R. Nagaraj (Dead) Through LRs. & Anr. बनाम Rajmani & Others (सुप्रीम कोर्ट, 2024): देरी से दायर वाद की अस्वीकृति में धारा 3, परिसीमा अधिनियम का अनुप्रयोग

शीर्षक: R. Nagaraj (Dead) Through LRs. & Anr. बनाम Rajmani & Others (सुप्रीम कोर्ट, 2024): देरी से दायर वाद की अस्वीकृति में धारा 3, परिसीमा अधिनियम का अनुप्रयोग


परिचय:

भारत के विधि तंत्र में परिसीमा अधिनियम, 1963 (Limitation Act, 1963) एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जिसका उद्देश्य न्यायिक मामलों में निश्चित समयसीमा के भीतर कार्यवाही सुनिश्चित करना है। अधिनियम की धारा 3 स्पष्ट रूप से न्यायालय को यह निर्देश देती है कि यदि कोई वाद, अपील या आवेदन समय-सीमा से परे दायर किया गया है, तो न्यायालय को उसे खारिज करना ही होगा, भले ही प्रतिवादी ने इसकी कोई आपत्ति न उठाई हो।

R. Nagaraj (Dead) Through LRs. and Another vs. Rajmani and Others का फैसला इस विधिक सिद्धांत को सुदृढ़ करता है और स्पष्ट करता है कि न्यायालय स्वतः संज्ञान लेकर भी किसी वाद को time-barred (समयबद्ध सीमा से परे) होने के आधार पर खारिज कर सकता है, भले ही इस विषय पर कोई स्पष्ट मुद्दा (issue) निर्धारित न किया गया हो।


मामले का संक्षिप्त विवरण:

  • मामला: R. Nagaraj (Dead) Through LRs. and Another v. Rajmani and Others
  • न्यायालय: भारत का सर्वोच्च न्यायालय
  • वर्ष: 2024
  • विषय: परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 3 का विवेचन
  • प्रमुख विधिक प्रश्न: क्या न्यायालय उस स्थिति में भी वाद को समयबद्ध सीमा से बाहर होने के कारण खारिज कर सकता है, जब limitation से संबंधित कोई विशेष मुद्दा निर्धारित नहीं किया गया हो?

न्यायालय की विवेचना:

सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि:

  1. धारा 3 की अनिवार्यता:
    परिसीमा अधिनियम की धारा 3 न्यायालय पर बाध्यकारी है। यदि यह स्पष्ट होता है कि कोई वाद, अपील या आवेदन कानून द्वारा निर्धारित समय-सीमा के भीतर दायर नहीं किया गया है, तो न्यायालय को उसे खारिज करना ही होगा, चाहे प्रतिवादी ने इसका उल्लेख अपने लिखित बयान में किया हो या नहीं।
  2. Issues की आवश्यकता नहीं:
    न्यायालय ने कहा कि यह आवश्यक नहीं है कि limitation के प्रश्न पर विशेष रूप से कोई ‘issue’ (मुद्दा) तय किया जाए। न्यायालय अपनी स्वतंत्र जांच के माध्यम से भी यह निर्णय ले सकता है कि वाद समयबद्ध सीमा से परे है।
  3. न्यायिक दायित्व:
    न्यायालय का यह कर्तव्य है कि वह वाद को प्रारंभिक स्तर पर ही यह जांचे कि क्या वह समय के भीतर दायर किया गया है। यह सिद्धांत न्यायिक दक्षता एवं विधिक प्रक्रिया की पवित्रता बनाए रखने के लिए अत्यंत आवश्यक है।

न्यायालय का निष्कर्ष:

सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि जब वाद स्पष्ट रूप से परिसीमा की अवधि के बाहर दायर किया गया हो और वादी द्वारा देरी के लिए कोई उचित कारण प्रस्तुत नहीं किया गया हो, तो न्यायालय के पास उसे खारिज करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, भले ही कोई प्रतिवादी इस मुद्दे को न उठाए और न ही इस पर कोई विशिष्ट मुद्दा (issue) तय किया गया हो।


महत्वपूर्ण विधिक सिद्धांत जो स्थापित हुआ:

  • धारा 3, परिसीमा अधिनियम न्यायालय पर बाध्यकारी आदेश है।
  • न्यायालय suo motu (स्वतः संज्ञान) भी किसी वाद को समयबद्ध सीमा से परे मानकर खारिज कर सकता है।
  • यह सिद्धांत विधिक प्रक्रिया की कुशलता एवं न्यायिक संसाधनों की बचत के लिए आवश्यक है।

निष्कर्ष:

R. Nagaraj बनाम Rajmani का यह निर्णय भारतीय न्यायप्रणाली में परिसीमा के सिद्धांत की केंद्रीयता को पुनः रेखांकित करता है। यह निर्णय यह स्पष्ट करता है कि कानून केवल न्याय देने के लिए नहीं बल्कि उचित समय में न्याय देने के लिए भी प्रतिबद्ध है। यह न्यायालयों को यह अधिकार और दायित्व दोनों देता है कि वे समयबद्धता के अभाव में वादों को खारिज करें, जिससे अनावश्यक मुकदमेबाजी और देरी से न्याय की प्रक्रिया को रोका जा सके।

यह निर्णय विधि छात्रों, अधिवक्ताओं और न्यायिक अधिकारियों के लिए परिसीमा अधिनियम की व्याख्या में एक महत्वपूर्ण मार्गदर्शक सिद्धांत प्रस्तुत करता है।