‘Reasonable Restriction’ का मतलब क्या वास्तव में “Reasonable” है? – संवैधानिक न्याय, विवेक और सीमाओं की पड़ताल

शीर्षक: ‘Reasonable Restriction’ का मतलब क्या वास्तव में “Reasonable” है? – संवैधानिक न्याय, विवेक और सीमाओं की पड़ताल

भूमिका:

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1) नागरिकों को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, संघ बनाने, आवागमन, निवास और व्यवसाय करने का अधिकार देता है। परंतु अनुच्छेद 19(2) से 19(6) तक इन स्वतंत्रताओं पर “Reasonable Restrictions” लगाने की अनुमति देता है। यहां सवाल यह उठता है कि क्या वास्तव में ये “Reasonable” अर्थात वाजिब या न्यायोचित प्रतिबंध होते हैं? यह लेख इसी अवधारणा की गहराई से जांच करता है कि क्या ये प्रतिबंध नागरिक स्वतंत्रता और राज्य नियंत्रण के बीच संतुलन बनाते हैं या कहीं यह राज्य के निरंकुश नियंत्रण का उपकरण बनते जा रहे हैं।


1. ‘Reasonable Restriction’ की अवधारणा:

‘Reasonable Restriction’ का तात्पर्य ऐसे प्रतिबंधों से है जो किसी लोकतांत्रिक समाज में आवश्यक और न्यायसंगत हों। यह न तो मनमाना हो, न ही अत्यधिक। इस सिद्धांत का उद्देश्य अधिकारों की रक्षा के साथ-साथ समाज के व्यापक हितों की सुरक्षा करना है।

उदाहरण: अनुच्छेद 19(1)(a) में भाषण की स्वतंत्रता है, लेकिन 19(2) में कहा गया है कि यह स्वतंत्रता सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता, नैतिकता, राज्य की सुरक्षा आदि के आधार पर सीमित की जा सकती है।


2. ‘Reasonableness’ की कसौटी: क्या वास्तव में न्यायोचित है?

इसका मूल्यांकन निम्नलिखित बिंदुओं पर होता है:

  • उद्देश्य की वैधता: क्या प्रतिबंध का उद्देश्य समाज के हित में है?
  • अनुपातिकता सिद्धांत (Doctrine of Proportionality): क्या उपाय आवश्यकता से अधिक कठोर है?
  • वैकल्पिक उपायों की उपलब्धता: क्या राज्य ने कम कठोर उपायों की तलाश की?
  • न्यायिक परीक्षण: क्या न्यायालयों ने इसे विवेकपूर्ण और संतुलित माना है?

न्यायिक दृष्टांत:
Modern Dental College v. State of Madhya Pradesh (2016) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘Reasonable Restriction’ का परीक्षण करते समय ‘Proportionality Test’ को अपनाना चाहिए।


3. व्यावहारिक यथार्थ बनाम संवैधानिक आदर्श:

हाल के वर्षों में यह देखा गया है कि राज्य कभी-कभी सार्वजनिक व्यवस्था या सुरक्षा के नाम पर नागरिक स्वतंत्रताओं पर कठोर नियंत्रण लगा देता है, जैसे—

  • धारा 144 का बार-बार उपयोग
  • इंटरनेट शटडाउन, विशेषकर जम्मू-कश्मीर जैसे क्षेत्रों में
  • यूएपीए (UAPA) और देशद्रोह कानून का दुरुपयोग

इन परिस्थितियों में ‘Reasonable Restriction’ का उपयोग कई बार राजनीतिक असहमति को दबाने का साधन बन जाता है, जिससे इसकी ‘Reasonableness’ पर सवाल उठता है।


4. न्यायपालिका की भूमिका:

भारत की न्यायपालिका ने अनेक बार ‘Reasonable Restriction’ की अवधारणा को परिभाषित करने का प्रयास किया है। परंतु कई बार न्यायपालिका की चुप्पी या देर से हस्तक्षेप नागरिक स्वतंत्रता के क्षरण को रोक नहीं पाता।

उदाहरण:
Romesh Thappar v. State of Madras (1950) में कहा गया कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध केवल तभी लगाया जा सकता है जब वह सीधे सार्वजनिक व्यवस्था को प्रभावित करे।


5. संतुलन की आवश्यकता:

एक सशक्त लोकतंत्र में न तो स्वतंत्रता निरंकुश होनी चाहिए, न ही राज्य का नियंत्रण सर्वव्यापी। ‘Reasonable Restriction’ को हमेशा संविधान की भावना और मौलिक अधिकारों के उद्देश्यों के अनुरूप संतुलित रखना आवश्यक है।


निष्कर्ष:

‘Reasonable Restriction’ का अर्थ तभी तक ‘Reasonable’ है जब तक वह तर्क, आवश्यकता और न्यायसंगतता की कसौटी पर खरा उतरता है। लेकिन जब ये प्रतिबंध राजनीतिक या प्रशासनिक लाभ के लिए लगाए जाते हैं, तो यह “Reasonable” न रहकर “Repressive” (दमनकारी) बन जाते हैं। अतः यह जरूरी है कि नागरिक सतर्क रहें, राज्य जिम्मेदार हो, और न्यायपालिका सजग बनी रहे ताकि संवैधानिक स्वतंत्रता की आत्मा जीवित रह सके।


अंतिम टिप्पणी:
लोकतंत्र की सुंदरता इसमें है कि वह आलोचना सहता है, विरोध को स्थान देता है और अधिकारों को सीमाओं के साथ जीने की आज़ादी देता है। पर जब ‘सीमा’ ही ‘स्वतंत्रता’ को निगलने लगे, तब आत्मनिरीक्षण आवश्यक हो जाता है — कि क्या “Reasonable Restriction” अब भी Reasonable है?