“धर्म के नाम पर अनुशासन से विचलन: सशस्त्र बल अधिकारी की भड़काऊ भाषणबाज़ी पर पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट की सख्त टिप्पणी — राष्ट्रसेवा में धार्मिक उकसावे की कोई जगह नहीं”
🔹 प्रस्तावना
भारत जैसे लोकतांत्रिक और बहुधार्मिक देश में, सेना (Armed Forces) केवल राष्ट्र की सीमाओं की रक्षा करने वाली संस्था नहीं है, बल्कि यह राष्ट्रीय एकता, धर्मनिरपेक्षता और संविधानिक मूल्यों की प्रतीक भी है। सैनिक अनुशासन, निष्पक्षता, और संवैधानिक निष्ठा भारतीय सशस्त्र बलों की रीढ़ हैं।
इसी संदर्भ में, पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय (Punjab and Haryana High Court) का एक हालिया निर्णय अत्यंत महत्वपूर्ण है, जिसमें अदालत ने कहा कि —
“यदि कोई सशस्त्र बल अधिकारी इस प्रकार सभा को संबोधित करता है कि उसका भाषण धार्मिक रूप से उत्तेजक या उकसाने वाला प्रतीत हो, तो यह न केवल पेशेवर अनुशासन का उल्लंघन है, बल्कि संविधान के मूल्यों के साथ भी विश्वासघात है।”
यह निर्णय इस बात की पुष्टि करता है कि भारतीय सेना और उससे जुड़े सभी अधिकारी “धर्मनिरपेक्षता” (Secularism) और “नैतिक तटस्थता” के उच्च आदर्शों से बंधे हैं।
🔹 मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला उस समय उठा जब एक सशस्त्र बल अधिकारी ने सार्वजनिक सभा में ऐसा भाषण दिया, जिसमें धार्मिक भावनाओं को भड़काने वाली बातें कही गईं। भाषण की वीडियो क्लिप वायरल होने के बाद यह प्रश्न उठा कि क्या इस तरह की अभिव्यक्ति एक सैन्य अधिकारी के लिए उचित है?
अधिकारी ने यह तर्क दिया कि उसने केवल “धार्मिक दृष्टिकोण से प्रेरणादायक” बातें कही थीं और उसका इरादा किसी को आहत करना नहीं था। परंतु अदालत ने इस तर्क को अस्वीकार करते हुए कहा कि —
“किसी भी सशस्त्र बल के सदस्य को ऐसी कोई टिप्पणी करने की अनुमति नहीं दी जा सकती जो किसी धर्म विशेष को बढ़ावा देती हो या दूसरों की धार्मिक भावनाओं को आहत करती हो।”
🔹 अदालत की टिप्पणियाँ और विश्लेषण
पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने अपने विस्तृत निर्णय में निम्नलिखित प्रमुख बिंदुओं को रेखांकित किया:
- सैन्य अनुशासन की मर्यादा:
सशस्त्र बल का हर अधिकारी राष्ट्र के संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ लेता है। यह निष्ठा केवल सीमा पर रक्षा करने तक सीमित नहीं है, बल्कि उसके आचरण, वाणी और सार्वजनिक व्यवहार में भी झलकनी चाहिए। धार्मिक उकसावे वाली भाषा इस अनुशासन के मूल सिद्धांतों के प्रतिकूल है। - संविधान की भावना और अनुच्छेद 25-28:
भारत का संविधान प्रत्येक व्यक्ति को धार्मिक स्वतंत्रता देता है, परंतु यह स्वतंत्रता राज्य के अधिकारी या सार्वजनिक सेवक को धर्म के प्रचार का अधिकार नहीं देती।
एक सैनिक अधिकारी का दायित्व संविधान की रक्षा करना है, न कि किसी धार्मिक विचारधारा का प्रचार करना। - धर्मनिरपेक्षता का दायित्व:
न्यायालय ने कहा कि भारतीय सेना की सबसे बड़ी ताकत उसकी धर्मनिरपेक्षता है। सैनिकों की वर्दी में कोई “धर्म” नहीं होता।
सेना में “एकता में विविधता” की भावना सर्वाधिक सशक्त रूप में देखी जाती है, इसलिए किसी भी अधिकारी द्वारा धर्म आधारित भाषण सेना की नींव को कमजोर कर सकता है। - सार्वजनिक मंच पर जिम्मेदारी:
न्यायालय ने यह भी कहा कि सशस्त्र बल के अधिकारियों को सार्वजनिक मंच पर बोलते समय यह याद रखना चाहिए कि उनके शब्द केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि “संस्थागत आवाज़” माने जाते हैं।
इसलिए उनका हर कथन सशस्त्र बल की मर्यादा, संयम और संविधान के अनुरूप होना चाहिए।
🔹 संवैधानिक परिप्रेक्ष्य
भारत के संविधान की प्रस्तावना (Preamble) में “धर्मनिरपेक्षता” को मूल विशेषता के रूप में स्वीकार किया गया है।
धर्मनिरपेक्षता का अर्थ यह नहीं कि व्यक्ति धर्महीन हो, बल्कि यह है कि राज्य या उसके प्रतिनिधि किसी धर्म के पक्ष या विपक्ष में न झुकें।
अनुच्छेद 51A(e) नागरिकों से अपेक्षा करता है कि वे “धर्म, भाषा या क्षेत्र के आधार पर सौहार्द और भ्रातृत्व की भावना बनाए रखें।”
इस दृष्टि से, एक सशस्त्र बल अधिकारी का धार्मिक रूप से उकसाऊ भाषण इस अनुच्छेद का उल्लंघन माना गया।
🔹 न्यायिक दृष्टांत (Judicial Precedents)
अदालत ने अपने निर्णय में कई पूर्व मामलों का उल्लेख किया, जिनमें यह सिद्धांत स्थापित किया गया था कि
“राज्य कर्मचारी या सशस्त्र बल सदस्य की सार्वजनिक अभिव्यक्ति संविधानिक मर्यादाओं में बंधी होती है।”
- Union of India v. Major General Madan Lal Yadav (1996) –
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सेना के अनुशासन से कोई समझौता नहीं किया जा सकता। किसी भी प्रकार की अनुशासनहीनता, चाहे वह वाणी से हो या आचरण से, अस्वीकार्य है। - O.K. Ghosh v. E.X. Joseph (1962) –
यह निर्णय स्पष्ट करता है कि सरकारी सेवक को किसी धार्मिक या राजनीतिक गतिविधि में खुलकर भाग लेने की अनुमति नहीं है। - Baldev Singh v. Union of India (2002) –
सेना के अधिकारी की ओर से धार्मिक पूर्वाग्रह दर्शाने वाले बयान को अदालत ने “गंभीर अनुशासनहीनता” माना।
🔹 न्यायालय की सख्त चेतावनी
पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने यह चेतावनी भी दी कि:
“यदि सशस्त्र बलों के अधिकारी या कर्मी इस प्रकार के धार्मिक रूप से उकसाने वाले वक्तव्यों से बचेंगे नहीं, तो यह देश की एकता, अखंडता और राष्ट्रीय सुरक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है।”
न्यायालय ने कहा कि सेना की विश्वसनीयता उसकी निष्पक्षता में निहित है —
“यदि सेना धार्मिक विभाजन का माध्यम बने, तो लोकतंत्र की नींव हिल जाएगी।”
🔹 अधिकार बनाम मर्यादा का संतुलन
यह निर्णय एक महत्वपूर्ण सिद्धांत स्थापित करता है —
कि “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” (Freedom of Speech) सशस्त्र बल के अधिकारियों के लिए भी पूर्ण नहीं है।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(2) इस स्वतंत्रता पर “राष्ट्र की सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता और नैतिकता” के आधार पर उचित प्रतिबंध लगाने की अनुमति देता है।
इसलिए, जब एक सैन्य अधिकारी सार्वजनिक रूप से बोलता है, तो उसे अपने संवैधानिक और पेशेवर दायित्वों के अनुरूप संयम और निष्पक्षता बनाए रखनी चाहिए।
🔹 समाज और सेना के लिए संदेश
यह फैसला केवल एक व्यक्ति के लिए नहीं, बल्कि पूरे सशस्त्र बलों और समाज के लिए एक स्पष्ट संदेश देता है —
धर्म या जाति के नाम पर विभाजन या भड़काऊ विचार सेना के अनुशासन और राष्ट्र की एकता के लिए घातक हैं।
सेना की पहचान “भारतीय” है — न हिंदू, न मुस्लिम, न सिख, न ईसाई।
यही भावना भारत को “एक” बनाए रखती है।
🔹 निष्कर्ष
पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय का यह निर्णय भारतीय लोकतंत्र की आत्मा को सशक्त करता है।
यह हमें याद दिलाता है कि “राष्ट्र सेवा का अर्थ केवल सीमाओं की रक्षा नहीं, बल्कि संविधान की गरिमा की रक्षा भी है।”
सशस्त्र बलों के अधिकारियों को यह नहीं भूलना चाहिए कि वे केवल आदेशपालक सैनिक नहीं, बल्कि संविधान के प्रहरी हैं।
उनकी भाषा, उनके कर्म और उनके विचार उसी मर्यादा के दायरे में होने चाहिए, जो संविधान ने निर्धारित की है।
🔹 सारांश
- सशस्त्र बल अधिकारी द्वारा धार्मिक रूप से भड़काऊ भाषण अनुशासनहीनता है।
- यह संविधान के धर्मनिरपेक्षता सिद्धांत का उल्लंघन है।
- अदालत ने ऐसे आचरण को संविधान और राष्ट्र दोनों के प्रति विश्वासघात बताया।
- सेना का असली बल उसकी निष्पक्षता और एकता में निहित है।
- यह फैसला “राष्ट्रीय सेवा में धर्मनिरपेक्ष आचरण” का मापदंड तय करता है।