Vineeta Sharma v. Rakesh Sharma (2020): पुत्री को जन्म से कॉपार्सनर अधिकार
भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति सदियों से एक महत्वपूर्ण विषय रही है। विशेषकर संपत्ति के अधिकार को लेकर महिलाओं को लंबे समय तक पुरुषों के समान दर्जा प्राप्त नहीं था। हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 (Hindu Succession Act, 1956) के माध्यम से महिलाओं को संपत्ति के कुछ अधिकार तो प्रदान किए गए, किंतु संयुक्त हिन्दू परिवार की सहभाजक (coparcener) स्थिति केवल पुत्रों तक सीमित थी। इस पृष्ठभूमि में हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 आया, जिसने पुत्रियों को भी पुत्रों के समान जन्म से ही सहभाजक (coparcener) का दर्जा प्रदान किया।
हालांकि, इस प्रावधान की व्याख्या और इसके अनुप्रयोग को लेकर कई वर्षों तक विभिन्न उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में मतभेद बने रहे। इसी विवाद को निर्णायक रूप से स्पष्ट करने का कार्य सुप्रीम कोर्ट ने Vineeta Sharma v. Rakesh Sharma (2020) मामले में किया, जिसमें पुत्री को जन्म से ही कॉपार्सनर अधिकार प्राप्त होने की पुष्टि की गई। यह निर्णय महिलाओं के अधिकारों और लैंगिक समानता की दिशा में एक ऐतिहासिक मील का पत्थर है।
1. पृष्ठभूमि और विधिक परिप्रेक्ष्य
भारतीय समाज में संयुक्त हिन्दू परिवार (Joint Hindu Family) और उसका कॉपार्सनरी सिस्टम (Coparcenary System) एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पारंपरिक रूप से, केवल पुरुष सदस्य ही सहभाजक माने जाते थे और उन्हें पैतृक संपत्ति में जन्म से ही अधिकार प्राप्त होता था।
1956 के हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम ने पुत्रियों को पैतृक संपत्ति में सहभाजक का दर्जा नहीं दिया। इस असमानता को दूर करने के लिए 2005 के संशोधन में धारा 6 को संशोधित कर पुत्रियों को भी पुत्रों के समान अधिकार दिया गया। लेकिन संशोधन की व्याख्या को लेकर यह सवाल उठता रहा कि—
- क्या यह अधिकार केवल 2005 के बाद जन्म लेने वाली पुत्रियों को मिलेगा?
- या सभी पुत्रियों को, चाहे उनका जन्म और पिता की मृत्यु 2005 से पहले हुई हो, यह अधिकार प्राप्त होगा?
- क्या इस अधिकार के लिए पिता का 9 सितंबर 2005 के बाद जीवित होना आवश्यक है?
इन सवालों को लेकर विभिन्न न्यायिक निर्णयों में भिन्नता रही।
2. विवादित न्यायिक दृष्टिकोण
(i) Prakash v. Phulavati (2016)
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 2005 संशोधन का लाभ तभी मिलेगा जब पिता संशोधन की तारीख यानी 9 सितंबर 2005 को जीवित हो। यदि पिता की मृत्यु इससे पहले हो गई, तो पुत्री को सहभाजक का अधिकार नहीं मिलेगा।
(ii) Danamma v. Amar (2018)
सुप्रीम कोर्ट की एक अन्य पीठ ने विपरीत राय दी और कहा कि पुत्री को सहभाजक का अधिकार मिलेगा, भले ही पिता की मृत्यु 2005 से पहले हो चुकी हो।
इन विरोधाभासी निर्णयों ने विधिक स्थिति को अस्थिर बना दिया और व्यापक विवाद उत्पन्न हो गया।
3. सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय – Vineeta Sharma v. Rakesh Sharma (2020)
इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय की तीन-न्यायाधीशों की पीठ (अरुण मिश्रा, एस. अब्दुल नज़ीर और एम. आर. शाह, न्यायमूर्ति) ने 11 अगस्त 2020 को ऐतिहासिक फैसला सुनाया।
मुख्य प्रश्न:
क्या पुत्री को सहभाजक का अधिकार केवल तभी मिलेगा जब पिता 9 सितंबर 2005 को जीवित हो?
निर्णय:
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि—
- पुत्री को जन्म से ही कॉपार्सनर का अधिकार प्राप्त है।
यह अधिकार जन्मसिद्ध है और पिता के जीवित रहने पर निर्भर नहीं है। - संशोधन का लाभ सभी पुत्रियों को मिलेगा।
चाहे पुत्री का जन्म 2005 से पहले हुआ हो या बाद में, और चाहे पिता की मृत्यु 2005 से पहले हुई हो या बाद में, पुत्री सहभाजक मानी जाएगी। - लंबित मुकदमों पर भी संशोधन लागू होगा।
यदि किसी संपत्ति विवाद का मामला 2005 के बाद भी अदालत में लंबित है, तो पुत्री को अधिकार दिया जाएगा। - Prakash v. Phulavati (2016) का निर्णय गलत था।
इस निर्णय को खारिज करते हुए कहा गया कि पिता के जीवित रहने की शर्त विधिक रूप से असंगत है।
4. निर्णय के तर्क और आधार
- संवैधानिक दृष्टिकोण:
संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 15 (लैंगिक भेदभाव पर रोक) के अनुरूप पुत्री को भी पुत्र के समान अधिकार मिलना चाहिए। - संशोधन की प्रकृति:
2005 संशोधन केवल प्रक्रियात्मक परिवर्तन नहीं है, बल्कि यह सामाजिक न्याय और लैंगिक समानता की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम है। - जन्मसिद्ध अधिकार:
जैसे पुत्र को जन्म से ही सहभाजक का अधिकार मिलता है, वैसे ही पुत्री को भी यह अधिकार मिलेगा। पिता का जीवित रहना कोई शर्त नहीं है।
5. निर्णय का महत्व और प्रभाव
- लैंगिक समानता की स्थापना:
यह निर्णय महिलाओं को संपत्ति में समान अधिकार देकर पितृसत्तात्मक व्यवस्था को चुनौती देता है। - संपत्ति विवादों का समाधान:
लंबित मुकदमों में पुत्रियों को समान अधिकार मिलने से न्यायिक प्रक्रिया में स्पष्टता आई। - सामाजिक प्रभाव:
भारतीय समाज में महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता और पारिवारिक निर्णयों में भागीदारी को बढ़ावा मिला। - कानूनी एकरूपता:
विभिन्न न्यायालयों में मतभेद समाप्त हुए और एक स्पष्ट सिद्धांत स्थापित हुआ।
6. आलोचनात्मक मूल्यांकन
यद्यपि यह निर्णय महिलाओं के अधिकारों की दिशा में ऐतिहासिक है, फिर भी इसके क्रियान्वयन में व्यावहारिक समस्याएँ सामने आती हैं—
- पुराने संपत्ति विवादों में दस्तावेज़ों और सबूतों की कमी।
- पारिवारिक स्तर पर सामाजिक प्रतिरोध, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में।
- संपत्ति विभाजन की जटिलता, जब पहले से ही बंटवारा हो चुका हो।
फिर भी, यह निर्णय एक दूरगामी सामाजिक सुधार का आधार है।
7. निष्कर्ष
Vineeta Sharma v. Rakesh Sharma (2020) का निर्णय भारतीय न्यायिक इतिहास में एक मील का पत्थर है। इसने स्पष्ट कर दिया कि पुत्री भी जन्म से ही कॉपार्सनर है और उसे संपत्ति में वही अधिकार प्राप्त है जो पुत्र को है। यह केवल संपत्ति का अधिकार नहीं बल्कि लैंगिक समानता, सामाजिक न्याय और महिलाओं की गरिमा को स्थापित करने की दिशा में एक मजबूत कदम है।
इस निर्णय ने न केवल हिन्दू उत्तराधिकार कानून की अस्पष्टताओं को समाप्त किया, बल्कि महिलाओं को समाज में एक सशक्त स्थान प्रदान करने का मार्ग भी प्रशस्त किया। यह कहा जा सकता है कि यह फैसला भारतीय विधि और समाज दोनों में स्त्री-पुरुष समानता की स्थापना का स्वर्णिम अध्याय है।