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“केवल सुरक्षा के लिए जारी चेक: क्या है Negotiable Instruments Act, 1881 की धारा 138 के अंतर्गत दायित्व? — Delhi High Court का दृष्टिकोण”

“केवल सुरक्षा के लिए जारी चेक: क्या है Negotiable Instruments Act, 1881 की धारा 138 के अंतर्गत दायित्व? — Delhi High Court का दृष्टिकोण”

परिचय
भारत में Negotiable Instruments Act, 1881 (“NI Act”) की धारा 138 उस संदर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण है जहाँ चेक अशुद्ध कारण से बाउंस होता है। यह विधि उन मामलों को नियंत्रित करती है जहाँ चेक के भुगतान से इंकार या चेक की वापसी बैंक द्वारा “फण्ड्स कमी”, “खाता बंद” आदि कारणों से की जाती है। इस प्रावधान का मूल उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कोई भी व्यक्ति बैंक खाते से चेक जारी करे जो ‘कई देय दायित्व’ (legally enforceable debt or liability) को समाप्त करने या आंशिक रूप से समाप्त करने के लिए हो।

हालाँकि, व्यावसायिक व्यवहार में अक्सर यह देखा गया है कि चेक ‘सुरक्षा के लिए’ (security cheque) के रूप में दिया जाता है — अर्थात् उस मूल लेन-देने की पूर्ति के बाद ही चेक को प्रस्तुत किया जाना था। इस प्रकार उठता है सवाल: क्या ऐसा “सिक्योरिटी चेक” NI Act की धारा 138 के अंतर्गत आ सकता है? विशेष रूप से, Delhi High Court ने इस विषय पर विवेचना की है।

इस लेख में हम (1) सुरक्षा चेक के वैधानिक स्वरूप को समझेंगे, (2) मुख्य न्यायालयीन उदाहरणों से यह जानेंगे कि दिल्ली हाई कोर्ट ने इस विषय में क्या कहा है, (3) इस बात का विश्लेषण करेंगे कि चेक केवल सुरक्षा हेतु रहने पर तब क्या होता है जब कोई वास्तविक देय दायित्व न हो या भविष्य का दायित्व हो, एवं (4) अभ्यास के लिए सुझाव और निष्कर्ष प्रस्तुत करेंगे।


सुरक्षा चेक (Security Cheque) क्या है?

‘सुरक्षा चेक’ का अर्थ विधि-पुस्तकों में स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं है। यह अधिकांशतः व्यावसायिक व्यवहार में निम्नलिखित अवस्थाओं में उपयोग होता है:

  • किसी ऋणदाता या लेन-देने वाले को यह आश्वासन देने के लिए कि यदि लेन-देने वाला भविष्य में निर्धारित शर्तें पूरी नहीं करता है, तो चेक बैंक को प्रस्तुत किया जा सकेगा।
  • ऐसे खाते के रूप में जहाँ चेक एक प्रकार की गारंटी या भरोसे के रूप में धारण किया जाता है, और तुरंत प्रस्तुत न किया जाना हो, बल्कि भविष्य में दायित्व पूरा न होने पर प्रस्तुत किया जाना हो।
  • चेक की तारीख अक्सर भविष्य में (post-dated) होती है या “प्रस्तुत की जाएगी यदि …” जैसी शर्तें लगी होती हैं।

हालाँकि, चूंकि NI Act में ‘सुरक्षा चेक’ की किसी विशेष परिभाषा नहीं है, यह बात जाँची जाती है कि :

  • चेक जारी करते समय क्या कोई वर्तमान में देय दायित्व (existing debt/liability) था?
  • या क्या चेक केवल उस शर्त पर जारी किया गया था कि भविष्य में कुछ होगा और उस शर्त के पूरा न होने पर चेक प्रस्तुत होगा?
  • चेक ट्रांसमिशन के समय अर्थात् प्रस्टुत करने पर क्या वह न्याय‐संगत (legally enforceable) दायित्व समाप्त या अस्तित्व में था?

इसमें प्रमुख है यह कि NI Act की धारा 138 के दायित्व की शुरुआत तभी होती है जब चेक “दायित्व (debt/liability) के निर्वहन के लिए” या “उसका आंशिक निर्वहन” के लिए दिया गया हो। इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि चेक पर जारीकर्ता के खाते से “पैसे की निकासी” का अधिकार सामने आता है जब वह देय देनदारी हो।


दिल्ली उच्च न्यायालय का दृष्टिकोण

1. Suresh Chandra Goyal v. Amit Singhal (2015)

इस मामले में दिल्ली हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया कि –

“There is no magic in the word ‘security cheque’, such that, the moment the accused claims that the dishonoured cheque … was given as a ‘security cheque’, the Magistrate would acquit the accused. The expression ‘security cheque’ is not a statutorily defined expression in the NI Act.”

मामले के तथ्यों के सार के अनुसार – शिकायतकर्ता ने प्रतिवादी के व्यवसाय में पैसा निवेश किया था। उसके बाद प्रतिवादी ने 3 लाख रुपये की शेष देनदारी को 6 किस्तियों में चुकाने का समझौता किया (एमओयू) जिसमें 6 महीने-महीने 50,000 रुपये के चेक दिए जाने थे। इन चेकों को ‘सिक्योरिटी चेक’ कहा गया क्योंकि यह समझौते के अनुसार थी कि शेष राशि चुकाई जाएगी। उनमें से तीन चेक बाउंस हो गए।

न्यायालय ने पाया कि केवल यह कहना कि चेक ‘सिक्योरिटी’ के रूप में था, स्वचालित रूप से धारा 138 की कार्रवाई को निरस्त नहीं करता। महत्वपूर्ण यह था कि चेक जारी करते समय देय राशि मौजूद थी (3 लाख रुपये की देनदारी स्वीकार की गई थी) और चेक उसी को चुकाने के उद्देश्य से दिए गए थे। इसलिए शिकायतकर्ता को धारा 138 के तहत कार्रवाई की अनुमति दी गई।

यह निर्णय यह सिद्ध करता है कि यदि सुरक्षा चेक के रूप में दिया गया चेक वास्तव में देय दायित्व के निर्वहन के लिए था, तो वो धारा 138 के दायित्व के अंतर्गत आ सकता है।

2. अन्य प्रासंगिक निर्णय

  • दिल्ली हाई कोर्ट ने Wilson Mathew v. State में यह माना कि “सुरक्षा चेक पर स्वचालित रूप से धारा 138 लागू नहीं होगा, पर वह दायित्व के अस्तित्व के सिद्ध होने पर मामला बन सकता है।”
  • किसी चेक के बाउंस होने पर, यह देखा जाता है कि चेक प्रस्तुत किए जाने वक्त देय दायित्व मौजूद था या नहीं। न्यायालय ने दोहराया है कि दायित्व ‘कायम’ होना चाहिए, अर्थात् ऐसा देय दायित्व जो वर्तमान में था और उस तारीख तक वह न्यायसंगत थी।

क्या ‘केवल सुरक्षा’ के लिए चेक जारी किया गया हो तो धारा 138 नहीं लगेगी?

यहां हमें निम्न-बिंदुओं पर विचार करना होगा:

(i) देय दायित्व का होना

धारा 138 के अंतर्गत तीन प्रमुख तत्व हैं:

  1. चेक बैंक खाते से मान्य रूप से जारी हुआ हो;
  2. वह चेक “दायित्व या ऋण के निर्वहन या आंशिक निर्वहन” के लिए जारी हुआ होना चाहिए;
  3. चेक बैंक द्वारा बाउंस हुआ हो (शुल्क सहित) एवं वैधानिक नोटिस भेजा गया हो।

यदि चेक केवल ‘सुरक्षा’ के लिए दिया गया हो और उस समय कोई रिपेमेंट योग्य (quantified, crystallised) दायित्व नहीं था, तो दायित्व का तत्व लुप्त हो सकता है। न्यायालय ने माना है कि:

“घटना तल पर देखें तो यदि चेक जारी करते समय देय दायित्व न था, या वह पूरी तरह निर्धारित नहीं था, तो धारा 138 की कार्रवाई नहीं हो सकती।”

(ii) सुरक्षा शर्त vs वर्तमान ऋण

सुरक्षा चेक के मामले में दो तरह की स्थितियाँ सामने आती हैं:

  • चेक तुरंत प्रस्तुत किया जा सकता है यदि ऋण अदायगी न हुई हो। यहाँ चेक एक तरह से “सुपर्युक्त” माध्यम (back-up) के रूप में था।
  • चेक केवल भविष्य में कुछ न होने पर प्रस्तुत होगा (उदाहरण- यदि सामान न मिलेगा, सेवा न दी जाएगी आदि)। ऐसी स्थिति में उस समय देय दायित्व स्पष्ट नहीं था। ऐसे चेक पर धारा 138 का प्रत्यय कम हो जाता है।

उदाहरण के लिए, यदि चेक जारी करते समय लिखा गया हो “यदि आप ऑर्डर पूरा न करें तो यह चेक बैंक को प्रस्तुत होगा” — यह एक सुरक्षा चेक का क्लासिक स्वरूप है जहाँ देयता निश्चित नहीं है। इस प्रकार की स्थिति में, न्यायालय ने कहें कि धारा 138 की कार्रवाई असमर्थ हो सकती है।

(iii) प्रस्तुत करते समय दायित्व का होना

विशेष रूप से, चेक जब बैंक में प्रस्तुत किया जाता है, उस समय तक दायित्व मौजूद होना चाहिए। यदि उस समय देय दायित्व समाप्त हो गया हो या वह पूर्व में पूरा हो गया हो, तो चेक उस दायित्व को धारण नहीं करता। यह सिद्धांत उच्च न्यायालय तथा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निरंतर स्वीकार किया गया है।

(iv) सुरक्षा चेक की दायित्व पर असर

यह निष्कर्ष निकलता है कि — सिर्फ यह कहना कि चेक “सिक्योरिटी के लिए” था, पर्याप्त नहीं है। अगर उस चेक से वास्तव में ऋण चुकाने का बायां (intention) था, और चेक जारी करते समय उस ऋण की देयता मौजूद थी, तो धारा 138 लागू हो सकती है। यदि नहीं, तो अभियोजन अग्रसर करना कठिन होगा।


अभ्यास-दृष्टि से विवेचना

आप निम्नलिखित बिंदुओं की समीक्षा कर सकते हैं यदि “सुरक्षा चेक” का मामला आपके सामने हो:

  1. चेक जारी होने की दिनांक: चेक कब जारी हुआ? उस समय क्या देनदारी थी?
  2. दायित्व की दस्तावेजी स्वीकृति: क्या ऋण या देनदारी स्वीकार की गई थी? जैसे एमओयू, ऋण वाउचर, लेन-देने का लेखा-जोखा।
  3. चेक की प्रकृति: क्या चेक पर शर्तें या भविष्य की घटना से बांधा गया था? क्या चेक “सुरक्षा” के रूप में था या “व्हाइट एंड ब्लैक” ऋण चुकाने के लिए?
  4. चेक बाउंस होना: क्या बैंक ने चेक बाउंस किया और उचित बाउंस मेमो है?
  5. लागत नोटिस (Legal Notice): क्या धारा 138 के अंतर्गत वैधानिक नोटिस दिया गया था जिसमें चेक राशि का स्पष्ट उल्लेख है?
  6. प्रस्तुति की स्थिति: चेक प्रस्तुत कब किया गया और उस समय क्या दायित्व शेष था?
  7. प्रत्युत्तर (Defence): इशारा कि चेक “सुरक्षा” के लिए था — इसे सिर्फ दावा न माना जाए, बल्कि कब और क्यों था, इसका तथ्यात्मक प्रमाण प्रस्तुत करना होगा।

निष्कर्ष

सारांशतः — “सुरक्षा चेक” शब्द का प्रयोग स्वयं में दोषारोपण (exculpation) नहीं है। यदि चेक उस समय जारी हुआ था जब देय दायित्व मौजूद था, और चेक उसी को चुकाने के उद्देश्य से था, तो वह Negotiable Instruments Act, 1881 की धारा 138 के दायित्व के दायरे में आ सकता है। लेकिन यदि चेक केवल भविष्य के किसी शर्तीय दायित्व या अस्थिर संबंध की गारंटी के रूप में था, तो अभियोजन की सम्भावना कम होती है।

विशेष रूप से, दिल्ली हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि “सुरक्षा चेक” की उपाधि स्व-चालित रूप से अभियोजन को असमर्थ नहीं करती; दायित्व के अस्तित्व, अवधि, चेक के उद्देश्य एवं प्रस्तुति की स्थिति को ध्यान में लिया जाना चाहिए।