राजस्थान उच्च न्यायालय में भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत FIR की वैधता और निरस्तीकरण : एक गहन अध्ययन
प्रस्तावना
भारत जैसे लोकतांत्रिक राष्ट्र में कानून का शासन (Rule of Law) सर्वोच्च है। प्रत्येक नागरिक और विशेष रूप से प्रत्येक लोक सेवक को न्यायिक प्रक्रिया के दायरे में निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार प्राप्त है। जब किसी लोक सेवक पर भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 (संशोधित 2018) एवं भारतीय दंड संहिता की धाराओं के अंतर्गत प्राथमिकी (FIR) दर्ज होती है, तो इसका उसके जीवन, सेवा और प्रतिष्ठा पर गहरा प्रभाव पड़ता है। अतः यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि क्या ऐसी FIR में आरोप वास्तविक तथ्यों और साक्ष्यों पर आधारित हैं अथवा केवल दुर्भावना और पूर्वाग्रह का परिणाम हैं। न्यायालय के समक्ष धारा 482 सीआरपीसी (अब धारा 528 बी.एन.एस.एस. 2023) के अंतर्गत FIR निरस्तीकरण (Quashing of FIR) का अधिकार महत्वपूर्ण संवैधानिक सुरक्षा है।
FIR का वैधानिक स्वरूप
प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दंड प्रक्रिया संहिता (BNSS 2023 में धारा 173–176) के अंतर्गत अपराध की प्रारंभिक सूचना का दस्तावेज है। यह वह आधार है जिस पर संपूर्ण आपराधिक जांच प्रक्रिया खड़ी होती है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक बार यह स्पष्ट किया है कि केवल संदेह या अस्पष्ट आरोपों के आधार पर FIR पंजीकृत नहीं की जा सकती, जब तक कि उसमें प्रथम दृष्टया अपराध का तत्व स्पष्ट रूप से मौजूद न हो।
भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 (संशोधित 2018) का संदर्भ
धारा 7 भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की वह महत्वपूर्ण धारा है जिसके अंतर्गत किसी लोक सेवक द्वारा किसी व्यक्ति से अनुचित लाभ या रिश्वत की माँग करना या स्वीकार करना दंडनीय अपराध है।
- 2018 के संशोधन के बाद इस धारा को और कड़ा किया गया है तथा “अनुचित लाभ” (Undue Advantage) की परिभाषा विस्तृत की गई है।
- हालाँकि, न्यायालयों ने यह भी माना है कि रिश्वत माँगने या स्वीकार करने का स्पष्ट और प्रत्यक्ष प्रमाण होना आवश्यक है। केवल अनुमान या अप्रत्यक्ष आरोप के आधार पर लोक सेवक को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
धारा 120-बी, भारतीय दंड संहिता का पहलू
धारा 120-बी के अंतर्गत आपराधिक षड्यंत्र (Criminal Conspiracy) का आरोप लगाया जाता है। लेकिन इसकी वैधता तभी है जब:
- दो या अधिक व्यक्तियों के बीच अवैध कार्य करने की स्पष्ट सहमति हो।
- ऐसा कार्य आपराधिक उद्देश्य के लिए हो।
यदि FIR में ऐसे तथ्यों का उल्लेख नहीं है जो षड्यंत्र को सिद्ध करें, तो केवल 120-बी का आरोप लगाना न्यायसंगत नहीं होगा।
FIR निरस्तीकरण (Quashing) के लिए न्यायालय का दृष्टिकोण
सुप्रीम कोर्ट ने अनेक महत्वपूर्ण निर्णयों में यह सिद्धांत प्रतिपादित किया है कि न्यायालय केवल उन्हीं परिस्थितियों में FIR निरस्त कर सकता है जब:
- FIR में ऐसा कोई तत्व न हो जिससे अपराध बनता हो।
- FIR दुर्भावनापूर्ण या व्यक्तिगत वैमनस्य के कारण दर्ज की गई हो।
- आरोप असंभव प्रतीत होते हों और प्रथम दृष्टया अपराध सिद्ध नहीं करते हों।
- FIR का पंजीकरण न्याय की प्रक्रिया का दुरुपयोग हो।
प्रमुख निर्णय:
- State of Haryana v. Bhajan Lal (1992) – इसमें सुप्रीम कोर्ट ने FIR निरस्तीकरण के सात व्यापक आधार निर्धारित किए।
- P. Sirajuddin v. State of Madras (1970) – लोक सेवकों के विरुद्ध शिकायत दर्ज करने से पहले उचित जाँच आवश्यक बताई गई।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य: राजस्थान उच्च न्यायालय के समक्ष याचिका
प्रस्तुत मामले में अभियुक्त-पेटिशनर एक लोक सेवक (Inspector, Anti-Evasion, CGST, Jaipur) हैं, जिन पर भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 7 तथा भारतीय दंड संहिता की धारा 120-बी के अंतर्गत FIR दर्ज की गई।
- आरोप है कि उन्होंने किसी से अनुचित लाभ लेने का प्रयास किया।
- किन्तु FIR में रिश्वत माँगने या स्वीकार करने का स्पष्ट, प्रत्यक्ष एवं स्वतंत्र प्रमाण नहीं दर्शाया गया।
- साथ ही, FIR का आधार व्यक्तिगत द्वेष या विभागीय प्रतिद्वंद्विता प्रतीत होता है।
कानूनी विश्लेषण
- प्रथम दृष्टया अपराध का अभाव – FIR केवल सामान्य और अस्पष्ट आरोपों पर आधारित है।
- भ्रष्टाचार अधिनियम की धारा 7 का दुरुपयोग – कोई स्वतंत्र गवाह या ट्रैप कार्यवाही का उल्लेख नहीं है।
- षड्यंत्र का सिद्ध न होना – धारा 120-बी के लिए आवश्यक सहमति और साक्ष्य का अभाव है।
- व्यक्तिगत द्वेष का तत्व – याचिकाकर्ता का पूर्व सेवा रिकॉर्ड उत्तम रहा है, अतः यह FIR दुर्भावनापूर्ण प्रतीत होती है।
निष्कर्ष
किसी भी लोक सेवक पर भ्रष्टाचार का आरोप गंभीर है, परंतु न्यायालय का यह भी कर्तव्य है कि वह केवल वास्तविक और प्रमाणित आरोपों पर ही अभियोजन को आगे बढ़ने दे। यदि FIR तथ्यहीन, दुर्भावनापूर्ण या न्याय की प्रक्रिया के दुरुपयोग के लिए दर्ज की गई हो, तो उसे निरस्त करना न्यायसंगत है।
इस प्रकार, राजस्थान उच्च न्यायालय के समक्ष दायर याचिका में यह उचित आधार प्रस्तुत किया जा सकता है कि FIR को धारा 528 BNSS के अंतर्गत निरस्त किया जाए, क्योंकि:
- FIR में प्रथम दृष्टया कोई अपराध नहीं बनता,
- आरोप दुर्भावनापूर्ण हैं,
- तथा इसका आगे जारी रहना न्याय और अभियुक्त के मौलिक अधिकारों का हनन होगा।
1. FIR निरस्तीकरण का अधिकार किस प्रावधान में है?
BNSS 2023 की धारा 528 (पूर्व धारा 482 CrPC) के अंतर्गत उच्च न्यायालय को यह अधिकार प्राप्त है कि यदि कोई FIR न्याय की प्रक्रिया का दुरुपयोग प्रतीत होती है या उसमें प्रथम दृष्टया अपराध का तत्व नहीं है, तो वह FIR को निरस्त कर सकता है। इस शक्ति को न्यायालय की “अंतर्निहित शक्ति” कहा जाता है।
2. भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 7 का महत्व क्या है?
धारा 7 के तहत कोई लोक सेवक यदि अनुचित लाभ (Undue Advantage) माँगता या स्वीकार करता है तो यह अपराध माना जाता है। 2018 संशोधन के बाद इस धारा को और कठोर बनाया गया है ताकि रिश्वतखोरी पर अंकुश लगाया जा सके।
3. क्या मात्र संदेह के आधार पर FIR कायम रह सकती है?
नहीं, केवल संदेह या अस्पष्ट आरोप FIR का आधार नहीं बन सकते। सुप्रीम कोर्ट ने Bhajan Lal केस (1992) में कहा है कि FIR तभी मान्य होगी जब उसमें अपराध के आवश्यक तत्व स्पष्ट हों।
4. लोक सेवकों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के मामलों में क्या विशेष सावधानी अपेक्षित है?
हाँ, सुप्रीम कोर्ट ने P. Sirajuddin v. State of Madras (1970) में कहा कि लोक सेवकों के खिलाफ शिकायत दर्ज करने से पहले उचित प्रारंभिक जाँच अनिवार्य है, ताकि उनकी प्रतिष्ठा पर अनावश्यक आघात न हो।
5. धारा 120-बी IPC कब लागू होती है?
धारा 120-बी तब लागू होती है जब दो या अधिक व्यक्ति मिलकर आपराधिक षड्यंत्र करते हैं। केवल आरोप लगाने से षड्यंत्र सिद्ध नहीं होता, बल्कि ठोस साक्ष्य और आपसी सहमति का प्रमाण आवश्यक है।
6. FIR निरस्तीकरण के प्रमुख आधार क्या हैं?
- FIR में अपराध का प्रथम दृष्टया तत्व न होना।
- FIR दुर्भावना या व्यक्तिगत द्वेष से प्रेरित होना।
- FIR न्याय की प्रक्रिया का दुरुपयोग होना।
- आरोप असंभव या कल्पनाशील होना।
7. FIR निरस्तीकरण से अभियुक्त को क्या लाभ होता है?
FIR निरस्तीकरण से अभियुक्त को अनावश्यक मुकदमेबाजी और मानसिक तनाव से मुक्ति मिलती है। साथ ही, उसकी प्रतिष्ठा, कैरियर और मौलिक अधिकारों की रक्षा होती है।
8. क्या न्यायालय हर मामले में FIR निरस्त कर देता है?
नहीं, FIR निरस्तीकरण केवल असाधारण परिस्थितियों में होता है। यदि FIR में पर्याप्त सामग्री और साक्ष्य हों, तो न्यायालय मामले को ट्रायल तक जाने देता है।
9. भ्रष्टाचार अधिनियम की धारा 7 में दोषसिद्धि के लिए क्या आवश्यक है?
दोषसिद्धि के लिए रिश्वत माँगने या स्वीकार करने का प्रत्यक्ष प्रमाण, स्वतंत्र गवाह, ट्रैप कार्यवाही या रिकॉर्डिंग जैसे ठोस सबूत आवश्यक हैं। केवल शिकायत या कथन पर्याप्त नहीं होते।
10. राजस्थान उच्च न्यायालय का दृष्टिकोण ऐसे मामलों में क्या है?
राजस्थान उच्च न्यायालय बार-बार यह कह चुका है कि भ्रष्टाचार जैसे गंभीर अपराधों में गहन जाँच आवश्यक है। लेकिन यदि FIR केवल दुर्भावना या व्यक्तिगत द्वेष से प्रेरित हो, तो उसे धारा 528 BNSS के अंतर्गत निरस्त किया जा सकता है।