S. 156(3) CrPC: एक बार शिकायत में संज्ञेय अपराध का खुलासा हो जाए तो मजिस्ट्रेट पुलिस को FIR दर्ज करने का निर्देश दे सकते हैं — सुप्रीम कोर्ट
भूमिका
भारत में आपराधिक न्याय प्रणाली का मूल उद्देश्य अपराध की रोकथाम, दोषियों को सजा और पीड़ितों को न्याय दिलाना है। इस तंत्र में पुलिस और न्यायालय दोनों की भूमिकाएं स्पष्ट एवं महत्वपूर्ण हैं। भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Criminal Procedure Code – CrPC) न्यायिक प्रक्रिया को संचालित करने वाला प्रमुख कानून है। इसके तहत धारा 156(3) एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रावधान है, जिसके अनुसार यदि किसी व्यक्ति की शिकायत में संज्ञेय (Cognizable) अपराध का प्रथम दृष्टया खुलासा होता है और पुलिस FIR दर्ज करने से इंकार कर देती है, तो मजिस्ट्रेट पुलिस को FIR दर्ज करने और जांच करने का निर्देश दे सकते हैं।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने पुनः स्पष्ट किया है कि यदि शिकायत में संज्ञेय अपराध का खुलासा होता है, तो मजिस्ट्रेट धारा 156(3) CrPC के तहत पुलिस को FIR दर्ज करने का आदेश देने के लिए पूर्णत: सक्षम हैं। इस निर्णय का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि अनेक मामलों में पुलिस FIR दर्ज करने में अनावश्यक देरी या असहमति व्यक्त करती है, जिससे पीड़ित न्याय से वंचित रह जाते हैं।
धारा 156(3) CrPC का विधिक ढांचा
धारा 156(3) का पाठ इस प्रकार है:
“कोई भी मजिस्ट्रेट, जिसे धारा 190 के अंतर्गत संज्ञान लेने की शक्ति है, उपधारा (1) में वर्णित परिस्थितियों में किसी मामले की जाँच का आदेश दे सकता है।”
इसका अर्थ यह हुआ कि:
- यदि पुलिस अधिकारी संज्ञेय अपराध के मामले में FIR दर्ज करने से इंकार कर देता है,
- या जांच में टाल-मटोल की स्थिति उत्पन्न होती है,
- तो पीड़ित व्यक्ति मजिस्ट्रेट के समक्ष आवेदन प्रस्तुत कर सकता है।
मजिस्ट्रेट तभी आदेश देता है जब वह शिकायत को पढ़कर संतुष्ट होता है कि:
- संज्ञेय अपराध घटित हुआ है, और
- पुलिस द्वारा उचित कार्रवाई नहीं की गई है।
सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण
सुप्रीम कोर्ट ने दो महत्वपूर्ण सिद्धांत दोहराए:
1. संज्ञेय अपराध का खुलासा होते ही FIR अनिवार्य
यदि शिकायत में गंभीर अपराध, जैसे:
- धोखाधड़ी,
- मारपीट,
- आपराधिक विश्वासघात,
- स्त्री उत्पीड़न,
- भ्रष्टाचार,
- हत्या या दुष्कर्म का आरोप हो,
तो मजिस्ट्रेट को FIR दर्ज करने और पुलिस जांच कराने का आदेश देना चाहिए। मजिस्ट्रेट के पास अपने स्तर पर जांच शुरू करने का विकल्प भी है लेकिन CrPC की योजना के अनुसार जांच का प्राथमिक दायित्व पुलिस पर ही है।
2. मजिस्ट्रेट को विवेक का पालन करना आवश्यक
हालांकि इस शक्ति का उपयोग साधारण और यांत्रिक ढंग से नहीं किया जाना चाहिए। मजिस्ट्रेट को आवेदन, साक्ष्य और परिस्थितियों का अवलोकन कर यह तय करना होता है कि वास्तव में संज्ञेय अपराध का खुलासा होता है या नहीं।
यह निर्णय क्यों महत्वपूर्ण है?
यह निर्णय न्यायिक प्रक्रिया के तीन महत्वपूर्ण पहलुओं को मजबूती प्रदान करता है—
✅ न्याय तक पहुंच सरल करना
जब पीड़ित पुलिस द्वारा उपेक्षित महसूस करता है, तो न्यायालय उसकी पहली आशा होता है। यह व्यवस्था सुनिश्चित करती है कि कोई भी पीड़ित न्याय पाने से वंचित न हो।
✅ पुलिस पर नियंत्रण और जवाबदेही
कई बार पुलिस FIR दर्ज करने से मना कर देती है, खासकर प्रभावशाली व्यक्तियों या संस्थाओं के खिलाफ शिकायत होने पर। धारा 156(3) ऐसी स्थितियों में पुलिस के दायित्व को पुनर्स्थापित करती है।
✅ न्यायिक समीक्षा और प्रक्रिया का संतुलन
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि मजिस्ट्रेट को आवेदन पर विचार करते समय सतर्क रहना चाहिए, ताकि झूठे और दुर्भावनापूर्ण मामलों से न्याय प्रणाली बोझिल न हो।
धारा 156(3) और धारा 200 CrPC में अंतर
यहां यह समझना आवश्यक है कि धारा 156(3) और धारा 200 CrPC का उद्देश्य अलग-अलग है।
| बिंदु | धारा 156(3) CrPC | धारा 200 CrPC |
|---|---|---|
| उद्देश्य | पुलिस को FIR दर्ज कर जांच करवाना | मजिस्ट्रेट स्वयं शिकायत की जांच करता है |
| लागू होने का समय | FIR न दर्ज होने पर | निजी शिकायत में |
| जांच का दायित्व | पुलिस | मजिस्ट्रेट |
| कब उपयोग? | जब संज्ञेय अपराध हो | जब मजिस्ट्रेट निजी शिकायत मे विवेचना करना चाहें |
इसलिए मजिस्ट्रेट को यह तय करना होता है कि मामला पुलिस जांच का है या निजी शिकायत सुनवाई का।
महत्वपूर्ण न्यायिक उद्धरण और प्रेसीडेंट्स
सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न फैसलों में यह सिद्धांत स्थापित है कि धारा 156(3) CrPC एक महत्वपूर्ण शक्ति है:
| केस | सिद्धांत |
|---|---|
| Lalita Kumari v. State of UP (2013) | संज्ञेय अपराध में FIR अनिवार्य |
| Priyanka Srivastava v. State of UP (2015) | 156(3) आवेदन में हलफ़नामा अनिवार्य, ताकि दुरुपयोग न हो |
| Sakiri Vasu v. State of UP (2008) | पुलिस कार्रवाई न करे तो मजिस्ट्रेट 156(3) का इस्तेमाल कर सकता है |
| Ramdev Food Products v. State of Gujarat (2015) | 156(3) के आदेश उचित विवेक और संतुष्टि पर आधारित हो |
शिकायतकर्ता के लिए दिशानिर्देश
यदि पुलिस FIR दर्ज नहीं करती है, तो शिकायतकर्ता को निम्न कदम उठाने चाहिए:
- पहले थाना में शिकायत दें
- SP/SSP को लिखित शिकायत भेजें (CrPC 154(3))
- इसके बाद मजिस्ट्रेट के समक्ष धारा 156(3) CrPC के तहत आवेदन दें
- आवेदन के साथ हलफनामा संलग्न करें
- FIR के समर्थन में दस्तावेज़/प्रत्ययपत्र दें
मजिस्ट्रेट के लिए दिशानिर्देश
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि मजिस्ट्रेट को:
- शिकायत पढ़कर प्रथम दृष्टया अपराध बनता हो तो आदेश दें
- आदेश में तर्क लिखें
- केवल गंभीर और वास्तविक मामलों में FIR निर्देश दें
- दुर्भावनापूर्ण या सिविल प्रकृति के मामलों में आदेश न दें
आम व्यक्तियों और अधिवक्ताओं के लिए सीख
यह फैसला वकीलों और आम जनता के लिए महत्वपूर्ण है:
- पुलिस से निराश होने पर न्यायपालिका रास्ता खोलती है
- 156(3) CrPC “अंतिम राहत” नहीं बल्कि “प्रारंभिक सुरक्षा” है
- इसका प्रयोग वैध मामलों में ही होना चाहिए
- झूठी शिकायतें दंडनीय हैं
निष्कर्ष
धारा 156(3) CrPC भारतीय न्याय व्यवस्था में जनता के अधिकारों की रक्षा का एक शक्तिशाली औजार है। सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय ने स्पष्ट कर दिया है कि:
यदि शिकायत में संज्ञेय अपराध का प्रथम दृष्टया खुलासा होता है, तो मजिस्ट्रेट पुलिस को FIR दर्ज करने का आदेश दे सकते हैं और देना चाहिए।
यह फैसला पीड़ितों के लिए आशा की किरण है तथा पुलिस को निष्पक्ष, पारदर्शी और संवैधानिक दायित्वों के अनुरूप कार्य करने की याद दिलाता है।
इससे न केवल आपराधिक न्याय प्रक्रिया सुदृढ़ होती है, बल्कि न्याय व्यवस्था में जनता का विश्वास भी बढ़ता है।