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“सुप्रीम कोर्ट ने आरजेडी प्रत्याशी श्वेता सुमन की याचिका ठुकराई: नामांकन रद्द पर राहत नहीं”

“बिहार विधानसभा चुनाव: सुप्रीम कोर्ट ने आरजेडी प्रत्याशी श्वेता सुमन की याचिका खारिज की – नामांकन रद्द होने के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई से इनकार”


प्रस्तावना:
बिहार विधानसभा चुनावों के दौरान न्यायिक और राजनीतिक दोनों ही मोर्चों पर हलचल तेज़ हो गई है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय जनता दल (RJD) की प्रत्याशी श्वेता सुमन की याचिका पर सुनवाई से इनकार करते हुए उनके नामांकन पत्र के अस्वीकृत होने के खिलाफ दायर याचिका को खारिज कर दिया। कोर्ट का यह निर्णय न केवल विधिक प्रक्रिया की कठोरता को रेखांकित करता है, बल्कि चुनावी पारदर्शिता और संवैधानिक व्यवस्था की महत्ता को भी दर्शाता है।


घटना की पृष्ठभूमि

श्वेता सुमन ने बिहार विधानसभा चुनाव के लिए आरजेडी के टिकट पर एक निर्वाचन क्षेत्र से नामांकन दाखिल किया था। निर्वाचन अधिकारी ने उनके नामांकन पत्र को तकनीकी खामियों और आवश्यक दस्तावेजों की कमी के कारण अस्वीकृत कर दिया। इसके बाद उन्होंने उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, लेकिन वहां से राहत न मिलने पर उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका (SLP) दायर की।


सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई

मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने मामले की सुनवाई करते हुए स्पष्ट किया कि चुनावी प्रक्रिया में न्यायालय का हस्तक्षेप बहुत सीमित दायरे में ही किया जा सकता है। कोर्ट ने कहा कि नामांकन पत्र के अस्वीकृत होने से संबंधित विवादों को निर्वाचन प्रक्रिया के दौरान हस्तक्षेप योग्य नहीं माना जाता, बल्कि उम्मीदवार बाद में चुनाव याचिका के माध्यम से चुनौती दे सकते हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि जब निर्वाचन अधिकारी ने नियमों के अनुसार निर्णय लिया है, तो न्यायालय उसकी प्रशासनिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। इस आधार पर कोर्ट ने श्वेता सुमन की याचिका को खारिज करते हुए कहा कि इस प्रकार के मामलों में न्यायालय को अत्यंत सावधानी बरतनी होती है।


याचिकाकर्ता के तर्क

श्वेता सुमन की ओर से प्रस्तुत वकीलों ने तर्क दिया कि निर्वाचन अधिकारी ने उनके नामांकन पत्र को मनमाने ढंग से अस्वीकार किया, जबकि सभी आवश्यक दस्तावेज और शपथपत्र समय पर जमा किए गए थे। उनका कहना था कि अधिकारी ने न तो कोई उचित कारण बताया और न ही उन्हें सुधार का अवसर दिया।
उनका यह भी कहना था कि चुनावी प्रक्रिया में निष्पक्षता का सिद्धांत (Principle of Fairness) हर स्तर पर लागू होना चाहिए, और अधिकारी को उम्मीदवारों को त्रुटि सुधारने का अवसर देना चाहिए।


निर्वाचन अधिकारी का पक्ष

निर्वाचन अधिकारी की ओर से कहा गया कि नामांकन पत्र में गंभीर त्रुटियाँ थीं — विशेष रूप से आय, संपत्ति और दंडात्मक मामलों से संबंधित घोषणाओं में विसंगतियाँ थीं। साथ ही, शपथपत्र के कुछ हिस्से अधूरे थे। अधिकारी ने अपने आदेश में विस्तार से बताया कि ये खामियाँ चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित प्रारूप के अनुरूप नहीं थीं, इसलिए नामांकन अस्वीकार किया गया।


सुप्रीम कोर्ट का रुख और संवैधानिक दृष्टिकोण

सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में संविधान के अनुच्छेद 329(b) का हवाला देते हुए कहा कि किसी चुनाव से संबंधित विवाद, जब तक कि चुनाव प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती, न्यायालय में नहीं लाए जा सकते। अनुच्छेद 329(b) के अनुसार, चुनाव संबंधी विवाद केवल चुनाव याचिका के माध्यम से ही चुनौती दिए जा सकते हैं, न कि पहले से ही प्रक्रिया के दौरान।

यह प्रावधान लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थिरता के लिए बनाया गया है ताकि न्यायिक हस्तक्षेप के कारण चुनाव प्रक्रिया में बाधा न उत्पन्न हो। कोर्ट ने कहा कि यदि इस प्रकार के मामलों में बार-बार हस्तक्षेप किया जाए, तो पूरी चुनाव प्रणाली अस्थिर हो जाएगी।


कानूनी मिसालें और पूर्व निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में कई पुराने निर्णयों का हवाला दिया, जिनमें विशेष रूप से “नंदलाल बनाम चुनाव आयोग” (AIR 1986 SC 1255) और “जमील अहमद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य” जैसे मामलों का उल्लेख किया गया। इन निर्णयों में भी यह सिद्धांत प्रतिपादित किया गया था कि नामांकन पत्र की अस्वीकृति या स्वीकृति पर न्यायालय तभी हस्तक्षेप कर सकता है जब स्पष्ट रूप से कानून का उल्लंघन हुआ हो।

कोर्ट ने यह भी दोहराया कि निर्वाचन अधिकारी द्वारा किए गए प्रशासनिक निर्णयों को “क्वासी-ज्यूडिशियल” माना जाता है, और ऐसे निर्णयों पर पुनर्विचार तभी हो सकता है जब अधिकारी ने मनमानी की हो या प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन किया हो।


राजनीतिक और सामाजिक प्रतिक्रिया

आरजेडी ने इस फैसले पर निराशा जताई है, लेकिन पार्टी प्रवक्ताओं ने कहा कि वे न्यायिक आदेश का सम्मान करते हैं और आगामी चुनावों में पूरी शक्ति से भाग लेंगे। वहीं भाजपा और जदयू के नेताओं ने कहा कि यह निर्णय चुनावी पारदर्शिता और निष्पक्षता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।

कानूनी विशेषज्ञों ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला आने वाले समय में अन्य चुनावी मामलों के लिए भी मार्गदर्शक सिद्धांत साबित होगा। उन्होंने इसे “कानूनी प्रक्रिया की पवित्रता की रक्षा” के रूप में देखा है।


लोकतंत्र और न्यायपालिका की भूमिका

यह मामला भारतीय लोकतंत्र में न्यायपालिका की सीमित भूमिका को उजागर करता है। अदालतों का कार्य चुनाव प्रक्रिया की समीक्षा करना नहीं, बल्कि संविधान और कानून के दायरे में रहकर न्याय सुनिश्चित करना है।
सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया कि न्यायालय चुनावी प्रक्रिया में तभी हस्तक्षेप करेगा जब मौलिक अधिकारों या संविधान के बुनियादी ढांचे का उल्लंघन हुआ हो।


निष्कर्ष

श्वेता सुमन का मामला यह दर्शाता है कि चुनाव प्रक्रिया में हर चरण पर कानूनी अनुपालन और पारदर्शिता आवश्यक है। नामांकन पत्र दाखिल करना केवल औपचारिकता नहीं, बल्कि यह एक संवैधानिक जिम्मेदारी है, जिसके तहत उम्मीदवार को सभी दस्तावेज़ सही और पूर्ण रूप में प्रस्तुत करने होते हैं।

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय भारतीय न्यायिक प्रणाली की उस संतुलित दृष्टि को दिखाता है, जो लोकतंत्र की स्वतंत्रता और प्रशासनिक पारदर्शिता दोनों की रक्षा करती है
यह निर्णय यह भी याद दिलाता है कि न्यायालय जनता की संप्रभुता में हस्तक्षेप नहीं करेगा, बल्कि उसे सशक्त बनाने का कार्य करेगा।

         बिहार विधानसभा चुनावों के इस घटनाक्रम ने एक बार फिर यह साबित किया कि भारत में लोकतंत्र की जड़ें विधिक और संवैधानिक मूल्यों पर आधारित हैं। सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर यह संदेश दिया है कि कानून के समक्ष सभी समान हैं, और कोई भी — चाहे वह राजनेता हो या आम नागरिक — विधिक प्रक्रिया से ऊपर नहीं है।