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दहेज मृत्यु के मामले में सुप्रीम कोर्ट का अहम फैसला — स्पष्ट सबूतों के अभाव में आरोपी बरी, अदालत ने कहा: केवल संदेह के आधार पर नहीं हो सकती सज़ा

दहेज मृत्यु के मामले में सुप्रीम कोर्ट का अहम फैसला — स्पष्ट सबूतों के अभाव में आरोपी बरी, अदालत ने कहा: केवल संदेह के आधार पर नहीं हो सकती सज़ा

          सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक महत्त्वपूर्ण निर्णय में दहेज मृत्यु (Dowry Death) के मामले में आरोपी पति को बरी करते हुए यह स्पष्ट किया कि भारतीय दंड संहिता की धारा 304-बी के तहत सजा देने के लिए यह सिद्ध होना आवश्यक है कि मृतका की मृत्यु से ठीक पहले उसे दहेज की मांग को लेकर प्रताड़ित या उत्पीड़ित किया गया था। न्यायालय ने कहा कि केवल सामान्य या अस्पष्ट आरोपों के आधार पर किसी व्यक्ति को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। यह निर्णय भारतीय समाज में प्रचलित दहेज प्रथा के विरुद्ध कानून की गंभीरता को तो दर्शाता ही है, साथ ही यह भी स्पष्ट करता है कि न्यायिक प्रक्रिया में प्रमाण का मानक कितना उच्च है।


मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला एक विवाहित महिला की संदिग्ध परिस्थितियों में मृत्यु से जुड़ा था, जिसकी शादी को कुछ ही वर्ष हुए थे। विवाह के बाद से ही उसके ससुराल पक्ष पर आरोप था कि उन्होंने दहेज की मांग की और मांग पूरी न होने पर उसे मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया। मृतका की माँ ने पुलिस को दिए गए बयान में कहा कि विवाह के समय और उसके बाद भी ससुराल वाले बार-बार पैसों और उपहारों की माँग करते थे।

महिला की मृत्यु के बाद पुलिस ने मामला दर्ज किया और पति तथा अन्य ससुराल पक्ष के सदस्यों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 304-बी (दहेज मृत्यु) और 498-ए (क्रूरता) के तहत मुकदमा चलाया।

निचली अदालत (ट्रायल कोर्ट) ने अभियोजन के तर्कों को स्वीकार करते हुए आरोपी को दोषी ठहराया और सजा सुनाई। उच्च न्यायालय ने भी इस निर्णय को बरकरार रखा। इसके बाद आरोपी ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की, यह कहते हुए कि उसके खिलाफ लगाए गए आरोप न तो ठोस हैं और न ही किसी स्वतंत्र गवाह या साक्ष्य से पुष्ट किए गए हैं।


सुप्रीम कोर्ट के समक्ष प्रमुख कानूनी प्रश्न

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष निम्नलिखित प्रमुख प्रश्न विचारणीय थे—

  1. क्या अभियोजन यह सिद्ध कर सका कि मृतका को “उसकी मृत्यु से ठीक पहले” दहेज की मांग को लेकर प्रताड़ित किया गया था?
  2. क्या मृतका की माँ के एकमात्र बयान के आधार पर दोषसिद्धि दी जा सकती है जब कोई स्वतंत्र साक्ष्य उपलब्ध नहीं है?
  3. क्या भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 113-बी (दहेज मृत्यु की धारणा) स्वतः लागू हो सकती है जब प्रताड़ना के प्रत्यक्ष प्रमाण न हों?

पक्षकारों के तर्क

अपीलकर्ता (आरोपी) की ओर से:
आरोपी की ओर से यह तर्क दिया गया कि अभियोजन ने दहेज की मांग या प्रताड़ना से संबंधित कोई ठोस और विशिष्ट साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया। मृतका की माँ का बयान सामान्य था जिसमें उसने केवल यह कहा कि “विवाह के समय और बाद में दहेज मांगा गया।” लेकिन यह स्पष्ट नहीं किया गया कि कब, किसने, और किस रूप में यह मांग की गई थी।

आरोपी पक्ष ने यह भी कहा कि विवाह के कुछ वर्षों बाद दंपत्ति सामान्य जीवन जी रहे थे और किसी प्रकार की शिकायत मृतका या उसके परिजनों ने पुलिस अथवा पंचायत में दर्ज नहीं कराई। इसलिए यह कहना कि मृत्यु “दहेज मांग के कारण” हुई, केवल एक अनुमान मात्र है।

राज्य (अभियोजन) की ओर से:
सरकारी अधिवक्ता ने यह तर्क रखा कि मृतका की माँ का बयान सुसंगत और विश्वसनीय है। चूँकि मृतका की मृत्यु सात वर्षों के भीतर हुई और यह असामान्य परिस्थितियों में हुई थी, इसलिए साक्ष्य अधिनियम की धारा 113-बी के तहत यह माना जाना चाहिए कि यह दहेज मृत्यु है। उन्होंने कहा कि आरोपी इस धारणा को खारिज करने में असफल रहा है।


सुप्रीम कोर्ट के अवलोकन और विश्लेषण

सुप्रीम कोर्ट ने रिकॉर्ड पर उपलब्ध समस्त साक्ष्यों की गहन समीक्षा की और यह पाया कि अभियोजन के पास कोई ठोस प्रमाण नहीं था जिससे यह साबित किया जा सके कि मृतका को उसकी मृत्यु से ठीक पहले दहेज की मांग को लेकर प्रताड़ित किया गया था।

न्यायालय ने कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 304-बी के तहत दोषसिद्धि के लिए निम्नलिखित चार तत्वों का प्रमाण आवश्यक है—

  1. महिला की मृत्यु जलने, शारीरिक चोट या असामान्य परिस्थितियों में हुई हो।
  2. मृत्यु विवाह के सात वर्ष के भीतर हुई हो।
  3. मृत्यु से ठीक पहले महिला को उसके पति या ससुराल पक्ष द्वारा प्रताड़ित या उत्पीड़ित किया गया हो।
  4. वह प्रताड़ना या उत्पीड़न दहेज की मांग से संबंधित हो।

न्यायालय ने स्पष्ट किया कि “soon before her death (मृत्यु से ठीक पहले)” का अर्थ हर मामले में परिस्थितियों के अनुसार तय किया जाएगा। यह समय अवधि एक दिन, एक सप्ताह या कुछ महीने भी हो सकती है, परंतु अभियोजन को यह दिखाना होगा कि प्रताड़ना और मृत्यु के बीच एक जीवंत और निकट संबंध था।

इस मामले में मृतका की माँ ने अपने बयान में यह कहा कि “शादी के समय दहेज मांगा गया था और मेरी बेटी परेशान थी,” परंतु उसने किसी विशिष्ट तारीख, घटना या व्यक्ति का उल्लेख नहीं किया जिसने यह मांग की हो। न्यायालय ने यह भी देखा कि मृतका की माँ के अलावा कोई अन्य गवाह—जैसे पड़ोसी, रिश्तेदार या मित्र—इस बात की पुष्टि नहीं कर सके कि मृत्यु से पहले मृतका को दहेज को लेकर सताया गया था।


धारा 113-बी, साक्ष्य अधिनियम का प्रयोग

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि धारा 113-बी के तहत “दहेज मृत्यु की धारणा” तभी लागू होती है जब अभियोजन पहले यह सिद्ध कर दे कि महिला की मृत्यु असामान्य परिस्थितियों में हुई और वह “दहेज की मांग के कारण” प्रताड़ना का शिकार थी।

न्यायालय ने कहा—

“कोई भी न्यायालय इस धारणा को स्वचालित रूप से नहीं लागू कर सकता। पहले अभियोजन को यह आधारभूत तथ्य सिद्ध करने होते हैं कि प्रताड़ना दहेज से संबंधित थी और मृत्यु से ठीक पहले हुई थी। केवल उसी स्थिति में न्यायालय आरोपी से यह अपेक्षा कर सकता है कि वह स्वयं को निर्दोष साबित करे।”

इस मामले में ऐसे कोई प्रमाण नहीं मिले, इसलिए यह धारणा लागू नहीं हो सकती थी।


पूर्ववर्ती न्यायिक दृष्टांतों का उल्लेख

सुप्रीम कोर्ट ने कई पुराने निर्णयों का हवाला दिया, जिनमें समान प्रश्नों पर स्पष्ट व्याख्या दी गई थी—

  1. कंस राज बनाम पंजाब राज्य (2000) 5 SCC 207: न्यायालय ने कहा कि “soon before death” का अर्थ सापेक्ष है और प्रत्येक मामले में तथ्यों के अनुसार तय किया जाएगा।
  2. बैजनाथ बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2017) 1 SCC 101: इस निर्णय में कहा गया था कि अस्पष्ट या सामान्य आरोपों के आधार पर दोषसिद्धि नहीं दी जा सकती।
  3. शेर सिंह बनाम हरियाणा राज्य (2015) 3 SCC 724: न्यायालय ने कहा कि दहेज मृत्यु जैसे गंभीर अपराधों में भी साक्ष्य की पुख्तगी आवश्यक है; भावनात्मक अपील के आधार पर सजा नहीं दी जा सकती।

इन निर्णयों का हवाला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अभियोजन के पास “ठोस और प्रत्यक्ष प्रमाण” नहीं हैं, इसलिए आरोपी को दोषी ठहराना न्यायसंगत नहीं होगा।


न्यायालय का निष्कर्ष और निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने अंततः कहा कि अभियोजन द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य अपर्याप्त हैं और उनमें गंभीर विसंगतियाँ हैं। न्यायालय ने कहा—

“संदेह कितना भी प्रबल क्यों न हो, वह प्रमाण का विकल्प नहीं हो सकता। आपराधिक न्यायशास्त्र का मूल सिद्धांत है कि अपराध सिद्ध करने का दायित्व अभियोजन पर होता है और आरोपी को दोषी ठहराने के लिए यह दायित्व संदेह से परे होना चाहिए।”

न्यायालय ने यह भी कहा कि मृतका की माँ का बयान अपने आप में पर्याप्त नहीं है, क्योंकि उसमें किसी विशेष घटना, तारीख या साक्ष्य का उल्लेख नहीं है। इसलिए आरोपी के खिलाफ धारा 304-बी या 498-ए के तहत सजा देना उचित नहीं होगा।

अंततः सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट दोनों के फैसलों को रद्द करते हुए आरोपी को बरी (Acquitted) कर दिया।


निर्णय का महत्व और प्रभाव

यह निर्णय एक बार फिर यह सिद्ध करता है कि भारतीय न्यायपालिका दहेज प्रथा और महिला उत्पीड़न के खिलाफ कठोर है, लेकिन वह न्यायिक प्रक्रिया में प्रमाण के सिद्धांतों से समझौता नहीं कर सकती।

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला इस बात की याद दिलाता है कि दहेज मृत्यु जैसे संवेदनशील मामलों में अभियोजन को बहुत सावधानी से साक्ष्य प्रस्तुत करने होते हैं। केवल परिजनों के सामान्य बयान, बिना किसी स्वतंत्र साक्ष्य के, दोषसिद्धि का आधार नहीं बन सकते।

इस निर्णय के दो प्रमुख संदेश हैं—

  1. महिलाओं की सुरक्षा के लिए कानून का सख्त पालन: यदि किसी महिला को वास्तव में दहेज के लिए सताया गया है, तो उसके लिए समय पर शिकायत और ठोस साक्ष्य आवश्यक हैं।
  2. निर्दोष व्यक्ति की रक्षा: न्यायालय यह नहीं चाहता कि समाज की निंदा के दबाव में किसी निर्दोष व्यक्ति को सजा दी जाए।

न्यायालय ने अंत में यह कहा कि—

“दहेज एक सामाजिक अभिशाप है, परंतु न्याय का अर्थ केवल दोषसिद्धि नहीं है; न्याय का अर्थ सत्य की खोज है। जब तक अभियोजन अपनी जिम्मेदारी निभाकर सच्चाई को प्रमाणित नहीं करता, तब तक अदालत किसी को दोषी नहीं ठहरा सकती।”


निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय दहेज मृत्यु के कानून की व्याख्या को और स्पष्ट करता है। यह बताता है कि किसी भी आपराधिक मामले में भावनात्मक अपील, सामाजिक दबाव या केवल संदेह न्यायिक निर्णय का आधार नहीं बन सकता।

अदालत ने एक बार फिर दोहराया कि—

“न्याय की प्रक्रिया में सबसे बड़ा सिद्धांत यह है कि सौ दोषी छूट जाएँ, परंतु एक निर्दोष व्यक्ति को दंडित नहीं किया जाना चाहिए।”

यह फैसला न केवल अभियोजन के दायित्व को रेखांकित करता है बल्कि यह भी याद दिलाता है कि न्याय का उद्देश्य केवल अपराधी को सज़ा देना नहीं, बल्कि निर्दोष की रक्षा करना भी है।