“आरोप तय करने में देरी क्यों? सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट्स से विस्तृत रिपोर्ट मांगी; कहा—‘न्याय में विलंब, न्याय से इनकार’ नहीं होने देंगे”
प्रस्तावना
भारतीय न्याय व्यवस्था में मामलों के निस्तारण में देरी एक पुरानी समस्या है, विशेष रूप से उन मामलों में जहाँ charges (आरोप) तय करने में वर्षों लग जाते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर गंभीर चिंता व्यक्त करते हुए सभी हाई कोर्ट्स को निर्देश दिया है कि वे Amicus Curiae द्वारा मांगी गई जानकारी और डेटा को तुरंत उपलब्ध कराएँ।
यह आदेश एक जनहित याचिका के संदर्भ में आया है, जिसका उद्देश्य है —
- लंबित फौजदारी मामलों का विश्लेषण
- आरोप तय करने की प्रक्रिया में देरी के कारणों का पता लगाना
- सुधारात्मक उपायों को प्रभावी रूप से लागू करवाना
सुप्रीम कोर्ट का संकेत—“Justice Delayed Is Justice Denied”
सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने सुनवाई के दौरान टिप्पणी की कि आरोप तय करने में अनियंत्रित देरी न केवल आरोपी के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है, बल्कि यह पूरे फौजदारी न्याय तंत्र की दक्षता पर प्रश्नचिह्न लगाती है।
न्यायालय ने कहा:
“आरोप तय नहीं होने का अर्थ है कि मुकदमा शुरू ही नहीं हुआ। न्याय प्रक्रिया की यह प्रारंभिक सीढ़ी ही समय पर नहीं चढ़ी जाती, तो अंत तक पहुंचने का क्या अर्थ रह जाता है?”
मामला क्या है?
जनहित याचिकाओं की एक श्रृंखला में आरोप लगाया गया था कि—
- सेशन ट्रायल वाले गंभीर मामलों में भी
- भ्रष्टाचार, यौन अपराध और हिंसक अपराध के मुकदमों में भी
आरोप तय करने में औसतन 2 से 5 वर्षों की देरी हो रही है।
इन याचिकाओं में कहा गया कि:
- जाँच में देरी
- लोक अभियोजन की उपलब्धता की समस्या
- अदालतों में स्टाफ की कमी
- अनावश्यक स्थगन
देरी के प्रमुख कारण हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने इस स्थिति को सुधारने के लिए Amicus Curiae को नियुक्त किया, जिन्हें हाई कोर्ट्स से डेटा चाहिए था —
लेकिन कई हाई कोर्ट समय से जानकारी उपलब्ध नहीं करा सके।
सुप्रीम कोर्ट का आदेश — हाई कोर्ट तत्काल जानकारी दें
प्रमुख बिंदु:
1️⃣ हाई कोर्ट्स अमिकस क्यूरी द्वारा मांगी गई जानकारी 2 सप्ताह में उपलब्ध कराएं।
2️⃣ इसमें शामिल होगा:
- लंबित मामलों का डेटा
- आरोप तय न होने के कारण
- जिला न्यायालयों की रिपोर्ट
- लंबित मामलों के वर्ष अनुसार आंकड़े
- स्थगन (adjournments) का रिकॉर्ड
3️⃣ सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि देरी अस्वीकार्य है और हाई कोर्ट्स को “प्रो-एक्टिव” भूमिका निभानी होगी।
4️⃣ कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि कोई हाई कोर्ट डेटा उपलब्ध नहीं कराता, तो यह “न्याय प्रशासन में बाधा” मानी जाएगी।
आरोप तय करने की प्रक्रिया में देरी क्यों होती है? (विस्तृत विश्लेषण)
पुलिस जांच में देरी
- अधूरी चार्जशीट
- पूरक चार्जशीट
- साक्ष्यों की कमी
लोक अभियोजकों की कमी
कुछ जिलों में एक अभियोजक पर 600 से अधिक फाइलें हैं।
कोर्ट स्टाफ की कमी
स्टेनोग्राफर, क्लर्क, रीडर की कमी प्रक्रियाओं को धीमा करती है।
बार-बार स्थगन (Adjournments)
- वकीलों की अनुपलब्धता
- अभियोजन तैयार न होना
- आरोपी की पेशी न होना
गवाहों का समय पर न आना
जिस दिन आरोप तय होने होते हैं, उस दिन भी गैर-जिम्मेदारी दिखाई देती है।
तकनीकी कमियां
ई-कॉर्ट सिस्टम कई जिलों में प्रभावी नहीं है।
रिकॉर्ड डिजिटल नहीं।
अदालतों का बोझ
भारत में एक जज पर औसतन 1500-3000 मामलों का बोझ है।
कानूनी और संवैधानिक पहलू
आरोपी का त्वरित न्याय का अधिकार — अनुच्छेद 21
सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में माना है कि:
- speedy trial
- fair trial
दोनों संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकार हैं।
देरी इन अधिकारों का उल्लंघन है।
आरोप तय होना मुकदमे की शुरुआत है
जब तक आरोप तय नहीं होते, मुकदमा शुरू ही नहीं माना जाता।
इससे:
- आरोपी मानसिक तनाव में रहता है
- पीड़ित को न्याय नहीं मिलता
- समाज में अपराध के प्रति गलत संदेश जाता है
दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) के प्रावधान
CrPC में कई धाराएं स्पष्ट करती हैं कि—
- स्थगन कम से कम दिया जाए
- गंभीर अपराधों में तेज गति से कार्रवाई हो
लेकिन वास्तविकता इससे भिन्न है।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के व्यावहारिक प्रभाव
हाई कोर्ट्स में जवाबदेही बढ़ेगी
अब हाई कोर्ट्स से लेकर जिला अदालतों तक डेटा पारदर्शी होगा।
समयबद्ध ढांचा बनेगा
सुप्रीम कोर्ट अगले आदेश में समयबद्ध चार्ज-फ्रेमिंग प्रक्रिया निर्धारित कर सकता है।
अभियोजन तंत्र पर दबाव बढ़ेगा
अभियोजकों को मामलों में तैयारियां समय पर करनी होंगी।
डिजिटल रिकॉर्ड की दिशा में जोर
ई-कॉर्ट प्रणाली को और मजबूत करने की आवश्यकता पर बल।
पीड़ितों और गवाहों को राहत
तेज सुनवाई से न्याय मिलने की आशा बढ़ेगी।
अमिकस क्यूरी की भूमिका क्यों महत्वपूर्ण है?
Amicus Curiae (न्यायालय के मित्र) इस मामले में वह व्यक्ति/संगठन है जिसे कोर्ट ने नियुक्त किया है ताकि:
- डेटा को वैज्ञानिक तरीके से संकलित किया जा सके
- सुधारों के सुझाव दिए जा सकें
- प्रशासनिक बाधाओं की पहचान की जा सके
अमिकस को हाई कोर्ट्स से फाइलें और आंकड़े चाहिए थे, लेकिन उन्हें प्राप्त नहीं हो रहे थे।
इससे ही सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा।
सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणियाँ
अदालत ने कहा:
“यदि अदालतें ही देरी के आंकड़ों को छुपाएँगी, तो सुधार कैसे होगा? पारदर्शिता सुधार की पहली शर्त है।”
“हाई कोर्ट्स को प्रशासनिक नियंत्रण का प्रयोग करना चाहिए, न कि डेटा उपलब्ध कराने में देरी करनी चाहिए।”
“आरोप तय करने में देरी देश की आपराधिक न्याय प्रणाली की विश्वसनीयता को प्रभावित करती है।”
सुप्रीम कोर्ट का यह रुख बताता है कि अब न्यायिक सुधार में देरी बर्दाश्त नहीं की जाएगी।
भविष्य में संभावित सुधार
चार्ज-फ्रेमिंग के लिए समय सीमा
सुप्रीम कोर्ट यह दिशा-निर्देश जारी कर सकता है कि:
- चार्जशीट दायर होने के 90 दिनों के भीतर आरोप तय किए जाएं
- गंभीर अपराधों में 30–60 दिन की सीमा
स्थगन की सीमा
एक मामले में कुल 3–5 स्थगन की सीमा तय की जा सकती है।
जिला जजों के लिए ‘उत्तरदायित्व पैमाना’
प्रदर्शन मूल्यांकन में चार्ज-फ्रेमिंग की समयबद्धता जोड़ी जा सकती है।
अभियोजन में सुधार
- नियुक्तियों को तेज किया जाएगा
- डिजिटल केस-मैनेजमेंट लागू होगा
गवाह प्रबंधन प्रणाली
गवाहों की समय पर पेशी के लिए मजबूत संरचना तैयार होगी।
व्यावहारिक निष्कर्ष — क्यों महत्वपूर्ण है यह फैसला?
भारत में 4.5 करोड़ से अधिक लंबित मामले हैं।
उनमें से लाखों मामले ऐसे हैं जहाँ आरोप अभी तक तय नहीं हुए।
इसलिए सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश अत्यंत महत्वपूर्ण है।
यह केवल तकनीकी मामला नहीं, बल्कि न्याय तक पहुंच का मुद्दा है।
यदि आरोप तय ही नहीं होंगे तो:
- पीड़ित को न्याय नहीं
- आरोपी को राहत नहीं
- समाज में कानून के प्रति आस्था कम
- अपराधियों में भय कम
सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप इस गंभीर समस्या पर प्रकाश डालता है और न्याय व्यवस्था में गति लाने का मजबूत प्रयास है।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का आदेश एक संदेश है—
न्याय में देरी अब सहन नहीं की जाएगी।
हाई कोर्ट्स को अमिकस क्यूरी को सभी डेटा उपलब्ध कराना ही होगा, ताकि देश की सबसे बड़ी अदालत इस पुराने लेकिन बेहद गंभीर मुद्दे पर प्रभावी दिशा-निर्देश जारी कर सके।
यह फैसला भारतीय न्यायपालिका में पारदर्शिता, दक्षता और जवाबदेही बढ़ाने की दिशा में एक मील का पत्थर साबित हो सकता है।