-: लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर :-
प्रश्न 1. अपराध को परिभाषित कीजिए। Define Crime.
उत्तर- अपराध (Crime ) — ऐसे मानव आचरण जो किसी समय विशेष तथा समाज विशेष में विधि द्वारा निश्चित मानकों के अनुरूप न होने के कारण प्रतिबंधित या निषिद्ध होते हैं, तथा उनके लिए दण्ड की व्यवस्था रहती है, अपराध कहलाते हैं।
ब्लैकस्टोन के शब्दों में” अपराध एक ऐसा कृत्य या लोप हैं जो सार्वजनिक विधि के उल्लंघन में किया गया राज्य द्वारा निषिद्ध कृत्य है।”
हाल्सबरी ने अपराध की परिभाषा इन शब्दों में की है-“यह एक ऐसा अवैध है कृत्य जो लोकहित के विपरीत है तथा जिसके करने वाले को विधि के अन्तर्गत दण्डित किया जाता है।”
अपराध के लिए कम से कम दो तत्वों का विद्यमान होना अति आवश्यक है- (1) कोई कृत्य किया जाना या किसी कृत्य का लोप तथा (2) वह दूषित आशय से किया गया होना चाहिए। इसके अलावा वह कृत्य या लोप स्थान विशेष की प्रचलित दण्ड विधि के अन्तर्गत निषिद्ध और दण्डनीय भी होना चाहिए।
प्रश्न 2. अपराध शास्त्र को परिभाषित कीजिए। Define Criminology.
उत्तर — अपराध शास्त्र के अन्तर्गत मानव की आपराधिक दुष्प्रवृत्तियों के कारण, उनके निवारण तथा अपराधों के विश्लेषण आदि का अध्ययन समाविष्ट है।
डॉo केनी (Dr. Kenny) के अनुसार-” अपराधशास्त्र अपराध विज्ञान की वह शाखा है जो अपराध के कारणों, उनके विश्लेषण तथा अपराध निवारण से सम्बन्धित है।”
समाजशास्त्री दृष्टिकोण से अपराधशास्त्र में ऐसे सभी असामाजिक दुष्कृत्यों का विस्तृत अध्ययन किया जाता है जिन्हें समाज अनुचित मानता है। परन्तु असामाजिक’ शब्द की निश्चित परिधि निश्चित करना कठिन कार्य होने के कारण इस परिभाषा में निश्चितता का अभाव है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अपराधशास्त्र की एक निश्चित सर्वमान्य परिभाषा प्रायः असम्भव ही है। फिर भी इसमें सन्देह नहीं है कि अपराधशास्त्र की प्रमुख विषयवस्तु अपराध एवं अपराधी ही है तथा इसके अन्तर्गत ऐसी सभी संस्थाओं का समावेश है जो इन दोनों पर नियन्त्रण रखने हेतु कार्यरत हैं।
प्रश्न 3. अपराधशास्त्र के महत्व को बताइये। Explain the importance of Criminology.
उत्तर- अपराधशास्त्र का महत्व – अपराधशास्त्र के अन्तर्गत मानव की स्वतन्त्रता व जीवन की सुरक्षा एवं सम्पत्ति के संरक्षण के लिए अपराध विज्ञान के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन जरूरी समझा गया है। अपराधों का प्रमुख कारण मानव की धनलोलुपता, भौतिक इच्छाएँ, इर्ष्या सन्देह, अविश्वास आदि है। यही कारण है कि आज अपराधशास्त्र ने ज्ञान को एक महत्वपूर्ण शाखा का स्थान प्राप्त कर लिया है। इसका महत्व निम्नलिखित है-
(i) अपराधशास्त्र के द्वारा सामाजिक सुरक्षा की सुदृढ़ता सुनिश्चित की जाती है जो असामाजिक तत्वों तथा विधि का उल्लंघन करने वालों को सदाचारी बनाने में सहायक सिद्ध होती है। दण्ड का भय व्यक्तियों को अवांछित आचरण से परावृत्त रखने के लिए शास्ति का कार्य करता है।
(ii) अपराध और अपराधी दोनों ही इसके केन्द्र बिन्दु हैं। इसकी मूल धारणा यह है कि कोई भी व्यक्ति जन्म से ही अपराधी प्रकृति का नहीं होता है। अपराध शास्त्र में अपराधी की मनोवृत्ति में सुधार करके उसे समाज में विधि का पालन करने वाला सामान्य नागरिक बनाने का प्रयास किया जाता है और इस हेतु वैयक्तिक दण्ड को साधन के रूप में अपनाया जाता है।
प्रश्न 4. अपराधशास्त्र के सन्दर्भ में समाजशास्त्री विचारधारा। Sociological School in reference to Criminology.
उत्तर- समाजशास्त्री विचारधारा (Sociological School) – अपराधशास्त्र के विकास में समाजशास्त्रीय विचारधारा अब तक की विचारधाराओं में सबसे सही विचारधारा है। इस विचारधारा के अनुसार व्यक्ति की विभिन्न सामाजिक परिस्थितियाँ ही अपराधों के लिए कारणीभूत होती है। इन सामाजिक कारणों में गतिशील संस्कृति, धर्म, आर्थिक दशा राजनीतिक मान्यताएँ जनसंख्या की गहनता, रोजगार की स्थिति आदि का आपराधिकता से घनिष्ठ सम्बन्ध है। इस विचारधारा के समर्थकों ने अपराध और अपराधियों के प्रति व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाये जाने पर बल दिया है। उनकी धारणा है कि अपराध का कोई एक निश्चित कारण नहीं होता बल्कि विभिन्न कारण मिलकर एक ऐसी विशिष्ट परिस्थिति उत्पन्न करते हैं जो अपराध के लिए अनुकूल स्थिति निर्मित करते हैं जिनके प्रभाव में व्यक्ति अपराध कर बैठते हैं। अत: आपराधिक कृत्य मानव आचरण का ही परिणाम है जिसे निश्चित नियमों में सूत्रबद्ध नहीं किया जा सकता है।
प्रसिद्ध अपराधशास्त्री कोहेन ने अपराधशास्त्र की समाजशास्त्रीय विचारधारा से असहमति व्यक्त करते हुए कहा है कि अपराधी की परिस्थिति को ही उसके अपराध का कारण मानना बहुत भारी भूल होगी क्योंकि ऐसा करने से अपराध की परिस्थितियों और उसके कारणों में कोई भेद ही नहीं रह जाएगा। वे आगे कहते हैं कि अपराध के कारणों को उसके कारकों (factors) में ढूँढना सरासर भूल होगी क्योंकि ‘कारकों’ की सामाजिक वातावरण को बदले बिना सरलता से विलुप्त किया जा सकता है।
प्रश्न 5. आपराधिक विधि के उद्देश्य। Objects of Criminal Law.
उत्तर– आपराधिक विधि का उद्देश्य आपराधिक विधि का मुख्य उद्देश्य समाज और उसके लोगों को जीवन तथा सम्पत्ति आदि की सुरक्षा प्रदान करना है ताकि सामाजिक शान्ति-व्यवस्था बनी रहे। आपराधिक विधि के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
1) आपराधिक विधि का प्रवर्तन इस प्रकार किया जाए कि उससे आपराधिक कृत्यों के प्रति समाज को नापसन्दी परिलक्षित हो सके। इसे अपराधियों को दण्डित करके क्रियान्वित किया जाता है।
2) सुधार योग्य आपराधियों के प्रति सुधारवादी दाण्डिक तरीके अपनाते हुए उन्हें समाज में पुनर्स्थापित करने का प्रयास करना तथा घोर अपराधियों को • कारावासित कर उन्हें अपराध करने से परावृत्त रखना।
3) अपराध से व्यथित व्यक्ति को अपराधी से यथासम्भव प्रतिफल दिलाना।
4) यह सुनिश्चित करना कि अपराधी दण्डित होने से बच न पाये तथा निर्दोष व्यक्ति को आपराधिक कार्यवाही का कष्ट न झेलना पड़े।
प्रश्न 6. दुराशय क्या है? What is Mens rea?
उत्तर- दुराशय (Mens rea)—’ दुराशय’ का अर्थ है विद्वेषपूर्ण या बुरा आशय या ‘आपराधिक आशय’। दुराशय किसी व्यक्ति की आपराधिक मनोवृत्ति का द्योतक है। दुराशय या आपराधिक मनः स्थिति के पीछे कोई न कोई कारण होता है जो ऐसे आशय को जन्म देता है। दुराशय सामान्यतः अपराध के गठित होने की अनिवार्य शर्त है। दाण्डिक विधि की यह मान्यता है कि दोषी मस्तिष्क के अभाव में किसी प्रकार के अपराध को नहीं किया जा सकता।
इस प्रकार किसी भी कृत्य को अपराध बनने के लिए यह आवश्यक है कि वह कृत्य आपराधिक आशय (Mens Rea) से किया गया हो किसी सद्भावपूर्वक या निष्कपटतापूर्ण ढंग से सम्पन्न कार्य से दायित्व उत्पन्न नहीं होता भले ही उससे किसी व्यक्ति की क्षति हो क्योंकि उसमें दुराशय या आपराधिक आशय का अभाव होता है। इस प्रकार हत्या के मामले में हत्यारे का आपराधिक आशय चोरी के मामले में चुराई गयी वस्तु का बेईमानीपूर्ण प्रयोग तथा बलात्कार के मामले में किसी स्त्री की इच्छा के विरुद्ध उसके साथ बलपूर्वक सम्भोग, आपराधिक आशय या दुराशय के उदाहरण हैं।
प्रश्न 7. अपराध की कारणता का शास्त्रीय सिद्धान्त । Classical theory in causation of crime.
उत्तर- निरन्तर प्रयत्नरत रहने के बावजूद अपराधशास्त्री आपराधिकता की कोई एक निश्चित अवधारणा प्रतिपादित करने में सफल नहीं हो सके हैं। अतः समाजशास्त्रीय विचारकों ने आपराधिकता के सम्बंध में अपराध की कारणता का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। इस सिद्धान्त के अनुसार अनेक कारणों के मिश्रित प्रभाव के कारण ही मनुष्य में आपराधिकता की प्रवृत्ति होती है। दूसरे शब्दों में विभिन्न परिस्थितियों का एक विशिष्ट संयोग अपराधजन्य परिस्थिति का निर्माण कर देता है। लेकिन इन परिस्थितियों को नियमबद्ध किया जाना सम्भव नहीं है। कारणता के सिद्धान्त का समर्थन करते हुए विलियम हीले ने कहा है कि केवल एक या दो कारणों के संयोग से अपराध घटित नहीं होता है। अपितु अनेक कारण मिलकर एक अपराधानुकूल परिस्थिति उत्पन्न कर देते हैं, जब व्यक्ति अपराध कर ही बैठेंगे, परन्तु यह एक सामाजिक प्रक्रिया होने के कारण इसे नियमबद्ध नहीं किया जा सकता है। अतः गरीबी या माता-पिता का अभाव किसी बालक को अपराधी नहीं बना देता बल्कि यदि इन कारणों के साथ उसकी बुरी संगत, अभिरक्षा, दूषित वातावरण आदि अन्य कारकों का भी इसमें सहयोग हो, तो उसके अपराधी बन जाने की सम्भवानाएं अधिक होंगी।
प्रश्न 8. सफेदपोश अपराध से आप क्या समझते हैं? What do you understand by White Color Crime?
उत्तर- सफेदपोश अपराध (White Color Crime )– सफेदपोश अपराध की अवधारणा सर्वप्रथम प्रोफेसर ई० एच० सदरलैण्ड द्वारा सन् 1941 में प्रस्तुत की गयी। उन्होंने इसे परिभाषित करते हुए कहा कि ‘समाज के सम्माननीय तथा प्रतिष्ठित प्रास्थिति के व्यक्तियों द्वारा उनके व्यवसाय के दौरान किये गये अपराधों को सफेदपोश अपराध कहा जाना। चाहिए। अतः झूठे और कपटपूर्ण विज्ञापनों द्वारा दुर्व्यपदेशन, पेटेन्ट्स, कॉपीराइट तथा ट्रेडमार्क के नियमों का उल्लंघन आदि कुछ ऐसे सफेदपोश अपराध हैं जिन्हे उद्योगपतियों, निर्माता तथा अन्य उच्चस्तरीय वर्ग के सदस्य अपने व्यावसायिक अनुक्रम में लाभ कमाने की नीयत से प्रायः करते रहते हैं। सफेदपोश अपराध के उदाहरणों से तुलनपत्र की कूटरचना, माल के दोष या खराबी को छिपाना, नकली माल को बेचना आदि भी सम्मिलित हैं।
अतः यदि कोई व्यक्ति जो समाज के प्रतिष्ठित वर्ग का सदस्य है और समाज में उसे सम्मान प्राप्त है तथा वह कोई नकली माल बेचता है, तो इसे सफेदपोश अपराध कहा जायेगा।
प्रश्न 9. उपचार से निवारण बेहतर होता है।’ विवेचना कीजिए। ‘Prevention is better than cure.’ Explain.
उत्तर- ” उपचार से निवारण बेहतर होता है” को समझने के लिए पहले दोनों के सम्बन्ध को जानना जरूरी है-
(1) अपराध निवारण आपराधिक घटना घटित होने के पूर्व की अवस्था है जबकि उपचार अपराध घटित होने के बाद की स्थिति है।
(2) अपराध-निवारण का उद्देश्य अपराधों को घटित होने से रोकना है जबकि उपचार का लक्ष्य अपराधों की पुनरावृत्ति को रोकना तथा अपराधियों के पुनर्वास में उनकी सहायता करना है।
(3) अपराध-निवारण में समाज की उन परिस्थितियों पर अधिक ध्यान दिया जाता है। जो आपराधिकता के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करती हैं जबकि उपचार अपराधी के आचरण और व्यवहार को नियंत्रित कर उसे पुनः समाजोपयोगी बनाने का प्रयास करता है।
(4) अपराध निवारण में पुलिस की भूमिका अहम होती है तथा न्यायालय और कारागारों की भूमिका अप्रत्यक्ष होती है जबकि उपचार में न्यायालयों, कारागारों तथा सुधार संस्थाओं की प्रमुख भूमिका रहती है तथा पुलिस केवल सहायक की भूमिका निभाती है।
सदरलैण्ड ने अपराध-निवारण और उपचार, दोनों को ही अपराधों को कम करने की पद्धतियाँ माना है। अपराधियों के उपचार का उद्देश्य अपराधों की पुनरावृत्ति को रोकना है जबकि अपराध निवारण के अन्तर्गत अपराधों की रोकथाम पहले से ही की जाती है। संक्षेप में अपराध निवारण के अन्तर्गत उन सभी कार्यक्रमों का समावेश है जो अपराधों को नियंत्रित करने, कम करने, आपराधिकता के कारणों को समाप्त करने तथा अपराधी को विधि अनुयायी के रूप में समाज में पुनर्स्थापित करने हेतु आवश्यक होते हैं।
प्रश्न 10. दण्डशास्त्र से आप क्या समझते हैं? What do you understand by Penology?
उत्तर- अपराधशास्त्र की भाँति दण्डशास्त्र का भी अपना अलग महत्व है। समाज में व्यक्ति के आचरण को नियन्त्रित करने के लिए विधियों की नितान्त आवश्यकता होती है ताकि समाज में शान्ति-व्यवस्था बनी रहे और मानव जीवन तथा सम्पत्ति का संरक्षण सम्भव हो। परन्तु मानव स्वभावतः ही स्वार्थी होने के कारण केवल विधि बना देने मात्र से उसका आचरण नियन्त्रित नहीं हो जाता तब तक कि इन कानूनों (नियमों) के उल्लंघन के लिए समुचित दण्ड की व्यवस्था न हो। अतः प्रायः सभी दण्डशास्त्री इस बात से सहमत हैं कि अपराधों के निवारण के लिए दण्ड के प्रावधान रखे जाना नितान्त आवश्यक है क्योंकि दण्ड का भय ही व्यक्ति को आपराधिक आचरण से परावृत्त रखता है।
दण्ड की अनिवार्यता को प्रायः सभी दण्डशास्त्री स्वीकार करते हैं लेकिन दण्ड का निश्चित स्वरूप क्या हो इस सन्दर्भ में मतभेद कायम है। कुछ दण्डशास्त्री कठोर दण्ड दिये जाने के पक्षधर हैं, जबकि कुछ सुधारात्मक या उपचारात्मक दण्ड दिये जाने का समर्थन करते हैं ।
प्रश्न 11. दण्ड को परिभाषित कीजिए। Define Punishment.
उत्तर- दण्ड की परिभाषा – राज्य द्वारा निर्मित विधियों (कानूनों) का पालन प्रत्येक व्यक्ति द्वारा किया जाना आवश्यक होता है। इन कानूनों का उल्लंघन किये जाने पर व्यक्ति दण्डित किया जाता है। विधिशास्त्रियों ने दण्ड भिन्न-भिन्न रीतियों से परिभाषित किया है जिसमें से कुछ परिभाषाएँ निम्नवत् हैं- प्रो० सदरलैण्ड के अनुसार- “लोक न्याय के उपकरण के रूप में दो बातों का होना आवश्यक है। प्रथम, यह दण्ड समुदाय द्वारा अपनी क्षमता के रूप में उस व्यक्ति को दिया जाता है जो उस समुदाय का सदस्य है तथा दूसरे इसमें पीड़ित तथा क्लेश सन्निहित रहते हैं जो समुदाय के सामाजिक मूल्य द्वारा न्यायोचित माने जाते हैं।
मनुस्मृति के अनुसार प्रजा द्वारा “राजधर्म का पालन किया जाय इस दृष्टि से दण्ड विधान का होना परम आवश्यक है। दण्ड के भय से समाज के व्यक्ति अपने धर्म और कर्म से विचलित रहने से विरत रहते हैं। दण्ड हो प्रजाजनों की जानमाल की रक्षा करता है। इसलिए अपराधी को दण्डित करना सजा का परम धर्म है।”
सारांश में सामाजिक व्यवस्था के संरक्षण के लिए कानून निर्मित हैं। उनके उल्लंघन को रोकने के लिए भय के रूप में जो शारीरिक, मानसिक या आर्थिक कष्ट पहुँचाया जाता है, वह दण्ड कहलाता है।
प्रश्न 12. दण्ड के क्या औचित्य हैं? What are the Justification of Punishment?
उत्तर- दण्ड का औचित्य (Justification of Punishment) – अपराध और दण्ड ये दो पर्यायवाची धारणाएँ हैं, अतः अपराध घटित होने पर अपराधी को उसके विधि- विरुद्ध अपराध के लिए दण्डित किया जाना स्वाभाविक है। यदि दण्ड का भय न रहे तो कोई भी अपराध करने से परावृत्त नहीं रहेगा क्योंकि स्वैर आचरण मानव का स्वाभाविक लक्षण है। दोषसिद्ध अपराधी को दण्डित किये जाने का औचित्य निम्नलिखित कारणों से है-
1. प्रतिशोध (Deterrence)— अपराधी को दण्ड दिया जाना इसलिए उचित है ताकि उसे यह अनुभूति हो जाए कि अपराध करना एक महँगा सौदा है और वह उसकी पुनरावृत्ति करने का दुःसाहस न करे। जैसा कि बेंथम ने अपनी दाण्डिक नीति में कहा है दण्ड से अभियुक्त को होने वाला कष्ट, दुःख या शारीरिक यातना, अपराध से उसे प्राप्त होने वाले सुख की तुलना में अधिक होना चाहिए, तभी दण्ड प्रभावकारी परिणाम देगा।
2. परिरोधात्मक प्रभाव – अपराधी को कारागार में परिरोधित कर उसकी समाज में अपराध करने की क्षमता को बन्दीकरण द्वारा समाप्त कर दिया जाता है। यही कारण है कि जघन्य अपराध करने वाले अपराधियों को आजीवन कारावास से दण्डित किया जाता है ताकि वे आजीवन अपराध करने के लिए अक्षम (incapicitate) रहें। यहाँ तक कि हत्या के अपराधी जो समाज के लिए घातक हैं, मृत्युदण्ड से दण्डित किये जा सकते हैं ताकि वे अपराध की पुनरावृत्ति करने के लिए जीवित न बचें।
3. प्रत्यावर्तन (Restoration)— कतिपय छोटे-मोटे अपराधों के लिए दण्ड जुर्माने के रूप में दिया जा सकता है या अपराधी को आदेशित किया जा सकता है कि वह पीड़ित व्यक्ति को प्रतिकर (compensation) होकर उसकी क्षतिपूर्ति करे।
4. पुनर्वास (Rehabilitation) आधुनिक प्रगतिशील दण्ड प्रणालियों के अन्तर्गत दण्ड का उद्देश्य अपराधी की मनोवृत्ति में सुधार कर उसे समाज में पुनर्स्थापित करना होता है। अपराधी की मानसिकता या अभिवृत्ति ( attitude) में बदलाव लाकर उसे समाज में सामान्य की तरह पुनः स्वीकार किये जाने के प्रयास द्वारा उसको पुनर्स्थापित किया जाता है।
प्रश्न 13. एकान्त परिरोध । Solitary Confinement.
उत्तर- एकान्त परिरोध (Solitary Confinement) भारतीय दण्ड संहिता की धारा 73 के अनुसार जब कभी कोई व्यक्ति किसी ऐसे अपराध के लिए दोषसिद्ध ठहराया जाता है जिसके लिए न्यायालय उसे दण्ड संहिता के अधीन कठोर कारावास से दण्डित करने को शक्ति रखता है, तो न्यायालय अपने दण्डादेश द्वारा यह आदेश दे सकेगा कि अपराधी को उस कारावास के जिसके लिए वह दण्डादिष्ट किया गया हो, किसी भाग या भागों के लिए जो कुल मिलाकर तीन माह से अधिक न हो, निम्न प्रकार से एकान्त परिरोध में रखा जा सकता है-
(1) यदि कारावास की अवधि 6 माह से अधिक न हो, तो एक माह से अनधिक समय;
(2) यदि कारावास 6 माह से अधिक लेकिन एक वर्ष से कम हो, तो 2 माह से अनधिक समय;
(3) यदि कारावास की अवधि 1 वर्ष से अधिक हो तो 3 माह से अनधिक समय।
प्रश्न 14. मृत्युदण्ड से आप क्या समझते हैं? What do you understand by Death Sentence?
उत्तर- मृत्यु दण्ड (Death Sentence) — मृत्यु दण्ड से तात्पर्य ऐसे दण्ड से है जिसमें अपराधी के जीवन समाप्त कर दिया जाता है। ऐसा दण्ड प्रायः गम्भीर एवं संगीन अपराधों के लिए ही दिया जाता है। सामान्यतः दण्ड की मात्रा और उसका निर्धारण अपराध की गम्भीरता तथा उसके कारण समाज को उत्पन्न होने वाले संभावित संकट पर निर्भर करती है। अपराधी की आपराधिक प्रवृत्ति के अनुसार उसे कम या अधिक दण्ड दिया जाता है। दाण्डिक विधिशास्त्र के निरपेक्ष विश्लेषण से यह पता चलता है कि मृत्युदण्ड केवल हत्या या बलात्कार सहित हत्या जैसे जघन्य अपराधों के लिए ही दिया जाना उचित है जिसके कारण समाज के लिए गम्भीर संकट उत्पन्न होने की सम्भावना होती है। इसीलिए अति विरल मामले में ही मृत्युदण्ड दिया जाता है ताकि अवांछित तथा समाज के लिए खतरनाक अपराधियों का अस्तित्व समाप्त किया जा सके। भारतीय दण्ड नीति में भी मृत्युदण्ड के प्रति यही दृष्टिकोण अपनाया गया है।
प्रश्न 15. ‘मृत्यु अन्वेषण रिपोर्ट” से क्या अभिप्राय है? इसकी विधिक एवं साक्ष्यीय उपयोगिता को स्पष्ट कीजिए। What is meant by “Inquest Report”? Point out its legal and evidentary utility.
उत्तर- मृत्यु अन्वेषण रिपोर्ट (Inquest Report) — पुलिस के कार्यों में एक प्रमुख कार्य है मृत्यु अन्वेषण रिपोर्ट तैयार करना। जब कोई व्यक्ति अप्राकृतिक या सन्देहास्पद परिस्थितियों में मृत पाया जाय तो पुलिस उसकी मृत्यु अन्वेषण रिपोर्ट दर्ज करती है। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 174 में केवल दण्डाधिकारियों को यह अधिकार है कि यह विनिश्चित करने के लिए मृतक की मृत्यु हत्या, आत्महत्या या अकस्मात् अपघात इनमें से किस कारण हुई है इसका अन्वेषण करे। मजिस्ट्रेट उसकी जाँच करेगा फिर भी वह इस कार्य में पुलिस अन्वेषण रिपोर्ट की सहायता ले सकता है। इस जाँच में स्थानीय प्रतिष्ठित व्यक्तियों की उपस्थिति अन्वेषण रिपोर्ट की सत्यता को बल प्रदान करती है। इस सम्बन्ध में पुलिस को स्वविवेक का प्रयोग ईमानदारी और सतर्कता से करना चाहिए।
प्रश्न 16. इच्छा मृत्यु क्या है? What is Euthanasia?
उत्तर—इच्छा मृत्यु (Euthanasia) – इच्छा मृत्यु या दया मृत्यु से आशय यह है कि जो व्यक्ति किसी असाध्य रोग से पीड़ित वर्षों से निर्जीव स्थिति में पड़ा असहा शारीरिक पीड़ा या यातनाएँ भोग रहा है, क्या उसे चिकित्सक की सहायता से स्वयं के जीवन का अंत करने की अनुमति दी जानी चाहिए? इसी प्रकार यदि कोई रोगी महीनों से बेहोशी की हालत में कृत्रिम श्वास मशीन (रेस्पिरेटर) के सहारे जी रहा है और चिकित्सक जानता है कि कृत्रिम में श्वास नली हटाते ही उसकी मृत्यु होना सुनिश्चित है, तो क्या ऐसी स्थिति में उस रोगी की प्राकृतिक मृत्यु के पूर्व श्वास नली हटाकर उसके परिवारजनों की माँग पर उसका जीवन समाप्त करने की अनुमति दी जानी चाहिए? वर्तमान विधि के अनुसार चिकित्सक द्वारा किया गया ऐसा कृत्य ‘हत्या’ कहलाएगा तथा मृत व्यक्ति के परिवारजन भी हत्या के दोषी होंगे।
कोई एड्स (AIDS) ग्रसित रोगी यह जानता है कि उसकी मृत्यु निकट भविष्य में सुनिश्चित है और जितने दिनों तक वह जीवित रहेगा, समाज के लिए खतरा बना रहेगा, इसलिए स्वेच्छया मृत्यु का इच्छुक है, तो क्या उसे विधि के अन्तर्गत इसकी अनुमति दी जानी चाहिए। ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जो इच्छा मृत्यु को वैधानिकता प्रदान करने के पूर्व विधिज्ञों द्वारा विचार में लिया जाना आवश्यक है।
प्रश्न 17. दण्ड कितने प्रकार के होते हैं? How many kinds of punishment?
उत्तर- दण्ड के प्रकार- वर्तमान दण्ड व्यवस्था के अन्तर्गत दण्ड के रूप में निम्नलिखित को मान्यता दी गई – (1) अर्थदण्ड, (2) सम्पत्ति की जब्ती, (3) साधारण कारावास, (4) कठोर कारावास, (5) आजीवन कारावास तथा (6) मृत्यु – दण्ड। एकान्त कारावास को पृथक दण्ड नहीं माना गया है।
प्रश्न 18. दण्ड को निलम्बित करने का मुख्य उद्देश्य क्या है? What is the main object of suspending the sentences?
उत्तर- निलम्बित दण्ड (Suspended sentence) हाल ही के वर्षों में अपराधियों के सामाजिक पुनर्वास हेतु एक अन्य तरीका भी अपनाया जा रहा है जिसे ‘निलम्बित दण्डादेश’ कहा जाता है। इसी व्यवस्था को वर्तमान में परिवीक्षा के नाम से जाना जाता है। इस पद्धति के अन्तर्गत अभियुक्त की दोषसिद्धि हो जाने पर उसे सजा सुनाकर कारागार या किसी कि संस्था में नहीं भेजा जाता बल्कि कुछ शर्तों के साथ उसका दण्ड निलम्बित रखा जाता है और केवल शर्त भंग होने की दशा में ही दण्ड सुनाकर अभियुक्त को संस्थागत रखा जाता है।
जिस प्रकार पैरोल की पद्धति अनियत दण्डादेश पर आधारित है उसी प्रकार परिवीक्षा ‘निलम्बित दण्डादेश’ पर आधारित है पैरोल तथा परिवीक्षा के अतिरिक्त सुधारगृह, बोर्स्टल्स, सम्प्रेषणगृह आदि जैसी अर्द्ध-दाण्डिक (Quasi-penal) संस्थाएं भी अपराधियों को समाज में पुनर्वासित करने के कार्य में लगी हुई हैं।
वर्तमान दाण्डिक व्यवस्थाओं में प्रायः यह प्रवृत्ति देखी जा रही है कि न्यायालयों की दाण्डिक शक्ति तथा अपराधियों के उपचार हेतु उन पर नियंत्रण की अधिकार-शक्ति को उनसे छीनकर उसे प्रशासकीय मण्डलों तथा व्यावसायिक संस्थाओं को अन्तरित कर दिया जाता है ताकि कारावासियों के सुधार तथा पुनर्वास पर अधिक ध्यान दिया जा सके। स्केण्डेनेविया, इंग्लैण्ड, स्कॉटलैण्ड तथा अमेरिका के कुल राज्यों में बाल एवं किशोर अपराधियों के उपचार सम्बन्धी निर्णय दाण्डिक न्यायालयों की अधिकारिता से हटा लिए गए हैं तथा इन्हें सुधारात्मक सेवा संस्थानों के विशेषज्ञों को सौंपा गया है। यहाँ तक कि वयस्क अपराधियों के मामलों में भी उनकी कारावधि के स्वरूप का निर्धारण न्यायालय के नियंत्रण से मुक्त रखा गया है ताकि पैरोल बोर्ड या कोई अन्य प्रशासनिक विशेषज्ञ समिति या मण्डल इस पर उचित निर्णय ले सकें पैरोल परिवीक्षा तथा अनियत दण्डादेश की नवीनतम पद्धतियाँ लागू होने के बाद अब कारावासी की कारागार से रिहाई की तिथि प्रायः वे प्राधिकारी ही करते हैं जिनकी अभिरक्षा में कारावासी को रखा गया है। वर्तमान उपचारात्मक पद्धति का उद्देश्य कारावासी के दण्ड और उसके सुधार में समन्वय स्थापित करना है ताकि अपराधियों से समाज का संरक्षण सुनिश्चित हो सके। अतः बदले हुए वर्तमान परिवेश में न्यायालयों के रूढ़िगत प्रतिशोध या प्रतिरोध के रवैये का दण्ड-व्यवस्था में कोई स्थान नहीं है।
प्रश्न 19. प्राचीन एवं वर्तमान दण्ड विधियों की तुलनात्मक व्याख्या कीजिए। Discuss comparatively the ancient and present Penal law System.
उत्तर- प्राचीन दण्ड व्यवस्था सुनिश्चित दण्ड सिद्धान्तों पर आधारित थी हिन्दू धर्म के अधीन कर्म की प्रधानता को व्यापक महत्व प्रदान किया गया है। अपराधी को दण्डित करना शासक का कर्त्तव्य था और यदि शासक इसमें व्यतिक्रम करता था तो माना जाता था कि वह अपने कर्त्तव्य से विमुख हो रहा है। मनु और कौटिल्य की रचनाओं में अपराधियों को राजदण्ड से दण्डित किये जाने पर जोर दिये जाने का उल्लेख मिलता है।
प्रारम्भिक काल में दण्ड का स्वरूप बहुधा प्रतिरोधात्मक होता था। इसके अन्तर्गत अपराधियों को यातनात्मक दण्ड दिया जाता था ताकि वे आपराधिक कृत्य से दूर रहें तथा इस तरह के दण्ड का उदाहरण लेते हुए व्यक्ति स्वयं को अपराध से विरत रखे। इस प्रकार दण्ड की कठोरता अपराधी के लिए पर्याप्त भय का कारण होने के साथ-साथ अन्यों के लिए चेतावनी का कार्य भी करती है। यही कारण है कि प्रायः सभी दण्ड विधियों में प्रतिरोधात्मक सिद्धान्त को स्वीकार किया गया है।
उल्लेखनीय है कि प्रतिरोधात्मक दण्ड का प्रादुर्भाव अपराध और अपराधियों से सम्बन्धित आदिकालीन सिद्धान्तों से हुआ जब अपराध को पैशाचिक प्रवृत्ति का परिणाम माना जाता था। प्राचीन काल में चोरी के अपराध के लिए अपराधी का हाथ कटवा दिया जाता था या बलात्कारी का गुप्तांग कटवा लिया जाता था। ये दण्ड प्रतिरोधात्मक दण्ड के स्वरूप थे।
यह दण्ड वर्तमान परिवेश में उचित नहीं होता है क्योंकि दण्ड के इस सिद्धान्त की नींव बर्बरता रूपी स्तम्भ पर टिकायी गयी है।
प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त – जहाँ एक ओर प्रतिरोधात्मक सिद्धान्त को सामाजिक सुरक्षा को सुनिश्चित करने का साधन माना गया था वहीं दूसरी ओर दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त को स्वयं एक अन्तिम लक्ष्य के रूप में निरूपित किया गया है।
निरोधात्मक सिद्धान्त- दण्ड के निरोधात्मक सिद्धान्त के प्रति अवधारणा यह है कि अपराध के लिए बदला लेने के बजाय उसका निवारण करना चाहिए। इस सिद्धान्त के पोषकों का मानना है कि समाज की सुरक्षा के लिए दण्ड नितान्त आवश्यक है। अपराधियों को दण्डित करके समाज उन असामाजिक तत्वों से स्वयं की रक्षा करता है जो लोगों के जीवन तथा सम्पत्ति के लिए संकट उत्पन्न करते हैं
सुधारात्मक सिद्धान्त (Reformative Theories) — समय में परिवर्तन के साथ अपराध विज्ञान के क्षेत्र में अनेक प्रतिगामी परिवर्तन हुए हैं जिनके फलस्वरूप अपराधशास्त्रीय चिन्तन में भी बदलाव आया। अपराध और अपराधियों से सम्बन्धित समस्याओं के प्रति लोगों की धारणायें बदलने लगीं और दण्ड के सभी पूर्ववर्ती सिद्धान्त अधूरे सिद्ध हुए क्योंकि इनसे अपराध निवारण में विशेष सहायता नहीं मिल पाती है। अतः आपराधिक क्षेत्र में वैयक्तिकरण के उपचार पद्धति द्वारा अपराधियों से निपटने की नई तकनीक अपनायी गयी जो सुधारात्मक सिद्धान्त का मूल आधार मानी जाती है।
दण्ड के सुधारात्मक सिद्धान्त का प्रादुर्भाव 20वीं शताब्दी के सुधारवादी युग की देन है। यह सिद्धान्त अपराधी को रोगी मानते हुए उसे दण्डित करने के बजाय उसके सुधार पर विशेष बल प्रदान करता है।
प्रश्न 20. आदर्श दण्ड नीति की विशेषताओं की विवेचना कीजिए। Discuss the characteristics of the ideal penal method.
उत्तर- एक आदर्श दण्डनीति में निम्नलिखित आवश्यक लक्षणों (तत्वों) का होना आवश्यक है-
(1) आदर्श दण्ड प्रणाली का सर्वश्रेष्ठ गुण यह है कि उसका लक्ष्य समाज का अपराधियों से संरक्षण करना होना चाहिए तथा अपराधी को समाज में पुनर्स्थापित किये जाने पर बल दिया जाना चाहिए। अतः उपचार के बजाय अपराधों के निवारण को अधिक महत्व दिया जाना चाहिए।
(2) दण्ड की प्रभावोत्पादकता के विषय में अपने विचार व्यक्त करते हुए विधि- सुधारक जर्मी बँधम ने कहा है कि दण्ड नीति सुख-दुःख के उपयोगितावादी सिद्धान्त के अनुरूप होनी चाहिए। अपराध कृत्य से अपराधी को प्राप्त होने वाला सुख, उस अपराध के लिए देव दण्ड की पौड़ा की तुलना में अधिक नहीं होना चाहिए अन्यथा दण्ड का महत्त्व हो समाप्त हो जायेगा।
(3) सभी विधिवेत्ता यह स्वीकार करते हैं कि विलम्ब न्याय के उद्देश्य को ही समाप्त कर देता है। अतः अपराध कृत्य और दण्ड निर्धारण में जितना कम समय लिया जाए, दण्ड उतना ही प्रभावी होगा। दुर्भाग्य से वर्तमान भारतीय दण्ड व्यवस्था में इस महत्वपूर्ण सिद्धान्त की अवहेलना की जा रही है जिसके कारण पक्षकारों की न्यायालय से न्याय मिलने की बजाय कष्ट और परेशानी ही अधिक हो रही है और न्यायिक संस्थाओं के प्रति जनता का विश्वास समाप्त होता जा रहा है।
(4) दण्ड का कुछ मानव आचरणों के प्रति समाज की नापसन्दगी का प्रतीक माना गया है तथा इसकी शास्ति (दण्ड) के कारण लोग ऐसे आपराधिक आचरणों से परावृत रहने के लिए बाध्य होते हैं।
(5) अनुभव ने यह सिद्ध कर दिया है कि एक समान अपराध के लिए एक सौ दण्ड नीति विशेष परिणामकारी सिद्ध नहीं होती। इसलिए नव अपराधियों या प्रथमतः अपराध करने वाले व्यक्तियों, बाल अपराधियों एवं परिस्थितिवश अपराध करने वाले व्यक्तियों को घोर आदतन अपराधियों से भिन्न दण्ड दिया जाना उचित है। वस्तुतः दण्ड का निर्धारण अपराधी की आयु, लिंग, बौद्धिक क्षमता, मनोदशा, सामाजिक परिस्थिति आदि के अनुसार किया जाना चाहिए।
(6) दण्ड का उद्देश्य अपराधी में सुधार करना होना चाहिए तथा वैयक्तीकरण को इसके साधन के रूप में अपनाया जाना चाहिए। इस हेतु किसी एक विशिष्ट दण्ड के सिद्धान्त का अनुसरण करना उचित नहीं होगा बल्कि यथासम्भव सुधार, जहाँ आवश्यक हो वहाँ निरोध या कारावास तथा अत्यन्त गम्भीर मामलों में प्रतिरोधात्मक दण्ड दिये जाने की नीति अपनाया जाना श्रेयस्कर होगा। दूसरे शब्दों में एक आदर्श दण्ड पद्धति में दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों की आवश्यकता के अनुसार सम्मिश्रण होना आवश्यक है।
प्रश्न 21. ‘दण्ड’ के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त’ को संक्षिप्त रूप से समझाइए। Briefly explain the ‘Retributive theory of Punishment.
उत्तर- दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त (Retributive Theories of punishment)—जहाँ एक ओर प्रतिरोधात्मक सिद्धान्त को सामाजिक सुरक्षा को सुनिश्चित करने का साधन माना गया था वहीं पर दूसरी ओर दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त को स्वयं एक अन्तिम लक्ष्य के रूप में निरूपित किया गया है। डॉ० पी० के० सेन के अनुसार प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त का मूल आधार यह था कि बुराई का प्रतिशोध बुराई से लेना चाहिए। अतः इस सिद्धान्त के पीछे प्रतिशोध की भावना प्रबल थी अतः अपराधी को दिये जाने वाले दण्ड की पीड़ा उसके द्वारा किये गये अपराध कृत्य से प्राप्त सुख से कहीं अधिक होनी चाहिए ताकि दण्ड प्रभावी हो सके। इस प्रकार दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त के समर्थकों ने दण्ड का अपराधी के अपराध कृत्य के प्रति समाज का निरनुमोदन माना सर वाल्टर कोर्बले के अनुसार प्रतिशोधात्मक दण्ड के अन्तर्गत इस बात पर विशेष जोर दिया गया है कि अपराधी को अपने दुष्कृत्य का फल मिलना ही चाहिए। उन्होंने दण्ड की नापसंदगी निरूपित करते हुए कहा कि स्वस्थ समाज के लिए दण्ड परम आवश्यक है।
जर्मन दार्शनिक एवं विधिवेत्ता कांट दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त के प्रमुख समर्थक थे। उनके अनुसार आँख के लिए आँख और दाँत के लिए दाँत की उक्ति प्रतिशोधात्मक दण्ड की भावना से युक्त है।
अरस्तू, स्टीफेन तथा ब्रडले महोदय इस सिद्धान्त के प्रमुख समर्थक हैं। ब्रेडले के अनुसार जिस तरह विवाह और स्नेह में परस्पर सम्बन्ध है उसी प्रकार दण्ड विधि और प्रतिशोध में घनिष्ठ सम्बन्ध है। प्लेटो के अनुसार, “न्याय आत्मा की अच्छाई और स्वास्थ्य है, जबकि अन्याय इसकी बीमारी और शर्मिन्दगी है।” परन्तु इस विचार की आलोचना हुई है। क्योंकि अपराधी द्वारा अपने अपराध का दण्ड भोग लिये जाने के पश्चात् निर्दोषिता की स्थिति में आ जाने के कारण वह समझने लगता है कि उसने जो अपराध किया था, उसका दण्ड तो वह भुगत चुका है अतः अब पुनः अपराध करने के लिए वह पूरी तरह स्वतन्त्र है।
प्रश्न 22. अपराध शास्त्र एवं दण्डशास्त्र के बीच सम्बन्धों की विवेचना कीजिए। Discuss the relationship between Criminology and Penology.
उत्तर- अपराधशास्त्र अपराध-विज्ञान की वह शाखा है जो अपराध तथा आपराधिक आचरणों से सम्बन्धित है। इसके अन्तर्गत अपराध के कारणों तथा उनके निवारण का विवेचन रहता है। दण्डशास्त्र के अन्तर्गत अपराधियों की अभिरक्षा, उनके उपचार तथा उन पर नियंत्रण की विभिन्न पद्धतियों का अध्ययन किया जाता है। अपराधशास्त्र तथा दण्डशास्त्र, इन दोनों शाखाओं द्वारा निर्धारित दण्ड नीतियों को दण्ड विधि के माध्यम से लागू किया जाता है। दूसरे शब्दों में, दण्डनीति को दण्ड विधि द्वारा कार्यान्वित किया जाता है।
इसमें सन्देह नहीं कि अपराधशास्त्र, दण्डशास्त्र तथा दण्ड विधि में इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि इन्हें एक-दूसरे से पृथक नहीं रखा जा सकता है। दण्ड के निर्धारण का आधार मुख्यतः अपराधों की प्रकृति तथा कारणों पर निर्भर करता है जिसका प्रवर्तन दण्ड विधि के माध्यम से किया जाता है। इसलिए प्रो० सेलिन (Sellin) ने कहा है कि अपराधशास्त्र का उद्देश्य विधि- निर्माण, विधि की अवज्ञा (law-breaking) तथा विधि उल्लंघन के दुष्परिणामों का विधि की प्रभावशीलता की दृष्टि से क्रमबद्ध अध्ययन करना है तथा साथ ही यह देखना भी है कि दण्ड विधि अपराधों पर नियंत्रण रखने में कहाँ तक सफल रही है। इस सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए डोनाल्ड टेफ्ट (Donald Taft) ने कहा है कि अपराधशास्त्र के अन्तर्गत अपराधों एवं अपराधियों का वैज्ञानिक पद्धति से विश्लेषण तथा अध्ययन किया जाता है, जबकि दण्डशास्त्र मुख्यतः अपराधियों के दण्ड एवं उपचार से सम्बन्धित है। उनके मतानुसार अपराधशास्त्र का प्रादुर्भाव तथा विकास दण्डशास्त्र की तुलना में बहुत बाद में हुआ है क्योंकि आरम्भिक काल में अपराधों के कारणों के विश्लेषण के बजाय अपनाधियों को दण्डित करने पर ही विशेष जोर दिया जाता था।
प्रश्न 23. आत्महत्या । Suicide.
उत्तर- आत्महत्या (Suicide) – मृत्युदण्ड के सन्दर्भ में ही भारतीय दण्ड संहिता की धारा 309 के अन्तर्गत आत्महत्या के प्रयास के अपराध के बारे में बतलाया गया हैं। बम्बई उच्च न्यायालय ने मारुति दुब्बल बनाम महाराष्ट्र, (1986) 3 क्राइम्स 517 के वाद में अभिनिर्धारित किया कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत व्यक्ति को प्राप्त जीवन के अधिकार के अन्तर्गत जीवित न रहने का अधिकार अर्थात् जीवन को समाप्त करने का अधिकार परोक्ष रूप से समाविष्ट है अतः जो व्यक्ति जीना नहीं चाहता, आत्महत्या करता है तो इसके प्रयास को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 309 के अन्तर्गत अपराध नहीं माना जाना चाहिए। परन्तु ज्ञान कौर बनाम पंजाब राज्य, ए० आइ० आर० (1996) सु०को० 1257 के बाद में अभिनिर्धारित किया गया कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन जीवन के अधिकार के अन्तर्गत जीवन समाप्त कर देने का अधिकार सम्मिलित नहीं है अतः भारतीय दण्ड संहिता की धारा 309 के अन्तर्गत आत्महत्या के प्रयास के लिए जो दण्ड का उपबन्ध है. वह कहीं भी संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन जीवन के अधिकार के प्रावधान के प्रतिकूल नहीं है। अतः उक्त निर्णय के अनुसार भारतीय दण्ड संहिता की धारा 309 संवैधानिक है।
प्रश्न 24. धन्धेबाजी (बलाद्ग्रहण) । Racketeering.
उत्तर- धन्धेबाजी (बलाद्ग्रहण) (Racketeering) – यह एक ऐसा अपराध है जो सुसंगठित अपराध की श्रेणी में आता है। इसके अन्तर्गत आपराधिक सिंडीकेट आपराधिक रेकेट्स, व्यापारिक श्रम रेकेट्स एवं जुआडियों के रेकेट्स आदि शामिल होते हैं। रिकेटियरिंग में वैध गतिविधि में कार्यरत व्यक्तियों को कोई सेवा उपलब्ध कराने का तरीका अवैध होता है।
प्रश्न 25. अनियत दण्डादेश से आप क्या समझते हैं? What do you understand by Indeterminate Sentence?
उत्तर- अनियत दण्डादेश (Indeterminate Sentence) — विभिन्न दण्ड प्रणालियों के अन्तर्गत दण्ड विधि द्वारा प्रत्येक अपराध के लिए निश्चित दण्ड निर्धारित किया जाता है इसे नियत दण्ड (Determined Sentence) कहते हैं। परन्तु अनेक देशों ने अपनी दण्ड विधि में विभिन्न अपराधों के लिए केवल न्यूनतम एवं अधिकतम दण्ड की सीमाएँ निर्धारित करके उसके निश्चितीकरण का कार्य पैरोल बोर्ड के विवेक पर छोड़ दिया है, जिसे-अनियत दण्डादेश (Indeterminated Sentence) कहते हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि अनियत दण्डादेश को अनिश्चित (Indefinite) दण्डादेश कहना गलत होगा क्योंकि अनियत दण्डादेश में दण्ड की मात्रा पूर्णतः अनिश्चित न होकर न्यूनतम और अधिकतम सीमा के अन्दर कुछ भी विनिश्चित की जा सकती है अर्थात् दण्ड के बारे में एक निश्चित सीमा में सुनिश्चितता रहती है।
प्रश्न 26. पुलिस को परिभाषित करें। Define Police.
उत्तर- पुलिस की परिभाषा सदरलैण्ड के अनुसार” पुलिस शब्द प्राथमिक रूप से राज्य के उन प्रतिनिधियों की ओर संकेत देता है जिनका कार्य विधि व्यवस्था बनाये रखना है तथा विशेष रूप से अधिनियमित दण्ड विधि को प्रवर्तित करना है।” इस परिभाषा में पुलिस की तीन विशेषताओं की ओर इंगित किया गया है जो निम्नलिखित हैं-
(1) पुलिस राज्य के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करती है।
(2) पुलिस का कार्य समाज में कानून व्यवस्था को बनाये रखना है।
(3) कानून व्यवस्था बनाये रखने हेतु पुलिस दण्ड विधि तथा प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों को लागू करती है।
प्रश्न 27. राष्ट्रीय पुलिस आयोग। National Police Commission.
उत्तर- राष्ट्रीय पुलिस आयोग (National Police Commission)- पुलिस बल की कार्य पद्धति एवं कुशलता की समीक्षा के लिए भारत सरकार के गृह मन्त्रालय ने 15 नवम्बर, 1977 में श्री धर्मवीर की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय पुलिस आयोग की नियुक्ति की घोषणा की थी।
आयोग को निम्नलिखित कार्य सौंपे गये थे-
1. बदले हुए परिवेश में देश में शान्ति-व्यवस्था बनाए रखने तथा अपराध निवारण में पुलिस की भूमिका, कर्तव्य, शक्तियों तथा दायित्वों की समीक्षा करना;
2. वर्तमान पुलिस व्यवस्था का मूल्यांकन करना और उसमें सुधार हेतु सुझाव देना;
3. वर्तमान अन्वेषण एवं अभियोजन पद्धति में विलम्ब के दोष को दूर करना ताकि न्याय प्रदान करने में गति लाई जा सके।
4. देश भर में एक सी पुलिस सांख्यिकी तैयार की जा सकने की सम्भावनाओं पर सुझाव देना;
5. गैर-ग्रामीण क्षेत्रों की पुलिस पद्धति का पुनरीक्षण करना 6. पुलिस कार्यों में आधुनिक वैज्ञानिक साधनों एवं यंत्रों जैसे- कम्प्यूटर, प्रयोगशाला आदि के प्रयोग के सम्भावित परिणामों पर विचार करना;
7. पुलिस एवं जनता के बीच अधिक परस्पर सहयोग की सम्भावनाओं एवं क्षेत्रों पर विचार करना।
प्रश्न 28. महिला पुलिस । Women Police.
उत्तर- महिला पुलिस भारतीय स्वतन्त्रता के पश्चात् भारतीय पुलिस सेवा में सन् 1947 से महिला पुलिस को एक स्वतन्त्र शाखा के रूप में विकसित किया गया जिन्हें मुख्यतः बाल आपराधियों तथा महिला अपराधियों का दायित्व सौंपा गया। महिलाओं से सम्बंधित अपराधों की छानबीन करना तथा महिला अपराधियों की अनुरक्षा करना, तलाशी लेना तथा उन्हें आवश्यकतानुसार अभिरक्षा में लेना इनके मुख्य कार्यों में से हैं। उन महिलाओं के मेले, सामूहिक कार्यक्रम, धरने आदि में शान्ति व्यवस्था बनाए रखने का दायित्व भी है। महिलाओं को प्रताड़ना सम्बन्धी मामलों का संज्ञान भी महिला पुलिस द्वारा ही किया जाता है।
विश्व का प्रथम महिला पुलिस थाना केरल के कालीकट में 27 अक्टूबर, 1973 को स्थापित किया गया। महिला पुलिस की स्थापना से अपराध से पीड़ित महिलाओं को त्वरित न्याय की आशाएँ प्रबल हुई हैं।
प्राप्त 29. इन्टरपोल। Inter Pol.
उत्तर- इन्टरपोल (Interpol) – आधुनिक कम्प्यूटर युग में आपराधिकता ने एक विश्व समस्या का रूप धारण कर लिया है। आवागमन के साधनों तथा दूरसंचार सेवाओं की उपलब्धता के फलस्वरूप अपराधियों को अपनी गतिविधियाँ संचालित करना अपेक्षाकृत सरल हो गया है। वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय अपराधों में लिप्त आपराधिक गिरोह हवाई जहाज या समुद्री जहाजों का उपयोग करते हुए अपनी गतिविधियों विभिन्न देशों में जारी रखते हैं तथा विश्व के अनेक देशों के अपराधियों से उनकी सांठ-गांठ रहती है। गम्भीर समस्या से प्रायः सभी देश जूझ रहे हैं। अन्तर्राष्ट्रीय अपराध एवं आपराधिकता पर नियन्त्रण रखने के उद्देश्य से प्रत्येक राज्य ने स्वयं की अन्तर्राष्ट्रीय इकाइयाँ स्थापित की हैं, जिन्हें इण्टरपोल (Interpol) कहा जाता है। इसका वास्तविक नाम ‘इन्टरनेशनल क्रिमिनल पुलिस आर्गनाईजेशन’ है जिसका मुख्य कार्य अन्तर्राष्ट्रीय अपराधों, अपराधियों के बारे में अन्य देशों की समान्नान्तर संस्था, अर्थात् Interpol से सम्पर्क बनाए रखना है। अन्तर्राष्ट्रीय अपराधी या अपराधियों यथास्थिति, से प्रभावित देश, सम्बन्धित देश तीन प्रकार के निवेदन करता है, अपराधी को ढूँढ़कर उसे पकड़ा जाए और निवेदनकर्ता देश को सौंपा जाए।
वर्तमान में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वापक (मादक) पदार्थों का अवैध व्यापार, हीरे जवाहरात या सोने चाँदी के तस्करी, मुद्रा, पासपोर्ट, विदेशी विनिमय आदि में कपट, धोखाधड़ी, महिलाओं एवं बच्चों का अनैतिक व्यापार, विमान अपहरण आदि में हो रही निरन्तर वृद्धि के कारण Interpol का महत्व और अधिक बढ़ गया है। सूचना प्रौद्योगिकी के विकास के परिणामस्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय अपराधों में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। अतः इन्टरपोल अपराधियों का पता लगाकर उन्हें पकड़ने के अलावा उनके बारे में सभी देशों को सूचनाएँ भी भेजता है तथा उनके प्रत्यर्पण की व्यवस्था में सहायता करता है। इसका मूल उद्देश्य विभिन्न देशों की पुलिस संस्थाओं को अन्तर्राष्ट्रीय अपराधों को रोकने हेतु उनसे निपटने में सहयोग करना है।
प्रश्न 30. दण्ड न्यायालयों से आप क्या समझते हैं? What do you mean by Criminal Courts?
उत्तर- दण्ड न्यायालय (Criminal Courts) — किसी भी देश की न्याय व्यवस्था के अन्तर्गत अनेक प्रकार के न्यायालय कार्यरत रहते हैं जिनमें सिविल न्यायालय, राजस्व न्यायालय, दण्ड न्यायालय प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त पारिवारिक न्यायालय (Family Courts), सैन्य न्यायालय (Military Courts), बाल न्यायालय (Juvenile Courts) तथा अनेक प्रकार के न्यायाधिकरण (Tribunals) भी न्यायिक कार्य करते हैं। भारत के प्रत्येक राज्य या दो या अधिक राज्यों के लिए एक उच्च न्यायालय होता है जो निचली अदालतों से अपीलों की सुनवाई करता है। उच्च न्यायालय को रिट जारी करने की मौलिक अधिकारिता प्राप्त है। उच्च न्यायालय से अपील उच्चतम न्यायालय (Supreme Court) में हो सकती है जो भारत का सर्वोच्च न्यायालय है। उच्चतम न्यायालय को भी मौलिक अधिकारों के हनन के मामलों में रिट (Writ) जारी करने की मौलिक अधिकारिता प्राप्त है।
प्रश्न 31. किशोर अपचारिता को परिभाषित कीजिए।Define Juvenile Delinquency.
उत्तर- किशोर अपचारिता (Juvenile delinquency) – अपराधशास्त्रियों ने किशोर अपचारिता की व्याख्या भिन्न-भिन्न प्रकार से की है। सामान्यतः अपचारिता से आशय बाल एवं किशोर वयस्कों द्वारा किये गये आचरणों से है जिन्हें समाज के लोग अच्छा नहीं मानते हैं तथा लोकहित की दृष्टि से जिनके लिए अपचारी की भर्त्सना चेतावनी, दण्ड या कोई अन्य सुधारात्मक उपाय आवश्यक समझा जाता है। अत अपचारिता का अर्थ अत्यन्त व्यापक है जिसके अन्तर्गत किशोरों द्वारा अन्य व्यक्तियों के प्रति तिरस्कार, घृणा, अशिष्ट या अभद्र व्यवहार तथा समाज के प्रति उदासीनता (Indifference towards society) आदि सम्मिलित हैं। किशोरों तथा बालकों द्वारा किये गये कुछ अन्य कृत्य जैसे- भीख माँगना, आवारागर्दी करना, कुसंगति में रहना, अश्लीलता, देर रात तक अकारण इधर-उधर बाहर घूमना, उठाईगिरी या छोटी-छोटी चीजों की चोरी करना, जुआ खेलना आदि भी अपचारिता के अन्तर्गत आते हैं जो समाज के भ्रष्ट व्यक्ति प्रायः करते हुए देखे जाते हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि किशोर अवस्था, बालपन (शैशव) और पुरुषत्व या नारीत्व यथास्थिति के बीज की वह अल्हड़पन की आयु है जिसमें व्यक्ति किसी प्रकार का असामाजिक आचरण करता है, जिसे यदि समय पर न रोका गया तो उसके गम्भीर अपराधी बनने की सम्भावना रहती है।
प्रश्न 32. परिवीक्षा को परिभाषित कीजिए। Define Probation.
उत्तर- परिवीक्षा (Probation) – दण्डशास्त्रियों ने परिवीक्षा की परिभाषा भिन्न- भिन्न प्रकार से की है, जिनमें से कुछ परिभाषायें निम्न हैं-
प्रो० टेफ्ट (Prof. Taft) के अनुसार “किसी आपराधिक विचारण में दोषी अपराधी के विरुद्ध न्यायालय के अन्तिम निर्णय या दण्डादेश के निलम्बन को परिवीक्षा कहते हैं ताकि अपराधी को अपना आचरण सुधारने का अवसर मिल सके और वह स्वयं को समाज में समायोजित कर सके। परिवीक्षा की अवधि में अपराधी प्रायः न्यायालय द्वारा निर्देशित शर्तों के अधीन परिवीक्षा अधिकारी के पर्यवेक्षण या निर्देशन में बना रहता है।”
प्रो० सदरलैण्ड ने परिवीक्षा को परिभाषित करते हुए कहा है कि “यह दोषी पाये गये। अपराधी के दण्ड के निलम्बन की वह प्रास्थिति है, जिसमें उसे सद्व्यवहार बनाये रखने की शर्तों पर स्वतंत्रता दी जाती है तथा जिसमें राज्य अपने वैयक्तिक पर्यवेक्षण द्वारा उसे सद्व्यवहार बनाये रखने में पर्याप्त सहायता प्रदान करता है।”
इस प्रकार उक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि परिवीक्षा के अन्तर्गत सिद्धदोष अपराधी को दण्ड नहीं दिया जाता है और यदि वह दिया गया है तो उसे कार्यान्वित नहीं किया जाता है। यदि परिवीक्षा की अवधि में अपराधी किसी परिवीक्षा शर्त का उल्लंघन करता है या अपना आचरण या व्यवहार ठीक नहीं रखता है तो उसके निलम्बित दण्ड को कार्यान्वित कर दिया जाता है।
प्रश्न 33. परिवीक्षा के मुख्य उद्देश्य क्या हैं? What are the main objects of Probation?
उत्तर- परिवीक्षा के मुख्य उद्देश्य- उच्चतम न्यायालय ने परिवीक्षा के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए रामजी मिस्सर बनाम बिहार राज्य, ए० आई० आर० (1963) सु० को० 1088 के बाद में अभिकथन किया कि परिवीक्षा अधिनियम, 1958 का उद्देश्य युवा- अपराधियों को कट्टर अपराधी बनने से रोकना है क्योंकि यदि इन युवा एवं नव-अपराधियों को कारावासित करके अभ्यस्त एवं वयस्क अपराधियों से सम्पर्क में आने दिया गया, तो वे उनकी संगति में पड़कर घोर अपराधी बन सकते हैं। न्यायालय ने आगे कहा कि अब यह पूर्णतः सिद्ध हो चुका है कि कोई भी व्यक्ति जन्मतः अपराधी नहीं होता, अपितु अधिकांश अपराध व्यक्ति परिस्थितियों से पराभूत होकर ही करता है। यद्यपि कट्टर अपराधियों को सुधारना बहुत कठिन है लेकिन युवा तथा नव-अपराधियों को सुधारने के लिए परिवीक्षा का प्रयोग निश्चित रूप से लाभकारी सिद्ध होगा तथा इसके परिणामस्वरूप वे अभ्यस्त अपराधियों के सम्पर्क में आने से बच सकेंगे। परिवीक्षा अधिनियम इस उद्देश्य को ही प्राथमिकता देता है। स्पष्टतः यह अधिनियम कट्टर एवं घोर अपराधियों के लिए प्रयोग्य नहीं है, जो प्रायः असुधार योग्य होते हैं, लेकिन युवा एवं नव-अपराधियों के लिए यह सर्वाधिक उपयुक्त होगा।
प्रश्न 34. परिवीक्षा अधिकारी के क्या कर्तव्य हैं? What are the duties of Probation Officer?
उत्तर- परिवीक्षा सेवा में परिवीक्षा अधिकारी की भूमिका पहिए की धुरी के समान है। परिवीक्षा की सफलता या असफलता बहुत कुछ इन अधिकारियों की दक्षता और कार्यकुशलता पर निर्भर करती है। परिवीक्षा अधिकारी के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं-
(1) अन्वेषण एवं निगरानी (Investigation and Survillance) – किसी अपराधी को परिवीक्षा पर छोड़े जाने के पहले उसके बारे में पूरी जानकारी एकत्रित किया जाना आवश्यक होता है ताकि उसके पूर्व चरित्र, सामाजिक, आर्थिक तथा पारिवारिक परिस्थितियों के आधार पर उसके सुधारने की सम्भावना के बारे में अनुमान लगाया जा सके।
(2) परिवीक्षा अपराधी को सुधारने हेतु उस पर उचित नियंत्रण- परिवीक्षाधीन अपराधियों द्वारा परिवीक्षा नियमों का उल्लंघन न किया जाये यह सुनिश्चित करने हेतु परिवीक्षा अधिकारियों को उन पर नियंत्रण रखना परम आवश्यक है। इस हेतु उसे राज्य द्वारा प्राप्त आधिकारिक शक्ति का प्रयोग करना होता है।
(3) विधिक प्राधिकारी के रूप में परिवीक्षा अधिकारी की भूमिका- परिवीक्षाधीन व्यक्ति तथा परिवीक्षा अधिकारी के बीच सामन्जस्य (वाल मेल) होना परम आवश्यक है। परिवीक्षा काल में अपराधी के जीवन में सुधार लाना तथा उसे समाज में पुनर्स्थापित करने का दायित्व परिवीक्षा अधिकारी पर होने के कारण उसकी प्रास्थिति विधिक प्राधिकारी की होती है। उसे अपने अधीन रखे गये परिवीक्षाधीन अपराधी की समस्याओं को सुलझाने में सहायता करनी चाहिए तथा उसके सुधार एवं पुनर्वास में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए।
(4) निर्णय लेना (Decision Making) परिवीक्षाधीन व्यक्तियों के बारे में समय- समय पर उचित निर्णय लेना तथा उनका निर्देशन करना परिवीक्षा अधिकारी का एक महत्वपूर्ण कार्य है। निर्णय (Decision) लेते समय उसे ध्यान में रखना चाहिए कि इसका न केवल परिवीक्षाधीन पर बल्कि पूरे समाज पर प्रभाव पड़ेगा। अतः उसे परिवीक्षाधीन अपराधियों के विषय में अपने निर्णय इस प्रकार लेने चाहिए ताकि परिवीक्षाधीनों की स्वतन्त्रता तथा समाज की सुरक्षा में उचित संतुलन बना रहे।
प्रश्न 35. परिवीक्षा प्रणाली से आप क्या समझते हैं? What do you mean by Probation System?
उत्तर- परिवीक्षा प्रणाली ( Probation System) – भारत में परिवीक्षा पद्धति का प्रयोग संस्थागत उपचार पद्धति के रूप में किया जाता है जो अपराधियों के सुधार में सहायक होती है परन्तु पाश्चात्य देश अपनी उपचारात्मक दण्ड व्यवस्था में संस्थागत तरीकों का प्रयोग करना उचित नहीं समझते क्योंकि इसके कारण अपराधियों के सुधार कार्य में अनेक प्रक्रियात्मक बाधाएँ उत्पन्न होती हैं। इस कार्य के लिए वे स्वैच्छिक स्वयंसेवी संस्थाओं तथा कल्याण मण्डलों की सेवाएं लेना उपयुक्त समझते हैं क्योंकि इनमें विशेषज्ञों के रूप में समाजशास्त्री, मनोवैज्ञानिक तथा मनः चिकित्सकों का समावेश होता है। इन संस्थाओं के कार्यों में न्यायाधीशों की कोई भूमिका नहीं रहती है।
भारतीय परिवीक्षा कानून के अन्तर्गत अपराधी को परिवीक्षा पर छोड़े जाने का कार्य पूर्णतः न्यायालयों द्वारा ही सम्पन्न होता है तथा यह कार्य निजी सामाजिक संस्थाओं को इसलिए नहीं सौंपा जाता क्योंकि इसका अर्थ गैर न्यायिक संस्थाओं को न्यायिक कार्य सौंपना होगा, जो न्यायिक दृष्टि से उचित नहीं है।
भारत में परिवीक्षा को सांविधिक मान्यता सर्वप्रथम दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1898 की धारा 562 के अन्तर्गत दी गई थी जो वर्तमान में दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 360 में दिया गया है। इस धारा के अन्तर्गत कुल 156 अपराधों को परिवीक्षा के दायरे के अन्तर्गत शामिल किया गया है। इसके अन्तर्गत ऐसे नव-अपराधियों को जिन्होंने दो वर्ष से कम सजा से दण्डनीय अपराध किया हो, न्यायालय के विवेकानुसार अच्छे आचरण की शर्त पर परिवीक्षा का लाभ देकर छोड़ा जा सकता था। बाद में बाल अधिनियम, 1908 के अधीन न्यायालयों को कतिपय अपराधियों को परिवीक्षा पर छोड़ने की विशेष शक्ति भी प्रदान की गई। इसी प्रकार के प्रावधान वर्तमान में लागू किशोर न्याय (बालकों की देखरेख तथा संरक्षण) अधिनियम, 2000 प्रभावी है।
प्रश्न 36. परिवीक्षा और निलम्बित दण्ड में विभेद कीजिए?Distinguish between Probation and Suspended Sentence?
उत्तर- परिवीक्षा और निलम्बित दण्ड में विभेद-
(1) सभी निलम्बित दण्डों को परिवीक्षा नहीं कहा जा सकता है क्योंकि परिवीक्षा में अपराधी पर पर्यवेक्षण रखा जाता है जो निलम्बित दण्ड की दशा में आवश्यक नहीं है।
(2) परिवीक्षा के अन्तर्गत दण्ड का निलम्बन या निर्णय पूर्णतः न्यायालय के स्वविवेक पर निर्भर करता है जबकि सामान्य दण्ड के निलम्बन में न्यायालय को सांविधिक प्रावधानों की सीमाओं का अनुपालन करना आवश्यक है।
(3) परिवीक्षा में सजा का निलम्बन या तो सजा निर्धारित किये बिना ही किया जा सकता है अथवा यदि सजा निर्धारित की गई हो तो उसे क्रियान्वित करने के पूर्व ही हो सकता है। परन्तु सामान्य दण्ड के निलम्बन में यह स्थिति नहीं है और वह विधि के प्रावधानों के अनुसार ही किया जा सकता है।
प्रश्न 37. पैरोल से आप क्या समझते हैं? What do you understand by Parole.
उत्तर- पैरोल (Parole) — पैरोल एक उपचारात्मक तरीका है जिनके द्वारा कारावासियों को उनकी रिहाई के एक सामान्य सभ्य नागरिक के रूप में समाज में पुनर्वासित किये जाने का प्रयास किया जाता है।
प्रो० सदरलैण्ड के अनुसार, “पैरोल एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत कारावासी द्वारा किसी दाण्डिक संस्था में दण्ड की अधिकतम अवधि का कुछ हिस्सा व्यतीत कर लेने के पश्चात् उसे पूर्ण युक्ति की जाने तक अच्छा आचरण बनाये रखने की शर्त पर राज्य द्वारा मान्य किसी संस्था के पर्यवेक्षण तथा नियन्त्रण में रखा जाता है।”
सर राबर्ट क्रास के अनुसार “दीर्घावधि से दण्डित कारावासों की दाण्डिक या सुधार संस्था से ऐसी रिहाई को पैरोल कहते हैं जो सजा का कुछ हिस्सा जेल में काट लेने के पश्चात् राज्य द्वारा इस शर्त पर प्रदान की जाती है कि वह निरन्तर राज्य के पर्यवेक्षण में रहेगा और यदि वह पैरोल की शर्तों का उल्लंघन करता है, तो उसे पुनः जेल भेज दिया जायेगा।”
इलियट के अनुसार, “पैरोल अपराधी की कारागार या सुधारगृह से उसकी कारावधि पूरी होने के पूर्व की गई मुक्ति का कहते हैं जो पैरोल अधिकारियों की अनुशंसा पर उसे प्रदान की जाती है।”
प्रश्न 38. पैरोल और फलों में विभेद कीजिए। Write the distinction between Parole and Furlough.
उत्तर- पैरोल तथा फल में भेद (Distinction between Parole and Furlough) – यद्यपि कारागार प्रशासन के मानवीयकरण के लिए पैरोल और फलों, दोनों को दाण्डिक व्यवस्था का आवश्यक अंग माना गया है फिर भी दोनों का उद्देश्य भिन्न है। फलों पर अस्थायी रूप से कुछ समय के लिए छोड़े जाने की माँग कारावासी अधिकार के रूप में कर सकता है ताकि उसका सम्पर्क उसके परिवारजनों से बना रहे और उसके पारिवारिक एवं सामाजिक बन्धन टूटने न पाएँ तथा उसे निरन्तर कारावासी जीवन के कुप्रभाव से बचाए रखा जा सके। इसके ठीक विपरीत, कोई भी कारावासी पैरोल पर रिहा किये जाने की माँग अधिकार के रूप में नहीं कर सकता है। पैरोल पर केवल उसी कारावासी को रिहा (मुक्त) किया जा सकता है जिसके लिए उचित कारण बताते हुए पैरोल-बोर्ड ने अनुशंसा की हो ।
उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि फलों कारावासी को दी जाने वाली आकस्मिक अवकाश जैसी सुविधा है जो उसे जेल पुस्तिका (Jail Manual) के नियमानुसार नियत अन्तराल में प्रदान की जाती है ताकि उसका सम्पर्क परिवार तथा समाज से बना रहे, जबकि पैरोल कारावासी को कारागार में अच्छा आचरण रखने के बदले में मिलने वाली सशर्त उन्मुक्ति है, जो शर्त का उल्लंघन न किया जाने की दशा में पूर्ण मुक्ति में परिवर्तित हो जाती। है। आशय यह है कि फल की अवधि समाप्त होते ही कारावासी को कारागार में वापस लौटना होता है जबकि पैरोल में यदि वह निर्धारित शर्तों का उल्लंघन नहीं करता, तो उसे कारावास वापस लौटने की आवश्यकता नहीं होती है।
प्रश्न 39. कारागार को परिभाषित कीजिए। Define jail.
उत्तर – कारागार (Jail) – कारागार की परिभाषा – डॉ० सेठना के अनुसार “कारागार का शाब्दिक अर्थ “पिंजरा” होता है। अतः कैदियों या विचाराधीन अभियुक्तों के निरोध के स्थान को कारागार कहते हैं। जेल, ‘बन्दीगृह’ या ‘कारागृह’ भी कहा जाता है। इनमें अपराधियों को दण्ड एवं सुधार हेतु रखा जाता है।”
सन् 1984 के कारागार अधिनियम के अनुसार, ” कारागार राज्य सरकार द्वारा निर्धारित वह स्थान है जहाँ बंदियों को स्थायी या अस्थायी रूप से रखा जाता है।”
फेयर चाइल्ड कारागार की परिभाषा देते हुए कहा है कि “यह एक ऐसी दाण्डिक संस्था है जिसका संचालन राज्य या संघीय सरकार करती है और जिसका उपयोग ऐसे प्रौढ़ अपराधियों के लिए होता है जिसकी सजा एक वर्ष से अधिक हो।”
परन्तु फेयर चाइल्ड की उपर्युक्त परिभाषा त्रुटिपूर्ण प्रतीत होती है क्योंकि कारागार में किसी भी अवधि की सजा के अपराधी को रखा जाता है चाहे वह कितनी ही कम क्यों न हो। सरल शब्दों में कारागार की परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती है-
“ये राज्य अथवा केन्द्र द्वारा संचालित ऐसी दाण्डिक संस्थायें हैं, जिनमें दण्डित अपराधियों को दण्ड भोगने तथा सुधार हेतु रखा जाता है। इसमें उन विचाराधीन अभियुक्तों को भी रखा जाता है जिन पर मुकदमा चल रहा हो।”
प्रश्न 40. कारागार सुधार। Prison reformation.
उत्तर- कारागार सुधार (Prison reforms) — कारागार व्यवस्था में निरन्तर सुधारों के प्रयत्नों के बावजूद कारावासियों की संख्या में दिनोदिन वृद्धि होती जा रही है जिससे सरकार पर वित्तीय बोझ भी बढ़ रहा है। इससे निराशा उत्पन्न अवश्य होती है लेकिन यह नहीं भुलाया जाना चाहिए कि अपराधों का घटित होना समाज की सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक परिस्थितियों पर निर्भर करता है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि वर्तमान कारागारों तथा कारावासियों की दशा गत सदियों की तुलना में कहीं अधिक सुदृढ़ एवं प्रगतिशील है। फिर इस दिशा में और सुधार किया जाना अपेक्षित है। अतः कारागारों को अधिक प्रभावोत्पादक बनाने की दृष्टि से इसमें सुधार प्रस्तावित है-
(1) महिला अपराधियों को उदारता के साथ रखा जाना चाहिए, उन्हें अपने बच्चों से मिलने तथा परिवार से मिलने की पूरी सुविधा दी जानी चाहिए साथ ही यदि सम्भव हो तो शैक्षणिक, व्यावसायिक कार्यक्रम भी चलाया जाये जिससे कि महिला लाभान्वित हो सके। लैंगिक अपराध में लिप्त महिला अपराधियों के लिए घृणा से पेश आने के बजाय सहानुभूति से पेश आना चाहिए ताकि उनके अधर्मज बच्चों के लिए सामान्य जीवन सुनिश्चित किया जा सके।
(2) कारागारों में विचाराधीन अपराधियों को दण्डित अपराधियों से पूर्णतः अलग रखा जाना चाहिए ताकि वे इन घोर अपराधियों की संगति के कारण बिगड़ने न पायें विचाराधीन कैदी विचारण के पश्चात् छोड़ दिये जाते हैं अतः उन्हें अपराधी मानकर अपराधियों जैसा व्यवहार करना उचित नहीं है। अतः इन विचाराधीन अपराधियों के लिए यथासम्भव अलग कारागारों की व्यवस्था की जानी चाहिए।
(3) कारागार से रिहा करने के पश्चात् अपराधियों को एकदम से समाज में छोड़ देना अपराधी व समाज दोनों के लिए हानिकारक होगा क्योंकि वह स्वयं को अकेले ही समाज में पुनर्वासित करने में असफल रहेगा और समाज उसके प्रति अविश्वास तथा घृणा के कारण उसे दूर रखने तथा उससे दूर रहने का प्रयास करेगा। इस प्रकार कारावासियों को एकदम से न छोड़कर कुछ दिनों के लिए उत्तरवीक्षा (After care) के अधीन रखा जाना चाहिए ताकि वह स्वयं को समाज में पुनर्वासित होने योग्य बना सके। इसी उद्देश्य से अनेक अदाण्डिक संस्थायें चलाई जा रहीं हैं जिनमें देश के विभिन्न नारी निकेतनों, सेवासदन तथा सुधार गृहों की भूमिका सराहनीय रही है।
प्रश्न 41. भारत में खुले कारागार शिविर। Open Air Camps in India.
उत्तर- भारत में खुले कारागार – खुले कारागार शिविरों के पीछे मूल भावना यह है कि कारावासियों को खुले वातावरण में काम पर लगाया जाये ताकि उनके प्रति अविश्वास की भावना मिट सके। इस श्रम कार्य का प्रयोजन कारावासियों से अमानवीय अपमानजनक मेहनत लेना न होकर उनसे उपयोगी तथा सार्थक काम लेना था ताकि वे रिहाई के बाद सम्मानजनक जीवन के लिए तैयार हो सकें।
खुले कारागार शिविर के प्रमुख लक्षण संक्षेप में निम्नलिखित हैं-
(1) न्यूनतम सुरक्षा और अभिरक्षा के उपायों के साथ कारावासियों को छोटे-छोटे समूहों में रखकर अनौपचारिक संस्थागत जीवन के लिए तैयार करना;
(2) कारावासियों को उनके सामाजिक दायित्व के प्रति जाग्रत करमा;
(3) कारावासियों के लिए कृषि तथा अन्य व्यवसायों के उचित प्रशिक्षण की सुविधा उपलब्ध कराना;
(4) कारावासियों को उनके परिवार जनों तथा सगे-सम्बन्धियों से मेल मुलाकात के अधिक अवसर उपलब्ध कराना ताकि वे अपनी पारिवारिक समस्याओं पर विचार-विमर्श कर उन्हें सुलझा सकें और परिवार से उनका सम्पर्क टूटने न पाए;
(5) शिविर में अच्छे आचरण के लिए उदारता से छूट देना जो माह में 15 दिन तक हो सकती है;
(6) कारावासियों के स्वाथ्य तथा मनोरंजन पर उचित ध्यान देना;
(7) शिविरों की प्रबन्ध व्यवस्था का संचालन कुशल, सुयोग्य एवं प्रशिक्षित अधिकारियों द्वारा किया जाना।
प्रश्न 42.आदर्श कारागार। Model Jail.
उत्तर- आदर्श कारागार (Model jail) – वर्तमान समय में कारागारों की भूमिका में आमूल परिवर्तन हुआ है। अब यह केवल अभिरक्षा की संस्थाएँ न होकर विधि उल्लंघनकारियों के उपचार एवं उचित प्रशिक्षण के केन्द्र माने जाते हैं। अतः इस समय कैदियों की अभिरक्षा के बजाय उन्हें प्रशिक्षण देकर समाजोपयोगी बनाने की ओर विशेष ध्यान दिया जा रहा है ताकि समाज में ही रहकर उन्हें पुनर्वासित किया जा सके। इस आदर्श कारागार में श्रम कार्य, शिक्षण-प्रशिक्षण चिकित्सा, मनोरंजन, वाचनालय, साफ-सफाई आदि की व्यवस्था होनी चाहिए और कारागार के अधिकारियों को इस कार्य में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए तभी कारागार अधिक सार्थक सिद्ध हो सकते हैं।
प्रश्न 43. बोस्टल प्रणाली क्या है? What is Borstal Home System?
उत्तर- बोर्टल प्रणाली (Borstal Home System)- भारत में बोर्स्टल की स्थापना बोर्स्टल स्कूल एण्ड रिफार्मेटरी स्कूल्स ऐक्ट, 1897 के अन्तर्गत की गई है। इन बोर्स्टलों में किशोर न्याय बोर्ड द्वारा ठहराये गये विधि विवादित अपचारी किशोरों को उचित शिक्षण और प्रशिक्षण के लिए रखा जाता है। यहाँ से छूटने के बाद किशोरों को शर्तों सहित या रहित न्याय बोर्ड द्वारा नियुक्त किये गये अधिकारी के पर्यवेक्षण में रखा जाता है।
इस समय देश भर में अनेक बोर्स्टल संस्थाएं कार्यरत हैं तथापि इनसे छूटने के बाद अपचारी किशोरों की पश्चात्वर्ती देख-रेख की उचित व्यवस्था के अभाव में इनकी उपयोगिता पर प्रश्न-चिन्ह लगा हुआ है।
प्रश्न 44. भारत में जेल प्रणाली। Prison System in India.
उत्तर-भारत में जेल प्रणाली (Prison System in India)- भारतीय जेल व्यवस्था में वास्तविक सुधार का प्रारम्भ सन् 1836 से माना जाता है। सन् 1938 में मैकाले के सुझाव पर एक कारागार सुधार समिति का गठन किया गया जिनमें निम्नलिखित सुझाव दिये गये-
(1) एक केन्द्रीय बन्दीगृह की स्थापना की जाए।
(2) प्रान्तों के विभिन्न कारागारों पर उचित नियन्त्रण रखने हेतु प्रत्येक प्रान्त में एक कारागार-निरीक्षक की नियुक्ति की जाए।
(3) महिला अपराधियों को पृथक रखने की व्यवस्था की जाए।
वैसे भारत के आधुनिक कारागारों में कारावासियों के भोजन, चिकित्सा, व्यायाम, प्रशिक्षण, शिक्षा, मनोरंजन, परिवारजनों से मुलाकात आदि की सभी सुविधाएँ उपलब्ध हैं। कारागारों में सफाई पर भी उचित ध्यान दिया जाता है। पैरोल नियमों को अधिक उदार बनाया गया है ताकि कारावासी का उसके पारिवारजनों से सम्पर्क बना रहे और वह विवाह, मृत्यु, बीमारी आदि विशेष अवसरों पर उनके साथ रह सके। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि भारत के वर्तमान कारागार अपराधियों के लिए बन्द कोठरियाँ मात्र न रहकर उनके उपचार एवं सुधार के उपयोगी साधन बन गये हैं। कारावासियों के प्रति पूर्व में अपनाये जाने वाले प्रतिरोधात्मक रवैये को तिलांजलि दे दी गई है और उनके प्रति सहिष्णुता एवं उदारता, का व्यवहार किया जाने लगा है।
प्रश्न 45. पुलिस-जनता का सम्बन्ध । Police-Public relations.
उत्तर- पुलिस-जनता सम्बन्ध (Police-Public relations)- शासन के लोकतन्त्रात्मक ढाँचे में पुलिस की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उन्हें अपने कार्यों को कुशलतापूर्वक सम्पादित करने के लिए जनसमर्थन प्राप्त होना अत्यन्त आवश्यक है। पुलिस को अपना कार्य इस प्रकार करना चाहिए जिससे मानवीय संव्यवहारों में स्वतंत्रता, समानता, तथा भ्रातृत्व की वृद्धि में योगदान करना ताकि मानव की गरिमा बनी रहे। लोक जन में आने वाली समय-समय पर गम्भीर और प्राकृतिक विपदाओं में जनता की सहायता करना तथा संकटकाल में उन्हें राहत पहुँचाना भी प्रमुख कर्तव्य है। उसी प्रकार जनता को भी पुलिस के कार्यों में सहायता पहुँचानी चाहिए क्योंकि दोनों एक दूसरे की सहायता के बिना अपने कर्तव्यों का निर्वहन ठीक प्रकार से नहीं कर सकते हैं। पुलिस कार्यों में जनता का अधिक सहयोग प्राप्त करने के लिए दिल्ली में नागरिक स्वयंसेवक दल का गठन भी किया गया है।
प्रश्न 46. जेल संहिता। Prison Code.
उत्तर-जेल संहिता (Prison Code) – कारागार व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य अपराधी का सुधार, अपराध और अपराधियों से समाज का संरक्षण तथा अपराधों की संख्या में कमी लाना है। कारागार में कैदियों से जेलकर्मियों द्वारा अमानवीय व्यवहार किया जाता है तथा स्वच्छ पानी एवं पौष्टिक भोजन नहीं दिया जाता है। इन्हीं सब चीजों को ध्यान में रखकर जेल संहिता बनायी जाती है ताकि कैदियों के साथ मानवीय व्यवहार हो, जब वे सजा पूरी करने के बाद बाहर निकलें तो समाज के साथ सामंजस्य बना सकें। जेल संहिता में जेल कर्मियों तथा कैदियों दोनों के लिए आवश्यक निर्देश विहित रहते हैं जिसे जेलकर्मी तथा कैदी दोनों उसका अनुसरण करें। अच्च अधिकारी समय-समय पर जेल का निरीक्षण करें तथा राज्य सरकार को अवगत करायें।
प्रश्न 47. प्राचीर विहीन कारागार। Wall-less Prison.
उत्तर- प्राचीर विहीन कारागार (Wall-less Prison)- प्राचीर विहीन कारागार ऐसी निगरानी रहित संस्थायें हैं जिनमें दीवार, ताले, लोहे के शिकंजे तथा सुरक्षा गार्डों का प्रयोग कम किया जाता है तथा कारावासियों को स्वच्छन्द जीवन बिताने का अवसर दिया जाता है ताकि वे अपने समुदाय में स्वयं का उत्तरदायित्व समझ सकें तथा स्वानुशासन की ओर ध्यान दे सकें तथा रिहाई के पश्चात् समाज में पुनर्वासित हो सकें। इस प्रकार प्राचीर विहीन कारागार में कारावासियों पर न्यूनतम निगरानी रखी जाती है, इसमें बंदियों में आत्मसम्मान और आत्म-अनुशासन की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है, जो उन्हें सामान्य जीवन की ओर लौटाने में सहायक होती है। यह पद्धति परस्पर विश्वास एवं सहयोग पर आधारित होने के कारण इसमें बाहरी नियन्त्रण की आवश्यकता रहती है।
प्रश्न 48.जेल सहायता। Prison Aid.
उत्तर- जेल सहायता (Prison Aid)- कारागारों का मुख्य उद्देश्य अपराधी को एक ईमानदार और विधि का अनुसरण करने वाले व्यक्ति में परिणत कर उसमें अपराध के प्रति अरुचि उत्पन्न करना है ताकि वह पुनः समाज में सामान्य नागरिक का जीवन व्यतीत कर सके। कारावासियों से शारीरिक काम लिया जाना उचित है। इससे वे शारीरिक तथा मानसिक रूप से स्वस्थ रहते हैं तथा श्रमकार्य में व्यस्त रहने के कारण उनमें निरर्थक (फालतू) विचार नहीं पनपते हैं। कारावासियों से श्रम कार्य लिये जाने का लाभ यह है कि उनके द्वारा अर्जित पारिश्रमिक को उनके परिवारजनों की आजीविका हेतु उपयोग में लाया जा सकता है। कारागार से छूटने के बाद कारावासी तुरन्त समाज में अपने को पुनर्वासित करने में असमर्थ पाता है क्योंकि लोग उससे घृणा करते हैं। इसीलिए कारागार से रिहा हुए कैदियों के उत्तर-वीक्षा के लिए अनेक राज्यों में सहायता केन्द्रों की स्थापना की गई है।
प्रश्न 49. ब्रेन मैपिग। Brain Mapping.
उत्तर- ब्रेन मैंपिग में अपराधियों का कम्प्यूटर की सहायता से दिमाग का नक्शा तैयार किया जाता है। इससे उसकी अपराध के प्रति मानसिक विकृति का अध्ययन किया जाता है। इसके अन्तर्गत अपराधियों को उसके द्वारा कारित अपराध से सम्बन्धित चित्र एवं आवाज दोनों सुनाये जाते हैं। यदि वह व्यक्ति वास्तव में अपराध से जुड़ा होता है तो उसके मस्तिष्क में कुछ विशेष तरह की प्रक्रिया होती है, जिसे ईईजी सेन्सर के है। माध्यम से प्रिन्ट कर लिया जाता है l
प्रश्न 50. अपराधशास्त्र में निठारी काण्ड का महत्व। Importance of Nithari Case in Criminology.
उत्तर- निठारी किडनी काण्ड ने सुसंगठित अपराधियों पर और अधिक लगाम कसने की आवश्यकता दर्शाई है। परिणामस्वरूप बच्चों के प्रति अधिक जागरूकता की भावना उत्पन्न हुई। माता-पिता या अभिभावक बच्चों को अकेला छोड़कर अधिक समय तक न रहें तथा हमेशा बच्चों पर ध्यान देते रहें। आपराधिक रैकटों पर सरकार कड़ी निगरानी रखे तथा इनको कठोर से कठोरतम दण्ड प्रदान करे। सफेदपोश अपराधियों पर निगरानी रखने के लिए सरकार को सचेत किया है। अस्पतालों पर कड़ी निगरानी रखने की जरूरत हो गयी ताकि डॉक्टर इलाज के बहाने मरीजों की किडनी, आँख, दिल तथा शरीर का अन्य अंग निकाल कर बेचने न पावें। दोषी पाये जाने पर इन्हे मृत्युदण्ड या उम्रकैद से कम की सजा न दी जाय।
प्रश्न 51. खुले जेल की परिभाषा दीजिए। Define Open Jail.
उत्तर-खुले जेल की परिभाषा – खुले जेल की परिभाषा के बारे मे अपराधियों में मतभेद है। कुछ विद्वान इन्हें कारावासियों के खुले शिविर कहना अधिक उचित समझते हैं जबकि अन्य विद्वान इन्हें पैरोल कैम्प कहते हैं। सन् 1955 में जेनेवा में अपराध निवारण तथा अपराधियों के उपचार पर अधिवेशन (Congress on Prevention of Crime and Treatment of Offenders, 1955) में खुले जेल को परिभाषित किया गया था। यह परिभाषा इस प्रकार है-
“कारावासियों के लिए खुले जेल का प्रमुख लक्षण उन पर भौतिक और शारीरिक बन्धनों की न्यूनता है जो उनके जेल से भाग जाने के विरुद्ध अपनायी जाती है। अतः ये ऐसी निगरानी रहित संस्थायें हैं जिनमें दीवार, ताले, लोहे के शिकंजे तथा सुरक्षा गार्डों का कम से कम प्रयोग किया जाता है तथा कारावासियों को स्वच्छन्द जीवन बिताने का अवसर प्रदान किया जाता है। ताकि वे अपना समुदाय में स्वयं उत्तरदायित्व समझ सकें तथा स्वअनुशासन की ओर ध्यान दें। इस प्रकार खुले शिविर ऐसे प्राचीर विहीन कारागार हैं जिन पर कारावसियों पर न्यूनतम निगरानी रखी जाती है और जो अपनी रिहाई के पश्चात् स्वयं को समाज में पुनर्वासित कर सकें।
प्रश्न 52. दण्ड नीति में परिवीक्षा का क्या स्थान है?
What is the Place of Probation in the Penal Policy?
उत्तर-दण्ड नीति में परिवीक्षा का महत्व – दण्ड नीति में परिवीक्षा का महत्वपूर्ण स्थान है। इसके द्वारा दण्ड के प्रतिरोधक तथा उपचारात्मक सिद्धान्तों में समन्वय स्थापित किया गया है जिससे परिवीक्षाधीन अपराधियों को सुधारने में पर्याप्त सहायता मिलती है। परिवीक्षा-काल में परिवीक्षा अधिकारी उनका उचित मार्ग दर्शन करते हैं। अतः परिवीक्षा व्यवस्था अपराधी तथा समाज, दोनों के लिए ही समान रूप से उपयोगी सिद्ध हुई है। इसके अतिरिक्त इस पद्धति के अन्तर्गत परिवीक्षा अधिकारियों को भी अपराधियों को मानसिकता को समझने का समुचित अवसर मिलता है। अपराधों के प्रति दण्डात्मक प्रतिक्रिया के रूप में परिवीक्षा पद्धति के लाभों में पहला लाभ यह है कि परिवीक्षाधीन अपराधी को समाज में विधि का अनुपालन करने वाले नागरिक के रूप में पुर्नस्थापित होने में पर्याप्त सहायता करती है।
समाज की प्रगति एवं विकास के लिए यह आवश्यक है कि उसके सभी सदस्य एक दूसरे के साथ सहयोग करें तथा परस्पर विश्वास की भावना रखें। सामाजिक अस्तित्व के लिए लोगों का परस्पर समायोजन नितान्त आवश्यक है। इस दृष्टि से सामाजिक सुरक्षा बनाए रखने में परिवीक्षा पद्धति अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुई है। परिवक्षा पद्धति द्वारा समाज के अवांछित्त तत्वों पर नियंत्रण रखने में सहायता मिलती है, जो सामाजिक शान्ति एवं सुरक्षा के लिए वितान्त आवश्यक है।
प्रश्न 53. मृत्युदण्ड के कार्यान्वयन में विलम्ब का क्या प्रभाव होता है? What are the effects of delay in the execution of sentence of death?
उत्तर- मृत्यु दण्ड के कार्यान्वयन में विलम्ब का प्रभाव न्याय व्यवस्था के साथ-साथ समाज पर भी प्रत्यक्ष रूप से पड़ता है। ऐसे खतरनाक और घोर अपराधियों को जिसे कि मृत्युदण्ड दिया गया हो। उनके कार्यान्वयन में विलम्ब से न्याय व्यवस्था पर सवाल खड़ा होता है तो लोगों में अपराधों के प्रति भय व्याप्त रहता है और अपराधी ऐसी न्याय प्रणाली का नाजायज फायदा उठाते हैं जिससे अपराध की प्रवृत्ति घटने की बजाय बढ़ती है।
परन्तु विलम्ब के अन्य कारण भी हो सकते हैं। यह सुनिश्चित करने के लिए कि मृत्युदण्ड के कारण अभियुक्त के प्रति घोर अन्याय न हो पाए तथा उसे व्यर्थ ही अपनी जान न गंवाना पड़े, विधि के अन्तर्गत पर्याप्त सुरक्षा उपाय उपलब्ध है जैसे कि मृत्युदण्ड केवल विरलतम मामले (हत्या तथा देशद्रोह) के लिए देना उचित्त होगा। किन्तु विरलतम मामले सिद्ध होने एवं न्यायिक प्रक्रिया पूरी होने के उपरान्त भी कार्यान्वयन में विलम्ब निश्चित ही अपराधियों का हौसला अपराध के प्रति कम होने के बजाय बढ़ता ही है। अतः इन मामलों में त्वरित कार्यवाही ही अपराधों एवं अपराधियों को रोकने में कारागार सिद्ध होगी।
प्रश्न 54. लोक हित वाद क्या है? What is a Public Interest Litigation?
उत्तर- लोकहित वाद (P.L.L.) – लोकहित वाद पूर्व में अप्रतिनिधित्व प्राप्त समूहों या हितों को विधिक प्रतिनिधित्व दिये जाने के कारण आधुनिक प्रयासों को दिया गया नाम है। ऐसा प्रयास इस बात को मान्यता प्रदान करता है कि विधि सेवा का सामान्य स्थान (न्यायालय) जनसंख्या के अधिकांश भाग को तथा अधिकांश हितों को सेवा प्रदान करने में असफल रहा है। ऐसे समूहों या हितों में निर्धन (गरीब) पर्यावरणीय उपभोक्ता तथा जाति विभेद से प्रभावित लोग सम्मिलित हैं। काउन्सिल फार पब्लिक इन्टरेस्ट लॉ (फोर्ड फाउन्डेशन अमेरिका)
लोकहित वाद का अर्थ है, विधि के न्यायालय में लोकहित या सामान्य हित को प्रवर्तित कराने के लिए प्रारम्भ किया गया वाद जिसमें जनता या समुदाय के एक वर्ग का आर्थिक हित निहित होता है या ऐसा हित निहित होता है जिससे उनके लोगों के विधिक अधिकार या दायित्व प्रभावित होते हैं। न्यायमूर्ति पाण्डियन एस० आर० (जनता दल) बनाम एच० एस० चौधरी, ए० आई० आर० 1993 एस० सी० 892 पृष्ठ 906 पर।
इस प्रकार लोकहित वाद उन व्यक्तियों की ओर से लाया गया वाद है जो अपने हितों की रक्षा के लिए वाद लाने के लिए समर्थ नहीं होते तथा न्याय की उन्हें सबसे अधिक आवश्यकता होती है। पिछले तीन दशकों के दौरान न्यायिक सक्रियता ने न्यायिक प्रक्रिया के नये आयाम खोले हैं। इसने शासन को नयी आशा प्रदान की है।
प्रश्न 55. न्यायिक सक्रियता से आप क्या समझते हैं? What do you mean by Judicial Activism?
उत्तर- न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism)- न्यायपालिका की वर्तमान ‘न्यायिक सक्रियता के लिए अनेक कारण उत्तरदायी हैं जिसमें प्रथमतः एवं प्रमुखतः कार्यपालिका की कर्तव्यविमुखता तथा पथभ्रमितता है। यदि कार्यपालिका अपनी संविधान निहित परिधि से कर्तव्योन्मुख होती है, तो न्यायपालिका को हस्तक्षेप करने की आवश्यकता ही नहीं किन्तु इसी अकर्मण्यता की स्थिति ने न्यायपालिका को जागरूक एवं जुझारू बना दिया। सन् 1994 में मुजफ्फरनगर में हुए प्रदर्शनकारियों पर अत्याचार की जाँच के आदेश यदि राज्य या केन्द्र सरकार दे देती तो न्यायपालिका को जाँच के आदेश न देने पड़ते। इसी प्रकार सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन, ए० आई० आर० 1980 एस० सी० 157 के बाद में जेल वार्डन द्वारा जेल कैदियों के साथ हो रहे अमानवीय व्यवहारों को रोकने के निर्देश दिये।
‘न्यायिक सक्रियता’ के लिए दूसरा कारण लोकहितवाद है जिसके माध्यम से समाज के कमजोर वर्ग, निर्धन व्यक्तियों तथा असहाय व्यक्तियों की आवाज पर पुकार को न्यायालय को सुनने का अवसर मिला। न्यायालय ने सामाजिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि देश के चौतरफा विकास के हित को ध्यान में रखकर अनेक क्रान्तिकारी निर्णय दिये जिसमें प्रमुखतया एस० सी० मेहता बनाम भारत संघ, (1987) 4 एस० सी० सी० 4631 के माध्यम से स्वच्छ पर्यावरण एवं स्वच्छ वातावरण के अधिकार बनाम बिहार राज्य, ए० आई० आर० 1979 एस० सी० 1360 के माध्यम से ‘शीघ्रतर परीक्षण’ के अधिकार तथा दिल्ली डोमेस्टिक वर्किंग फोरम बनाम भारत संघ, (1995) 1 एस० सी० सी० 14 के माध्यम से महिलाओं के साथ बढ़ते यौन अपराध के प्रति चिन्ता व्यक्त करते हुए उनके पुनर्वास हेतु विस्तृत मार्गदर्शक सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया तथा पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1977 एस० सी० 568 के मामले में ‘टेलीफोन टेपिंग’ को अनुच्छेद का उल्लंघन मानते हुए कुछ सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया है। न्यायिक सक्रियता के लिए हमारे वर्तमान न्यायाधीशों की प्रखरता, निर्भीकता तथा कर्त्तव्यपरायणता भी बहुत हद तक प्रेरक है, जिन्होंने बिना किसी दबाव के अपने कर्तव्य का निर्वहन किया।
प्रश्न 56. कारागार शिक्षा पर एक व्याख्यात्मक टिप्पणी लिखिए। Write an explanatory note on prison education.
उत्तर- कारागार शिक्षा (Prision Education) – कारागार व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य अपराधी का सुधार, अपराध और अपराधियों से समाज का संरक्षण तथा अपराधों की संख्या में कमी लाना है। बन्दियों के लिए समुचित शिक्षा का प्रबन्ध होना चाहिए।
कारागारों की शैक्षणिक व्यवस्था सामान्य पढ़ाई-लिखाई से हटकर औद्योगिक तथा व्यावसायिक प्रशिक्षण पर आधारित होनी चाहिए ताकि कारावासी रिहाई के बाद उसका लाभ उठा सके। यदि कारावासी कारागार के बाहर किसी शैक्षणिक संस्था में शिक्षा या प्रशिक्षण लेना चाहे, तो आवश्यक छानबीन के बाद उसे इसकी अनुमति देना उचित होगा। इस सम्बन्ध में कारागार नियमों में समुचित परिवर्तन किये जाने चाहिए। कारावासियों को पत्राचार पाठ्यक्रम (Corespondence Course) द्वारा शिक्षा ग्रहण करने की सुविधा उपलब्ध कराई जानी चाहिए। आगे पढ़ाई जारी रखने के इच्छुक बंदियों के लिए शैक्षणिक साधन जैसे वाचनालय, पुस्तकालय, शिक्षक, परीक्षा में सम्मिलित होने की सुविधा आदि उपलब्ध कराई जानी चाहिए ताकि रिहाई के पश्चात् वे समाज में आसानी से पुनःस्थापित हो सकें। इस दिशा में IGNOU जैसे मुक्त विश्वविद्यालय/संस्थाओं की सहायता ली जा सकती है।
कतिपय अर्द्ध-संस्थागत सुविधाएँ (Semi-institutional facilities) जैसे दिन में श्रमकार्य के लिए भेजा जाना या पढ़ाई के लिए भेजा जाना या सामुदायिक सेवा में लगाया जाना भी बन्दियों के पुनर्वास की दृष्टिकोण से लाभप्रद हो सकता है।
प्रश्न 57. जेल के क्या उद्देश्य हैं? What are the objectives of Prison?
उत्तर-जेल (Jail) जेल का मुख्य उद्देश्य अपराधियों को दण्ड एवं उनमें सुधार लाने हेतु रखा जाना है। जेल या कारागार एक ऐसा न्यायिक दण्ड है जिसके अन्तर्गत अपराधी को कारागार में रखा जाता है। अपराधी को अपराध करने से परावृत रखने में कारागार की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है। अपराधियों को समाज से दूर रखकर सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करने का यह सर्वोत्तम सरल उपाय है।
“कारागार राज्य अथवा केन्द्र द्वारा संचालित ऐसी दाण्डिक संस्थायें हैं, जिनमें दण्डित अपराधियों को दण्ड भोगने तथा सुधार हेतु रखा जाता है। इसमें उन विचाराधीन अभियुक्तों को भी रखा जाता है जिन पर मुकदमा चल रहा हो।”
प्रश्न 58. पुलिस हिरासत में दी जाने वाली यातनाओं की संवैधानिकता पर टिप्पणी कीजिए। Comment on Constitutionality of custodial torture.
उत्तर- पुलिस द्वारा हिरासत में प्रयुक्त किये जाने वाले यातनात्मक (थर्ड डिग्री) तरीकों में गिरफ्तार किये गये व्यक्ति को राइफल के बट से मारना, बिजली का करंट लगाना, जलती सिगरेट की नोंक से प्रताणित करना, भूखा रखना, निर्वस्त्र करके पीटना आदि बहुचर्चित हैं। इसमें यदाकदा महिलाओं के प्रति लैंगिक अपराध या बलात्संग की वारदातें भी सुनने को मिलती हैं। पुलिस के इस प्रकार के अवांछनीय अचारण के विरुद्ध न्यायालयों ने समय-समय पर अपनी प्रक्रिया व्यक्त की है तथा विधि आयोग भी इस सम्बन्ध में अपनी अनुशंसाएँ प्रस्तुत कर चुका है।
प्रायः पुलिस प्राधिकारियों द्वारा अभिरक्षा में यातना को एक आवश्यक बुराई निरूपित किया जाता है तथा वे निम्नलिखित आधार पर इस हिंसात्मक कार्यवाही को उचित मानते हैं।
(1) घोर तथा खतरनाक अपराधी केवल लातों की भाषा ही समझ सकते हैं। जब तक उनके साथ कठोरता न बरती जाए, वे अपराध के बारे में कुछ बताने के लिए तैयार नहीं होते।
(2) जब अपराधियों को अपकारित व्यक्ति के अधिकारों के प्रति आदर और आस्था नहीं होती, तो पुलिस ऐसे अपराधियों के अधिकारों का आदर क्यों करे।
(3) यदि पुलिस अपराधियों के साथ नरमी और शिष्टता का व्यवहार करे, तो कोई भी अपराधी पकड़ा नहीं जा सकेगा। अतः व्यावहारिक दृष्टि से पुलिस द्वारा सख्ती किया जाना आवश्यक है।
(4) कभी-कभी जनता स्वयं अपराधी को सबक सिखाने की दृष्टि से पुलिस द्वारा उसके प्रति क्रूरता बरती जाने का समर्थन करती है।
(5) अपराधों का पता लगाने तथा अपराधियों को पकड़वाने में पुलिस को जनता का वांछित सहयोग न मिलने के कारण उसे अपराधियों से अपराध की जानकारी उगलवाने के लिए स्व-सहाय्य का मार्ग अपनाना आवश्यक हो जाता है।
पुलिस द्वारा अभिरक्षाधीन व्यक्तियों के प्रति यातनात्मक तरीके अपनाए जाने के औचित्य में कितनी भी दलीलें क्यों न दी जाएँ, फिर भी इसमें सन्देह नहीं है कि यह तरीका वर्तमान प्रगतिवादी दण्डनीति के विरुद्ध है तथा कोई भी सभ्य समाज इसका समर्थन नहीं करेगा। भारत के उच्चतम न्यायालय ने भी अपने निर्णयों द्वारा पुलिस द्वारा हिरासत में रखे गये व्यक्तियों के प्रति यातनात्मक कार्यवाही को अवांछनीय ठहराते हुए इसकी भर्त्सना की है।
भारत के संविधन के आमुख (Preamble) में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता के मानवीय मूल्यों का उल्लेख होने पर भी पुलिस की कार्यप्रणाली एवं पद्धति अधिकतर अपरिवर्तित ही रही है और वह अपने नीतिगत आदर्शों में बदलाव लाने में विफल रही है। वर्तमान परिवेश में यह नितान्त आवश्यक है कि पुलिस नागरिकों को सामाजिक एवं विधिक न्याय सुनिश्चित करने की दिशा में सक्रिय भूमिका निभाए ताकि मानवाधिकार एवं मानव-मूल्यों का उचित संरक्षण हो सके। अब समय आ गया है, जब पुलिस स्वयं को सामाजिक परिवर्तन के सशक्त साधन के रूप में स्थापित करे और न्याय के रक्षक के रूप में अपनी छवि को उभार सके।
प्रश्न 59. पुलिस रिपोर्ट की व्याख्या कीजिए। Explain Police Report.
उत्तर- पुलिस रिपोर्ट (Police Report) दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (द) या (r) के अनुसार पुलिस रिपोर्ट से तात्पर्य ऐसी रिपोर्ट से है जो किसी पुलिस अधिकारी द्वारा संहिता की धारा 173 (2) (i) के अन्तर्गत मजिस्ट्रेट को भेजी जाती है।
पुलिस रिपोर्ट अन्वेषण के पश्चात् प्रस्तुत की जाती है एवं धारा 173 (2) (i) के अन्तर्गत उसमें निम्नलिखित बातों का उल्लेख किया जाता है-
(i) पक्षकारों का नाम;
(ii) सूचना की प्रकृति;
(iii) उन व्यक्तियों के नाम जो मामले की परिस्थितियों से परिचित होते हैं;
(iv) उस अपराध का उल्लेख जिसका किया जाना प्रतीत होता है;
(v) अभियुक्त की गिरफ्तारी का उल्लेख;
(vi) उन प्रतिभुओं सहित या रहित बन्धपत्रों का उल्लेख जिनके अन्तर्गत अभियुक्तों को छोड़ दिया गया है।
(vii) यदि धारा 173 के अधीन अभिरक्षा में भेजा जा चुका है तो उसका उल्लेख।
इस संहिता के अधीन किसी संज्ञेय अपराध का अन्वेषण करने वाले पुलिस अधिकारी द्वारा भेजी गयी रिपोर्ट ‘पुलिस रिपोर्ट’ होती है और ऐसी रिपोर्ट पर मजिस्ट्रेट अपराध का संज्ञान कर सकता है। स्टेट ऑफ बिहार बनाम चन्द्रभूषण सिंह, ए० आई० आर० (2001) एस० सी० 429 के मामले में रेलवे सम्पत्ति (विधिपूर्ण कब्जा) अधिनियम, 1966 की धारा 8 के अधीन रेलवे सुरक्षा बल के अधिकारी द्वारा प्रस्तुत जाँच रिपोर्ट को उच्च न्यायालय द्वारा धारा 173 के अन्तर्गत आरोपपत्र नहीं माना गया है। यह मात्र एक परिवाद है।
प्रश्न 60. प्रतिकर प्रदान करने की न्यायालय की शक्ति की विवेचना कीजिए। Explain the power of the court for compensation.
उत्तर – प्रतिकर प्रदान करने की न्यायालय की शक्ति- अपराध से पीड़ित पक्षकार को प्रतिकर दिलाकर उसकी क्षतिपूर्ति कराने में न्यायपालिका की भूमिका भी महत्वपूर्ण रही है। विगत तीन दशकों से उच्चतर न्यायालयों ने अपराध पीड़ित को प्रतिकारात्मक न्याय दिलाने की ओर विशेष ध्यान दिया है ताकि जन सामान्य का न्यायालय तथा न्यायपालिका के प्रति विश्वास बना रहे। इसमें लोकहित याचिकाओं पर दिये गये न्याय निर्णयों का विशेष योगदान रहा है। उच्चतम न्यायालय द्वारा ऐसे अनेक महत्वपूर्ण दिशा मूलक निर्णय दिये गए हैं जिन्होंने पीड़ितों के प्रतिकारात्मक अनुतोष (Compensatory relief) को आपराधिक न्याय प्रणाली का एक अभिन्न अंग का दर्जा दिलाया है। इनसे यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि न्यायपालिका अपराध-पीड़ितों के अधिकारों की संरक्षकता के प्रति कृत संकल्पित है।
अपराध पीड़ितों को प्रतिकर दिलाये जाने के सम्बन्ध में सर्वप्रथम न्यायिक निर्णय सम्भवतः बिहार बन्दी अंधीकरण का प्रकरण (Bihar Blinding Case) है जिसमें पुलिस ने अभिरक्षाधीन बन्दियों से संस्वीकृति उगलवाने के लिए (in order to extract confession) उनकी आँखों में सुइयाँ चुभोकर तथा एसिड डालकर उन्हें अन्धा कर दिया। इसके विरुद्ध एक समाज सेवी अधिवक्ता श्रीमती हिंगोरानी ने जनहित याचिका के माध्यम से पुलिस को इस निर्दयता की ओर उच्चतम न्यायालय का ध्यान आकृष्ट किया तथा पीड़ित बन्दियों को उचित प्रतिकर दिये जाने की माँग की क्योंकि राज्य पुलिस द्वारा उक्त बन्दियों के प्राण एवं दैहिक स्वतन्त्रता के मूल अधिकार का हनन किया था जो इन पीड़ितों को संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन प्राप्त था। उच्चतम न्यायालय ने इस प्रकरण को खत्री बनाम बिहार राज्य, ए० आई० आर० (1981) सु० को० 1068 के वाद के रूप में विनिश्चित करते हुए राज्य को आदेशित किया कि पीड़ितों को तत्काल रिहा किया जाए तथा प्रत्येक के नेत्र परीक्षण तथा चिकित्सीय उपचार की समुचित व्यवस्था राज्य स्वयं अपने खर्चे पर करें और उन्हें क्षतिपूर्ति के रूप में प्रतिकर का भुगतान करें। न्यायालय ने अपने निर्णय में यह भी आदेशित किया कि इस अमानवीय अपराध के लिए दोषी पुलिस कर्मियों के विरुद्ध राज्य सरकार कठोर कार्यवाही कर उन्हें दण्डित करें ताकि ऐसे अपराधों की पुनरावृत्ति न हो।
प्रश्न 61. प्रतिकर और पुनर्वासन अनुदान में अन्तर स्पष्ट कीजिए। Bring out clearly the distinction between compensation and the rehabitation grant.
उत्तर- प्रतिकर और पुनर्वासन अनुदान – प्रतिकर एक प्रकार का दण्ड होता है जो अर्थदण्ड के रूप में होता है।
अपराध से पीड़ित पक्षकार को प्रतिकर दिलाकर उसकी क्षतिपूर्ति कराने में न्यायपालिका की भूमिका भी महत्वपूर्ण रही है। विगत तीन दशकों से उच्चतर न्यायालयों ने अपराध पीड़ित को प्रतिकारात्मक न्याय दिलाने की ओर विशेष ध्यान दिया है ताकि जन सामान्य का न्यायालय तथा न्यायपालिका के प्रति विश्वास बना रहे। इसमें लोकहित याचिकाओं पर दिये गये न्याय-निर्णयों का विशेष योगदान रहा है। उच्चतम न्यायालय द्वारा ऐसे अनेक महत्वपूर्ण दिशा मूलक निर्णय दिये गये हैं जिन्होंने पीड़ितों के प्रतिकारात्मक अनुतोष (Compensatory relief) को आपराधिक न्याय प्रणाली का एक अभिन्न अंग का दर्जा दिया है।
जब कभी न्यायालय द्वारा प्रतिकर (Compensation) के लिए अनुशंसा की जाती है तब जिला विधिक सेवा प्राधिकरण या राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण, यथास्थिति उपधारा (1) में निर्दिष्ट योजना के अधीन दिये जाने वाले प्रतिकर की मात्रा का विनिश्चय करेगा।
अपकारित व्यक्ति को अपराधी से क्षतिपूर्ति दिलाई जाना भी अर्थदण्ड का ही एक प्रकार है जिसके सम्बन्ध में भारत की दण्ड प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत विधिक प्रावधान हैं। अर्थदण्ड में अपराधी की आय के स्रोत में से कटौती कर ली जाना इस दण्ड को कार्यान्वित करने का एक उचित एवं योग्य उपाय माना गया है।
जबकि पुनर्वासन अनुदान एक ऐसा अनुदान है जिसमें पीड़ित पक्षकार की सहायता करने तथा इन्हें सहारा देने पर विशेष बल दिया जाता है, भले ही अपराधी पकड़ा गया हो या लापता हो। अपराध पीड़ित के पुनःस्थापन का पहलू यह होना चाहिए कि अपराधी जिसके कारण पीड़ित को क्षति या हानि भुगतनी पड़ी है, को यह अहसास कराया जाना चाहिए कि जो अपराध कृत्य उसने किया है, वह निन्दनीय और मानवता के विपरीत था उसे स्वयं आगे आकर पीड़ित की क्षतिपूर्ति करनी चाहिए और अपने कृत्य के लिए क्षोभ या ग्लानि प्रकट करना चाहिए। आशय यह है कि पुनःस्थापन की प्रक्रिया में अपराध पीड़ित और अपराधी दोनों को एक-साथ मिलकर परस्पर सहयोग करने के लिए उत्प्रेरित किया जाना चाहिए ताकि उनके आपस के वैरभाव तथा प्रतिशोध की भावना समाप्त हो और वे बीती बातों को भुलाकर सकारात्मक जीवन की ओर अग्रसर हों। समाज तथा न्यायालय, दोनों ही प्रायः अपराधी से यह अपेक्षा करते हैं कि वह उसके अपराध से पीड़ित व्यक्ति को कारित क्षति या नुकसानी के लिए प्रतिकर (Compensation) की राशि का भुगतान करे।
प्रश्न 62. साइबर अपराधी। Cyber Offenders.
उत्तर- साइबर अपराधी (Cyber offenders) – 21वीं सदी को सूचना एवं प्रौद्योगिकी की क्रान्ति के रूप में जाना जाता है। इह युग में संचार क्रान्ति अपने चरम पर थी। हर जगह कम्प्यूटर, इंटरनेट का जाल बिछ गया। इस सब सुविधाओं के बढ़ने के साथ ही साथ एक नवीन प्रकार के अपराध का भी उद्भव हुआ जिसे ‘साइबर क्राइम’ के नाम से जाना जाता है। यह अपराध तेजी से बढ़ रहा है और आपराधिक न्याय प्रशासन से जुड़े अभिकरणों के लिए गम्भीर चुनौती बने हुए हैं। ये अपराधी अधिकतर साइबर कैफें में इन अपराधों को करते हैं क्योंकि कैफे में सर्किंग, चेटिंग और ई-मेल करने वालों का तांता लगा रहने के कारण इनके पकड़े जाने की सम्भावना कम रहती है। साईबर अपराधियों का प्रथम शिकार प्रांयः ई- कामर्स से जुड़े व्यापारी होते हैं, जिन्हें प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये की हानि कारित करते हैं।
साइबर अपराधी अधिकतम तीन प्रकार की आपराधिक गतिविधियों में लिप्त पाये जाते हैं –
(1) मानवीय संवेदनाओं के विरुद्ध अपराध, जिनमें स्टाकिंग तथा साइबर संत्रास प्रमुख हैं।
(2) सम्पत्ति के विरुद्ध अपराध जैसे- धोखाधड़ी, जालसाजी, पायरेसी, आई०डी० चोरी आदि का समावेश है।
(3) ऐसे आपराधिक वारदातों में सरकारी तन्त्र के विरुद्ध अपराध जैसे- अन्तरिक्ष अनुसंधान कार्यक्रमों, सेना या रक्षा संगठनों, परमाणु ऊर्जा संस्थानों आदि के आँकड़े की चोरी, राष्ट्रीय वेब साइट का हैकिंग करके उन पर राष्ट्र विरोधी बयान जारी करना आदि प्रमुख हैं।
प्रश्न 63. किशोर अपराधी। Juvenile offenders.
उत्तर-किशोर अपराधी (Juvenile offenders) – किशोर अथवा अवयस्क शारीरिक एवं मानसिक रूप से अपरिपक्व होते हैं अतः वे वयस्कों की भाँति सोच-समझ नहीं सकते हैं इसलिए किशोर अपराधियों के विषय में सामान्य धारणा यह है कि वयस्क व्यक्तियों की तुलना में किशोरावस्था के बालक-बालिकाओं में आपराधिकता अधिक पाई जाती है।
वर्तमान समय के बदलते सामाजिक परिवेश में किशोर आपराधिकता दिनों-दिन गम्भीर रूप धारण करती जा रही है। किशोर अपराधियों का स्वरूप प्रायः अलग होता है। वे सामान्यतः मारपीट, गाली-गलौज, तोड़फोड़, आवारागर्दी, नशाखोरी, लैगिक अपराध, चोरी, घर से भाग जाने आदि के अपराध करते देखे जाते हैं। अधिकांश बाल-अपराधी बुरी संगत के कारण आपराधिकता में पड़ जाते हैं और एक बार गलत मार्ग पर भटक जाने पर वे स्वयं को सम्भाल पाने में असमर्थ रहते हैं और आपराधिकता की खाई में गिरते जाते हैं जिसके कारण उनके जीवन में निराशा उत्पन्न होती है और उनका भविष्य अंधकारमय हो जाता है।
वर्तमान दण्ड व्यवस्था में किशोर अपराधियों को सामान्य अपराधियों के साथ कारागार में नहीं रखा जाता बल्कि उनके विचार तथा उपचार (Trial and treatment) के लिए विशेष व्यवस्था है जो बाल-न्याय अधिनियम, 1986 में उपबन्धित हैं।
प्रश्न 64. घरेलू हिंसा। Domestic Violence.
उत्तर- घरेलू हिंसा (Domestic Violence) – घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 की धारा 3 के अन्तर्गत प्रत्यर्थी का कोई कृत्य या लोप ऐसा आचरण घरेलू हिंसा गठित करेगा अगर यह-
(i) व्यधित व्यक्ति के, चाहे मानसिक अधवा शारीरिक अथवा भलाई की अपहानि करता है या क्षति पहुँचाता है अथवा प्रयास करता है।
(ii) व्यथित व्यक्ति को, इस दृष्टि से प्रताड़ित करता है, अपहानि करता है, क्षति पहुँचाता है अथवा संकटापन्न करता है कि उसको अथवा उससे सम्बन्धित किसी अन्य व्यक्ति को किसी दहेज अथवा अन्य सम्पत्ति अथवा मूल्यवान प्रतिभूति की किसी अवैध माँग को पूरा करने के लिए मजबूर करे अथवा धमकी देने का प्रभाव रखता है।
प्रश्न 65. अपराध निवारण। Crime Prevention.
उत्तर-अपराध निवारण (Crime Prevention)- दण्ड के बदले हुए परिवेश में यह पुरातन धारणा कि सामाजिक सुरक्षा के लिए अपराधियों को कठोरतम दीर्घकालीन दण्ड दिये जाने चाहिए, लुप्त हो चुकी है। वर्तमान समय में अपराधियों के प्रति अपनाये जाने वाले पिछले जमाने के पाशविक दण्ड के तरीके पूर्णतः त्याग दिये गये हैं।
प्रश्न 66 सशर्त अभिमुक्ति । Conditional release.
उत्तर- सशर्त अभिमुक्ति (Conditional release) – वर्तमान कारावकाश (Parole) पद्धति सशर्त क्षमादान या अभिमुक्ति का ही एक रूप है जिसके द्वारा बिना शर्त क्षमादान के सम्भावित दुष्परिणामों को दूर करने का प्रयत्न किया गया है। अतः इसमें सन्देह नहीं कि सशर्त क्षमादान की नीति विधि प्रवर्तकों तथा विधि का अनुपालन करने वालों, दोनों के लिए ही समान रूप से उपयोगी सिद्ध हुई हैं। सशर्त अभिमुक्ति की दशा में शर्तों का उल्लंघन करने पर उसकी अभिमुक्ति को रद्द किया जा सकता है तथा उसे कारावास में डाला जा सकता है।
प्रश्न 67. पुलिस में भ्रष्टाचार। Corruption in Police.
उत्तर- पुलिस में भ्रष्टाचार (Corrution in Police)- वर्तमान समय में जब भारत राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक आधुनिकीकरण की दिशा में अग्रसर है, लोगों की पुलिस से अपेक्षायें बढ़ती जा रही हैं। वैसे तो पुलिस के प्रति जनता एवं न्यायपालिका की धारणा विशेष अच्छी नहीं है तथा न्यायालयों ने अपने विभिन्न निर्णयों में पुलिस के विरुद्ध भ्रष्टाचार, बेईमानी, अकुशलता तथा दमनात्मक तरीके अपनाने का दोषारोपण किया है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश मुल्ला ने पुलिस बल को एक मात्र सबसे बड़ा ‘अराजक समूह’ निरूपित किया है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा भी अपने कई निर्णयों में पुलिस को अपनी शक्तियों के दुरुपयोग तथा मनमाने ढंग से कार्य करने के कारण जनता को पुलिस के प्रति उदासीन बताया है। अतः पुलिस कार्य प्रणाली में वर्तमान समय में सुधार की नितान्त आवश्यकता है।
प्रश्न 68. पीत पत्रकारिता का आपराधिक न्याय प्रशासन पर प्रभाव। Impact of yellow journalism on administration of Criminal Justice.
उत्तर-पीत पत्रकारिता का आपराधिक प्रशासन पर प्रभाव – पीत पत्रकारिता (Yellow Journalism) का आपराधिक न्याय प्रशासन पर काफी प्रभाव पड़ता है क्योंकि दर्शकों पर फिल्म, दूरदर्शन तथा रेडियो आदि का प्रभाव पड़ता है। ये समाज में मनोरंजन के सशक्त माध्यम के रूप में स्वीकार किये जा चुके हैं। फिल्मों या दूरदर्शन में दर्शाये जाने वाले हिंसात्मक एवं अश्लील दृश्य वर्तमान में किशोर, वयस्क लड़के-लडकियों में अपचारिता को बढ़ती हुई प्रवृत्ति का प्रमुख कारण है। आजकल जगह-जगह बाजारू शैक्षणिक संस्थाओं, विद्यालयों एवं महाविद्यालयों के संचालन में भी प्रचार-प्रसार माध्यमों की अहम् भूमिका रहती है।
संक्षेप में कह सकते हैं कि मानव आचरण को विकृत करने या उसे उन्नत करने में प्रचार-प्रसार माध्यमों की अहंम् भूमिका रहती है। दुर्भाग्यवश वर्तमान समय में अधिकांश प्रसार माध्यम आर्थिक लाभ तथा सस्ती लोकप्रियता के प्रलोभन में अपराध और अपराधियों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करते हैं जो प्रायः वास्तविक से परे भी होते हैं। राजनीतिक दबाव भी कभी-कभी इन्हें पीत पत्रकारिता के लिए विवश करता है। जबकि ऐसी घटनायें जो जन मानस को सद्कार्यों के लिए प्रेरित करने में सहायक हो सकती हैं, सनसनीखेज समाचारों के नीचे दबकर रह जाती हैं। अनेक अवसरों पर ऐसी आपराधिक घटनायें जो गम्भीर प्रकृति की या लांछनास्पन्द होती हैं, यदि समाज के प्रतिष्ठित वर्ग के लोगों द्वारा की जाती हैं, तो अपने प्रभाव का दुरुपयोग करते हुए उन्हें प्रसारित या प्रकाशित होने से रोक देते हैं। इस प्रकार प्रसार माध्यमों का इसमें परोक्ष सहयोग रहता है।
प्रश्न 69. पेशेवर अपराधी। Professional Criminals.
उत्तर- पेशेवर अपराधी (Professional Criminals) व्यावसायिक अपराधियों के वर्ग में ऐसे अपराधियों का समावेश है जो अपना अपराध सुनियोजित पोजित ढंग से कुशलतापूर्ण रीति द्वारा करते हैं। ये अपराध को जीवन निर्वाह के साधन के रूप में अख्तियार करते हैं। ये अपराधी अपनी-अपनी आपराधिक गतिविधियों में निपुण होते हैं और अपने कुकृत्यों के सम्भावित परिणामों तथा उनसे उत्पन्न होने वाले संकटों से पूर्णतया अवगत रहते हैं। ये अपराध करने के विभिन्न हथकण्डों से भली-भाँति परिचित होते हैं। इस वर्ग के अपराधियों में तस्करी, जेबकटी, वेश्यावृत्ति, डकैती, वाहनों की चोरी आदि अपराध करने वाले अपराधियों का समावेश किया जा सकता है। व्यावसायिक अपराधियों को यह जानकर कि जनता में उनका आतंक है तथा पुलिस एवं समाज उनसे डरता है, एक विशेष आत्मसंतोष मिलता है। इस तरह के अपराधी अपने आपराधिक जीवन से पूर्णतया संतुष्ट रहते हैं। अनेक व्यावसायिक अपराधियों ने यह स्वीकार किया है कि वे अपने अपराध पर विशेषतया दो बातों का ध्यान रखते हैं जो निम्न हैं一
(1) प्रथम अपराध को करने में कितने लाभ की सम्भावना है?; तथा
(2) द्वितीय अपराध को करने पर पकड़े जाने से बचने के क्या अवसर हैं?
प्रश्न 70. अश्लील साहित्य। Pornography.
उत्तर- अश्लील साहित्य (Pornography)- अश्लील साहित्य एवं अपराध में भी एक घनिष्ठ सम्बन्ध है क्योंकि यौन अपराधों का अश्लीलता से गहरा सम्बन्ध होता है तथा अश्लीलता यौन अपराधों के लिए अनुकूल पृष्ठभूमि तैयार करती है। भारतीय दण्ड संहिता में अश्लीलता के अन्तर्गत कोई पुस्तक, पर्चा, लेख चित्र, रेखांकन, पेंटिग या ऐसी ही कोई वस्तु जो कामवासना उद्दीप्त करते हुए पढ़ने या देखने वालों के मस्तिष्क को विपर्यस्त (Pervert) करती हो, अश्लील कहलाएगी।
कोई साहित्य पुस्तक, लेख चित्र, आदि अश्लील है या नहीं यह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 292 के निर्वचन पर निर्भर करता है न कि विशेषज्ञ की राय पर। अतः एक गद्यांश जिसमें विवाहितों को अपने यौन सम्बन्धों को विनियमित करने की गम्भीर शिक्षा दी गई है, अश्लील नहीं माना जाएगा चाहे भले ही उसमें लैंगिक सम्भोग का सविस्तार वर्णन किया गया हो।
प्रश्न 71. पुलिस के लिए नीति मूलक सिद्धान्त ।Principles of Policing.
उत्तर- पुलिस के लिए नीति मूलक सिद्धान्त (Principles of Policing)- शासन के लोकतंत्रात्मक ढाँचे में पुलिस की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उन्हें अपने कार्यों को कुशलतापूर्वक सम्पादित करने के लिए जन-समर्थन प्राप्त होना अत्यन्त आवश्यक है। एक स्वतंत्र लोकतन्त्रात्मक शासन प्रणाली में पुलिस की के लिए कुछ कार्यकुशलता नीति मूलक सिद्धान्तों का अनु अनुपालन किया जाना नितान्त आवश्यक है। अतः पुलिस को अपने कार्य निम्नलिखित सिद्धान्तों के अनुसार करना चाहिए-
1. मानवीय संव्यहारों में स्वतंत्रता, समानता तथा भ्रातृत्व की वृद्धि में योगदान करना ताकि मानव की गरिमा बनी रहे।
2. विधि-सम्मत शासन (Rule of Law) के अनुसरण में स्वतंत्रता और सुरक्षा में सामंजस्य स्थापित करना।
3. मानव अधिकारों का संरक्षण एवं संवर्द्धन।
4. अपनी सौजन्यता से जन-सामान्य का विश्वास अर्जित करना।
5. लोगों को उनकी जान-माल की रक्षा के प्रति आश्वस्त करना।
6. अपराधों की जाँच-पड़ताल तथा अपराधियों के अभियोजन को गति देते हुए आपराधिक न्याय प्रशासन में लोगों का विश्वास उत्पन्न करना।
7. लोक शान्ति सुनिश्चित करना तथा यातायात व्यवस्था को सुचारु रूप से नियन्त्रित रखना।
8. समय-समय पर आने वाली गम्भीर और प्राकृतिक विपदाओं में जनता की सहायता करना तथा संकट काल में उन्हें राहत पहुँचाना।
प्रश्न 72.पुलिस के पाँच मुख्य विधिक कार्यों का उल्लेख कीजिए। Point out the five main legal functions of Police.
उत्तर- पुलिस के विधिक कार्यों में निम्नलिखित विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं-
(1) पुलिस गश्ती, पेट्रोलिंग एवं निगरानी ये पुलिस के दृश्यमान (visible) कार्य हैं।
(2) गिरफ्तारी एवं हिरासत – पुलिस का प्रमुख कार्य अपरार्थी या संभावित व्यक्ति को गिरफ्तार करके उसे अपनी अभिरक्षा में लेना है।
(3) पुलिस द्वारा अभियुक्त के लिए हथकड़ी का प्रयोग– कोई भी विचाराधीन अपराधी संरक्षण से भाग न सके, इसी की सुरक्षा के लिए पुलिस प्रायः हथकड़ी पहनाकर अभियुक्त को अनुरक्षित करती है।
(4) खाना तलाशी एवं जामा तलाशी – पुलिस का एक अन्य महत्वपूर्ण कार्य है शक के अधीन लगाये गये अभियुक्तों से पूछताछ करना तथा उनकी तलाशी एवं जामा तलाशी. लेना। जामा तलाशी का अर्थ है अपराधी की कपड़ों के जेबों तथा अन्य प्रकार के रखे गये थैलों, पर्सी इत्यादि की छानबीन करना ताकि उसके पास किसी घातक वस्तु या शस्त्र से किसी को खतरा न रहे। अपराधी के विरुद्ध साक्ष्य एकत्र करने के उद्देश्य से पुलिस अपराधी की खाना तलाशी लेती है।
(5) प्राथमिकी दर्ज की जाना (FIR) – किसी अपराध के अन्वेषण में पुलिस का सर्वप्रथम कार्य संज्ञेय अपराध की प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करना होता है जिसमें अपराध की घटना की इत्तिला दर्ज की जाती है।
प्रश्न 73. अपराध की रोकथाम हेतु कुछ सुझाव प्रस्तुत कीजिए। Give some suggestions for prevention of Crime.
उत्तर-अपराध की रोकथाम हेतु मुख्य सुझाव निम्नलिखित हैं-
(1) अपराध एवं अपराधियों की मानसिकता को भलीभाँति समझने के लिए मनोविज्ञान तथा मनःचिकित्सा की भूमिका महत्वपूर्ण है। वर्तमान में आपराधिकता को अपराधी के मनोंविकार का दुष्परिणाम माना जाता है। अतः उसे यातनात्मक दण्ड देने से उसके सुधार की भावना की कल्पना करना व्यर्थ है।
(2) नाइगेक वाकरा के अनुसार अपराध निवारण का परोक्ष तरीका अपराध घटित होने के अवसरों को कम करना है। उदाहरणार्थ यदि बन्दूकों, विस्फोटकों एवं ज्वलनशील पदार्थों, विष आदि की बिक्री को प्रतिबन्धित कर दिया जाय तो अपराधों में अपने आप कमी आ आएगी।
(3) अपराध निवारण में जनसहयोग की भावना महत्वपूर्ण है। अतः इस दिशा में विधिक उपबन्धों के सिवाय स्वयंसेवी संस्थाओं के समय-समय पर अपराध निवारण कार्यक्रम का संचालन करना उचित होगा।
(4) उचित शिक्षा एवं आपराधिक आचरणों के विरुद्ध प्रचार-प्रसार माध्यमों द्वारा सघन अभियान छेड़ने से भी अपराध निवारण में गति लायी जा सकती है।
प्रश्न 74. उत्पीड़नशास्त्र की परिभाषा दीजिए। Define Victimology.
उत्तर-उत्पीड़नशास्त्र (Victimology)- आपराधिकता के सन्दर्भ में ‘पीडित’ से आशय ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों से है जो किसी अपराध का शिकार हुआ हो या हानिग्रसित हुआ हो। ऐसी हानि शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, आर्थिक या अन्य किसी स्वरूप की हो सकती है। किसी अपराध से प्रत्यक्षतः प्रभावित होने वाले व्यक्ति के अलावा ऐसे अन्य व्यक्ति भी हो सकते हैं जो उस अपराध से अप्रत्यक्षतः प्रभावित हुए हैं। इन्हें मेण्डेल्सन ने “द्वितीयक अपराध पीड़ित व्यक्ति” कहा है। जैसे- बलात्कार की शिकार हुई महिला से उत्पन्न पुत्र औरसता से वंचित रहेगा। एण्ड्रयू कार्मेन नामक अपराधशास्त्री ने अपनी पुस्तक ‘उत्पीड़नशास्त्र एक परिचय’ (An Introduction to Victimology) में यह लिखा है कि उत्पीड़नशास्त्र का उद्देश्य ऐसे अपराध पीड़ित व्यक्तियों को सामाजिक उपेक्षा से बचाना तथा उनके पुनर्वास एवं पुनरुद्धार की व्यवस्था करना है। इसके अलावा उत्पीड़नशास्त्र को परिभाषित करते हुए एण्ड्रयू कार्मेन कहते हैं कि उत्पीड़नशास्त्र में अपराध से पीड़ित व्यक्ति तथा अपराधकर्ता के सम्बन्धों, पीड़ितों और आपराधिक न्याय प्रशासन एजेन्सियों के मध्य प्रतिक्रियात्मक संव्यवहारों तथा अन्य सामाजिक समूहों या संस्थानों द्वारा उन्हें सहायता या सहयोग के व्यवस्थित वैज्ञानिक अध्ययन आदि का समावेश है। इस परिभाषा के आधार पर यह कहा जा सकता है कि विक्टिमोलॉजी के अन्तर्गत निम्नलिखित का समावेश है-
(1) पीड़ितकरण;
(2) अपराध पीड़ित तथा अपराधी के सम्बन्ध;
(3) अपराध पीड़ित और विभिन्न आपराधिक न्याय प्रशासन से सम्बन्धित अभिकरणों जैसे-पुलिस, न्यायालय, कारागार, सुधार-संस्थाएं आदि के मध्य सहयोगात्मक सम्बन्ध ।
(4) अपराध पीड़ित और अपराध से कारित हानि का मूल्यांकन;
(5) अपराध पीड़ित और विभिन्न सामाजिक संस्थाओं, प्रचार माध्यमों आदि की एक दूसरे पर प्रतिक्रिया आदि।
निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि अपराध पीड़ित व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य में अपराध एवं अपराधियों के विषय में किये गये अध्ययन को विक्टिमोलॉजी या उत्पीड़नशास्त्र कहा जाता है।
प्रश्न 75. द्वितीयक अपराध पीड़ित व्यक्ति से क्या अभिप्राय है? उदाहरण द्वारा स्पष्ट कीजिए।
What is meant by ‘Secondary Crime Victims’? Explain by giving a suitable example.
उत्तर- अपराध के द्वितीयक अवपीड़न से जुडी एक गम्भीर समस्या नवजात शिशुओं के माता के कारावासित होने से उत्पन्न होती है, चाहे उन्हें किसी अपराध के लिए निर्धारित अवधि से दण्डित करके कारागार भेजा गया हो या वे विचारणाधीन बन्दी के तौर पर जेल में रखी गई हों। बालकों के अधिकारों पर हुए संयुक्त राष्ट्र संघ के विशेष अभिसमय, 1992 तथा राष्ट्रसंघ की महासभा द्वारा 2002 में आयोजित बालकों के अधिकार सम्बन्धी अधिवेशन में इस विषय पर गहन चर्चा की गई थी कि कारावासित महिलाओं के शिशुओं को इनकी माता के साथ कारागार में अकारण ही रहना पड़ता है जिसके फलस्वरूप वे बालपन के स्वच्छन्द और खुले वातावरण से वंचित रह जाते हैं। इसलिए इन द्वितीयक पीड़ितों के अधिकारों तथा बाल जीवन के अनिवार्य आवश्यकता की पूर्ति की ओर सरकार और कारागार प्रशासन को विशेष ध्यान देना चाहिए। भारत भी राष्ट्रसंघ का सदस्य एवं हस्ताक्षरकर्ता होने के कारण उसे अनिवार्यता के कारण कारावासित माताओं के शिशुओं की सभी आवश्यकताएँ जुटानी चाहिए ताकि कारागार के दूषित वातावरण का उनके बालपन तथा विकास पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़ने पाए।
भारतीय कारागार व्यवस्था में ऐसे शिशुओं/बालकों को तीन वर्गों में रखा गया है-
(i) ऐसे शिशु जो माता के कारावासित होने के कारण उनका जन्म कारागार में ही हुआ है या जो शैशवावस्था के कारण माता से पृथक नहीं रखे जा सकते।
(ii) छः वर्ष तक के बालक/बालिकाएँ जिन्हें माता के कारावास के कारण उससे पृथक परिवार या रिश्तेदार आदि के साथ रहना पड़ रहा है और जो माता की सेवा-सुश्रुषा से वंचित है।
(iii) ऐसे बालक/बालिकाएँ जिन्हें माता के कारावासित होने के कारण उससे अलग रहना पड़ रहा है।
ज्ञातव्य है उपरोक्त सभी वर्गों के शिशु या बालकों को अपराध के द्वितीयक पीड़ित कहा गया है क्योंकि इन पर अपराध का अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है।
इस सन्दर्भ में उच्चतम न्यायालय ने आर० डी० उपाध्याय बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य, ए० आई० आर० (2006) सु० को० 1946 के वाद में कारावासी माताओं के साथ कारागार में रह रहे बालकों के विषय में कहा है कि इनके साथ कैदी या विचाराधीन बन्दी जैसा व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए। इन्हें जीवन की सभी आवश्यक सुविधाएँ जैसे दूध, आश्रय, दवा, कपड़े, शिक्षा, मनोरंजन तथा खेलकूद आदि के साधन जुटाना कारागार प्रशासन का कर्तव्य है।
प्रश्न 76. “पीड़ित अवक्षेपण का सिद्धान्त” पर एक संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए। Explain briefly the “Victim Precipitation theory”.
उत्तर- अपराध के प्रति नकारात्मक सोच के फलस्वरूप यह सिद्धान्त अस्तित्व में आया और इसे आगे विकसित किया गया। इस सिद्धान्त द्वारा यह बताया गया है कि किस प्रकार अपराध से पीड़ित व्यक्ति स्वयं अपने पीड़ाकरण (victimization) के लिए कारणीभूत होता है। तथापि अधिकांश अपराधविदों ने इस सिद्धान्त का समर्थन नहीं किया है क्योंकि वे इसे उत्पीड़न शास्त्र के प्रति विघ्नकारी (distructive) सोच मानते हैं। यह सच है कि कतिपय अपराध पीड़ित स्वयं ही अपने कृत्य या आचरण से अपराध को आमत्रित करते हैं और अपराध के अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न कर देते हैं लेकिन वह प्रपीड़नशास्त्र के अध्ययन का केवल एक पहलू है जो सभी या अधिकांश अपराध पौड़ितों के प्रति लागू नहीं होता है।
चूँकि इस सिद्धान्त के समर्थकों का जोर इस बात पर अधिक है कि पीड़ित व्यक्ति स्वयं के कार्य कलापों से अपराध कारित होने को सुगम बना देता है बजाय वह स्वयं इसके लिए दोषी होने के, इसलिए यह आवश्यक है कि उन विभिन्न कारकों का अध्ययन किया जाना चाहिए जिनके कारण अपराधी को अपने शिकार अर्थात् अपराध पीड़ित तक पहुँचना सुगम एवं सरल हो जाता है और इन कारकों के निवारण की दिशा में प्रयत्न करने चाहिए ताकि पीड़ितों को अपराधों के विरुद्ध समुचित संरक्षण प्राप्त हो सके।