“पुलिस का आरोप: 2020 के 2020 North East Delhi riots को ‘रजिम-चेंज ऑपरेशन’ कहा गया—Delhi Police ने Umar Khalid, Sharjeel Imam व अन्य की जमानत अर्जी पर 389-पृष्ठ से अधिक की दलीलें प्रस्तुत कीं”
प्रस्तावना
भारत में न्यायिक प्रक्रिया और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के बीच संतुलन एक संवेदनशील विषय रहा है। जब इस संतुलन में गंभीर आरोप, मानवाधिकार चिंताएँ और राजनीतिक परिवेश भी जुड़ जाएँ, तो मामला और जटिल हो जाता है। ऐसा ही मामला है 2020 की दिल्ली दंगों (2020 North East Delhi riots) से जुड़ा—जहाँ Umar Khalid, Sharjeel Imam सहित अन्य आरोपी लंबित जमानत याचिकाओं के सिलसिले में आजतक न्यायिक प्रक्रिया और आलोचनाओं की भेंट चढ़े हैं। हाल ही में Supreme Court of India में चल रही जमानत याचिकाओं में पुलिस द्वारा प्रस्तुत 389-पृष्ठ से अधिक के अभिलेख ने यह संदेश दिया है कि यह सिर्फ एक दंगा मामला नहीं, बल्कि एक राष्ट्रसे संबंधित गंभीर षड्यंत्र का भाग है—पुलिस के अनुसार।
इस लेख में हम विस्तार से देखेंगे—पुलिस की दलीलें क्या हैं, आरोप-प्रत्यारोप का जोड़ क्या है, जमानत मुद्दे पर न्यायिक दृष्टिकोण क्या है, इस पूरे प्रकरण में संवैधानिक और नागरिक-स्वतंत्रता के पक्ष में उठ रहे प्रश्न क्या हैं, तथा आगे होनेवाले संभावित दुष्प्रभाव क्या हो सकते हैं।
1. घटनाक्रम : 2020 दिल्ली दंगे का प्रकरण
2020 फरवरी में राजधानी दिल्ली के उत्तर-पूर्वी हिस्से में दंगे भड़क उठे थे, जिनमें आधिकारिक रूप से 53 की मौत और सैकड़ों घायल होने की सूचना है।
इस दंगे को यूपीए-व अनुषंगी अपराध संख्या तथा षड्यंत्र मामलों से जोड़कर देखा गया। आरोपीगण पर आरोप है कि उन्होंने अचानक हिंसात्मक प्रदर्शन, वाहनों की तोड़-फोड़, सार्वजनिक संपत्ति पर हमले व समूह-संघटनाओं के माध्यम से शांति भंग की योजना बनाई थी।
पुलिस की विशेष सेल ने इस दंगे को केवल हिंसात्मक घटनाओं का समुच्चय नहीं, बल्कि एक पूर्व नियोजित रणनीति बताया है, जिसमें एक सशक्त ऋजिम-चेंज ऑपरेशन (regime-change operation) की भी झलक है।
इसके बाद कई आरोप पत्र, एफआईआर और अभियोजन चलाया गया, जिसमें बदला-प्रेप्रोवाइज्ड श्रम, तकनीकी एवं ग्रुप चैट्स, साक्ष्यों की चुनिंदा व्यवस्था आदि शामिल हैं।
2. पुलिस की दलीलें : 389-पृष्ठ का अभिलेख
पुलिस ने उन आरोपों को सुप्रीम कोर्ट में 389 पृष्ठों से अधिक के अभिलेख के रूप में प्रस्तुत किया, जिसमें मुख्य दलीलें निम्नवत् हैं:
- अभिलेख में कहा गया है कि अभियुक्तों ने “संज्ञानात्मक, प्रलेखीय एवं तकनीकी” साक्ष्य एकत्रित किए जाने से पहले ही राष्ट्रीय आंदोलन-सारिणी तैयार कर ली थी।
- विशेष रूप से आरोप है कि अभियुक्तों ने अलग-अलग ग्रुप चैट्स, व्हाट्सएप समूहों व अन्य माध्यमों द्वारा पूर्व नियोजित आंदोलन-प्रेरणा तैयार की, जिसका उद्देश्य देश की सार्वभौमिकता, अखंडता व साम्प्रदायिक सौहार्द्र को चुनौती देना था।
- अभिलेख में यह दावा है कि ये आयोजन उच्चस्तरीय रूप से “अर्द्ध-संगठित विरोध आंदोलन” नहीं बल्कि सहायता प्राप्त, प्लान किया गया दंगा संचालन मॉडल था, जिसे पुलिस ने ‘रजिम-चेंज ऑपरेशन’ कहा है।
- पुलिस ने यह भी तर्क दिया कि अभियुक्त-समूह ने प्रदर्शन को अन्तर्राष्ट्रीय धारा में ले जाने का विचार किया था—विशेष रूप से अमेरिका के राष्ट्रपति के भारत दौरे के समय इसका समन्वय किया गया था, जिससे वैश्विक मीडिया ध्यान आकर्षित कर सके।
- पुलिस ने यह भी कहा कि जमानत अनुरोधों में समय-पूर्वता या लंबित जांच आदि को आधार बनाना उचित नहीं क्योंकि अभियोजन अभी चल रही है तथा “UAPA एवं अन्य गंभीर प्रावधानों” के अंतर्गत कार्रवाई हो रही है।
इन दलीलों को ध्यान में रखते हुए पुलिस ने यह अनुरोध किया है कि जमानत देने की प्रमुख मंशा को ध्यान में रखते हुए इन अभियुक्तों को जेल में रहने देना न्यायसंगत है।
3. अभियुक्तों की दलीलें और जमानत पर बहस
वहीं अभियुक्तों ने अपनी ओर से दलीलें पेश की हैं कि:
- Umar Khalid ने दिल्ली दंगों के समय दिल्ली में रह ही नहीं था, इसलिए उस समय के घटनाक्रम से उसका सम्बन्ध नहीं बनता है।
- Sharjeel Imam ने कहा है कि उन्होंने कभी हिंसा के लिए आह्वान नहीं किया; उनका आंदोलन शांतिपूर्ण मार्ग से था, जैसे चक्का-जाम या blockade के माध्यम से विरोध प्रदर्शन।
- अभियुक्तों ने यह तर्क दिया कि अनुवर्ती आरोप-प्रक्रिया में काफी देर हो चुकी है, आज भी ट्रायल नहीं हुआ है, और इस तरह लंबे समय तक जेल में रहना “असाधारण प्रिवेंशन” जैसा है।
- अभियुक्तों ने कहा कि जमानत न देने का निर्णय संविधान के स्वतंत्रता व सामान्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है, विशेषकर जब कोई व्यक्ति निर्दोष माना जाता हो या ट्रायल लंबित हो।
इस प्रकार जमानत-विवाद में “रोक लगाने” व “प्रक्रिया की गति” जैसे पक्ष सामने आ रहे हैं।
4. न्यायालय का दृष्टिकोण एवं संवैधानिक आयाम
Supreme Court of India ने इस मामले में कुछ महत्वपूर्ण बातें सामने रखी हैं:
- सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस को चेतावनी दी कि जवाब दाखिल करने में देर हुई है।
- न्यायालय ने यह सवाल उठाया कि क्या जमानत केवल “लंबित ट्रायल” या “लंबे समय से हिरासत” के आधार पर देना चाहिए।
- साथ ही यह ध्यान दिलाया गया कि यदि अभियोजन के पास प्रारंभिक और ठोस आधार मौजूद हो तो जमानत स्वीकृति-परिवर्तन का मामला नहीं होता।
संवैधानिक रूप से, भारत में जमानत की अनुमति व रोक दोनों ही संभव हैं। प्रमुख सिद्धांत है—”आरोपित को निर्दोष माना जाता है जब तक दोषी साबित न हो” लेकिन साथ ही यह भी है कि “जहाँ अपराध देश की अखंडता व सुरक्षा से जुड़ा हो, वहाँ जमानत की मान्यता तुलनात्मक रूप से सीमित हो सकती है”।
इस मामले में, पुलिस ने UAPA जैसे विशेष कानूनों के अंतर्गत कार्रवाई की बात कही है, जो कि व्यापक रूप से देखें तो राष्ट्र-सुरक्षा के दृष्टिकोण से संवेदनशील है।
5. विवादों एवं प्रश्नों का पटल
इस पूरे प्रकरण में निम्नलिखित बड़ी प्रश्न-चिन्ह उठते हैं:
(i) उचित प्रक्रिया व निष्पक्ष जाँच
अभियुक्तों का तर्क है कि लंबे समय तक ट्रायल न हो पाना, जमानत-रोक का औचित्य कमजोर करता है। मानवाधिकार संगठनों ने भी इस बात पर चिंता जताई है कि “प्रक्रिया खुद दंड बन गई” है।
(ii) प्रूफ-स्तर तथा देखरेख
पुलिस ने “ओक्युलर, प्रलेखीय व तकनीकी साक्ष्यों” का दावा किया है किंतु अभियुक्तों ने यह आरोप लगाया है कि साक्ष्यों में व्यवस्थितता नहीं, बल्कि ‘कल्पना-पर आधारित कथन’ अधिक हैं।
(iii) राजनीतिक व सामाजिक संदर्भ
यह मामला केवल एक दंगे का नहीं रहा बल्कि राजनीतिक एवं सामाजिक संघर्ष के परिवेश में था—जहाँ विरोध प्रदर्शन, नागरिक अधिकार, धार्मिक-साम्प्रदायिक तनाव, व सरकार-विरोधी आवाजें भी सामने थीं। इसने न्यायिक प्रक्रिया को और अधिक सार्वजनिक तथा संवेदनशील बना दिया।
(iv) जमानत-नीति का उत्पादन
क्या ऐसे मामलों में “जेल और नहीं जमानत” की नीति सही है? पुलिस ने साफ-साफ कहा है कि “इस प्रकार के UAPA अपराधों में सामान्य नियम के अनुसार जमानत नहीं दी जा सकती”।
(v) प्रक्रिया-देरी का असर
यदि ट्रायल में असमय देरी हो रही है, तो अपराधी का ही फायदा होता है, या क्या अभियुक्त-पक्ष को संवैधानिक आधार पर राहत देनी चाहिए? यह न्याय-विचार का बड़ा सवाल है।
6. प्रभाव एवं आगे की दिशा
यह प्रकरण कई प्रकार से महत्वपूर्ण प्रभाव पैदा कर रहा है:
- न्यायिक-विश्वास: यदि अभियुक्तों को लंबे समय तक हिरासत में रखा जाए और जमानत न मिले, तो यह नागरिकों में न्याय व्यवस्था पर संदेह उत्पन्न कर सकता है।
- मानवाधिकार चर्चा: जेल में लंबित हिरासत, विशेष कानूनों के दायरे, ट्रायल-देरी — ये सभी मानवाधिकार एवं मौलिक स्वतंत्रताओं का स्पर्श करते हैं।
- देश की अखंडता व कानून-शासन: दूसरी ओर, यदि आरोप गंभीर हैं और राष्ट्र-सुरक्षा व न्याय-प्रक्रिया प्रभावित हो रही है, तो त्वरित कार्रवाई की आवश्यकता भी है।
- मीडिया व सार्वजनिक विमर्श: इस मामले ने मीडिया और सामाजिक विमर्श में यह प्रश्न उठाया है कि किस स्तर पर “प्रदर्शन” राजनीतिक असहमति है और कब वह “अबैध आयोजन” बन जाता है।
- न्याय-लंबितता: लंबे समय तक हिरासत में रहना स्वयं एक प्रकार का दंड माना जा सकता है—यदि ट्रायल समयबद्ध नहीं हो।
निष्कर्ष
2020 के दिल्ली दंगों से जुड़े Umar Khalid, Sharjeel Imam सहित अन्य अभियुक्तों की जमानत याचिकाओं में प्रस्तुत पुलिस की दलीलें और अभियुक्तों की प्रतिक्रियाएँ—दोनों ही न्याय-प्रक्रिया, संवैधानिक अधिकार, और सामाजिक-राजनीतिक संदर्भ में गहराई से जुड़ी हुई हैं।
पुलिस कथित रूप से एक पूर्व नियोजित षड्यंत्र का आरोप लगा रही है—“रजिम-चेंज ऑपरेशन” जैसा—और जमानत देने पर रोक लगाने की मांग कर रही है। वहीं अभियुक्तों का कहना है कि जमानत सिर्फ हिरासत समय की लंबाई या ट्रायल-देरी के कारण नहीं रोकी जानी चाहिए, और उन्हें निष्पक्ष सुनवाई का अवसर मिलना चाहिए।
संविधान-विधि की दृष्टि से यह मामला इस बात का प्रतीक बन गया है कि न्याय प्रणाली में संतुलन कैसे बनाए रखा जाए — प्रत्येक व्यक्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चित करते हुए, देश की सार्वभौम सुरक्षा एवं समाज-शांति को किस प्रकार संरक्षित किया जाए।
अंततः न्याय का मूल उद्देश्य सत्य-निरूपण तथा निष्पक्ष सुनवाई है। इस प्रकरण में न्यायालयों को यह सुनिश्चित करना होगा कि अभियोजन और रक्षा दोनों पक्षों को समान अवसर मिले, ओर जमानत-एवं हिरासत के निर्धारण में संवैधानिक मानदंड सख्ती से लागू हों।