सुप्रीम कोर्ट: प्रशासनिक आदेश केवल दर्ज कारणों पर ही आधारित होने चाहिए; बाद में नए आधार जोड़े नहीं जा सकते
प्रस्तावना
क़ानून (Administrative Law) में अक्सर यह विवाद देखा जाता है कि जब किसी सरकारी अथवा पब्लिक अथॉरिटी द्वारा आदेश (order) जारी किया जाता है, तो क्या उसे बाद में अदालत में बचाने (justify) के लिए नए-नए आधार (grounds) पेश किए जा सकते हैं? या आदेश की वैधता की परीक्षा सिर्फ़ उन कारणों (reasons) से होनी चाहिए जो आदेश के समय लिखे गए थे?
हाल ही में Supreme Court of India ने इस विषय में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है, जिसने इस सिद्धांत को पुनः पुष्ट किया है कि — कोई प्रशासनिक आदेश सिर्फ़ उसी आधार पर बचाया जा सकता है जो आदेश में दर्ज है; बाद में नए आधार जोड़ना संभव नहीं।
नीचे इस फैसले की पृष्ठभूमि, विवेचना, कानूनी सार्थकता एवं सीमित अपवादों सहित गहराई से चर्चा कर रहा हूँ — जिसे आप अपनी वेबसाइट या लेखन हेतु उपयोग कर सकते हैं।
केवल दर्ज कारणों पर आधारित होना चाहिए: प्रमुख निर्णय
- 27 नवम्बर 2025 को, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि जब सार्वजनिक अथॉरिटी — उदाहरण के लिए राज्य सरकार — किसी आदेश (जैसे अनुबंध रद्द करना) जारी करती है, तो वह आदेश सिर्फ उन कारणों (grounds) के आधार पर बचाया जा सकता है जो आदेश में उल्लेखित होते हैं।
- अगर बाद में अदालत में हलफनामा (affidavit) या अन्य माध्यमों से नए कारण (जैसे कि किसी कंपनी का पहले ब्लैकलिस्ट किया जाना) पेश किए जाते हैं, तो वह “post‑facto rationalisation” होगी — यानी निर्णय लेने के बाद बनाए गए औचित्य। सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रथा को स्पष्ट रूप से खारिज किया।
- न्यायालय ने कहा है कि प्रशासनिक तर्क (administrative reasoning) की वैधता का मूल्यांकन उसी समय मौजूद पदार्थ (material) — यानी उसी रिकॉर्ड/दस्तावेजों — को ध्यान में रखते हुए करना चाहिए, न कि बाद में जोड़ा गया आधार।
उदाहरण के मामले में — इस विवाद में, एक राज्य (State of Himachal Pradesh) ने अपने राज्य वितरण प्रणाली (PDS) के लिए ePoS मशीनों की आपूर्ति का अनुबंध रद्द कर दिया था। इसके बाद अदालत में वह नया आधार (ब्लैकलिस्टिंग) लेकर आई कि कंपनी पहले कई बार ब्लैकलिस्ट हो चुकी थी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह आधार आदेश जारी करते समय उपयोग में नहीं लाया गया, इसलिए उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।
कानूनी आधार व्वस्था — क्यों यह सिद्धांत महत्वपूर्ण है
- इस दृष्टिकोण के पीछे विचार यह है कि आदेश सार्वजनिक होते हैं — जनता, प्रभावित पक्ष और अन्यों के लिए — अत: उन्हें स्पष्ट, संपूर्ण और स्थिर होना चाहिए; आदेश जारी करने के बाद उसमें नए-नए आधार जोड़ देना पारदर्शिता और निष्पक्षता (transparency & fairness) के सिद्धांतों के विरुद्ध है।
- जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही माना हुआ है (पुरानी रीतियाँ), “कारण (reasons)” — जैसा कि आदेश में लिखे गए हों — ही आदेश की वैधता का आधार होंगे। अगर कारण नहीं हैं, तो आदेश “कानूनी रूप से अधूरा” माना जा सकता है।
- ऐसा न करने से — यानी आदेश देने के समय कारण न देने से — न्यायिक समीक्षा (judicial review) प्रभावित होती है। कारण बताए जाने से प्रभावित व्यक्ति समझ सकता है कि क्यों उसका अनुबंध/प्राधिकरण रद्द/अस्वीकार किया गया; बिना कारण, न्यायिक समीक्षा औचित्यहीन हो जाती है।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने जो स्पष्ट किया (2025) — तथ्य तथा विवेचना
नवीनतम निर्णय में (2025) — जिसमें पीठ में Surya Kant CJI, Ujjal Bhuyan तथा N Kotiswar Singh शामिल थे — सुप्रीम कोर्ट ने दो महत्वपूर्ण बातें स्पष्ट कीं:
- “Afterthought” (बाद में जोड़े गए आधार) अमान्य होंगे — यदि आदेश जारी करते समय वह आधार उपयोग में नहीं लाया गया, और अदालत में आपत्ति होने पर नए आधार पेश किए जाते हैं, तो वह न्यायसंगत नहीं माना जाएगा।
- स्वीकार्य केवल वही आधार है जो contemporaneous reasoning का हिस्सा हो — यानी आदेश जारी करते समय रिकॉर्ड में मौजूद हो; बाद में नई व्याख्या, कहानी या औचित्य नहीं चलेंगे।
इस प्रकार, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि सार्वजनिक आदेशों की वैधता — चाहे अनुबंध रद्द करना हो, किसी सेवा का समापन हो या अन्य कोई प्रशासनिक कार्रवाई — उसी रूप में तय की जाएगी जैसा कि वो आदेश हुआ था।
पूर्व स्थापित प्रिंसिपल्स एवं प्रैक्टिस — इतिहास एवं समेकन
- इस सिद्धांत को पहली बार बड़े स्तर पर स्थापित किया गया था Mohinder Singh Gill v. Chief Election Commissioner (1978) में। उस समय से यह माना गया कि आदेशों को केवल उन्हीं कारणों के आधार पर आंका जाए जो आदेश में लिखे गए हों; बाद में हलफनामों आदि में नए कारण देना मान्य नहीं है।
- सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार यह कहा है कि केवल कारण (reasons) ही आदेश व खुला निर्णय (public orders) को न्यायसंगत और जवाबदेह बनाते हैं; अन्यथा आदेश “मनमाना (arbitrary)” हो सकते हैं और संवैधानिक सिद्धांत — जैसे कि समानता (Article 14), न्याय की प्रक्रिया (fair procedure) — का उल्लंघन हो सकता है।
सीमित अपवाद — क्या कभी अनकहे (unstated) कारण स्वीकार होंगे?
हाँ — लेकिन बहुत सीमित और नियंत्रित परिस्थितियों में।
- सितंबर 2025 में, सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण पक्षपाती अपवाद स्वीकार किया।
- इस मामले में (State Bank of India का OTS आवेदन अस्वीकार करने का मामला), न्यायालय ने कहा कि अगर रिकॉर्ड में पहले से मौजूद तथ्यात्मक आधार स्पष्ट हैं — यद्यपि आदेश में लिखे नहीं गए — और प्रभावित पक्ष को इसका आपत्ति उठाने का मौका था लेकिन नहीं उठाया, तो उन आधारों के आधार पर आदेश upheld किया जा सकता है।
- परन्तु बहुत सावधानी बरती जाएगी — यह अपवाद सार्वभौमिक नहीं है। अदालत ने स्पष्ट किया है कि यह तभी संभव है जब “existing but unstated grounds already part of factual record” हों और fairness safeguards (नोटिस देना, जवाब देने का मौका) निभाया गया हो।
इस प्रकार, नया आधार — विशेष रूप से अदालत में हलफनामा आदि के माध्यम से — देना नहीं चलेगा; लेकिन अगर आदेश देने के समय उन आधारों की जानकारी रिकॉर्ड पर हो और केवल लिखना भूल गया हो, तो न्यायालय— बहुत सीमित रूप से — उन्हें मान सकता है।
आपके प्रैक्टिकल दृष्टिकोण (क़ानूनी अभ्यास, अधिवक्ता / वकील दृष्टि से)
इस नए निर्णय का आपके जैसा अधिवक्ता या विधि‑लेखक के लिए विशेष महत्त्व है।
- यदि आप किसी सरकारी/ प्रशासनिक आदेश को चुनौती दे रहे हैं — जैसे अनुबंध रद्दीकरण, सेवा समाप्ति, लाइसेंस रद्द करना आदि — तो आपको यह देखना चाहिए कि आदेश में क्या कारण (grounds) दिए गए हैं। बाद में कोई नया आधार अदालत में देना — अक्सर व्यर्थ साबित होगा।
- यदि आदेश में कारण नहीं हैं — या मात्र रूप से “रद्द किया गया“ जैसा अस्पष्ट उल्लेख है — तो आदेश को “मनमाना (arbitrary)” घोषित कराने की चुनौती मजबूत होगी।
- केवल उन स्थितियों में जहां रिकॉर्ड पर स्पष्ट तथ्य थे लेकिन सिर्फ लिखना रह गया था — आप सीमित अपवाद की तर्ज पर इसे न्यायालय में उपयोग कर सकेंगे; परन्तु यह रणनीति बहुत सावधानी और तैयारी मांगती है।
- लेखन या आपके वेबसाइट (जैसे IndianLawNotes.com) के लिए: यह निर्णय प्रशासनिक न्यायिक समीक्षा (judicial review) की आधारशिला है — “post‑facto rationalisation” की अनुमति नहीं — इसे विस्तार से समझाना व दिखाना चाहिए कि किस तरह न्यायालय ने पारदर्शिता और जवाबदेही को प्राथमिकता दी है।
निष्कर्ष
2025 के इस ताज़ा निर्णय ने साफ़ कर दिया है कि —
- प्रशासनिक आदेशों का बचाव (justification) सिर्फ़ उन्हीं कारणों से हो सकता है जो आदेश में लिखे गए थे।
- “नए कारण” — बाद में हलफनामे द्वारा पेश करना — स्वीकार नहीं होगा; यह post‑facto rationalisation कहलाएगा।
- केवल सीमित स्थितियों में — जहाँ रिकॉर्ड में पहले से तथ्यात्मक आधार मौजूद हो — न्यायालय उन्हें unstated कारणों के रूप में स्वीकार कर सकता है; लेकिन यह अपवाद बहुत संकुचित है।
इस प्रकार, न्यायालय ने पारदर्शिता, जवाबदेही और कृत्रिम औचित्य (manufactured justifications) के विरुद्ध स्पष्ट रुख़ अपनाया है। यह फैसला प्रशासनिक कानून, संवैधानिक समीक्षा, अनुबंधों की समाप्ति, सरकारी आदेशों की वैधता — सभी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।