के दायरे से बाहर था।
  2. प्रक्रियात्मक अल्ट्रा वायर्स (Procedural Ultra Vires):
    • यदि कोई नियम बनाने में निर्धारित प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया हो, तो वह अवैध हो सकता है।
    • उदाहरण: यदि किसी नियम को लागू करने से पहले उसे जनता के सुझाव के लिए प्रकाशित करना आवश्यक था लेकिन ऐसा नहीं किया गया, तो वह अमान्य होगा।
  3. संविधान के विरुद्ध (Constitutional Ultra Vires):
    • यदि कोई नियम संविधान के मूल अधिकारों का उल्लंघन करता है, तो उसे न्यायालय द्वारा रद्द किया जा सकता है।
    • उदाहरण: डी. एस. नाकारा बनाम भारत सरकार (1983) मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने सरकारी नियम को संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) के विरुद्ध पाया और अमान्य कर दिया।

निष्कर्ष:

अल्ट्रा वायर्स सिद्धांत न्यायपालिका को यह शक्ति देता है कि वह विधायिका और कार्यपालिका द्वारा बनाए गए नियमों की वैधता की समीक्षा करे और यदि वे कानून से बाहर जाते हैं, तो उन्हें रद्द कर दे।


उप-विनियोजन (Sub-Delegation)

प्रश्न 8 (a): उप-विनियोजन (Sub-Delegation) क्या है? इसकी आवश्यकता और महत्व की चर्चा कीजिए।

या
उप-विनियोजन क्या है? इसे समझाइए।

उत्तर:

उप-विनियोजन (Sub-Delegation) का अर्थ:
जब विधायिका अपनी कुछ विधायी शक्तियाँ कार्यपालिका को सौंपती है (विनियोजित विधान), और फिर कार्यपालिका इस शक्ति को अपने अधीनस्थ अधिकारियों या विभागों को सौंप देती है, तो इसे उप-विनियोजन कहा जाता है।

आवश्यकता और महत्व:

  1. प्रशासनिक सुविधा: बड़े और जटिल प्रशासनिक कार्यों को छोटे-छोटे विभागों में बाँटने के लिए उप-विनियोजन आवश्यक होता है।
  2. तकनीकी विषयों का प्रबंधन: कुछ कानूनों में अत्यधिक तकनीकी जानकारी की आवश्यकता होती है, जिसे विशेषज्ञ विभाग ही संभाल सकते हैं।
  3. कार्यपालिका पर भार कम करना: इससे प्रशासनिक अधिकारियों को ज़रूरी कार्यों पर ध्यान देने का अवसर मिलता है।
  4. तेजी और लचीलापन: सरकार को बदलती परिस्थितियों के अनुसार नियमों में संशोधन करने की सुविधा मिलती है।

निष्कर्ष:

हालाँकि उप-विनियोजन प्रशासनिक दक्षता के लिए आवश्यक है, लेकिन यह संसद की मूल विधायी शक्ति को कमजोर नहीं कर सकता।


संक्षिप्त टिप्पणियाँ (Short Notes)

प्रश्न 8 (b): निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए:

1. दुआ प्रशासनिक विधि (Droit Administratif):

  • यह फ्रांस में विकसित एक विशेष प्रशासनिक कानून प्रणाली है, जिसमें सरकारी अधिकारियों के कार्यों की समीक्षा एक अलग प्रशासनिक न्यायालय (Administrative Court) द्वारा की जाती है।
  • इस सिद्धांत को प्रसिद्ध फ्रांसीसी न्यायविद मौरिस हौरीउ ने विकसित किया था।
  • भारत और ब्रिटेन में सामान्य कानून प्रणाली प्रचलित है, जहाँ प्रशासनिक विवादों को सामान्य न्यायालयों में सुलझाया जाता है।

2. हेनरी अष्टम धारा (Henry VIII Clause):

  • यह एक ऐसी कानूनी धारा होती है जो कार्यपालिका को संसद द्वारा बनाए गए अधिनियम में संशोधन करने की शक्ति प्रदान करती है।
  • इसका नाम इंग्लैंड के सम्राट हेनरी अष्टम के नाम पर रखा गया है, जिन्होंने संसद के बिना शासन करने का प्रयास किया था।
  • यह विधायी शक्ति के अनुचित केंद्रीकरण का कारण बन सकता है, इसलिए इसे सीमित रूप में स्वीकार किया जाता है।

3. सशर्त विधायन (Conditional Legislation):

  • जब विधायिका कोई कानून बनाकर कार्यपालिका को यह शक्ति देती है कि वह उपयुक्त समय पर इसे लागू करे या आवश्यक संशोधन करे, तो इसे सशर्त विधायन कहा जाता है।
  • यह भारत में संवैधानिक रूप से मान्य है, लेकिन न्यायालय इस पर नियंत्रण रखता है।

लोकपाल और लोकायुक्त (Ombudsman – Lokpal & Lokayukta)

प्रश्न 9 (a): लोकपाल क्या है? भारत में इसे स्थापित करने के लिए क्या कदम उठाए गए हैं?

या
भारत में लोकपाल संस्था की आवश्यकता पर चर्चा कीजिए।

उत्तर:

लोकपाल (Lokpal) का अर्थ:
लोकपाल एक स्वतंत्र संस्था होती है, जो सरकारी अधिकारियों और नेताओं के भ्रष्टाचार संबंधी मामलों की जाँच करती है।

भारत में लोकपाल:

  • लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 के तहत लोकपाल की स्थापना की गई।
  • लोकपाल प्रधानमंत्री, मंत्री, सांसद और सरकारी अधिकारियों के भ्रष्टाचार की जाँच कर सकता है।

प्रश्न 9 (b): लोकायुक्त के कार्य और शक्तियाँ क्या हैं?

  • लोकायुक्त राज्य सरकारों के भ्रष्टाचार संबंधी मामलों की जाँच करता है।
  • यह मुख्यमंत्री, मंत्री और सरकारी अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई कर सकता है।
  • लोकायुक्त को न्यायिक जाँच के अधिकार प्राप्त होते हैं।

प्राकृतिक न्याय (Natural Justice)

प्रश्न 10 (a): प्राकृतिक न्याय क्या है? चर्चा कीजिए।

प्राकृतिक न्याय वे बुनियादी सिद्धांत हैं जो निष्पक्ष सुनवाई और न्यायिक प्रक्रिया को सुनिश्चित करते हैं। इसके दो मुख्य सिद्धांत हैं:

  1. न्यायालय को निष्पक्ष होना चाहिए (Rule Against Bias)
  2. सुनवाई का अधिकार (Audi Alteram Partem)

प्रश्न 11: ‘कोई व्यक्ति स्वयं अपने मामले में न्यायाधीश नहीं हो सकता।’ चर्चा कीजिए।

इस सिद्धांत के अनुसार, न्यायाधीश को किसी भी ऐसे मामले की सुनवाई नहीं करनी चाहिए जिसमें उसका व्यक्तिगत हित हो।

निर्णीत मामले:

  • A.K. Kraipak बनाम भारत संघ (1970): न्यायालय ने कहा कि न्यायिक और प्रशासनिक निर्णयों में निष्पक्षता आवश्यक है।

प्रश्न 12: ऑडी अल्टरम पार्टम (Audi Alteram Partem) क्या है?

इस सिद्धांत का अर्थ है कि “कोई भी व्यक्ति बिना सुने दंडित नहीं किया जाएगा।”

उदाहरण: Maneka Gandhi बनाम भारत सरकार (1978) – न्यायालय ने कहा कि किसी भी व्यक्ति के मौलिक अधिकार को छीने जाने से पहले उसे सुनवाई का अवसर मिलना चाहिए।

ऑडी अल्टरम पार्टम (Audi Alteram Partem) का सिद्धांत

प्रश्न 12: “No person shall be condemned unheard” – इस सिद्धांत को समझाइए और इसके अपवाद बताइए।

या
ऑडी अल्टरम पार्टम के सिद्धांत की व्याख्या कीजिए और इसके अपवाद बताइए।

उत्तर:

अर्थ और परिभाषा:

Audi Alteram Partem” लैटिन भाषा का एक कानूनी सिद्धांत है, जिसका अर्थ है “दूसरी पक्ष को सुनो”। यह प्राकृतिक न्याय (Natural Justice) का एक महत्वपूर्ण तत्व है, जो यह सुनिश्चित करता है कि किसी भी व्यक्ति को दंडित करने से पहले उसे अपना पक्ष रखने का पूरा अवसर दिया जाए।

सिद्धांत के मुख्य तत्व:

  1. न्यायिक सुनवाई (Fair Hearing):
    • प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार प्राप्त होता है कि उसके खिलाफ कोई भी कार्रवाई करने से पहले उसे सुना जाए।
  2. सूचना का अधिकार (Notice):
    • व्यक्ति को उसके खिलाफ लगाए गए आरोपों की पूरी जानकारी दी जानी चाहिए ताकि वह अपना बचाव कर सके।
  3. बचाव का अधिकार (Right to Defend):
    • आरोपी को उचित कानूनी सहायता लेने और अपना पक्ष रखने का अवसर दिया जाना चाहिए।
  4. सबूतों का खुलासा (Disclosure of Evidence):
    • जिस भी सबूत के आधार पर निर्णय लिया जाना है, वह दोनों पक्षों को दिखाया जाना चाहिए।
  5. तटस्थ न्यायालय (Impartial Tribunal):
    • न्यायिक या प्रशासनिक अधिकारी को निष्पक्ष होकर निर्णय लेना चाहिए।

इस सिद्धांत के अपवाद (Exceptions to Audi Alteram Partem):

कुछ स्थितियों में यह नियम लागू नहीं होता, जिनमें निम्नलिखित शामिल हैं:

  1. आपातकालीन परिस्थितियाँ (Emergency Situations):
    • यदि कोई कार्रवाई तुरंत किए जाने की आवश्यकता हो, जैसे सार्वजनिक सुरक्षा से संबंधित मामले, तो बिना सुनवाई के निर्णय लिया जा सकता है।
  2. न्यायिक प्रकृति की न होना (Non-Judicial Decisions):
    • यदि कोई निर्णय विशुद्ध रूप से नीतिगत (Policy Decision) है, तो इस सिद्धांत को लागू करना आवश्यक नहीं है।
  3. गोपनीयता से संबंधित मामले (Confidential Matters):
    • कुछ मामलों में, यदि सूचना सार्वजनिक करने से राष्ट्रीय सुरक्षा या गोपनीयता भंग होती है, तो सुनवाई नहीं की जाती।
  4. मौका देने के बाद भी जवाब न देना (Failure to Respond):
    • यदि किसी व्यक्ति को सुनवाई का अवसर दिया गया हो, लेकिन वह स्वयं इसका उपयोग न करे, तो कार्रवाई की जा सकती है।
  5. संवैधानिक और वैधानिक अपवाद (Statutory Exceptions):
    • कुछ विशेष कानूनों में यह प्रावधान होता है कि सरकार या प्रशासनिक निकाय बिना सुनवाई के भी कुछ निर्णय ले सकते हैं।

निर्णीत मामला:

  • Maneka Gandhi बनाम भारत संघ (1978): इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी भी व्यक्ति का पासपोर्ट जब्त करने से पहले उसे सुनवाई का अवसर दिया जाना चाहिए।

निष्कर्ष:

Audi Alteram Partem सिद्धांत प्रशासनिक और न्यायिक कार्यों में निष्पक्षता और पारदर्शिता सुनिश्चित करता है। हालांकि, कुछ अपवादों में इसे लागू नहीं किया जाता, लेकिन इसके बिना किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में न्याय सुनिश्चित नहीं किया जा सकता।


प्रशासनिक अधिकरण (Administrative Tribunals)

प्रश्न 13 (a): प्रशासनिक अधिकरणों की वृद्धि के कारण बताइए और पारंपरिक न्यायालयों से उनकी तुलना कीजिए।

या
“कल्याणकारी राज्य में प्रशासनिक अधिकरणों का विकास अपरिहार्य है।” इस कथन की व्याख्या कीजिए।

उत्तर:

प्रशासनिक अधिकरण (Administrative Tribunals) का अर्थ:

प्रशासनिक अधिकरण (Tribunal) एक विशेष प्रकार का न्यायिक निकाय होता है, जिसे विशेष प्रकार के विवादों का त्वरित और विशेषज्ञ निर्णय देने के लिए स्थापित किया जाता है। यह न्यायालयों की तुलना में कम औपचारिक होता है।

प्रशासनिक अधिकरणों की वृद्धि के कारण:

  1. तेजी से न्याय दिलाना:
    • न्यायालयों में मामलों की संख्या बहुत अधिक होने के कारण न्याय प्रक्रिया लंबी हो जाती है। अधिकरण त्वरित न्याय प्रदान करते हैं।
  2. विशेषज्ञता की आवश्यकता:
    • कुछ मामले तकनीकी होते हैं, जिनमें विशेषज्ञता आवश्यक होती है, जैसे कर अधिकरण, सेवा अधिकरण आदि।
  3. कम लागत:
    • न्यायालयों की तुलना में अधिकरणों में सुनवाई की प्रक्रिया सरल और कम खर्चीली होती है।
  4. सरकारी हस्तक्षेप की समीक्षा:
    • प्रशासनिक कार्यों की न्यायिक समीक्षा के लिए अधिकरण आवश्यक होते हैं।
  5. कल्याणकारी राज्य की आवश्यकता:
    • कल्याणकारी राज्य में सरकारी नीतियों के क्रियान्वयन में उत्पन्न विवादों को सुलझाने के लिए अधिकरणों की जरूरत होती है।

अधिकरण और पारंपरिक न्यायालयों में अंतर:

  1. प्रक्रिया की कठोरता – अधिकरणों में प्रक्रिया अपेक्षाकृत सरल और अनौपचारिक होती है, जबकि पारंपरिक न्यायालयों में कठोर और जटिल कानूनी प्रक्रियाएँ अपनाई जाती हैं।
  2. विशेषज्ञता – अधिकरण विशेष प्रकार के मामलों जैसे सेवा विवाद, कर विवाद आदि को हल करने के लिए स्थापित किए जाते हैं और इनके सदस्य विशेषज्ञ होते हैं, जबकि न्यायालय विभिन्न प्रकार के कानूनी विवादों का निपटारा करते हैं और उनके न्यायाधीश सामान्य कानूनी विशेषज्ञ होते हैं।
  3. स्थापना का आधार – अधिकरणों की स्थापना विशेष कानूनों के तहत की जाती है, जबकि पारंपरिक न्यायालय संविधान के तहत स्थापित होते हैं।
  4. लागत और समय – अधिकरणों में मामलों का निपटारा न्यायालयों की तुलना में कम खर्चीला और अधिक तेज़ होता है, जबकि न्यायालयों में न्यायिक प्रक्रिया अधिक समय लेने वाली और महंगी हो सकती है।
  5. न्यायिक शक्ति – अधिकरण अर्ध-न्यायिक (Quasi-Judicial) निकाय होते हैं, जो विशिष्ट मामलों में न्यायिक कार्य करते हैं, जबकि न्यायालय पूर्ण रूप से न्यायिक निकाय होते हैं और उनके पास व्यापक न्यायिक अधिकार होते हैं।
  6. अपील प्रक्रिया – अधिकरणों के निर्णय उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दिए जा सकते हैं, जबकि पारंपरिक न्यायालयों के फैसलों की अपील न्यायिक संरचना के अनुसार उच्चतर अदालतों में की जा सकती है।
  7. सरकारी नियंत्रण – अधिकरण आमतौर पर कार्यपालिका के अधीन होते हैं और उन पर सरकार का कुछ नियंत्रण होता है, जबकि न्यायालय पूर्ण रूप से स्वतंत्र होते हैं और उन पर कार्यपालिका या विधायिका का कोई नियंत्रण नहीं होता।
  8. साक्ष्य अधिनियम का अनुपालन – पारंपरिक न्यायालयों में भारतीय साक्ष्य अधिनियम का कठोरता से पालन किया जाता है, जबकि अधिकरणों में साक्ष्य अधिनियम के नियमों का लचीला अनुपालन किया जाता है।

केन्द्रीय प्रशासनिक अधिकरण (Central Administrative Tribunal – CAT)

प्रश्न 13 (b): केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण की स्थापना और उद्देश्यों की व्याख्या कीजिए।

उत्तर:

केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण (CAT) की स्थापना प्रशासनिक अधिकरण अधिनियम, 1985 के तहत की गई थी। यह सरकारी कर्मचारियों से संबंधित विवादों के निपटारे के लिए बनाया गया था।

उद्देश्य:

  1. सरकारी सेवकों को त्वरित न्याय प्रदान करना।
  2. प्रशासनिक कार्यों की न्यायिक समीक्षा करना।
  3. सेवा संबंधी विवादों को कुशलतापूर्वक हल करना।

CAT पर उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय का नियंत्रण:

  • CAT के निर्णय उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है।

प्रशासनिक न्यायिकता (Quasi-Judicial Function)

प्रश्न 13 (e): प्रशासनिक न्यायिकता क्या है?

उत्तर:

प्रशासनिक न्यायिकता वह प्रक्रिया है जिसमें प्रशासनिक निकाय न्यायिक प्रक्रिया की तरह कार्य करते हैं, लेकिन वे पूर्ण न्यायालय नहीं होते।

उदाहरण:

  • चुनाव आयोग द्वारा आचार संहिता का पालन कराना।
  • लोकपाल द्वारा भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच।

न्यायपालिका द्वारा प्रशासनिक कार्यों पर नियंत्रण

प्रश्न 14 (a): भारत में प्रशासनिक कार्यों पर न्यायिक नियंत्रण की व्याख्या कीजिए।

उत्तर:

न्यायपालिका प्रशासनिक कार्यों को निम्नलिखित तरीकों से नियंत्रित करती है:

  1. अल्ट्रा वायर्स सिद्धांत: जब कोई प्रशासनिक निर्णय उसकी कानूनी सीमा से बाहर होता है, तो न्यायालय उसे अवैध घोषित कर सकता है।
  2. संवैधानिक अधिकारों का संरक्षण: यदि कोई प्रशासनिक आदेश मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, तो न्यायालय उसे रद्द कर सकता है।
  3. न्यायिक समीक्षा: अनुच्छेद 32 और 226 के तहत उच्चतम और उच्च न्यायालय प्रशासनिक कार्यों की समीक्षा कर सकते हैं।

निष्कर्ष:

प्रशासनिक कानून आज के समय में न्याय और प्रशासन के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए आवश्यक हो गया है। न्यायपालिका और प्रशासनिक अधिकरण दोनों ही न्यायिक प्रक्रिया का हिस्सा बन गए हैं, जिससे त्वरित और प्रभावी न्याय की संभावनाएँ बढ़ी हैं।

न्यायिक नियंत्रण और प्रशासनिक कार्यवाही पर उसका प्रभाव

परिचय:
प्रशासनिक कानून के तहत, न्यायपालिका को प्रशासनिक कार्यवाहियों की समीक्षा करने और उन्हें नियंत्रित करने की शक्ति प्राप्त होती है। प्रशासनिक निकायों द्वारा लिए गए निर्णयों की वैधता और न्यायसंगतता की जाँच करना न्यायपालिका का महत्वपूर्ण कार्य है। न्यायिक नियंत्रण यह सुनिश्चित करता है कि प्रशासनिक शक्तियों का दुरुपयोग न हो और वे कानून के अनुसार कार्य करें।

न्यायिक नियंत्रण के साधन:

  1. संवैधानिक नियंत्रण: अनुच्छेद 32 और 226 के तहत सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों को रिट जारी करने की शक्ति प्राप्त है।
  2. विधायी नियंत्रण: संसद और विधानसभाएँ कानून बनाकर प्रशासनिक कार्यों को नियंत्रित कर सकती हैं।
  3. न्यायिक समीक्षा (Judicial Review): अदालतें प्रशासनिक निर्णयों की समीक्षा कर सकती हैं और यह जाँच सकती हैं कि क्या वे कानून के अनुसार हैं या नहीं।
  4. नैसर्गिक न्याय (Natural Justice): न्यायपालिका यह सुनिश्चित करती है कि प्रशासनिक निर्णय लेते समय प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन किया जाए।

न्यायिक नियंत्रण का महत्व:

  1. न्याय और निष्पक्षता सुनिश्चित करना: यह प्रशासनिक कार्यों को मनमानी और पक्षपात से मुक्त करता है।
  2. मौलिक अधिकारों की रक्षा: यदि कोई प्रशासनिक निर्णय नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, तो न्यायपालिका उसे रद्द कर सकती है।
  3. प्रशासनिक शक्तियों का दुरुपयोग रोकना: न्यायिक समीक्षा प्रशासनिक अधिकारियों को उनकी शक्तियों का दुरुपयोग करने से रोकती है।

न्यायिक नियंत्रण की सीमाएँ:

  1. अतिरिक्त हस्तक्षेप का खतरा: कभी-कभी न्यायपालिका प्रशासनिक कार्यों में अनावश्यक हस्तक्षेप कर सकती है, जिससे प्रशासनिक कार्यों की गति धीमी हो सकती है।
  2. प्रशासनिक विशेषज्ञता की कमी: न्यायपालिका के पास प्रशासनिक अधिकारियों की तरह तकनीकी विशेषज्ञता नहीं होती, जिससे कुछ निर्णयों की समीक्षा में कठिनाई हो सकती है।
  3. मामलों का बढ़ता बोझ: न्यायपालिका पहले से ही भारी संख्या में मामलों से जूझ रही है, जिससे प्रशासनिक मामलों की समीक्षा में देरी हो सकती है।

प्रशासनिक विवेकाधिकार और उसका न्यायिक पुनरीक्षण

प्रशासनिक विवेकाधिकार (Administrative Discretion) का अर्थ:

जब किसी प्रशासनिक अधिकारी को कोई निर्णय लेने की स्वतंत्रता दी जाती है, तो इसे प्रशासनिक विवेकाधिकार कहा जाता है। यह स्वतंत्रता अधिकारियों को परिस्थितियों के अनुसार न्यायसंगत निर्णय लेने की शक्ति देती है।

न्यायिक समीक्षा के सिद्धांत (Principles of Judicial Review of Administrative Discretion):

  1. मनमानी (Arbitrariness) का निषेध: यदि कोई प्रशासनिक निर्णय मनमाने तरीके से लिया गया है, तो न्यायपालिका उसे रद्द कर सकती है।
  2. संबंधित तथ्यों का ध्यान रखना: प्रशासनिक अधिकारी को निर्णय लेते समय सभी प्रासंगिक तथ्यों पर विचार करना आवश्यक है।
  3. निष्पक्षता: निर्णय लेते समय किसी भी प्रकार का पूर्वाग्रह नहीं होना चाहिए।
  4. स्वतंत्र निर्णय: निर्णय किसी अन्य प्रभाव के अधीन नहीं होना चाहिए।
  5. असंगत और अवैध उद्देश्य पर प्रतिबंध: यदि कोई निर्णय किसी अवैध उद्देश्य के लिए लिया गया है, तो न्यायालय उसे अमान्य घोषित कर सकता है।

न्यायिक समीक्षा का महत्व:

  • यह प्रशासनिक अधिकारियों को मनमाने निर्णय लेने से रोकता है।
  • यह नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा करता है।
  • यह प्रशासनिक कार्यों को अधिक पारदर्शी बनाता है।

अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियाँ और उपचार

अनुच्छेद 32 की व्यापकता:

अनुच्छेद 32 भारतीय नागरिकों को उनके मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए सीधे सर्वोच्च न्यायालय जाने का अधिकार देता है। इसे “संविधान का हृदय और आत्मा” कहा जाता है।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी की जाने वाली रिट्स:

  1. हबीयस कॉर्पस (Habeas Corpus): किसी व्यक्ति को अवैध हिरासत से मुक्त करने के लिए।
  2. मंडामस (Mandamus): किसी अधिकारी को उसके कानूनी कर्तव्यों को पूरा करने का आदेश।
  3. सर्टियोरेरी (Certiorari): किसी न्यायालय या अधिकरण द्वारा लिए गए अवैध निर्णय को निरस्त करना।
  4. प्रोहिबिशन (Prohibition): किसी न्यायालय को उसकी सीमा से बाहर जाकर कार्यवाही करने से रोकना।
  5. क्वो वारंटो (Quo Warranto): यह जाँचने के लिए कि कोई व्यक्ति किसी सरकारी पद पर अवैध रूप से तो नहीं बैठा है।

अनुच्छेद 32 की सीमाएँ:

  1. यह केवल मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामलों में ही लागू होता है।
  2. यदि किसी के कानूनी अधिकारों का उल्लंघन हुआ है, तो उसे अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय जाना होगा।
  3. कभी-कभी सरकार आपातकाल के दौरान अनुच्छेद 32 के तहत अधिकारों को निलंबित कर सकती है।

निष्कर्ष:

अनुच्छेद 32 नागरिकों को न्याय प्राप्त करने का एक प्रभावी साधन प्रदान करता है। यह न्यायपालिका को प्रशासनिक कार्यों की समीक्षा करने की शक्ति देता है और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करता है। हालांकि, इसकी कुछ सीमाएँ भी हैं, जिनका ध्यान रखना आवश्यक है।

अनुच्छेद 32 के अंतर्गत उपलब्ध उपचार

परिचय:
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 32 नागरिकों को उनके मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने का अधिकार देता है। इसे “संविधान की आत्मा” कहा जाता है क्योंकि यह नागरिकों को उनके मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ सीधा उपचार प्रदान करता है।

अनुच्छेद 32 के तहत उपलब्ध रिट्स (Writs):

  1. हबीयस कॉर्पस (Habeas Corpus):
    • जब किसी व्यक्ति को अवैध रूप से हिरासत में लिया गया हो, तो उसे मुक्त कराने के लिए यह रिट जारी की जाती है।
    • उदाहरण: किसी व्यक्ति को पुलिस द्वारा बिना कानूनी आधार के हिरासत में लिया जाए तो उसे छुड़ाने के लिए यह रिट दायर की जा सकती है।
  2. मंडामस (Mandamus):
    • यह रिट सरकार या किसी लोक अधिकारी को उसके कानूनी कर्तव्य को पूरा करने का आदेश देने के लिए जारी की जाती है।
    • उदाहरण: यदि कोई सरकारी अधिकारी अपने संवैधानिक कर्तव्य का निर्वहन नहीं कर रहा है, तो नागरिक इस रिट का सहारा ले सकते हैं।
  3. सर्टियोरेरी (Certiorari):
    • किसी निचली अदालत या अधिकरण द्वारा पारित अवैध या गलत निर्णय को रद्द करने के लिए यह रिट जारी की जाती है।
    • उदाहरण: यदि कोई अधिकरण अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर निर्णय देता है, तो यह रिट जारी की जा सकती है।
  4. प्रोहिबिशन (Prohibition):
    • यह रिट किसी निचली अदालत या अधिकरण को किसी कार्यवाही को जारी रखने से रोकने के लिए जारी की जाती है।
    • उदाहरण: यदि कोई न्यायालय ऐसा मामला सुन रहा है जो उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता, तो इसे रोका जा सकता है।
  5. क्वो वारंटो (Quo Warranto):
    • यह रिट किसी व्यक्ति से यह पूछने के लिए जारी की जाती है कि वह किसी सार्वजनिक पद पर किस अधिकार से कार्य कर रहा है।
    • उदाहरण: यदि कोई व्यक्ति अवैध रूप से सरकारी पद पर काबिज है, तो यह रिट जारी की जा सकती है।

अनुच्छेद 32 की सीमाएँ:

  1. यह केवल मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामलों में ही लागू होता है।
  2. यदि किसी कानूनी अधिकार का उल्लंघन हुआ है, तो नागरिक को अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय का रुख करना होगा।
  3. आपातकाल के दौरान अनुच्छेद 32 के तहत अधिकारों को निलंबित किया जा सकता है।

अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय की शक्ति

परिचय:

अनुच्छेद 226 उच्च न्यायालयों को व्यापक अधिकार देता है, जिसके तहत वे प्रशासनिक कार्यों पर नियंत्रण रख सकते हैं और नागरिकों के मौलिक तथा कानूनी अधिकारों की रक्षा कर सकते हैं।

अनुच्छेद 226 बनाम अनुच्छेद 32:

  1. अनुच्छेद 32: केवल मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामलों में लागू होता है।
  2. अनुच्छेद 226: मौलिक अधिकारों के साथ-साथ कानूनी अधिकारों के उल्लंघन के मामलों में भी राहत प्रदान करता है।

उच्च न्यायालय द्वारा नियंत्रित प्रशासनिक कार्य:

  • प्रशासनिक आदेशों की न्यायिक समीक्षा करना।
  • अधिकारियों को कानूनी कर्तव्यों के पालन के लिए बाध्य करना।
  • अवैध या मनमाने निर्णयों को रद्द करना।

उच्च न्यायालय की शक्ति की व्यापकता:

  • उच्च न्यायालय को अनुच्छेद 226 के तहत दिए गए अधिकार बहुत व्यापक हैं।
  • कई मामलों में उच्च न्यायालयों ने सरकार और प्रशासनिक निकायों के निर्णयों की समीक्षा कर उन्हें निरस्त किया है।
  • यह सुनिश्चित करता है कि प्रशासनिक कार्य पारदर्शी और निष्पक्ष हों।

विभिन्न प्रकार की रिट्स (Writs) का विश्लेषण

1. मंडामस (Mandamus)

अर्थ:

  • यह रिट सरकार, किसी सार्वजनिक अधिकारी या निकाय को उसके कानूनी कर्तव्य को पूरा करने के लिए बाध्य करने हेतु जारी की जाती है।

कब जारी की जाती है?

  • जब कोई अधिकारी अपने संवैधानिक या कानूनी कर्तव्य का निर्वहन नहीं कर रहा हो।

किनके खिलाफ जारी नहीं होती?

  • राष्ट्रपति, राज्यपाल और निजी व्यक्तियों के खिलाफ यह रिट जारी नहीं की जा सकती।

2. हबीयस कॉर्पस (Habeas Corpus)

अर्थ:

  • यह रिट किसी व्यक्ति को अवैध हिरासत से मुक्त कराने के लिए जारी की जाती है।

आवश्यकता:

  • यदि किसी व्यक्ति को बिना किसी वैध कारण के हिरासत में लिया गया है।

कब अस्वीकार की जा सकती है?

  • यदि हिरासत कानूनी रूप से वैध है।
  • यदि व्यक्ति को किसी न्यायालय के आदेश से हिरासत में लिया गया है।

3. सर्टियोरेरी (Certiorari)

अर्थ:

  • यह रिट निचली अदालत या अधिकरण द्वारा पारित अवैध आदेशों को रद्द करने के लिए जारी की जाती है।

आवश्यकता:

  • जब कोई अधिकरण अपनी शक्तियों का दुरुपयोग कर रहा हो।
  • जब प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन नहीं किया गया हो।

4. प्रोहिबिशन (Prohibition)

अर्थ:

  • यह रिट किसी निचली अदालत या अधिकरण को अवैध कार्यवाही करने से रोकने के लिए जारी की जाती है।

सर्टियोरेरी और प्रोहिबिशन में अंतर:
| प्रोहिबिशन | सर्टियोरेरी |
|—————–|—————–|
| यह कार्यवाही को रोकती है। | यह अवैध आदेशों को रद्द करती है। |
| यह कार्यवाही शुरू होने से पहले लागू होती है। | यह कार्यवाही पूरी होने के बाद लागू होती है। |


5. क्वो वारंटो (Quo Warranto)

अर्थ:

  • यह रिट किसी व्यक्ति से यह पूछने के लिए जारी की जाती है कि वह किसी सरकारी पद पर किस अधिकार से कार्य कर रहा है।

आवश्यकता:

  • जब कोई व्यक्ति अवैध रूप से सरकारी पद पर कार्य कर रहा हो।

जनहित याचिका (PIL) और लोकस स्टैंडी (Locus Standi)

जनहित याचिका (Public Interest Litigation – PIL):

  • यह तब दायर की जाती है जब कोई नागरिक या संगठन किसी जनहित के मुद्दे को न्यायालय के समक्ष लाता है।
  • यह गरीब और वंचित वर्गों को न्याय दिलाने में मदद करती है।

लोकस स्टैंडी (Locus Standi):

  • सामान्य नियम यह है कि केवल वही व्यक्ति मुकदमा दायर कर सकता है जिसका अधिकार प्रभावित हुआ हो।
  • लेकिन PIL के माध्यम से कोई भी व्यक्ति जनहित में याचिका दायर कर सकता है।

निष्कर्ष:

भारतीय संविधान में न्यायिक समीक्षा और मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए अनुच्छेद 32 और अनुच्छेद 226 महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये अनुच्छेद नागरिकों को प्रशासनिक अन्याय से बचाने और सरकार को उसके संवैधानिक दायित्वों के पालन के लिए बाध्य करने का माध्यम प्रदान करते हैं।

वैध अपेक्षा (Legitimate Expectation) का सिद्धांत

परिचय:
वैध अपेक्षा का सिद्धांत प्रशासनिक कानून में एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है, जिसके अनुसार यदि किसी व्यक्ति या समूह को सरकार या किसी सार्वजनिक निकाय से किसी नीति या प्रथा के आधार पर कोई उचित अपेक्षा हो, तो प्रशासनिक अधिकारियों को उस अपेक्षा का सम्मान करना चाहिए। यदि सरकार बिना किसी ठोस कारण के इस अपेक्षा को तोड़ती है, तो न्यायालय हस्तक्षेप कर सकता है।

महत्वपूर्ण निर्णय:

  1. फ़्रांसिस कोराली मुलिन बनाम संघ राज्य (1981) – इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता में गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार भी शामिल है, जिससे लोगों को उचित व्यवहार की अपेक्षा करने का अधिकार मिलता है।
  2. नवजोत कौर बनाम पंजाब राज्य (1996) – इस मामले में सरकार ने पहले एक नीति घोषित की थी, लेकिन बाद में उसे बदल दिया। न्यायालय ने कहा कि यदि सरकार कोई नीति बदलती है, तो उसे उचित कारण बताना होगा।

भारत में इस सिद्धांत का विकास:

  • यह सिद्धांत प्राकृतिक न्याय और निष्पक्ष प्रशासन की अवधारणा पर आधारित है।
  • यह विशेष रूप से तब लागू होता है जब सरकार या सार्वजनिक निकाय किसी व्यक्ति को पूर्व में किए गए आश्वासन या प्रथा के विरुद्ध निर्णय लेते हैं।
  • हाल के फैसलों में न्यायालय ने इस सिद्धांत को नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए मजबूत किया है।

लोकायुक्त, जानने का अधिकार, केंद्रीय सतर्कता आयोग, जांच आयोग और लोक उत्तरदायित्व का सिद्धांत

1. लोकायुक्त (Lokayukta)

  • लोकायुक्त एक स्वतंत्र संस्था है जो राज्य सरकारों में भ्रष्टाचार के मामलों की जांच करती है।
  • इसे लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 के तहत स्थापित किया गया।
  • इसका कार्य मंत्रियों, विधायकों और सरकारी अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायतों की जांच करना है।

2. जानने का अधिकार (Right to Know)

  • यह एक लोकतांत्रिक अधिकार है जो नागरिकों को सरकार और प्रशासन के कार्यों की जानकारी प्राप्त करने का अधिकार देता है।
  • यह सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 (RTI Act) के तहत मान्यता प्राप्त है।
  • सर्वोच्च न्यायालय के फैसले: राज नारायण बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1975) में न्यायालय ने कहा कि जनता को सरकार की गतिविधियों की जानकारी प्राप्त करने का अधिकार है।

3. केंद्रीय सतर्कता आयोग (Central Vigilance Commission – CVC)

  • यह भ्रष्टाचार विरोधी एक स्वतंत्र निकाय है जिसे 1964 में स्थापित किया गया था।
  • CVC सरकारी अधिकारियों और विभागों में भ्रष्टाचार के मामलों की जांच करता है।
  • इसे वैधानिक दर्जा केंद्रीय सतर्कता आयोग अधिनियम, 2003 के तहत दिया गया।

4. जांच आयोग (Commission of Inquiry)

  • यह आयोग सरकार द्वारा महत्वपूर्ण मामलों की जांच करने के लिए गठित किया जाता है।
  • आयोग अधिनियम, 1952 के तहत सरकार किसी भी सार्वजनिक महत्व के मामले की जांच के लिए आयोग का गठन कर सकती है।

5. लोक उत्तरदायित्व का सिद्धांत (Doctrine of Public Accountability)

  • इस सिद्धांत के अनुसार, सरकारी अधिकारी और संस्थाएँ जनता के प्रति उत्तरदायी होती हैं।
  • यह सिद्धांत यह सुनिश्चित करता है कि प्रशासन पारदर्शी और उत्तरदायी रहे।
  • केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि लोकतंत्र में सरकार जनता के प्रति जवाबदेह होती है।

राज्य का कार्य (Act of State) और उसका क्षेत्र

परिभाषा:
राज्य का कार्य वह कार्य होता है जिसे सरकार संप्रभु शक्तियों के प्रयोग में करती है और जो न्यायालयों की समीक्षा के अधीन नहीं होता।

क्षेत्र:

  • यह मुख्य रूप से विदेशी मामलों और अंतरराष्ट्रीय संधियों से संबंधित होता है।
  • युद्धकालीन निर्णय, शत्रु संपत्ति की जब्ती आदि इसके अंतर्गत आते हैं।
  • कुरैशी बनाम भारत संघ (1959) – न्यायालय ने कहा कि सरकार के कुछ कार्य न्यायालय की समीक्षा से परे होते हैं।

राज्य की संविदात्मक (Contractual) देयता

परिचय:
अनुच्छेद 299 के तहत सरकार द्वारा किए गए अनुबंधों को विनियमित किया जाता है।

मुख्य बिंदु:

  1. सभी सरकारी अनुबंध लिखित होने चाहिए।
  2. अनुबंध राष्ट्रपति या राज्यपाल के नाम पर किया जाना चाहिए।
  3. यदि कोई सरकारी अधिकारी अनुबंध में निर्धारित शर्तों का उल्लंघन करता है, तो सरकार उत्तरदायी होती है, लेकिन अधिकारी व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी नहीं होता।

महत्वपूर्ण निर्णय:

  • के.पी. चौधरी बनाम भारत संघ (1969) – न्यायालय ने कहा कि सरकार केवल उन अनुबंधों के लिए उत्तरदायी होगी जो अनुच्छेद 299 के अनुसार किए गए हैं।

राज्य की हानिकारक (Tortious) देयता

परिचय:

  • यह देयता उस स्थिति को संदर्भित करती है जिसमें राज्य अपने कर्मचारियों द्वारा किए गए हानिकारक कार्यों के लिए उत्तरदायी होता है।

महत्वपूर्ण निर्णय:

  • पिरोमीताई बनाम भारत संघ (1966) – न्यायालय ने कहा कि यदि कोई सरकारी कर्मचारी अपने आधिकारिक कार्यों के दौरान किसी को नुकसान पहुंचाता है, तो सरकार उत्तरदायी होगी।
  • नागेंद्र राव बनाम भारत संघ (1994) – इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सरकार और नागरिक के बीच कोई विशेष अंतर नहीं किया जा सकता जब मामला हानिकारक देयता का हो।

सार्वजनिक निगम (Public Corporation) और उनकी कानूनी जिम्मेदारी

1. सार्वजनिक निगम क्या है?

  • सार्वजनिक निगम एक स्वायत्त संस्था होती है जिसे सरकार किसी विशेष कार्य को करने के लिए स्थापित करती है।
  • उदाहरण: भारतीय जीवन बीमा निगम (LIC), भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण (AAI), भारतीय तेल निगम (IOC)

2. सार्वजनिक निगमों की कानूनी जिम्मेदारी:

  • सार्वजनिक निगमों पर भी न्यायिक नियंत्रण लागू होता है।
  • यदि कोई निगम नागरिकों के अधिकारों का उल्लंघन करता है, तो न्यायालय हस्तक्षेप कर सकता है।
  • राजस्थान विद्युत मंडल बनाम मोहनलाल (1967) – न्यायालय ने कहा कि सार्वजनिक निगमों को संवैधानिक उत्तरदायित्वों का पालन करना होगा।

सार्वजनिक निगमों पर संसदीय और न्यायिक नियंत्रण

1. संसदीय नियंत्रण:

  • संसद बजट अनुमोदन के माध्यम से सार्वजनिक निगमों की वित्तीय गतिविधियों पर नियंत्रण रखती है।
  • नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) सार्वजनिक निगमों की लेखा परीक्षा करता है।

2. न्यायिक नियंत्रण:

  • न्यायालय निगमों के कार्यों की न्यायिक समीक्षा कर सकता है।
  • यदि कोई सार्वजनिक निगम अनुचित या मनमाना निर्णय लेता है, तो उसे न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है।

निष्कर्ष:

  • भारत में प्रशासनिक कानून नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए विभिन्न सिद्धांतों और कानूनी उपायों को अपनाता है।
  • सरकार और प्रशासनिक संस्थानों की गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए न्यायिक समीक्षा, संसदीय निगरानी और वैधानिक प्रावधानों का सहारा लिया जाता है।
  • लोकायुक्त, केंद्रीय सतर्कता आयोग, अनुच्छेद 32 और अनुच्छेद 226 जैसे प्रावधान प्रशासन की पारदर्शिता और उत्तरदायित्व को सुनिश्चित करते हैं।