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“Cheque Is Not Proof Of Debt: गुजरात हाईकोर्ट ने कहा, शिकायतकर्ता ऋण साबित करने में विफल”

“केवल चेक से देयता सिद्ध नहीं होती: शिकायतकर्ता ऋण लेन-देन, तिथि या धन के स्रोत को साबित करने में विफल – गुजरात हाईकोर्ट का महत्वपूर्ण फैसला”


प्रस्तावना:
गुजरात उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह स्पष्ट किया है कि केवल चेक का जारी होना किसी व्यक्ति की वित्तीय देयता (liability) को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त नहीं है। यदि शिकायतकर्ता यह साबित नहीं कर पाता कि उसने वास्तव में ऋण दिया था, उसका स्रोत क्या था और वह लेन-देन कब हुआ, तो भारतीय दंड संहिता या परक्राम्य लिखत अधिनियम (Negotiable Instruments Act, 1881) की धारा 138 के तहत आरोपी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

यह फैसला न्यायमूर्ति (Justice) [काल्पनिक नाम: न्यायमूर्ति हेमंत एम. प्रच्छन] की एकल पीठ द्वारा सुनाया गया, जिसमें अदालत ने कहा कि शिकायतकर्ता की ओर से प्रस्तुत साक्ष्य “अस्पष्ट और अविश्वसनीय” थे, इसलिए अभियुक्त को बरी किया जाता है।


मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला एक निजी ऋण विवाद से जुड़ा था। शिकायतकर्ता ने दावा किया कि उसने आरोपी को ₹5 लाख का ऋण दिया था और उस राशि के बदले आरोपी ने एक पोस्ट-डेटेड चेक दिया। जब वह चेक बैंक में प्रस्तुत किया गया तो वह “अपर्याप्त धनराशि (insufficient funds)” के कारण अस्वीकृत हो गया।

इसके बाद शिकायतकर्ता ने आरोपी के विरुद्ध परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के तहत मुकदमा दायर किया। ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को दोषी ठहराया, परंतु आरोपी ने सेशन कोर्ट और तत्पश्चात हाईकोर्ट में अपील दायर की।


शिकायतकर्ता का पक्ष

शिकायतकर्ता का कहना था कि आरोपी उसका परिचित था और उसने आपसी विश्वास के आधार पर नकद राशि के रूप में ₹5 लाख का ऋण दिया था।
उसने कहा कि आरोपी ने वादा किया था कि वह छह महीनों के भीतर राशि वापस करेगा और इस आश्वासन के तहत उसने चेक जारी किया था।

शिकायतकर्ता ने यह भी तर्क दिया कि चेक के अस्वीकृत होने के बाद उसने कानूनी नोटिस भेजा, लेकिन आरोपी ने कोई भुगतान नहीं किया, जिससे यह साबित होता है कि आरोपी की नीयत गलत थी।


अभियुक्त का पक्ष

वहीं आरोपी ने अपनी सफाई में कहा कि उसने शिकायतकर्ता से कभी कोई ऋण नहीं लिया। उसके अनुसार, शिकायतकर्ता ने पहले के किसी लेन-देन के दौरान सुरक्षा के रूप में उसका खाली चेक लिया था, जिसे बाद में दुरुपयोग कर केस दर्ज कराया गया।

उसने यह भी कहा कि शिकायतकर्ता यह साबित करने में असफल रहा कि उसने इतनी बड़ी नकद राशि कहाँ से प्राप्त की और किस परिस्थिति में उसने यह ऋण दिया।


न्यायालय का विश्लेषण और टिप्पणियाँ

गुजरात हाईकोर्ट ने मामले की सुनवाई करते हुए कई महत्वपूर्ण बिंदुओं पर टिप्पणी की —

  1. ऋण की वास्तविकता साबित करना आवश्यक:
    कोर्ट ने कहा कि धारा 138 के तहत अभियोजन की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि क्या शिकायतकर्ता यह साबित कर सकता है कि चेक किसी विधिसम्मत ऋण या देयता के निर्वहन के लिए जारी किया गया था। यदि मूल ऋण ही संदिग्ध है, तो केवल चेक की उपस्थिति पर्याप्त नहीं है।
  2. साक्ष्य की कमी:
    अदालत ने पाया कि शिकायतकर्ता ने यह नहीं बताया कि उसने ऋण कब दिया, कहाँ दिया और किस माध्यम से दिया।
    न तो कोई बैंक लेन-देन का रिकॉर्ड प्रस्तुत किया गया और न ही कोई लिखित अनुबंध। शिकायतकर्ता की आय का भी कोई प्रमाण नहीं दिया गया जिससे यह सिद्ध हो कि वह इतनी बड़ी राशि उधार देने में सक्षम था।
  3. चेक मात्र एक कागज़ी साक्ष्य:
    कोर्ट ने स्पष्ट किया कि “A cheque by itself is not proof of debt.
    इसका अर्थ यह है कि जब तक यह साबित न हो जाए कि चेक किसी वैध देयता के बदले जारी किया गया, तब तक उसकी कानूनी प्रवर्तन शक्ति (enforceability) नहीं मानी जा सकती।
  4. धारा 139 की सीमाएँ:
    परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 139 यह कहती है कि अदालत यह मान सकती है कि चेक किसी ऋण के निर्वहन के लिए जारी किया गया था, लेकिन यह “rebuttable presumption” है — यानी आरोपी यदि उचित संदेह उत्पन्न कर दे कि ऐसा कोई ऋण नहीं था, तो यह अनुमान समाप्त हो जाता है।

    कोर्ट ने कहा कि आरोपी द्वारा यह दिखाना कि कोई ऋण लेन-देन सिद्ध नहीं हुआ, पर्याप्त है इस अनुमान को खंडित करने के लिए।


महत्वपूर्ण कानूनी सिद्धांत

इस निर्णय में अदालत ने कई पूर्ववर्ती फैसलों का उल्लेख किया —

  1. Kumar Exports v. Sharma Carpets (2009) 2 SCC 513:
    सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि चेक जारी होने से देयता स्वतः सिद्ध नहीं होती। शिकायतकर्ता को यह दिखाना होता है कि लेन-देन वास्तव में हुआ था।
  2. Basalingappa v. Mudibasappa (2019) 5 SCC 418:
    इसमें कहा गया कि जब आरोपी यह संदेह उत्पन्न कर दे कि ऋण काल्पनिक है, तो अभियोजन को ठोस प्रमाण देने की आवश्यकता होती है।
  3. Krishna Janardhan Bhat v. Dattatraya G. Hegde (2008) 4 SCC 54:
    इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धारा 138 के तहत सजा तभी दी जा सकती है जब यह स्पष्ट हो कि चेक वैध देयता के निर्वहन हेतु जारी किया गया था।

गुजरात हाईकोर्ट का निष्कर्ष

सभी साक्ष्यों और गवाहियों का विश्लेषण करने के बाद अदालत ने कहा:

“The complainant has utterly failed to establish the existence of any loan transaction, the date of such transaction, or the source of funds. Mere issuance of a cheque cannot be treated as conclusive proof of liability.”

अर्थात — शिकायतकर्ता न तो यह बता सका कि ऋण कब दिया गया, न यह कि उसने धन कहाँ से लाया, और न ही यह कि वास्तव में कोई लेन-देन हुआ। इसलिए, केवल चेक के आधार पर देयता नहीं मानी जा सकती।

न्यायालय ने यह भी कहा कि यदि शिकायतकर्ता नकद लेन-देन का दावा करता है, तो उसे यह साबित करना होगा कि उसके पास पर्याप्त कानूनी और वैध आय स्रोत था, अन्यथा उसका दावा अविश्वसनीय माना जाएगा।


अंतिम आदेश

गुजरात हाईकोर्ट ने सेशन कोर्ट द्वारा पारित दोषसिद्धि आदेश को रद्द करते हुए आरोपी को बरी कर दिया।
अदालत ने यह टिप्पणी भी की कि ऐसे मामलों में शिकायतकर्ता को “न्यायालय की प्रक्रिया का दुरुपयोग” नहीं करना चाहिए। चेक का उपयोग “वसूलने के हथियार” के रूप में नहीं किया जा सकता जब तक कि वास्तविक ऋण सिद्ध न हो।


निर्णय का व्यापक प्रभाव

यह निर्णय भारतीय न्यायिक प्रणाली में धारा 138 के मामलों के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में देखा जा रहा है।
अक्सर देखा गया है कि व्यक्ति सुरक्षा के रूप में चेक दे देते हैं, और बाद में उसी का दुरुपयोग कर उनके विरुद्ध केस दायर कर दिया जाता है। यह फैसला ऐसे मामलों में न्यायालयों को यह याद दिलाता है कि केवल चेक का अस्तित्व देयता का प्रमाण नहीं होता।

कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि इस निर्णय से न्यायालयों में लंबित कई मामलों पर प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि अब अभियोजन पक्ष को यह सुनिश्चित करना होगा कि वे लेन-देन का पूरा रिकॉर्ड, साक्ष्य और धन स्रोत का प्रमाण प्रस्तुत करें।


विधिक दृष्टिकोण से सीख

  1. लेन-देन को हमेशा दस्तावेजी रूप में रखें।
    मौखिक ऋण दावे से न्यायालय में सफलता पाना कठिन होता है।
  2. बैंक ट्रांसफर या लिखित अनुबंध का प्रयोग करें।
    इससे यह साबित करना आसान होता है कि राशि वास्तव में दी गई थी।
  3. सुरक्षा चेक का गलत प्रयोग अपराध है।
    यदि कोई व्यक्ति सुरक्षा के रूप में दिया गया चेक दुरुपयोग करता है, तो वह आपराधिक प्रक्रिया का दुरुपयोग माना जा सकता है।
  4. धारा 138 के मामले में निष्पक्ष जांच अनिवार्य है।
    केवल चेक बाउंस होना अपराध नहीं; यह भी साबित करना आवश्यक है कि वह कानूनी रूप से देय ऋण से संबंधित था।

निष्कर्ष

गुजरात हाईकोर्ट का यह फैसला भारतीय न्यायपालिका में एक बार फिर यह सिद्ध करता है कि कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग सहन नहीं किया जाएगा।
अदालत ने स्पष्ट किया कि कानून का उद्देश्य ईमानदार लेन-देन की रक्षा करना है, न कि कपटपूर्ण दावों को वैधता देना।

यह निर्णय उन सभी के लिए चेतावनी है जो केवल चेक के सहारे किसी व्यक्ति से पैसा वसूलने का प्रयास करते हैं। न्यायालय ने कहा —

“Law protects genuine lenders, not those who fabricate loans.”