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“धार्मिक स्वतंत्रता पर वैश्विक नजर: ट्रंप की चेतावनी और नाइजीरिया की सच्चाई”

“धार्मिक स्वतंत्रता पर वैश्विक नजर: ट्रंप की चेतावनी और नाइजीरिया की सच्चाई”


प्रस्तावना

हाल के दिनों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नाइजीरिया फिर एक बार सुर्खियों में आया है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बयान ने न केवल अफ्रीकी महाद्वीप बल्कि पूरी दुनिया का ध्यान नाइजीरिया की ओर आकर्षित कर दिया। ट्रंप ने खुलकर नाइजीरियाई सरकार को चेतावनी दी कि यदि देश में “ईसाइयों की हत्याएं” नहीं रुकीं तो नाइजीरिया को “Countries of Particular Concern” (CPC) की सूची में शामिल किया जा सकता है — यह वह काली सूची है जिसमें वे देश रखे जाते हैं जो धार्मिक उत्पीड़न के लिए बदनाम हैं।

ट्रंप ने इतना ही नहीं कहा कि अमेरिका नाइजीरिया को दी जाने वाली आर्थिक सहायता बंद करने पर भी विचार कर सकता है, बल्कि उन्होंने अमेरिकी रक्षा विभाग को यह निर्देश दिया कि यदि हालात में सुधार नहीं हुआ तो संभावित सैन्य कार्रवाई की तैयारी रखी जाए।

इस बयान ने नाइजीरियाई सरकार को झकझोर कर रख दिया। उसने तुरंत प्रतिक्रिया दी कि देश में किसी भी तरह का धार्मिक भेदभाव या उत्पीड़न नहीं हो रहा है और संविधान का अनुच्छेद 38 प्रत्येक नागरिक को धर्म की स्वतंत्रता प्रदान करता है। लेकिन सवाल यह उठता है — क्या नाइजीरिया में वास्तव में हर व्यक्ति को धर्म की स्वतंत्रता प्राप्त है?


संविधानिक अधिकार बनाम जमीनी सच्चाई

नाइजीरिया का संविधान, 1999, स्पष्ट रूप से कहता है कि हर व्यक्ति को अपनी पसंद के धर्म को मानने, प्रचार करने और पालन करने का अधिकार है। लेकिन जमीनी सच्चाई इस संवैधानिक आदर्श से कोसों दूर है।

देश के उत्तरी और मध्य हिस्सों में वर्षों से धार्मिक संघर्ष, सांप्रदायिक हिंसा, और चरमपंथी गतिविधियाँ जारी हैं। बोको हराम और फुलानी मिलिशिया जैसे समूहों ने न केवल असंख्य निर्दोष नागरिकों की हत्या की है, बल्कि उन्होंने स्कूलों, चर्चों और गाँवों को भी तबाह किया है।

विभिन्न मानवाधिकार संगठनों की रिपोर्टों के अनुसार, पिछले एक दशक में नाइजीरिया में 50,000 से अधिक ईसाई चरमपंथी हमलों में मारे जा चुके हैं। हजारों गाँव खाली हो चुके हैं, और लाखों लोग अपने ही देश में शरणार्थी बनकर जीवन बिता रहे हैं।


ट्रंप की चेतावनी: हस्तक्षेप या चेतन का आह्वान?

नाइजीरियाई सरकार ने ट्रंप के बयान को “अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप” बताया। उनका कहना है कि यह नाइजीरिया की संप्रभुता (sovereignty) पर सीधा हमला है। लेकिन दूसरी ओर, कई राजनीतिक विश्लेषक और मानवाधिकार कार्यकर्ता मानते हैं कि ट्रंप की टिप्पणी एक “कूटनीतिक दबाव” (diplomatic pressure) का हिस्सा है, जिसका उद्देश्य नाइजीरियाई सरकार को जगाना है।

वास्तव में, किसी भी राष्ट्र के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप स्वीकार्य नहीं होता, लेकिन जब किसी देश में मानवाधिकारों का हनन होता है, तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय का नैतिक दायित्व बनता है कि वह आवाज उठाए।

इतिहास गवाह है कि जब सरकारें अपने नागरिकों की सुरक्षा में असफल होती हैं, तब अंतरराष्ट्रीय मंचों पर दबाव बनाना आवश्यक हो जाता है — चाहे वह दक्षिण अफ्रीका का अपार्थाइड काल हो या म्यांमार में रोहिंग्या संकट


धार्मिक हिंसा की जड़ें

नाइजीरिया की धार्मिक हिंसा की जड़ें सिर्फ धार्मिक असहिष्णुता तक सीमित नहीं हैं। इसके पीछे राजनीतिक हित, जातीय प्रतिस्पर्धा, आर्थिक असमानता और प्रशासनिक लापरवाही भी है।

  1. राजनीतिक लाभ:
    नाइजीरिया के कई नेता अपने राजनीतिक हितों के लिए धार्मिक पहचान का इस्तेमाल करते हैं। वे समुदायों को विभाजित कर सत्ता बनाए रखने का प्रयास करते हैं।
  2. संसाधनों पर संघर्ष:
    चरागाहों, खेती की जमीन और जल स्रोतों को लेकर फुलानी चरवाहों और ईसाई किसानों के बीच दशकों से संघर्ष जारी है। यह संघर्ष धीरे-धीरे धार्मिक रंग ले चुका है।
  3. न्याय व्यवस्था की विफलता:
    अधिकांश हिंसा की घटनाओं में अपराधियों को दंड नहीं मिलता। न तो न्यायिक कार्रवाई होती है और न ही पर्याप्त जांच। यह दंडहीनता अपराधियों का मनोबल बढ़ाती है।
  4. सुरक्षा बलों की उदासीनता:
    कई मामलों में देखा गया है कि सुरक्षा बल समय पर कार्रवाई नहीं करते या फिर पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाते हैं।

अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रियाएं

ट्रंप की चेतावनी के बाद न केवल अमेरिका, बल्कि यूरोपीय संघ और ब्रिटेन ने भी नाइजीरिया में धार्मिक हिंसा पर चिंता व्यक्त की।
एमनेस्टी इंटरनेशनल, ह्यूमन राइट्स वॉच और ओपन डोर्स यूएसए जैसी संस्थाओं ने कई रिपोर्टों में यह स्पष्ट किया है कि नाइजीरिया में ईसाई अल्पसंख्यक लगातार हमलों के शिकार हो रहे हैं।

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (UNHRC) ने भी बार-बार नाइजीरिया से आग्रह किया है कि वह अपनी सुरक्षा और न्याय व्यवस्था को मजबूत करे ताकि धार्मिक हिंसा पर रोक लग सके।


सरकार की प्रतिक्रिया और आलोचना

नाइजीरियाई सरकार का तर्क है कि ट्रंप का बयान राजनीतिक प्रेरित है और इसका उद्देश्य नाइजीरिया की अंतरराष्ट्रीय छवि को धूमिल करना है। उनका कहना है कि देश में मुसलमान और ईसाई दोनों को समान स्वतंत्रता प्राप्त है।

लेकिन आलोचकों का मानना है कि सरकार ने केवल बयानबाज़ी की है, जमीनी स्तर पर कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया।
हर हमले के बाद सरकारी प्रतिनिधि दौरा करते हैं, मुआवजे की घोषणा होती है, और फिर सब कुछ पहले जैसा हो जाता है।


अमेरिकी हित और भू-राजनीतिक सन्दर्भ

ट्रंप का यह बयान केवल मानवाधिकार के दृष्टिकोण से नहीं देखा जा सकता; इसमें अमेरिकी रणनीतिक हित भी जुड़े हैं। नाइजीरिया पश्चिमी अफ्रीका का सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश है और अमेरिका का एक महत्वपूर्ण आर्थिक साझेदार भी।

इसलिए, जब ट्रंप धार्मिक उत्पीड़न का हवाला देते हैं, तो उसके पीछे यह भी संदेश छिपा है कि यदि नाइजीरिया अस्थिर होता है, तो पूरे क्षेत्र की सुरक्षा और अमेरिकी निवेश पर असर पड़ेगा।

फिर भी, यह स्वीकार करना होगा कि ट्रंप के बयान ने एक बार फिर वैश्विक समुदाय को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि धार्मिक स्वतंत्रता केवल संवैधानिक शब्द नहीं, बल्कि वास्तविकता में लागू होने वाला सिद्धांत होना चाहिए।


धर्मनिरपेक्षता की चुनौती

नाइजीरिया एक बहुधार्मिक देश है — लगभग आधी जनसंख्या मुस्लिम है और आधी ईसाई। इसके अलावा पारंपरिक अफ्रीकी धर्मों का भी अस्तित्व है। ऐसे में धर्मनिरपेक्षता को बनाए रखना आसान नहीं है।

लेकिन जब किसी एक धर्म के अनुयायियों पर बार-बार हमले होते हैं और राज्य उन्हें बचाने में विफल रहता है, तो धर्मनिरपेक्षता केवल कागज़ी आदर्श बनकर रह जाती है।


अंतरराष्ट्रीय दबाव का महत्व

ट्रंप की टिप्पणी पर भले ही विवाद हुआ हो, परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि अंतरराष्ट्रीय दबाव का प्रभाव होता है।
2019 में अमेरिका ने जब पाकिस्तान को CPC सूची में डाला था, तो वहां की सरकार को धार्मिक अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए नए कदम उठाने पड़े थे।

यदि नाइजीरिया पर भी ऐसा दबाव बनता है, तो संभव है कि सरकार अपनी नीति में बदलाव करे और मानवाधिकार संरक्षण को प्राथमिकता दे।


नाइजीरिया के लिए आगे का रास्ता

धार्मिक हिंसा की समस्या को केवल पुलिस या सेना के बल से नहीं सुलझाया जा सकता। इसके लिए एक बहुआयामी दृष्टिकोण (multi-dimensional approach) अपनाने की आवश्यकता है:

  1. न्यायिक सुधार:
    अपराधियों के खिलाफ त्वरित न्याय सुनिश्चित किया जाए।
  2. सामुदायिक संवाद:
    विभिन्न धार्मिक और जातीय समूहों के बीच संवाद को बढ़ावा दिया जाए।
  3. शिक्षा और जागरूकता:
    शिक्षा के माध्यम से सहिष्णुता और सामाजिक एकता को प्रोत्साहित किया जाए।
  4. राजनीतिक जवाबदेही:
    नेताओं को अपनी नीतियों और भाषणों के लिए जवाबदेह बनाया जाए।
  5. सुरक्षा व्यवस्था का पुनर्गठन:
    सुरक्षा बलों को निष्पक्ष और पेशेवर बनाया जाए ताकि वे सभी नागरिकों की समान रूप से रक्षा करें।

निष्कर्ष

डोनाल्ड ट्रंप का बयान भले ही विवादास्पद हो, लेकिन उसने एक ऐसी सच्चाई उजागर की है जिसे नाइजीरिया लंबे समय से नज़रअंदाज़ कर रहा था — धर्म के नाम पर हो रही हिंसा और सरकार की निष्क्रियता।

नाइजीरिया को यह समझना होगा कि लोकतंत्र केवल चुनावों से नहीं चलता; इसका आधार नागरिकों की सुरक्षा, स्वतंत्रता और समानता पर टिका है। यदि एक भी समुदाय असुरक्षित महसूस करता है, तो पूरे लोकतंत्र की नींव हिल जाती है।

ट्रंप की चेतावनी एक जागृति का संकेत है — एक ऐसा संदेश जो नाइजीरियाई सरकार और जनता दोनों के लिए है कि अब समय आ गया है धार्मिक स्वतंत्रता को केवल संविधान के अनुच्छेदों तक सीमित न रखकर वास्तविकता में उतारा जाए।

यदि नाइजीरिया इस चुनौती का सामना ईमानदारी से करता है, तो यह न केवल अपनी संप्रभुता की रक्षा करेगा बल्कि दुनिया के सामने यह सिद्ध करेगा कि वह एक सच्चे लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में खड़ा है।
और यदि नहीं — तो दुनिया देख रही है, और इतिहास ऐसे मौकों पर चुप रहने वालों को नहीं, कदम उठाने वालों को याद रखता है।