बाल विवाह और संरक्षण कानून: भारतीय समाज में चुनौतियाँ, कानूनी ढाँचा और न्यायिक दृष्टिकोण
प्रस्तावना
बाल विवाह (Child Marriage) भारतीय समाज की एक पुरानी और गहरी जड़ें जमाए हुई सामाजिक कुरीति है। यह प्रथा न केवल बच्चों के अधिकारों का हनन करती है, बल्कि उनके शारीरिक, मानसिक और सामाजिक विकास में गंभीर बाधा उत्पन्न करती है। भारत जैसे विकासशील देश में जहाँ शिक्षा, स्वास्थ्य और लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के प्रयास निरंतर जारी हैं, वहीं बाल विवाह की घटनाएँ आज भी ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में व्यापक रूप से पाई जाती हैं। बाल विवाह न केवल महिलाओं के सशक्तिकरण में रुकावट बनती है, बल्कि यह घरेलू हिंसा, मातृ मृत्यु दर, और बाल शोषण जैसे गंभीर अपराधों से भी जुड़ी हुई है। इसलिए, इस प्रथा को रोकने हेतु भारत में अनेक संरक्षण कानून (Protection Laws) बनाए गए हैं, जिनका उद्देश्य बालिकाओं और बालकों को इस सामाजिक अन्याय से बचाना है।
बाल विवाह की परिभाषा और स्वरूप
बाल विवाह का अर्थ है किसी ऐसे विवाह से जिसमें लड़का या लड़की कानून द्वारा निर्धारित वैधानिक आयु से पहले विवाह कर लेते हैं।
भारत में लड़की की विवाह योग्य आयु 18 वर्ष और लड़के की आयु 21 वर्ष निर्धारित की गई है। यदि इससे कम उम्र में विवाह किया जाता है, तो उसे बाल विवाह कहा जाता है। यह विवाह न केवल अवैध है, बल्कि समाज और राष्ट्र की नैतिकता के विरुद्ध भी है।
बाल विवाह सामान्यतः सामाजिक परंपराओं, आर्थिक निर्धनता, अशिक्षा, दहेज प्रथा और पारिवारिक दबावों के कारण होता है। कई बार परिवार “सम्मान” या “सुरक्षा” के नाम पर नाबालिग बेटियों की शादी जल्दी कर देते हैं, जिससे उनका पूरा जीवन प्रभावित होता है।
बाल विवाह के दुष्परिणाम
बाल विवाह के परिणाम अत्यंत गंभीर और बहुआयामी होते हैं —
- शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव: कम उम्र में गर्भधारण से मातृ मृत्यु दर और शिशु मृत्यु दर बढ़ जाती है।
- शिक्षा में बाधा: बाल विवाह के बाद अधिकतर बालिकाएँ शिक्षा अधूरी छोड़ देती हैं, जिससे उनका सामाजिक और आर्थिक सशक्तिकरण रुक जाता है।
- घरेलू हिंसा और शोषण: कम उम्र की पत्नियाँ अक्सर पति और ससुराल द्वारा मानसिक व शारीरिक हिंसा का शिकार होती हैं।
- गरीबी का चक्र: अशिक्षा और बेरोजगारी के कारण परिवार आर्थिक रूप से कमजोर बने रहते हैं।
- मानव अधिकारों का उल्लंघन: बाल विवाह बच्चों के जीवन, स्वतंत्रता, शिक्षा और समानता के अधिकारों का हनन करता है, जो संविधान द्वारा संरक्षित हैं।
संवैधानिक परिप्रेक्ष्य
भारतीय संविधान बाल विवाह के खिलाफ अनेक प्रावधानों के माध्यम से बच्चों के अधिकारों की रक्षा करता है —
- अनुच्छेद 14: समानता का अधिकार।
- अनुच्छेद 15(3): राज्य को महिलाओं और बच्चों के विशेष संरक्षण के लिए कानून बनाने का अधिकार देता है।
- अनुच्छेद 21: जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार — जिसमें गरिमामय जीवन का अधिकार शामिल है।
- अनुच्छेद 39 (f): राज्य का कर्तव्य है कि बच्चों को स्वस्थ और गरिमापूर्ण जीवन के अवसर मिले।
- अनुच्छेद 45: 14 वर्ष तक के बच्चों को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करना।
इन प्रावधानों का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि बालक और बालिकाएँ किसी भी सामाजिक शोषण या अन्याय का शिकार न हों।
बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 (Prohibition of Child Marriage Act, 2006)
भारत में बाल विवाह को रोकने हेतु सबसे महत्वपूर्ण कानून “बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006” है, जो 1929 के बाल विवाह निरोधक अधिनियम का संशोधित रूप है। इस अधिनियम ने पहले के कानून की कमियों को दूर किया और इसे अधिक प्रभावी बनाया।
मुख्य प्रावधान:
- विवाह की आयु:
- पुरुष – 21 वर्ष
- महिला – 18 वर्ष
- अवैध विवाह:
यदि विवाह के समय किसी एक पक्ष की आयु निर्धारित सीमा से कम है, तो वह विवाह निरस्त करने योग्य (Voidable) है। - दंड प्रावधान:
- बाल विवाह कराने वाले अभिभावक, पुरोहित या बिचौलिया को दो वर्ष तक की कैद या ₹1 लाख तक का जुर्माना, या दोनों हो सकते हैं।
- बालक या बालिका स्वयं विवाह रद्द कराने के लिए अदालत में याचिका दाखिल कर सकते हैं।
- बाल विवाह निषेध अधिकारी (Child Marriage Prohibition Officer):
राज्य सरकारें ऐसे अधिकारियों की नियुक्ति करती हैं जो बाल विवाह को रोकने, लोगों को जागरूक करने और कानूनी कार्रवाई करने के लिए जिम्मेदार होते हैं।
POCSO अधिनियम, 2012 और बाल विवाह
“Protection of Children from Sexual Offences (POCSO) Act, 2012” के अनुसार 18 वर्ष से कम उम्र के व्यक्ति के साथ यौन संबंध, चाहे सहमति से हो या नहीं, अवैध माना जाता है। इसलिए, यदि बाल विवाह में यौन संबंध बनाए जाते हैं, तो वह POCSO अधिनियम के अंतर्गत बलात्कार (Rape) की श्रेणी में आता है।
इस अधिनियम ने बाल विवाह के शिकार बच्चों, विशेषकर लड़कियों, को कानूनी संरक्षण और न्यायिक सहायता प्रदान करने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
बाल विवाह और मुस्लिम व्यक्तिगत कानून
भारत में मुस्लिम व्यक्तिगत कानून (Muslim Personal Law) के अनुसार, विवाह की वैधता “बुलूग (Puberty)” पर आधारित होती है, जो सामान्यतः 15 वर्ष मानी जाती है। परंतु जब कोई धार्मिक या व्यक्तिगत कानून संविधान और सार्वजनिक नीति के विरुद्ध हो, तो राज्य और न्यायपालिका का कर्तव्य है कि वे बच्चों के अधिकारों की रक्षा करें।
मीनाक्षी बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा (2013) जैसे मामलों में न्यायालय ने स्पष्ट किया कि बाल विवाह, चाहे किसी धर्म में अनुमोदित हो, फिर भी वह कानूनन अवैध है यदि लड़की की आयु 18 वर्ष से कम है।
महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय
- Independent Thought v. Union of India (2017):
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि 15 से 18 वर्ष की विवाहित बालिका के साथ यौन संबंध को भी बलात्कार माना जाएगा। यह निर्णय बाल विवाह के विरुद्ध ऐतिहासिक रहा। - Seema v. Ashwani Kumar (2006):
सुप्रीम कोर्ट ने प्रत्येक विवाह का पंजीकरण (Registration) अनिवार्य किया ताकि बाल विवाह जैसे मामलों की रोकथाम की जा सके। - Lajja Devi v. State (2012):
दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि बाल विवाह यद्यपि voidable है, फिर भी यह कानून के खिलाफ है, और यदि कोई बालिका ऐसी शादी से बाहर आना चाहे, तो उसे संरक्षण दिया जाना चाहिए।
राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पहल
भारत ने कई अंतर्राष्ट्रीय संधियों पर हस्ताक्षर किए हैं जो बाल विवाह के उन्मूलन की दिशा में कार्य करती हैं —
- Convention on the Rights of the Child (CRC) – 1989
- Convention on the Elimination of All Forms of Discrimination Against Women (CEDAW)
- Sustainable Development Goal (SDG 5.3): 2030 तक बाल विवाह का पूर्ण उन्मूलन।
राष्ट्रीय स्तर पर ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’, ‘राष्ट्रीय किशोर नीति’, और ‘सक्षम बालिका योजना’ जैसी योजनाएँ बाल विवाह रोकने में सहायक सिद्ध हो रही हैं।
सामाजिक और प्रशासनिक उपाय
कानून के साथ-साथ समाज को भी जागरूक करना आवश्यक है। कुछ प्रमुख उपाय इस प्रकार हैं —
- शिक्षा और साक्षरता को बढ़ावा देना।
- गरीबी उन्मूलन और रोजगार के अवसर।
- बाल विवाह निषेध अधिकारियों की सक्रिय भूमिका।
- समुदाय और पंचायत स्तर पर निगरानी।
- मीडिया और सोशल कैंपेन के माध्यम से जागरूकता।
निष्कर्ष
बाल विवाह केवल कानूनी समस्या नहीं, बल्कि यह सामाजिक, आर्थिक और नैतिक चुनौती भी है। भारत में कानून ने बाल विवाह के विरुद्ध एक मजबूत ढाँचा तैयार किया है, परंतु वास्तविक परिवर्तन तभी संभव है जब समाज स्वयं इस कुरीति को अस्वीकार करे। शिक्षा, जागरूकता और महिलाओं के सशक्तिकरण के बिना इस प्रथा का उन्मूलन संभव नहीं।
बाल विवाह का अंत केवल कानूनों से नहीं, बल्कि मानसिकता में परिवर्तन और सामाजिक जागरूकता से ही संभव है। प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह अपने समाज में बच्चों को उनके अधिकारों से वंचित न होने दे — क्योंकि एक सुरक्षित और शिक्षित बालिका ही भविष्य की सशक्त नागरिक बन सकती है।