Pleading Drafting Question Part-1

प्रारूपण, अभिवचन तथा प्रलेखशास्त्र (Drafting. Pleading & Conveyancing)

प्रश्न 1. अभिवचन से आप क्या समझते हैं? इसके विकास एवं प्रमुख उद्देश्यों को इंगित कीजिए। What do you understand by Pleading? State its development and main aims.

उत्तर- अभिवचन की परिभाषा एवं अर्थ– सिविल प्रक्रिया संहिता (C.P.C.) के आदेश VI, नियम 1 में इसकी परिभाषा करते हुए कहा गया है कि अभिवचन का अर्थ है ‘चादपत्र’ तथा ‘लिखित कथन वादपत्र वह दस्तावेज है जिसके माध्यम से वादी आवश्यक विवरणों सहित प्रतिवादी के विरुद्ध अपना वाद हेतु प्रस्तुत करता है। इसी प्रकार ‘लिखित कथन’ प्रतिवादी द्वारा वादी के वादपत्र के उत्तर के रूप में दायर किया जाता है जिसमें वह वादी द्वारा अधिकधित सभी सारवान तथ्यों का उत्तर देता है तथा अपने बचाव हेतु नये तथ्यों को भी अभिकथित कर सकता है। परन्तु अभिवचन का क्षेत्र वस्तुतः वादपत्र और लिखित कचन तक ही सीमित नहीं है। अतः पी० सी० मोघा महोदय ने अपेक्षाकृत परिभाषा देते हुए कहा है कि अभिवचन केस के प्रत्येक पक्षकार द्वारा लिखित रूप से दायर किये गये ऐसे अभिकथन (Statements) हैं जिनमें वह यह स्पष्ट करता है कि केस के परीक्षण के समय उसे क्या कहना है, साथ ही वह उसमें ऐसे आवश्यक विवरण भी देता है जिनको विपक्षी पक्षकार अपना उत्तर तैयार करने के लिए आवश्यक समझता है।

       कोई भी अभिवचन पत्र प्रतिवादी के द्वारा लिखित कथन के बाद दो ही परिस्थितियों में न्यायालय में प्रस्तुत किया जा सकता है अन्यथा नहीं। प्रथम यदि वह किसी मुजराई की प्रतिरक्षा के रूप में हो द्वितीय यदि न्यायालय ऐसा अभिवचन करने के लिए आदेशित करे और यह आदेश न्यायालय अपनी स्वेच्छा पर दे सकेगा अर्थात् वह ऐसा आदेश देने के लिए बाध्य न होगा। व्यवहार प्रक्रिया संहिता के आदेश 8 नियम 9 में यह उपबन्ध किया गया है कि किसी पक्षकार द्वारा लिखित कथन के पेशकरण के पश्चात् और अधिक अभिवचन पेश करने के लिए उसे न्यायालय के आदेश की प्रतीक्षा करनी होगी।

     यदि न्यायालय उपयुक्त समझता है कि किसी पक्षकार का अभिवचन काफी अस्पष्ट है तो वह ऐसे पक्षकार को एक स्पष्ट और विस्तृत अभिवचन पेश करने का आदेश दे सकता है। कोई भी वादी अधिकार पूर्ण ढंग से प्रतिवादी के अभिकथन के जवाब में कोई लिखित कथन दाखिल नहीं कर सकेगा यदि किसी प्रति दावे के अभाव की परिस्थिति विद्यमान है तो ऐसे लिखित कथन को प्रत्युत्तर कहा जाता है जो कि अधिकांशतः अवध क्षेत्र में विद्यमान है। न्यायालय मामले की प्रथम सुनवायी पर प्रत्येक पक्षकार या उसके वकील से यह अभिकचन करेगा कि क्या वह लिखित कथन में किये गये अभिकथनों को स्वीकार करता है या अस्वीकार करता है और जब पक्षकारों द्वारा अस्वीकार या इन्कार किया जाता है तो न्यायालय इसे अभिलिखित करता है। न्यायालय ऐसा इसलिए करता है जिससे पक्षकारों के बीच विवाद के वास्तविक विषय का पता लगा सके क्योंकि कभी-कभी पक्षकारों द्वारा दाखिल किये गये लिखित अभिकथन पूर्णतया अस्पष्ट और भ्रामक होते हैं।

       व्यवहार प्रक्रिया संहिता के आदेश 10 के नियम 2 के अनुसार न्यायालय विवादास्पद विषयों पर अभिनिश्चय करने के लिए किसी भी पक्षकार से या वाद से सम्बन्धित किसी भी प्रश्न का उत्तर देने में समर्थ हो सकने वाले किसी भी व्यक्ति से परीक्षण कर सकेगा। इस परीक्षण को “मौखिक अभिवचन” कहा जाता है। इसके अधीन प्रत्येक पक्षकार द्वारा किया गया कोई कथन बाध्यकारी होगा। ऐसे कथन अनुपूरक अभिवचनों के रूप में प्रयुक्त होते हैं। इसके अतिरिक्त कोई भी अभिवचन किसी वाद की अवस्था में प्रयुक्त नहीं किया जा सकता। इसमें केवल अभिवचनों का संशोधन ही अभिवचन के रूप में प्रस्तुत होगा।

       ए० शनमूगम बनाम ए० के० आर० बी० एम० एन० संगम, ए० आई० आर० (2012) एस० सी० 2010 के वाद में न्यायालय ने मत व्यक्त किया है कि सिविल न्याय प्रशासन में अभिवचनों का अध्यधिक महत्व है। मिथ्या दावों को रोकने के लिए अभिवचन अच्छी तरह तैयार किये जाने की अपेक्षा की जाती है। न्यायाधीशों के बाद पदों की विरचना करने तथा व्यादेश आदि जारी करने में अभिवचनों से काफी मदद मिलती है। यही कारण है कि न्यायाधीशों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे कोई भी आदेश पारित करने से पूर्व अभिवचनों का अच्छी तरह अध्ययन कर लें।

       अभिवचन की रीति का विकास – भारत में वर्तमान समय में अभिवचन की जैसी रीति प्रवर्तित (चालू) है वह अंग्रेजों की देन है। किन्तु इस बात से यह नहीं समझना चाहिए कि अभिवचन की सुदूर भूतकाल की रीति में किसी प्रकार का विच्छेद हुआ है। वर्तमान अभिवचन के ब्रिटिश नियम आधारभूत रूप से प्राचीन हिन्दू रीति में भी विद्यमान थे। इसी प्रकार से मुस्लिम शासकों के समय में भी अभिवचन के विशेष नियम प्रवर्तित थे किन्तु वे नियम वर्तमान नियमों की अपेक्षा सरल थे, और उनमें वर्तमान समय की तकनीकी का अभाव था। उस समय के नियम सारवान न्याय पाने के उद्देश्य के अधीन थे। धीरे-धीरे वे नियम अंग्रेजी नियमों के द्वारा विस्थित (supersede) कर दिये गये। सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 में घरेलू रीति और विदेशी रीति का अनूठा मिश्रण उपलब्ध होता है। धीरे-धीरे जबानी अभिवचन की रीति उपयोग से बाहर होती गई और अभिवचन का स्वरूप लिखित रूप धारण करता गया । न्यायिक प्रक्रिया को संचालित करने के लिए लिखित अभिवचन प्रस्तुत करने की परिपाटी चालू हुई और उसका वर्तमान स्वरूप हमारे सामने आया।

      इस प्रकार यह स्पष्ट है कि अनुपूरक अभिवचनों के आधार पर बाद पत्र तैयार किये जा सकते हैं। अन्य आधार पर नहीं हो सकते हैं।

     अभिवचनों के उद्देश्य- उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि अभिवचनों के माध्यम से पक्षकारों को केस का परीक्षण शुरू होने से पहले ही मालूम हो जाता है कि केस के प्रमुख मुद्दे क्या हैं और किन बातों पर निर्णय होना है? इसी आधार पर न्यायालयों एवं विद्वानों ने समय-समय पर अभिवचनों के प्रमुख उद्देश्य गिनाये हैं-

(1) बाद-पदों (Issues) – को निर्धारित करना था बनाम होल्ड्सवर्थ (1873) के महत्वपूर्ण बाद में कहा गया है कि अभिवचनों का एक मात्र उद्देश्य यह निर्धारित करना होता है कि पक्षकार किन-किन मुद्दों पर सहमत हैं और किन-किन पर उनमें मतभेद हैं। इससे यह मालूम हो जाता है कि पक्षकारों के बीच वास्तविक विवाद के मुद्दे क्या हैं। इन्हें ही बाद-पद कहते हैं।

(2) पक्षकारों को आश्चर्यचकित होने से बचाना  – अभिवचनों का उद्देश्य प्रत्येक पक्षकार को इस बात की सूचना देना है कि उसके प्रतिपक्षी का केस क्या होगा ताकि वे किसी प्रकार के अवम्भे में न पड़े (लाइली प्रसाद बनाम करनाल डिस्टिलरी कं०, 1963 एस० सी० ) ।

(3) खर्चा और विलम्ब में कमी – लिखित अभिवचनों की पूर्व सूचना होने के कारण – निश्चित रूप से उस खर्चे और विलम्ब में कमी आती है जो अभिवचनों के अभाव में अनावश्यक गवाही को प्रस्तुत करने में होता है। इसके साथ ही सार्वजनिक समय की बहुत बड़ी बचत होती है।

(4) न्यायालयों की सहायता – अभिवचनों के माध्यम से न्यायालयों की सहायता इस अर्थ में होती है कि सामान्यतया न्यायालयों को भी अभिवचनों की परिधि के भीतर रहकर ही निर्णय देना होता है। वे पक्षकारों के लिए अभिवचनों से सर्वथा भिन्न किसी केस की संरचना नहीं कर सकते।

(5) अनावश्यक बातों का उन्मूलन- एक विद्वान के अनुसार अभिवचनों का एक प्रमुख उद्देश्य वाद में से अनावश्यक बातों को दूर करना भी है।

प्रश्न 2. अभिवचनों के आधारभूत नियमों को पिनाइये। साथ ही इनके विशेष नियमों को भी इंगित कीजिए। Numerate the basic rules of Pleading, State also their special rules concurrently.

उत्तर- अभिवचनों के आधारभूत नियम दीवानी प्रक्रिया संहिता के आदेश VI. नियम 2 में संकलित हैं। इस प्रावधान की व्याख्या करने पर निम्नलिखित चार आधारभूत नियम स्पष्ट होते हैं-

(1) प्रत्येक अभिवचन में तथ्यों का अभिकथन किया जाना चाहिए न कि विधि का। व्यवहार प्रक्रिया संहिता के आदेश 6 नियम 2 के अनुसार अभिवचन केवल उन्हीं तथ्यों का होना चाहिए जिन पर पक्षकार अपने दावे को आश्रित करें। अभिवचन में विधि सम्बन्धी तथ्यों और विधि के मिश्रित परिणामों का समावेश नहीं होना चाहिए। अतः प्रत्येक अभिवचन में केवल उन मुख्य तथ्यों का कथन होगा जिन पर अभिकथन करने वाला पक्षकार अपने दावे के लिए निर्भर करता है। वाद पत्र में उन तथ्यों का सारभूत ढंग से कथन होना चाहिए जिनसे वादों का मामला स्पष्ट होता है और उसे इस प्रकार बनाया जाना चाहिए जिससे दूसरा पक्षकार यह जान सके कि उसे किस तथ्य पर प्रत्युत्तर प्रस्तुत करना है। इसी प्रकार का नियम दूसरे पक्षकार पर भी लागू होता है।

        यदि मात्र यह अभिकथन किया जाता है कि केवल कुछ कार्य विधि विरुद्ध हैं तब तक पर्याप्त नहीं होगा जब तक कि उन तथ्यों का अभिकथन न किया जाय जिससे वादी यह निष्कर्ष निकालता है कि वह कार्य विधि विरुद्ध या अनुपयुक्त था। इसी प्रकार प्रतिवादी को अपने दायित्व से इन्कार करने के लिए यह आवश्यक है कि वह उन तथ्यों का अधिकचन करे जो उसके इन्कार का आधार हो। उदाहरण के लिए अ यह अधिकथन करती है कि अमुक सम्पत्ति उसकी है क्योंकि वह उसका स्त्री धन है स्त्री धन कानून का निष्कर्ष है अत: इस नियम के अनुसार यह अभिकथन दोषपूर्ण है। कपट या न्यास भंग से सम्बन्धित वाद में साधारण अभिकथन पर्याप्त नहीं होते। न्यायिक सूचना, विधि की आपत्तियाँ तथा विधि  का अनुमान में यह नियम लागू नहीं होता है।

(2) प्रत्येक अभिवचन में सब सारवान् तथ्यों और केवल सारवान् तथ्यों का ही अभिकथन किया जाना चाहिए।

      यह नियम उपबन्धित करता है कि सभी अभिवचनों में केवल सारवान् तथ्यों का हो कथन किया जाना चाहिए और किसी अन्य बात का अभिकथन नहीं होना चाहिए। सारवान् न होने वाले तथ्यों का अधिकथन पूर्णरूप से नहीं किया जाना चाहिए। यह नियम महत्वपूर्ण वा ‘सारवान् तथ्यों” पर अधिक बल देता है। प्रत्येक पक्षकार के लिए वे सभी तथ्य सारवान् तथ्य होते हैं जिसे वे अपने दावे या अपनी प्रतिरक्षा में सफल होने से पूर्व परीक्षण में सिद्ध करने के लिए बाध्य हो और ये तथ्य जो किसी दावे को सिद्ध करने के लिए महत्वपूर्ण न हों। सारवान् तथ्य नहीं होंगे।

        अधिवक्ता के लिए यह आवश्यक है कि अभिवचन तैयार करने से पूर्व वह यह मालूम कर ले कि उस मामले में सारवान् तथ्य क्या है और तब उसका अभिवचन वह करे और वे तथ्य जो महत्वपूर्ण न हों, उन्हें छोड़ दें। कोई भी तथ्य एक मामले के लिए महत्वपूर्ण तो दूसरे मामले के लिए महत्वहीन हो सकता है। अतः कोई तथ्य महत्वपूर्ण है या नहीं वह उस मामले के तथ्य और परिस्थितियों पर निर्भर करता है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह नियम प्रतिपादित किया है कि सारवान् तथ्य वे तथ्य हैं जो यदि सिद्ध हो जायँ तो वादी को माँगा गया अनुतोष प्रदान हो जाय।

      सरकार के विरुद्ध किसी मामले में यह अभिकथन आवश्यक है कि व्यवहार प्रक्रिया संहिता की धारा 80 के अधीन वाद दाखिल करने के दो माह पूर्व सूचना दी गयी थी। पूर्ववर्ती शर्तों का पालन, विधि सम्बन्धी पूर्वधारणा, ऐसे विषय जिनको सिद्ध करने का भार दूसरों पर हो तथा अनुप्रेषण के विषय में इस नियम का सिद्धान्त कि केवल सारवान् तथ्यों का अभिवचन किया जाना चाहिए, लागू नहीं होता है।

(3) प्रत्येक अभिवचन में केवल तथ्यों का अभिकथन किया जाना चाहिए न कि उस साक्ष्य का, जिसके माध्यम से उक्त तथ्यों को साबित किया जाना है।

       वे महत्वपूर्ण तथ्य जिनका सहारा वादी लेता है फैक्टा प्राबेंसिया (Facta Probantia) कहते हैं और अभिकथन पत्र में इसी का कथन करना चाहिए परन्तु ऐसे साक्ष्य को जिनके द्वारा उन्हें सिद्ध किया जाना है, उनका अभिवचन नहीं किया जायेगा। व्यवहार प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत इस सामान्य नियम के तीन व्यावहारिक रूप निम्न हैं-

1. व्यवहार प्रक्रिया संहिता के आदेश 6 के नियम 10 के अनुसार जहाँ पर किसी व्यक्ति के मन को स्थिति यथा द्वेष, कपटपूर्ण आशय, ज्ञान इत्यादि महत्वपूर्ण हों उसका कथन एक तथ्य के रूप में बिना उन परिस्थितियों का प्रस्तुतीकरण किये जिनसे उनका अनुमान किया। जाता है पर्याप्त होगा द्वेषपूर्ण अभियोजन में केवल इतना अधिकथन ही महत्वपूर्ण होगा कि बादी का अभियोजन करने में प्रतिवादी द्वेष से प्रेरित है।

2. जहाँ पर किसी तथ्य को सूचना का अधिकचन महत्वपूर्ण हो तो ऐसी सूचना का अभिकथन तथ्य के रूप में होना चाहिए। किसी ऐसे मामले में जहाँ पर पश्चात्कर्ती अन्तरण के लिए पूर्वता का दावा प्रस्तुत किया जाय, वहाँ सूचना का एक महत्वपूर्ण तथ्य के रूप में अभिकथन हो सकेगा।

3. जब पक्षकारों के बीच किसी संविदा का बातचीत से विवक्षित किया जाता है तो ऐसी संविदा का एक तथ्य के रूप में अभिकथन कर देना चाहिए और ऐसी परिस्थिति में इस प्रकार अभिकथन करने वाला व्यक्ति ऐसी परिस्थितियों से विवक्षित किये जाने वाले एक से अधिक संविदा का अवलम्ब लेने की इच्छा रखे तो वह विकल्प रूप में उन सभी का अभिकथन कर सकता है।

(4) प्रत्येक अभिवचन में तथ्यों का अभिकथन संक्षेप में किन्तु निश्चितता के साथ किया जाना चाहिए।

     यह नियम यह प्रतिपादित करता है कि अभिवचन पत्र में महत्वपूर्ण तथ्यों का कथन संक्षेप में होना चाहिए जिससे प्रतिवादी यह समझ सके कि उसको किस मामले का सामना करना है। इन तथ्यों का कथन इतना स्पष्ट एवं संक्षेप में होना चाहिए जितना स्पष्टता से सुसंगत हो सके। संक्षिप्तीकरण के लिए निम्न नियम आवश्यक हैं।

1. अनावश्यक कथनों को छोड़ देना चाहिए,

2. यथा सम्भव अनावश्यक दलीलों को नहीं देना चाहिए,

3. जहाँ विद्वेष कपटपूर्ण आशय या ज्ञान का अभिकथन महत्वपूर्ण है वहाँ उन परिस्थितियों का वर्णन किये बिना जिसमें उसका अनुमान किया जाना है, उसे तथ्य के रूप में ही अभिकथित करना महत्वपूर्ण होगा।

4. किसी ऐसे तथ्य का वर्णन न किया जाय जिससे विधि सम्बन्धित पक्षकार के पक्ष को उपधारित करती है।

5. अनावश्यक तथ्य यथा विधि के नियम, साक्ष्य के नियम जो महत्वपूर्ण नहीं है, छोड़ देना चाहिए,

6. अभिकथन में प्रयुक्त भाषा पर उचित ध्यान देना चाहिए,

7. शब्दों की पुनरावृत्ति आवश्यकतानुसार ही करना चाहिए,

8. वार्तालापों की श्रृंखला के विधिक परिणाम का अभिकथन बिना पूर्ण कहानी का विस्तृत ब्यौरा किये ही किया जाना चाहिए अर्थात् अनावश्यक कहानी नहीं गढ़ना चाहिए।

       उपर्युक्त नियमों का उद्देश्य वस्तुतः अभिवचनों के प्रमुख उद्देश्यों को प्राप्त करना ही है। सही निर्णय पर पहुँचने हेतु यह नियम महत्वपूर्ण साधनों की भूमिका अदा करते हैं।

विशेष नियम

(1) आवश्यक विवरण- जब अभिवचन में मिथ्या निरूपण, कपट, न्यास भंग, साशय चूक पर भरोसा किया जाता है तो उनका विवरण यदि आवश्यक हो तो मदों और तारीखों के सहित कथन किया जायेगा। [ आदेश 6 नियम 4,5]।

(2) दस्तावेज का उल्लेख आवश्यक है— जब किसी दस्तावेज का अन्तर्विषय सारवान् है पर उसका वास्तविक शब्द नहीं, तो उसको उल्लिखित किये बिना उसके प्रभाव का यथासम्भव संक्षिप्त रूप में कथन करना पर्याप्त होगा। [ आदेश 6 नियम 9]।

(3) मानसिक दशा का एक तथ्य के रूप में अभिवचन किया जाना चाहिए- जहाँ किसी व्यक्ति के विद्वेष (Malice), कपटपूर्ण आशय (Fraudulent intention), ज्ञान या मस्तिष्क की अन्य दशा का अभिवचन करना सारवान है, वहाँ उन परिस्थितियों का उल्लेख किये बिना, जिनसे कि उनका अभिनिश्चय किया जाना है, उसे तथ्य के रूप में अभिकथित किया जाना पर्याप्त है। आदेश 6 नियम 10]।

(4) सूचना का एक तथ्य के रूप में अभिकथन- जहाँ कहीं यह अभिकथित करना सारवान है कि किसी तथ्य बात या वस्तु की सूचना किसी व्यक्ति को थी, वहाँ जब तक कि ऐसी सूचना का प्रारूप या उसके यथावत पद या वे परिस्थितियाँ जिनसे कि ऐसी सूचना का अभिनिश्चित किया जाना है, सारवान न हों, ऐसी सूचना को तथ्य के रूप में अभिकथित करना पर्याप्त होगा [ आदेश 6 नियम 10]

(5) अन्तर्निहित संविदा (Implied Contract) का तथ्य के रूप में अभिकथन – जब सभी पत्रों का वार्तालाप की श्रृंखला से या अन्य किन्हीं परिस्थितियों से कतिपय व्यक्तियों के मध्य कोई संविदा या अन्य सम्बन्ध लक्षित किया जाता है तो ऐसी संविदा या सम्बन्ध को तथ्य के रूप में अभिकथित करना और उनको सामान्य रूप से निर्दिष्ट करना मात्र बिना ब्यौरेवार उल्लेख किए ही पर्याप्त होगा [ आदेश 6 नियम 12]।

(6) विधिजन्य उपधारणाओं (Legal presumptions) का अभिकथन नहीं करना चाहिए कोई भी पक्षकार तथ्य के किसी ऐसे मामले का अभिकथन नहीं करेगा – जिसकी प्रकल्पना कानून उसके पक्ष में करता है जब तक कि वह पहले (से) विशेष रूप से इन्कार न किया गया हो (जैसे विनियम के बिल के प्रतिफल के लिए) [ आदेश 6 नियम 13] 1

(7) प्रत्येक अभिवचन हस्ताक्षरित एवं सत्यापित (Signed and Verified) होना चाहिए- प्रत्येक अभिवचन पक्षकार या उसके अधिवक्ता के द्वारा हस्ताक्षरित किया जायेगा। पक्षकार की अनुपस्थिति में इसके लिए उसके द्वारा प्राधिकृत किये गये व्यक्ति के द्वारा हस्ताक्षरित किया जायगा। [ आदेश 6 नियम 14]।

प्रश्न 3. अभिवचनों के निर्वाचन से आप क्या समझते हैं? व्याख्या करें। What do you understand by Interpretation of Pleadings? Explain.

उत्तर- अभिवचनों का निर्वचन (Interpretation of Pleadings ) भारत जैसे देश में अभिवचनों के निर्वाचन में उतनी कड़ाई नहीं बरतनी चाहिए जैसा कि इंग्लैण्ड में प्रचलित है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए भारतीय न्यायालयों ने बराबर अपने निर्णयों में यह दर्शाया है कि अभिवचनों का निर्वचन इतनी कठोरता से नहीं किया जाना चाहिए कि जिससे न्याय का उद्देश्य ही समाप्त हो जाय। उच्चतम न्यायालय ने मंजूश्री बनाम बी० एल० गुप्त [ए० आई० आर० 1977 सु० को० 1158] के मामले में अपना अभिनिश्चय दर्शाते हुए कहा कि ” अभिवचनों का निर्वाचन औपचारिक कठोरता से नहीं अपितु गरीबों के विधिक ज्ञान की अल्पता को ध्यान में रखते हुए उदारता से किया जाना चाहिए। इंग्लैंड में तत्सम्बन्धी स्थिति बिल्कुल भिन्न है जहाँ पर अभिवचन की प्रत्येक बात को अभिवचन करने वाले पक्षकार के विरुद्ध अत्यन्त कठोरता से लिया जाता है।” उच्चतम न्यायालय ने एक अन्य मामले, ऊधम सिंह बनाम एम० आर० सिन्धिया, (ए० आई० आर० 1976 सु० को० 774) में यह धारणा व्यक्त की है कि “इंग्लैण्ड में अभिवचन के जो भी नियम हों किन्तु भारत में अभिवचन के ढाँचे पर नहीं अपितु सार (Substance) को देखना चाहिए। इंग्लैण्ड में अभिवचन को रचना एक कला है और अंग्रेजी अभिवचनों में प्रयुक्त होने वाले सिद्धान्त को पूर्णरूप से भारत में अभिवचनों को, यहाँ स्थिति और परिस्थिति पर ध्यान दिये बिना, नहीं लागू किया जाना चाहिए।” भारतीय न्यायालयों द्वारा अभिवचन के निर्वाचन में उदारता का व्यवहार करने का तात्पर्य यह नहीं है कि अभिवचनों की रचना गैरजिम्मेदारी (ढंग) से की जाय। असावधानी या मनोगतहीनता से अभिवचन की रचना से उस पक्षकार को बहुत क्षति पहुँच सकती है। पक्षकार के मामले के सम्बन्ध में सम्पूर्ण तथ्यों की स्पष्ट एवं सही जानकारी प्राप्त की जानी चाहिए। मौलिक एवं प्रक्रिया सम्बन्धी विधि के संगत (Relevant) प्रावधानों का ध्यानपूर्वक अध्ययन करके और निश्चय करके अभिवचन की रचना की जानी चाहिए।

      प्रिवी कौन्सिल ने कियोह बनाम एम० डी० पॉन (ए० आई० आर० 1926 प्रि० कौ० 29) में यह अभिनिश्चय किया है कि अभिवचन के सार पर न कि उसके स्वरूप पर विचार करना चाहिए। भारत में अभिवचन में संक्षिप्तता का अभाव होता है और निःसार तथ्यों का कथन किया जाता है, इसलिए उनका कड़ाई से अर्थ नहीं करना चाहिए।

      सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 6 नियम 8 यह कथन करता है कि जहाँ कि किसी अभिवचन में किसी संविदा का अभिकथन है, वहाँ विरोधी पक्षकार द्वारा किये गये उसके कोरे इन्कार का यह अर्थ लगाया जायेगा कि वह केवल अभिकथित अभिव्यक्त संविदा का या उन सब तथ्यों की बातों का, जिनसे कि वह संविदा विवक्षित की जा सके, न कि ऐसी संविदा की वैधता या विधि की दृष्टि में पूर्णता का इन्कार है।

      आदेश 8 नियम 5 यह व्यवस्था करता है कि यदि विरोधी पक्षकार ने विशिष्ट रूप से या निहित रूप से वाद-पत्र में उल्लिखित तथ्यों के प्रत्येक अभिकथन का इन्कार नहीं किया है या यदि उसने यह कथन नहीं किया है कि वह उन्हें स्वीकार नहीं करता है तो सिवाय उस व्यक्ति के विषय में जो किसी असमर्थता के अधीन है, यह समझा जायगा कि उनको स्वीकार कर लिया गया है।

प्रश्न 4. (i) प्रत्येक अभिवचन में तथ्यों का अभिकथन किया जाना चाहिए, न कि विधि का। इस नियम की व्याख्या करते हुए इसके अपवादों पर प्रकाश डालिये। Statement of facts and not of law must be stated in every pleadings. Explain this rule and throw light on its exceptions.

(ii) प्रत्येक अभिवचन में सब सारवान तथ्यों तथा केवल सारवान तथ्यों का ही अभिकथन किया जाना चाहिए। उपर्युक्त नियम की व्याख्या करते हुए उसके अपवादों पर भी प्रकाश डालिये। All material facts and only material facts must be stated in every pleading. Explain the above rule with its exceptions

उत्तर (1) प्रस्तुत नियम अभिवचनों का प्रथम आधारभूत नियम है जो सी० पी० सी० के आदेश 6 नियम 2 में सन्निहित है। यह नियम अभिवचनों की दो विशेषताओं की ओर इंगित करता है। एक यह कि अभिवचनों में केवल तथ्य ही लिए जायें। दूसरे उन तथ्यों से सम्बन्धित विधि को लिखने की कोई आवश्यकता नहीं। अतः अभिवचनों में (अ) कानून के प्रावधानों (ब) कानून के निष्कर्षो, तथा (स) कानून एवं तथ्यों वे मिश्रित निष्कर्षो को नहीं लिखा जाना चाहिए। किसी पक्षकार से कानून न अभिकथित किये जाने के पीछे कारण यह है कि यह कार्य न्यायालय का है जो सम्बन्धित कानून की संसूचना लेने के लिए स्वयं बाध्य है।

उदाहरण- (1) यदि कोई वादी उत्तराधिकार के आधार पर किसी सम्पत्ति को प्राप्त करने का दावा करता है तो केवल यह कहना पर्याप्त न होगा कि वह मृतक का वैध उत्तराधिकारी है क्योंकि यह तो कानून का निष्कर्ष होगा। इसके विपरीत उसे उन तथ्यों को अभिकथित करना चाहिए जिनके आधार पर वह मृतक का उस प्रकार रिश्तेदार साबित होता हो।

(2) इसी प्रकार एक वाद में प्रतिवादी ने अपने लिखित कथन में यह अभिकथित नहीं किया कि वाद चलने योग्य नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया कि ‘वाद चलने योग्य होने की दलील कानूनी दलील है। यदि वाद वास्तव में चलने योग्य नहीं है तो ऐसा अभिकथन नहीं किया था। [स्टेट ऑफ राजस्थान बनाम कल्याण सिंह, 1971 एस० सी० 27]

नियम के अपवाद- उपर्युक्त वर्णित आधारभूत नियम के कुछ अपवाद भी हैं-

(i) विदेशी विधि को किसी अन्य तथ्य की ही भाँति अभिवचनों में अभिकथित करना आवश्यक है क्योंकि न्यायालय उसकी न्यायिक संसूचना लेने के लिए बाध्य नहीं है।

(ii) रूढ़ियाँ आदि– विदेशी विधि की ही स्थिति रूढ़ियों अथवा व्यापार की परम्पराओं की भी है। इनका अभिकथन तथ्य की भाँति आवश्यक है। [ सालिग राम बनाम मुंशी राम, 1961 एस० सी० तथा मरियाम्मल बनाम गोविन्दम्मल, ए० आई० आर० 1915 मद्रास 5]

(iii) कानून और तथ्य के मिश्रित प्रश्न- ऐसे प्रश्नों का अभिकथन अभिवचनों में अवश्य कर दिया जाना चाहिए क्योंकि बाद में उन्हें उठाने की अनुमति नहीं दी जा सकती। [ डालीचन्द बनाम स्टेट, 1976 राज० ]

(iv) कानून की दलीलें – उपर्युक्त वर्णित आधारभूत नियम कानून सम्बन्धी दलीलों को अभिकथित किये जाने के विरुद्ध नहीं हैं, अतः प्रतिवादी अपने लिखित कथन में इस प्रकार का अभिकथन कर सकता है कि वह परिसीमन अथवा प्राङ्न्याय द्वारा बाधित है।

कानून के अनुमान – ऐसे अनुमान तभी अभिकथित किये जा सकते हैं जबकि उनके माध्यम से तथ्यों को समझने में अपेक्षाकृत अधिक सुविधा होती है।

उत्तर (ii) उपर्युक्त नियम अभिवचन का दूसरा आधारभूत नियम है जो कि सी० पी० सी० के आदेश VI, नियम 2 की शब्दावली में सन्निहित है। मेघा एवं ओजर्स महोदय ने इसकी व्याख्या करते हुए इसे तीन उपखण्डों में विभाजित किया है-

(क) प्रत्येक अभिवचन में केवल सारवान् तथ्यों का ही अभिकथन किया जाना चाहिए।

(ख) प्रत्येक अभिवचन में सब सारवान् तथ्यों का अभिकथन किया जाना चाहिए।

(ग) प्रत्येक अभिवचन में केवल उन तथ्यों का अभिकथन किया जाना चाहिए जो बाद को वर्तमान स्थिति में सारवान् हो।

अब उपर्युक्त तीनों उपनियमों का वर्णन निम्न प्रकार किया जा सकता है-

(क) केवल सारवान् तथ्य (Material facts only) — नियम का प्रथम भाग केवल सारवान तथ्यों को अभिकचित किये जाने पर बल देता है। सारवान् तथ्य क्या होते हैं? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने उधव सिंह बनाम एम० आर० सिडिया (ए० आई० आर 1976 एस० सी० 774) के केस में यह कहा है कि वे सभी तथ्य सारवान् माने जायेंगे जिनको कि पक्षकार द्वारा अपना वाद हेतु या बचाव स्थापित करने के लिए परीक्षण में साबित करना आवश्यक हो। अन्य शब्दों में यदि कोई पक्षकार किसी तथ्य विशेष को साबित किये। बिना ही केस में सफलता पा सकता है तो तथ्य सारवान् नहीं होगा। इसके विपरीत यदि वह उस तथ्य विशेष को साबित किये बिना सफलता नहीं पा सकता तो वह तथ्य सारवान् होगा।

      यह मान्य है कि सामान्य क्षतिपूर्ति सम्बन्धी तथ्यों को अभिकथित करने की आवश्यकता नहीं होगी परन्तु विशेष क्षतिपूर्ति सम्बन्धी तथ्यों को किसी अन्य सारवान तथ्य की भाँति ही अभिकथित किया जाना चाहिए।

      यह भी उल्लेखनीय है कि भारत में क्षतिपूर्ति की राशि घटाने एवं बढ़ाने वाले दोनों ही प्रकार के तथ्य सारवान माने गये हैं। परन्तु इंग्लैण्ड में पहले प्रकार के तथ्यों को सारवान नहीं माना गया है, केवल दूसरे प्रकार के तथ्यों को ही सारवान माना गया है। [ मिलिंगटन बनाम लोरिंग, 18807 क्यू० बी० डी० 190]

(ख) सब सारवान तथ्य- अभिवचनों में सब सारवान तथ्यों के उल्लेख करने का महत्व है कि यदि किसी पक्षकार ने अपने अभिवचन में किसी सारवान तथ्य को अभिकथित नहीं किया है तो केस के परीक्षण के दौरान उसे उस तथ्य सम्बन्धित गवाही प्रस्तुत करने की अनुमति नहीं दी जायेगी और यदि किसी भूलवश ऐसी गवाही दे भी दी गई है तो न्यायालय उसे कोई महत्व नहीं देगा। वशिष्ट बनाम ग्लेक्सो लैबोरेटरी (1979 एस० सी०) के केस में सुप्रीम कोर्ट ने धारण किया है कि अभिकथनों में सारवान तथ्य के अभाव मात्र के आधार पर ही बाद को खारिज किया जा सकता है।

(ग) वाद की वर्तमान अवस्था में सारवान तथ्य- इसका आशय केवल इतना है कि किसी पक्षकार को किन्हीं ऐसे तथ्यों का अभिकथन केवल इस आधार पर नहीं कर देना चाहिए कि सम्भवतः वे भविष्य में सारवान सिद्ध होंगे।

नियम के अपवाद – अभिवचनों के दूसरे आधारभूत नियम के कुछ प्रमुख अपवाद इस प्रकार हैं-

(i) पूर्ववर्ती शर्त का अनुपालन – यदि वाद किसी पूर्ववर्ती शर्त के अनुपालन से सम्बन्धित है तो उसे अभिकथत किये जाने की आवश्यकता नहीं है। किन्तु यदि कोई पक्षकार उसके अनुपालन को चुनौती देना चाहता है तो उसे उस बात को अपने अभिवचन में अवश्य अभिकथित करना चाहिए।

(II) कानून की पूर्व अवधारणायें – किसी पक्षकार को किसी ऐसे तथ्य को अपने अभिवचन में कथित करने की आवश्यकता नहीं होती जिसे स्वयं कानून उसके पक्ष में मानकर चलता है या जिसे साबित करने का भार दूसरे पक्षकार पर होता है।

(iii) परिचयात्मक कथन- कुछ तथ्य मौलिक रूप से सारवान तो नहीं होते क्योंकि वे बाद हेतु का गठन करने के लिए आवश्यक नहीं होते। फिर भी उनके अभिकथन की अनुमति दे दी जाती है क्योंकि वे आगे आने वाले सारवान तथ्यों की व्याख्या करने में सहायक होते हैं। फिर भी ऐसे तथ्यों का अभिकथन कम ही किया जाना चाहिए।

प्रश्न 5. अभिवचन एवं उसके प्रमाण में भिन्नता सम्बन्धी नियम की विवेचना कीजिए। क्या इस नियम के कोई अपवाद हैं?

अथवा

अभिवचन एवं उसके प्रमाण में भिन्नता सम्बन्धी सामान्य नियम की विवेचना करते हुए इस कथन पर प्रकाश डालिए कि ‘प्रत्येक भिन्नता घातक नहीं होती।

State the general rule relating pleading and difference in its proof. What are exceptions of this rule?

Or

Stating the general pleading and difference in its proof point out that every difference is not harmful.

उत्तर – सामान्य नियम अभिवचन सम्बन्धी व्यवहार का एक सुस्थापित नियम यह है कि पक्षकार अपने-अपने अभिवचनों से बाध्य हैं और वे उनसे बाहर नहीं जा सकते। अन्य शब्दों में किसी पक्षकार को इस बात की अनुमति नहीं है कि वह अपने मौलिक अभिवचन में एक दलील रखे, फिर केस को किसी अन्य अवस्था पर कोई दूसरी दलील प्रस्तुत करके उसका लाभ उठाए। परन्तु ऐसा प्रयास बहुधा निराशाघादियों या प्रतिवादियों द्वारा किया जाता है और यही प्रयास अभिवचन एवं उसके प्रमाण में भिन्नता की स्थिति को जन्म दे सकता है. जिसकी अनुमति सिविल प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत नहीं है। अन्य शब्दों में इस सम्बन्ध में सामान्य नियम यह है कि कोई पक्षकार उसी आधार पर सफलता प्राप्त कर सकता है जो उसने अभिकथित किया था और जिसे उसने साबित किया और (Secundum allegate et probata) न्यायालय भी अभिवचनों से इतर किसी नये केस की संरचना नहीं कर सकते (The case pleaded has to be proved and found) (ई० सिंह बनाम शामा चरण, 1866-67. P.C)।

       कलकत्ता उच्च-न्यायालय द्वारा निर्णीत वाद रामचन्द्र बनाम मन्जू, (1975 Cal.) उक्त वर्णित सामान्य नियम पर एक अच्छा उदाहरण है। इस केस में वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध मासिक भरण-पोषण का वाद दायर किया था। महिला वादी ने अपने वाद-पत्र में स्पष्ट अभिकथन किया था कि प्रतिवादी से उसका विवाद गन्धर्व रीति से हुआ था। अतः उसने यह निवेदन किया था कि प्रतिवादी को वादी से वर्तमान हिन्दू विधि के अनुसार विवाह करने के लिए विवश किया जाए, साथ ही उसने स्थायी व्यादेश के लिये भी प्रार्थना की थी जिससे कि प्रतिवादी किसी अन्य लड़की से विवाह न कर सके। मुकदमे के परीक्षण के दौरान उसे मालूम हुआ कि प्रतिवादी ने दो वर्ष पूर्व ही किसी अन्य लड़की से विवाह कर लिया था। तब उसने अपने केस में सुधार करने के लिए गन्धर्व विवाह वाली बात तथा स्थायी व्यादेश सम्बन्धी अपना निवेदन छोड़कर यह साबित करने का प्रयास किया कि प्रतिवादी के साथ उसका विवाह नियमित रूप से हिन्दू आचारों के अनुसार हुआ था। न्यायालय ने धारण किया कि बादी किसी भी अनुतोष(Relief) की अधिकारी नहीं थी क्योंकि बाद पत्र में अभिकथित गन्धर्व विवाह सम्बन्धी अभिकथन उसमें स्वयं छोड़ दिया और दूसरा अभिकथन ( हिन्दू आचारों के अनुसार विवाह) अभिवचनों से भिन्न होने के कारण मान्य नहीं था।

         इसी सामान्य नियम को प्रिवी कौंसिल ने एक अन्य केस (सिद्दीक मोहम्मद शाह बनाम मु० सरन, 1930 P .C.) में इन शब्दों में व्यक्त किया है—किसी भी दलील पर ऐसे किसी भी तमाम साक्ष्य पर कोई ध्यान नहीं दिया जायेगा, जिसे (दलील) मौलिक अभिवचनों में अभिकथित नहीं किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने इन शब्दों पर भगत सिंह बनाम जसवन्त सिंह, (1966 S.C.) के प्रसिद्ध केस के माध्यम से पुष्टिकरण की दो। मुहर लगा

       अपवाद अथवा ‘प्रत्येक भिन्नता घातक नहीं होती है-प्रक्रिया सम्बन्धी सभी नियमों का एकमात्र उद्देश्य पक्षकारों के अधिकारों को तय करना होता है ताकि उन्हें समुचित न्याय मिल सके न कि उन्हें उनकी गलतियों के लिए दण्डित करना। अतः यदि पक्षकारों के बीच न्याय करने के लिए आवश्यक हो तो उपर्युक्त वर्णित सामान्य नियम से हटा भी जा सकता है। इसलिए कहा गया है कि प्रत्येक भिन्नता घातक नहीं होती।

      अपवाद की दो कसौटियां – सामान्य नियम से कब हटा जा सकता है इस सम्बन्ध में सुप्रीम कोर्ट ने भगवती प्रसाद बनाम चन्द्र मौल, (AIR 1966 S.C. 723) के केस में दो कसौटियाँ निर्धारित की हैं-

(i) कि तथाकथित भिन्न दलील पक्षकारों के बीच यथार्थ रूप से वर्तमान थी; तथा

(ii) कि दोनों पक्षकारों को उस दलील पर साक्ष्य प्रस्तुत करने का अवसर मिल चुका है।

      इन कसौटियों की प्रयोज्यता इसी केस के तथ्यों से दर्शायी जा सकती है। वादी ने प्रतिवादी को अपने मकान से बेदखल करने के लिए इस आधार पर वाद चलाया कि प्रतिवादी उसका किरायेदार है। प्रतिवादी ने अपने लिखित कथन में यह तो स्वीकार किया कि जिस जमीन पर मकान बना है, वह तो वादी का है किन्तु उसने दलील दी कि उक्त मकान वादी के निवेदन पर प्रतिवादी द्वारा स्वयं अपने खर्चे से बनवाया गया था और दोनों के बीच यह करार हुआ था कि प्रतिवादी उक्त मकान में तब तक रहता रहेगा जब तक कि उसका पूरा भुगतान उसे न कर दिया जाय। परीक्षण के दौरान कुछ ऐसा हुआ कि वादी किरायेदारी साबित न कर सका और प्रतिवादी करार साबित न कर पाया। जो कुछ साबित हुआ वह यह था कि प्रतिवादी वादी के मकान का अनुज्ञप्तिधारी (licensee) था और उसकी अनुमति से मकान में रह रहा था। प्रतिवादी की ओर से यह तर्क प्रस्तुत किया गया कि अनुज्ञति (license) वालो दलील प्रतिवादी के किरायेदारी वाली मौलिक दलील से भिन्न थी, अतः इस आधार पर प्रतिवादी को मकान से बेदखल नहीं किया जा सकता। परन्तु सुप्रीम कोर्ट ने उपर्युक्त वर्णित कसौटियाँ निर्धारित करते हुए केस को वादी के पक्ष में तय किया। न्यायालय ने कहा कि अनुज्ञप्ति का आधार यथार्थतः दोनों पक्षकारों के बीच विद्यमान था और दोनों ने ही इस सम्बन्ध में साक्ष्य प्रस्तुत किए थे, क्योंकि दोनों पक्षकारों की दलीलों का सामान्य आधार एक हो था कि वादी मकान का मालिक था और प्रतिवादी उस मकान पर बादी की आज्ञा से कब्जाधारी था। अतः अनुज्ञप्ति के आधार पर केस को वादी के पक्ष में तय करने से प्रतिवादी के साथ कोई अन्याय नहीं होगा।