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“सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट निर्देश: PC Act में Sanction के मामले में धारा 19(3)/(4) का संरक्षण नहीं”

“PC Act: जब ट्रायल कोर्ट ने खुद संज्ञान लिया — धारा 19(3) & 19(4) का संरक्षण व्यर्थ : SC का स्पष्ट निर्देश”


प्रस्तावना

         2025 में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि यदि ट्रायल कोर्ट (Special Judge / Trial Court) अपने स्तर पर यह पाये कि मुकदमा चलाने के लिए दी गयी “sanction” (अभियोजन की अनुमति) अवैध है — तो उस स्थिति में धारा 19(3) व 19(4) PC Act के संरक्षण (safeguards) काम नहीं करते। यानी, ये उप‑धाराएँ केवल appellate या revisional स्तर पर लागू होती हैं — जहाँ पहले से मान्य संज्ञान (cognizance) लेकर मुकदमा चल रहा हो। यह निर्णय भ्रष्टाचार कानून (anti‑corruption jurisprudence) में एक महत्वपूर्ण मोड़ है।

       नीचे हम इस फैसले की पृष्ठभूमि, कानूनी तर्क, दलीलें, और इसके प्रभावों का विश्लेषण करेंगे।


पृष्ठभूमि : sanction का अर्थ और PC Act की धारा 19

  • PC Act की धारा 19 यह प्रावधान करती है कि किसी लोक‑सेवक (public servant) के विरुद्ध भ्रष्टाचार (corruption) का मुकदमा तभी चलाया जा सकता है, जब अभियोजन की पूर्व “sanction” — अर्थात् सक्षम प्राधिकारी की अनुमति — प्राप्त हो।
  • धारा 19(1) उस प्राधिकारी की योग्यता व bevoegdता को निर्धारित करती है। यदि sanction देने की प्रक्रिया सही नहीं हुई — अर्थात् किसी गैर‑काबिल प्राधिकारी ने sanction दी — तो वह sanction “invalid या nullity” मानी जाती है, मुकदमा अवैध है।
  • लेकिन फिर भी, PC Act में धारा 19(3) तथा 19(4) भी है, जो कहती हैं — कि appellate / रिवीजन कोर्ट विशेष (special) निचली अदालत (Special Judge) द्वारा दिए गए फैसला, सज़ा या आदेश को केवल तब पलट सकती है यदि sanction में “error, omission या irregularity” हो और उसने “failure of justice” (न्याय की विफलता) का कारण बनाया हो। यानी procedural दोष को स्वतः grounds नहीं माना जाएगा।

       परंतु, पिछले कुछ दशकों में न्यायालयों में विवाद चला कि ये protections कब लागू होंगी? क्या trial‑stage पर sanction की वैधता की चुनौती की जा सकती है? या appellate‑stage तक प्रतीक्षा करनी होगी?


सुप्रीम कोर्ट का 2025 का निर्णय — मर्म व विवेचना

क्या हुआ — मामला, facts व context

  • 2025 में, SC ने एक मामले (T. Manjunath v. State of Karnataka) में विचार किया, जहाँ अभियोजन पक्ष ने पहले sanction ले कर मुकदमा चलाया, लेकिन ट्रायल कोर्ट ने पाया कि sanction देने वाला प्राधिकारी (Transport Commissioner) उस लोक‑सेवक को नियुक्त करने वाला उचित प्राधिकारी नहीं था — अतः sanction अवैध थी। इसलिए ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को discharge (= मुकदमा बंद) कर दिया।
  • राज्य (प्रशासन) ने उच्च न्यायालय में याचिका की कि धारा 19(3)/(4) लागू होती है — अत: sanction के procedural दोषों के कारण मुकदमा नहीं खारिज किया जा सकता। उच्च न्यायालय ने अन्य निर्णयों का आधार बनाकर ट्रायल की पुनरारंभि का आदेश दिया।
  • इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा, जिसने इस reasoning को खारिज कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि — जब sanction की वैधता ही ट्रायल कोर्ट के समक्ष प्रश्न में हो — और वह यह निर्धारित करे कि sanction देने वाली authority असंगत / असक्षम है — तो यह केवल procedural “irregularity” नहीं, बल्कि “nullity” है। ऐसी स्थिति में धारा 19(3) व 19(4) का संरक्षण लागू नहीं होता।

कानून की व्याख्या — धारा 19(3)/(4) की सीमाएँ

  • SC ने कहा कि धारा 19(3)/(4) केवल उन स्थितियों के लिए है जहाँ trial court ने पहले से मान्य संज्ञान लेकर मुकदमा चलाया हो, और अब appellate / revisional कोर्ट में उसकी समीक्षा हो रही हो।
  • यदि संज्ञान ही अवैध है — यानी sanction invalid है — तो trial court को आरोपी को discharge करना चाहिए। ऐसे में, sanction order मूलतः null है; कोई “irregularity” का प्रश्न नहीं रह जाता जिस पर later protection लागू हो सके।
  • SC ने यह भी कहा कि sanction की वैधता एक mixed question of law and fact है; trial court स्तर पर ही उसकी जांच होनी चाहिए।

क्यों इस निर्णय को देखें एक milestone के रूप में

स्पष्टता व न्यायिक स्थिरता

  • इससे पहले sanction‑related cases में अक्सर procedural technicalities, delayed challenges और conflicting judgments के कारण विवाद होता था कि sanction की वैधता कब जांची जाए। यह decision इस असमंजस को मिटाता है — कहता है कि यदि sanction की legality पर सवाल है, तो trial court स्तर पर उसे तय किया जाना चाहिए, appellate stage पर procedural loophole का संरक्षण नहीं।
  • यह public servants की सुरक्षा (false / frivolous prosecution) और भ्रष्टाचार से मुकदमा चलाने की संवेदनशीलता दोनों के बीच संतुलन बनाए रखने का प्रयास है — क्योंकि sanction की आवश्यकता (statutory safeguard) बरकरार रहेगी, पर misuse नहीं होंगे।

संवैधानिक व प्रक्रिया‑कानून (criminal procedure) पर प्रभाव

  • sanction invalid होने पर ट्रायल होगा ही नहीं — इस कारण, कई फर्जी अभियोजन, राजनीतिक दुरुपयोग, बदनियत अभियोजन (malicious prosecution) से मुकदमा बचने का मार्ग खुलेगा।
  • इससे न्यायालयों के समय और संसाधन भी बचेंगे — क्योंकि उन मामलों में evidence, witnesses आदि न बुला कर ही discharge संभव होगा जहाँ sanction invalid हो।

उदाहरण — अन्य संबंधित मामलों पर असर

  • SC ने पहले (2024) भी स्पष्ट किया था कि sanction‑order में irregularity, omission, या procedural दोष — सज़ा overturned करने के लिए ground नहीं होते, जब तक “failure of justice” साबित न हो।
  • लेकिन नया निर्णय उस स्थिति को अलग करता है जब sanction की मूल वैधता ही नहीं है — इस distinction (validity versus irregularity) को firmly establish करता है।

संभावित दलीलें व चुनौतियाँ: इसका विरोध या आलोचना

  • दलील: कुछ यह कह सकते हैं कि sanction की “competency” को trial‑stage पर challenge करने देने से अभियोजन पक्ष को procedural hurdles का सामना करना पड़ेगा — जिससे भ्रष्टाचार मामलों में prosecution कठिन हो सकती है।
  • उत्तर: लेकिन sanction का उद्देश्य ही frivolous prosecution से बचाना है; यदि sanction देने वाली authority ही असक्षम हो — तो prosecution का आधार ही गलत था। इसलिए यह loophole नहीं, बल्कि safeguard का सही उपयोग है।
  • दलील: appellate / revisional स्तर पर protection हटाने से, convictions पर appeals की संभावनाएं बढ़ेंगी।
  • उत्तर: appellate / revisional protection सिर्फ उन्हीं मामलों के लिए है जहाँ trial court स्वयं valid sanction को मानकर चलता है; जो conviction हो चुका है। लेकिन जहाँ trial‑stage पर sanction invalid हो — prosecution नहीं चलेगी; appellate review irrelevant होगा।

निष्कर्ष

         नवीनतम 2025 के फैसले ने स्पष्टता लाई है कि Prevention of Corruption Act, 1988 की धारा 19(3) और 19(4) का संरक्षण केवल appellate / revisional स्तर के लिए है — न कि उस स्थिति में जब ट्रायल कोर्ट अपनी शुरुआत में ही sanction की वैधता पर सवाल उठाए। यदि sanction देने वाली authority असक्षम थी, तो sanction nullity होगी, मुकदमा नहीं चलेगा, और accused को discharge मिलना चाहिए।

        इससे anti‑corruption jurisprudence में एक महत्त्वपूर्ण संतुलन स्थापित हुआ है — जहाँ भ्रष्टाचार का मुकदमा चलाने व public servants को बदनियत अभियोजन से बचाने के बीच न्याय और संवैधानिक नियमों का सामञ्जस्य बना रहता है।