NEET-UG विवाद: फीस जमा करने की समयसीमा चूकने पर तमिलनाडु की छात्रा ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया — न्याय, प्रक्रिया और प्रवेश अधिकार पर गंभीर सवाल
NEET-UG 2024 के एडमिशन प्रोसेस में एक और बड़ा विवाद सामने आया है, जिसमें तमिलनाडु की एक मेधावी छात्रा ने एमबीबीएस सीट गंवाने के बाद सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है। मामला फीस जमा करने की समयसीमा चूकने से जुड़ा है, जिसके कारण छात्रा को अलॉट हुई मेडिकल सीट स्वतः ही निरस्त कर दी गई। इस घटना ने NEET-UG काउंसलिंग सिस्टम, उसकी कठोर समयसीमा, संवैधानिक अधिकार, और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को लेकर गंभीर सवाल उठा दिए हैं।
यह लेख इस पूरे प्रकरण का विस्तृत विश्लेषण करता है—काउंसलिंग प्रक्रिया, अधिकारों के संवेधानिक आयाम, कोर्ट के संभावित विचार, तथा भविष्य में ऐसी समस्याओं की रोकथाम के लिए आवश्यक सुधार।
मामला क्या है? — एक नज़र तथ्यों पर
तमिलनाडु की एक छात्रा ने NEET-UG 2024 की परीक्षा उत्तीर्ण की और उसे ऑल इंडिया कोटा (AIQ) के तहत एक प्रतिष्ठित मेडिकल कॉलेज में एमबीबीएस सीट अलॉट हुई। लेकिन सीट की पुष्टि हेतु आवश्यक फीस जमा करने की समयसीमा विद्यार्थी से छूट गई। नतीजतन, काउंसलिंग प्राधिकरण ने उसे आवंटित सीट को स्वतः रद्द कर दिया और वही सीट अगली सूची में किसी अन्य उम्मीदवार को आवंटित कर दी।
छात्रा ने तर्क दिया कि:
- वह तकनीकी समस्या (technical issue) के कारण फीस जमा नहीं कर पाई,
- रिमाइंडर और सहायता पूरी तरह उपलब्ध नहीं थी,
- और एक मामूली देरी के चलते पूरी जिंदगी प्रभावित नहीं की जानी चाहिए थी।
इन्हीं आधारों पर उसने सुप्रीम कोर्ट में राहत मांगी है कि उसकी सीट बहाल की जाए या कोई समकक्ष सीट आवंटित की जाए।
सुप्रीम कोर्ट में याचिका – क्या मांग की गई?
याचिकाकर्ता की प्रमुख मांगें:
- फीस जमा करने की समयसीमा में देरी को छोटी तकनीकी त्रुटि मानकर माफ किया जाए।
- उसकी सीट, जो किसी और को दे दी गई है, उसे बहाल किया जाए।
- वैकल्पिक रूप से, काउंसलिंग प्राधिकरण को निर्देश दिया जाए कि उसे कोई अन्य समान मूल्य की सीट आवंटित की जाए।
- कोर्ट NEET काउंसलिंग प्रक्रिया में मानवीय दृष्टिकोण (humanitarian approach) अपनाने की आवश्यकता को स्वीकार करे।
क्यों महत्वपूर्ण है यह मामला?
यह केवल एक छात्रा का मामला नहीं है।
यह सवाल है—
- क्या टेक्निकल टाइमलाइन्स मानव जीवन और करियर से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं?
- क्या काउंसलिंग प्रणाली में लचीलापन और मानव-केंद्रित दृष्टिकोण होना चाहिए?
- क्या एक छोटी चूक के लिए छात्र को पूरा भविष्य खो देने पर मजबूर किया जा सकता है?
- और, क्या अदालतें प्रक्रिया की कठोरता पर सहज न्याय (substantial justice) को प्राथमिकता दे सकती हैं?
यह मामला देशभर में लाखों छात्रों के हितों को प्रभावित करता है, जो हर साल ऑनलाइन पोर्टल, फीस जमा समय, और टेक्निकल समस्याओं से जूझते हैं।
NEET-UG काउंसलिंग प्रक्रिया — क्या कहती है नीति?
NEET-UG की काउंसलिंग MCC (Medical Counselling Committee) द्वारा संचालित होती है। प्रक्रिया के अनुसार:
- सीट आवंटित होने के बाद उम्मीदवार को निर्धारित समयसीमा में
फीस जमा,
दस्तावेज़ अपलोड,
और रिपोर्टिंग करनी होती है। - समयसीमा एक बार बीत जाने के बाद सिस्टम स्वतः आगे बढ़ जाता है।
- नियमों में “डेट एक्सटेंशन”, “क्यूरेशन”, या “छूट” का प्रावधान बेहद सीमित है।
काउंसलिंग प्राधिकरण का तर्क यह होता है कि:
- कुछ छात्रों को छूट मिलेगी, तो हजारों और छात्र मांग उठाएँगे।
- इससे पूरी काउंसलिंग प्रक्रिया की पारदर्शिता और टाइमलाइन प्रभावित होगी।
- मेडिकल अकादमिक सेशन की शुरुआत में भी देरी होगी।
परंतु, तकनीकी कठिनाइयाँ वास्तविक हैं
पिछले वर्षों में लगातार रिपोर्टें सामने आई हैं:
- भुगतान गेटवे फेल होना
- वेबसाइट क्रैश होना
- OTP न आना
- बैंक सर्वर की गड़बड़ी
- कॉल सेंटर समर्थन का न मिलना
अनेक छात्रों की शिकायत है कि सिस्टम में यह त्रुटियाँ होते हुए भी, MCC उन्हें जिम्मेदार ठहराता है।
ऐसी ही परिस्थितियों में इस छात्रा ने अदालत से आश्रय माँगा है।
सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण — क्या कर सकती है अदालत?
ऐसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट आम तौर पर संतुलन ढूँढती है—
1. क्या देरी ‘बोना-फाइड’ थी?
यदि यह साबित हो जाए कि देरी जानबूझकर नहीं हुई, बल्कि तकनीकी कारणों से हुई है, तो कोर्ट राहत दे सकती है।
2. क्या सीट अभी भी उपलब्ध है?
यदि सीट अगले राउंड में किसी अन्य को दे दी गई है, तो अदालत के लिए सीट वापस कराना कठिन हो सकता है।
3. क्या कोई समान मूल्य की सीट उपलब्ध है?
कोर्ट उचित विकल्प दे सकती है।
4. क्या यह “एक्सेप्शनल केस” है?
SC कई मामलों में हुई तकनीकी देरी को देखते हुए राहत प्रदान कर चुकी है—
परंतु इसे “सामान्य नियम” बनने से भी रोकती है, ताकि काउंसलिंग प्रक्रिया बाधित न हो।
5. प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत
कोर्ट देखती है कि:
- क्या छात्रा को पर्याप्त चेतावनी/रिमाइंडर मिले?
- क्या उसे दोषमुक्त माना जा सकता है?
- क्या उसके साथ ‘अप्रोर्शनल पनिशमेंट’ (अनुपातहीन दंड) हुआ है?
समान मामले और सुप्रीम कोर्ट के पुराने निर्णय
पिछले वर्षों में:
- सुप्रीम कोर्ट ने कुछ मामलों में छात्रों को राहत दी,
- लेकिन कई बार कहा कि काउंसलिंग की समयसीमा “sacrosanct” (अत्यंत पवित्र) है।
2016, 2018, 2021 और 2023 के कई निर्णयों में कोर्ट ने माना कि:
- समयसीमा तोड़ना एक खतरनाक मिसाल है,
- परंतु यदि छात्र पूर्णतः निर्दोष है और गलती सिस्टम की है, तो इक्विटी और जस्टिस के आधार पर मदद दी जा सकती है।
संवैधानिक दृष्टिकोण — शिक्षा का अधिकार और समान अवसर
याचिकाकर्ता ने अपनी याचिका में निम्न संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लेख किया है:
Article 14 — समानता का अधिकार
कहती हैं कि कठोर नियम लागू करना न्यायसंगत नहीं जब तकनीकी समस्या उसकी गलती नहीं है।
Article 21 — जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार
करियर छिन जाना उसके जीवन को प्रभावित करता है।
Article 21A — शिक्षा का अधिकार
हालाँकि यह प्राथमिक शिक्षा पर केंद्रित है, फिर भी शिक्षा के व्यापक न्याय सिद्धांत लागू होते हैं।
Doctrine of Proportionality
छोटी देरी के लिए आजीवन अवसर छीन लेना अनुपातहीन है।
काउंसलिंग प्रणाली में सुधार की जरूरत क्यों महसूस हो रही है?
यह मामला स्पष्ट करता है कि NEET प्रणाली में निम्न सुधार अत्यंत आवश्यक हैं:
- फीस भुगतान के लिए ग्रेस पीरियड
- पेमेंट फेल होने पर ऑटो-रिट्राई सिस्टम
- काउंसलिंग हेल्पलाइन का 24×7 सपोर्ट
- सख्त समयसीमा के बीच “ह्यूमैनिटी क्लॉज” का प्रावधान
- टेक्निकल गड़बड़ी को रिकॉर्ड करने का ऑनलाइन विकल्प
- OTP, बैंक सर्वर और पेमेंट गेटवे को मजबूत बनाना
सामाजिक और मनोवैज्ञानिक प्रभाव
एक मामूली त्रुटि के कारण—
- छात्रा का एक वर्ष नष्ट हो सकता है,
- मानसिक तनाव, अवसाद और सामाजिक दबाव बढ़ सकता है,
- मध्यवर्गीय परिवारों के लिए यह अत्यधिक संवेदनशील मामला बन जाता है।
मेडिकल शिक्षा में प्रवेश पहले से ही अत्यधिक प्रतिस्पर्धी है, और ऐसे मामलों का प्रभाव गहरा होता है।
आगे क्या होगा? — सुप्रीम कोर्ट के संभावित आदेश
संभावित परिदृश्य:
1. कोर्ट समयसीमा में देरी को माफ कर दे
और सीट वापस देने का आदेश दे (यदि सीट अभी भी खाली है)।
2. कोर्ट समान सीट आवंटित करने का आदेश दे
यदि मूल सीट अब किसी और को दे दी गई है।
3. कोर्ट याचिका खारिज कर दे
यह कहकर कि प्रक्रिया बाधित नहीं की जा सकती।
4. काउंसलिंग प्रणाली में सुधार के लिए व्यापक दिशानिर्देश जारी करे।
निष्कर्ष — न्याय बनाम प्रक्रिया: कौन अधिक महत्वपूर्ण?
यह मामला दो महत्वपूर्ण सिद्धांतों के बीच संतुलन खोज रहा है:
- कठोर काउंसलिंग प्रक्रिया और समयसीमा,
- और एक छात्रा का पूरा भविष्य।
सुप्रीम कोर्ट को यह तय करना है कि—
क्या प्रणाली का कठोर पालन ज़रूरी है
या
क्या मानवीय और न्यायिक दृष्टिकोण से छात्रा को दूसरा अवसर मिलना चाहिए।
NEET काउंसलिंग प्रणाली में आये दिन सामने आ रही तकनीकी और प्रशासनिक समस्याएँ दिखाती हैं कि इसमें सुधार की अत्यंत आवश्यकता है। यह मामला न केवल एक छात्रा की लड़ाई है, बल्कि हजारों छात्रों की आवाज़ बन सकता है, जो अशुद्ध और त्रुटिपूर्ण सिस्टम की भेंट चढ़ जाते हैं।