प्रश्न 1. अन्तर्राष्ट्रीय विधि की परिभाषा दीजिए।
Define “International Law”.
उत्तर- अन्तर्राष्ट्रीय विधि-‘अन्तर्राष्ट्रीय विधि’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग इंग्लैण्ड के विद्वान जेमी बेंधम ने सन् 1780 में किया था। अन्तर्राष्ट्रीय विधि की कुछ प्रख्यात विधिशास्त्रियों द्वारा दी गई परिभाषाएँ निम्न हैं –
ओपेनहाइम के अनुसार, “राष्ट्रों की विधि अथवा अन्तर्राष्ट्रीय विधि उन रूढ़िजन्य तथा परम्परागत नियमों के समूह को कहते हैं, जिन्हें सभ्य राष्ट्र अपने पारम्परिक व्यवहारों में बन्धनकारी मानते हैं।”
फेन्विक के अनुसार, “अन्तर्राष्ट्रीय विधि की परिभाषा विस्तृत शब्दों में उन सामान्य सिद्धान्तों तथा विशेष नियमों के समूह द्वारा की जा सकती है जो अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के सदस्यों के पारस्परिक सम्बन्धों पर बन्धनकारी होते हैं। “
स्टार्क के अनुसार, “अन्तर्राष्ट्रीय विधि नियमों का वह समूह है जिसमें अधिकांशतः (राज्यों के आचरण सम्बन्धी) वह सिद्धान्त तथा नियम हैं जिन्हें वह अपने ऊपर बन्धनकारी महसूस करते हैं तथा सामान्यत: उन्हें अपने पारस्परिक सम्बन्धों में मानते हैं और जिसके अन्तर्गत निम्नलिखित भी आते हैं –
(अ) अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के कार्यों-सम्बन्धी, उनके पारस्परिक सम्बन्धों तथा उनके राज्यों तथा व्यक्तियों के सम्बन्धों से सम्बन्धित विधि के नियम,
(ब) व्यक्तियों तथा गैर-राज्य इकाइयों से सम्बन्धित वह नियम जिसका सम्बन्ध अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय से है। स्टार्क द्वारा दी गयी परिभाषा उपयुक्त तथा वर्तमान समय के अनुकूल है।
निष्कर्ष – उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि ऐसे नियमों का समूह है जो कि अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के सदस्यों के पारस्परिक सम्बन्धों को नियन्त्रित करता है।
प्रश्न 2. क्या आप ऑस्टिन के इस विचार से सहमत हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि केवल “सकारात्मक नैतिकता” है।
Do you agree with the Austinian view that International Law is a mere “Positive morality”.
उत्तर– आस्टिन के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय विधि यथार्थ में विधि नहीं है बल्कि यह आचरण सम्बन्धी नियमों की संहिता है जिसे केवल नैतिकता का ही बल प्राप्त है तथा इसमें अपने से वरिष्ठ की आज्ञा के समान बाध्यकारी बल की कमी है। अत: ऑस्टिन ने अन्तर्राष्ट्रीय विधि को यथार्थ में विधि न मानकर सिर्फ सकारात्मक नैतिकता माना है। ऑस्टिन के अनुसार प्रत्येक निश्चयात्मक विधि एक सम्प्रभु द्वारा अपने अधीनस्थ राज्य के व्यक्ति अथवा व्यक्तियों के लिए निर्धारित की जाती है जबकि अन्तर्राष्ट्रीय विधि सिर्फ समान सम्मति (सहमति) के आधार पर निर्धारित विधि है और अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अन्तर्गत अधिरोपित कर्त्तव्य नैतिक शक्ति द्वारा लागू किये जाते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय विधि जिनके ऊप लागू होती है, वे सम्प्रभु राष्ट्र हैं जिनके ऊपर कोई सम्प्रभुता (Sovereignty) नहीं है। ऑस्टिन ने अन्तर्राष्ट्रीय विधि को अन्तर्राष्ट्रीय नैतिकता कहा है जिसमें सामान्य रूप से मान्य सम्मतियाँ सम्मिलित हैं।
स्टार्क ने ऑस्टिन के इस विचार का विरोध करते हुए निम्न आधार बताये-(1) कई समुदायों में कुछ प्रथाओं तथा रूढ़ियों के पीछे कोई प्राधिकारिक वैध शक्ति (legal sovereign power) नहीं होती परन्तु उनकी वैधता में इस आधार पर कोई अन्तर नहीं पड़ता। (2) ऑस्टिन के विचार उनके अपने समय में भले ही ठीक रहे हों परन्तु उन्हें आज की परिस्थितियों में लागू नहीं माना जा सकता जहाँ सम्प्रभु (sovereign) को भी विधि के शासन (rule of law) के अन्तर्गत लाया गया है। (3) अन्तर्राष्ट्रीय विधि विभिन अन्तर्राष्ट्रीय पदों पर कार्य करने वाले व्यक्तियों पर बाध्यकारी है।
प्रश्न 3. “अन्तर्राष्ट्रीय विधि विधिशास्त्र का लुप्तप्राय बिन्दु है।” स्पष्ट कीजिए।
“International Law is the Vanishing Point of Jurisprudence.” Explain.
उत्तर- हालैण्ड का यह कथन है कि “अन्तर्राष्ट्रीय विधि विधिशास्त्र का लुप्तप्राय विन्दु है।” इस पर हालैण्ड तर्क प्रस्तुत करते हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि के नियमों का पालन शिष्टतावश किया जाता है तथा इसको विधि की कोटि में नहीं रखा जाना चाहिए क्योंकि इसमें अनुशास्ति का अभाव है। आस्टिन भी इस मत से सहमत हैं, परन्तु उनका यह कथन उचित प्रतीत नहीं होता।
आज जब अन्तर्राष्ट्रीय विधि का यथेष्ट विकास हो चुका है, यह मत उचित प्रतीत नहीं होता है। अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय एक पंच का कार्य करता है जो संयुक्त राष्ट्र का प्रमुख अंग है। अनुच्छेद 94 में प्रत्येक सदस्य ने न्याय के अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के निर्णय का पालन करने का संकल्प किया है।
अन्तर्राष्ट्रीय विधि की अनुशास्तियों की तुलना राज्य विधि की अनुशास्तियों से करना उचित नहीं है क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय विधि एक विकेन्द्रीय प्रणाली में लागू होती है जबकि राज्य विधि एक केन्द्रीय प्रणाली में लागू होती है। अन्तर्राष्ट्रीय विधि की अनुशास्तियाँ जितनी प्रभावी हो सकती हैं, उतनी है। राज्य अन्तर्राष्ट्रीय विधि का पालन करते हैं तथा उसे अपने ऊपर बन्धनकारी मानते हैं।
प्रश्न 4. क्या अन्तर्राष्ट्रीय विधि दुर्बल विधि है?
Is International Law a weak Law?
उत्तर- अन्तर्राष्ट्रीय विधि दुर्बल विधि है (International Law is a Weak Law) — राज्यों के अभ्यास तथा अन्तर्राष्ट्रीय न्यायिक संस्थानों के अभ्यास अन्तर्राष्ट्रीय विधि के विधिक चरित्र को दर्शाते हैं। किन्तु यह मानना होगा कि यह राष्ट्रीय विधि की अपेक्षा एक दुर्बल विधि है। इसके नियम उतने प्रभावकारी नहीं हैं, जितने राष्ट्रीय विधि के नियम होते हैं। इसके निम्न कारण हैं
(1) अन्तर्राष्ट्रीय विधि में प्रभावकारी विधायनी शक्ति की कमी है। अन्तर्राष्ट्रीय विधि के नियम, जो मुख्य रूप से अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों तथा रूढ़ियों के परिणामस्वरूप बने हैं, राज्य के नियमों से क्षमता में तुलनीय नहीं हैं। कभी कभी सन्धियों के उपबन्धों का पक्षकार अपनी इच्छानुसार निर्वचन करते हैं।
(2) यद्यपि अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय में अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय है, जिसे वर्ल्ड कोर्ट (World Court) के नाम से जाना जाता है, फिर भी उसको सभी राज्यों के विवादों का निपटारा करने की अधिकारिता प्राप्त नहीं है। इस न्यायालय में राज्यों की सम्मति से ही वाद दाखिल किया जा सकता है।
(3) अन्तर्राष्ट्रीय विधि के नियमों का राज्यों द्वारा बार-बार उल्लंघन किया जाता है तथा अधिकारों के दावेदार विधि को अपने हाथ में ले लेते हैं। यद्यपि संयुक्त राष्ट्र चार्टर में आत्म-सहायता (Self-Help) के क्षेत्र को कम कर दिया गया है, फिर भी अन्तर्राष्ट्रीय विधि को पूर्ण रूप से लागू नहीं किया जा सकता है।
(4) राष्ट्रीय विधि के प्रभावकारी होने का एक बहुत बड़ा कारण यह है कि उनकी इकाइयाँ अत्यधिक दुर्बल हैं। इस कारण इनके नियमों का उल्लंघन करने वाले के ऊपर प्रभावी ढंग से नियन्त्रण किया जा सकता है।
इन सभी कारणों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि राष्ट्रीय विधि की अपेक्षा दुर्बल विधि है। यद्यपि अन्तर्राष्ट्रीय विधि और राष्ट्रीय विधि दो विभिन्न प्रणालियाँ हैं और दोनों में तुलना करना उचित नहीं कहा जा सकता, फिर भी यदि तुलना की जाती है तो यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि एक विधि है किन्तु यह एक दुर्बल विधि है परन्तु एक दुर्बल विधि भी विधि ही कही जाएगी। आज यदि अन्तर्राष्ट्रीय विधि दुर्बल है, तो यह केवल अपनी विशेषताओं और कुछ कमियों के कारण है। भविष्य में ये कमजोरियाँ दूर हो जायेंगी, तब अन्तर्राष्ट्रीय विधि भी राष्ट्रीय विधि की तरह प्रभावशाली हो जायेगी।
प्रश्न 5. लोक अन्तर्राष्ट्रीय विधि तथा प्राइवेट अन्तर्राष्ट्रीय विधि में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
Distinguish between Public International Law and Private International Law.
उत्तर– लोक अन्तर्राष्ट्रीय विधि एवं प्राइवेट अन्तर्राष्ट्रीय विधि में अन्तर- लोक या सार्वजनिक और प्राइवेट या वैयक्तिक अन्तर्राष्ट्रीय विधि में निम्नलिखित प्रमुख अन्तर है –
(1) सार्वजनिक अन्तर्राष्ट्रीय विधि प्राथमिक रूप से राज्यों तथा कुछ अंशों तक व्यक्तियों से सम्बन्धित है, जबकि वैयक्तिक अन्तर्राष्ट्रीय विधि मुख्यतया दो राज्यों के व्यक्तियों से सम्बन्धित है।
(2) वैयक्तिक अन्तर्राष्ट्रीय विधि राष्ट्रीय विधि का अंग है, जबकि सार्वजनिक अंन्तर्राष्ट्रीय विधि ऐसी नहीं है।
(3) सार्वजनिक अन्तर्राष्ट्रीय विधि राज्यों में समान रूप से लागू की जाती है, जबकि वैयक्तिक अन्तर्राष्ट्रीय विधि प्रत्येक राज्य में भिन्न-भिन्न होती है।
(4) वैयक्तिक अन्तर्राष्ट्रीय विधि मुख्यतया विधान मण्डल द्वारा निर्मित विधान द्वारा लागू की जाती है, जबकि सार्वजनिक अन्तर्राष्ट्रीय विधि रूढ़ियों तथा सन्धियों द्वारा विकसित होती है।
(5) सार्वजनिक अन्तर्राष्ट्रीय विधि सभी राज्यों पर लागू होती है। अतः इस विधि का एक मुख्य लक्षण है सार्वभौमीकरण (Universalization)। अन्तर्राष्ट्रीय विधि सभी राज्यों को सभी गतिविधियों से सम्बन्धित होती है चाहे वह अन्तरिक्ष में हो या चन्द्रमा या अन्य आकाश पिण्ड में अन्तर्राष्ट्रीय विधि की यह विशेषता इसको वैयक्तिक अन्तर्राष्ट्रीय विधि से भिन्न करती है।
प्रश्न 6. अन्तर्राष्ट्रीय विधि का विषय कौन है? राज्य या व्यक्ति अथवा दोनों? व्याख्या कीजिए।
Who is the subject of International Law? State or Individual or both? Explain.
उत्तर- अन्तर्राष्ट्रीय विधि के विषय (Subjects of International Law ) – अन्तर्राष्ट्रीय विधि के विषय या अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्ति उन इकाइयों को कहा जाता है जो अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व को धारण करते हैं। ओपेनहाइम के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्ति वह है, जो अन्तर्राष्ट्रीय विधि में विधिक व्यक्तित्व धारण करता है अर्थात् वह जो अन्तर्राष्ट्रीय विधि का इस प्रकार विषय है कि वह स्वयं अन्तर्राष्ट्रीय विधि द्वारा प्रदत्त अधिकारों, कर्त्तव्यों तथा शक्तियों का उपयोग कर सके और या तो प्रत्यक्षत: या अन्य राज्य के माध्यम से अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्ति के रूप में कार्य करने की क्षमता धारण करता हो। अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व प्राप्त करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय विधि द्वारा मान्य सभी अधिकारों तथा कर्त्तव्यों को धारण करना किसी इकाई के लिए आवश्यक नहीं है। यदि कोई इकाई केवल कुछ कार्यों या केवल एक ही कार्य का अनुपालन करने में सक्षम है, जैसा कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि के नियमों द्वारा प्रावधान किया गया है, तो उस इकाई को अन्तर्राष्ट्रीय विधि का विषय होने के लिए क्षमता धारण करने वाला माना जायेगा। यह कहना अनुचित होगा कि सीमित क्षमता धारण करने वाली इकाइयों का अन्तर्राष्ट्रीय विधि में कोई व्यक्तित्व नहीं है क्योंकि इनमें अन्तर्राष्ट्रीय विधि द्वारा मान्य सम्पूर्ण अधिकारों तथा कर्त्तव्यों के अनुपालन की क्षमता नहीं है। अन्तर्राष्ट्रीय विधि गतिशील होने के कारण वर्तमान समय में कुछ ऐसी इकाइयों को भी अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व धारण करने वाला मानती है, जो किसी समय अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व धारण नहीं करती थी। भविष्य में कुछ अन्य इकाइयों को भी अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व प्राप्त हो सकता है, यदि वे उस क्षमता को अर्जित कर लेती हैं, जिसे वे वर्तमान में धारण नहीं करती हैं।
अन्तर्राष्ट्रीय विधि के विषयों की स्थिति समयानुसार काफी परिवर्तित हो गयी है। मूल रूप से प्रभुत्वसम्पन्न राज्य अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय में एक मात्र कर्ता थे। किन्तु वर्तमान समय में, कई गैर राज्य इकाइयों, जैसे- अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों तथा संस्थानों और व्यक्तियों को अन्तर्राष्ट्रीय विधिक विषयों की प्रास्थिति (Status) तथा श्रेणी प्रदान की गयी है।
प्रश्न 7. पैक्टा सन्ट सर्वेन्डा । Pacta Sunt Servanda.
उत्तर- पैक्टा सण्ट सर्वेण्डा – अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों के बन्धनकारी प्रभाव के आधार : के विषय में विधिशास्त्रियों में बहुत मतभेद है। ऐंजीलाटी आदि विधिशास्त्रियों के अनुसार सन्धियों का बन्धनकारी प्रभाव ‘पैक्टा सन्ट सर्वेण्डा’ के सिद्धान्त पर निर्भर करता है। इस सिद्धान्त के अनुसार सन्धि द्वारा उत्पन्न हुए उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए राज्य बाध्य है। ओपेनहाइम के अनुसार, ” अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों के बन्धनकारी प्रभाव के विषय में सदैव ” मतभेद रहा है और अब भी है। उचित उत्तर यह है कि सन्धियाँ कानूनी रूप में बन्धनकारी होती हैं, क्योंकि इस विषय में अन्तर्राष्ट्रीय विधि का प्रथा सम्बन्धी नियम है कि सन्धियाँ बन्धनकारी होती हैं। अन्तिम रूप में सन्धियों के विषय में यह मान्यता है कि ये बन्धनकारी प्रथा की नीति के एक सिद्धान्त पर आधारित हैं जो बहुधा पैक्टा सण्ट सर्वेण्डा के सिद्धान्त के नाम से विख्यात है।
अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय ने अपने एक सलाहकारी मत में यह स्पष्ट किया है कि सन्धियों ! से उत्पन्न दायित्व एक नैतिक उत्तरदायित्व न होकर एक ऐसा उत्तरदायित्व है जो विधि के पक्षकारों पर बन्धनकारी है।
प्रश्न 8 संधियों का वर्णन किस अभिसमय में किया गया है?
In which convention the Treaties have been described?.
उत्तर– सन्धि विधि पर सर्वप्रथम वियना अभिसमय, 1969 को स्वीकार किया गया जो 1980 को लागू हुआ। अभिसमय उन सन्धियों पर लागू होता है, जो राज्यों द्वारा, अभिसमय के लागू होने के पश्चात् बनाई गयी हैं। इसका आशय यह है कि जो सन्धियाँ अभिसमय लागू होने के पहले, अर्थात् 27 जनवरी, 1980 के पूर्व की गयीं थीं, वे अब भी पहले वाली विधि से ही शासित होती हैं। इस प्रकार, राज्यों के मध्य की गयी वर्तमान सन्धियाँ प्राचीन विधि (old law) अर्थात् परम्परागत विधि और नयी विधि (new law), अर्थात् वियना अभिसमय, 1969 द्वारा निर्मित विधि से शासित होती हैं। अभिसमय उन्हीं राज्यों के बीच लागू होता है जो अभिसमय के पक्षकार बन गये हैं। जो राज्य अभिसमय के पक्षकार नहीं हैं, उनके द्वारा | बनायी गयी सन्धियाँ रूढ़िगत नियमों द्वारा अर्थात् प्राचीन विधि से ही लागू होंगी। अभिसमय | राज्यों और अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अन्य विषयों के बीच, या अन्तर्राष्ट्रीय विधि के ऐसे अन्य | विषयों के बीच किये गये करारों पर नहीं लागू होता। वियना अभिसमय अनुच्छेद 2 (1) (क) के अधीन स्पष्ट प्रावधान करता है कि ‘सन्धि’ का तात्पर्य राज्यों के बीच लिखित रूप में किये गये ऐसे अन्तर्राष्ट्रीय करार से है, जो अन्तर्राष्ट्रीय विधि द्वारा शासित होता है, चाहे वह एक लिखत में शामिल हो अथवा दो या दो से अधिक सम्बद्ध लिखतों में शामिल हो और चाहे उसका विशिष्ट नाम कुछ भी हो।” इस प्रकार राज्यों तथा अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के बीच या अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के बीच किये गये करार अभिसमय के क्षेत्रान्तर्गत नहीं आते। यह शायद राज्यों द्वारा की गयी सन्धियों के नियमों को अधिक स्पष्ट बनाने के लिए किया गया था। राज्यों तथा अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के बीच या अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के बीच किये गये करार की प्रक्रिया तथा रूप भिन्न हो सकते हैं तथा इनके लिए विशेष नियम हो सकता है और यदि इन्हें अभिसमय के क्षेत्रान्तर्गत शामिल कर लिया जाता, तो इसका प्रावधान पेचीदा तथा जटिल हो जाता।
सन्धि विधि सम्मेलन ने महासभा से सिफारिश की कि राज्यों तथा अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के बीच या अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के बीच की जाने वाली सन्धियों के सम्बन्ध में पृथक् अभिसमय को स्वीकार किया जाना चाहिए। तद्नुसार, सम्मेलन ने 20 मार्च, 1986 को पृथक सन्धि विधि अभिसमय को स्वीकार किया, जिसके पक्षकार या तो राज्य व अन्तर्राष्ट्रीय संगठन होते हैं या केवल अन्तर्राष्ट्रीय संगठन होते हैं।
प्रश्न 9. अन्तर्राष्ट्रीय विधि के स्त्रोत।
Sources of International Law.
उत्तर- स्टार्क के अनुसार, अन्तर्राष्ट्रीय विधि के स्रोत से हमारा तात्पर्य उस वास्तविक सामग्री से है जो अन्तर्राष्ट्रीय विधिशास्त्री अन्तर्राष्ट्रीय झगड़ों में विधि के नियम आदि में प्रयोग करने के लिए प्रयोग करता है।”
अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय की संविधि के अनुच्छेद 38 में निम्न चार स्रोतों का उल्लेख है –
(1) अन्तर्राष्ट्रीय अभिसमय,
(2) अन्तर्राष्ट्रीय प्रथाः
(3) सभ्य राष्ट्रों द्वारा स्वीकृत विधि के सामान्य नियम तथा
(4) न्यायिक निर्णय तथा उच्च योग्यता प्राप्त न्यायशास्त्रियों तथा भाष्यकारों की कृतियाँ विधि के नियमों को निर्धारित करने के लिए गौण साधन के रूप में हैं।
वर्तमान समय में एक नये स्रोत का विकास हुआ है। यह नया स्रोत अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के अंगों का निर्णय है।
प्रश्न 10. “सन्धियों को अन्तर्राष्ट्रीय विधि के एक स्रोत के रूप में स्पष्ट करें।
“Treaties as a source of International Law”. Explain.
उत्तर– अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के निस्तारण हेतु अन्तर्राष्ट्रीय विधि को जानने के लिए सर्वप्रथम अन्तर्राष्ट्रीय संधियों को ही देखेगा। 1969 की संधियों की विधि सम्बन्धी वियना अनुच्छेद 2 के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियाँ वह करार हैं जो दो या दो से अधिक राज्य आपस में करके अपने सम्बन्धों को अन्तर्राष्ट्रीय विधि द्वारा बन्धनकारी बनाते हैं अतः सन्धियाँ अन्तर्राष्ट्रीय विधि के एक स्रोत के रूप में होती हैं।
अन्तर्राष्ट्रीय संधियाँ दो प्रकार की होती हैं :
(क) विधि-निर्माण करने वाली सन्धियाँ तथा (ख) संविदा संधियाँ
(क) विधि निर्माण करने वाली सन्धियाँ- विधि निर्माण करने वाली सन्धियाँ भी दो प्रकार की हो सकती हैं –
(क) वे सन्धियाँ जो सार्वभौमिक अन्तर्राष्ट्रीय विधि का निर्माण करती हैं। इस प्रकार की संधियों का सबसे उत्तम उदाहरण संयुक्त राष्ट्र चार्टर है।
(ख) सामान्य नियमों का निर्माण करने वाली अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियाँ- ये संधियाँ बड़ी संख्या में राज्यों द्वारा करार हैं जो कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि के सामान्य नियमों का निर्माण करती हैं।
(ख) संविदा संधियाँ- विधि का निर्माण करने वाली संधियों के विपरीत संविदा संधियाँ हैं जो दो या दो से अधिक राष्ट्रों के बीच में होती हैं तथा उनके प्रावधान उन्हीं राज्यों पर लागू होते हैं जो उनके पक्षकार होते हैं। इस प्रकार की सन्धियों से प्रथा सम्बन्धी नियमों का विकास होता है।
प्रश्न 11. अन्तर्राष्ट्रीय विधि के स्रोत के रूप में रूढ़ि’ की व्याख्या कीजिए।
Explain ‘Custom’ as a source of International Law.
उत्तर- अन्तर्राष्ट्रीय विधि के स्रोत के रूप में रूढ़ि- प्रथाएं या रूढ़ियाँ विधि की प्राचीन तथा मौलिक स्रोत हैं। रूढ़ियाँ इस प्रकार के नियम के समान हैं जो कि एक दीर्घकालीन ऐतिहासिक क्रम के उपरान्त विकसित हुए तथा जिनको स्वीकार कर अन्तर्राष्ट्रीय समाज में विधि का स्थान दिया गया। आधुनिक युग में प्रथाओं को स्रोत के रूप में एक प्रमुख स्रोत माना गया है।
अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के नियम के अनुच्छेद 38 (ख) ने अन्तर्राष्ट्रीय रूढ़ि को स्वीकृत विधियों के सामान्य व्यवहार के साक्ष्य के रूप में मान्यता दी है। रूढ़ि तथा प्रथा शब्द अक्सर पर्यायवाची के रूप में प्रयोग होते हैं परन्तु उनमें अन्तर है। प्रथा (usage) वास्तव में रूढ़ि (custom) को प्रारम्भिक अवस्था है। प्रथा (usage) वे आदतें (habits) या व्यवहार हैं जो राज्यों द्वारा बार-बार व्यवहार में लाये गये हैं। स्टार्क के अनुसार जहाँ रूढ़ि (Custom) प्रारम्भ होती है वहीं प्रधाएं समाप्त होती हैं” अर्थात् प्रथाएँ रूढ़ियों में विलय हो जाती हैं। प्रथा वह अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार हैं जिसे अभी विधि (law) का बल प्राप्त नहीं हो पाया है। प्रथाएं आपस में परस्पर विरोधी हो सकती हैं परन्तु रूढ़ियों (customs) के साथ ऐसा नहीं है।
यह सदैव आवश्यक नहीं है कि रूढ़ि (custom) में पूर्व प्रथा (usage) का अस्तित्व होता हो कुछ मामलों में प्रथाएँ (usage) रूढ़ियाँ (customs) बन जाती हैं, कुछ में नहीं। कभी-कभी सन्धियों से भी रूढ़ियों (customs) का जन्म होता है।
प्रश्न 12 एक्स एको इट बोनो। Ex acquo et bono.
उत्तर – Ex acquo et bono—यह एक रोमन विधि की अवधारणा है। इसके अन्तर्गत मैत्रीपूर्ण निपटारे में समझौता समाधान तथा विधायन को सम्मिलित किया गया है। न्याय के अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय की संविधि के अनुच्छेद 38 (2) में इसके सम्बन्ध में उपबन्ध किया गया है। इसके अनुसार यदि किसी मामले में राज्य पक्षकार अपनी सम्मति दे देते हैं तो न्यायालय एक्स एको इट बोनो के आधार पर निर्णय दे सकता है।
प्रश्न 13. क्या अन्तर्राष्ट्रीय विधि सच्चे अर्थों में विधि है?
Is International Law a law in the true sense of the term?
उत्तर- अन्तर्राष्ट्रीय विधि सच्चे अर्थों में विधि है?– चूँकि अन्तर्राष्ट्रीय विधि स्वतन्त्र तथा सम्प्रभु राष्ट्रों के सम्बन्धों तथा क्रियाकलापों को नियन्त्रित करने के नियमों का समूह है अतः इस विषय में यह प्रश्न उठता है कि यदि कोई स्वतन्त्र राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय विधि को मानने से इन्कार कर दे तो उसके विरुद्ध क्या उपाय है। दूसरे शब्दों में, अन्तर्राष्ट्रीय विधि को बाध्यकारी मानने से इन्कार करने वाले सम्प्रभु तथा स्वतन्त्र राष्ट्र के विरुद्ध कोई बाध्यकारी उपाय इस विधि में न होने के कारण यह एक विवादास्पद प्रश्न रहा है कि क्या अन्तर्राष्ट्रीय विधि वास्तव में या यथार्थ में विधि है। इसकी बाध्यता, शक्ति क्या है? ऑस्टिन ने यह कहा है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि यथार्थ में विधि नहीं है बल्कि यह आचरण सम्बन्धी नियमों की संहिता है जिसे केवल नैतिकता का ही बल (force) प्राप्त है तथा इसमें अपने से वरिष्ठ की आज्ञा (Commond of Sovereign) के समान बाध्यकारी बल (Binding Force) की कमी है। हॉल्स तथा वूफेन डार्फ ने भी इसी मत का समर्थन किया है। वाटेल ने यहाँ तक कहा है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि मूल कुछ नहीं वरन् प्रकृति के नियम हैं जो राष्ट्रों पर लगाये गये हैं। में हालैण्ड के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय विधि साधारण विधि से इस बात से भिन्न है कि इसे राज्य की प्राधिकारपूर्ण शक्ति (Sovereign Power of State) का समर्थन प्राप्त नहीं है। अतः अन्तर्राष्ट्रीय विधि विधाशास्त्र का लोपकारी बिन्दु (Vanishing point of jurisprudence) है।
प्रश्न 14. अन्तर्राष्ट्रीय विधि तथा राष्ट्रीय विधि के सम्बन्ध के विषय में भारत के अभ्यास के बारे में संक्षेप में बताइये।
Explain in brief the practice of India regarding relationship between International Law and National Law.
उत्तर – अन्तर्राष्ट्रीय विधि और राष्ट्रीय विधि के विषय में भारत राज्य का अभ्यास- यहाँ अभ्यास से तात्पर्य उस सिद्धान्त का अनुसरण करना है जिसे वे स्वयं अपनी राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक प्रणाली के अनुसार अधिक समुचित समझते हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51 के अधीन विश्व के प्रति भारत की सामान्य बाध्यता के लिए प्रावधान किया गया है। इसके अनुसार, “राज्य यह प्रयास करेगा कि (क) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा सुरक्षा की वृद्धि हो; (ख) राष्ट्रों के बीच न्यायगत और सम्मानपूर्ण सम्बन्ध बने रहें; (ग) अन्तर्राष्ट्रीय विधि और सन्धि बाध्यताओं को राज्यों के बीच परस्पर व्यवहार में आदर मिले और (घ) अन्तर्राष्ट्रीय विवादों का माध्यस्थम् द्वारा निपटारे के लिए प्रोत्साहन मिले। यह अनुच्छेद संविधान के भाग 4 में शामिल किया गया है जो राज्य के नीति निदेशक तत्वों को प्रतिपादित करता है।
अनुच्छेद 51 में ‘अन्तर्राष्ट्रीय विधि’ तथा सन्धि बाध्यताओं शब्दों का प्रयोग किया गया। है। इससे यह आशय निकाला जा सकता है कि शब्द ‘ अन्तर्राष्ट्रीय विधि’ रूढ़िगत अन्तर्राष्ट्रीय विधि को निर्दिष्ट करता है। इसका यह तात्पर्य हो सकता है कि अनुच्छेद 51 रूढ़िगत अन्तर्राष्ट्रीय विधि तथा संधिबद्ध विधि को एक समान मानता है।
प्रश्न 15. क्या संयुक्त राष्ट्र महासभा के संकल्प अन्तर्राष्ट्रीय विधि के स्त्रोत होते हैं?
Are U.N. General Assembly resolutions a source of International Law?
उत्तर– संयुक्त राष्ट्र की महासभा के संकल्प विधिक प्रकृति के नहीं होते अतः यह राज्यों पर बाध्यकारी नहीं होते। ये अपने सदस्यों पर किसी भी विधिक बाध्यता को सृजित नहीं करते चाहे वे एकमत से या बहुमत से स्वीकार किये गये हों या इनके विषय सभी राज्यों के समान हित के विषय हो। फिर भी यदि संकल्प निर्विरोध हो या सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से स्वीकार किया गया हो, तथा यदि किसी संकल्प को बाद के कई संकल्पों में दुहराया गया हो, तो इसे अर्थहीन नहीं समझना चाहिए। रोसलीन हागिन्स (Rosalyn Higgins) ने प्रतिपादित किया है कि ऐसे संकल्पों का संचयी प्रभाव (cumulative effect) सामान्य रूढ़िगत विधि की तरह प्रतीत होता है। उनके अनुसार समान विषय के संकल्प को बार-बार दुहराने से तथा भारी बहुमत प्राप्त करने से ओपिनियों ज्यूरिस (Opinio Juris) का सृजन होता है।
वर्तमान समय में अन्तर्राष्ट्रीय विधि के रूढ़िगत नियमों को सृजित करने में महासभा के संकल्पों को सक्षमता के सम्बन्ध में पश्चिमी राज्यों तथा तीसरे विश्व के देशों में वैचारिक भिन्नता है। पश्चिमी राज्य इस विचार के हैं कि रूढ़िगत नियम के सृजन के तत्व के रूप में संकल्पों का विचारण इस शर्त पर किया जा सकता है कि वे राज्यों के तत्समान अभ्यास द्वारा सम्पुष्ट किये जाते हैं, जबकि तीसरे विश्व के देश इस मत के हैं कि ये संकल्प अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय की इच्छा को अभिव्यक्त करते हैं तथा इसलिए स्वयं रूढ़ि के निर्माण तथा विधि के सामान्य सिद्धान्त की घोषणा के लिए सक्षम हैं। यह माना जाता है कि महासभा के संकल्पों को प्रवृत्ति अन्तर्राष्ट्रीय विधि के रूढ़िगत नियम की प्रकृति को अर्जित करने की रही है। ये रूढ़ि के वश्यक तत्वों, जैसे व्यापकता तथा निरन्तरता, को पूरा करती है। इसके समतावादी प्रकृति, इसके बहुमत आधार तथा इसके लोकतांत्रिक उद्गम के कारण यह माना जाता है कि महासभा में स्वीकृत संकल्प वर्तमान समय की आवश्यकता के प्रत्युत्तर में अन्तर्राष्ट्रीय विधि के विस्तार के लिए पर्याप्त प्रत्याभूति पेश करते हैं। ये विधि के उत्तरोत्तर विकास के लिए आधार प्रदान करते हैं। महासभा द्वारा स्वीकार किये गये संकल्पों के माध्यम से जिन सिद्धान्तों ने अन्तर्राष्ट्रीय विधि के रूढ़िगत नियमों की प्रास्थिति अर्जित की है, उनमें से कुछ के उदाहरण हैं- अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में बल के प्रयोग या धमकी को प्रतिषिद्ध करना आत्म रक्षा का अधिकार इत्यादि।
कुछ महत्वपूर्ण विधि निर्माणी संकल्पों के उदाहरण हैं-मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा, 1948 इत्यादि।
प्रश्न 16. ‘मान्यता से आप क्या समझते हैं?
What do you mean by ‘Recognition’?
उत्तर- मान्यता (Recognition) – मान्यता ही वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा कोई नया राज्य अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय का सदस्य बन जाता है। प्रो० ओपेनहाइम के अनुसार, “किसी नये राज्य को अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के सदस्य के रूप में मान्यता प्रदान करने में मान्यता प्रदान करने वाले राज्य यह घोषित करते हैं कि उनके मत में नये राज्य ने अन्तर्राष्ट्रीय विधि में निर्दिष्ट राष्ट्रत्व के तत्व प्राप्त कर लिया है।”
फेन्विक के अनुसार, “मान्यता द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के सदस्य औपचारिक रूप से यह स्वीकार करते हैं कि नये राज्य ने अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व को प्राप्त कर लिया है।”
केल्सन के अनुसार किसी समुदाय को अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अन्तर्गत तभी मान्यता प्राप्त हो सकती है जबकि उसमें निम्नलिखित आवश्यक तत्व उपस्थित हों –
(1) वह राजनैतिक रूप से संगठित हो:
(2) उसका किसी निश्चित भूमि पर नियन्त्रण हो;
(3) यह नियन्त्रण प्रभावशाली हो; तथा
(4) यह समुदाय अन्य राज्यों से स्वतन्त्र हो ।
प्रश्न 17. राष्ट्रीयता को परिभाषित कीजिए।
Define Nationality.
उत्तर- राष्ट्रीयता – राष्ट्र के व्यक्तियों से अपने राज्यों के प्रति निष्ठा (allegiance) धारण करने की अपेक्षा की जाती है। जो व्यक्ति राज्य के प्रति स्थायी निष्ठा धारण करते हैं, उन्हें राज्य के राष्ट्रिक के रूप में जाना जाता है। इसलिए राष्ट्रीयता को “व्यक्ति की प्रास्थिति, जो निष्ठा के बन्धन द्वारा राज्य से सम्बद्ध है” के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। इस प्रकार, शब्द “राष्ट्रीयता” व्यक्तियों तथा राज्य के मध्य विधिक सम्बन्ध को व्यक्त करता है। ओपेनहाइम ने उचित रूप से ही कहा है कि व्यक्ति की राष्ट्रीयता किसी राज्य के नागरिक होने का उसका गुण है।
व्यक्तियों की राष्ट्रीयता का निर्धारण राष्ट्रीय विधि के नियमों के अनुसार किया जाता है। स्थायी अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय ने 1923 में घोषणा की थी कि, “अन्तर्राष्ट्रीय विधि की वर्तमान स्थिति में राष्ट्रीयता का प्रश्न एकमात्र राज्य की आन्तरिक अधिकारिता के अन्तर्गत आता है। ऐसी विधियों को अन्य राज्यों द्वारा मान्यता दिये जाने की अपेक्षा की जाती है। हेग संहिताकरण सम्मेलन, 1930 द्वारा स्वीकृत राष्ट्रीय विधियों के संघर्ष से सम्बन्धित कुछ प्रश्नों पर अभिसमय का अनुच्छेद 1 प्रावधान करता है कि “प्रत्येक राज्य अपनी विधि के अधीन यह निर्धारित कर सकता है कि कौन उसका राष्ट्रिक होगा। ऐसी विधि को अन्य राज्यों द्वारा केवल तब मान्यता दी जाएगी, जब यह अन्तर्राष्ट्रीय अभिसमयों, अन्तर्राष्ट्रीय रूढ़ियों तथा राष्ट्रीयता के सम्बन्ध में सामान्यतः मान्य विधि के सिद्धान्तों से संगत होगा।” इसका तात्पर्य यह है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि की परिसीमाओं के अन्तर्गत, राज्य यह निश्चित करने के लिए, स्वतन्त्र है कि किसे वह अपने राष्ट्रिक के रूप में चुने और किसे अपने राष्ट्रिक के रूप में नामंजूर करे। अन्तर्राष्ट्रीय विधि द्वारा ये परिसीमायें अन्य राज्यों के हित में निर्धारित की जाती हैं न कि व्यक्तियों के हित के लिये।
राष्ट्रीयता वह प्रमुख कड़ी है जिसके माध्यम से व्यक्ति अन्तर्राष्ट्रीय विधि की सुविधाओं का उपभोग कर सकते हैं। राज्य अपने राष्ट्रिकों पर अधिकारिता का प्रयोग करता है, तथा विदेश में यात्रा करने वाले या निवास करने वाले उसके राष्ट्रिक उसको व्यक्तिगत सर्वोच्चता के अधीन रहते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय विधि ऐसी अधिकारिता के प्रयोग की अनुज्ञा देती है, तथा उन सीमाओं का निर्धारण करती है, जिनके अन्तर्गत उसका प्रयोग किया जा सकता है। मावरोम्मैटिस वाद (Mavrommatis Case) में स्थायी अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय ने निर्णय दिया था, कि “अन्तर्राष्ट्रीय विधि का यह प्रारम्भिक सिद्धान्त है कि राज्य अपने राष्ट्रिकों को संरक्षण प्रदान करने का हकदार है, यदि उन्हें अन्य राज्यों द्वारा कारित अन्तर्राष्ट्रीय विधि के प्रतिकूल कार्यों द्वारा क्षति होती है तथा वे समुचित माध्यम से समाधान प्राप्त करने में असमर्थ है।
प्रश्न 18 दोहरी आपराधिकता का सिद्धान्त।
Doctrine of Double criminality.
उत्तर- दोहरी आपराधिकता का सिद्धान्त (Doctrine of Double -Criminality)- दोहरी आपराधिकता का सिद्धान्त यह स्पष्ट करता है कि प्रत्यर्पण के लिए किसी अपराध को दोनों ही राज्यों में (राज्यक्षेत्रीय तथा निवेदक राज्य में) मान्य होना चाहिए। अगर यह शर्त पूरी नहीं होती है तो किसी व्यक्ति का प्रत्यर्पण नहीं हो सकता। यह सिद्धान्त इस विचार पर आधारित होना प्रतीत होता है कि यह राज्यक्षेत्रीय राज्य के अन्तःकरण पर आघात पहुँचाएगा, यदि उसे किसी ऐसे व्यक्ति का प्रत्यर्पण करना हो, जब उसकी अपनी विधि उसे अपराधी नहीं मानती हो। इसके अलावा निवेदक राज्य उन अपराधों के लिए प्रत्यर्पण की माँग ही नहीं करेगा, जिनको उसके राज्य में मान्यता नहीं दी गयी है। इस तरह, यह सिद्धान्त दोहरे उद्देश्य को पूरा करता है। यह सिद्धान्त निवेदक राज्य को अपनी विधि को लागू करने में सहायता करता है और राज्य क्षेत्रीय राज्य को भगोड़े अपराधियों से उसकी रक्षा करता है। इसको सुनिश्चित करने के लिए कि अपराध दोनों राज्यों में मान्य है, प्रत्यर्पण योग्य अपराधों की सूची कुछ राज्यों की प्रत्यर्पण विधियों में संलग्न की जाती है। किन्तु सामान्यतया प्रत्यर्पण सन्धियों में अपराधों की सूची सन्निहित होती है।
इस सम्बन्ध में भारतीय प्रत्यर्पण अधिनियम, 1962 दोनों प्रक्रियाओं को स्वीकार करता था। जब किसी राज्य के साथ प्रत्यर्पण सन्धि की जाती थी, तब प्रत्यर्पण योग्य अपराधों के लिए उसमें सूची संलग्न की जाती थी। इसलिए प्रत्यर्पण केवल उन्हीं अपराधों तक सीमित रहता था किन्तु प्रत्यर्पण (संशोधन) अधिनियम, 1993 के द्वारा उपर्युक्त प्रक्रिया को बदल दिया गया है। संशोधन अधिनियम, 1933 के अन्तर्गत प्रत्यर्पण योग्य अपराधों की सूची को हटा दिया गया है। अब जिन राज्यों के साथ सन्धि है, उनसे प्रत्यर्पण उन्हीं अपराधों के लिए होगा जो प्रत्यर्पण सन्धियों में लिखित हैं। दोहरी आपराधिकता का नियम उस समय राज्यों को कठिन परिस्थिति में डाल देता है, जब वह उन अपराधों के लिए अन्य राज्य से अनुरोध करता है, जो सन्धि में शामिल किये गये अपराधों की सूची में नहीं रखे गये हैं। इस कठिनाई को दूर करने के लिए आवश्यक है कि सन्धियों में विनिर्दिष्ट रूप से विभिन्न अपराधों के नामों का उल्लेख करने के बदले, कुछ सामान्य मापदण्ड को स्वीकृत किया जाना चाहिए।
प्रश्न 19. (क) मान्यता के प्रकार। Kinds of Recognition.
(ख) विधिक मान्यता एवं तथ्येन मान्यता में अन्तर स्पष्ट कीजिए। Distinguish between De-Jure and De-Facto Recognition.
उत्तर (क) – मान्यता के प्रकार – मुख्यतः मान्यता दो प्रकार की होती है तथ्येन मान्यता तथा विधि मान्यता।
तथ्येन मान्यता प्रो० स्वार्जन बर्जर के अनुसार, “जब कोई राज्य पूर्ण अथवा विधि मान्यता में देर करना चाहता है तो वह प्रथम चरण में तथ्येन मान्यता प्रदान करता है तथ्येन मान्यता देने का मुख्य कारण होता है कि मान्यता प्रदान करने वाले राज्य के बारे में सन्देह होता है कि वह स्थायी है अथवा नहीं तथा वह अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अन्तर्गत अपने दायित्वों को पूरा करने के लिए इच्छुक तथा योग्य है अथवा नहीं।” न्यायमूर्ति लाटरपैट के अनुसार, “तथ्येन मान्यता में मान्यता देने वाले राज्यों की यह इच्छा प्रकट होती है कि वे बिना राजनयिक सम्बन्ध स्थापित किये मान्यता दिये जाने वाले राज्य के साथ अपने सम्बन्ध स्थापित करना चाहते हैं।” प्रो० ओपेनहाइम् के अनुसार, “तथ्येन मान्यता अन्तरिम होती है तथा वापस हो सकती है, यदि कुछ समय के अन्दर मान्यता के दूसरे तथ्यों की पूर्ति नहीं हो जाती।”
विधि मान्यता – प्रो० स्मिथ के अनुसार-विधि मान्यता प्रदान किये जाने के पहले निम्न आवश्यक तत्वों का होना आवश्यक है –
(1) स्थायित्व
(2) राज्य की सरकार को वहाँ की जनता का सामान्य समर्थन होना; तथा
(3) अन्तर्राष्ट्रीय उत्तरदायित्वों को पूरा करने की इच्छा तथा सामर्थ्य
विधि मान्यता अन्तिम मान्यता होती है, एक बार दिये जाने के बाद उसे वापस नहीं लिया जा सकता।
उत्तर (ख)- प्रो० ओपेनहाइम के अनुसार, जहाँ तक मान्यता प्रदान किये जाने वाले राज्य के आन्तरिक विधायिनी तथा अन्य कार्यों का सम्बन्ध है, न्यायालय तथ्येन तथा विधि मान्यताओं में कोई अन्तर नहीं मानते। प्रो० स्वार्जन बर्जर के अनुसार, तथ्येन मान्यता की प्रकृति अन्तरिम होती है तथा शर्तों पर आधारित हो सकती है। दूसरी ओर विधि मान्यता पूर्ण होती है तथा बिना किसी शर्त के होती है।
तथ्येन मान्यता तथा विधि-मान्यता में एक अन्तर यह है कि तथ्येन मान्यता में औपचारिक रूप से राजनयिक सम्बन्ध स्थापित नहीं होते हैं। राजनयिक सम्बन्ध विधि मान्यता द्वारा ही स्थापित किये जा सकते हैं। यह स्पष्ट है कि तथ्येन तथा विधि-मान्यता में कोई अन्तर है तो वह राजनीतिक है। पिछले कुछ वर्षों में दोनों प्रकार की मान्यताओं के अन्तर कम होते जा रहे हैं।
प्रश्न 20. अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अन्तर्गत ‘मान्यता’ के प्रभावों का वर्णन कीजिए।
Explain the effects of the ‘Recognition’ under the International Law,
उत्तर- मान्यता के विधिक प्रभाव :
(1) मान्यता प्राप्त करने वाले राज्य को मान्यता दिये जाने वाले राज्य के कार्यों में दावा करने का अधिकार प्राप्त हो जाता है।
(2) उपर्युक्त न्यायालयों में मान्यता प्राप्त करने वाले राज्य के भूत तथा वर्तमान विधायिनी तथा कार्यपालिका के कार्यों को लागू करवाया सकता है।
(3) मान्यता प्राप्त करने वाले राज्य को अपनी सम्पत्ति तथा राजनयिक प्रतिनिधियों के मामलों में किसी भी दावे में उन्मुक्ति प्राप्त करने का अधिकार जाता है।
(4) मान्यता प्राप्त करने वाले राज्य के राजनयिक प्रतिनिधि उन्मुक्तियाँ तथा विशेषाधिकार प्राप्त करने के अधिकारी हो जाते हैं।
किसी राज्य को मान्यता न प्राप्त होने के निम्नलिखित परिणाम होते हैं :
(1) ऐसा राज्य किसी ऐसे राज्य के न्यायालयों में वाद प्रस्तुत नहीं कर सकता है जिसने इसे मान्यता न दी हो।
(2) जिस राज्य को मान्यता प्राप्त नहीं हुई है, वह अन्य राज्यों से राजनयिक सम्बन्ध स्थापित करने का अधिकारी नहीं है।
(3) ऐसे राज्य के राजनयिक प्रतिनिधियों को विदेशी राज्यों में विधिक प्रक्रियाओं से उन्मुक्तियाँ प्राप्त करने का अधिकार नहीं होता।
(4) विदेशी राज्य में स्थित सम्पत्ति प्राप्त करने का अधिकार भी ऐसे राज्य को नहीं होता है।
प्रश्न 21. क्या मान्यता प्रदान करना राजनीतिक कार्य है? Is recognition-a Political Act?
उत्तर– क्या मान्यता प्रदान करना एक राजनीतिक कार्य है- मान्यता अन्तर्राष्ट्रीय विधि का एक महत्वपूर्ण विषय है। मान्यता एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा किसी नये राज्य को अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के सदस्य के रूप में स्वीकार किया जाता है। जेसप के अनुसार -“मान्यता किसी राज्य का कार्य है जिसके द्वारा वह यह स्वीकार करता है कि किसी राजनैतिक इकाई में राष्ट्रतत्व के आवश्यक गुण विद्यमान हैं, संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि मान्यता द्वारा उसे प्रदान करने वाले राज्य द्वारा मान्यता दिये जाने वाले राज्य के राष्ट्रत्व के तत्वों को स्वीकार किया जाता है। अन्तर्राष्ट्रीय विधि यह नहीं स्पष्ट करती है कि इन आवश्यक तत्वों का क्या मापदण्ड होगा अर्थात् कैसे यह पता चलेगा कि किसी राज्य में राष्ट्रत्व के सभी तत्व उपस्थित हैं। वास्तव में अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अधीन राज्यों को यह स्वतन्त्रता दी गई है कि वह स्वयं निश्चय करें कि जिस राज्य को वे मान्यता प्रदान कर रहे हैं उसमें राज्य के आवश्यक तत्व हैं अथवा नहीं। किसी नये राज्य या सरकार से राजनीतिक या अन्य सम्बन्ध स्थापित करने के सम्बन्ध में कोई विधिक उत्तरदायित्व नहीं है। यह प्रश्न कि क्या मान्यता एक राजनीतिक कार्य है या राज्य के स्वविवेक पर निर्भर करती है तो सकारात्मक उत्तर यही होगा कि यह राज्य के स्वविवेक पर निर्भर करता है क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय विधि यह स्पष्ट नहीं करती है कि यह कैसे निश्चित किया जायेगा कि किसी राज्य में राष्ट्रत्व के गुण मौजूद हैं वास्तव में यह मान्यता प्रदान करने वाले राज्य के स्वविवेक पर ही आधारित होता है। इस प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय विधि राज्य स्तर पर ही आधारित है कि राज्य यह निश्चय करें कि किसी राज्य में राष्ट्रत्व के गुण विद्यमान हैं या नहीं। प्रो० स्वार्जनबर्जर के अनुसार, “स्थापित नियमों तथा सन्धि-उत्तरदायित्वों की अनुपस्थिति में मान्यता एक स्वविवेक का प्रश्न है।”
एडवर्ड कालिन्स के अनुसार राज्यों तथा इनकी सरकार को मान्यता प्रदान किये जाने के विषय में राज्यों के व्यवहार से यह स्पष्ट है कि यह एक राजनीतिक कार्य है।
अतः किसी राज्य को मान्यता दिये जाने या न दिये जाने का कार्य मान्यता प्रदान करने वाले राज्य के स्वविवेक पर निर्भर करता है। राज्य हमेशा अपने हितों के अनुसार ही कार्य करता है।
समय पूर्व या अपरिपक्व मान्यता प्रदान करना आमतौर से अन्तर्राष्ट्रीय विधि का उल्लंघन नहीं है क्योंकि मान्यता प्रदान करने या न करने के सम्बन्ध में राज्यों का कोई उत्तरदायित्व नहीं होता है यह राज्यों की स्वेच्छा तथा विवेक पर निर्भर करता है. परन्तु यदि सुरक्षा परिषद् या महासभा यह प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित करके किसी राज्य को मान्यता दिये जाने के सम्बन्ध में मना करती है तो राज्य को ऐसी मान्यता अनुज्ञेय होगी।
इस प्रकार फिलिप मार्शल ब्राउन ने मत प्रकट किया कि किसी नये राज्य की सरकार को मान्यता दिया जाना एक राजनयिक कार्य है न कि विधि सम्बन्धी।
प्रश्न 22. प्रत्यर्पण को समझाते हुए इसकी आवश्यक शर्तों की विवेचना कीजिए।
Describe extradition and also discuss its essential conditions.
उत्तर- प्रत्यर्पण का अर्थ तथा परिभाषा-ओपेनहाइम के अनुसार, “अपराधी को जिस देश में उसने अपराध किया है या अभियुक्त है उस देश द्वारा जहाँ उस समय है, लौटा देना प्रत्यर्पण है।
विधिशास्त्री ग्रोशस के अनुसार प्रत्येक देश का यह कर्त्तव्य है कि या तो वह अपराध करने वाले व्यक्ति को स्वयं दण्ड दे या उसे ऐसे राज्य को लौटा दे जहाँ उसने अपराध किया है। परन्तु व्यवहार में राज्य इस प्रकार का उत्तरदायित्व स्वीकार नहीं करते। अन्तर्राष्ट्रीय विधि में प्रत्यर्पण मुख्यतः द्विपक्षीय सन्धियों पर आधारित है।
प्रत्यर्पण की आवश्यक शर्तें – प्रत्यर्पण की निम्नलिखित आवश्यक दशायें :
(1) प्राय: सभी राष्ट्र इस बात से सहमत हैं कि राजनीतिक अपराधियों का प्रत्यर्पण नहीं होना चाहिए।
(2) सैनिक अपराध पर प्रत्यर्पण नहीं किया जाता है।
(3) इसी प्रकार धार्मिक अपराध भी प्रत्यर्पण के अन्तर्गत नहीं आते।
(4) किसी अपराधी का प्रत्यर्पण किसी अपराध विशेष के लिए होता है और वह देश उस अपराधी के विरुद्ध वहीं मुकदमा चला सकता है जिसके लिए उसका प्रत्यर्पण हैं। हुआ है। (संयुक्त राष्ट्र बनाम रोशेर)। इसे विशेषता का नियम कहते
(5) जिस अपराध के लिए प्रत्यर्पण होता है वह अपराध दोनों सम्बन्धित देशों में अपराध घोषित होना चाहिए। इसे दोहरी आपराधिकता का नियम कहते हैं।
(6) प्रत्यर्पण सम्बन्धी अपराध के लिए पर्याप्त साक्ष्य होना चाहिए। (7) प्रत्यर्पण के लिए औपचारिक प्रार्थना आवश्यक है तथा अन्य औपचारिकताएँ भी पूरी होनी चाहिए।
(8) सामान्यतः राज्य अपने नागरिकों का प्रत्यर्पण करना स्वीकार नहीं करते हैं।
प्रश्न 23. ‘प्रत्यर्पण’ से आप क्या समझते हैं? प्रत्यर्पण हेतु मान्य अधिकारों की विवेचना कीजिए।
What do you understand by ‘Extradition’? Discuss the recognised grounds for extradition.
उत्तर- प्रत्यर्पण का अर्थ– प्रत्यर्पण का अर्थ ऐसी प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत किसी सन्धि या उभयपक्षी व्यवहार के अन्तर्गत एक राज्य, दूसरे राज्य (राष्ट्र) के अनुरोध करने पर एक ऐसे व्यक्ति को दूसरे राज्य को सौंपता है जिसने अनुरोध करने वाले राष्ट्र की सीमा के अन्तर्गत या तो कोई अपराध किया है या किसी अपराध के लिए उस राष्ट्र की विधिक प्रक्रिया के अनुसार, दण्डित किया गया है तथा तथाकथित राष्ट्र उस अपराधी के अभियोजन के लिए। सक्षम है। अपराधी को निवेदक राज्य को प्रत्यर्पण करने के निम्नलिखित कारण हो सकते हैं –
(1) यह अपराध के दमन की प्रक्रिया है। इसलिए अपराधियों का प्रत्यर्पण किया जाता है, जिससे वह दण्ड से बच न सके।
(2) प्रत्यर्पण अपराधियों को चेतावनी के रूप में है कि वे अन्य राज्य में भागकर दण्ड से बच नहीं सकते। इसलिए प्रत्यर्पण का निवारक प्रभाव होता है।
(3) प्रत्यर्पण इसलिए किया जाता है कि यह अन्तर्राष्ट्रीय प्रकृति की सामाजिक समस्याओं को हल करने में अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की प्रगति की ओर एक कदम है।
(4) जिस राज्य के राज्य क्षेत्र में अपराध कारित किया जाता है, वह अपराधी का परीक्षण करने के लिए अच्छी स्थिति में होता है क्योंकि केवल उस राज्य में साक्ष्य स्वतन्त्रतापूर्वक प्राप्त होते हैं।
प्रश्न 24. शरण को परिभाषित कीजिए।
Define Asylum.
उत्तर– शरण या आश्रय की परिभाषा – स्टार्क के अनुसार, आश्रय से तात्पर्य उस शरण तथा सक्रिय सुरक्षा से है जो एक राज्य द्वारा किसी अन्य राज्य के राजनीतिक शरणार्थी को उसकी प्रार्थना पर प्रदान की जाती है। आश्रय के निम्नलिखित दो तत्व होते हैं
(1) शरण, जो स्थायी सहारे से अधिक होती है, तथा
(2) सक्रिय सुरक्षा, उन अधिकारियों द्वारा जिनके क्षेत्र में आश्रय दिया गया है।
मानवीय अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के अनुच्छेद 14 के अनुसार, प्रत्येक पीड़ित व्यक्ति को दूसरे देश में आश्रय माँगने का अधिकार है परन्तु ऐसे व्यक्ति को अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अन्तर्गत यह अधिकार नहीं प्राप्त है कि जब वह आश्रय माँगे तो अवश्य मिले। इस विषय में राज्यों का कोई सामान्य उत्तरदायित्व नहीं है।
प्रश्न 25. शरणार्थियों को पुनः अस्थिर न करना’ सिद्धान्त क्या है?
What is the principle of ‘non-refoulement’ of refugees?
उत्तर- शरणार्थियों को पुनः अस्थिर न करना शरण अथवा आश्रय जी एक राज्य द्वारा अन्य राज्य के राजनीतिक शरणार्थी को उसकी प्रार्थना पर दी जाती है। आश्रय के दो तत्व हैं-
(1) शरण जो अस्थायी सहारे से अधिक होती है, तथा
(2) सक्रिय सुरक्षा उन अधिकारियों द्वारा जिनके क्षेत्र में आश्रय दिया गया है। मानवीय अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के अनुच्छेद 14 के अनुसार प्रत्येक पीड़ित व्यक्ति को दूसरे देशों से आश्रय माँगने का अधिकार है। परन्तु अन्तर्राष्ट्रीय विधि यह अधिकार नहीं देती कि कोई पीड़ित व्यक्ति दूसरे राज्यों से आश्रय माँगे तो उसे अवश्य मिले।
अनुच्छेद 14 यह प्रावधान करता है कि “प्रत्येक व्यक्ति को उत्पीड़न से दूसरे देश में शरण माँगने तथा ऐसी शरण का उपभोग करने का अधिकार प्राप्त है।” इस अधिकार की द्वितीय विश्व युद्ध के बाद शरणार्थियों तथा विराष्ट्रिकों के लिए आवश्यकता को ध्यान में रखकर अभिव्यक्त किया गया था। पुनः संयुक्त राष्ट्र महासभा ने एकमत से सन् 1967 में एक संकल्प अंगीकार किया था जो राज्यक्षेत्रीय आश्रय घोषणा के नाम से जाना जाता है। इस घोषणा में यह प्रावधान किया गया था कि “कोई व्यक्ति ऐसे उपायों, जैसे सीमा पर अस्वीकृत या निकासी या किसी राज्य में जिसमें उसका उत्पीड़न किया जा सकता है, की अनिवार्य वापसी अर्थात् व्यवस्था के अनुसार प्रवेश की इच्छा करने वाले व्यक्तियों को शामिल करके इसके व्यापक अर्थ में अनियम विरुद्ध सिद्धान्त के अध्यधीन नहीं होगा।” इस प्रावधान से यह आभास होता है कि व्यक्ति को किसी राज्य में आश्रय प्राप्त करने का अधिकार है। किन्तु दोनों दस्तावेजों को महासभा द्वारा घोषणाओं के रूप में स्वीकार किया गया है, जिस कारण इनका विधिक प्रभाव नहीं है। राज्य किसी प्रकार से उक्त प्रावधानों को स्वीकार करने के लिए विधिक रूप से बाध्य नहीं है। फिर भी मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के अनुच्छेद 14 के अन्तर्गत आश्रय माँगने तथा उसके उपभोग के अधिकार के लिए प्रावधान किया गया है। प्र किन्तु कोई व्यक्ति आश्रय केवल माँग सकता है, और माँगने के बाद उसका उपभोग केवल तब कर सकता है, जब वह राज्य द्वारा प्रदान किया जाता है। पुनः यदि आश्रय को व्यक्तिका अधिकार माना जाय, तो इसका तात्पर्य यह है कि आश्रय प्रदान करना राज्य का न कर्तव्य है। आश्रय देना राज्यों का कर्त्तव्य नहीं है। राज्य इस सम्बन्ध में अपने स्वविवेक निर्णय का प्रयोग करते हैं। कई राज्यों के संविधान अभिव्यक्त रूप से राजनीतिक कारणों से उत्पीड़ व्यक्तियों को आश्रय का अधिकार प्रदान करते हैं। किन्तु फिर भी यह नहीं कहा जा कि यह अधिनियम सभ्य राज्यों द्वारा मान्य विधि का सामान्य सिद्धान्त बन गया है और इस प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय विधि का भाग हो गया है।
प्रश्न 26. शरण एवं प्रत्यर्पण में अन्तर कीजिए। Distinguish between Asylum and Extradition.
उत्तर- आश्रय तथा प्रत्यर्पण में अन्तर (Difference in Asylum and Extradition)—एक राज्य को अन्य देशीयों को आश्रय प्रदान करने की अवधारणा अत्यन्त प्राचीन तथा परम्परागत (Traditional) है। किन्तु इस परम्परागत प्रणाली में अठारहवीं शताब्दी के अन्त में उन व्यक्तियों के सम्बन्ध में काफी परिवर्तन हुआ जो अपराध के अभियुक्त थे या अपराधी थे। ऐसे व्यक्ति उस राज्य को सौंप दिये जाते थे, जिससे वे सम्बन्धित होते थे। इस प्रकार, जिन मामलों में पुराने समय से चली आ रही परम्परा का अनुसरण नहीं किया गया, उसे प्रत्यर्पण कहा जाने लगा।
प्रत्यर्पण तथा आश्रय की प्रथा एक-दूसरे के प्रतिकूल है। यदि किसी व्यक्ति को राज्यक्षेत्रीय द्वारा निवेदक राज्य को सौंप दिया जाता है, तो इसे प्रत्यर्पण कहा जाता है। यदि उसको राज्यक्षेत्रीय द्वारा सौंपा नहीं जाता है, बल्कि शरण तथा सुरक्षा प्रदान किया जाता है, इसे आश्रय कहा जाता है। इस प्रकार जिन व्यक्तियों का प्रत्यर्पण नहीं किया जाता है, उन्हें आश्रय प्रदान किया गया कहा जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि आश्रय सामान्यतया राजनीतिक अपराधियों तथा धार्मिक एवं सैनिक अपराधियों को प्रदान किया जाता है क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय विधि के सामान्य नियमानुसार उनका प्रत्यर्पण नहीं किया जाता फिर भी जहाँ व्यक्ति अपराध के लिए दोषसिद्ध हुआ है या अपराध करने का उस पर आरोप है, वहाँ उसका प्रत्यर्पण किया जाता है। इसलिए स्टार्क ने कहा है कि ” आश्रय वहाँ समाप्त होता है, जहाँ प्रत्यर्पण प्रारम्भ होता है।”
प्रश्न 27. (क) अन्तर्राष्ट्रीय सन्धि की परिभाषा दीजिए।
Define International treaties.
(ख) रिबस सिक स्टैंटिबस।
Rebus sic stantibus.
उत्तर (क) – अन्तर्राष्ट्रीय सन्धि का अर्थ और परिभाषा – अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों को अन्तर्राष्ट्रीय विधि का सर्वप्रथम स्रोत माना गया है। अन्तर्राष्ट्रीय संधियों का अन्तर्राष्ट्रीय विधि के क्षेत्र में उतना ही महत्व है जितना कि राज्य विधि के क्षेत्र में विधायिनी का।
परिभाषा – अन्तर्राष्ट्रीय सन्धि दो या दो से अधिक राज्यों के बीच अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अन्तर्गत आपस में सम्बन्ध स्थापित करने के लिए एक प्रकार का समझौता होता है। प्रो० ओपेनहाइम के अनुसार, अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों राज्यों के बीच समझौता है जो संविदा कीप्र कृति के हैं, जो कानूनी अधिकार तथा उत्तरदायित्व उत्पन्न करते हैं।
1969 की सन्धियों की विधि के वियना अभिसमय के अनुच्छेद 2 के अनुसार सन्धि एक करार है, जिसके द्वारा दो या दो से अधिक राज्य अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अन्तर्गत अपने सम्बन्ध या तो स्थापित करते हैं या करने की चेष्टा करते हैं।
स्वार्जन बर्जर के अनुसार, “संधियाँ अन्तर्राष्ट्रीय विधि के विषयों के बीच समझौते हैं जो अन्तर्राष्ट्रीय विधि के बन्धनकारी उत्तरदायित्व उत्पन्न करते हैं।”
उत्तर (ख ) – रिबस सिक स्टैंटिबस– इस सिद्धान्त का अर्थ है कि किसी सन्धि के उत्तरदायित्व तभी तक रहते हैं जब तक वे आवश्यक परिस्थितियाँ जिनमें सन्धियाँ बदली नहीं जातीं। सामान्य रूप से यह स्वीकार किया जाता है कि उन परिस्थितियों में जिनमें सन्धि की गयी थी, मौलिक परिवर्तन आता है तो यह परिवर्तन सन्धि की समाप्ति के लिए या उसे बदलने के लिए एक आधार हो सकता है। यह सिद्धान्त इस धारणा पर आधारित है कि प्रत्येक सन्धि में एक परिलक्षित या अव्यक्त उपधारणा होती है जो तभी तक बन्धनकारी प्रभाव रखती है जब तक आवश्यक परिस्थितियाँ, जिनमें सन्धि की गयी थी, अपरिवर्तित रहती है।
प्रो० लिसिटीन का विचार यह था कि ऐसी परिस्थितियाँ भी उत्पन्न हो सकती हैं कि किसी सन्धि का लगातार लागू होना उसके पक्षकारों की आशाओं के विपरीत हो तथा उस पर असहनीय बोझ लादता है।
कुछ विधिशास्त्रियों ने इसकी आलोचना की है जिसमें स्टार्क महोदय का कहना है किय ह सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय विधि की पहेली है, इसे लागू करने के विषय में राज्यों के व्यवहारोंमें असंगति तथा अनिश्चितता है और अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय अपने निर्णयों में इनको आधारब नाने में हिचकते हैं।
ब्रायरली के अनुसार- सन्धि के प्रावधानों का शाब्दिक अर्थ न लगाकर इस प्रकार लागू किया जाना चाहिए कि उसका उचित प्रभाव हो।
इस प्रकार सन्धियों की विधि के विषय में मौलिक सिद्धान्त यह है कि एक बार सन्धि हो जाने के बाद उसके पक्षकार उसे मानने के लिए बाध्य हो जाते हैं।
वियना अभिसमय के अनुच्छेद 62 के अनुसार रिक्स सिक स्टैटिक्स के सिद्धान्त को आधार माना जा सकता है यदि निम्नलिखित आवश्यक तत्व उपस्थित हों-
(1) ऐसी परिस्थितियाँ जिनमें परिवर्तन आया हो, सन्धि के पक्षकारों की सहमति का आवश्यक आधार होना चाहिए।
(2) परिवर्तनों का सन्धि को पूरा किये जाने वाले उत्तरदायित्वों पर पूर्ण रूप से प्रभाव पड़ना चाहिए।
उपर्युक्त प्रावधानों के अलावा अनुच्छेद 62 (2) में यह स्पष्ट किया गया कि यह सिद्धान्त सीमाओं के निर्धारण के विषय में लागू नहीं होगा।
प्रश्न 28. (A) सन्धि का अन्त। Termination of Treaties.
(B) संधियों का अनुसमर्थन । Ratification of treaties.
उत्तर (A) – सन्धि का अन्त (Termination of Treaties)- जब सन्धि का समापन हो जाता है, तो इसे सन्धि की समाप्ति माना जाता है। किन्तु ‘समाप्ति’ शब्द के कई अर्थ होते हैं। समाप्ति का तात्पर्य सभी मामलों में सन्धियों की समाप्ति से नहीं होता। यद्यपि, द्विपक्षीय सन्धियों के मामले में, सन्धि उस समय समाप्त हो जाती है, जब एक पक्षकार सन्धि से अलग हो जाता है, किन्तु बहुपक्षीय सन्धि के मामले में स्थिति भिन्न होती है। बहुपक्षीय सन्धि में, एक पक्षकार के अलग हो जाने पर सभी पक्षकारों के बीच सन्धि समाप्त नहीं हो जाती। सन्धि उसी तरह बनी रहती है, जैसे पहले अस्तित्व में थी, सिवाय इसके कि सन्धि का उस राज्य में बाध्यकारी प्रभाव नहीं रह जाता, जो सन्धि से अलग हो गया है। वस्तुतः यह सन्धि से राज्य के वापसी (withdrawl) का मामला है। इस प्रकार, सही अर्थ में, समाप्ति शब्द का प्रयोग उन मामलों में किया जाना चाहिए जिनमें सन्धि समाप्त हो जाती है, न कि उन मामलों में, जिनमें एक पक्षकार सन्धि से अपने को अलग कर लेता है। लेकिन व्यापक अर्थ में, समाप्ति में दोनों मामले शामिल हैं क्योंकि द्विपक्षीय सन्धि में समाप्त हो जाती है जय कि बहुपक्षी सन्धियों के मामले में यह केवल एक पक्षकार के सम्बन्ध में समाप्त होती है। समाप्ति शब्द, जैसा कि वियना अभिसमय में प्रयुक्त हुआ है, दोनों मामलों को शामिल करता है। वियना अभिसमय के भाग 4, के अनुभाग 3 में सन्धि समाप्त होने के कई ढंगों का उल्लेख किया गया है जो निम्नलिखित हैं-
(1) पक्षकारों की सम्मति द्वारा (By consent of parties) कोई सन्धि अन्य संविदाकारी राज्यों से परामर्श के पश्चात्, सभी पक्षकारों की सम्मति से किसी भी समय समाप्त हो सकती है। यह प्रावधान वियना अभिसमय के अनुच्छेद 54 (ख) के अधीन किया गया है।
(2) प्रत्याख्यान द्वारा (By denunciation)- कई सन्धियाँ निश्चित अवधि के लिए या विशिष्ट तिथि या घटना तक के लिए की जाती हैं। ऐसे मामलों में, सन्धि में विहित अवधि के समापन पर या तिथि के व्यतीत होने पर या घटना के घटने पर सन्धि स्वतः समाप्त हो जाती है।
(3) दूसरी सन्धि करके (By concluding another treaty) – वियना अभिसमय के अनुच्छेद 59 (1) के अनुसार ‘कोई सन्धि समाप्त समझी जाएगी, यदि उस सन्धि के सभी पक्षकार उसी विषयवस्तु के सम्बन्ध में बाद में कोई अन्य सन्धि कर लेते हैं।’
(4) सन्धि का सारवान उल्लंघन (Material Breach of bilateral Treaties) किसी बहुपक्षीय सन्धि के किसी महत्त्वपूर्ण प्रावधान का उल्लंघन होता है तो दूसरे पक्षकार को सन्धि समाप्त करने का अधिकार मिल जाता है।
(5) सन्धि का लागू होना असम्भव हो जाना (Impossibility in enforcement of treaties)-वियेना सन्धि के अनुच्छेद 51 के अनुसार यदि परिवर्तित परिस्थितियों में सन्धि का प्रवर्तन असम्भव हो जाय तो सन्धि समाप्त हो जाती है।
(6) रिबस सिक स्टैन्टिबस (Rebus Sic Stantibus) – इस सिद्धान्त के अनुसार जब मौलिक परिस्थितियों में जिनमें सन्धि की गई थी, परिवर्तन हो जाता है तो दूसरे पक्षकार को यह आधार मिल जाता है कि दूसरा पक्षकार सन्धि को समाप्त कर दे।
(7) निश्चित अवधि की समाप्ति पर (On Expiry of Fixed Time)- यदि कोई सन्धि किसी निश्चित अवधि के लिए है तो उस अवधि की समाप्ति पर वह सन्धि समाप्त हो जाती है।
(8) जस कोजेन्स या सामान्य अन्तर्राष्ट्रीय विधि के नये अलंघनीय नियम का उदद्य (Emergence of new pre-emptory norm of International law or Jus Cogence)- वियेना कन्वेंशन के अलंघनीय नियम अनुच्छेद 64 के अनुसार यदि सामान्य अन्तर्राष्ट्रीय विधि के किसी Jus Cogens का उदय होता है तब वे अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियाँ जो इस नियम के विपरीत होती हैं, समाप्त हो जाती हैं।
उत्तर (B)- सन्धियों का अनुसमर्थन (Ratification of treaties)- अन्तर्राष्ट्रीय विधि में बाध्यकारी बल (sanction) सदस्य राष्ट्रों की सहमति है। अपने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में राष्ट्र आपसी विभिन्न विषयों पर सन्धि करते हैं। सन्धि आपसी सहमति के आधार पर की जाती है तथा इसे लागू करवाने के पीछे बल (force) (कारक) सन्धि के पक्षकारों के बीच हुई सहमति के फलस्वरूप सन्धि का संविदात्मक प्रारूप है। इस प्रकार सन्धि एका स्वीकारोक्ति या संविदा है जो दो या दो से अधिक राष्ट्रों के मध्य की जाती है जिसके अन्तर्गत वे उन कर्त्तव्यों का पालन करने की प्रतिज्ञा करते हैं या वचन देते हैं जो सन्धि के अन्तर्गत उनके ऊपर आरोपित किये जाते हैं।
राष्ट्रों के मध्य सन्धि सम्बन्धित राष्ट्र के प्रमुख या उसके प्रतिनिधि द्वारा निष्पादित होती है। लोकतान्त्रिक व्यवस्था में राष्ट्र प्रमुख या उसका प्रतिनिधि जनता का प्रतिनिधि होता है अतः सामान्य रूप से सन्धि तभी अपना विधिक रूप धारण करती है जब सन्धि को जनता का अनुसमर्थन मिल जाय। अनुसमर्थन (Ratification) के अभाव में सन्धियाँ अपना बाध्यकारी रूप प्राप्त नहीं करतीं। विभिन्न राष्ट्रों के सम्बन्ध में सन्धि के अनुसमर्थन के लिए नियत संवैधानिक प्रक्रिया में काफी भिन्नता है। वास्तव में अनुसमर्थन कार्यपालिका (Executive) का कार्य है जो राष्ट्र प्रमुख द्वारा किया जाता है। अनुसमर्थन के द्वारा सन्धि को औपचारिक स्वीकृति प्रदान की जाती है। सन्धियों को राष्ट्र प्रमुख अपना अनुसमर्थन प्रदान करते हैं। कई संविधान अपनी विधायिका के एक या दोनों सदनों की सहमति आवश्यक बनाते हैं। अमेरिका में सीनेट की दो-तिहाई बहुमत से संस्तुति तथा सहमति अनुसमर्थन के लिए आवश्यक है। ब्रिटेन में सम्राट के नाम सन्धि का अनुसमर्थन हो, इसके लिए मंत्रिमण्डल के लिए यह प्रथागत आवश्यकता हो गई है कि वह सन्धि को संस्तुति हेतु संसद के समक्ष रखे। ब्राजील के 1946 के संविधान के अन्तर्गत राष्ट्रपति कांग्रेस के मतसंग्रह (referendum) के द्वारा ही सन्धि कर सकता है।
सन्धियों के अनुसमर्थन के सम्बन्ध में संविधान का अनुच्छेद 253 उल्लेखनीय है। अनुच्छेद 253 के अनुसार, “किसी भी सन्धि, करार या कन्वेंशन को लागू कराने के उद्देश्य से सम्पूर्ण भारत क्षेत्र या उसके किसी भाग के सम्बन्ध में विधि बनाने का अधिकार संसद को होगा। यही नियम किसी अन्य देश या देशों के साथ अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में लिये गये निर्णयों पर भी लागू होगा।” परन्तु यह मान लेना गलत होगा कि सभी सन्धियों को लागू कराने के लिए विधायिका की सहायता आवश्यक है। शिव कुमार शर्मा तथा अन्य बनाम भारत संघ तथा अन्य, ए० आई० आर० 1969 दिल्ली 64 में उपरोक्त निर्णय दिया गया। इस वाद में कच्छ पंचाट के लागू कराने का प्रश्न अन्तर्निहित था।
प्रश्न 29. हस्तक्षेप से आप क्या समझते हैं?
What do you mean by ‘Intervention?
उत्तर-हस्तक्षेप (Intervention) – हस्तक्षेप को मध्यक्षेप के नाम से भी जाना जाता है। सभी राज्यों को अपनी इच्छानुसार अपने आन्तरिक तथा बाह्य मामलों का प्रबन्ध करने का अधिकार है। यह अधिकार राज्य प्रभुत्व सम्पन्नता के सिद्धान्त के अनुसार प्रदान किया गया है। चूंकि अधिकारों और कर्तव्यों का पारस्परिक सम्बन्ध होता है, इसलिए इस अधिकार के तत्समान दूसरे सभी राज्यों का यह कर्त्तव्य है कि वे अन्य राज्यों के मामले में किसी प्रकार का हस्तक्षेप न करें। दूसरे राज्यों के मामलों में हस्तक्षेप न करने का सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय विधि का एक स्थापित सिद्धान्त है। लेकिन जब हस्तक्षेप न करने के सिद्धान्त का उल्लंघन किया जाता है, अर्थात् जब एक राज्य दूसरे राज्य के मामलों में हस्तक्षेप करता है, तब अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अधीन इसे मध्यक्षेप कहा जाता है। ओपेनहाइम के अनुसार, जब एक राज्य द्वारा दूसरे राज्य के मामलों में बलात् (forcible) तथा अधिनायकवादी (dictatorial) हस्तक्षेप निश्चित आचरण या परिणाम मध्यक्षेप के तत्व आरोपित करने के लिए किया जाता है तब उसे मध्यक्षेप कहा जाता है।
प्रश्न 30. राजनयिक प्रतिनिधियों की परिभाषा दीजिए।
Define Diplomatic Agents.
उत्तर-राजनयिक प्रतिनिधि की परिभाषा (Definition of Diplomatic Agents)- राजनयिक अभिकर्ता (Diplomatic Agents) वे व्यक्ति होते हैं, जो विदेशों में भेजे जाने वाले राज्य के प्रतिनिधियों के रूप में निवास करते हैं। वे उन दोनों देशों के मध्य, जिसके द्वारा यह भेजे जाते हैं तथा जहाँ भेजे जाते हैं, महत्वपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करते हैं। इस प्रकार वे कूटनीतिक (Diplomacy) कृत्य करते हैं जिसका तात्पर्य अन्तर्राष्ट्रीय विधि में उस ढंग से है, जिसके द्वारा राज्य पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित करते हैं एवं बनाये रखते हैं तथा राजनीतिक या विधिक संव्यवहार पूरा करते हैं।
प्राचीन काल में भी राजदूतों का प्रचलन था। यद्यपि ओपेनहॉयम आदि अन्तर्राष्ट्रीय विधि के विद्वान इस विधि को पश्चिमी सभ्यता की उत्पत्ति मानते हैं। परन्तु रामायण तथा महाभारत काल में भी अन्तर्राष्ट्रीय विधि के कुछ सिद्धान्त प्रचलित थे। दूत भेजने की प्रथा का उल्लेख रामायण तथा महाभारत काल में भी मिलता है। रामायण में रामचन्द्र जी द्वारा रावण के दरबार में युद्ध होने के पूर्व, अंगद को दूत के रूप में भेजा गया था तथा महाभारत काल में श्रीकृष्ण ने पाण्डवों के दूत के रूप में कार्य किया था। इस प्रकार दूत की प्रथा का प्रचलन बहुत ही प्राचीन है। इस दूत या कूटनीतिक प्रतिनिधि (Diplomatic Agents) का प्रमुख कार्य उभय राज्यों के मध्य समागम के माध्यम से इन राज्यों के सम्बन्धों में सौहार्द्र स्थापित करना था।
राजनयिक या कूटनीतिक प्रतिनिधियों के अधिकार, कर्तव्य तथा विशेषाधिकार 18 वीं तथा 19वीं शताब्दी में अन्तर्राष्ट्रीय विधि के प्रथागत नियमों के रूप में विद्यमान थे। सन् 1815 की वियना कन्वेंशन में प्रथम बार राजनयिक अभिकर्ताओं से सम्बन्धित प्रथागत अन्तर्राष्ट्रीय विधि के नियमों को स्पष्ट तथा संहिताबद्ध किया गया। इस सम्बन्ध में विकास का अन्तिम चरण सन् 1961 में पूरा हुआ। सन् 1961 में राजनयिक सम्बन्धों (Diplomatic Relations) के वियना कन्वेंशन में राजनयिक के अधिकार, कर्त्तव्य तथा उन्मुक्तियों से सम्बन्धित विधि पारित की जा सकी। भारतीय संसद ने वियेना कन्वेंशन (1961) में पारित करके राजनयिक अभिकर्ताओं की उन्मुक्ति, कर्त्तव्य तथा अधिकार संम्बन्धी विधि को राजनयिक सम्बन्ध (वियेना कन्वेंशन) अधिनियम, 1972 के द्वारा प्रभावी स्वरूप दिया।
प्रश्न 31. राजनयिक अभिकर्ताओं की उन्मुक्तियों एवं विशेषताओं को बतलाइये। Describe the immunities and privileges of Diplomatic Agents.
उत्तर- राजनयिक प्रतिनिधियों के विशेषाधिकार तथा उन्मुक्तियाँ- राजनयिकों की उन्मुक्तियों के सम्बन्ध में दो सिद्धान्त प्रचलित हैं (1) अपरदेशीयता का सिद्धान्त (Theory of Extra Territoriality), (2) कार्यहित का सिद्धान्त (Theory of Functional interest) |
(1) अपरदेशीयता के सिद्धान्त के अनुसार जब कोई राजदूत या राजनयिक अभिकर्ता किसी अन्य देश में रहता है तो ऐसी परिकल्पना की जाती है कि वह जिस देश में रहता है उस देश में न रहकर अपने ही देश में निवास कर रहा है। अतः वह उस राज्य के क्षेत्राधिकार से बाहर होता है जिसमें उसकी नियुक्ति की गयी है। वह जिस क्षेत्र में रहता है उसे विदेशी या अपरदेशीय क्षेत्र माना जाता है। अतः उसे उस देश की विधियों से उन्मुक्ति मिलनी चाहिए जिसमें उसकी नियुक्ति हुई है।
(2) कार्यहित के सिद्धान्तों के अनुसार राजनयिक अभिकर्ता को उन्मुक्ति इसलिए दी जाती है क्योंकि वे एक विशिष्ट कार्य के लिए नियुक्त होते हैं। उनके द्वारा सम्पादित होने वाले उन विशेष कार्यों में उनके अपने देश का हित सर्वोपरि होता है। अतः इस विशिष्ट कार्य को करने के लिए उन्हें उन्मुक्ति दिया जाना आवश्यक है।
अन्तर्राष्ट्रीय विधि का एक प्रमुख आधार स्तम्भ अभिकर्ताओं की उन्मुक्तियाँ हैं। ये उन्मुक्तियाँ निम्न हैं-
(1) व्यक्तिगत सुरक्षा (Personal Security)
(2) आपराधिक क्षेत्राधिकार से उन्मुक्ति (Immunities from Criminal jurisdiction)
(3) दीवानी क्षेत्राधिकार से उन्मुक्ति (Immunities from civil jurisdiction) सिर्फ दूतों के कर्मचारी वर्ग की उन्मुक्ति (Immunities of officials)
(4) निवास स्थान के सम्बन्ध में उन्मुक्ति-शरण की स्वीकृति (Immunities Regarding Residence)
(5) करों में छूट (Exemption from Taxation)
(6) माल के अभिग्रहण होने से छूट (Immunities from seizure of Goods)
(7) उपासना का अधिकार (Right to Worship)
(8) यातायात की स्वतन्त्रता (Freedom of Communication)
प्रश्न 32. राज्य क्षेत्र से आप क्या समझते हैं?
What do you mean by “State Territory”?
उत्तर- राज्य क्षेत्र (State Territory) – राज्य क्षेत्र से तात्पर्य पृथ्वी के उस भाग से होता है जिस पर उस राज्य की प्रभुत्वसम्पन्नता होती है अर्थात् जिस क्षेत्र पर राज्य का नियन्त्रण एवं अधिकार होता है, उसे राज्य क्षेत्र कहा जाता है-
राज्य क्षेत्र के अन्तर्गत निम्नलिखित को शामिल किया जाता है-
(1) भू-राज्यक्षेत्र (Land Territory) राज्य की सीमाओं के अन्तर्गत की भूमि उस राज्य का राज्यक्षेत्र होता है।
(2) राष्ट्रीय जल
(3) राज्य क्षेत्रीय समुद्र
(4) राज्यक्षेत्र के ऊपर वायुमण्डल
(5) पृथ्वी के नीचे की भूमि
प्रश्न 33. प्रादेशिक आश्रय की विवेचना कीजिए।
Explain the Territorial Asylum.
उत्तर- प्रादेशिक आश्रय (Territorial Asylum) – जब कोई राज्य किसी अन्य राज्य के व्यक्ति को अपने क्षेत्र के भीतर आश्रय देता है तो उसे प्रादेशिक आश्रय कहते हैं। प्राचीन समय से ही यह माना जाता है कि राज्य प्रादेशिक आश्रय के मामले में स्वतन्त्र होता है तथा यह आश्रय अपराधियों के अतिरिक्त राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक शरणार्थियों को भी दिया जा सकता है। युद्ध बन्दियों को आश्रय दिये जाने पर मतभेद है। इससे स्पष्ट है कि किसी पीड़ित व्यक्ति को अन्तर्राष्ट्रीय विधि यह अधिकार नहीं प्रदान करती है कि जब वह आश्रय माँगे तो उसे मिले ही और न ही इस विषय में राष्ट्रों का कोई सामान्य उत्तरदायित्व है। इसके उदाहरण में-
दलाईलामा तथा उनके अनुयायियों का उदाहरण– चीन की नीतियों से पीड़ित होकर दलाईलामा तथा उनके अनुयायियों ने भारत से राजनीतिक शरण लेने की प्रार्थना की। भारत ने क्षेत्रीय प्रभुत्वसम्पन्नता का प्रयोग करते हुए दलाई लामा तथा उनके अनुयायियों को आश्रय प्रदान किया जबकि चीन ने भारत के इस कार्य की आलोचना करते हुए कहा कि यह उसके आन्तरिक मामले में भारत द्वारा हस्तक्षेप है परन्तु भारत को पूर्ण स्वतन्त्रता है कि वह अपनी क्षेत्रीय प्रभुत्व सम्पन्नता का उपयोग कर किसी को आश्रय प्रदान करे या नहीं।
बांग्लादेशी शरणार्थी- पाकिस्तान की सैनिक प्रशासन की दमनकारी नीतियों तथा जनवध के परिणामस्वरूप लाखों बांग्लादेशियों ने भारत से राजनीतिक शरण प्रदान किये जाने की प्रार्थना की इस पर भारत ने न केवल उदारता से उन्हें आश्रय प्रदान किया बल्कि उनके भोजन तथा आवश्यकताओं को भी भली-भाँति पूरा किया और इतनी बड़ी संख्या में लोगों को शरण देने का एक अप्रत्याशित उदाहरण भी प्रस्तुत किया। यह कार्य मानवीय अधिकारों के कमीशन की घोषणा के ही अनुरूप था।
यदि भारत उन लाखों लोगों को शरण नहीं देता, वापस कर देता तो शायद इन लोगों के वध होने तथा अनेक प्रकार से पीड़ित होने की पूर्ण सम्भावना थी। अतः भारत का कार्य बेहद प्रशंसनीय था तथा अन्तर्राष्ट्रीय विधि के सिद्धान्तों के अनुकूल था।
प्रश्न 34.गैर-राज्य इकाइयाँ क्या हैं?
What are the non-state entities?
उत्तर- गैर राज्य इकाइयाँ- गैर राज्य या असामान्य राज्य निम्न हैं-
(क) वैटिकन सिटी (Vatican City) – होली सी एक प्रभुत्व सम्पन्न राज्य है। • कैथोलिक इसाइयों को प्रमुख पोप (Pope) होली सी का शासक (Monarch) है। पोप 1870 के पूर्व, पोप के राज्यों (Popal States) का शासक था तथा अन्य सभी शासकों के समान था। इटली ने 1870 में पोप के राज्यों को अपने राज्य में मिला लिया। लेकिन रोमन कैथोलिक चर्च के प्रधान के रूप में पोप का अन्तर्राष्ट्रीय महत्व बना रहा। उसके द्वारा विधिक क्षमता (Juristic Capacity) को भी इस अर्थ में धारण करना जारी रखा गया था कि वह राजनयिक मिशनों (Diplomatic Missions) का आदान-प्रदान कर सकता था तथा राज्यों के साथ सन्धि कर सकता था, जिन्हें सामान्यतया धर्मसन्धि (Concordats) कहा जाता था। लेकिन इस विचार की सराहना नहीं की गई कि पोप इटली का सामान्य नागरिक बना रहे। इटली की संसद ने 1871 में पोप तथा होली सी को प्रत्याभूति प्रदान करने के सम्बन्ध में एक अधिनियम लागू किया जिसे प्रत्याभूति-विधि (Law of Guarantee) कहा जाता है।
वैटिकन के राज्यत्व की वास्तविकता पर विधिशास्त्रियों द्वारा दिये गये आधारों पर प्रश्न चिह्न लगाया गया है।
राज्य को होली सी कहा जाये या वैटिकन सिटी। लैटरन सन्धि (Lateran Treaty) पें इसे स्पष्ट नहीं किया गया है। इस अर्थ में यह भ्रान्तिपूर्ण है कि सन्धि में होली सी तथा वैटिकन सिटी दोनों की प्रभुत्व सम्पन्नता दिये जाने से प्रश्न और भी जटिल हो गया है। सम्भवतः राज्य को वैटिकन सिटी कहना तथा उसके प्रभुत्व को होली सी कहना अधिक उपयुक्त होगा।
(ख) तटस्थीकृत राज्य (Neutralized States) – ओपेनहाइम के अनुसार तटस्थीकृत राज्य वह राज्य है जिसकी स्वतन्त्रता तथा अखण्डता के लिए सन्धि द्वारा इस शर्त पर गारण्टी दी जाती है कि वह स्वयं को सैनिक सन्धियों में शामिल नहीं करेगा तथा ऐसी अन्तर्राष्ट्रीय बाध्यताओं, जो अप्रत्यक्ष रूप से उसे युद्ध में शासित करे, को नहीं मानेगा। किसी राज्य को तटस्थीकृत राज्य कहने के लिए तीन तत्वों की अपेक्षा की जाती है। प्रथम, राज्य को आक्रामक कार्य से विरत रहना चाहिए। लेकिन, वह अपने ऊपर आक्रमण होने पर आत्मरक्षा के रूप में युद्ध कर सकता है। दूसरे, राज्य को भविष्य में सभी युद्धों में तटस्थ (Neutral) रहना चाहिए, तथा तीसरे राज्य की उक्त स्थिति को अन्तर्राष्ट्रीय अभिसमय में अन्य राज्यों द्वारा सामूहिक रूप से मान्यता दी जानी चाहिए।
(ग) मुक्त शहर (Free Cities) मुक्त शहर एक ऐसी विनिर्दिष्ट राजनीतिक रचना है जिसमें केवल एक स्वतन्त्र नगर (Independent Town) होता है। इनकी स्थिति सम्बद्ध राज्यों के अनुबद्ध द्वारा निर्धारित की जाती है। यद्यपि उनके पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न होने की आवश्यक रूप से अपेक्षा नहीं की जाती है, फिर, भी ऐसे राज्यों का मुख्य लक्षण स्वतन्त्रता तथा अतिक्रमण न करना है, इसलिए इन्हें अन्तर्राष्ट्रीय प्रास्थिति प्राप्त है।
प्रश्न 35. राज्य की अधिकारिता को स्पष्ट कीजिए।
Make clear the state jurisdiction.
उत्तर- राज्य अधिकारिता (State Jurisdiction) एक राज्य का अपने राज्य क्षेत्र पर अधिकारिता के होने को राज्यक्षेत्रीय अधिकारिता कहा जाता है अर्थात् राज्य अपने राज्य क्षेत्र के अन्तर्गत सभी व्यक्तियों तथा वस्तुओं पर सिविल तथा दाण्डिक अधिकारिता का प्रयोग करता है। अपने राज्य क्षेत्रीय परिसीमा के अन्तर्गत सभी व्यक्तियों तथा वस्तुओं पर एवं अपनी परिसीमा के अन्तर्गत उत्पन्न होने वाले सभी सिविल तथा दाण्डिक हेतुकों में अधिकारिता को धारण करने को प्रभुत्व सम्पन्नता का प्रतीक माना जाता है। राज्यक्षेत्रीय अधिकारिता के सिद्धान्त का विस्तार सीमाओं के अन्तर्गत भू-राज्यक्षेत्र, आन्तरिक जलों, राज्य क्षेत्रीय समुद्र, भू-राज्यक्षेत्र के ऊपर के वायुमण्डल तथा भूमि के नीचे की उपभूमि तक होता है। अन्तर्राष्ट्रीय विधि आयोग द्वारा 1949 में तैयार की गई राज्यों के अधिकार तथा कर्त्तव्य प्रारूप घोषणा में प्रावधान किया गया है कि प्रत्येक राज्य को अपने ऊपर तथा उसमें स्थित सभी व्यक्तियों और वस्तुओं के ऊपर अधिकारिता के प्रयोग का अधिकार है। राज्यक्षेत्रीय अधिकारिता का आधार उस सिद्धान्त पर आधारित है, जो राज्य क्षेत्र को राज्य की अवधारणा के संघटक तत्व के रूप में मान्यता देता है। इसे क्षेत्र सिद्धान्त (Area theory) भी कहा जाता है।
प्रश्न 36. राज्य उत्तराधिकार से आप क्या समझते हैं?
What do you understand by state succession?
उत्तर- राज्य उत्तराधिकार- फेन्विक के अनुसार, “अन्तर्राष्ट्रीय विधि में राज्यों के उत्तराधिकार के नियमों को ग्रोशस ने प्रारम्भ किया।” रोमन विधि के अनुसार, “कोई व्यक्ति मरता है तो विधि में उसके उत्तरदायित्व तथा अधिकार उसके उत्तराधिकारी को प्राप्त हो जाते हैं।” यही नियम ग्रोशस ने राज्यों के उत्तराधिकार के विषय में भी अपनाया।
राज्य उत्तराधिकार को इस प्रकार समझा जा सकता है कि, जब किसी राज्य का कोई प्रदेश उसकी प्रभुसत्ता से निकलकर दूसरे राज्य को प्राप्त होता है, तो पहले वाले राज्य को पूर्वाधिकारी और दूसरे को उत्तराधिकारी कहा जाता हैं। इस प्रक्रिया को उत्तराधिकार कहा जाता है। उदाहरणार्थ, सन् 1947 से पहले भारत एक अविभाजित देश था, जो कि ब्रिटिश शासन के अधीन था, परन्तु स्वतन्त्रता के पश्चात् उसके भारत और पाकिस्तान दो उत्तराधिकारी हुए और ब्रिटिश सत्ता उनका पूर्वाधिकारी। इस प्रकार से एक व्यक्तित्व का स्थान दो अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्तियों ने ले लिया जिसे राज्य उत्तराधिकारी कहा जा सकता है।
अर्थात् अन्तर्राष्ट्रीय विधि में ‘राज्य उत्तराधिकार’ का तात्पर्य किसी राज्य के राज्य क्षेत्र पर अन्य राज्य के प्रतिस्थापन से होता है।
प्रश्न 37. राज्य प्राप्त करने के मान्य तरीके कौन-कौन से हैं?
What are the recognised modes of acquiring territorial sovereignty?
उत्तर- राज्य प्राप्त करने के मान्य तरीके- किसी राज्य क्षेत्र का अर्थ उसकी क्षेत्रीय सम्प्रभुता से लगाया जाना चाहिए। किसी राष्ट्र (राज्य) की क्षेत्रीय सम्प्रभुता (Territorial sovereignty) न सिर्फ उसके भू-भाग पर रहती है परन्तु उसमें राष्ट्रीय जल (जैसे नदियाँ, तालाब आदि) तथा भूमि तथा जल के ऊपर के वायु क्षेत्र या आकाश क्षेत्र भी सम्मिलित होता है। अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अन्तर्गत क्षेत्रीय सम्प्रभुता निम्न तरीकों से प्राप्त की जा सकती है-
(1) कब्जा या दखल; (2) भोगाधिकार; (3) क्षेत्र वृद्धि; (4) परित्याग; (5) छीन लेना, अपहरण या विजय द्वारा; (6) पट्टा; (7) गिरवी; (8) जनमत संग्रह।
प्रश्न 38. सत्प्रयत्न से आप क्या समझते हैं?
What do you understand by Good Offices.
उत्तर- सत्प्रयत्न (Goood offices) जब कोई तीसरा पक्षकार विवादी पक्षकारों को बैठक इस कारण आयोजित करता है, जिससे कि वे वार्ता द्वारा विवाद का निपटारा कर लें या इस तरह से कार्य करें कि शान्तिपूर्ण हल निकल आये, तब ऐसे कार्य को सत्प्रयल कहा जाता है। सत्प्रयत्न के मामले में तीसरा पक्षकार न तो बैठक में भाग लेता है और न ही पक्षकारों को अपना सुझाव देता है। इसका मुख्य कार्य केवल पक्षकारों को वार्ता के लिए प्रेरित करना होता है जिससे वे विवाद का निपटारा कर सकें।
प्रश्न 39. अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के निपटारे के बलपूर्वक तरीके क्या हैं? विवेचना कीजिए।
What are the coercive means of settlement of International disputes?
उत्तर- अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को निपटाने के बलपूर्वक तरीके निम्नलिखित हैं-
(1) प्रतिकर (Retorsion)
(2) प्रतिशोध (Reprisal)
(3) अधिरोध (Embargo)
(4) शान्तिपूर्ण अवरोध (नाकाबन्दी) (Pacific Blockade)
(5) हस्तक्षेप (Intervention)
(6) संयुक्त राष्ट्र के अन्तर्गत निस्तारण (Settlement Under U.N.)
प्रश्न 40 अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को सुलझाने के शान्तिपूर्वक तरीकों की संक्षेप में व्याख्या कीजिए। Explain in brief the pacific modes of the settlement of the international disputes.
उत्तर- अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को निपटाने के शान्तिपूर्ण उपाय निम्न हैं-
(1) विवाचन (Arbitration),
(2) न्यायिक समझौता (Judicial settlements),
(3) वार्ता (Negotiations).
(4) सद्भावना (Good offices),
(5) मध्यस्थता (Mediation),
(6) समाधान (Conciliation),
(7) जाँच आयोग (Enquiry Commission),
(8) संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में निस्तारण (Settlement of International dispute under auspices of united nations organisation)
प्रश्न 41. ‘अन्तरिक्ष विषयक अभिसमय’ क्या है?
What is ‘Convention on outer space’?
उत्तर- अन्तरिक्ष विषयक अभिसमय- अन्तरिक्ष विषयक अन्तर्राष्ट्रीय अभिसमय निम्न हैं-
(1) अन्तरिक्ष यात्रियों के बचाव, अन्तरिक्ष यात्रियों की वापसी तथा बाह्य अन्तरिक्ष में प्रक्षेपित उपग्रहों की वापसी पर करार, 1967- महासभा द्वारा यह करार 1967 को अनुमोदित किया गया। यह 3 दिसम्बर, 1968 को प्रवर्तन में आया। करार के अनुच्छेद 1 के अनुसार, प्रत्येक संविदाकारी पक्षकार को सहायता देने का दायित्व है, यदि वे सूचना प्राप्त करते हैं या उन्हें ज्ञात है कि अन्तरिक्ष यान के यात्री की दुर्घटना हुई है, या वह विपदाग्रस्त स्थिति में है, तथा वह उसकी अधिकारिता के अधीन राज्यक्षेत्र में, या खुले समुद्र पर, या किसी राज्यक्षेत्र के अधीन न आने वाले किसी स्थान में यान को आपात स्थिति में उतारता है। ऐसा राज्य उपग्रह छोड़ने वाले राज्य को तत्काल इसकी सूचना देगा। यदि राज्य यान की शिनाख्त नहीं कर सकता तथा छोड़ने वाले राज्य को तत्काल सूचना नहीं दे सकता, तब संचार के सभी समुचित साधनों द्वारा सार्वजनिक घोषणा करेगा। राज्य संयुक्त राष्ट्र महासचिव को भी अधिसूचित करेगा, जो संचार के सभी समुचित साधनों द्वारा बिना विलम्ब के सूचना को प्रसारित करेगा।
(2) अन्तरिक्ष उपग्रहों द्वारा कारित क्षति के लिए अन्तर्राष्ट्रीय दायित्व का अभिसमय (1971) (The Convention on International Liability for Damage Caused by Space Objects) – इस अभिसयम की सिफारिश महासभा द्वारा 29 नवम्बर, 1971 को की गयी थी और यह 29 मार्च, 1972 को प्रवर्तित हुआ। अभिसमय में इस बात का प्रावधान है कि अन्तरिक्ष में उपग्रहों को छोड़ने वाले राज्यों को उपग्रह से होने वाली क्षति के लिये उनका दायित्व होगा। अभिसमय अनुच्छेद 2 के अधीन अन्तरिक्ष उपग्रह द्वारा कारित भूमि सतह पर या वायुयान को या उड़ान में रहने वाले वायुयान को किसी क्षति के लिए तत्काल तथा पूर्ण प्रतिकर के लिए प्रावधान करता है।
(3) बाह्य अन्तरिक्ष के अन्वेषण या प्रयोग के लिए अन्तरिक्ष में प्रक्षेपित उपग्रहों के पंजीकरण पर अभिसमय (1974) (The Convention on the Registration of Objects Launched into Space for the Exploration or Use of Outer Space)- यह अभिसमय 12 नवम्बर, 1974 को महासभा द्वारा स्वीकृत किया गया था तथा 15 सितम्बर, 1976 को प्रवर्तित हुआ। यह अभिसमय प्रावधान करता है कि जब अन्तरिक्ष उपग्रह को पृथ्वी की कक्षा (earth orbit) में या उसके बाहर छोड़ा जाये, तब छोड़ने वाला राज्य उसे एक रजिस्टर में पंजीकृत करे। अन्तरिक्ष उपग्रह छोड़ने वाला प्रत्येक राज्य ऐसे पंजीकरण की सूचना संयुक्त राष्ट्र महासचिव को देगा। महासचिव एक रजिस्टर रखेंगे, जिसमें राज्य पंजीकरण की प्रविष्टि, प्रत्येक अन्तरिक्ष उपग्रह से सम्बन्धित सूचना को अभिलिखित करेगा। बाह्य अन्तरिक्ष में कार्यों की वृद्धि होने के कारण महासभा ने 1987 में एक संकल्प स्वीकार किया। अन्तरिक्ष में छोड़े जाने वाले उपग्रहों को पंजीकृत करने के लिए प्रभावी अन्तर्राष्ट्रीय नियमों तथा प्रक्रियाओं के निरन्तर महत्व को मान्यता दी।
प्रश्न 42. मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा एवं इसके महत्व की विवेचना कीजिए।
Discuss the Universal Declaration of Human Rights and its Importance.
उत्तर- न्यायमूर्ति लाटरपैट ने अपना मत प्रकट किया है कि “मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा 1948, विश्व की महत्वपूर्ण घटना है तथा यह संयुक्त राष्ट्र का महत्वपूर्ण योगदान है।” इसकी प्रस्तावना में यह स्पष्ट किया गया है कि संयुक्त राष्ट्र का प्रत्येक अंग यह प्रयत्न करेगा कि घोषणा में वर्णित अधिकारों तथा स्वतन्त्रताओं को मान्यता प्रदान करें तथा लागू करे।
घोषणा के प्रावधान निम्न हैं-
अनुच्छेद 1 में मनुष्य के प्राकृतिक अधिकारों के दर्शन को स्वीकार किया गया है। इसके अनुसार सभी मनुष्य स्वतन्त्र पैदा हुए हैं तथा समान अधिकारों में समान हैं। उनके तर्क तथा अंतःकरण हैं तथा उनमें एक दूसरे के प्रति भाई-चारे का व्यवहार होना चाहिए।” अनुच्छेद 13 से 15 तक जीवन, स्वतन्त्रता, व्यक्ति को संरक्षा तथा विधि के समक्ष समानता आदि का वर्णन किया गया है। अनु० 16 द्वारा वयस्क पुरुष तथा स्त्रियों को बिना राष्ट्रत्व तथा धर्म के भेदभाव के विवाह करने तथा कुटुम्ब स्थापित करने के अधिकारों का वर्णन किया गया है। अनु० 17 में व्यक्तियों को सम्पत्ति के स्वामित्व का अधिकार प्रदान किया गया है। अनुच्छेद 18 तथा 19 में धर्म, मत तथा विचारों की अभिव्यक्ति के विषय में स्वतन्त्रता प्रदान की गयी है।
घोषणा का विधि में महत्व- लाटरपैट के अनुसार यह केवल एक घोषणा है। यह महासभा का प्रस्ताव भी नहीं है, अतः विधि में इसका महत्व बंधनकारी नहीं होगा। स्टार्क के अनुसार इस घोषणा की सबसे बड़ी सफलता मानवीय अधिकारों का विस्तृत वर्णन करना है। सभी राज्य किसी न किसी रूप में इसे मानते हैं। । यदि कोई राज्य इसकी अवहेलना करता है तो यह चार्टर के अनुच्छेद 55 तथा 56 का उल्लंघन होगा। अतः यह कहा जा सकता है कि मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा का विधिक महत्व है तथा इसके प्रावधान राज्यों पर बन्धनकारी हैं।
प्रश्न 43. संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अधीन मानव अधिकार।
Human Rights under the U.N. Charter.
उत्तर-संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अधीन मानव अधिकार (Human Rights under the U.N. Charter)- संयुक्त राष्ट्र चार्टर की प्रस्तावना के प्रथम सारवान् पैरा में यह प्रावधान किया गया है कि “संयुक्त राष्ट्र (संघ) के लोग मौलिक मानवाधिकार में, मानव को योग्यता तथा सम्मान में, पुरुष तथा स्त्री के समान अधिकारों में, बड़े या छोटे राज्यों (राष्ट्रों) के समान अधिकारों में अपना विश्वास पुनः पुष्ट करते हैं। चार्टर के अनुच्छेद एक के पैरा 3 में मानवाधिकार के सम्बन्ध में उनके विकास तथा संवर्धन हेतु अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग को प्राप्त करना तथा जाति, लिंग, भाषा तथा धर्म के आधार पर विभेद किए बिना सभी के लिए मौलिक अधिकार (Fundamental Rights) को सुनिश्चित किये जाने की भी पुष्टि की गयी है।
संयुक्त राष्ट्र चार्टर का अनुच्छेद 55 यह प्रावधान करता है कि संयुक्त राष्ट्र (संघ) जाति, लिंग, भाषा तथा धर्म के विभेद के बिना सभी के लिए मानवाधिकार तथा मौलिक अधिकार के पालन तथा उसके सार्वभौमिक सम्मान (universal respect) का संवर्धन करेगा। इस उद्देश्य के लिए संयुक्त राष्ट्र संगठन के साथ सभी सदस्य राष्ट्र सहयोग करेंगे। (अनुच्छेद 55)। चार्टर का अनुच्छेद 62 आर्थिक तथा सामाजिक परिषद् को, मानवाधिकार तथा मौलिक स्वतन्त्रता के पालन तथा सम्मान के पालन तथा संवर्धन के उद्देश्य से, संस्तुति करने के लिए अधिकृत करता है। संयुक्त राष्ट्र चार्टर यह सुनिश्चित करता है कि राज्य अपनी प्रजा के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, यह अन्तर्राष्ट्रीय चिन्ता का विषय है। अब सर्वसम्मति से यह दृष्टिकोण सुस्थापित हो चुका है कि मानवाधिकार अन्तर्राष्ट्रीय विधि का मूलभूत सिद्धान्त बन गया है। संयुक्त राष्ट्र चार्टर प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय दस्तावेज है जिसने मानवाधिकार तथा मौलिक स्वतन्त्रता को अन्तर्राष्ट्रीयता के सिद्धान्त के रूप में सम्मान तथा मान्यता दी है।
इस प्रकार मानवाधिकार, मानव सम्मान तथा व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक एवं अपरिहार्य है। प्रत्येक सभ्य समाज में मूलभूत अधिकार या मानवाधिकार को मान्यता दी जाती रही है। परन्तु बर्बर शासकों ने अपने आतंकी शासन के दौरान मानवाधिकार या मौलिक अधिकारों का हनन किया है। मानवाधिकार की परिभाषा देना कठिन है। मानवाधिकार मानव को प्राप्त अन्तर्निहित अधिकार है जो उसके सम्मान तथा स्वतन्त्रता को जाति, धर्म, लिंग तथा भाषा के विभेद बिना प्राप्त है। इन्हें मौलिक अधिकार, आधारभूत अधिकार तथा नैसर्गिक अधिकार की संज्ञा भी दी जाती रही है। मानवाधिकार विश्व के प्रायः सभी संविधानों या मौलिक विलेखों में किसी न किसी रूप में सम्मिलित किये गये हैं। अमरिकी राष्ट्रपति ने सन् 1941 में मानवाधिकार को चार स्वतन्त्रताओं की संज्ञा दी है तथा इसमें वाक् स्वतन्त्रता धर्म की स्वतन्त्रता, आवश्यकताओं की स्वतन्त्रता तथा भय से स्वतन्त्रता को सम्मिलित बताया है। भारत में भी संविधान के भाग तीन में अनुच्छेद 14 से अनुच्छेद 42 तक मौलिक अधिकारों के रूप में मानवाधिर को सम्मिलित किया गया है।
प्रश्न 44. क्या आप इससे सहमत हैं कि मानवाधिकार के संवर्धन एवं संरक्षण में संयुक्त राष्ट्र की महत्वपूर्ण भूमिका है?
Do you agree that the United Nations play important role in the promotion and protection of Human Rights?
उत्तर- मानव अधिकारों के संवृद्धि एवं संरक्षण में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका – मानव अधिकारों का संवर्धन एवं विकास संयुक्त राष्ट्र का एक प्रमुख उद्देश्य है। संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में मानव अधिकार का सात बार प्रयोग किया गया है। परन्तु संरक्षण का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। मानव अधिकारों की अभिवृद्धि एवं संरक्षण के कार्य में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका एवं विस्तार क्षेत्र में पिछले पचपन (55) वर्षों में अत्यधिक वृद्धि हुई है। संयुक्त राष्ट्र की भूमिका निम्न रूपों से स्पष्ट है-
1. मानव अधिकारों के प्रति जागरूकता – संयुक्त राष्ट्र ने व्यक्तियों व राज्यों के बीच मानव अधिकारों एवं मूलभूत स्वतन्त्रताओं के प्रति जागरूकता पैदा की है। इसने राज्यों द्वारा स्वीकार्य व्यवहार के न्यूनतम मानक को स्थापित किया है। मानवाधिकारों को सार्वभौमिक घोषणा जिसमें मानव अधिकारों की सार्वभौमिक संहिता अन्तर्विष्ट की गयी है को, मानव अधिकारों के अभिवृद्धि एवं संरक्षण में प्रथम कदम समझा जा सकता है।
2. मानवाधिकार विधि का संहिताकरण- संयुक्त राष्ट्र ने महिलाओं, बच्चों, प्रवासी कर्मकारों, शरणार्थियों एवं विराष्ट्रिक व्यक्तियों जैसे लोगों के सभी वर्ग के लिए सन्धियाँ बनाकर विभिन्न अधिकारों एवं स्वतन्त्रताओं को संहिताबद्ध किया है। इसके अलावा सामूहिक नरसंहार, रंग भेद, मूलवंशीय भेदभाव एवं प्रपीड़न जैसे अमानवीय कृत्यों के कारित किये जाने पर अन्तर्राष्ट्रीय विधि के नियमों के अन्तर्गत प्रतिषेध किया गया है।
3. मानव अधिकारों का अनुश्रवण करना- मानव अधिकार आयोग के कार्य समूहों एवं विशेष रिपोर्टियर तथा सन्धि निकायों को मानव अधिकारों के दुरुपयोगों के अभिकथनों के अन्वेषण करने और अभिसमयों के अनुपालन का अनुश्रवण करने की प्रक्रिया एवं तौर-तरीके उपलब्ध हैं। संयुक्त राष्ट्र अनुश्रवणकर्ताओं को अनेक देशों में भेजा गया जहाँ उनका कार्य शान्ति स्थापित करना है।
4. व्यक्तिगत परिवादों के लिए प्रक्रिया- मानव अधिकारों की कई सन्धियाँ उपयुक्त निकायों के समक्ष व्यक्तियों को याचिका दायर करने का अधिकार प्रदान करती हैं। उदाहरण के लिए सिविल एवं राजनैतिक अधिकारों पर प्रथम ऐच्छिक प्रोटोकाल मूलवंशीय भेदभाव के सभी रूपों की समाप्ति हेतु अन्तर्राष्ट्रीय अभिसमय तथा प्रपीड़न के विरुद्ध अभिसमयों के द्वारा उन पीड़ित व्यक्तियों को याचिका दायर करने का अधिकार प्रदान करती है। इसके अलावा मानवाधिकार आयोग द्वारा स्थापित संक्रियाओं के अन्तर्गत तथा उनके कार्य समूह के अन्तर्गत अल्पसंख्यकों पर किये जाने वाले भेदभाव के निवारण एवं संरक्षण हेतु अनेक गैर सरकारी संगठनों द्वारा प्रतिवाद प्रस्तुत किये जाते हैं।
5. मानवाधिकारों के उल्लंघन पर सूचना का संकलन– मानवाधिकार आयोग का मुख्य कार्य है उन स्थितियों का परीक्षण करना जहाँ मानवाधिकार का उल्लंघन हो रहा है। उसका संकलन करना तथा इस कार्य को कार्यकारी समूहों या विशेष रिपोर्टर के द्वारा पूरा करना है।
प्रश्न 45. वायुयान अपहरण।Aircraft Hijacking.
उत्तर- वायुयान अपहरण (Aircraft Hijacking)- वायुयान अपहरण शब्द की परिभाषा उस कार्य को कहा जा सकता है, जो उड़ान में रहने वाले वायुयान पर विधिविरुद्ध ढंग से तथा उनके विरुद्ध, जिनके नियन्त्रण में वायुयान है, बल प्रयोग या बल की धमकी के साथ कतिपय उद्देश्य को प्राप्त करने या वांछित लक्ष्य पर पहुँचने के लिए किया जाता है। इस परिभाषा से यह स्पष्ट होता है कि किसी कृत्य को ‘वायुयान अपहरण’ कहने के लिए, उसमें कुछ तत्वों का उपस्थित होना आवश्यक है; प्रथम, वायुयान अपहरण उड़ान में रहने वाले वायुयान पर किया जाता है। दूसरा, इसे बल प्रयोग या बल की धमकी के साथ या भय- प्रदर्शन के किसी अन्य रूप से किया जाता है, तीसरा, यह उनके विरुद्ध किया जाता है, जिनके नियन्त्रण में, और चौथा, अपहरण का उद्देश्य कुछ उद्देश्यों को प्राप्त करना या वांछित लक्ष्य तक पहुँचना है। वायुयान अपहरण विधिविरुद्ध कृत्य है। यह अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद का एक रूप है। यह अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था के विरुद्ध है और सम्पूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय को क्षतिग्रस्त करता है। अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय ने वायुयान अपहरण के दमन को आवश्यक बना दिया है। इसका निवारण करने तथा दमन करने के लिए चार अन्तर्राष्ट्रीय अभिसमयों तथा एक नयाचार का निर्माण किया गया है, जो निम्नलिखित हैं-
(1) टोकियो अभिसमय, 1963
(2) हेग अभिसमय, 1970
(3) मान्ट्रियाल अभिसमय, 1971
(4) खोज के प्रयोजन के लिए प्लास्टिक विस्फोटकों का अंकन अभिसमय, 1991
भारत तीनों अभिसमयों, अर्थात् टोकियो अभिसमय, हेग अभिसमय तथा मान्ट्रियाल अभिसमय का पक्षकार है। इन अभिसमयों को प्रभावी बनाने के लिए, संसद द्वारा समर्थकारी अधिनियम पारित किये गये हैं। ये अधिनियम निम्नलिखित हैं-
(क) टोकियो अभिसमय को प्रभावी करने के लिए 8 मई, 1975 को टोकियो अभिसमय अधिनियम (Tokyo Convention Act) अधिनियमित किया गया।
(ख) हेग अभिसमय को प्रभावी करने के लिए 6 नवम्बर, 1982 को अपहरण विरोधी अधिनियम (Anti-Hijacking Act) अधिनियमित किया गया।
(ग) मान्ट्रियाल अभिसमय को प्रभावी करने के लिए 6 नवम्बर, 1982 को सिविल विमानन की सुरक्षा के विरुद्ध विधिविरुद्ध कार्य दमन अधिनियम (The Suppression of Unlawful Acts Against Safety of Civil Aviation Act) अधिनियमित किया गया।
प्रश्न 46. युद्धबन्दी के साथ व्यवहार। Treatment of Prisoners of war.
उत्तर-युद्धबन्दियों के साथ व्यवहार (Treatment of Prisoners of War)- अन्तर्राष्ट्रीय विधि बन्दियों के पकड़े जाने के पूर्व किए गए उनके शत्रुतापूर्ण कार्यों के लिए दण्ड से उनकी रक्षा करती है। उन्हें बन्दी स्थिति (captivity) के दौरान कई विशेषाधिकार प्रदान किये गये हैं। यदि एक बार युद्ध-बन्दी होने के कारण बन्दी के दावा को मान्यता दे दी जाती है, तो बन्दीकर्ता राज्य अपनी राष्ट्रीय विधि या नीतियों, सिवाय उनके जो अन्तर्राष्ट्रीय विधि द्वारा स्वीकृत हैं, को प्रवर्तित करने के लिए स्वतन्त्र नहीं है। वह कई तरीके से बाध्य है तथा वह संरक्षण, चिकित्सीय देख-रेख, खाद्य पदार्थ तथा अन्य सुविधाओं को प्रदान करने के लिए कुछ सकारात्मक कार्यों के प्रति वचनबद्ध हो जाता है। इस अधिमान्य प्रस्थिति को प्रदान करने के लिए नैतिक तथा विधिक औचित्य इस तथ्य में निहित है कि युद्ध बन्दी, पकड़े जाने के पूर्व, शत्रु राज्य के सम्बन्ध में उन्हीं बाध्यताओं तथा कार्यों को कर रहे थे, जो उस प्रकार के थे, जिन्हें करने की बन्दीकर्ता राज्य अपने प्रति निष्ठा धारण करने वाले या व्यक्त करने वाले व्यक्तियों या नागरिकों से चाहता हो।
प्रश्न 47. तटस्थता। Neutrality.
उत्तर-तटस्थता (Neutrality) – तटस्थता (Neutrality) शब्द लेटिन शब्द न्यूटर (Neuter) से लिया गया है जिसका अर्थ होता है निष्पक्षता। अन्तर्राष्ट्रीय विधि में जो राज्य युद्ध में भाग नहीं लेते, वे तटस्थ राज्य कहे जाते हैं। ओपेनहाइम के अनुसार तटस्थता तीसरे राज्यों द्वारा युद्धमान राज्यों के प्रति अपनाये गये और युद्धमान राज्यों द्वारा मान्य निष्पक्षता की प्रवृत्ति है जो निष्पक्ष राज्यों तथा युद्धमान राज्यों के बीच अधिकारों तथा कर्त्तव्यों का सृजन करती है। इस परिभाषा में तीन महत्वपूर्ण तत्व शामिल हैं जो निम्नलिखित हैं:
(1) तटस्थता युद्ध के समय तीसरे राज्यों द्वारा अपनायी गयी निष्पक्षता की प्रवृत्ति है। ऐसी प्रवृत्ति को अपनाने वाले राज्य युद्ध में भाग नहीं लेते और इन्हें तटस्थ राज्य (neutral state) कहा जाता है। इस प्रकार तटस्थता युद्ध को हतोत्साहित करता है और यदि युद्ध प्रारम्भ हो जाता है, तो यह युद्ध को सीमित करता है तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को नियमित करता है। जब कोई राज्य किसी युद्ध में तटस्थ रहना चाहता है, तब यह वांछनीय है कि वह तत्काल तटस्थता की घोषणा करे। घोषणा को अधिकतर राज्यों द्वारा आवश्यक माना गया है। राज्य की तटस्थता घोषणा के साथ प्रारम्भ होती है। द्वितीय विश्व युद्ध में, सितम्बर, 1939 में युद्ध के प्रारम्भ के तत्काल बाद, प्रायः सभी तटस्थ राज्यों ने तुरन्त अपनी तटस्थता की घोषणा की थी और विशेष रूप से, युद्धरत देशों को इस तथ्य की सूचना दी थी।
(2) तटस्थ राज्य द्वारा अपनाये गये तटस्थता की प्रवृत्ति को युद्धरत राज्यों द्वारा मान्यता दिये जाने की अपेक्षा की जाती है।
(3) जब युद्धरत राज्य द्वारा किसी राज्य की तटस्थता की प्रवृत्ति को मान्यता दी जाती है, तब युद्धरत राज्यों और तटस्थ राज्यों के बीच सम्बन्ध स्थापित हो जाता है तथा वे एक- दूसरे के विरुद्ध कुछ अधिकारों तथा कर्तव्यों को अर्जित कर लेते हैं, जिन्हें अन्तर्राष्ट्रीय विधि में पूर्ण रूप से मान्यता दी गयी है। यह सम्बन्ध उस समय तक अस्तित्व में रहता है, जब तक युद्ध की स्थिति विद्यमान रहती है और यह युद्ध के समापन के साथ अपने आप समाप्त हो जाता है।
प्रश्न 48. नाकाबन्दी। Blockade.
उत्तर- नाकाबन्दी (Blockade)- जब शत्रु के समुद्रतट को युद्धरत राज्य द्वारा इस प्रकार निरुद्ध कर दिया जाता है जिससे समुद्र तट से जलयान का कोई आवागमन न हो सके, तब इस कार्यवाही को नाकाबन्दी कहा जाता है। ओपेनहाइम के अनुसार “सभी राष्ट्रों के जलमान या वायुयान के प्रवेश या निकासी को रोकने के प्रयोजन से, शत्रु के समुद्र तट या उसके किसी भाग तक पहुँच को सैनिकों द्वारा निरुद्ध करने” को नाकाबन्दी करते हैं। इस परिभाषा में विधिक रूप से प्रभावी नाकाबन्दी के कई तत्व शामिल हैं, जो निम्नलिखित हैं-
(1) नाकाबन्दी सैनिकों द्वारा की जाती है। यह युद्ध की कार्यवाही है और इसे युद्ध के दौरान लागू किया जाता है। इसलिए नाकाबन्दी शान्तिपूर्ण नाकाबन्दी से भिन्न है, जो विवादों के निपटारे का एक शान्तिपूर्ण ढंग है।
(2) नाकाबन्दी को सभी राष्ट्रों के जलयानों के लिए लागू किया जाता है। तटस्थ राज्यों के जलयान भी नाकाबन्दी के अधीन आते हैं। लन्दन घोषणा का अनुच्छेद 5 प्रावधान करता है कि नाकाबन्दी निष्पक्ष रूप से सभी राष्ट्रों के जलयानों के लिए लागू किया जाना चाहिए। ‘निष्पक्ष रूप से’ शब्द का तात्पर्य सार्वभौमिक रूप से (Universally) नहीं है। युद्धरत राज्य यह घोषणा करने के लिए स्वतन्त्र है कि नाकाबन्दी को किसी विशिष्ट तटस्थ राज्य के पक्ष में या उसके विरुद्ध, अथवा अपने या अपने मित्र देशों के जहाजों के पक्ष में लागू नहीं किया जाएगा। यदि युद्धरत राज्य किसी राज्य के जलयानों को नाकाबन्दी को लागू करने से अलग रखता है, तो वह ऐसे जलयानों को प्रवेश या निकासी के लिये अनुज्ञप्ति (licence) जारी करता है।
(3) नाकाबन्दी शत्रु राज्य के समुद्री तट या समुद्र तट के किसी भाग में लागू किया जाता है। नाकाबन्दी को लागू किये जाने के पहले, राज्य को यह देखना चाहिए कि तीसरे राज्यों का हित प्रभावित नहीं होता। इस प्रकार, नदी के मुहाने पर स्थित शत्रु देश के बन्दरगाह, जो तटस्थ राज्य के राज्यक्षेत्र में भी पहुँचने का मार्ग है, की नाकेबन्दी नहीं की जा सकती। यही सिद्धान्त सन्धि के प्रावधानों के अध्यधीन जलसंयोजी (straits) तथा नहरों की नाकाबन्दी में भी लागू होता है। इसका यह तात्पर्य है कि नदी, जलसंयोजी या नहर की नाकाबन्दी केवल तब की जा सकती है, जब वह पूर्णतया अपने उद्गम स्थल से मुहाने तक एक ही तथा उसी राज्य के राज्यक्षेत्र के अन्तर्गत स्थित होता है। यदि ये केवल एक राज्य के नहीं हैं, तो नाकाबन्दी को विधिपूर्वक लागू नहीं किया जा सकता।
(4) नाकाबन्दी का उद्देश्य जलयानों के प्रवेश तथा निकासी को रोकना होता है। यह आवश्यक नहीं है कि प्रवेश या निकासी दोनों को सभी मामलों में रोका जाना चाहिए। कभी- कभी केवल प्रवेश को या केवल निकासी को रोका जा सकता है। ऐसे मामलों में नाकाबन्दी को क्रमशः “आन्तरिक नाकाबन्दी” (Blockade inwards) तथा “बाह्य नाकाबन्दी” (Blockade outwards) कहा जाता है। आन्तरिक नाकाबन्दी शत्रु राज्य को अन्य देशों से खाद्य सामग्री की आपूर्ति को रोकने के लिए लागू किया जाता है।
प्रश्न 49. मानवाधिकारों की अवधारणा क्या है?
What is the concept of the Human rights?
उत्तर – मानवाधिकारों की अवधारणा – मानवाधिकार समाज में व्यक्तियों के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक है। अतः वे सभी व्यक्तियों को समान रूप से प्राप्त हैं। चूंकि व्यक्ति की गतिविधियों पर सरकारी नियन्त्रण का शिकंजा कसता जा रहा है, अतः मानवाधिकारों की सुरक्षा अति आवश्यक है। अधिकार, उन्मुक्तियाँ होने के कारण, इस बात को निर्दिष्ट करते हैं कि कतिपय कार्य व्यक्तियों के लिए उनकी इच्छा के विरुद्ध नहीं किये जा सकते या नहीं किये जाने चाहिए। इस अवधारणा के अनुसार मानव को उसकी मानवता के परिणामस्वरूप अन्यायोचित और अपमानजनक व्यवहार से संरक्षित किया जाना चाहिए यानि मानव अधिकार मनमानेपूर्ण शक्ति के प्रयोग के विरुद्ध हैं।
अतः मानव अधिकार को समाज में व्यक्तियों के व्यक्तित्व के चहुंमुखी विकास के लिए आवश्यक होने के कारण निश्चित रूप से संरक्षित किया जाना चाहिए।
प्रश्न 50. निषेधाधिकार की शक्ति क्या है?
What is Veto Power?
उत्तर-निषेधाधिकार की शक्ति (Veto Power)- सुरक्षा परिषद् जो कि संयुक्त राष्ट्र का अभिन्न अंग है, में सुरक्षा परिषद् के स्थाई सदस्यों एवं कुछ अस्थाई सदस्यों को निषेधाधिकार की शक्ति प्रदान की गई है। संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 27 (3) के अनुसार गैर-प्रक्रिया सम्बन्धी विषयों पर निर्णय, नौ सदस्यों के सकारात्मक मत से किये जायेंगे जिसमें स्थायी सदस्यों के सहमति सूचक मतों का होना आवश्यक है। इसका तात्पर्य यह है कि ऐसे विषयों पर कोई निर्णय नहीं किया जा सकता, यदि किसी स्थायी सदस्य द्वारा नकारात्मक मत दिया जाता है। यदि कोई स्थायी सदस्य यह चाहता है कि किसी विशेष विषय पर सुरक्षा परिषद् द्वारा कोई निर्णय न लिया जाय, तो उसे नकारात्मक मत देकर ऐसा करने का अधिकार है। इस प्रकार नकारात्मक मत देकर, स्थायी सदस्य को सुरक्षा परिषद् के किसी विषय पर निर्णय लेने से रोक देने की शक्ति है। स्थायी सदस्यों की इस शक्ति को निषेधाधिकार शक्ति कहा जाता है।
प्रश्न 51. नर-संहार। Genocide.
उत्तर-नर-संहार (Genocide)- संयुक्त राष्ट्र द्वारा नरसंहार विषय को संहिताकरण के लिए प्राथमिकता दी गयी थी। महासभा ने 1946 में, नर-संहार अभिसमय के निर्माण की प्रक्रिया प्रारम्भ की थी। 1946 में महासभा ने एक प्रस्ताव स्वीकार किया, जिसमें एक मत से यह घोषणा की गयी थी कि नर-संहार मानव समूह को मारना- अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अधीन अपराध है। महासभा ने 9 दिसम्बर, 1948 को नर-संहार निवारण तथा दण्ड अभिसमय (Convention on the Prevention and Punishment of Genocide) को स्वीकार किया। अभिसमय 12 जवरी, 1951 को लागू हुआ। अभिसमय का मुख्य उद्देश्य नर-संहार का निवारण करना तथा उसे दण्डित करना था, चाहे वह युद्धकाल में या शान्ति काल में कारित किया गया हो।
अभिसमय के अनुच्छेद 1 के अधीन नर-संहार की परिभाषा दी गयी है। इस अनुच्छेद के अनुसार नर-संहार अन्तर्राष्ट्रीय अपराध है, चाहे वह युद्धकाल में किया गया हो या शान्ति काल में। अनुच्छेद 2 उन विनिर्दिष्ट कार्यों का उल्लेख करता है, जिसे नर-संहार कहा जायेगा। तद्नुसार, नर-संहार पूर्णतः या अंशतः राष्ट्रीय, मानव जातीय, जातीय या धार्मिक समूह को नष्ट करने के आशय से कतिपय कार्यों को करना है। नर-संहार को शामिल करने वाले कार्यों का उल्लेख भी इस अनुच्छेद में किया गया है। ये कार्य हैं- हत्या, गम्भीर या शारीरिक या मानसिक क्षति कारित करना, जानबूझकर शारीरिक दशा को उस स्थिति में पहुँचाना जो जन्म का निवारण करने के आशय से उन उपायों को करना, जिनमें पूर्णतः या अंशतः शारीरिक विनाश हो तथा बच्चों का बलपवूक अन्तरण हो ऐसे कार्य अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अधीन अपराध हैं, चाहे वे युद्ध काल में या शान्ति काल में किये जायें। नर-संहार के कार्यों का निवारण करना तथा उसके करने वाले को दण्डित करना राज्यों का कर्त्तव्य है। अभिसमय अनुच्छेद 8 के अधीन स्पष्ट करता है कि संविदाकारी पक्षकार संयुक्त राष्ट्र के समर्थ अंगों से संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अधीन ऐसी कार्यवाही करने के लिए अनुरोध कर सकते हैं, यदि वे नर-संहार के कार्यों के निवारण तथा दमन के लिए उचित समझें।
प्रश्न 52. अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद। International Terrorism.
उत्तर – अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद – आतंकवाद शब्द लैटिन शब्द “टेरर’ (आतंक) से व्युत्पन्न हुआ है, जिसका तात्पर्य भय है। कुछ उद्देश्यों विशेषकर राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिये आतंक के व्यवस्थित प्रयोग को आतंकवाद के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। लेकिन, आतंकवाद के सभी कृत्यों को अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद का कृत्य नहीं कहे जाते। अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद में उन कृत्यों को शामिल किया जाता है, जिनमें दो या दो से अधिक राज्य शामिल रहते हैं, अर्थात् जहाँ अपराधकर्ता तथा पीड़ित विभिन्न राज्यों के नागरिक हैं, या जहाँ कार्य एक से अधिक राज्य में पूर्णतः या अंशतः किया जाता है। इसका तात्पर्य है कि अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद तब होता है, जब एक से अधिक राज्य का हित प्रभावित होता है। अन्तर्राष्ट्रीय विधि का सम्बन्ध अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद से ही है। आतंकवाद के उन कृत्यों को नियंत्रित करने के लिए राज्य विधि लागू होती है, जो केवल राज्य की सीमाओं के अन्तर्गत सीमित रहता है और जिसे सुविधा के लिए राष्ट्रीय आतंकवाद (National Terrorism) कहा जा सकता है।
अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद शान्ति काल में या सशस्त्र संघर्ष के समय में या तो हिंसा के साथ या बिना हिंसा के कारित किया जा सकता है। पुनः, यह या तो राज्य के कृत्यों द्वारा, अर्थात् राज्य की सरकार द्वारा या तो व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह द्वारा किया जा सकता है। लेकिन अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद का यह क्षेत्र सभी राज्यों को मान्य नहीं है। पश्चिमी राज्य अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद के क्षेत्र के अन्तर्गत सरकारी कार्यों को शामिल करने के लिए सहमत नहीं है, जबकि तीसरे विश्व के राज्य तथा गुट निरपेक्ष राज्य इस मत के हैं कि अंन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद उसी तरह राज्यों के कृत्यों को शामिल करता है। पश्चात्वर्ती वाला मत इस तथ्य की दृष्टि में उचित प्रतीत होता है क्योंकि राष्ट्रीय सीमा के बाहर राज्यों द्वारा कारित आतंकवाद एक ढंग से या दूसरे ढंग से राज्यों के सम्बन्धों को उसी प्रकार प्रभावित करता है, जैसे व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह द्वारा कारित आतंकवाद प्रभावित करते हैं।
प्रश्न 53. आधुनिक अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अन्तर्गत व्यक्ति के स्थान का परीक्षण कीजिए।
Examine the place of individual under Modern International Law.
उत्तर – आधुनिक अन्तर्राष्ट्रीय विधि में संयुक्त राष्ट्र ने अपने चार्टर की उद्देशिका में “हम संयुक्त राष्ट्र के लोग” शब्दों का प्रयोग करके व्यक्तियों को महत्वपूर्ण स्थान दिया है। लेकिन इससे अन्तर्राष्ट्रीय विधि के क्षेत्र में व्यक्तियों की स्थिति में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ। लेकिन व्यक्तियों को अन्तर्राष्ट्रीय विधि के नियमों के अनुसार कुछ अधिकार एवं कर्तव्य प्रदान किये गये हैं ओपेनहाइम के अनुसार- अन्तर्राष्ट्रीय विधि अब ऐसी विधि नहीं रह गई है जो वह एकमात्र राज्यों से सम्बन्धित है, जैसा कि वह पहले थी। इसके कई नियम प्रत्यक्षतः व्यक्तियों की स्थिति तथा कार्यों को विनियमित करने से सम्बन्धित हैं तथा कई नियम अप्रत्यक्षतः उन्हें प्रभावित करते हैं।
वैसे जब तक अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय राज्यों से गठित है, व्यक्तियों को अधिकार एवं कर्तव्य उन्हीं के माध्यम से प्राप्त हो सकता है। अन्तर्राष्ट्रीय विधि में व्यक्तियों के निम्नलिखित अधिकार तथा कर्तव्य है- (1) मानवाधिकार अर्थात् सभी व्यक्तियों के मानव अधिकारों तथा मूल स्वतन्त्रताओं में अभिवृद्धि करना तथा प्रोत्साहित करना। (2) याचिका दाखिल करने का अधिकार। (3) समझौता एवं माध्यस्थम् कार्यवाही का अधिकार।
कर्तव्य (1) बलदस्युता के अपराध को अन्तर्राष्ट्रीय विधि के विरुद्ध अपराध माना गया है। इस अपराध को करने वाले को किसी भी राज्य द्वारा जो अपराधी को गिरफ्तार करता है, दण्ड दिया जा सकता है।
(2) युद्धरत राज्यों के सशस्त्र बलों के व्यक्तिगत सदस्य युद्ध के नियमों के उल्लंघन के लिए आपराधिक रूप से उत्तरदायी होते हैं तथा अन्य युद्धरत राज्यों द्वारा दण्डित किये जा सकते हैं।
(3) नरसंहार के अपराध के लिए अपराधियों को दण्डित किया जाता है इत्यादि।
प्रश्न 54. युद्ध। War.
उत्तर- युद्ध सामान्यतः युद्धरत देशों की सेना के मध्य संघर्ष है। परन्तु आधुनिक वैज्ञानिक युग में युद्ध से सेना के अतिरिक्त युद्धरत देश के सामान्य नागरिक प्रभावित हुए विना नहीं रहते। इराक के कुवैत पर आक्रमण के फलस्वरूप सुरक्षा परिषद् के प्रस्ताव के अधीन अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी देशों की संयुक्त सेना तथा इराक के मध्य युद्ध द्वारा इराकी तथा कुवैती सामान्य जनता पर विपत्ति तथा कष्ट का कहर टूट पड़ा।
“युद्ध सामान्य रूप से दो या दो से अधिक राज्यों के सशस्त्र सैनिकों के बीच होता है तथा प्रत्येक युद्धरत देश का उद्देश्य होता है कि एक दूसरे को हरा दे या उससे शान्ति के लिये अपनी शर्तें मनवाये।”- स्टार्क
प्रख्यात विधिशास्त्री हाल (Hall) के अनुसार– “जब राज्यों के मध्य मतभेद इस सोमा तक बढ़ जाते हैं कि दोनों पक्षकार शक्ति का प्रयोग करते हैं या उनमें से एक हिंसा का प्रयोग करता है जिसको दूसरा पक्षकार शान्ति का उल्लंघन मानता है, युद्ध का सम्बन्ध स्थापित हो जाता है जिसमें युद्धरत देश के सैनिक एक दूसरे के विरुद्ध तब तक नियन्त्रित हिंसा का प्रयोग करते हैं जब तक कि दोनों में से एक शत्रु की इच्छित शतों को नहीं मानता।”
प्रो० ओपेनहाइम के अनुसार “युद्ध दो या दो से अधिक राष्ट्रों के मध्य उनके सशस्त्र बलों के माध्यम से विग्रह या संघर्ष है जिसका उद्देश्य विजित राष्ट्र की इच्छा के अनुसार दूसरे राष्ट्र पर अधिकार कर अपनी इच्छित शान्ति शर्तों को मनवाना है।”
डॉ० नगेन्द्र सिंह के अनुसार “युद्ध का उद्देश्य शत्रु राज्य का पूर्ण विनाश नहीं है वरन् उसे सशस्त्र शक्ति से परास्त करना तथा अपनी शर्तों को मनवाना है।”
इस प्रकार उपरोक्त परिभाषाओं से युद्ध को दो या दो से अधिक राष्ट्रों के मध्य संघर्ष को कहते हैं जो मुख्यतः युद्धरत देशों के सशस्त्र बलों के माध्यम से होता है तथा जिसका प्रमुख उद्देश्य एक दूसरे का विनाश करना नहीं होता परन्तु युद्धरत राष्ट्र एक दूसरे पर शान्ति हेतु अपनी शर्तें मनवाने का प्रयोजन रखते हैं।
आधुनिक युग में युद्ध की प्राचीन मान्यताओं में परिवर्तन आ गये हैं। वर्तमान समय में हुए युद्धों से यह स्पष्ट होता है कि इनमें न तो युद्ध की घोषणा हुई और न ही युद्ध के सभी नियमों का पालन हुआ और न ही युद्ध के निधिक प्रभाव ही हुए।
Prem Kumar Nigam (Advocate)
Mob. 9758516448