-: दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर :-
प्रश्न 1. सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 की पृष्ठभूमि का संक्षेप में वर्णन कीजिए। Describe in brief the background of Right to Information Act, 2005.
उत्तर- भारत में लोकतान्त्रिक व्यवस्था को अपनाया गया है, जिसमें भारतीय नागरिकों को सम्प्रभुता का अधिकार प्रदान किया गया है और शासकों को जन सेवक का दर्जा दिया गया है। भारतीय संविधान की उद्देशिका भी ‘हम भारत के लोग’ से प्रारम्भ होती है, जिसका सामान्य अर्थ है कि सम्पूर्ण प्रशासनिक व्यवस्था नागरिकों के लिए बनी है। प्रतिवर्ष जनकल्याण और विकास से सम्बन्धित बजट और सरकारी कर्मचारियों की संख्या में बढ़ोत्तरी होती रही है, परन्तु जनता को परेशानियों, समस्याओं में कोई कमी नहीं हुई। इतना ही नहीं धीरे-धीरे लोगों का प्रशासनिक व्यवस्था में विश्वास और प्रतिष्ठा का स्तर भी गिरता जा रहा है, जो एक गम्भीर चिन्ता का विषय है।
इस पृष्ठभूमि में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या वर्ष 2005 में पारित ‘सूचना का अधिकार अधिनियम’ जो प्रत्येक नागरिकों को सरकारी कार्यक्रमों गतिविधियों और नीतियों के बारे में सूचना माँगने और दस्तावेज प्राप्त करने का अधिकार देता है, उत्तरदायित्व विहीन और मनमर्जी से चली आ रही औपनिवेशिक संस्कृति को बदलने में कामयाब रहेगा?
सन् 2005 में पारित सूचना का अधिकार अधिनियम के अब तक के क्रियान्वयन का अवलोकन करने के बाद यह स्पष्ट हो रहा है कि यह अधिनियम आम जनता के ‘वजूद’ का अधिकार है। इसे स्वतन्त्रता की दूसरी आजादी भी कहा जाता है। लोकतन्त्र की विकृतियों या बुराइयों को दूर कर प्रशासन को उत्तरदायी और पारदर्शी बनाने में अधिनियम एक सशक्त उपाय है। इसके अतिरिक्त इस अधिनियम को गोपनीयता के खिलाफ पारदर्शिता की वकालत करने के साथ ही शासन की नीतियों का निर्माण व निष्पादन में जनभागीदारी की गारण्टी का हिमायती और प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार और पद के दुरुपयोग की प्रवृत्ति को रोकने में ‘ब्रह्मास्त्र’ भी माना गया है।
इस अधिनियम के लागू होने के बाद भारत का कोई भी नागरिक सरकारी विभागों एवं मन्त्रालयों से बिना किसी भय के सहजता पूर्ण तरीके से किसी भी प्रकार की सूचना की माँग कर सकता है। यह अधिनियम अत्यन्त विस्तृत है और शासन के लगभग सभी मामलों पर क्षेत्राधिकार रखता है। यह अधिनियम नागरिकों और प्रशासन के मध्य गहरी खाई में उत्साह, समन्वय, सहयोग एवं पारस्परिक समझ के पुलों का निर्माण करता है। केन्द्रीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने सूचना का अधिकार अधिनियम की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए उम्मीद जतायी है कि उक्त अधिनियम से प्रशासनिक तंत्रों में ईमानदारी, खुलापन, सत्यनिष्ठा, जवाबदेही जैसे मानकों को पुनः जीवित किया जा सकेगा। सुशासन के चार घटकों पारदर्शिता, जवाबदेही पूर्वानुमान और भागीदारी जो कि सूचना का अधिकार सुशासन की एक बुनियादी जरूरत है, को व्यावहारिक जामा पहनाया जा सकेगा और प्रशासनिक अधिकारियों को यह आभास मिलता रहेगा कि ये लोगों के प्रति जवाबदेह एवं उत्तरदायी हैं। ये जिस पद पर बैठे हैं. वह उनका जन्मसिद्ध अधिकार नहीं बल्कि जनता के शासितों द्वारा सौंपा गया एक दायित्व है। इस अधिनियम से लोक अधिकारियों का मस्तिष्क बदलेगा जो सदैव गुम और गोपनीयता के जाल में फँसे रहते हैं।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि सूचना का अधिकार अधिनियम देश की प्रशासनिक व्यवस्था में मौलिक परिवर्तन लाने वाला एक सकारात्मक प्रयास है। भारत जैसे लोकतन्त्रात्मक व्यवस्था जिसमें सभी शक्तियों का स्रोत नागरिक हैं, में इस अधिनियम का और भी महत्व एवं प्रासंगिकता है।
भारत में लोकतन्त्र पर टिप्पणी करने वाले विद्वानों का कहना है कि भारत देश में “तन्त्र अथवा ” मशीनरी” तो है, परन्तु लोक शब्द गायब है अथवा लोकविहीन तन्त्र है। कहने का भाव यह है कि प्रशासनिक तन्त्र में जनता को न तो सक्रिय भागीदारी होती है और न ही लोकनीति के निर्माण, प्रबोधन और मूल्यांकन में नागरिक प्रत्यक्ष रूप से भाग लेते हैं।
सूचना के अधिकार का लोकतन्त्र में निम्न कारणों से महत्व है-
(1) राज्य प्रेरित भ्रष्टाचार से लड़ने की क्षमता का सम्वर्धन करना।
(2) लोकतन्त्र के ढाँचे को नींव को मजबूती प्रदान करना।
(3) शासक वर्ग और शासित वर्ग के मध्य विश्वास को दृढ़ करना।
(4) लोक केन्द्रित प्रशासक और प्रशासन पर पैनी नजर रखने वाले नागरिकों के मध्य सूचनाओं का आदान-प्रदान करना।
(5) लोक प्रशासन में शासकों के स्वेच्छाचारी आचरण पर प्रतिबन्ध लगाना और उत्तरदायित्व को प्रोत्साहित करना।
(6) लोक प्रशासन की संस्थाओं का गोपनीयता में लिपटी निर्णय प्रक्रिया को दूर करना जिससे लोकनीति और निर्णयों की गुणवत्ता में सुधार की सम्भावना बढ़ सके।
(7) स्थानीय नागरिकों को शासन संचालन में भागीदारी सुनिश्चित करना ताकि लोकतन्त्र मजबूत हो सके और अपव्ययी गलतियों से बचा जा सके।
इस प्रकार सूचना का अधिकार अधिनियम प्रजातन्त्र को पोषित करने में एक बड़ा भावी कदम है क्योंकि हमारे देश का सरकारी कामकाज परम्परागत रूप से गुप्तता से घिरा हुआ है। सूचना के महत्व को इंगित करते हुए जेम्स मेडिसन ने एक बार कहा था-” जो व्यक्ति अपना शासक खुद बनना चाहते हैं, उन्हें अपने आपको ज्ञान द्वारा प्रदान की जाने वाली शक्ति से सुसजित करना होगा। पूरी जानकारी अथवा उसे प्राप्त करने के साधनों के बिना कोई भी लोकप्रिय सरकार किसी धोखे अथवा दुःखद घटना सम्भवतः दोनों के सम्बन्ध में एक मात्र प्रस्तावना है।
लोक केन्द्रित अधिशासन की शुरुआत करने वाली इस कुंजी को लागू किए हुए कई वर्ष पूरे हो चुके हैं। यह अधिनियम सरकार को दोनों शाखाओंविधानपालिका कार्यपालिका और न्यायपालिका पर ही लागू नहीं होता है बल्कि उन सभी गैर-सरकारी संगठनों पर भी लागू होता है, जिन्हें सरकारी वित्तीय सहायता मिलती है।
इस अधिनियम के तहत सभी नागरिकों, विशेषकर गरीब और समाज के कमजोर वर्गों को सूचना को सुलभता सुनिश्चित करने के लिए केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों में सूचना आयोग, प्रथम अपीलीय अधिकारी, राज्य जन सूचना अधिकारियों की नियुक्ति कर दी गयी है। सूचना माँगने वालों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। सूचना का अधिकार अधिनियम हमारे देश की शासन व्यवस्था को एक नई दशा और दिशा प्रदान कर रहा है। यह गोपनीयता की संस्कृति से पारदर्शिता की संस्कृति की ओर बदलाव का भी संकेत है। नागरिकों ने पहली बार शासन व्यवस्था की कार्यप्रणाली में गहरी दिलचस्पी दिखाई है। उन्हें पहली बार यह संवेदनशील अहसास हुआ है कि किस प्रकार उनके द्वारा निर्वाचित अपनी सरकार के द्वारा रोजमर्रा के मामलों में लाल फीताशाही के गोपनीय हथियार के द्वारा उन्हें आधारभूत आवश्यकताओं से वंचित किया जा रहा था। संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार के द्वारा उठाया गया यह ऐतिहासिक कदम उसके नेतृत्व की दूरगामी सोच का परिणाम है, जिसका प्रमाण मतदाताओं ने लोकसभा चुनाव-2009 में उसे दोबारा जनादेश देकर दिया है, क्योंकि इस अधिनियम से आम व्यक्ति किसी न किसी रूप से लाभान्वित हुआ है।
प्रश्न 2. सूचना का अधिकार के संक्षिप्त इतिहास का वर्णन कीजिए। Describe in brief the history of Right to Information.
उत्तर- सूचना के अधिकार के इतिहास के मूल में मानव के जानने की जिज्ञासा छिपी हुई है। इसका सम्बन्ध ज्ञान के सिद्धान्त से है अर्थात् प्रकृति और सामाजिक व्यवस्था के बारे में ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा जानने की तीव्र चाह मानव के सूचना पर आधारित तथ्यों एवं ज्ञान के विकास का वैज्ञानिक अध्ययन एपीसटमोलोजी (Epistemology) में किया जाता है जो अनेक दर्शनशास्त्रों एवं मानव चिन्तन प्रणाली पर आधारित है। यहाँ पर इसका उल्लेख अनिवार्य नहीं है। इसलिए संगठित स्तर पर सूचना प्राप्ति के लिए जो सामूहिक स्तर पर सामाजिक संगठनों अथवा सरकारों द्वारा प्रयास किए गये हैं, उनका संक्षिप्त इतिहास जानना ही पर्याप्त है जो मूलतः विचारों की अभिव्यक्ति, स्वतन्त्रता और प्रजातन्त्र से जुड़ा हुआ है। लोकतन्त्र के इतिहास में विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की माँग सुकरात ने सबसे पहले उठाई। सुकरात ने अपने प्रसिद्ध भाषण ‘लोगो ऐरोपैगीकस ( Logos Aeropagicos) में एथेन्स राज्य में लोकतन्त्र और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की बहाली में यह बात जोर-शोर से उठाई। ठीक इसी प्रकार का संघर्ष ब्रिटेन में महान कवि जोहन मिल्टन ने वहाँ की सरकार द्वारा विचारों की अभिव्यक्ति को रोकने वाले अध्यादेश का विरोध करते हुए किया। उन्होंने वर्ष 1644 में ऐरीयोपैगीटीका नामक लघु पुस्तिका के प्रकाशन के माध्यम से मौलिक अधिकारों की रक्षा करने का प्रसार किया। इसलिए लोकतन्त्र, स्वतन्त्रता और सूचना का अधिकार एक-दूसरे मे अन्तर्सम्बन्धित है, जिनका इतिहास जानने के लिए विषय को दो भागों में बाँटा गया है, जो इस प्रकार हैं-
(1) संसार के अन्य देशों में सूचना का अधिकार का विकास
(2) भारत में सूचना का अधिकार
(1) संसार के अन्य देशों में सूचना का अधिकार का विकास- विश्व के विभिन्न देशों, विशेषकर विकसित देशों में सूचना का अधिकार अधिनियम की कहानी को जानना जरूरी ही नहीं बल्कि इस अधिनियम का निर्माण करने से लेकर लागू करने वाले विभिन्न पड़ावों का अध्ययन करना अत्यन्त आवश्यक भी है ताकि हम ये जान सकें कि किन देशों का इस अधिनियम के प्रति सकारात्मक व नकारात्मक रवैया रहा है और इन देशों में सूचना का अधिकार अधिनियम को कानून का कवच पहनाने में जो लम्बी लड़ाई चली. इससे यह साबित होता है कि इस अवधारणा को व्यवहार में ढालने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी। अब इस बात को समझा जाने लगा कि जनता की प्रशासन में सहभागिता होना अत्यन्त आवश्यक है। इन सम्भावनाओं पर 20वीं सदी में बहस शुरू हुई थी।
स्वस्थ लोकतंत्र में जनता की भागीदारी को बढ़ावा देना और प्रशासकों को उत्तरदायी बनाना जरूरी है। इसके मद्देनजर 20वीं शताब्दी में दुनिया के बहुत से देशों ने अपने संविधान में सूचना के अधिकार अधिनियम को महत्वपूर्ण स्थान दिया है। इसीलिए संयुक्त राष्ट्र महासभा ने भी इसकी महत्ता को स्वीकार करते हुए सन् 1946 में अपने पहले सत्र में एक संकल्प 59 (1) पारित किया था, जिसमें कहा गया था-“सूचना को आजादी एक मूलभूत मानव अधिकार है और उन सभी आजादियों का मूल आधार है, जिनके लिए संयुक्त राष्ट्र समर्पित है। इसके बाद मानवाधिकार सार्वभौम घोषणा, 1984 के अनुच्छेद-19 में कहा गया। है- “प्रत्येक मत और अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार हैं, इस अधिनियम में बिना किसी हस्तक्षेप के मत धारण करने की आजादी शामिल है, तथा किसी भी माध्यम के जरिए सीमाओं को ध्यान में न रखते हुए, सूचना और विचारों की चाह प्राप्त और प्रदान करने की आजादी इस अधिकार में शामिल है।
इसके अलावा भी विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय मंचों से सूचना के अधिकार की वकालत की गई है। इस परिप्रेक्ष्य में विभिन्न देशों द्वारा सूचना के अधिकार को अंगीकार किया जाना उत्साहजनक रहा है। स्वीडन, नार्वे, फिनलैण्ड एवं डेनमार्क अग्रणी देश हैं, जिन्होंने अपने नागरिकों को सूचना का अधिकार उपलब्ध कराने की पहल की थी, उनका वर्णन इस प्रकार है- स्वीडन का संविधान सूचना की स्वतन्त्रता प्रदान करने वाला विश्व का सर्वाधिक पुरातन संविधान है। वर्ष 1766 में स्वीडन सरकार द्वारा निर्मित ‘फ्रीडम ऑफ प्रेस एक्ट’ में तन्त्र को पारदर्शी बनाने के लिए आम नागरिक को सूचना की स्वतन्त्रता देने का प्रावधान किया गया था, फिनलैण्ड द्वारा 1951 में फ्रीडम ऑफ इनफोरमेशन अधिनियम पारित किया गया। इसके बाद डेनमार्क एवं नार्वे द्वारा सन् 1970 में नागरिकों को सरकारी दस्तावेज प्रदान करने का कानून निर्मित किया गया। फ्रांस में सन् 1978 में फ्रांस के नागरिकों को सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत सूचनायें प्राप्त होने लगीं। ब्रिटेन एक ऐसा देश है जहाँ पर प्रशासनिक तन्त्र के द्वारा सूचनाएं पूरी तरह से गोपनीय रखी जाती हैं। उस देश के नागरिकों को इस अधिकार को पाने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा। सन् 1989 में सरकारी गोपनीयता कानून में परिवर्तन कर सूचना का अधिकार प्रदान किया गया।
संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपने देश के नागरिकों को सूचना का अधिकार प्रदान करने व सरकारी कार्यों में पारदर्शिता रखने हेतु समय-समय पर कई प्रयास किए हैं। सन् 1966 में “फ्रीडम ऑफ इनफारमेशन एक्ट” अस्तित्व में आया तथा अमेरिका ने 1974 ई० में प्राइवेसी एक्ट पारित किए।
(2) भारत में सूचना का अधिकार का विकास – भारत में सूचना के अधिकार अधिनियम का इतिहास चुनौतियों से भरा हुआ है। इस अधिनियम को कानून की शक्ल में लाने के लिए विभिन्न समितियों, आयोगों, कार्यदलों और सामाजिक आन्दोलनों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस कार्य में मीडिया और सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका भी प्रशंसनीय है। भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने समय-समय पर ऐतिहासिक निर्णय देते हुए आम व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की रक्षा नहीं की बल्कि शासक और शासित के मध्य सम्बन्धों की व्यापक व्याख्या भी की है।
पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज बनाम भारत संघ, ALR. 2004 SC 2112 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि मतदाता का सूचना का अधिकार संविधान के अनुच्छेद-19 में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के मूल अधिकार का आवश्यक अंग है।
5 दिसम्बर, 2002 को राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक गठबन्धन सरकार द्वारा सूचना की स्वतन्त्रता का अधिनियम, 2002 पारित किया गया था। इस अधिनियम को निरस्त करके उसके स्थान पर वर्तमान सूचना के अधिकार का अधिनियम, 2005 पारित किया गया है। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य देश के नागरिकों को लोक प्राधिकारियों के पास सरकारी कामकाज से सम्बन्धित सूचनाओं को प्राप्त करने का अधिकार प्रदान करना है। इस अधिकार की माँग बहुत दिनों से चल रही थी और यह कहा जाता था कि लोकतांत्रिक प्रणाली में सूचना का अधिकार एक अत्यन्त आवश्यक अधिकार है जिससे प्रत्येक नागरिक यह जान सके कि लोक प्राधिकारीगण सरकारी कामकाज कैसे कर रहे हैं। ब्रिटिश शासनकाल से चले आ रहे कानून की दुहाई देकर नागरिकों को लोक अधिकारी महत्वपूर्ण सूचनाओं को गोपनीय बनाकर उनका भयादोहन करते रहे हैं। लार्ड कर्जन के समय बनाया गया कानून आफिसियल सिक्रेट अधिनियम भी इन्हीं में से एक है। इसके अनुसार सरकारी दस्तावेजों को साधारण जनता से गोपनीय रखने का उद्देश्य देश की सुरक्षा व एकता को बनाये रखना था। किन्तु व्यवहार में वे हर तथ्य को गोपनीय बनाने की फिराक में रहते थे। इसी कारण नागरिकों को न केवल अपने मामले में बल्कि सार्वजनिक मामलों में भी सच्चाई का पता नहीं चल पाता था। वर्तमान अधिनियम के अन्तर्गत प्रत्येक लोक अधिकारी का यह दायित्व होगा कि नागरिकों द्वारा मांगी गई सूचनाएँ उसे प्रदान करे तथा सभी दस्तावेजों का विवरण रखे जो परिचालन की अपेक्षा के अनुरूप हों। इस प्रकार इस अधिनियम का उद्देश्य प्रशासन में खुलापन, पारदर्शिता तथा उत्तरदायित्व को बढ़ाना है।
इस अधिनियम के पारित हो जाने से प्रेस की स्वतन्त्रता भी निश्चित रूप से सशक्त होगी। क्योंकि अभी तक प्रायः देखा गया था कि उक्त गोपनीयता कानून को आधार बनाकर सरकारी दस्तावेजों से प्रेस को दूर रखने का प्रयास किया जाता रहा है। इस कानूनी मान्यता के पहले ही उच्चतम न्यायालय ने प्रेस के अधिकार को संविधान के अनुच्छेद-19 के अन्तर्गत प्राप्त अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अन्तर्गत पर्याप्त रूप से सुस्पष्ट किया है किन्तु नौकरशाही इसे स्वीकार करने में कई प्रकार की अड़चनें डालती रही है। सूचना का अधिकार मूलतः एक नागरिक का अधिकार होगा किन्तु स्वयं प्रेस की स्वतन्त्रता भी एक नागरिक को प्राप्त अधिकार से कुछ अधिक नहीं है। प्रेस आम नागरिक की ओर से उससे सम्बन्धित व सार्वजनिक हित से जुड़े मामलों को उद्घाटित करके लोकतन्त्र को मजबूत करता है।
प्रश्न 3. भारत में सूचना के अधिकार का विकास कैसे हुआ? संक्षेप में बतायें। How developed Right to Information in India? Explain in brief.
उत्तर – भारत में सूचना के अधिकार अधिनियम का इतिहास चुनौतियों से भरा हुआ है। इस अधिनियम को कानून की शक्ल में लाने के लिए विभिन्न समितियों, आयोगों, कार्यदलों और सामाजिक आन्दोलनों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस कार्य में मीडिया और सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका भी प्रशंसनीय है। यद्यपि देश की स्वतन्त्रता से पहले अनेक प्रोपुनीय कानून मौजूद थे, जो सूचना का अधिकार अधिनियम के पारित होने में बाधाएँ उत्पन्न कर रहे थे। अतः इन निरंकुशता के प्रतीक कानूनों से लेकर वर्तमान सूचना अधिकार कानून तक के इतिहास को निम्न कालों में विभाजित किया जा सकता है-
(1) स्वतन्त्रता से पूर्व गोपनीय अधिनियमों का काल।
(2) सन् 1947 से 1995 के बीच का काल।
(3) सन् 1996 से 2002 के बीच का काल ।
(4) सन् 2003 से आज तक का काल।।
(1) स्वतन्त्रता से पूर्व गोपनीय अधिनियमों का काल सूचना का अधिकार – अधिनियम में सबसे अधिक विवादास्पद मामला उन गोपनीय कानूनों का है, जो शासन के किसी विषय से सम्बन्धित कोई सूचना का दस्तावेज देने से मना करते हैं। इनमें शासकीय सूचना के प्रयोग करने की स्पष्ट रूपरेखा दी गई है, जिनमें गोपनीयता मापदण्ड और प्रकटन अपराध माना गया है। उपनिवेशी युग के दौरान बनाये गये कानून अधिकारियों को प्रभुता सम्पन्न और नागरिकों को अविश्वास एवं संशय की दृष्टि से देखते हैं। इन्हीं अधिनियमों के कारण प्रशासन में सूचना प्रकट न करने की संस्वीकृति का विकास हुआ। इनमें से मुख्य कानून निम्न हैं-
(1) भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872
(2) विदेशी भर्ती अधिनियम, 1874
(3) सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908
(4) आधिकारिक गुप्तता अधिनियम, 1923 (5) आपराधिक कानून संशोधन, 1938
इन गुप्तता के अधिनियमों के कुछ प्रावधानों का अब भी जारी रहना सूचना का अधिकार के मार्ग में मुख्य बाधा है, क्योंकि इनके तहत अधिकारीगण बिना किसी वैध औचित्य के जानकारी छिपाने में समर्थ रहते हैं। यह एक सुविधाजनक धुंधला पर्दा है।
(2) सन् 1947 से 1995 के बीच का काल- भारत 15 अगस्त, 1947 को स्वतन्त्र हुआ और 26 जनवरी, 1950 को नये संविधान को कार्यान्वित किया गया, जिसके अनुसार प्रभुसत्ता सम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतन्त्रात्मक गणराज्य की स्थापना की गई। यद्यपि देश में साम्राज्यवादी प्रशासन के स्थान पर लोकतन्त्रीय शासन प्रणाली को अपनाया गया किन्तु शासन व्यवस्था में उपनिवेशीय संस्कृति का प्रभाव समाप्त नहीं हुआ। नौकरशाही की कार्यप्रणाली और आचरण उसकी निरंकुशवादी गोपनीयता पर आधारित थी। आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम, 1923 में कोई संशोधन नहीं किया गया और सूचना का प्रकटीकरण दण्डनीय माना गया। इसलिए इस अधिनियम की सार्थकता की जाँच करने के लिए सन् 1948 में प्रेस लॉ इन्क्वायरी कमेटी गठित की गई, जिसने अनेक सुझाव प्रस्तुत किये। इसकी सिफारिशों के अनुरूप सरकार ने सन् 1977 में एक कार्यदल गठित किया, जिसने आधिकारिक गुप्तता अधिनियम, 1923 को बनाए रखने का पक्ष लिया।
सूचना के अधिकार अधिनियम के विकास में वर्ष 1981 काफी महत्वपूर्ण रहा, क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने एस० पी० गुप्ता बनाम भारत संघ, AIR. 1982 S.C. 149 में व्यवस्था की थी कि खुली सरकार की अवधारणा जानने के अधिकार से उत्पन्न होती है, जो संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (अ) के अन्तर्गत विचार व्यक्त करने और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता में निहित है। इस महत्वपूर्ण निर्णय में प्रत्येक सार्वजनिक कार्य के बारे में जानने के अधिकार और सरकारी कार्यकर्ताओं द्वारा किए गए प्रत्येक कारोबार के ब्यौरे जानने के अधिकार का उल्लेख किया गया है।
तत्पश्चात् 1982 में मैथ्यू आयोग ने अधिकारिक गुप्तता अधिनियम, 1923 की धारा 5 को संशोधित करने की सिफारिश की प्रधानमन्त्री बी० पी० सिंह ने सन् 1989 में घोषणा की कि सूचना के अधिकार को मौलिक अधिकार का दर्जा दिया जाएगा।
सूचना का अधिकार के अभियान को एक और सफलता तब मिली जब प्रेस कौंसिल ऑफ इण्डिया ने वर्ष 1995 में सूचना की स्वतन्त्रता पर पहला प्रारूप तैयार किया। इसके अनुसार प्रत्येक नागरिक को प्रत्येक प्राधिकरण से सूचना माँगने का अधिकार प्रदान किया गया। इस प्रारूप की मुख्य विशेषता यह थी कि इसके अन्तर्गत लोक प्राधिकरण की परिभाषा में ‘राज्य’ समेत निगम, कम्पनियाँ, स्वायत्त निकाय, निजी स्वामित्व वाले उपक्रम और वे अन्य निकाय भी आते थे, जिनके कार्य से जनहित प्रभावित होता हो।
(3) सन् 1996 से 2002 के बीच का काल- इस काल के दौरान सूचना का अधिकार अधिनियम को कानूनी जामा पहनाने के लिए वास्तविक प्रचार-प्रसार किए गए। यदि यह कहा जाए कि यह काल सूचना अधिकार अधिनियम का स्वर्णिम युग था, में कोई अतिशयोक्ति न होगी, क्योंकि निम्न महत्वपूर्ण प्रयासों से इस अधिनियम को गतिशीलता मिली।
(1) राज्यों के मुख्य सचिवों का सम्मेलन, 1996
(2) राज्यों के मुख्यमन्त्रियों का सम्मेलन, 1997
(3) विधि आयोग की सिफारिशें, (1999-2002)
(4) सूचना की स्वतन्त्रता विधेयक, 1997 और सूचना की स्वतन्त्रता अधिनियम, 2002
(5) उच्चतम न्यायालय का महत्वपूर्ण निर्णय, 2002
1. राज्यों के मुख्य सचिवों के सम्मेलन- नवम्बर, 1996 में सभी राज्यों के मुख्य सचिवों का एक राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में ‘प्रभावी और उत्तरदायी प्रशासन’ के लिए एक कार्यसूची प्रस्तुत की गई। इसमें लोक सेवाओं को कार्यकुशल, पवित्र, उत्तरदायी और नागरिक मित्र बनाने के लिए अनेक मुद्दों पर विचार विमर्श किया गया।
2. राज्यों के मुख्यमन्त्रियों का सम्मेलन, 1997 – 24 मई, 1997 को राज्यों के मुख्यमन्त्रियों का सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में मुख्यतः तीन बिन्दुओं पर गहन विचार-विमर्श किया गया-
1. प्रशासन को उत्तरदायी और जनमित्र बनाना।
2. प्रशासन में पारदर्शिता और सूचना का अधिकार सुनिश्चित करणा
3. लोक सेवाओं में सुधार और मनोबल के लिए कदम उठाना।
(3) सूचना की स्वतन्त्रता विधेयक, 1997 और सूचना की स्वतन्त्रता अधिनियम, 2002 – सूचना की स्वतन्त्रता विधेयक 1997 के निम्न सिद्धांत होंगे-
(1) सूचना प्रकटीकरण एक नियम होगा और गोपनीयता अपवाद।
(2) सूचना मनाही के विषयष्ट परिभाषित होने चाहिए।
(3) नागरिकों और लोक प्राधिकरणों के विवादों का निपटारा करने के लिए एक स्वतन्त्र व्यवस्था हो।
सूचना की स्वतन्त्रता विधेयक के रूप में 25 जुलाई, 2000 को लोकसभा में इसे रखा गया। 6 जनवरी, 2003 को भारत के राष्ट्रपति ने सूचना की स्वतन्त्रता अधिनियम, 2002 पर अपने हस्ताक्षर कर स्वीकृति प्रदान की। 7 जनवरी, 2003 को सूचना की स्वतन्त्रता अधिनियम, 2002 को आम सूचना हेतु प्रकाशित किया गया था।
5. उच्चतम न्यायालय का महत्वपूर्ण निर्णय- भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने समय- समय पर ऐतिहासिक निर्णय देते हुए आम व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की रक्षा ही नहीं की बल्कि शासक और शासित के मध्य सम्बन्धों की व्यापक व्याख्या भी की है। इन महत्वपूर्ण निर्णयों में सूचना के अधिकार की विस्तृत व्याख्या की गई है, जिनमें
(1) बैनेट कीलेमन बनाम भारत संघ, A.I.R. 1973 S.C. 60
(2) स्टेट ऑफ यू० पी० बनाम राजनारायण, (1975) 4 S.C.C. 428
(3) एस० पी० गुप्ता बनाम भारत सरकार, A.I.R. 1982 S.c. 149
(4) सचिव, सूचना और प्रसारण मन्त्रालय, भारत सरकार बनाम क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ बंगाल, (1995) 2 S.C.C. 161
(5) पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज बनाम भारत सरकार, 2004 (2) S.C.C. 476 आदि मामले सम्मिलित हैं।
परन्तु इसका सबसे महत्वपूर्ण निर्णय भारत सरकार बनाम एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफार्म्स, (2002) 52 S.C.C. 294 का है, जिसमें नागरिकों को अपने जनप्रतिनिधियों के शैक्षणिक योग्यताओं, सम्पत्तियों और आपराधिक पृष्ठभूमि के बारे में सूचना प्राप्त करना है।
(4) सन् 2003 से आज तक का समय काल– सूचना अधिकार अधिनियम के अब तक के इतिहास गाथा का यह वर्तमान काल है। इस दौरान विभिन्न राज्य सरकारों ने अपने-अपने राज्यों में सूचना अधिकार अधिनियम पारित किए क्योंकि शासन की पारदर्शिता को लेकर अनेक राज्यों ने भी अपने-अपने स्तर पर प्रयास किए हैं। भारत में इन राज्यों के द्वारा इस एक्ट को विकसित करने व उसे लागू करने के सम्बन्ध में किए गए प्रयास प्रशंसनीय हैं। इस एक्ट का प्रारूप बनाने व लागू करने के सम्बन्ध में जिन राज्यों ने पहलकदमी की है, उन राज्यों के नाम इस प्रकार से हैं- राजस्थान, तमिलनाडु, गोवा, कर्नाटक, महाराष्ट्र एवं दिल्ली ।नागरिकों को सूचना प्रदान करने के लिए सूचना का अधिकार अधिनियम सबसे पहले तमिलनाडु में पारित किया गया।
सूचना का अधिकार अधिनियम, 2002 में अनेक खामियाँ थीं। इस खामी या कमी को दूर करने के लिए संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन (U.P.A.) ने 23 दिसम्बर, 2004 को संसद में सूचना का अधिकार विधेयक, 2004 पुनःस्थापित किया। 11 मई, 2005 को लोकसभा ने सूचना का अधिकार विधेयक पारित कर दिया। अधिनियम की कुछ धाराएँ 15 जून, 2005 को लागू हो गई और कुछ धाराएँ 120 दिन बाद अर्थात् 12 अक्टूबर, 2005 को लागू हुईं। इस अधिनियम का संक्षिप्त नाम सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 है, जो जम्मू-कश्मीर राज्य के सिवाय सम्पूर्ण भारत में लागू है।
प्रश्न 4. सूचना का अधिकार अधिनियम के महत्व को बतलाइये।
Explain the importance of Right to Information Act.
अथवा/Or
‘सूचना अधिकार अधिनियम, 2005 का भारतीय लोकतंत्र में योगदान पर समालोचनात्मक टिप्पणी कीजिए।
Critically comment on the ‘Role of Right to Information Act, 2005 in Indian democracy.”
उत्तर- सूचना का अधिकार अधिनियम का महत्व – सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के महत्व पर प्रकाश डालते हुए 11 मई, 2005 को भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि- “कुशल और प्रभावी संस्थान, तीव्र और आर्थिक तथा सामाजिक विकास के लिए कुँजी है, ऐसे संस्थान जो कम से कम सम्भव लागत के साथ और सम्भव अधिक कार्यकुशलता के साथ, वायदों को पूरा कर सकें और परिव्ययों को परिणामों में बदल सकें। प्रभावी बनाने के लिए संस्थाओं को पारदर्शी, जिम्मेदार और जवाबदेह ढंग से कार्य करना चाहिए। सूचना का अधिकार विधेयक से एक और अधिकार प्राप्त होगा जो नागरिकों को इस सम्बन्ध में साक्ष्य बनाएगा और यह सुनिश्चित करेगा कि हमारे संस्थान और कार्यकर्ता अपने कर्तव्य का वांछित ढंग से पालन करें। यह अन्य अधिकारों को प्रवर्तित करने के लिए एक महत्वपूर्ण अधिकार को अमल में लाएगा और नागरिकों के अधिकारों की रूपरेखा में महत्वपूर्ण अन्तर पाटेगा।” इस अधिनियम के प्रति प्रधानमंत्री ने यह उम्मीद जताई कि इससे सरकारी कर्मचारी अपने कर्तव्यों का वांछित ढंग से पालन करेंगे और नागरिक विभिन्न सूचनाओं की प्राप्ति से साक्त होंगे। इस अधिनियम की उपयोगिता और महत्व को निम्नांकित कारणों से भी जाँचा जा सकता है-
1. सुशासन के उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायक – लोकतन्त्रात्मक शासन प्रणाली जवाबदेहिता और पारदर्शिता पर आधारित है। परन्तु विभिन्न देशों में प्रशासनिक संगठनों की जवाबदेहिता सुनिश्चित करने के लिए जो माध्यम अपनाए गये हैं वे अप्रभावी रहे हैं क्योंकि प्रशासन विधायिका के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से लोगों के प्रति जवाबदेह रहा है और नियन्त्रण के ये साधन सही जानकारी के अभाव में सक्रिय रहे हैं। इसलिए यह माना गया कि सूचना प्राप्ति का अधिकार लोक जवाबदेहिता के लिए आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। विश्व बैंक ने 1992 में अपने दस्तावेज ‘अभिशासन और विकास’ में सूचना प्राप्ति के अधिकार को अति आवश्यक माना। सूचना अधिकार के प्रशासनिक कार्यकुशलता और सार्वजनिक जवाबदेही पर बोलते हुए भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश वाई० के० संभरवाल ने कहा था,”सूचना का अधिकार के पीछे बुनियादी उद्देश्य यह है कि सरकार ‘लोगों के लिए’ है, यह खुली और जवाबदेह होनी चाहिए तथा इसके अन्तर्गत जिन लोगों का यह प्रतिनिधित्व करती है, उनसे कुछ नहीं छिपाया जाना चाहिए। एक जिम्मेवार सरकार में जैसा कि हमारी है, जनता के सभी अधिकारी वर्ग को अपने आचरण के लिए जिम्मेदार होने चाहिए तथा प्रशासन के कार्यों में कोई भी गोपनीसता नहीं रहनी चाहिए।
2. भ्रष्टाचार के विरुद्ध ब्रम्हास्त्र के रूप में – इसमें कोई संदेह नहीं कि भ्रष्टाचार की दर्दनाक बीमारी से हमारे देश की प्रशासनिक व्यवस्था पूरी तरह से चरमरा गई है। देश के सभी नागरिक इस बात से भली-भाँति परिचित हैं कि भारत में विकास की प्रक्रिया को अवरुद्ध करने वाला, गरीबों के हाथों से रोटी छीनने वाला, नैतिकता को ताक पर रखकर उसका गला घोंटने वाला एवं गरीबी को बढ़ावा देने में यदि किसी चीज का हाथ है तो वह ‘भ्रष्टाचार’ है। भ्रष्टाचार आज के समाज को घुन की तरह खाए जा रहा है।
भ्रष्टाचार के भस्मासुरी दैत्य से मुक्ति हेतु सूचना का अधिकार सशक्त अस्त्र का कार्य कर सकता है। लोकतन्त्र में पाया जाने वाला भ्रष्टाचार एवं अन्य विकृतियों का समाधान करने में सूचना का अधिकार अधिनियम एक मात्र सहायक है। भ्रष्टाचार करने वालों के ऊपर सूचना का अधिकार अधिनियम एक खतरे की तरह उन पर हमेशा मंडराता रहता है जिससे प्रशासकीय अधिकारियों को यह भय बना रहता है कि पंता नहीं कब उनकी गलती पकड़ में आ जाए।
3. प्रशासन में जनसहभागिता सुनिश्चित करने का सशक्त माध्यम – साधारण शब्दों में सहभागिता से अभिप्राय है कि आम जनता शासन के सभी कार्यों में सक्रिय रूप से भाग ले। जनसहभागिता अनेक स्तर पर, ग्राम से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक और अनेक प्रकार की हो सकती है। जैसे परामर्श देने का कार्य, निर्णय लेने का कार्य तथा क्रियान्वयन सम्बन्धी कार्य। यदि सहभागिता के इस अर्थ को देखा जाए तो नागरिक केवल पाँच वर्ष में एक बार यदि आवश्यक है तो इससे पूर्व, निर्वाचन के माध्यम से अपनी भागीदारी सुनिश्चित करते हैं। यद्यपि कुछ परामर्शदात्री संगठनों और स्थानीय शासन को निर्वाचित संस्थाओं के माध्यम से वे अप्रत्यक्ष रूप से शासन संचालन की गतिविधियों को प्रभावित करते हैं। परन्तु यह सब कुछ केवल औपचारिक और अप्रभावी रहा है। भारत में साक्षरता का निम्न स्तर, जनता की निष्क्रियता और उदासीनता आदि सक्रिय जनसहभागिता के मार्ग में कुछ बाधाएं हैं। इस अधिनियम के पारित हो जाने से शासन में नागरिकों की प्रत्यक्ष और सीधी सहभागिता बढ़ी है।
4. विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के मौलिक अधिकार का विस्तार – संयुक्त राष्ट्र संघ ने सूचना के अधिकार को मौलिक अधिकार का दर्जा दिया है और माना है कि सूचना प्राप्त करना प्रत्येक नागरिक का मौलिक अधिकार है। भारतीय संविधान के तीसरे अध्याय में वर्णित मौलिक अधिकारों का सूचना का अधिकार से सीधा सम्बन्ध है। संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (क) के अनुसार नागरिकों को विचार व्यक्त करने और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता दी गई है।
इस अधिकार की व्याख्या करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक निर्णय दिए हैं जिनके अनुसार यह माना गया है कि यदि किसी नागरिक को सरकार की कार्यप्रणाली की किसी सूचना से वंचित रखा गया है तो यह उसके विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर आघात होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने इस सम्बन्ध में निम्न महत्वपूर्ण वादों में ऐसे निर्णय दिए-
(1) बैनेट कोलमैन एण्ड कम्पनी बनाम भारत सरकार, ए० आई० आर० 1973 एस० सी० 783
(2) इण्डियन एक्सप्रेस न्यूज पेपर्स प्रा० लि० बनाम भारत सरकार, (1985) एस० सी० 41
(3) उत्तर प्रदेश राज्य बनाम राजनारायण, ए० आई० आर० 1975 एस० सी० 865
5. प्रशासनिक कार्यकुशलता के स्तर में सुधार करना- लोक प्रशासन में कार्यकुशलता को मापने का सिद्धान्त लाभ-हानि की बजाए लोक सेवाओं की आपूर्ति में त्वरित गति और धन के दुरुपयोग से लिया जाता है। सूचना का अधिकार अधिनियम के प्रयोग एवं अनुभवों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अब नागरिक प्रशासन पर पैनी नजर रखे हुए हैं। वे यह जानने में रुचि रखने लगे हैं कि उनके आस-पड़ोस में गली निर्माण के लिए कब और कितना धन स्वीकृत हुआ था। प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में कितने चिकित्सक कार्यरत हैं और सरकारी सहायता से कौन-कौन सी और कितनी राशि की दवाई खरीदी गई है। इसलिए यह अधिनियम प्रशासन को और अधिक चुस्त और सक्रिय बनाने में सहयोग करेगा।
6. सार्वजनिक जवाबदेही और उत्तरदायित्व सुनिश्चित करना – विश्व के सभी देशों में लोक प्रशासन का विस्तार हो रहा है और शासन व्यवस्था के कार्यों में वृद्धि एक अविरल प्रक्रिया का रूप धारण कर चुकी है। यदि प्रशासन के कार्यों में वृद्धि होगी तो प्रशासनिक अधिकारियों की शक्तियाँ भी उसी अनुपात में बढ़ेंगी। अतः उनकी शक्तियों पर नियन्त्रण रखना आवश्यक है। एल० डी० हाईट के शब्दों में, “प्रजातन्त्रीय समाज में शक्ति पर नियन्त्रण आवश्यक है। शक्ति जितनी अधिक है, नियन्त्रण की भी उतनी ही आवश्यकता है। स्पष्ट प्रयोजनों के लिए पर्याप्त अधिकार किस प्रकार निहित किए जाएँ तथा सत्ता को पंगु बनाए बिना किस प्रकार समुचित नियन्त्रण स्थापित किया जाए, यह लोकप्रिय सरकार के समक्ष एक ऐतिहासिक उलझन है। इसलिए प्रत्येक देश में प्रशासन पर नियन्त्रण रखने के लिए विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के द्वारा नियन्त्रण की व्यवस्था की जाती है, परन्तु व्यवहार में ये सभी नियन्त्रण सीमित और अप्रभावी रहते हैं। प्रत्येक नियन्त्रण के माध्यम में कुछ न कुछ त्रुटियाँ हैं। इसलिए इनको दूर करने के लिए सूचना को एक सशक्त माध्यम माना जाता है, जिसके द्वारा प्रशासनिक अधिकारियों और कर्मचारियों को उनके . प्रकरणों के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है।
7. सरकारी कार्यप्रणाली में पारदर्शिता को प्रोत्साहित करना- सार्वजनिक क्षेत्र में पारदर्शिता का प्रचार-प्रसार किया जाय, क्योंकि पारदर्शिता का सम्बन्ध जनता के लिए सूचना की उपलब्धता और सरकारी संस्थाओं के कामकाज के बारे में स्पष्टता प्राप्त करने से है। सूचना के अधिकार का अर्थ सरकार के अभिलेखों को सार्वजनिक जाँच के लिए खोलना जिससे कि नागरिकों को इस बारे में जानकारी प्राप्त करने का महत्वपूर्ण साधन प्राप्त हो सके कि सरकार क्या और कितने प्रभावशाली ढंग से कार्य करती है। इसके द्वारा सरकार और अधिक जवाबदेह बनती है।
अगर कोई भी देश या राज्य अपने प्रशासकीय कार्य में पारदर्शिता बरतने से मनाही करता है अथवा अपने लोगों के प्रति जवाबदेह बनने से इंकार करता है तो वह देश प्रजातन्त्र होने का दावा नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में वह लोगों का विश्वास खो देगा।
इस अधिनियम के पारित होने से पूर्व अधिकारिक गुप्तता अधिनियम, 1923, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 आदि प्रचलित थे, जिनके द्वारा किसी भी कर्मचारी के द्वारा किसी फाइल में टिप्पणी, आदेश, दस्तावेज व अन्य सूचना को सम्प्रेषित करना अपराध माना जाता है। यद्यपि सूचना का अधिकार अधिनियम में भी कुछ अपवाद रखे गये हैं, परन्तु इन सभी गोपनीय अधिनियमों को उस सीमा तक अप्रभावी और निष्क्रिय माना जाएगा जिस सीमा तक वे सूचना का अधिकार अधिनियम के प्रभाव क्षेत्र में आयेंगे। अतः इस अधिनियम को सर्वोच्चता एवं वरीयता प्रदान की गई है यद्यपि गोपनीय अधिनियम निरस्त नहीं किए गए हैं, बल्कि सुषुप्त अवस्था में रखे गए हैं।
8. आम नागरिक को लोकतन्त्रात्मक कार्यप्रणाली समझने का प्रत्यक्ष अवसर (Direct opportunity to understood the working of Democracy) – इस अधिनियम के पारित होने से पहले एक आम नागरिक को लोकतन्त्र और प्रशासनिक तन्त्र की कार्यप्रणाली के बारे में कोई भी जानकारी नहीं होती थी। वह प्रत्येक चुनाव के दौरान अपने मत का प्रयोग करते समय ही प्रशासन के सम्पर्क में आता था। परन्तु इस अधिनियम के लागू हो जाने के बाद वह अपनी दैनिक जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति न होने के कारण एक निर्धारित प्रक्रिया अपनाते हुए प्रशासन की किसी भी गतिविधि के बारे में सूचना प्राप्त कर सकता है। इससे उसका लोकतन्त्र के संचालन में सीधा और प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित हो जाता है। एक गली-मोहल्ले में बैठा हुआ व्यक्ति, दुकानदार, किसान, खेत-मजदूर और गृहिणी आदि कोई भी नागरिक अब यह जान सकता है कि उसका राशन कार्ड कैसे बनता है और क्यों नहीं बन सका, मोहल्ले में कार्यरत दरोगा ने अपहरण एवं मौत की घटना घटित होने पर प्राथमिक सूचना रिपोर्ट (एफ० आई० आर०) दर्ज क्यों नहीं की, बिजली का कट किस समय लगेगा, अस्पताल में सरकारी सहायता प्राप्त कौन-कौन सी दवाइयाँ उपलब्ध हैं और उसका पासपोर्ट बनने में इतनी देरी क्यों हुई, आदि। अब कोई भी व्यक्ति अपने स्तर पर किसी भी प्रशासनिक मामले व निर्णय की व्यक्तिगत स्तर पर जाँच कर सकता है।
इतना ही नहीं बल्कि अब तक के अनुभव यह भी दर्शाते हैं कि आम आदमी को लोकतन्त्रात्मक प्रशासनिक मशीनरी की कार्यप्रणाली की असलियत का भी पता चलने लगा है। प्रशासनिक व्यवस्था के आडम्बरपूर्ण, विरोधाभासी, उदासीनता, निराशा, मनमर्जी और पर्दे के पीछे किए जा रहे दुराचारों की भी पोल खुलने लगी है। लोकतन्त्र की इन मौलिक कमियों के उजागर होने से अब आम नागरिक में प्रशासनिक व्यवस्था के बारे में और जानकारी प्राप्त करने की लालसा बढ़ी है। इससे शासक वर्ग और शासित वर्ग के मध्य परस्पर बहुस्तरीय सम्पर्क ही नहीं बढ़ेंगे बल्कि लोगों में शासन व्यवस्था के शोषणात्मक स्वरूप को सामने लाने का उत्साह भी बढ़ेगा और लोकतन्त्रात्मक ढाँचे को जन आवश्यकताओं के अनुरूप ढालने का अवसर भी प्राप्त होगा।
9. जनकष्टों की प्रकृति का रोग निदान (Diognostic view of public grievances)- इस अधिनियम के लागू होने से पहले नागरिकों को कोई भी दस्तावेज नहीं दिखाया जाता था। कोई भी अधिकारी उनकी महत्वपूर्ण फाइलों पर लाल फीताशाही रूपी कुंडली मारकर बैठ जाता था। यदि कोई नागरिक उसकी पूछताछ के लिए जाता था तो अधिकारी, यदि सामने फाइल रखी हैं तो भी यह कहकर टाल देता था कि अभी तक फाइल उसके पास नहीं आई है। इस कारण नागरिक मजबूरन अधिकारियों की मुट्ठी गरम करते थे। इस अधिनियम के बाद निर्णयों में देरी तो दूर हुई है, साथ ही साथ अन्य प्रशासनिक व्याधियों को भी समझने में सहायता मिली है। सूचना का अधिकार अधिनियम में प्रशासनिक मशीनरी की विरासत में मिली कई व्याधियों के लक्षणों को समझने की जानकारी मिली है। इनमें टालमटोल करने की प्रवृत्ति, अस्पष्ट और अनिश्चित उत्तरदात्यि, निष्क्रियता, मनमर्जी, शक्तियों का दुरुपयोग, भाई-भतीजावाद, अपर्याप्त पर्यवेक्षण, अयोग्यता, अकर्मण्यता, आडम्बर, अहंकार, अधिनायकतन्त्र, संरक्षणवाद, स्वेच्छाचारिता और पार्किन्सन के नियमानुसार बिना आवश्यकता के कार्यों का सृजन, आत्मप्रशंसा, आत्मतुष्टि, संकुचित दृष्टिकोण और प्रजातान्त्रिक प्रक्रियाओं के प्रति उदासीनता सम्मिलित है।
10. शासक वर्ग के इरादों को समझने का अवसर (An opportunity to understand the real intentions of ruling elites)- इस अधिनियम के द्वारा प्रत्येक सार्वजनिक प्राधिकरण के निर्णयों तक हर नागरिक की पहुँच सुनिश्चित की गई है। इसके द्वारा भ्रष्टाचार और गोपनीयता पर नियन्त्रण रखने का प्रयास किया गया है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद सरकार ने विकास के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च किए परन्तु उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा संगठित हितों की जेबों को भरता गया इसलिए भ्रष्टाचार जो विकास विरोधी और लोकतन्त्र विरोधी है, पर अंकुश लगाने के लिए यह कानून लागू किया गया। यदि विकास के लिए आवंटित राशि ज्यों की त्यों खर्च हो जाती तो आज देश की तस्वीर ही बदल जाती, पर ऐसा नहीं हुआ क्योंकि सत्तापक्ष के लोगों की मानसिकता विकासोन्मुख नहीं थी। उनकी प्रतिबद्धता, भावना और सोच सरकारी फंडों का सदुपयोग करने की नहीं थी। अब इस अधिकार के माध्यम से आम नागरिक यह समझने लगे हैं कि सत्ता में बैठे शासकों का व्यवहार किराया वसूलने (Rent seeking behaviour) का है, जिसमें किसी भी प्रकार की गई सेवा या लाभ के बदले में कुछ वसूल किया जाता है। रोब जैकिस ने अपने अध्ययन में पाया कि भारत में आर्थिक सुधारों को लागू करने के लिए सत्तावर्ग करिश्माई व्यूह रचना (Voodooism) अपनाता है, जिसके द्वारा उनके वास्तविक इरादे हमेशा परदे के पीछे रहते हैं। इस अधिनियम के द्वारा सत्तासीन लोगों की असली मानसिकता का पर्दाफाश हुआ है।
11. सामाजिक-आर्थिक विकास को प्रेरणा प्रदान करना (An imputes for socio-economic development initiatives)- यदि भ्रष्टाचार पर अंकुश लग जाए और अधिकारी शासितों के प्रति उत्तरदायित्वपूर्ण व्यवहार करें तो निश्चित तौर पर इस देश की विभिन्न प्रशासकीय इकाइयों के द्वारा क्रियान्वित की जा रही विकास योजनाओं को एक नवीन दिशा मिलेगी। देश के विभिन्न भागों में सूचना का अधिकार अधिनियम पर नागरिकों के अनुभव यह स्पष्ट दर्शाते हैं कि पंचायती राज व्यवस्था की कार्यप्रणाली, वृद्धावस्था पेंशन, समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम, सामाजिक बीमा, चिकित्सा सहायता, निःशक्तजनों का पुनर्वास, बन्धुआ मजदूरी उन्मूलन, बेबस महिलाओं, वृद्धों, महिलाओं और बच्चों का कल्याण तथा पिछड़े वर्गों के लिए सामाजिक न्याय और समानता आदि पर महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त की हैं जिससे इन क्षेत्रों की सेवाओं की शिथिल गति को एक प्रेरणा शक्ति मिली है। इससे सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय की भावना पर आधारित कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को लागू किया जाता है, जिसमें सभी नागरिकों का सर्वांगीण विकास हो सके।
12. जीवन सम्बन्धी अनिवार्य आवश्यकताओं का संरक्षण- सूचना के अधिकार को जीने के अधिकार के साथ भी जोड़कर देखा जाता है क्योंकि इस अधिकार के द्वारा नागरिकों ने उन सेवाओं और वस्तुओं को प्राप्त करने के प्रयास किए हैं जिनका प्रत्यक्ष सम्बन्ध आदमी के वजूद से है। जिन मौलिक आवश्यकताओं के बिना व्यक्ति जिन्दा नहीं रह सकता उनसे सम्बन्धित विषयों पर नागरिकों ने शासन व्यवस्था से सूचनाएँ माँगी हैं। यदि सूचना का अधिकार अधिनियम पर माँगी गई सूचनाओं का सर्वेक्षण किया जाए तो एक झलक स्पष्ट होती है कि आवेदकों ने जनवितरण प्रणाली के अन्तर्गत खाद्यान्न वितरण, इन्दिरा आवास योजना के तहत मकान आवंटन, जल आपूर्ति, बिजली आपूर्ति और सरकारी सहायता प्राप्त अस्पतालों में मरीजों का इलाज आदि पर प्रश्न पूछे गये हैं। इसके अतिरिक्त इन मूलभूत सेवाओं से ही जुड़ी हुई अन्य सेवाओं जैसे-शिक्षा, सुरक्षा, कानून और सामाजिक सौहार्द पर भी नागरिकों ने सूचनाएँ एकत्रित की हैं। यही नहीं बल्कि अधिनियम की धारा 7 (1) के अनुसार जीवन या स्वतन्त्रता से सम्बन्धित किसी भी सूचना को अनुरोध प्राप्ति के 48 घण्टों के भीतर प्रदान करने की बाध्यता निश्चित करता है। अतः यह जीवन से सम्बन्धित आवश्यकताओं को महत्व प्रदान करता है।
13. ज्ञान पर आधारित समाज की अवधारणा का पोषण करना (Fostering knowledge based society) – आर० टी० आई० के विभिन्न प्रावधानों में यह व्यवस्था की गई है कि नागरिकों को सुलभ, तत्काल और सस्ती सूचना प्रदान करने के लिए सभी सरकारी विभागों को सूचना प्रौद्योगिकी की तकनीक ई-गवर्नेस को अपनाना चाहिए। इससे प्रशासनिक दक्षता का विस्तार होगा और नागरिक सशक्त होंगे। अतः अधिनियम के उद्देश्य को ई-गवर्नेस के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। यह भी कहा जा सकता है कि आर० टी० आई० और ई-गवर्नेस एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं। अब नागरिकों में सूचना के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा विकसित होने लगी है। इस प्रकार ई-गवर्नेस आने के बाद सूचना प्रौद्योगिकी के उपयोग से एक ज्ञान पर आधारित समाज (knowledge society) का जन्म हुआ है, जिससे सामान्य व्यक्ति के जीवन स्तर को ऊपर उठाने में सफलता प्राप्त हुई है। इससे अधिनियम के तहत माँगी गई सूचनाओं को प्रदान करने में सफलता ही नहीं मिलेगी बल्कि देश के सर्वांगीण विकास में गति आएगी। ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों में विकास की असमानता को दूर करने में सफलता प्राप्त होगी, प्रत्येक नागरिक सशक्त और सूचित होगा और शिक्षा, ग्रामीण सेवाओं, औद्योगिक श्रम, पुलिस, सीमा शुल्क और सरकारी क्षेत्रों के अतिक्रमण से सम्बन्धित समस्याओं का समाधान सम्भव होगा। भारत सरकार और राज्य सरकारों ने नागरिकों को अधिक से अधिक सूचनाएँ मुहैया करवाने के लिए फ्रैंड्स, इन्टरनेट ढाबा, ज्ञानदूत, ई-सेवा, ई-खजाना, ई-दिशा, भूमि और लोकवाणी आदि कार्यक्रम आरम्भ किए हैं।
14. शाश्वत मानव मूल्यों का संरक्षण (Preservation of Prennial human values)- इस अधिनियम की उत्पत्ति और विकास के पीछे मानव सभ्यता और मानव स्वतन्त्रता का इतिहास जुड़ा है। ज्यों-ज्यों मानव सभ्य, समझदार, सुसंगत और स्वतन्त्र होता जाएगा त्यों-त्यों वह अपने सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक वातावरण को स्वछन्द और पारदर्शी बनाता जाएगा। इसका प्रमाण शासन व्यवस्था पर भी पड़ेगा। निरंकुश तानाशाही, राजशाही और प्रजातन्त्र भी इसके अपवाद नहीं हैं। डॉ० अभय सिंह यादव के शब्दों में “मनुष्य का बौद्धिक विकास जब इस अवस्था में पहुँच गया कि उसकी मौलिक स्वतन्त्रता ने स्वच्छन्दतापूर्ण समाज की परिकल्पना कर डाली तो स्वशासन का रूप प्रकट हुआ। इसी स्वशासन की अभिव्यक्ति प्रजातन्त्र में हुई। प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के विकास ने मनुष्य को बहुआयामी अधिकार प्रदान किए एवं इन्हीं अधिकारों में व्यक्तिगत अभिव्यक्ति का अधिकार भी सम्मिलित हुआ जिसकी एक परिकल्पना सूचना के अधिकार के रूप में हुई।” इसलिए अत्याचार, शोषण और उत्पीड़न के विरोध के पीछे मानव की स्वतन्त्रता और सूचना के प्राप्त करने की इच्छा उत्तरदायी है। अतः यह अधिकार शाश्वत मानव मूल्यों को विकसित और संरक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इन मानव मूल्यों में सत्यता, ईमानदारी, जनहित, समानता, सहनशीलता, सहानुभूति और न्याय सम्मिलित हैं।
15. जनसेवाओं की आपूर्ति की प्रक्रिया में सुधार की सम्भावना (Possibility for reforms in the delivery of public services)- यह सर्वमान्य तथ्य है कि विभिन्न जनसेवाओं की आपूर्ति में सुधार करने से नागरिकों को गुणात्मक सेवाएँ मिल सकती हैं। इस अधिनियम के द्वारा जनसेवाओं की शिथिलता की तस्वीर सामने आती है। विभिन्न शोध अध्ययनों से यह प्रमाणित हो चुका है कि सुशासन के लिए जनसेवाओं में आपूर्ति का स्तर सर्वश्रेष्ठ होना चाहिए। नागरिकों को इस बात की पूरी जानकारी मिलनी चाहिए कि लोक प्रशासन के पदाधिकारी किस प्रकार सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वाह कर रहे हैं। इसके लिए लोक संगठनों को नागरिकों और सामुदायिक संगठनों के प्रति उत्तरदायी बनाने की आवश्यकता है। विभिन्न विकसित देशों में लोक प्रशासन द्वारा संचालित सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए मूल्यांकन की अनेक विधियों और मामलों को अपनाया गया है। इसमें निरीक्षण और लोक लेखा परीक्षण सम्मिलित हैं। ई-सैक्स विश्वविद्यालय के मानव अधिकार केन्द्र और लीड्स विश्वविद्यालय के प्रजातान्त्रिक अध्ययन केन्द्र के संयुक्त तत्वाधान में पत्रकारों, शिक्षकों, वकीलों और शोधकर्ताओं ने लोकतन्त्रात्मक लेखा परीक्षण करने का निर्णय लिया जिसके द्वारा लोक प्रशासन की जनसेवाओं को इस प्रकार सुधारा जा सके कि नागरिकों के जीवन में गुणात्मक सुधार हो और लोक प्रशासन उत्तम शासन के स्तर पर पहुँच सके।
16. न्याय प्रणाली में सहायक – यदि किसी व्यक्ति के अधिकारों और स्वतन्त्रताओं का कोई व्यक्ति, संस्था या सरकार उल्लंघन करती है तो वह न्यायपालिका की शरण ले सकता है। न्यायपालिका का यह कर्तव्य है कि वह कानूनों की व्याख्या करके अधिकारों की रक्षा करे। भारत में एक सूत्रीय स्तम्भ के आधार पर न्याय व्यवस्था का गठन किया गया है जिसमें शिखर पर सर्वोच्च न्यायालय है और इसके अधीन राज्यों के उच्च न्यायालय और उनके अधीन जिला स्तर के न्यायालय हैं। न्यायपालिका निर्णय सुनाते समय साक्ष्यों, दस्तावेजों और प्रामाणिक सूचनाओं को आधार मानती है। इस अधिनियम के लागू हो जाने के बाद कोई भी नागरिक ऐसे महत्त्वपूर्ण दस्तावेज और सूचनाएँ एकत्रित कर सकता है, जो उसे न्यायालयों में चल रहे मुकदमों की पैरवी करने में रामबाण का काम करते हैं। इससे पूर्व ऐसा सम्भव नहीं था। इसलिए यह अधिनियम न्याय प्रक्रिया को सक्रियता प्रदान करता है जिससे देश में विधि एवं न्याय का शासन स्थापित करने में मदद मिलती है।
17. मीडिया के लिए लाभदायक – किसी भी लोकतन्त्रात्मक व्यवस्था में मीडिया को सरकार का चौथा स्तम्भ माना जाता है क्योंकि मीडिया नागरिकों को सरकार की मनमानी और शोषण के कृत्यों को सार्वजनिक करके उनकी पोल खोलते हुए एक सशक्त प्रहरी की भूमिका निभाता है। सरकार की आन्तरिक कार्यप्रणाली के दोषों को उजागर करने में अब सूचना का अधिकार अधिनियम का उपयोग काफी बढ़ा है। विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक एवं प्रिंट मीडिया के पत्रकार इस अधिनियम का प्रयोग करते हुए प्रशासन की कमजोरियों व दोषों से सम्बन्धित खबरों को प्रकाशित करते हैं। वरिष्ठ पत्रकार भारत डोगरा का लेखन और भीलबाग राजस्थान के भंवर मेघवंशी की डायमंड इण्डिया नाम की पत्रिका इस दिशा में काम कर रहे हैं।
प्रश्न 5. सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के प्रमुख उद्देश्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
Explain briefly the main objects of Right to Information Act, 2005.
अथवा/Or
पारदर्शिता के संदर्भ में सूचना अधिकार अधिनियम, 2005 के उद्देश्य एवं कारणों का मूल्यांकन कीजिए।
Evaluate the object and reasons of the Right to Information Act, 2005, with reference to transparency.
उत्तर- सूचना के अधिकार अधिनियम का उद्देश्य, देश में पारदर्शी, भ्रष्टाचार मुक्त और जनता के प्रति जवाबदेह शासन व्यवस्था स्थापित करना इसका मुख्य उद्देश्य है। इस दौरान यदि सूचना के प्रकटन और अन्य हितों के मध्य संघर्ष उत्पन्न हो जाए, तो लोकतन्त्रात्मक आदर्शों को सर्वश्रेष्ठता प्रदान की जाएगी। अतः अधिनियम भ्रष्टाचार और गोपनीयता के मध्य आंगिक सम्बन्ध स्थापित करता है क्योंकि बुराई अथवा भ्रष्टाचार को पनपने के लिए गोपनीयता रूपी पर्दे की आवश्यकता होती है। किसी भी अवैध अथवा गैर-कानूनी कार्य के सफलतापूर्वक निष्पादन के लिए गोपनीयता का होना अति आवश्यक है और यदि शासन व्यवस्था को पूर्णरूप से पारदर्शी बना दिया जाए तो भ्रष्टाचार की सम्भावना कम हो जाती है।
अधिनियम के द्वारा प्रशासनिक तन्त्र की कार्यकुशलता से जुड़े उन मामलों को गोपनीय रखा गया है जिनके प्रकटन से जनहित की अनदेखी होने की सम्भावना है। अतः जनहित और व्यक्तिगत हित के मध्य सामंजस्य एवं तालमेल बनाए रखने पर जोर दिया गया है। सर्वोच्च राष्ट्रीय हित से सम्बन्धित कुछ मामलों को अधिनियम की परिधि से बाहर रखा गया है। इस प्रकार इस बात पर बल दिया गया है कि नागरिकों को अधिकाधिक सूचनाएँ उपलब्ध करवाई जाएँ परन्तु साथ ही साथ राष्ट्रहित एवं जनहित का भी ध्यान रखा जाए।
सूचना के अधिकार अधिनियम की पृष्ठभूमि एवं उद्देश्य इस प्रकार हैं- “प्रत्येक लोक प्राधिकारी के कार्यकरण में पारदर्शिता और उत्तरदायित्व के सम्बर्धन के लिए लोक प्राधिकारियों के नियन्त्रणाधीन सूचना तक पहुँच सुनिश्चित करने के लिए नागरिकों के सूचना के अधिकार की व्यावहारिक शासन पद्धति स्थापित करने, एक केन्द्रीय सूचना आयोग तथा राज्य सूचना आयोग का गठन करने और उनसे सम्बन्धित या उनसे आनुषंगिक विषयों का उपबन्ध करने के लिए अधिनियम।”
भारत के संविधान ने लोकतन्त्रात्मक गणराज्य की स्थापना की है और लोकतन्त्र शिक्षित नागरिक वर्ग तथा ऐसी सूचना की पारदर्शिता की अपेक्षा करता है जो उसके कार्यकरण तथा भ्रष्टाचार को रोकने के लिए भी और सरकारों तथा उनके अभिकरणों को शासन के प्रति उत्तरदायी बनाने के लिए अनिवार्य है।
वास्तविक व्यवहार में सूचना प्रकटन से सम्भवतः अन्य लोकहितों, जिनके अन्तर्गत सरकारों के दल प्रचालन, सीमित राज्य वित्तीय संसाधनों के अधिकतम उपयोग और संवेदनशील सूचना की गोपनीयता को बनाए रखना भी है, के साथ विरोध हो सकता है और लोकतन्त्रात्मक आदर्श की प्रभुता को बनाए रखते हुए इन विरोधी हितों के बीच सामंजस्य बनाना आवश्यक है।
सूचना अधिकार अधिनियम का मुख्य उद्देश्य संसूचित नागरिकों के सहयोग से पारदर्शी शासन व्यवस्था स्थापित करना है, जिससे भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन एवं जनता के प्रति जवाबदेह व्यवस्था का सृजन हो सके। यदि उक्त उद्देश्य की वृहद् व्याख्या की जाए तो उक्त उद्देश्य एक सारगर्भित परिणाम की उत्कंठा को प्रकट करता है। भ्रष्टाचार एवं गोपनीयता का गहरा सम्बन्ध है क्योंकि भ्रष्टाचार मानव की निकृष्ट प्रवृत्ति का परिणाम है अतः बिना गोपनीयता के इसकी सम्भावना क्षीण होती है। यद्यपि मनुष्य अनेक प्रकार की बुराइयों से ग्रस्त है। परन्तु यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि सामान्य व्यक्ति सार्वजनिक रूप से बुराई जानबूझ कर कम करने की बहुत कम हिम्मत करता है। बुराई को आमतौर पर पर्दे की जरूरत होती है चाहे उसका कोई भी स्वरूप हो। भ्रष्टाचार एवं गोपनीयता तो और भी गहराई से जुड़े हैं क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार एक स्पष्ट अपराध है एवं यह कानून का उल्लंघन है। भ्रष्टाचार के परिणामस्वरूप सरकारी व्यवस्था का एक पांव उक्त व्यवस्था के स्थापित नियमों एवं कानूनों के विरुद्ध किसी व्यक्ति अथवा संस्था को अवैध रूप से लाभ पहुँचाता है एवं उक्त कार्य के बदले उसे अवैध लाभ व्यक्तिगत रूप से मिलता है। अतः स्पष्ट रूप से व्यवस्था में इस प्रकार के कार्य का कोई प्रावधान नहीं होता। अतः इस अवैध कार्य के सफलतापूर्वक निष्पादन के लिए गोपनीयता का होना अति आवश्यक है। परन्तु यदि गोपनीयता भंग होती है तो कानून का शिकंजा तुरन्त प्रभावशाली हो सकता है। अतः यदि व्यवस्था पूर्ण रूप से पारदर्शी बना दी जाए तो भ्रष्टाचार की सम्भावना उसी अनुपात में क्षीण होती चली जाएगी। अतः सूचना के अधिकार की उत्पत्ति एवं इसका सफलतापूर्वक पालन एक भ्रष्टाचारमुक्त शासन व्यवस्था में विकास की एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है।
इस अधिनियम का एक अन्य उद्देश्य संसूचित नागरिकों के माध्यम से सरकारी तन्त्र को और अधिक जवाबदेह बनाना है। प्रशासन की जवाबदेही प्रशासनिक गुणवत्ता एवं व्यक्तिगत गुणवत्ता दोनों में सार्थक उपलब्धियाँ प्रदान करेगी। जवाबदेही से जिम्मेदारी बढ़ेगी एवं जिम्मेदारी व्यक्ति को अधिक सावधान एवं कार्यकुशल बनाती है। सरकारी कर्मचारी या अधिकारी को कोई भी सरकारी कार्य करते या निर्णय लेते समय जब इस बात का आभास होगा कि उक्त कार्य या निर्णय के लिए उसे जवाबदेह ठहराया जा सकता है एवं उक्त निर्णय की जानकारी कोई भी व्यक्ति किसी भी समय प्राप्त कर सकता है तो उक्त कर्मचारी/ अधिकारी अपना कार्य समस्त पहलुओं पर भली प्रकार विचारोपरान्त करेंगे एवं अपनी क्षमता एवं बुद्धि का अधिकतम उपयोग करेंगे। इस प्रकार से न केवल निष्पादित कार्य की गुणवत्ता में सुधार होगा, अपितु व्यक्तिगत क्षमता के विकास की सम्भावनाएँ भी अधिक प्रबल होंगी।