“UAPA और राजद्रोह कानून की संवैधानिक वैधता पर बॉम्बे हाईकोर्ट की मुहर: एल्गार परिषद केस में ऐतिहासिक टिप्पणी”

शीर्षक:
“UAPA और राजद्रोह कानून की संवैधानिक वैधता पर बॉम्बे हाईकोर्ट की मुहर: एल्गार परिषद केस में ऐतिहासिक टिप्पणी”


प्रस्तावना:
भारतीय लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और राष्ट्रीय सुरक्षा के बीच संतुलन बनाए रखना एक जटिल चुनौती रही है। जहां एक ओर संविधान नागरिकों को बोलने, लिखने और संगठित होने की स्वतंत्रता देता है, वहीं दूसरी ओर देश की संप्रभुता, अखंडता और सुरक्षा को बनाए रखने के लिए कठोर कानूनों की भी आवश्यकता मानी जाती है। इसी संवैधानिक बहस के केंद्र में हाल ही में बॉम्बे हाईकोर्ट का एक महत्वपूर्ण फैसला सामने आया, जिसमें अदालत ने UAPA (गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम) और राजद्रोह कानून (IPC की धारा 124A) को संविधान सम्मत करार दिया।


प्रकरण की पृष्ठभूमि:
यह मामला एल्गार परिषद केस से संबंधित है, जिसमें कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं पर यह आरोप लगाया गया कि उन्होंने 2018 में भीमा-कोरेगांव हिंसा के दौरान देशविरोधी गतिविधियों में संलिप्तता दिखाई। इसके तहत उनके खिलाफ UAPA और 124A के अंतर्गत कार्रवाई की गई थी।
प्रकाश अंबेडकर, एक वरिष्ठ राजनेता और सामाजिक कार्यकर्ता, ने बॉम्बे हाईकोर्ट में एक याचिका दायर कर इन कानूनों को संविधान के मूल अधिकारों का उल्लंघन बताते हुए उनकी वैधता को चुनौती दी थी।


बॉम्बे हाईकोर्ट का निर्णय और टिप्पणी:
मुख्य न्यायाधीश डीके उपाध्याय और न्यायमूर्ति नरेंद्र जाधव की खंडपीठ ने इस याचिका को खारिज करते हुए स्पष्ट किया कि:

  1. UAPA राष्ट्रपति की मंजूरी प्राप्त कानून है:
    कोर्ट ने कहा कि यह कानून भारतीय संसद द्वारा विधिवत पारित किया गया है और इसमें राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त है। इसलिए इसे संवैधानिक वैधता से वंचित नहीं किया जा सकता।
  2. राजद्रोह कानून (124A) भी संविधान के खिलाफ नहीं:
    कोर्ट ने 124A की संवैधानिकता को बरकरार रखते हुए कहा कि जब तक इस धारा को संसद या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निरस्त नहीं किया जाता, यह कानून प्रभावी बना रहेगा।
  3. चुनौती निराधार और तथ्यहीन:
    याचिका में लाए गए तर्कों को कोर्ट ने “कानूनी दृष्टिकोण से अपर्याप्त और निराधार” बताया। अदालत ने कहा कि किसी कानून की वैधता को केवल उसके संभावित दुरुपयोग के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती।

UAPA और 124A – संवैधानिक बहस का केंद्र:
इन दोनों कानूनों को लेकर वर्षों से यह बहस रही है कि क्या ये नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, विरोध के अधिकार और जीवन के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं। आलोचक मानते हैं कि UAPA जैसे कानून कठोर, बेलगाम और अभियुक्तों को बिना मुकदमा चलाए लंबे समय तक कैद में रखने वाले प्रावधान रखते हैं, वहीं 124A का प्रयोग कई बार सरकारों द्वारा विरोध को दबाने के लिए किया गया है।

लेकिन बॉम्बे हाईकोर्ट का यह निर्णय यह दर्शाता है कि न्यायपालिका विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों को प्राथमिकता देती है, जब तक कि वे स्पष्ट रूप से संविधान के किसी अनुच्छेद का उल्लंघन न करें।


इस निर्णय के प्रभाव और निहितार्थ:

  1. UAPA की वैधानिकता को समर्थन:
    यह निर्णय उन तमाम मामलों में प्रेसिडेंट अप्रूव्ड सिक्योरिटी लॉज़ की वैधता को ताकत देता है, जो राज्य के खिलाफ युद्ध, आतंकी गतिविधियों, या विघटनकारी आंदोलनों से जुड़े होते हैं।
  2. समानांतर याचिकाओं की दिशा निर्धारित:
    यह फैसला भविष्य में उन याचिकाओं को प्रभावित करेगा, जो UAPA या 124A की वैधता को चुनौती देती हैं।
  3. संविधान और विधायिका के बीच संतुलन की पुनः पुष्टि:
    कोर्ट ने संकेत दिया कि न्यायपालिका संवैधानिक ढांचे का सम्मान करते हुए केवल उन्हीं कानूनों को असंवैधानिक ठहराती है जिनमें स्पष्ट उल्लंघन हो, न कि संभावनात्मक आधार पर।

विवाद और चिंता:
हालांकि यह फैसला विधिक दृष्टि से मजबूत है, लेकिन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और नागरिक समाज के एक वर्ग ने इस पर असंतोष जताया है। उनका कहना है कि इन कानूनों का प्रयोग राजनीतिक असहमति को दबाने के लिए किया जा सकता है, और यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करता है।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने भी 124A पर पुनर्विचार की प्रक्रिया को प्रारंभ किया है, जो दर्शाता है कि न्यायिक समीक्षा की प्रक्रिया निरंतर है।


निष्कर्ष:
बॉम्बे हाईकोर्ट का यह निर्णय कानून के शासन और विधायिका की संप्रभुता को बल देने वाला है। यह स्पष्ट करता है कि संवैधानिकता की परीक्षा तर्क, प्रक्रिया और विधिक सिद्धांतों के आधार पर ही की जा सकती है, न कि केवल दुरुपयोग की आशंका पर।
हालांकि लोकतंत्र में कानूनों की समीक्षा और आलोचना आवश्यक है, लेकिन उनकी वैधता को चुनौती देने के लिए सशक्त कानूनी आधार की आवश्यकता होती है। इस निर्णय ने एक बार फिर यह दिखाया कि संविधान की संरचना लचीली अवश्य है, परंतु न्यायिक विवेक से निर्देशित होती है।