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“आरोपमुक्ति नहीं, मुकदमे का सामना करें आरोपी — हिमाचल हाईकोर्ट ने कहा, अदालत जांच के इस चरण में सत्यता नहीं परखे”

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 250(2) के अंतर्गत आरोपमुक्ति (Discharge) याचिका का खारिज होना — हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय का महत्वपूर्ण निर्णय


प्रस्तावना (Introduction)

फौजदारी न्याय प्रणाली (Criminal Justice System) में “आरोपमुक्ति” (Discharge of Accused) की प्रक्रिया अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि किसी व्यक्ति को बिना पर्याप्त आधार या साक्ष्य के लंबी न्यायिक प्रक्रिया से न गुजरना पड़े। यदि किसी आरोपी के विरुद्ध प्रथम दृष्टया (Prima Facie) कोई मामला नहीं बनता, तो उसे मुकदमे से मुक्त कर दिया जाना चाहिए।

परंतु जब साक्ष्य या गवाहों के बयान प्रारंभिक स्तर पर ही यह संकेत देते हैं कि आरोपी के विरुद्ध आरोपों में सच्चाई की संभावना है, तब अदालत को मुकदमा चलाने से पहले ऐसे व्यक्ति को मुक्त नहीं करना चाहिए। इसी सिद्धांत को हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय (High Court of Himachal Pradesh) ने न्यायमूर्ति राकेश कंठला (Justice Rakesh Kainthla) द्वारा दिए गए हालिया निर्णय में पुनः स्पष्ट किया।

यह मामला भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita – BNSS) की धारा 250(2) से संबंधित था, जो पुराने दंड प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code – CrPC) की धारा 239 के समान है।


मामले की पृष्ठभूमि (Background of the Case)

इस प्रकरण में आरोपी ने अदालत से आरोपमुक्ति (Discharge) की याचिका दायर की थी। आरोपी का तर्क था कि उसके विरुद्ध लगाए गए आरोप झूठे और राजनीतिक द्वेष से प्रेरित हैं। शिकायतकर्ता ने यह आरोप लगाया था कि आरोपी ने सार्वजनिक स्थल पर उसका नाम लेकर जातिसूचक शब्दों का प्रयोग किया, जिससे उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा को ठेस पहुँची।

अदालत में दर्ज गवाहों के बयान और प्राथमिक जांच से यह स्पष्ट हुआ कि घटना के दौरान आरोपी ने वास्तव में जाति का उल्लेख करते हुए अपमानजनक भाषा का प्रयोग किया।

आरोपी की ओर से कहा गया कि यह मामला मनगढ़ंत है और साक्ष्य अपर्याप्त हैं, अतः उसे मुकदमे से मुक्त किया जाए। वहीं अभियोजन (Prosecution) की ओर से कहा गया कि गवाहों के बयान स्पष्ट रूप से घटना की पुष्टि करते हैं, इसलिए आरोपमुक्ति याचिका निराधार है।


मुख्य प्रश्न (Core Legal Issue)

क्या अदालत आरोपमुक्ति की याचिका पर विचार करते समय साक्ष्यों की विश्वसनीयता या अंतिम सत्यता का मूल्यांकन कर सकती है, या उसे केवल यह देखना चाहिए कि क्या आरोपी के विरुद्ध प्रथम दृष्टया कोई मामला बनता है?


न्यायालय का विश्लेषण (Court’s Analysis)

न्यायमूर्ति राकेश कंठला (Justice Rakesh Kainthla) ने अपने निर्णय में यह स्पष्ट किया कि आरोपमुक्ति की प्रक्रिया किसी मुकदमे के प्रारंभिक चरण में होती है। इस स्तर पर अदालत का कर्तव्य केवल इतना है कि वह यह देखे कि क्या अभियोजन के साक्ष्य, यदि सही माने जाएं, तो आरोपी के विरुद्ध अपराध सिद्ध करने की संभावना उत्पन्न करते हैं या नहीं।

अदालत ने कहा कि –

“आरोपमुक्ति के चरण में अदालत को यह तय नहीं करना होता कि आरोप सत्य हैं या असत्य, बल्कि यह देखना होता है कि क्या उपलब्ध सामग्री से प्रथम दृष्टया अपराध का अनुमान लगाया जा सकता है।”

इस मामले में, गवाहों के बयानों में यह स्पष्ट रूप से कहा गया था कि आरोपी ने सार्वजनिक रूप से शिकायतकर्ता की जाति का उल्लेख करते हुए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया। ऐसी स्थिति में यह कहना कि आरोप झूठे हैं या साक्ष्य पर्याप्त नहीं हैं, अदालत के क्षेत्राधिकार से बाहर है।

अतः न्यायालय ने कहा कि “इस स्तर पर अदालत को अंतिम सत्यता का निर्धारण नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह मुकदमे का विषय है, न कि आरोपमुक्ति का।”


कानूनी प्रावधान (Relevant Legal Provision)

धारा 250(2), भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023
यह प्रावधान कहता है कि यदि मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि उपलब्ध साक्ष्यों से आरोपी के विरुद्ध अपराध सिद्ध करने की संभावना नहीं है, तब ही वह उसे आरोपमुक्त कर सकता है।

यह धारा मूल रूप से पुराने CrPC की धारा 239 के समान है, जो यह कहती थी कि –

“यदि मजिस्ट्रेट यह पाता है कि कोई मामला नहीं बनता है, तो वह आरोपी को आरोपमुक्त कर सकता है।”

इसका अर्थ यह है कि केवल तभी आरोपी को राहत मिल सकती है जब अभियोजन की सामग्री पूरी तरह कमजोर या अविश्वसनीय हो, न कि तब जब मात्र संदेह या विवाद हो।


अदालत का निर्णय (Court’s Decision)

हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने आरोपी की आरोपमुक्ति (Discharge) याचिका को खारिज करते हुए कहा कि –

  1. गवाहों के बयानों में स्पष्ट रूप से यह आरोप है कि आरोपी ने शिकायतकर्ता को सार्वजनिक रूप से जातिसूचक शब्दों से अपमानित किया।
  2. ऐसी स्थिति में प्रथम दृष्टया अपराध का मामला बनता है।
  3. अदालत इस स्तर पर साक्ष्य की सत्यता या असत्यता की जांच नहीं कर सकती।

अदालत ने आगे यह भी कहा कि —

“यदि आरोपों में सच्चाई की संभावना है, तो न्यायालय को मुकदमे की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना चाहिए, ताकि साक्ष्य के आधार पर सत्य का निर्धारण हो सके।”


निर्णय का महत्व (Significance of the Judgment)

यह निर्णय भारतीय फौजदारी कानून में अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह निम्नलिखित बिंदुओं को पुनः स्थापित करता है —

  1. Prima Facie सिद्धांत की पुष्टि:
    आरोपमुक्ति के समय अदालत को केवल यह देखना चाहिए कि प्रथम दृष्टया अपराध का मामला बनता है या नहीं।
  2. साक्ष्यों की गहराई में न जाना:
    अदालत को यह तय नहीं करना चाहिए कि साक्ष्य अंततः दोष सिद्ध करेंगे या नहीं — यह कार्य मुकदमे के दौरान साक्ष्य परीक्षण (Trial) के समय किया जाना चाहिए।
  3. न्यायिक संयम (Judicial Restraint):
    इस चरण पर अदालत को यह याद रखना चाहिए कि आरोपमुक्ति का उद्देश्य किसी निर्दोष को मुकदमे से बचाना है, न कि अभियोजन को रोकना।
  4. सामाजिक न्याय का तत्व:
    जातिसूचक अपमान जैसी घटनाएँ समाज की समानता और गरिमा के सिद्धांतों के विरुद्ध हैं। इसलिए, यदि गवाहों के बयान इस दिशा में इशारा करते हैं, तो मुकदमे को आगे बढ़ाना न्यायोचित है।

संबंधित पूर्ववर्ती निर्णय (Relevant Precedents)

न्यायालय ने अपने निर्णय में उच्चतम न्यायालय के कई निर्णयों का उल्लेख किया, जिनमें प्रमुख हैं:

  1. State of Tamil Nadu v. N. Suresh Rajan (2014) 11 SCC 709
    सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आरोपमुक्ति के समय अदालत को केवल अभियोजन के साक्ष्यों को देखना चाहिए, न कि उनकी सत्यता का परीक्षण करना चाहिए।
  2. Union of India v. Prafulla Kumar Samal (1979) 3 SCC 4
    इसमें कहा गया कि यदि अभियोजन की सामग्री आरोपी के खिलाफ अपराध की संभावना दिखाती है, तो उसे मुकदमे का सामना करना चाहिए।
  3. State of Bihar v. Ramesh Singh (1977) 4 SCC 39
    यह भी कहा गया कि “Prima Facie” सामग्री पर्याप्त है मुकदमे की अनुमति के लिए; अंतिम निष्कर्ष मुकदमे के दौरान निकलता है।

सामाजिक और न्यायिक प्रभाव (Socio-Legal Impact)

यह निर्णय केवल एक तकनीकी कानूनी आदेश नहीं, बल्कि सामाजिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। यह उन पीड़ितों के अधिकारों को मज़बूत करता है, जो जाति या सामाजिक भेदभाव के कारण अपमान का सामना करते हैं।

साथ ही, यह निर्णय यह संदेश देता है कि अदालतें प्रारंभिक चरण में किसी मामले को केवल इसलिए खारिज नहीं कर सकतीं क्योंकि आरोपी आरोपों से इनकार करता है। न्याय तभी होगा जब तथ्यों की पूरी तरह जांच हो और सत्य सामने आए।


निष्कर्ष (Conclusion)

हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय का यह निर्णय न्यायिक विवेक और सामाजिक संवेदनशीलता का सुंदर उदाहरण है।
अदालत ने यह स्पष्ट कर दिया कि —

  • आरोपमुक्ति (Discharge) का चरण मुकदमे का अंत नहीं, बल्कि न्यायिक प्रक्रिया का प्रारंभिक छंटनी बिंदु है।
  • यदि प्रथम दृष्टया अपराध का संकेत मिलता है, तो न्यायालय को मुकदमे को आगे बढ़ने देना चाहिए।
  • सामाजिक समानता, गरिमा और न्याय के सिद्धांतों की रक्षा के लिए ऐसे मामलों में अदालतों को अत्यधिक सावधानी और संवेदनशीलता के साथ कार्य करना चाहिए।

        इस प्रकार, यह निर्णय न केवल कानूनी दृष्टि से बल्कि सामाजिक न्याय की दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह हमें यह सिखाता है कि न्याय केवल साक्ष्य का विषय नहीं है, बल्कि मानव गरिमा और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा का माध्यम भी है।