Section 106 BNSS और बैंक अकाउंट फ्रीज़िंग की शक्ति: Allahabad High Court का महत्वपूर्ण निर्णय – Marufa Begum v. UOI & Ors. (2025)
जांच प्रक्रिया में बैंक खातों के फ्रीज़ होने की वैधता, दायरा और न्यायिक उपचार पर शब्दों का विश्लेषण
भारत में गिरफ्तारी, तलाशी, जब्ती और जांच से संबंधित कानूनी ढांचा 2023 में आए नए Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita (BNSS) के लागू होने के बाद काफी बदला है। नये प्रावधानों में पुलिस की शक्तियों को विधिक रूप से स्पष्ट करते हुए यह सुनिश्चित किया गया है कि जांच निष्पक्ष, प्रभावी और तकनीकी युग की जरूरतों के अनुरूप हो। इन्हीं विषयों पर 2025 में आया इलाहाबाद हाईकोर्ट का निर्णय—Marufa Begum v. Union of India & Others (Writ-C 37053/2025)—विशेष रूप से सेक्शन 106 BNSS के संदर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण हो गया है।
इस निर्णय में अदालत ने यह स्पष्ट किया कि पुलिस को जांच के दौरान संदिग्ध लेन-देन वाले बैंक खातों को फ्रीज़ करने की शक्ति प्राप्त है, और यह कदम पूरी तरह जांच की प्रगति एवं आवश्यकता के अनुसार न्यायसंगत है। साथ ही अदालत ने बताया कि प्रभावित व्यक्ति को कौन-कौन से उपचार उपलब्ध हैं तथा जांच समाप्त होने के बाद किस प्रकार अदालत फ्रीज़िंग को सीमित कर सकती है।
यह निर्णय इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि डिजिटल ट्रांजैक्शन, UPI पेमेंट, ऑनलाइन ठगी, साइबर अपराध और आर्थिक अपराध के बढ़ते मामलों में बैंक खाता फ्रीज़ करना अक्सर पुलिस की प्रथम कार्रवाई बन गया है। इस निर्णय ने पहली बार यह स्पष्ट रूप से निर्धारित किया कि इस कार्रवाई की संवैधानिकता और विधिक आधार क्या है।
भाग 1: मामले की पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ता Marufa Begum का बैंक खाता पुलिस द्वारा फ्रीज़ कर दिया गया था। पुलिस का आरोप था कि खाते में कुछ संदिग्ध लेन-देन हैं जो एक बड़े अपराध से जुड़े हो सकते हैं। मामले में जांच लंबित थी और पुलिस ने बैंक को आदेश जारी कर खाता फ्रीज़ कर दिया, जिसके चलते याचिकाकर्ता न तो पैसा निकाल सकती थीं, न खाते का उपयोग कर सकती थीं।
इस कार्रवाई को चुनौती देते हुए याचिकाकर्ता ने हाईकोर्ट में यह तर्क दिया:
- खाते को फ्रीज़ करने का कोई लिखित कारण उपलब्ध नहीं कराया गया;
- पुलिस ने बिना मजिस्ट्रेट की अनुमति खाते को सीज़ कर दिया;
- इससे उनकी आजीविका पर गंभीर प्रभाव पड़ा;
- BNSS में इस प्रकार की कार्रवाई के लिए दिशानिर्देश स्पष्ट नहीं हैं।
हाईकोर्ट ने इन तर्कों को सुनकर यह प्रश्न उठाया कि:
क्या पुलिस के पास जांच के दौरान बैंक खाते फ्रीज़ करने की शक्ति है?
और यदि है, तो
ऐसे मामलों में प्रभावित व्यक्तियों के पास कौन-से उपचार उपलब्ध हैं?
भाग 2: BNSS की धारा 106 – “जप्ती और संरक्षण” का दायरा
BNSS की धारा 106 पुलिस को व्यापक अधिकार देती है कि—
- किसी अपराध की जांच के दौरान
- यदि कोई संपत्ति, दस्तावेज़ या डिजिटल डेटा अपराध से जुड़ा प्रतीत हो
- तो पुलिस उस संपत्ति को जप्त करने, सील करने या उपयोग को रोकने की कार्रवाई कर सकती है।
इस धारा की भाषा विस्तृत है और इसमें “property” शब्द का अर्थ व्यापक है, जिसमें—
- नकद
- आर्थिक संपत्ति
- बैंक खाते
- डिजिटल वालेट
- क्रिप्टो अकाउंट
- इलेक्ट्रॉनिक स्टोरेज
- निवेश आदि
शामिल हो सकते हैं।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि आधुनिक डिजिटल अर्थव्यवस्था को ध्यान में रखते हुए बैंक खातों को फ्रीज़ करना धारा 106 BNSS के अंदर पूर्णत: वैध कार्रवाई है, क्योंकि खाते को चलने देने से:
- अपराध की आय गायब हो सकती है
- साक्ष्य नष्ट हो सकता है
- लेन-देन का ट्रेल मिट सकता है
- जांच प्रभावित हो सकती है
इसलिए, अदालत ने माना कि पुलिस के पास यह शक्ति कानून द्वारा प्रदान की गई है।
भाग 3: न्यायालय का अवलोकन—“फ्रीज़िंग is investigation dependent”
अदालत ने कहा कि बैंक खाता फ्रीज़ होना जांच के परिणाम पर निर्भर करता है। मतलब:
1. जांच लंबित है → फ्रीज़िंग जारी रह सकती है
पुलिस जब तक जांच कर रही है और आवश्यक कारण मौजूद हैं, खाता खुलवाने का अधिकार स्वतः नहीं मिलता।
2. जांच पूरी हो जाए → मजिस्ट्रेट के समक्ष उपचार उपलब्ध
जब पुलिस अपनी रिपोर्ट (चार्जशीट) दाखिल कर देती है, तो प्रभावित व्यक्ति:
- मजिस्ट्रेट से आग्रह कर सकता है
- कि खाते को केवल उन रकम तक सीमित किया जाए
- जो कथित अपराध में शामिल है
अर्थात खाता पूरी तरह अनिश्चितकाल तक फ्रीज़ नहीं रह सकता।
3. फ्रीज़िंग ‘indefinite’ नहीं हो सकती
फ्रीज़िंग का दायरा अपराध की प्रकृति और साक्ष्य की जरूरत तक सीमित होना चाहिए।
4. पुलिस को फ्रीज़िंग का कारण रिकॉर्ड करना आवश्यक
हालाँकि पुलिस को मजिस्ट्रेट की पूर्व अनुमति की आवश्यकता नहीं है,
लेकिन उसे निम्न करना आवश्यक है:
- फ्रीज़िंग का कारण लिखना
- जांच डायरी में उल्लेख करना
- बैंक को विधिवत सूचना देना
भाग 4: अदालत का महत्वपूर्ण सिद्धांत – “Freezing is not punishment”
हाईकोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि:
- बैंक खाते को फ्रीज़ करना कोई दंड नहीं है
- यह केवल एक जांच प्रक्रिया है
- जिसका उद्देश्य संभावित साक्ष्य को सुरक्षित करना है
इसलिए जिस व्यक्ति का खाता फ्रीज़ हुआ है, वह स्वयं को अपराधी मानकर न बैठे—
यह केवल जांच की विधिक आवश्यकता है।
भाग 5: प्रभावित व्यक्ति के लिए उपलब्ध उपाय (Remedies)
अदालत ने स्पष्ट किया कि बैंक खाता फ्रीज़ होने के बाद प्रभावित व्यक्ति निम्न तरीकों से राहत मांग सकता है।
उपचार 1: जांच अधिकारी से ही फ्रीज़ हटाने का अनुरोध
यदि व्यक्ति कोई स्पष्टीकरण, दस्तावेज़ या गवाह प्रस्तुत कर दे जिससे संदेह दूर हो जाए,
तो पुलिस स्वयं खाता डी-फ्रीज़ कर सकती है।
उपचार 2: जांच पूर्ण होने के बाद मजिस्ट्रेट से अपील
जब पुलिस 173 BNSS (चार्जशीट) दाखिल कर दे, तब प्रभावित व्यक्ति मजिस्ट्रेट से अपील कर सकता है कि:
- पूरी राशि नहीं,
- केवल कथित अपराध से जुड़ी राशि तक
फ्रीज़िंग सीमित की जाए।
उपचार 3: संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत हाईकोर्ट में याचिका
यदि:
- पुलिस निष्क्रिय हो,
- कारण न बताए,
- मनमाना व्यवहार करे,
तो व्यक्ति हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटा सकता है।
लेकिन अदालत ने कहा कि यह अंतिम उपाय है।
भाग 6: निर्णय की प्रमुख बातें – एक नजर में
- पुलिस को जांच के दौरान बैंक खाता फ्रीज़ करने का अधिकार है।
- यह शक्ति BNSS की धारा 106 से प्राप्त होती है।
- फ्रीज़िंग जांच-आधारित है और जांच समाप्त होने पर पुनरीक्षण किया जा सकता है।
- फ्रीज़िंग अनिश्चितकाल के लिए नहीं हो सकती।
- प्रभावित व्यक्ति चार्जशीट के बाद मजिस्ट्रेट से राहत मांग सकता है।
- अदालत ने याचिका अभी पूर्व-परिपक्व मानते हुए हस्तक्षेप करने से इनकार किया।
भाग 7: डिजिटल अपराध और यह फैसला क्यों महत्वपूर्ण है
भारत में प्रतिदिन—
- UPI फ्रॉड
- साइबर ठगी
- ऑनलाइन लॉटरी स्कैम
- क्रिप्टो अपराध
- ऑनलाइन सेक्सटॉर्शन
- बैंकिंग धोखाधड़ी
के हजारों मामले दर्ज हो रहे हैं। इन मामलों में अपराधी जल्दी से जल्दी राशि निकालकर या ट्रांसफर करके ट्रैक मिटाने की कोशिश करते हैं। ऐसे में बैंक खाता फ्रीज़ करना:
- अपराध की आय को रोकता है
- पीड़ित के पैसे को सुरक्षित रखता है
- पुलिस को लेन-देन ट्रेल का विश्लेषण करने देता है
- सह-अपराधियों की पहचान आसान बनाता है
इसलिए BNSS की धारा 106 आधुनिक अपराधों को रोकने का महत्वपूर्ण उपकरण है।
भाग 8: मौलिक अधिकारों के संदर्भ में संतुलन
याचिकाकर्ता ने यह तर्क दिया कि:
- खाता फ्रीज़ होने से जीवन और आजीविका (Article 21) प्रभावित होती है
- बैंकिंग सेवा का उपयोग न कर पाना मौलिक स्वतंत्रता का हनन है
अदालत ने इन तर्कों को स्वीकार किया कि यह मुद्दा नागरिक अधिकारों को प्रभावित करता है,
लेकिन यह भी स्पष्ट किया कि:
- अपराध की जांच अधिक महत्वपूर्ण सार्वजनिक हित है
- अधिकारों और जांच के बीच संतुलन आवश्यक है
- फ्रीज़िंग अस्थायी और उद्देश्य-विशेष है, इसलिए असंवैधानिक नहीं
भाग 9: क्या मजिस्ट्रेट की पूर्व अनुमति आवश्यक है?
अदालत ने कहा: “नहीं।”
BNSS पुलिस को—
- फौरी कार्रवाई
- तत्काल रोकथाम
- साक्ष्य संरक्षण
के लिए त्वरित निर्णय लेने की अनुमति देता है।
यदि पुलिस को हर बार मजिस्ट्रेट की अनुमति लेनी पड़े, तो:
- जांच धीमी हो जाएगी
- रकम तुरंत स्थानांतरित हो जाएगी
- साक्ष्य नष्ट हो सकता है
इसलिए पूर्व अनुमति की आवश्यकता नहीं है,
लेकिन दस्तावेजी कारण आवश्यक हैं।
भाग 10: निर्णय का व्यापक प्रभाव
यह निर्णय अब:
- पुलिस
- बैंकिंग संस्थानों
- साइबर सेल
- आर्थिक अपराध शाखा
- जांच एजेंसियों
के लिए एक मानक बन गया है।
अब हर मामले में बैंक खाता फ्रीज़ होने पर एजेंसियां इस फैसले का सहारा ले सकती हैं।
साथ ही प्रभावित व्यक्ति भी जानता है कि:
- उसे कब क्या करना है
- किस मंच पर जाना है
- और राहत कब प्राप्त हो सकती है
निष्कर्ष: BNSS युग में जांच और नागरिक अधिकारों का संतुलित ढांचा
Marufa Begum v. UOI (2025) ने यह स्थापित कर दिया कि:
- पुलिस की जांच शक्तियाँ डिजिटल अपराधों से निपटने के लिए विस्तृत होनी चाहिए
- लेकिन नागरिक अधिकारों का हनन भी नहीं होना चाहिए
- फ्रीज़िंग एक जांचात्मक प्रक्रिया है, दंड नहीं
- और न्यायिक समीक्षा की संभावना हमेशा खुली है
यह निर्णय BNSS के भविष्य के अनुप्रयोग के लिए एक निर्णायक मार्गदर्शक के रूप में उभरा है।