“ऑनलाइन मीडिया — आत्म‑नियमन असफल; प्रभावी नियंत्रण के लिए स्वायत्त, स्वतंत्र नियामक संस्था आवश्यक: सुप्रीम कोर्ट की अहम टिप्पणी”
प्रस्तावना
डिजिटल युग में इंटरनेट, ओटीटी‑प्लैटफॉर्म, सोशल मीडिया, यूजर‑जेनर्ड कंटेंट (UGC) आदि ने अभिव्यक्ति की आज़ादी (freedom of expression) को अभूतपूर्व विस्तार दिया है। यह विस्तार लोकतंत्र और सूचना‑सुलभता के लिए एक वरदान है। परन्तु उसी साथ, इसके दुरुपयोग, अश्लीलता (obscenity), सनसनी‑खबर (sensationalism), घृणा‑भाषण (hate speech), झूठी/भ्रामक जानकारी (misinformation), डिजिटल माध्यमों में मनहूस बदलाव आदि ने चिंता का विषय बना दिया है।
भारत में पारंपरिक मीडिया (प्रिंट, फ़िल्म, टीवी) का नियमन किसी हद तक हुआ करता था — लेकिन ऑनलाइन मीडिया, सोशल मीडिया, यू‑ट्यूब/ओटीटी आदि — ये अब भी मुख्यतः “आत्म‑नियमन (self‑regulation)” के भरोसे हैं। हालाँकि, वर्षों से यह देखा गया है कि आत्म‑नियमन अक्सर प्रभावी नहीं रहा — नियम बने, लेकिन उल्लंघन, पुनरावृत्ति, शिकायतों का उचित निवारण या जवाबदेही नहीं।
इसी चिंता के मद्देनज़र, 27 नवम्बर 2025 को Supreme Court of India (सुप्रीम कोर्ट) ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी दी — कि आत्म‑नियमन मॉडल पर्याप्त नहीं, बल्कि एक “तटस्थ, स्वतंत्र और स्वायत्त” नियामक संस्था आवश्यक होगी, जो ऑनलाइन मीडिया में अश्लील, आपत्तिजनक या अवैध कंटेंट का प्रभावी नियंत्रण कर सके।
यह लेख उस टिप्पणी, उसके मायने, बदलते मीडिया‑परिदृश्य, चुनौतियों व सुझावों का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत करेगा।
पृष्ठभूमि: क्यों हुआ यह मसला — मीडिया पर आत्म‑नियमन का ढाँचा
1. मीडिया, डिजिटल प्लेटफार्म और बदलता परिदृश्य
- पारंपरिक मीडिया — अखबार, टीवी समाचार चैनल, फिल्मों — पर निश्चित नियामक व नियंत्रण थे।
- लेकिन इंटरनेट, स्मार्टफोन, सोशल मीडिया, पैकेज्ड वीडियो / ऑडियो / लाइव‑स्ट्रीमिंग आदि ने “हर व्यक्ति” को “जर्नलिस्ट / कंटेंट‑क्रिएटर” बनने का अवसर दे दिया।
- अब मीडिया सिर्फ बड़े समूहों तक सीमित नहीं — Individuals, Influencers, Podcasters, YouTubers, OTT‑creators — सभी कंटेंट बना रहे हैं।
- इस परिवर्तित यथार्थ में पारंपरिक नियामक तंत्र अपर्याप्त साबित हुआ; इसलिए “आत्म‑नियमन (self‑regulation)” की ओर रुख हुआ।
2. आत्म‑नियमन का क्या मतलब है?
Self‑regulation का मतलब है कि मीडिया हाउस, ब्रॉडकास्टर, डिजिटल प्लेटफार्म स्वयं अपने लिए आचार संहिता (Code of Ethics), internal grievance mechanism आदि बनाएं — किसी के निर्देश से नहीं, स्वयं की हामी से।
- उदाहरणतः, समाचार चैनलों के लिए News Broadcasters & Digital Association (NBDA) जैसी संस्थाएँ बनी; जो guidelines तय करतीं। लेकिन यह स्वैच्छिक होती हैं।
- डिजिटल/डिजिटल‑मीडिया / ऑनलाइन कंटेंट के लिए भी विभिन्न “self‑regulatory codes / voluntary ethics frameworks” की प्रवृत्ति रही है।
पर, नियामक रूप में आत्म‑नियमन की सीमाएँ, मीडिया‑पारदर्शिता, जवाबदेही और उचित नियंत्रण के अभाव जरुरी सवाल खड़े करते रहे।
3. सुप्रीम कोर्ट एवं न्यायिक दृष्टिकोण — बदलती सोच
हालाँकि कुछ समय पहले तक, न्यायालयों ने आत्म‑नियमन व मौजूदा नियामक व्यवस्था को स्वीकारा, लेकिन धीरे‑धीरे इनकी अक्षमता, कमज़ोर जवाबदेही और बढ़ते डिजिटल दुरुपयोग ने न्यायिक सोच में बदलाव लाया।
- 2023 में, BV Nagarathna — सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस — ने स्पष्ट कहा कि “electronic media (समाचार चैनल आदि) में self‑regulation काम नहीं करता; regulatory authority (नियामक संस्था) की आवश्यकता है।”
- न्यायालय ने fake news, yellow journalism, fear‑mongering आदि को लोकतंत्र के लिए ख़तरा माना। इसी दौरान कहा गया कि उन जहाजों का दायरा बढ़ चुका है जिनके पास अब पहुँच है हजारों–लाखों दर्शकों तक।
- इसके अलावा, आवेदन‑आधारित content‑regulation याचिकाएँ (PILs) भी उच्च न्यायालयों व सुप्रीम कोर्ट में बढ़ीं — जिनमें ऑनलाइन/OTT/डिजिटल कंटेंट को नियंत्रित करने की मांग की गई। लेकिन 2024 में, सुप्रीम कोर्ट ने उन PILs को खारिज कर दिया, यह कहते हुए कि “यह नीति (policy) का विषय है, न्यायालय का नहीं”।
इस पृष्ठभूमि में, 27 नवम्बर 2025 का ताज़ा निर्णय — आत्म‑नियमन की अक्षमता पर सुप्रीम कोर्ट की स्पष्ट टिप्पणी — इसलिए उल्लेखनीय है।
सुप्रीम कोर्ट की 2025 टिप्पणी: क्या कहा गया?
मुख्य बातें
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि “self‑regulation for online media ineffective है” और अब “neutral, independent और autonomous body” की ज़रूरत है — जो कि मीडिया प्लेटफॉर्म्स द्वारा प्रकाशित अश्लील, आपत्तिजनक या अवैध कंटेंट को नियंत्रित कर सके।
- वह बेंच जिसने यह टिप्पणी की — जिसमें Surya Kant (CJI) और Joymalya Bagchi — ने पंडित किया कि वर्तमान self‑styled regulatory / grievance‑handling संस्थाएं पर्याप्त नहीं, क्योंकि वे या तो स्वयं मीडिया‑हाउसों द्वारा गठित होती हैं, या उनकी कार्य‑क्षमता सीमित होती है।
- अदालत ने यह चिंता भी जताई कि फिलहाल कई कंटेंट‑क्रिएटर बिना किसी जवाबदेही के अपनी “यूट्यूब चैनल” या अन्य प्लेटफार्म चला रहे हैं — “मैं अपना चैनल बना लेता हूँ, मुझे किसी से जवाबदेही नहीं है” जैसी स्थिति बनी हुई है। CJI की टिप्पणी थी कि “किसी को accountable होना चाहिए।”
- न्यायालय ने सुझाव दिया कि सरकार (केंद्र) एक मसौदा (draft) दिशा‑निर्देश (guidelines) प्रकाशित करे और stakeholders (मीडिया, समाज, विशेषज्ञ, नागरिकों) से सलाह‑सुझाव आमंत्रित करें; उसके बाद विशेषज्ञ समिति या स्वायत्त संस्था गठित की जानी चाहिए।
- परन्तु, सुप्रीम कोर्ट ने तुरंत कभी भी censorship स्थापित करने या pre‑censorship के लिए ग्रीन सिग्नल नहीं दिया — कोर्ट ने स्पष्ट किया कि वो “gagging” नहीं चाहते; सिर्फ regulatory vacuum को भरना चाहते हैं।
इस टिप्पणी का कानूनी व सामाजिक महत्व
सकारात्मक मायने
- स्वतन्त्रता व जवाबदेही का संतुलन
- डिजिटल युग में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता महत्वपूर्ण है; परन्तु जब वह अश्लीलता, हिंसा, घृणा‑भाषण, misinformation आदि को साधने लगे, तो समाज व लोकतंत्र दोनों प्रभावित होते हैं। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी इस बुनियादी संतुलन की ओर इशारा करती है।
- नियमित, स्थिर व जवाबदेही प्रणाली की मांग
- Self‑regulation की सीमाओं व voluntary nature के कारण, कई मीडिया‑हाउस या कंटेंट‑क्रिएटर नियमों को अनदेखा कर जाते हैं — या उल्लंघन पर कोई कठोर कार्रवाई नहीं होती। स्वायत्त नियामक संस्था से ऐसी जवाबदेही बन सकती है।
- न्यायिक चेतावनी व सामाजिक जागरूकता
- सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय/टिप्पणी से यह संदेश गया है कि मीडिया पर अनियमितता, sensationalism, irresponsible reporting अब निजी मामला नहीं, सार्वजनिक व राष्ट्रीय चिंता का विषय है। इससे समाज में मीडिया‑जिम्मेदारी व नागरिक जागरूकता बढ़ सकती है।
- नीति‑निर्माण के लिए प्रोत्साहन
- यह टिप्पणी सरकार, नीति निर्माता, नागरिक समाज, मीडिया समूह — सबके लिए संकेत की तरह है कि एक ठोस, व्यापक, समान्य व binding regulatory ढांचा चाहिए।
चुनौतियाँ, आशंकाएँ व जोखिम
- स्वतंत्रता बनाम नियंत्रण — संतुलन का सवाल
- नियामक संस्था बनाना आसान है, लेकिन यह सुनिश्चित करना मुश्किल है कि वह सत्ता‑दमन, सेंसरशिप या मनमानी नियंत्रण का माध्यम न बने — विशेष रूप से जब कंटेंट “राजनीतिक”, “सांस्कृतिक” या “विवादित” हो।
- मीडिया‑स्वतन्त्रता और लोकतंत्र के चौथे स्तंभ (fourth estate) की भूमिका बनाई रखनी होगी; नियमन ऐसा नहीं हो कि मीडिया डर से चुप हो जाए।
- कानूनी, संवैधानिक और प्रक्रियात्मक जटिलताएँ
- कौन बने इस संस्था? अदालतों/न्यायपालिका से दूर, लेकिन न्याय‑विधिक समझ रखने वाली? सरकार से पूरी तरह स्वतंत्र?
- नियम कायदे, प्रक्रियाएँ, शिकायत निवारण, अपील प्रक्रिया — सब बने, जिससे misuse न हो।
- साथ ही, यह सुनिश्चित करना कि freedom of expression (आर्टिकल 19) व अन्य fundamental rights प्रभावित न हों।
- अंतरराष्ट्रीय व वैश्विक दृष्टिकोण
- डिजिटल मीडिया आज ग्लोबल है — कंटेंट की रचना, होस्टिंग, प्रसारण, दर्शक — कई देशों में फैला हुआ। भारत‑केंद्रित regulation से क्या वैश्विक प्लेटफार्म, होस्टिंग सर्वर, content‑delivery networks नियंत्रित हो पाएँगे?
- Content moderation, cross‑border jurisdiction, इंटरनेट‑प्रौद्योगिकी की गतिशीलता आदि चुनौतियाँ बनी रहेंगी।
- मीडिया उद्योग व रचनात्मक स्वतंत्रता पर असर
- यदि नियामक संस्था या नीतियाँ बहुत सख्त/रेड‑लाइट हों, तो कलाकारों, कंटेंट‑क्रिएटरों, स्वतंत्र पत्रकारों की रचनात्मक स्वतंत्रता दब सकती है।
- Self‑censorship, chilling effect — ऐसे खतरे कि लोग विवादित या संवेदनशील विषयों पर बोलने, लिखने या दिखाने से डरें।
मौजूदा नियामक तंत्र और उसकी सीमाएँ
उदाहरण — टीवी / ब्रॉडकास्ट मीडिया
- पहले, टीवी न्यूज़ चैनल आदि पर केवल self‑regulation थी, मुख्यतः voluntary। कई चैनल self‑regulatory associations (जैसे NBDA) से जुड़े थे, बाकी नहीं। सुप्रीम कोर्ट और न्यायाधीशों ने बार-बार कहा कि यह व्यवस्था अपर्याप्त है।
- 2023‑2024 के आसपास, सुप्रीम कोर्ट ने यह विचार व्यक्त किया कि self‑regulation को मजबूत करना पड़ेगा — ताकि वो सिर्फ नाम का नहीं, “बाइट” वाला हो; बयान में उल्लेख था कि सिर्फ ₹1 लाख का जुर्माना (fine) देना अब पर्याप्त नहीं।
डिजिटल / ऑनलाइन / OTT मीडिया
- 2021 में, सरकार ने Information Technology (Intermediary Guidelines and Digital Media Ethics Code) Rules, 2021 (IT Rules 2021) लागू किए — ताकि ऑनलाइन/डिजिटल मीडिया के लिए कुछ नियम बन सकें।
- बावजूद इसके, कई आलोचक कहते हैं कि ये नियम पर्याप्त नहीं — क्योंकि enforcement कमजोर है, self‑regulation voluntary है, complaints‑redressal धीमा है, accountability कम है।
- 2024 में, एक PIL (जनहित याचिका) में मांग की गई कि एक स्वायत्त नियामक बोर्ड बनाया जाए, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उसे खारिज कर दिया। बेन्च ने कहा कि यह “policy matter” है — नीति‑निर्माण और केंद्र/सरकार का काम है।
इस सब के बीच, 2025 की सुप्रीम कोर्ट टिप्पणी — self‑regulation की अक्षमता स्वीकारते हुए — एक संकेत है कि न्यायपालिका अब नीति निर्माण व जवाबदेही की ओर झुकी है।
भविष्य: स्वरूप, चुनौतियाँ और सुझाव
यदि भारत एक “स्वतंत्र एवं स्वायत्त नियामक संस्था (independent & autonomous regulatory body)” बनाता है — जैसा सुप्रीम कोर्ट सुझा रहा — तो उसे किन बातों पर ध्यान देना चाहिए, और किन चुनौतियों से निपटना होगा — नीचे कुछ बिंदु सुझाव रूप में।
संस्था का स्वरूप और दक्षता
- स्वतंत्रता और निष्पक्षता
- संस्था न्यायपालिका, नागरिक समाज, मीडिया‑विशेषज्ञों, कानून विशेषज्ञों, टेक्नोलॉजी विशेषज्ञों, नागरिक प्रतिनिधियों आदि की मिश्रित संरचना होनी चाहिए।
- किसी राजनीतिक दल, सरकार या मीडिया‑कॉर्पोरेट समूह से सीधे न जुड़ी हो।
- स्पष्ट नियम, प्रक्रिया व पारदर्शिता
- कंटेंट की परिभाषा, आपत्तिजनक/अश्लील/घृणा‑भाषा नियम, शिकायत पथ (grievance redressal), आपत्ति जांच, निर्णय, अपील — सब स्पष्ट व सार्वजनिक हों।
- समय-सीमा तय हो — जैसे शिकायत के बाद initial प्रतिक्रिया, takedown/rectification आदि।
- प्रभावी दंडात्मक व सुधारात्मक प्रावधान
- सिर्फ सुझाव देना या चेतावनी पर्याप्त नहीं; जुर्माना, अनुबंध रद्दीकरण, प्लेटफॉर्म ब्लैक‑लिस्टिंग, सार्वजनिक माफीनामे, पुनरावृत्ति रोकने के उपाय आदि हों।
- साथ ही, बच्चों, संवेदनशील समूहों, धार्मिक/जातीय/भाषाई अल्पसंख्यकों आदि की सुरक्षा और मान‑सम्मान का ध्यान हो।
- स्वतंत्र निगरानी, रिपोर्टिंग व जवाबदेही
- संस्था को यह जिम्मेदारी मिले कि वह periodic audit करे, रिपोर्ट जारी करे, सार्वजनिक महसूस करने योग्य हो।
- समाज, नागरिकों को शिकायत दर्ज कराने व संस्था से संवाद करने का आसान माध्यम मिले।
संवैधानिक, कानूनी व प्रावधानात्मक चुनौतियाँ
- स्वतंत्रता की रक्षा vs नियंत्रण
- बहुत सख्त या अस्पष्ट नियमन, प्री‑सेंसरशिप (pre‑censorship) की ओर ले जा सकता है — जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (आर्टिकल 19) के विरुद्ध हो।
- मीडिया–स्वतंत्रता का चौथा स्तंभ (Fourth Estate) कमजोर हो सकता है।
- विवादास्पद/वैचारिक कंटेंट
- “आपत्तिजनक”, “घृणा‑भाषा”, “संवेदनशील” — ये शब्द बहुत व्यापक हो सकते हैं। अगर नियम बहुत अमूर्त बने, तो न्यायालय/नियामक संस्था के विवेक पर अधिक निर्भरता होगी — जोखिम रहेगा।
- डिजिटल-संरचनात्मक सीमाएँ
- इंटरनेट ग्लोबल है: होस्टिंग सर्वर, कंटेंट‑डिलीवरी नेटवर्क, प्लेटफार्म, दर्शक — कई देशों में फैले। सिर्फ राष्ट्रीय नियमन पर्याप्त नहीं हो सकता।
- तकनीकी प्रगति, एन्क्रिप्शन, निजी प्लेटफार्मों, पर्सन-टू‑पर्सन शेयरिंग आदि से कंटेंट मॉडरेशन मुश्किल।
- संसाधन
- ऐसी संस्था को चलाने, शिकायत‑निवारण, मॉनिटरिंग, टेक्निकल टीम, कानूनी विशेषज्ञ आदि — सब चाहिए। यह संसाधन‑गहन होगा।
- साथ ही, मीडिया‑उद्योग, टेक‑इंडस्ट्री, प्लेटफार्मों, नागरिकों के बीच संतुलन बनाना आसान नहीं।
प्रस्ताव व सुझाव
- सरकार, मीडिया, नागरिक समाज, डिजिटल‑प्लेटफार्म, टेक‑इंडस्ट्री — सभी को शामिल करते हुए एक मल्टी‑स्टेकहोल्डर मॉडल बनाना चाहिए।
- पहले एक ड्राफ्ट निर्देशिका (Draft Guidelines / Code of Conduct) सार्वजनिक रूप से प्रकाशित हो; सुझाव आमंत्रित किए जाएँ; फिर स्वायत्त, निष्पक्ष संस्थान गठन किया जाए।
- संस्था की ताकत केवल दंड तक सीमित न हो; शिक्षा, जागरूकता, मीडिया‑साक्षरता (media literacy), रिपोर्टिंग‑अभ्यास (journalistic standards), स्वतंत्र सशक्त निगरानी आदि पर भी काम करना चाहिए।
- तकनीकी मामलों को समझने के लिए, संस्था के भीतर तकनीकी निदेशक / विशेषज्ञ हों — जैसे डिजिटल वितरण, एन्क्रिप्शन, प्लेटफार्म जटिलताएँ आदि को समझ सकें।
- इसके साथ, media freedom, free speech, fundamental rights — सब की सुरक्षा व संवेदनशीलता बनी रहे।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट की 27 नवम्बर 2025 की टिप्पणी — कि “Self‑regulation for online media ineffective है; एक स्वतंत्र व स्वायत्त नियामक संस्था चाहिए” — डिजिटल भारत के वर्तमान यथार्थ के अनुकूल, समयोचित और प्रासंगिक है। यह टिप्पणी न सिर्फ न्यायिक सोच का प्रतिबिंब है, बल्कि पूरे समाज, मीडिया‑उद्योग, नीति‑निर्माण एवं नागरिकों के लिए एक संकेत है: कि इंटरनेट व डिजिटल मीडिया सिर्फ अवसर नहीं, चुनौतियाँ भी लाया है।
आत्म‑नियमन — जहाँ शायद शुरुआत में पर्याप्त था — अब अपर्याप्त हो चुका है। जवाबदेही, पारदर्शिता, न्याय, मर्यादा, मीडिया‑स्वतंत्रता, लोकतंत्र और नागरिक हित — इन सभी की रक्षा के लिए एक व्यापक, मजबूत, निष्पक्ष व जवाबदेह regulatory ढांचे की आवश्यकता है।
परन्तु, ऐसा ढांचा बनाना आसान नहीं; हमें सावधानी, समझ, संवेदनशीलता, निष्पक्षता और लोकतांत्रिक मूल्यों का पूरा ध्यान रखना होगा। यदि ऐसा हुआ, तो मीडिया न केवल सूचना का माध्यम बनेगा, बल्कि जिम्मेदारी, आदर्श और सामाजिक उत्तरदायित्व का भी प्रतीक बनेगा।