“SC/ST (अत्याचार निवारण) अधिनियम के अपराध समझौता योग्य नहीं: हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय”

शीर्षक:
“SC/ST (अत्याचार निवारण) अधिनियम के अपराध समझौता योग्य नहीं: हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय”

प्रकरण: हिमाचल प्रदेश राज्य बनाम राज कुमार | Cr. Revision No.181 / 2024 | निर्णय दिनांक: 16 मई 2025


परिचय:

अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 का उद्देश्य समाज के कमजोर वर्गों—विशेष रूप से अनुसूचित जातियों और जनजातियों—को संरक्षण प्रदान करना है। यह अधिनियम सुनिश्चित करता है कि इन वर्गों के खिलाफ होने वाले अत्याचारों को कठोरता से दंडित किया जाए और उन्हें शीघ्र न्याय मिले।

हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने हिमाचल प्रदेश राज्य बनाम राज कुमार (Cr. Rev. No. 181/2024) में एक महत्वपूर्ण निर्णय में स्पष्ट किया कि इस अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत आने वाले अपराध “समझौता योग्य (compoundable)” नहीं हैं, और पीड़ित और आरोपी के बीच समझौते के आधार पर दोषमुक्ति स्वीकार्य नहीं है।


मामले की पृष्ठभूमि:

  • आरोपी राज कुमार पर आरोप था कि उसने अनुसूचित जाति समुदाय से संबंधित एक व्यक्ति के साथ जातिसूचक गाली-गलौच और धमकी दी थी, जो SC/ST Act की धारा 3(1)(r) और 3(1)(s) के अंतर्गत अपराध की श्रेणी में आता है।
  • निचली अदालत में मामला विचाराधीन था, लेकिन पीड़ित और आरोपी के बीच एक समझौता प्रस्तुत किया गया।
  • ट्रायल कोर्ट ने समझौते को स्वीकार कर आरोपी को दोषमुक्त कर दिया।
  • राज्य सरकार ने इसके विरुद्ध क्रिमिनल रिवीजन याचिका दाखिल की।

मुख्य मुद्दा:

क्या अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 के तहत दर्ज अपराधों में पक्षों के बीच समझौते के आधार पर आरोपी को दोषमुक्त किया जा सकता है?


हाईकोर्ट का निर्णय एवं विश्लेषण:

1. अपराध समझौता योग्य नहीं हैं:
हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि SC/ST Act, 1989 की धारा 3 के तहत अपराध गैर-समझौता योग्य (non-compoundable) हैं। इसका अर्थ है कि ऐसे अपराधों में पक्षकारों के आपसी समझौते का कोई कानूनी प्रभाव नहीं होता

2. सामाजिक उद्देश्य की रक्षा:
कोर्ट ने कहा कि यह अधिनियम विशिष्ट रूप से अनुसूचित जातियों/जनजातियों के खिलाफ सामाजिक भेदभाव और अत्याचार को समाप्त करने हेतु बनाया गया है। ऐसे मामलों में समझौते को मान्यता देना कानून के उद्देश्य को विफल कर देगा

3. पीड़ित की सहमति पर निर्भर नहीं:
कोर्ट ने यह भी कहा कि पीड़ित यदि स्वयं भी समझौते के लिए इच्छुक हो, तब भी यह पर्याप्त नहीं है क्योंकि अपराध सार्वजनिक हित (public interest) से जुड़ा है और समाज के कमजोर वर्गों की सुरक्षा के लिए कठोर रुख आवश्यक है।

4. ट्रायल कोर्ट की गलती:
हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के निर्णय को कानून के विरुद्ध और न्याय के सिद्धांतों के प्रतिकूल बताया और दोषमुक्ति आदेश को निरस्त कर दिया। मामला पुनः उचित न्यायिक प्रक्रिया के लिए निचली अदालत को वापस भेजा गया।


प्रभाव और महत्व:

  • यह निर्णय अनुसूचित जातियों/जनजातियों को न्यायिक संरक्षण प्रदान करता है और यह सुनिश्चित करता है कि सामाजिक अत्याचार को किसी भी स्थिति में नजरअंदाज न किया जाए।
  • यह संदेश देता है कि ऐसे अपराधों में समझौते से आरोपी को मुक्ति नहीं दी जा सकती, जिससे कानून का डर बना रहे।
  • यह निर्णय अन्य राज्यों के लिए भी मार्गदर्शक बन सकता है।

निष्कर्ष:

हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय का यह फैसला अनुसूचित जाति और जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 की मूल भावना और उद्देश्य की रक्षा करता है। कोर्ट का यह स्पष्ट रुख न्यायपालिका की संवेदनशीलता को दर्शाता है कि सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों के साथ अन्याय को केवल समझौते की आड़ में दबाया नहीं जा सकता। यह निर्णय आने वाले समय में ऐसे मामलों में दृष्टांत (precedent) की भूमिका निभाएगा।