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“Order 6 Rule 17 CPC के तहत Plaint Amendment का सीमित दायरा — न्यायालय ने समझाया कानूनी सिद्धांत”

“Order 6 Rule 17 CPC के तहत वादपत्र में संशोधन (Amendment of Plaint) का अधिकार सीमित है — जब संशोधन से वाद का स्वरूप बदल जाए तो न्यायालय संशोधन से इंकार कर सकता है : पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय का महत्वपूर्ण निर्णय”


परिचय

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (Code of Civil Procedure, 1908) के Order VI Rule 17 में यह प्रावधान है कि किसी वादपत्र (Plaint) या लिखित बयान (Written Statement) में संशोधन किया जा सकता है, यदि न्यायालय को यह प्रतीत हो कि यह न्यायसंगत है और विवाद के वास्तविक मुद्दों के समाधान के लिए आवश्यक है।

किन्तु, जब ऐसा संशोधन वाद की मूल प्रकृति (Nature of Suit) को परिवर्तित कर देता है या नए अधिकार या दावे को जन्म देता है, तब न्यायालय ऐसा संशोधन स्वीकार नहीं करता। पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय में इस सिद्धांत की पुनः पुष्टि की, जिसमें Plaintiff द्वारा वैकल्पिक निवेदन (Alternate Plea) के रूप में पूर्व वाद के निष्कर्षों को चुनौती देने हेतु संशोधन की अनुमति मांगी गई थी।


मामले की पृष्ठभूमि

इस प्रकरण में, वादी (Plaintiff) ने प्रारंभिक रूप से एक वाद दायर किया था जिसमें वह कुछ राहतें मांग रहा था। बाद में, वादी ने Order 6 Rule 17 CPC के तहत आवेदन प्रस्तुत किया और वादपत्र में संशोधन की अनुमति मांगी।

इस संशोधन के माध्यम से वादी अपने वाद में यह नया कथन जोड़ना चाहता था कि यदि उसके मूल दावे को स्वीकार न किया जाए, तो उसे वैकल्पिक रूप से यह अधिकार दिया जाए कि वह पूर्व वाद (Earlier Suit) के निष्कर्षों (Findings) को चुनौती दे सके।

प्रतिवादी (Defendant) ने इस संशोधन का विरोध करते हुए यह तर्क दिया कि इस प्रकार का संशोधन न केवल वाद के स्वरूप को पूरी तरह बदल देगा, बल्कि यह नए विवाद और अधिकारों को जन्म देगा, जो वर्तमान वाद के दायरे से बाहर है।


मुख्य प्रश्न (Issues before the Court)

  1. क्या वादी को Order 6 Rule 17 CPC के अंतर्गत इस प्रकार का संशोधन करने की अनुमति दी जा सकती है, जिससे वह वैकल्पिक रूप से पूर्व वाद के निष्कर्षों को चुनौती दे सके?
  2. क्या ऐसा संशोधन वाद की मूल प्रकृति को परिवर्तित कर देगा?
  3. क्या वादी का आवेदन न्यायोचित और आवश्यक है, या यह केवल मुकदमे में देरी लाने का प्रयास है?

न्यायालय का विश्लेषण (Court’s Analysis)

पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने अपने विस्तृत निर्णय में यह स्पष्ट किया कि Order VI Rule 17 के तहत संशोधन का उद्देश्य यह नहीं है कि कोई पक्ष अपने पूरे दावे की दिशा ही बदल दे या पूर्व निर्णयों को पुनः चुनौती दे।

न्यायालय ने निम्न बिंदुओं पर विशेष बल दिया —

  1. वाद की प्रकृति में परिवर्तन:
    संशोधन का प्रस्ताव यदि उस वाद के मूल उद्देश्य को बदल देता है, जिसके आधार पर वह दायर किया गया था, तो ऐसा संशोधन स्वीकार्य नहीं होगा। इस मामले में वादी अपने मूल दावे से हटकर पूर्व वाद के निष्कर्षों को चुनौती देना चाहता था, जिससे वाद का पूरा स्वरूप बदल जाता।
  2. वैकल्पिक निवेदन (Alternate Plea):
    हालांकि सामान्यतः Alternate Plea की अनुमति दी जाती है, किन्तु यहाँ वादी का वैकल्पिक दावा पूर्व वाद के निष्कर्षों के विरुद्ध था। ऐसा दावा res judicata के सिद्धांत से भी टकराता है। अतः यह वैकल्पिक निवेदन वैधानिक रूप से अस्वीकृत योग्य था।
  3. पूर्व निर्णयों को चुनौती देने का दायरा:
    यदि वादी किसी पूर्व निर्णय को चुनौती देना चाहता है, तो उसके लिए अपीलीय या पुनर्विचार (Appeal or Review) का मार्ग खुला है। वादपत्र संशोधन के माध्यम से ऐसे निष्कर्षों को चुनौती देना न्यायिक प्रक्रिया के विपरीत है।
  4. विलंब और न्याय के उद्देश्य:
    न्यायालय ने यह भी माना कि संशोधन की अनुमति देने से न केवल मुकदमे में अनावश्यक देरी होगी, बल्कि यह प्रतिवादी को भी अनुचित रूप से हानि पहुँचाएगा।

न्यायालय का निर्णय (Court’s Decision)

पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा —

“वादी द्वारा प्रस्तुत संशोधन प्रस्ताव न केवल वाद की प्रकृति में परिवर्तन लाता है, बल्कि यह पूर्व वाद के निष्कर्षों को चुनौती देने के समान है। इस प्रकार का संशोधन Order 6 Rule 17 CPC की भावना और सीमा से परे है। अतः वादी का आवेदन अस्वीकार किया जाता है।”

न्यायालय ने यह भी कहा कि वाद में संशोधन का अधिकार पूर्ण नहीं बल्कि सीमित (Qualified Right) है। यह तभी स्वीकार्य होगा जब —

  • संशोधन न्यायिक प्रक्रिया में सहायता करे,
  • और वाद के वास्तविक विवाद को सुलझाने में मदद करे।

संबंधित विधिक प्रावधान (Relevant Legal Provision)

Order VI Rule 17, CPC:

“The Court may at any stage of the proceedings allow either party to alter or amend his pleadings in such manner and on such terms as may be just, and all such amendments shall be made as may be necessary for the purpose of determining the real questions in controversy between the parties.”

Proviso:

“Provided that no application for amendment shall be allowed after the trial has commenced, unless the Court comes to the conclusion that, in spite of due diligence, the party could not have raised the matter before the commencement of trial.”

यह उपबंध यह स्पष्ट करता है कि एक बार जब मुकदमे का परीक्षण (Trial) शुरू हो गया हो, तब संशोधन तभी किया जा सकता है जब पक्ष यह साबित कर दे कि उसने उचित सावधानी के बावजूद यह मुद्दा पहले नहीं उठा सका।


महत्वपूर्ण नजीरें (Precedents)

  1. Revajeetu Builders and Developers v. Narayanaswamy & Sons (2009) 10 SCC 84:
    सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वादपत्र में संशोधन तभी स्वीकार्य होगा जब वह वाद की प्रकृति को न बदले और आवश्यक हो।
  2. Vidyabai v. Padmalatha (2009) 2 SCC 409:
    न्यायालय ने कहा कि Trial शुरू होने के बाद संशोधन का अधिकार सीमित है, और इसे केवल न्यायसंगत कारणों पर ही दिया जा सकता है।
  3. North Eastern Railway v. Bhagwan Das (2008) 8 SCC 511:
    न्यायालय ने स्पष्ट किया कि ऐसा संशोधन जो नया दावा या अधिकार उत्पन्न करता हो, अस्वीकार्य है।

निष्कर्ष (Conclusion)

यह निर्णय यह पुनः स्थापित करता है कि Order 6 Rule 17 CPC के तहत संशोधन का अधिकार पूर्ण नहीं है। यदि कोई संशोधन वाद की प्रकृति को परिवर्तित करता है या नए विवाद को जन्म देता है, तो न्यायालय उसे अस्वीकार करने के लिए बाध्य है।

वादी अपने अधिकारों को पुनः प्राप्त करने हेतु सही वैधानिक प्रक्रिया — जैसे अपील या पुनर्विचार — का सहारा ले सकता है, लेकिन वह वादपत्र संशोधन के माध्यम से पूर्व निर्णयों को चुनौती नहीं दे सकता।


लेख का सारांश

विषय विवरण
अधिनियम सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908
प्रावधान Order 6 Rule 17 CPC
मुख्य बिंदु संशोधन तभी संभव जब वाद की प्रकृति न बदले
अदालत पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय
निर्णय संशोधन का आवेदन अस्वीकार
मुख्य आधार वाद की प्रकृति में परिवर्तन, पूर्व वाद के निष्कर्षों को चुनौती देना अस्वीकार्य

यह निर्णय भविष्य में उन सभी मुकदमों के लिए दिशा-निर्देशक रहेगा जहाँ पक्षकार Alternate Plea या संशोधन के नाम पर पूरे वाद के स्वरूप को बदलने का प्रयास करते हैं। न्यायालयों ने स्पष्ट किया है कि न्याय केवल संशोधन की उदारता से नहीं, बल्कि प्रक्रिया की अनुशासन और न्यायिक सीमाओं के पालन से सुनिश्चित होता है।