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एससी/एसटी अधिनियम के तहत मुआवज़े का सिद्धांत और पीड़ित के hostile होने का प्रभाव: मध्य प्रदेश हाई कोर्ट का महत्वपूर्ण फैसला (W.P. No. 43325/2025)

एससी/एसटी अधिनियम के तहत मुआवज़े का सिद्धांत और पीड़ित के hostile होने का प्रभाव: मध्य प्रदेश हाई कोर्ट का महत्वपूर्ण फैसला (W.P. No. 43325/2025)

प्रस्तावना

         मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा 1 दिसंबर 2025 को दिया गया यह निर्णय एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के उद्देश्यों, मुआवज़े के सिद्धांत और न्यायिक प्रक्रिया में पीड़ित की भूमिका पर अत्यंत महत्वपूर्ण रोशनी डालता है। न्यायमूर्ति प्रणय वर्मा ने अपने आदेश में यह स्पष्ट कर दिया कि अधिनियम के तहत मुआवज़ा एक ‘स्वतंत्र अधिकार’ नहीं है, बल्कि यह पीड़ित को न्याय दिलाने की प्रक्रिया में सहायता प्रदान करने का एक साधन है। यदि पीड़ित मुकदमे के दौरान hostile (द्रोही) हो जाता है, अपने बयान से पलट जाता है और आरोपी पक्ष के साथ समझौता कर लेता है, तो मुआवज़ा देने का कोई औचित्य नहीं रह जाता।

        यह फैसला न केवल कानून की व्याख्या के लिहाज से महत्वपूर्ण है बल्कि यह उन मामलों के लिए भी मार्गदर्शन प्रदान करता है, जहाँ पीड़ित स्वेच्छा से या दबाव में आकर अभियोजन पक्ष का समर्थन नहीं करते, जिससे न्यायिक प्रक्रिया प्रभावित होती है।


एससी/एसटी अधिनियम का उद्देश्य: संरक्षण, न्याय और निवारण

       एससी/एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 का मूल उद्देश्य अनुसूचित जाति और जनजाति के व्यक्तियों को किसी भी प्रकार के अत्याचार, उत्पीड़न तथा सामाजिक भेदभाव से सुरक्षा प्रदान करना है। यह कानून अपराधियों के खिलाफ कड़े दंडात्मक प्रावधानों के साथ-साथ पीड़ितों को राहत और पुनर्वास हेतु आर्थिक सहायता उपलब्ध कराता है।

         न्यायालय ने अपने निर्णय में अधिनियम के उद्देश्य को पुनः रेखांकित करते हुए कहा कि —
“यह कानून उत्पीड़न के वास्तविक पीड़ितों को सहयोग प्रदान करने के लिए बनाया गया है, न कि उन व्यक्तियों को लाभ देने के लिए, जिन्होंने अभियोजन का साथ छोड़ दिया हो।”

       मुआवज़ा इसलिए दिया जाता है ताकि पीड़ित मामले को आगे बढ़ाने में सक्षम हो सके, न कि वह मुआवज़ा पाकर आरोपियों का साथ दे या बीच में समझौता कर ले।


मामले की पृष्ठभूमि: गंभीर आरोप और कानूनी प्रक्रिया

       14 अप्रैल 2020 को घटी घटना में याचिकाकर्ता ने गंभीर आरोप लगाए थे। आरोपियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 342 (गलत तरीके से रोके रखना), धारा 376 (बलात्कार), धारा 376-डी (सामूहिक बलात्कार), धारा 450 और धारा 506 (आपराधिक धमकी) सहित कई गम्भीर धाराओं में केस दर्ज हुआ था।

        मामले की जांच के बाद आरोप पत्र प्रस्तुत किया गया। कानून के अनुसार, पीड़ित को अनुसूचित जाति/जनजाति (अत्याचार निवारण) नियम, 1995 के तहत राहत राशि दी जानी थी। आदिवासी कल्याण विभाग ने प्रारंभिक चरण में ₹2,06,250 का भुगतान किया, जो कुल मुआवज़े का हिस्सा था।


नियम 12(4) और मुआवज़े का ढाँचा

        नियम 12(4) स्पष्ट करता है कि अत्याचार के शिकार व्यक्तियों को चिकित्सा, राहत, पुनर्वास और कानूनी सहायता हेतु आर्थिक सहायता प्रदान की जाएगी।
आईपीसी की धारा 376-डी (गैंगरेप) के मामलों में कुल ₹8,25,000 का प्रावधान है, जिसे तीन चरणों में विभाजित किया गया है—

  1. 50% – चिकित्सा परीक्षण के बाद
  2. 25% – आरोप पत्र दाखिल होने के बाद
  3. 25% – मुकदमे के अंतिम निर्णय के बाद

       इस मामले में याचिकाकर्ता ने चिकित्सा रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं की, जिसके कारण वह पहले चरण के मुआवज़े के लिए पात्र ही नहीं थी।


याचिकाकर्ता का hostile होना: मुआवज़े के अधिकार का अंत

        मुकदमे के दौरान जब याचिकाकर्ता अदालत में पेश होकर अपने ही बयान से पलट गई और अभियोजन पक्ष का समर्थन नहीं किया, तो आरोपी बरी कर दिए गए।

न्यायालय ने कहा कि —
“जब पीड़ित ही अपने आरोपों का समर्थन नहीं करती, तो न तो अपराध सिद्ध होता है और न ही वह ‘अत्याचार की शिकार’ की श्रेणी में बनी रहती है। ऐसे में मुआवज़े का प्रश्न ही नहीं उठता।”

        High Court का यह दृष्टिकोण महत्वपूर्ण है क्योंकि पीड़ित के hostile होने से न केवल न्यायिक प्रक्रिया बाधित होती है, बल्कि अधिनियम का मूल उद्देश्य भी विफल हो जाता है।


राज्य की जिम्मेदारी और मुआवज़े की प्रकृति

         न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि राज्य का दायित्व केवल उन्हीं मामलों में मुआवज़ा देने का है जहाँ पीड़ित अभियोजन का समर्थन करता है। यदि पीड़ित स्वयं ही न्यायिक प्रक्रिया से पीछे हट जाए, तो राज्य की ओर से दी गई आर्थिक सहायता का कोई औचित्य नहीं है।

न्यायालय ने साफ कहा कि पीड़िता को दिए गए ₹2,06,250 रुपए भी राज्य को लौटाने होंगे।

यह स्पष्ट करता है कि—
मुआवज़ा तभी तक देय है, जब तक पीड़ित न्याय प्रक्रिया में सहयोग करता रहे। एक बार सहयोग समाप्त होने पर मुआवज़े का आधार भी समाप्त हो जाता है।


एससी/एसटी अधिनियम में मुआवज़े की भूमिका: न्याय का साधन, उद्देश्य नहीं

फैसले का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा यह था कि न्यायालय ने मुआवज़े को एक साधन (means) बताया, साध्य (end) नहीं।

मुआवज़ा देने का उद्देश्य—
• पीड़ित को अदालत में खड़े रहने की शक्ति देना
• दबाव, धमकी, आर्थिक कठिनाइयों के बीच न्याय पाने में उसकी सहायता करना
—है, न कि उसे आर्थिक लाभ पहुँचाना।

यदि पीड़ित hostile होकर आरोपी के साथ समझौता कर लेता है, तो पीड़ित के संरक्षण हेतु बने प्रावधान का दुरुपयोग माना जाएगा।


अदालत का अंतिम निर्णय

अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा—

  • याचिकाकर्ता ने अपने बयान से पलटकर अभियोजन का साथ नहीं दिया।
  • इस कारण न वह ‘अत्याचार की शिकार’ रही और न ही मुआवज़े की पात्र।
  • राज्य द्वारा पहले से दिया गया मुआवज़ा वापस लिया जाएगा।
  • इसलिए, याचिका खारिज की जाती है।

इस निर्णय का व्यापक प्रभाव

यह फैसला कई महत्वपूर्ण प्रश्नों को सुलझाता है—

1. पीड़ित के hostile होने का परिणाम

पीड़ित की hostility न केवल अभियोजन के लिए घातक होती है, बल्कि उसके आर्थिक अधिकारों पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालती है।

2. अधिनियम के दुरुपयोग पर रोक

यदि hostile पीड़ित को मुआवज़ा मिलता रहे, तो अधिनियम का उद्देश्य कमजोर हो जाएगा और इसका गलत प्रयोग होने लगेगा।

3. राज्य पर अनावश्यक वित्तीय बोझ की रोकथाम

सार्वजनिक संसाधनों का उपयोग तभी होना चाहिए जब वास्तविक पीड़ित न्याय के लिए प्रयासरत हों।

4. न्यायिक प्रक्रिया और साक्ष्य का महत्व

जब गवाह ही साफ बयान देता है कि अपराध नहीं हुआ, तो अदालत कानूनन किसी आरोपी को दोषी नहीं ठहरा सकती।


मामले का सारांश (Case Summary)

  • केस नंबर: Writ Petition No. 43325/2025
  • पीठ: न्यायमूर्ति प्रणय वर्मा
  • मूल मुद्दा: क्या hostile हो चुके पीड़ित को एससी/एसटी मुआवज़ा मिल सकता है?
  • निर्णय: hostile पीड़ित को मुआवज़ा देय नहीं; दिया गया मुआवज़ा लौटाना होगा।
  • आधार: नियम 12(4), पीड़ित की भूमिका, अधिनियम का उद्देश्य, न्यायिक प्रक्रिया का समर्थन।

निष्कर्ष

       मध्य प्रदेश हाई कोर्ट का यह फैसला अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह एससी/एसटी अधिनियम के तहत मुआवज़े की प्रकृति और उद्देश्य को स्पष्ट रूप से परिभाषित करता है। अदालत ने यह सुनिश्चित किया कि मुआवज़ा केवल उन्हीं परिस्थितियों में दिया जाए, जब पीड़ित न्यायिक प्रक्रिया का समर्थन करे और वास्तविक रूप से अत्याचार का शिकार हो।

        पीड़ित के hostile हो जाने पर मुआवज़ा देना न केवल कानून के उद्देश्य के विरुद्ध है, बल्कि इससे न्यायिक प्रक्रिया की पवित्रता भी प्रभावित होती है। इसलिए, इस मामले में अदालत का निर्णय सामाजिक न्याय, कानूनी नीतियों और न्यायिक सिद्धांतों का संतुलित परिणाम है।

       यह फैसला आने वाले समय में ऐसे कई मामलों के लिए मिसाल बनकर उभरेगा, जहाँ hostile गवाह और मुआवज़े के दुरुपयोग के मुद्दे सामने आते हैं।