Muslim Law Short Answer

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1 मुस्लिम विधि के विकास की रूप-रेखा का उल्लेख करें।

Give an outline of development of Mohammedan Law.

उत्तर– मुस्लिम-विधि सिर्फ चौदह सौ वर्ष पुरानी है। मोहम्मद साहब के माध्यम से ईश्वर के आदेश तथा मुहम्मद साहब के आचरण के आधार पर मुस्लिम विधि को मूर्त रूप देने में प्राचीन स्रोत एवं आधुनिक स्रोत दोनों ही उत्तरदायी हैं मुस्लिम विधि के चार प्रमुख प्राचीन या परम्परागत स्रोत हैं

(1) कुरान

(2) सुन्नत या हदीस,

(3) इज्मा;

(4) कियास

     कुरान मुस्लिम विधि का सबसे प्रमुख एवं सर्वमान्य स्रोत है। मुस्लिम वर्ग कुरान से हटकर कुछ भी मानने को तैयार नहीं है। कुरान मुहम्मद साहब का जबराल के माध्यम से खुदा (ईश्वर) द्वारा प्राप्त संदेश का लिपिबद्ध रूप है।

     मोहम्मद साहब को प्राप्त ईश्वरीय संदेश जो उन्होंने लोगों को बताया ताम्रपत्रों, पत्थरों, वृक्षों की छालों या अन्य वस्तुओं पर अंकित थे जिनका संग्रह अबूबकर ने किया कुरान में विधि विषयक 508 आयतें हैं किन्तु इनमें से 78 आयतें ही ऐसी हैं, जिन्हें न्यायाधीश या विधि विशेषज्ञ प्रयोग करते हैं।

    कुरान के पश्चात् सुन्नत तथा हदीस मुस्लिम विधि का महत्वपूर्ण स्रोत है। सुन्नत का तात्पर्य मोहम्मद साहब के आचरण से है। कुरान तथा सुन्नत हदीस के पश्चात् मुस्लिम विधि का प्रमाणिक इज्मा है।

    मुस्लिम विधिशास्त्र में इज्मा मोहम्मद साहब के सहयोगियों, उनके शिष्यों तथा शिष्यों के शिष्यों की सहमति है। कियास, कुरान, सुन्नत, हदीस तथा इज्मा के पश्चात् मुस्लिम विधि का चौथा महत्वपूर्ण स्रोत है।

    कियास के अन्तर्गत मुस्लिम विधिशास्त्री किसी सुस्थापित इस्लामिक नियम को ऐसे मामलों पर तर्क के आधार पर लागू करते हैं जिस पर पूर्व आलावा, प्रथायें, रीतिरिवाज, न्यायिक विनिश्चयन मुस्लिम विधि का विकास हुआ।

प्रश्न 2. मुसलमान कौन हैं?   Who is Muslim?

उत्तर- मुस्लिम कौन है (Who is Muslim)- प्रत्येक मुसलमान का धार्मिक (मजहबी) कर्तव्य इस्लाम के पाँच स्तम्भों पर केन्द्रित हैं, ये स्तम्भ हैं-

(1) पूर्ण आस्था (Full faith) “मुसलमान” शब्द को अर्थ होता है “मुसल्लम ईमान”। मुसल्लम-ईमान से तात्पर्य है पूर्ण आस्था।

(2) नमाज (प्रार्थना) – यह मुस्लिम धर्म का दूसरा स्तम्भ है। प्रत्येक दिन पाँच बार मक्का की ओर अपना मुख कर विहित नमाज को पढ़े। शुक्रवार को दोपहर का नमाज सभी पुरुषों के लिए आवश्यक है कि उसे सामूहिक तौर पर पढ़ें।

(3) दान देना (alms-giving)- अपनी आय के कुछ भाग का गरीबों, सन्तों  को दान करना और पुण्यार्थ संस्थायें चलाना।

(4) रोजा रखना– इस उद्देश्य के लिए रमजान का मास सबसे पवित्र माना गया है और प्रत्येक मुस्लिम को प्रातः काल से सूर्यास्त तक सभी भोजन, पानी आदि से विरत रहना चाहिये।

(5) हज- इस्लाम धर्म का यह अन्तिम स्तम्भ है। जीवन में एक बार प्रत्येक मुस्लिम को, जो व्यय करने में समर्थ हो, वर्ष के एक विहित समय में मक्का का पवित्र दर्शन अवश्य करें।

     भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और यहाँ के न्यायालय धार्मिक बन्धनों से मुक्त होकर निर्णय प्रदान करते हैं। इसलिए न्यायालय द्वारा किसी भी मुसलमान को उपरोक्त मजहबी क्रियाओं का पालन करने के लिए बाध्यकारी आदेश नहीं दिया जा सकता।

प्रश्न 3. मुस्लिम विधि के सुन्नी एवं शिया सम्प्रदाय से आप क्या समझते हैं?

What do you understand by Sunni and Shiya Sampraday?

उत्तर- सुन्नी समुदाय का उद्भव मोहम्मद साहब के उत्तराधिकारी का चुनाव (निर्वाचन मतदान) के आधार पर नियुक्त करने वालों से हुआ। ईरान को छोड़कर अन्य सभी मुस्लिम देशों में इसकी शाखा के लोग बहुतायत में हैं। इसके विभिन्न उपसम्प्रदाय हैं- (i) हनफी, (ii) मालिकी, (iii) शफी और (iv) हनवाली।

     शिया का शाब्दिक अर्थ है-दल या पार्टी (Party)। जिन लोगों ने मोहम्मद साहब के उत्तराधिकारी को उसके परिवार का कोई सदस्य है, ऐसा मानकर पैगम्बर की पुत्री फातिमा के पति तथा मोहम्मद साहब के चचेरे भाई अली को खलीफा माना वे शिया कहे जाते हैं। शिया समुदाय के अनुसार निर्वाचन के माध्यम से चुने जाने के कारण अली को चौथा खलीफा मानते थे। शिया सम्प्रदाय के तीन प्रमुख उपसम्प्रदाय हैं- (i) इशना अशारिया; (ii) इस्लामिया; तथा (iii) जैदी।

प्रश्न 4. मुस्लिम विधि के प्रारम्भिक स्रोत के रूप में ‘कुरान’ के महत्व का वर्णन कीजिए।

Describe the importance of ‘Quran’ as a Primary source of Muslim Law.

उत्तर– कुरान मुस्लिम विधि का सबसे प्रमुख एवं सर्वमान्य स्रोत है। क्योंकि कुरान से ही वर्तमान मुस्लिम समाज का जन्म हुआ है। कुरान शब्द की उत्पत्ति अरबी शब्द कुर्रा से हुआ है। कुर्रा शब्द का अर्थ है-पढ़ना या उच्चारित करना।

     कुरान में वे सभी बातें संग्रहित हैं जो मुहम्मद साहब ने अपने अनुयायियों के लिए आधारित की थीं। मुहम्मद साहब को जबराइल (Gabriel) के माध्यम से खुदा का सन्देश प्राप्त होता था। यह सन्देश पैगम्बर मोहम्मद को अपने जीवन के अन्तिम बीस वर्षों में खुदा से विभिन्न अवसरों पर प्राप्त हुए थे।

    मुहम्मद साहब को जो ईश्वरीय सन्देश निद्रा या अर्द्ध- विक्षिप्त अवस्था में प्राप्त होता था उसे उन्होंने लोगों को बताया। कुरान मुहम्मद साहब द्वारा बताए गए इन सन्देशों का लिपिबद्ध रूप है।

प्रश्न 5. मुस्लिम विधि के स्रोत के रूप में सुन्नत तथा हदीस Sunnat and Hadis as source of Muslim Law.

उत्तर- सुन्नत तथा हदीस (Sunnal and Hadis)- कुरान के पश्चात् सुन्नत तथा हदीस मुस्लिम विधि के महत्वपूर्ण स्रोत हैं। सुन्नत एकवचन है जिसका बहुवचन सुन्ना है। सुन्ना का तात्पर्य मोहम्मद साहब के आचरण से है। मुहम्मद साहब का आचरण इस प्रकार अनुकरणीय माना गया कि उनकी आचरण संहिता मुसलमानों के लिए कानून बन गयी। हदीस शब्द का अर्थ है प्रवचन। हदीस का बहुवचन है अहादी। अहादी से तात्पर्य मोहम्मद साहब है द्वारा किये गये प्रवचनों से है। मुस्लिम विधि में सुन्नत तथा हदीस एक दूसरे के स्थान पर प्रयोग किए जाते हैं। परन्तु सुन्नत से तात्पर्य मोहम्मद साहब के कार्य-कलापों से है। मोहम्मद साहब का जीवन अनुकरणीय था तथा अपने प्रवचन तथा उपदेश के दौरान जो बातें उन्होंने कहीं वह भी नियम के रूप में ग्रहणीय थे। अतः सुन्नत तथा हदीस मोहम्मद साहब के आचरण (जीवन-शैली) तथा उनके प्रवचनों उपदेशों से संकलित नियम बन गये। उमय्या काल में मुहम्मद साहब के आचरण तथा उपदेश एवम् प्रवचनों को लिपिबद्ध किया गया। मुहम्मद साहब के आचरण तथा प्रवचन मोहम्मद साहब के जीवन काल में संकलित नहीं किए गए, इन्हें विभिन्न व्यक्तियों ने अपने नजरियें से लिपिबद्ध किया। ये व्यक्ति मोहम्मद साहब के सहयोगी (साथी) थे। मुसलमान मोहम्मद साहब के पति अपनी श्रद्धा तथा आचरण के कारण इन विभिन्न व्यक्तियों द्वारा विभिन्न रूप से लिपिबद्ध किये गये सुन्ना तथा अहादी को बिना किसी जाँच अथवा प्रश्न के मानते थे।

प्रश्न 6. ‘इज्मा’ की मुस्लिम विधि के स्त्रोत के रूप में व्याख्या कीजिए। Discuss ‘Isma’ as a Source of Muslim Law.

उत्तर- इज्मा (Ijma)- कुरान तथा सुन्ना हदीस के पश्चात् मुस्लिम विधि का प्रामाणिक स्रोत इज्मा है। जिस विषय पर कुरान तथा हदीस एवम् सुन्नत में उल्लेख नहीं मिलता वहाँ इज्मा महत्वपूर्ण हो जाता है। इज्मा का शाब्दिक अर्थ है- एकमत होना। मुस्लिम विधिशास्त्र में इज्मा का आशय मोहम्मद साहब के सहयोगियों, उनके शिष्यों तथा शिष्यों की सहमति है। इज्मा का अर्थ है किसी समय मोहम्मद साहब के अनुयायियों में से विधिशास्त्रियों का किसी विधि के प्रश्न पर एकमत होना इज्मा का प्रामाणिक आधार है-हदीस की एक उक्ति-उस हदीस में लिखा है-मेरे लोग जो मेरे अनुयायी हैं किसी ऐसी बात पर एकमत नहीं हो सकते जो गलत है।

    यद्यपि इज्मा के आधार पर निर्मित नियम भिन्न-भिन्न मुस्लिम सम्प्रदायों में भिन्न हैं, परन्तु यह सुस्थापित है कि एक बार यदि एक इज्मा स्थापित या सर्वमान्य हो गया तो उसे निरस्त नहीं किया जा सकता। सुन्नी सम्प्रदाय की हनाफी विचारधारा को मानने वालों के लिए इज्मा एक मूल तथा प्रमुख स्रोत है।

    सर्वप्रथम खलीफा अबू बकर ने विधि के बिन्दु पर कई समस्याओं को इज्मा के आधार पर हल किया। उनके पश्चात् खलीफा उमर ने इज्मा को अपनाया। इज्मा के आधार पर दिये गए निर्णय फतवा कहे गये तथा इन फतवाओं को इस्लामी देशों में प्रेषित किया गया। इज्मा को तीन भागों में विभक्त किया गया है

(1) मोहम्मद साहब के साथियों का इज्मा,

(2) विधिशास्त्रियों का इज्मा,

(3) सर्वसाधारण (जनता) का इज्मा।

प्रश्न 7. मुस्लिम विधि के स्रोत के रूप में विधायन का महत्व।

Importance of Legislation as source of Muslim Law.

उत्तर- विधायन (Legislation) – मुस्लिम विधि के विभिन्न स्रोतों में विधायन सबसे उपयुक्त स्रोत माना जाता है। समाज सुधार एवं विधि संशोधन का सबसे शक्तिशाली स्रोत यही है, और विधायन को श्रेष्ठता विधि विकास के सभी तरीकों से इतना अधिक है कि विकसित सभ्यता वाले देश विधि के स्रोत के रूप में विधायन को ही महत्व देते हैं और शेष स्रोतों को भूतकाल के अवशेष के रूप में ही देखते हैं। विधायन न केवल नये विधि का हो स्रोत है अपितु यह पूर्व विधि जो समाज के लिए उचित नहीं प्रतीत होती का निरसन भी किया जा सकता है। जैसे मुस्लिम विधि-ग्रन्थों के बहुत से प्रावधान जो गुलामों से सम्बन्धित है अब भारत में गुलाम प्रथा के उन्मूलन के पश्चात् 1843 ई० से ही निरर्थक हो चुके हैं। कुरान में वर्णित है कि

   “सभी स्त्रियाँ जो विवाहित हैं वे भी तुम्हारे लिये हराम हैं सिवाय उन स्त्रियों के जो तुम्हारी दासियाँ हैं।”

प्रश्न 8 मुस्लिम विधि में निकाह शब्द से आप क्या समझते हैं?

What do you understand by Marriage.

उत्तर- विवाह या निकाह (Marriage)-मुस्लिम विधि में विवाह के लिए निकाह शब्द का प्रयोग किया गया है। ‘निकाह’ शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है-योनि सम्बन्ध निकाह शब्द से विवाह का अर्थ निकाला जाता है। प्रत्येक मुसलमान के लिए विवाह आवश्यक है। पैगम्बर मोहम्मद साहब के अनुसार जो व्यक्ति विवाह करता है वह सवाब (पुण्य) का कार्य करता है। क्योंकि वह व्यक्ति विवाह द्वारा एक स्त्री को व्यभिचारिणी होने से बचाता है।

प्रश्न 9. मुस्लिम विधि के अन्तर्गत वैध विवाह की क्या-क्या आवश्यक शर्तें होती हैं?

What are the essentials of a Valid Marriage according to Muslim Law?

उत्तर- एक वैध विवाह की आवश्यक शर्तें- एक वैध मुस्लिम विवाह की आवश्यक शर्ते –

(i) यतिरेक पत्नी बाहुल्यम्-मुस्लिम विवाह में बहुपत्नीत्व को तो मान्यता दी गयी है परन्तु बहुपतित्व को व्यभिचार माना गया है। (ii) विवाह के पक्षकारों के मध्य रक्त सम्बन्ध या कराबत का न होना।

(iii) विवाह सम्बन्ध या मुशारत का न होना।

(iv) धात्रेय या दूध सम्बन्ध (रिजा) का न होना।

(v) समकालीन दो बहिनों संग विवाह का न होना।

(vi) इद्दतकाल में विवाह का न होना।

(vii) अपनी ही तलाकशुदा स्त्री से पुनर्विवाह न होना।

प्रश्न 10. इद्दत क्या है? इद्दत की अवधि एवं नियम क्या है?

What is Iddat? What is the Period or rules relating of Iddat?

उत्तर- इद्दत (Iddat)- इद्दत एक निश्चित अवधि को कहा जाता है जिसमें एक ऐसी मुस्लिम महिला को पुनर्विवाह करने पर प्रतिबन्धित किया गया है जिसका विवाह विच्छेद या तो पति की मृत्यु के कारण हुआ हो या उसके पति द्वारा उसे तलाक दिये जाने के कारण हुआ हो। मुस्लिम विधि में जब कोई विवाह तलाक द्वारा या पति की मृत्यु के कारण विघटित हो जाता है तो मुस्लिम स्त्री कुछ समयावधि तक पुनर्विवाह नहीं कर सकती। इस निश्चित अवधि को इद्दत काल या इद्दत की अवधि कहा गया है। अर्थात् दूसरे शब्दों में एक मुस्लिम स्त्री जिसका विवाह किसी भी प्रकार विघटित हो गया है इद्दत की अवधि पूर्ण हो जाने पर पुनर्विवाह कर सकती है। यह नियम इस उद्देश्य बनाया गया है कि यह सुनिश्चित किया जा सके कि क्या स्त्री उस पुरुष से गर्भवती तो नहीं है जिसके साथ सम्पन्न विवाह विघटित हो चुका है जिसके होने वाले सन्तान के पितृत्व (Paternity) को सुनिश्चित किया जा सके।

     इद्दत की अवधि उस दशा में जहाँ विवाह तलाक के कारण विघटित हुआ है तीन मासिक धर्म का है तथा यदि विवाह पति की मृत्यु के कारण विघटित हुआ है तो यह अवधि चार महीने दस दिन है तथा यदि यह ज्ञात हो जाय कि स्त्री गर्भवती है तो इद्दत की अवधि सन्तान के जन्म तक विस्तृत हो जाती है। यदि तलाकशुदा स्त्री रजस्वला नहीं है तो यह अवधि तीन चन्द्रमास की होगी। यदि विवाह पश्चात् सम्भोग नहीं हुआ है तो इद्दत काल नहीं माना जाता।

प्रश्न 11. इद्दत के उद्देश्य की व्याख्या।

           Explain objects of Iddat.

उत्तर- इद्दत का उद्देश्य – खर्च-ए-पानदान (Kharch-i-Pandan)– मुस्लिम विधि में विवाह के पश्चात् पत्नी को जो उसे अपने पति एवं पति के रिश्तेदारों द्वारा कोई सम्पत्ति प्रदान किये जाने का करार किया गया है उसे खर्च-ए-पानदान कहा जाता है। खर्च ए-पानदान (betel box expenses) के सम्बन्ध में यदि कोई करार है तो पति उन्हें पत्नी को देने के लिए बाध्य होता है। भरण पोषण मामले में खर्च-ए-पानदान के लिए विशेष भत्ते का संदाय करने के लिए करार लोकनीति के विरुद्ध नहीं कहा जायेगा और यह तब भी संदेय होता है यदि पत्नी बिना किसी उचित कारण से अपने पति के पास लौट अपने से इन्कार कर देती है।

प्रश्न 12. व्यस्कता या ख्यारूल बुलूग क्या है?

What is option of Puberty?

उत्तर- वयस्कता या ख्यारुलबुलूग (Option of Puberty)-यौवनागम का विकल्प (Option of Puberty)- यदि किसी लड़के या लड़की का विवाह उसकी अवयस्कता के दौरान उसके संरक्षक (वली) द्वारा सम्पन्न कराया गया है तो बालिग (वयस्क) होने पर उसे यह विकल्प प्राप्त है कि वह उक्त विवाह का समर्थन करे या विखण्डन करे। युवक या युवती के इस विकल्प अधिकार को ख्यारूल बुलूग (Option of Puberty) नाम दिया गया है।

     मानव जीवन की मुस्लिम विधि के अनुसार तीन अवस्थाएँ हैं-सगीर, सरीरी तथा बुलूग। इस प्रकार हिन्दू विधि के अन्तर्गत मानव जीवन की चार अवस्थाएँ हैं- (1) ब्रह्मचर्य; (2) गृहस्थ; (3) वानप्रस्थ (4) सन्यास

     सगीर का प्रारम्भ जन्म से लेकर सात वर्ष तक की आयु का समय है। सरीरी की आयु सात वर्ष से 15 वर्ष तक है तथा बुलूग का आयुकाल 15 वर्ष के पश्चात् से प्रारम्भ होता है। सगीर की अवस्था में किया गया विवाह शून्य होता है, चाहे वह संरक्षक के माध्यम से ही क्यों न किया गया हो। सरीरी की अवस्था में विवाह के पक्षकारों की सहमति का कोई महत्व नहीं होता तथा इस अवस्था में विवाह संरक्षक के माध्यम से सम्पन्न हो सकता है जो यौवनागमन की अवस्था प्राप्त होने पर विवाह के पक्षकार के विकल्प पर विखण्डित होता है। बुलूग की अवस्था में लड़का लड़की विवाह करने के लिए स्वतन्त्र माने जाते हैं तथा संरक्षक की अनुमति के बिना विवाह कर सकते हैं।

     ख्यारुल बुलूग (Option of Puberty) का विकल्प प्रयोग होने के लिए निम्न शर्तें आवश्यक हैं :

(1) विवाह 15 वर्ष की आयु (सगीर) में हुआ था।

(2) उसका विवाह पिता या किसी संरक्षक द्वारा सम्पन्न कराया गया था।

(3) ख्यारुल बुलूग (Option of Puberty) का प्रयोग 18 वर्ष की आयु प्राप्त करने से पूर्व किया गया था।

(4) यह कि विवाहोपरान्त सम्भोग नहीं हुआ था। यह उल्लेखनीय है कि पन्द्रह वर्ष की आयु के पूर्व यदि सम्भोग हो भी जाता है तो भी ख्यारुल बुलूग (Option of Puberty: यौवनागमन का विकल्प) समाप्त नहीं होता।

प्रश्न 13. बातिल विवाह क्या है?

What is “Batil Marriage”?

उत्तर- बातिल विवाह- मुस्लिम विधि के अन्तर्गत विवाह के लिए निर्धारित स्थायी प्रतिबन्ध के उल्लंघन में किया गया विवाह शून्य या बातिल (Batil) विवाह होता है। इस वर्ग के विवाह का कोई भी विधिक परिणाम नहीं निकलता है। इस प्रकार के विवाह से उत्पन्न होने वाली औलाद नाजायज होती है। उन्हें अभिस्वीकृति द्वारा भी वैध नहीं बनाया जा सकता है।

शून्य या बातिल विवाह के कुछ उदाहरण निम्न हैं :

(1) विवाहित स्त्री के साथ (बिना तलाक लिए) किया गया विवाह जिसकी एक  प्रक्रिया है।

(2) रक्त सम्बन्ध (Blood Relation) के अन्तर्गत किया गया विवाह।

(3) विवाह से सम्बन्धित स्त्री (सास) के साथ किया गया विवाह। (4) धात्रेय सम्बन्ध (Fosterage Relation) के उल्लंघन में किया गया विवाह।

प्रश्न 14. फासिद विवाह क्या है?

What is “Fasid Marriage”?

उत्तर- फासिद विवाह- मुस्लिम विधि के अन्तर्गत विवाह के निषिद्ध अस्थायी प्रतिबन्ध के उल्लंघन में सम्पन्न विवाह अनियमित यो फासिद विवाह कहलाता है। अनियमित विवाह की विशेषता यह है कि ऐसा विवाह कुछ प्रयत्न करने पर नियमित हो जाता है या कुछ समय पश्चात् प्रतिबन्ध दूर होने पर अनियमित विवाह नियमित हो जाता है।

     अनियमित विवाहों के निम्नलिखित उदाहरण हैं :

(1) चार पत्नियों के रहते हुए पाँचवीं स्त्री से किया गया विवाह ।

(2) साक्षियों (गवाहों) के अभाव में किया गया विवाह।

(3) ऐसी स्त्री जो इद्दत काल का पालन कर ही है, उससे किया गया विवाह।

(4) धार्मिक प्रतिबन्ध के अन्तर्गत किया गया विवाह।

(5) एक साथ दो सगी बहनों से किया गया विवाह।

प्रश्न 15 सहीह या नियमित विवाह से आप क्या समझते हैं?

What do you understand by Sahih or valid marriage?

उत्तर- सहीह या नियमित निकाह- ऐसा त्रुटिहीन विवाह जिसमें विवाह की सभी औपचारिकतायें पूरी होती हैं सहीह विवाह कहलाता है। इस विवाह में विवाह के सम्बन्ध में निषेध (प्रतिबन्ध) का उल्लंघन नहीं होना चाहिए। जैसे विवाह रक्त सम्बन्ध या धात्रेय सम्बन्ध के अन्तर्गत न हो। विवाह सात वर्ष की कम आयु (सगीर) में सम्पन्न न हुआ हो और न ही विवाह गर्भ छिपाकर किया गया हो।

प्रश्न 16. मेहर क्या है?  What is “Mehar”?

उत्तर- मेहर (Mehar)–मेहर मुस्लिम विवाह की संविदा में प्रतिफल है जिस प्रकार से संविदा में प्रस्ताव स्वीकृति तथा प्रतिफल अति आवश्यक है, उसी प्रकार से मुस्लिम विवाह, चूँकि संविदा है, इसलिए एजाब (प्रस्ताव); कबूल (स्वीकृति); तथा मेहर (प्रतिफल) आवश्यक है।

    डॉ० जंग के अनुसार-“मेहर वह सम्पत्ति या समतुला (Property or Equivalent) है जिसे पति विवाह संविदा पर सहमत होने के कारण या विवाह की संविदा के अन्तर्गत बुजा (सम्भोग) के अधिकार के विशेष प्रतिकर के रूप में देने के लिए (पति) बाध्य होता है।”

      बेली के अनुसार-“मेहर पति पर पत्नी के सम्मान के प्रतीक के रूप में अधिरोपित दायित्व (obligation) है।”

प्रश्न 17. मेहर के विभिन्न प्रकार बताइये।

Describe the different kinds of Dower.

उत्तर- मेहर के विभिन्न प्रकार –

(1) निश्चित मेहर (मेहर-ए-मुसम्मा) –

(।) तुरन्त देय मेहर (मुअज्जल मेहर)

(।।) आस्थगित मेहर (मुबजल मेहर)

(2) उचित मेहर (मेहर-ए-मिस्ल)

(1) निश्चित मेहर (मेहर-ए-मुसम्मा)- इस मेहर को विवाह की संविदा के समय निश्चित कर लिया जाता है। जब विवाह के पक्षकार सक्षम नहीं होते हैं तो संरक्षक द्वारा यह निश्चित की जाती है जो विवाह के पक्षकारों पर बाध्यकारी होती है।

(2) उचित मेहर (मेहर-ए-मिस्ल) – जिस विवाह की संविदा में मेहर को निश्चित न किया गया हो वहाँ पत्नी उचित मेहर की हकदार होती है।

प्रश्न 18 तत्काल देय मेहर एवं विलम्बित देय मेहर में अन्तर बताइये।

Distinguish between Prompt and Deferred Dower.

उत्तर- तुरन्त देय मेहर एवं स्थगित मेहर में अन्तर (Difference between Prompt and deferred Dower) – (1) तुरन्त देय मेहर का भुगतान विवाह के समय ही नकद किया जाता है जबकि स्थगित मेहर विवाह-विच्छेद के समय देय होता है।

(2) तुरन्त देय मेहर के भुगतान के साथ ही पति को पत्नी के साथ समागम का अधिकार के प्राप्त होता है जबकि स्थगित मेहर का कोई सम्बन्ध पत्नी के साथ समागम के अधिकार से नहीं है।

(3) तुरन्त देय मेहर स्त्री द्वारा समागम के पहले अथवा समागम के उपरान्त कभी भी माँगा जा सकता है जबकि स्थगित मेहर की देयता का प्रश्न तभी उठता है जब वैवाहिक सम्बन्ध मृत्यु अथवा तलाक द्वारा समाप्त हो जाते हैं तथा स्त्री अकेली होती है एवं उसका सम्बन्ध पति से विच्छिन्न हो जाता है।

प्रश्न 19. मेहर न दिये जाने पर पत्नी के कौन-कौन से अधिकार हैं? What are the rights of wife at non-payment of Dower (Mehar)?

उत्तर- मेहर न दिये जाने पर पत्नी के अधिकार– एक पत्नी  को मेहर का भुगतान नहीं प्राप्त होने पर उसके निम्नलिखित अधिकार हैं :

(1) पति को सहवास या मैथुन से इन्कार करना;

(2) मेहर की राशि को ऋण (Debt) की भाँति वसूलने का अधिकार;

(3) मेहर की अदायगी तक पति की सम्पत्ति को कब्जे में रखने का अधिकार (Right of lien)।

 प्रश्न 20 बातिल निकाह और फासिद निकाह में अन्तर बताइये।

Difference between Void Nikah and Invalid Nikah.

उत्तर- बातिल निकाह और फासिद निकाह में अन्तर –

अनियमित विवाह (फासिद)

(1) अनियमित विवाह अस्थायी प्रतिबन्ध के उल्लंघन में किया गया विवाह है।

(2) अनियमित विवाह अस्थायी प्रतिबन्ध के दूर हो जाने पर नियमित हो जाता है

(3) अनियमित विवाह की सन्तानें जायज होती हैं।

(4) अनियमित विवाह की सन्तानें माता-पिता की सम्पत्ति में उत्तराधिकार प्राप्त करती हैं।

(5) अनियमित विवाह के पक्षकार विवाह के नियमित होने पर पारस्परिक अधिकार तथा दायित्व धारण करते हैं।

शून्य विवाह (बातिल)

(1) शून्य विवाह प्रतिबन्धित विवाह है जहाँ प्रतिबन्ध स्थायी होता है।

(2) शून्य विवाह का विधिक अस्तित्व नहीं होता है। अतः उसे किसी भी प्रकार वैधता नहीं प्रदान की जा सकती।

(3) शून्य विवाह की सन्तानें हरामी होती हैं।

(4) शून्य विवाह की सन्तानों को पिता की सम्पत्ति में उत्तराधिकार प्राप्त नहीं होता ।

(5) बातिल या शून्य विवाह चूँकि विधि की दृष्टि में अस्तित्वहीन है। अतः विवाह के पक्षकार पारस्परिक अधिकार तथा दायित्व को धारण नहीं करते क्योंकि इस विवाह को किसी भी स्तर से वैधता प्रदान नहीं की जा सकती है।

प्रश्न 21. निश्चित मेहर से आप क्या समझते हैं?

What do you understand by Fixed Dower (Mehar)?

उत्तर- निश्चित मेहर (Fixed Dower)-मुस्लिम विधि के अतंर्गत निकाह के समय अक्सर मेहर निश्चित की जाती है और वैवाहिक अनुष्ठान कराते समय काजी अपने रजिस्टर में मेहर की धनराशि को भी लिख लेते हैं। विवाह के पूर्व या विवाह के समय यदि मेहर को धनराशि को निश्चित नहीं किया गया है तो भी विवाह के पश्चात् मेहर को निर्धारित किया जा सकता है। जब पति की आयु 15 वर्ष से कम हो तो मेहर की संविदा पति की ओर से उसके पिता द्वारा की जा सकती है, और ऐसी संविदा पति पर बाध्यकारी मानी जाएगी।

     मुसम्मात फातिमा बीबी बनाम लाल दीन, ए० आई० आर० 1937 लाहौर 345 के मामले में कहा गया कि मेहर की संविदा पर पिता मेहर ऋण के लिए स्वयं दायी नहीं ठहराया जा सकता। किन्तु जब पिता अपने नाबालिग पुत्र के मेहर के भुगतान के लिए जमानतदार भी हो तो वह जमानतदार की हैसियत से पुत्र की पत्नी के प्रति दायी होगा।

प्रश्न 22 उचित मेहर से क्या तात्पर्य है?

What is Proper Dower ( Mehar ) ?

उत्तर- उचित मेहर (Proper Dower) Mehar- जिस विवाह की संविदा में मेहर को निश्चित न किया गया हो वहाँ पत्नी उचित मेहर (मेहर-ए-मिस्ल) की हकदार होती है, भले ही विवाह की संविदा में यह करार हुआ हो कि पत्नी को मेहर का अधिकार नहीं होगा। प्रिवी कौंसिल ने हमीरा बीबी बनाम जुबेदा बीबी, (1916) 43 आई० ए० 294 में यह अभिनिर्धारित किया था कि जब विवाह की संविदा में मेहर निश्चित न की गई हो तो वह कानून द्वारा निश्चित की जा सकती है। मेहर की धनराशि के बारे में यद्यपि सुन्नी विधि कोई अधिकतम सीमा नहीं निर्धारित करती परन्तु शिया-विधि मेहर की रकम की अधिकतम सीमा 500 दिरहम निर्धारित करती है। यद्यपि उचित मेहर की धनराशि निश्चित करने का न्यायालय को विवेकाधिकार प्राप्त है। परन्तु न्यायालय उचित मेहर का निर्धारण करते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखते हैं :

(i) पत्नी की वैयक्तिक योग्यताएँ

(ii) पति का आर्थिक स्तर

(iii) पत्नी के पिता का सामाजिक स्तर

(iv) पत्नी के पितृ-पक्ष से सम्बन्धित स्त्रियों को दी गई मेहर के दृष्टान्त

(v) पत्नी के परिवार में प्रचलित रीति-रिवाज

प्रश्न 23. शिया तथा सुन्नी सम्प्रदाय के विवाहों में अन्तर बताइए।

Distinguish between marriage of Sunni and Shiya marriage.

उत्तर- उत्तर-सुन्नी और शिया विवाह में अंतर :

सुन्नी विवाह

1. सुन्नी विवाह दो पुरुषों द्वारा या एक पुरुष और दो स्त्रियों द्वारा साक्षीकृत होने चाहिए।

2. सुन्नी विवाह में कुछ धात्रेय-नातेदारों से विवाह-सम्बन्ध निषिद्ध नहीं है जैसे-बहिन के धात्रेय माता संग या धात्रेय बहिन के माता संग।

3. वैवाहिक सम्बन्ध केवल निकाह के रूप में ही हो सकते हैं। अस्थायी या अल्प काल के लिए विवाह मान्य नहीं है।

4. सुन्नी विवाह में मुस्लिम पुरुष किसी गैर मुस्लिम स्त्री, जो ईसाई या यहूदी हो, से विवाह कर सकता है।

5. मासिक धर्म वाली पत्नी का इद्दत काल तीन मासिक धर्मों का और बिना मासिक धर्म वाली स्त्री का इद्दतकाल तीन चन्द्रमास का होता है।

6. मक्का के हज-यात्रा के दौरान विवाह मान्य है।

शिया विवाह

1. शिया विवाह में साक्षियों की आवश्यकता नहीं होती है।

2. धात्रेय नातेदारों से विवाह पूर्णरूपेण वर्जित है।

3. अस्थायी विवाह, जिसे ‘मुता’ विवाह कहा जाता है, भी विधिमान्य है।

4. शिया विवाह में मुस्लिम पुरुष ऐसी स्त्री से निकाह नहीं कर सकता है, किन्तु ‘मुता’ सम्बन्ध स्थापित कर सकता है।

5. जबकि शिया विवाह में मासिक धर्म वाली पत्नी की इद्दत-काल की अवधि तीन तुहर, और बिना मासिक धर्म वाली स्त्री का इद्द्त-काल 78 दिन का होता है।

6. शिया विवाह में हज यात्रा के दौरान विवाह वर्जित है।

प्रश्न 24 खर्च-ए-पानदान की व्याख्या कीजिए।

Kharch-i-Pandan Explain.

उत्तर- खर्च-ए-पानदान (Kharch-i-Pandan)–मुस्लिम विधि में विवाह के पश्चात् पत्नी को जो उसे अपने पति एवं पति के रिश्तेदारों द्वारा कोई सम्पत्ति प्रदान किये जाने का करार किया गया है उसे खर्च-ए-पानदान कहा जाता है। खर्च-ए-पानदान (betel box expenses) के सम्बन्ध में यदि कोई करार है तो पति उन्हें पत्नी को देने के लिए बाध्य होता है। भरण पोषण मामले में खर्च-ए-पानदान के लिए विशेष भत्ते का संदाय करने के लिए करार लोकनीति के विरुद्ध नहीं कहा जायेगा और यह तब भी संदेय होता है यदि पत्नी बिना किसी उचित कारण से अपने पति के पास लौट अपने से इन्कार कर देती है।

प्रश्न 25 मुता विवाह क्या है? मुता विवाह की अनिवार्य शर्तें क्या हैं?

What is Muta Marriage? What are the essentials of Muta Marriage?

उत्तर- मुता विवाह (Muta Marriage )- मुता विवाह का अर्थ है अस्थायी विवाह। मुता विवाह की परिकल्पना को सुन्नी विधि में मान्यता नहीं दी गई है। शिया विधि सीमित काल के लिए विवाह संविदा (मुता विवाह) को मान्यता देती है। मुता विवाह एक सीमित समय के लिए किया जाता है जो कुछ वर्ष, कुछ मास, कुछ दिन या किसी दिन के एक अंश (मात्र) के लिए भी हो सकता है। ‘मुता’ का शाब्दिक अर्थ है ‘आनन्द’ तथा मुता विवाह का विधिक अर्थ है आनन्द के लिए किया गया विवाह।

     मुता विवाह पर चार पत्नियों की सीमा लागू नहीं होती तथा शिया सम्प्रदाय में सीमित अवधि के लिए पाँचवीं तथा छठीं पत्नी को मता के रूप में ग्रहण किया जा सकता है। ब्रिटिश काल में शिया जमींदारों, सामन्तों तथा नवाबों ने मुता विवाह किया। परन्तु जमींदारी प्रथा की समाप्ति ने मुता विवाह के प्रचलन को काफी हद तक प्रभावित किया है। मुता विवाह या अस्थायी विवाह सिर्फ इशना अशरिया शियाओं में ही अब प्रचलित है। जैदिया तथा इस्माइलिया शिया शाखाओं में मुता विवाह का प्रचलन नहीं है। ईरान तथा ईराक में उसे विधिक वेश्यावृत्ति (legal prostitution) कहा जाता है। शिया विधि में एक शिया पुरुष मुस्लिम, पारसी या यहूदी स्त्री से मुता विवाह कर सकता है परन्तु अन्य धर्मावलम्बी स्त्री से मुता विवाह नहीं हो सकता। इसी प्रकार एक शिया मुस्लिम स्त्री किसी गैर-मुस्लिम पुरुष से मुता विवाह नहीं कर सकती।

    अक्सर जब पुरुष या स्त्री अपने घर से दूर रहते हैं तो उनके समागम की इच्छा की पूर्ति के लिए अस्थायी विवाह की अनुमति मुस्लिम विधि की शिया शाखा देती है।

     मुतो विवाह की दो आवश्यक शर्तें हैं :

(1) सहवास की अवधि अल्प समय के लिए ही क्यों न हो निश्चित होनी चाहिए तथा इस अवधि का निर्धारण मुता विवाह की संविदा के समय किया जाना चाहिए।

(2) मुता विवाह की संविदा में कुछ न कुछ मेहर का उल्लेख अवश्य होना चाहिए।

प्रश्न 26.: मुता विवाह के विधिक प्रभाव क्या हैं?

What is the legal effects of Muta Marriage?

उत्तर- मुता-विवाह के विधिक परिणाम– मुता-संविदा के मान्य होने के विधिक परिणाम निम्नलिखित होते हैं :

(1) पक्षकारों में मैथुन कार्य विधिपूर्ण हो जाता है।

(2) मुता-सम्बन्ध के बने रहने के दौरान पैदा हुई या गर्भस्थित संतानें वैध होती हैं और वे दोनों माता-पिता से उत्तराधिकार पाने की हकदार होते हैं।

(3) विवाह के पक्षकारों को उत्तराधिकार प्राप्ति के पारस्परिक अधिकार नहीं होते हैं। किन्तु ऐसे अधिकार संविदा द्वारा सृजित किये जा सकते हैं या मुता सम्बन्ध की संविदा में शामिल किये जा सकते हैं।

(4) अवधि की समाप्ति पर मुता विवाह सम्बन्ध स्वतः विघटित हो जाता है। मुता विवाह के सम्बन्ध में तलाक देने का अधिकार पति को प्राप्त नहीं होता है, किन्तु अवधि की समाप्ति के पूर्व किसी समय भी पति शेष अवधि का दान पत्नी के पक्ष में कर सकता है।

     इसी परिप्रेक्ष्य में अमीर अली ने अपनी पुस्तक मोहम्मडन लॉ में कहा है कि ऋणकर्ता को उसके ऋणों से उन्मुक्त करने के लिये ऋणकर्ता की सहमति आवश्यक नहीं होती पत्नी मुता-सम्बन्ध में केवल ऋणकर्ता (Debtor) है और पति है ऋणदाता (Creditor) और इस कारण पति मुता-सम्बन्ध की अवधि या उसके किसी बिना भी कर सकता है। का त्याग मुताई पत्नी की सहमति

     अतः यह स्पष्ट है कि मुता विवाह में तलाक सम्भव नहीं है किन्तु अवधि की समाप्ति से पूर्व किसी भी समय पति शेष अवधि का दान पत्नी के पक्ष में कर सकता है। ऐसे दान को ‘हिबा-ए-मुद्दत’ कहते हैं। कमर कादर बनाम लुड्डन साहिबा, (1886) 14 कल० 216 के मामले में पक्षकार इसना अशारिया शिया सम्प्रदाय के थे।

प्रश्न 27. मुस्लिम एवं हिन्दू विवाह में अन्तर समझाइए।

Distinguish between Muslim and Hindu Marriage.

उत्तर- मुस्लिम एवं हिन्दू विवाह के बीच अन्तर :

मुस्लिम विवाह (Muslim Marriage )

1. मुस्लिम विवाह एक संविदा की भाँति होता है। इसमें प्रस्ताव (एजाब), स्वीकृति (कबूल) और प्रतिफल (मेहर) होता है।

2. मुस्लिम विवाह का उद्देश्य केवल मैथुन- आनन्द और सन्तानोत्पत्ति है।

3. मुस्लिम कानून के अंतर्गत विवाह द्वारा स्त्री अपने अस्तित्व को पति में विलीन नहीं करती अर्थात् पत्नी की विधिक क्षमता पति में विलीन नहीं होती जैसे पत्नी को अपनी सम्पत्ति का उपभोग करने, अन्तरित करने, संविदा करने के लिए पति की सहमति या अनुमति की आवश्यकता नहीं होती।

4. मुस्लिम विधि में पति अपनी पत्नी को किसी समय भी और बिना किसी कारण के तथा उसकी अनुपस्थिति में भी तलाक दे सकता है। किन्तु पत्नी अपने पति को तलाक नहीं दे सकती सिवाय मुस्लिम विवाह-विच्छेद अधिनियम, 1939 के अन्तर्गत ।

5. मुस्लिम-विधि के अन्तर्गत मुस्लिम पुरुष एक समय में चार पलियाँ रख सकता है।

हिन्दू विवाह (Hindu Marriage)

1. हिन्दुओं के मध्य विवाह एक सुस्थापित संस्कार है, जिसकी प्रकृति धार्मिक है।

2. हिन्दू विवाह का उद्देश्य धार्मिक कृत्य करना, संतान उत्पत्ति, और संभोग आनन्द है।

3. जबकि हिन्दू विवाह में पत्नी अपने अस्तित्व को पति में विलीन कर देती हैं इसीलिए उसे जीवन संगिनी, अर्धांगिनी की संज्ञा दी जाती है। हिन्दू पत्नी न केवल सभी सांसारिक मामलों में अपने पति की संगिनी हो जाती है बल्कि नियत बलिदानों के प्रतिपालन में भी भागीदार होती है।

4. जबकि हिन्दू विधि में विवाह-विच्छेद केवल न्यायालय की डिक्री द्वारा ही हो सकता है। पति के एकतरफा कार्य द्वारा विवाह का विघटन नहीं हो सकता है।

5. हिन्दू-विधि के अन्तर्गत हिन्दू पुरुष एक समय में केवल एक पत्नी रख सकता है।

प्रश्न 28. तलाक शब्द से आपका क्या तात्पर्य है?

What do you mean by Talak.

उत्तर – तलाक की परिभाषा – तलाक का शाब्दिक अर्थ है, बन्धन या गाँठ खोलना। मुस्लिम विवाह के सन्दर्भ में तलाक का अर्थ है, वैवाहिक बन्धन को हटा देना। संक्षेप में तलाक, का तात्पर्य है, वैवाहिक सम्बन्धों की समाप्ति पैगम्बर मोहम्मद साहब ने कहा ‘अल्लाह द्वारा मनुष्य को दी गई सभी वस्तुओं में तलाक सबसे अधिक घृणित वस्तु है।” परन्तु तलाक को मुस्लिम विधि में एक आवश्यक बुराई के रूप में स्वीकार किया गया है क्योंकि यदि पत्नी के प्रति पति के अविश्वास या प्रेमभाव के कारण वैवाहिक सम्बन्ध कष्टपूर्ण हो गया हो तथा पारिवारिक शांति सम्भव नहीं है तो विवाह-विच्छेद ही उत्तम है।

प्रश्न 29. कोई मुस्लिम स्त्री न्यायिक विच्छेद किन आधारों पर प्राप्त कर सकती है?

What are the grounds on which a Muslim woman can seek Judicial Separation.

उत्तरएक मुस्लिम स्त्री द्वारा न्यायिक विच्छेद के आधार– मुस्लिम विवाह (विघटन) अधिनियम, 1939 के अनुसार नौ ऐसे आधार हैं जिनके आधार पर एक मुस्लिम महिला विवाह विच्छेद की माँग कर सकती है-ये आधार है- (1) पति का लापता होना; (2) भरण-पोषण न करना; (3) सात वर्ष का कारावास; (4) पति द्वारा वैवाहिक कर्तव्यों का पालन न करना; (5) पति की नपुंसकता; (6) पति का रोग ग्रसित होना; (7) पत्नी द्वारा विवाह का विखण्डन; (8) पति की क्रूरता; (9) मुस्लिम विधि द्वारा मान्यता प्राप्त कोई अन्य आधार।

प्रश्न 30. विवाह विच्छेद के बाद मुस्लिम पत्नी के भरण-पोषण के अधिकारों का वर्णन कीजिए।

Discuss the rights of maintenance of Muslim wife after Divorce.

उत्तर– मुस्लिम वैयक्तिक विधिक के अन्तर्गत एक पत्नी विवाह के दौरान भरण-पोषण प्राप्त करती है तथा विवाह-विच्छेद के पश्चात् भी प्राप्त करती है। एक मुस्लिम पति का यह पूर्ण दायित्व है कि वह अपनी पत्नी का भरण-पोषण करे। पति का अपनी पत्नी के भरण पोषण का दायित्व पत्नी के यौवनागमन (Puberty) के प्रारम्भ से ही प्राप्त होता है इसके पूर्व नहीं मुस्लिम विधि के अन्तर्गत एक तलाक शुदा महिला अपने पति से सिर्फ इद्दत काल के दौरान ही भरण-पोषण प्राप्त करने की अधिकारिणी होती है। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अन्तर्गत भरण-पोषण इद्दत की अवधि तक ही सीमित न होकर तलाकशुदा मुस्लिम महिला अपने पुनर्विवाह तक भरण-पोषण प्राप्त करने की अधिकारिणी है। [मुसम्मात हमीदन बनाम रफीक अहमद, (1993) इला०]।

प्रश्न 31. लियान से आप क्या समझते हैं?

What do you understand by Lian.

उत्तर- लियान (Lian)-भारत में प्रचलित मुस्लिम । के अनुसार लियाँ का अर्थ होता है, पति द्वारा पत्नी पर पर पुरुषगमन (Adultery) का मिथ्या आरोप। इस प्रकार से यदि पति अपनी पत्नी पर पर-पुरुषगमन (व्यभिचार) का मिथ्या आरोप लगाता है तो इस आधार पर पत्नी विवाह-विच्छेद के लिए न्यायालय की शरण ले सकती है। यदि पति द्वारा लगाया गया आरोप सिद्ध हो जाता है तो न्यायालय विवाह-विच्छेद की आज्ञप्ति प्रदान करेगा। इसी प्रकार यदि न्यायालय द्वारा विवाह विच्छेद की आज्ञप्ति पारित करने से पूर्व पति पत्नी पर लगाया गया पर पुरुषगमन का आरोप वापस ले लेता है तो न्यायालय विवाह-विच्छेद की आज्ञप्ति प्रदान नहीं करेगा। [ तुफैल अहमद बनाम जमीला खातून, ए० आई० आर० 1940 कलकत्ता 95]

प्रश्न 32. हिजानत से आप क्या समझते हैं?

What do you understand by Hizanat or Guardianship?

उत्तर- हिजानत (Hizanat) – बच्चे (सन्तान) के लालन-पालन तथा अभिरक्षा को ‘हिजानत’ कहते हैं। सुन्नत शाखा के अनुसार जब तक लड़का (पुत्र) सात वर्ष की आयु नहीं प्राप्त कर लेता तथा लड़का यौवनागम (Puberty) की आयु प्राप्त न कर ले इनकी अभिरक्षा तथा लालन-पालन (हिजानत) का अधिकार माता का होता है। शिया मत के अनुसार लड़के को दो वर्ष की आयु तक तथा लड़की के मामले में सात वर्ष की आयु तक हिजानत या लालन-पालन तथा अभिरक्षा का अधिकार माता का होता है।

प्रश्न 33. अभिस्वीकृति क्या है?

What is Acknowledgment?

उत्तर- अभिस्वीकृति (Acknowledgment) – हिदाया के अनुसार यदि कोई पुरुष किसी ऐसे बच्चे का, जो अपने बारे में कुछ बता सके, पिता होना यह कहते हुए यह मेरा पुत्र है’ अभिस्वीकार करे और पक्षकारों की आयु ऐसी हो जिससे एक को दूसरे का पिता माना जा सके और बच्चे का पिता किसी दूसरे को न समझा जाता हो और बच्चा स्वयं अभिस्वीकृति को सही माने तो अभिस्वीकृति करने वाले में उसका पितृत्व स्थापित हो जाता है क्योंकि पितृत्व का मामला ऐसा है जो केवल अभिस्वीकृतिकर्ता को ही प्रभावित करता है किसी और व्यक्ति को नहीं।

     हिदाया के उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि किसी अभिस्वीकृति के मान्य अभिस्वीकृति होने के लिए निम्नलिखित शर्तों को आवश्यक बताया गया है

(1) बच्चे का पिता अभिस्वीकृतिकर्ता के अलावा किसी अन्य पुरुष को न समझा जाता हो,

(2) निश्चित तौर पर यह न सिद्ध हो सके कि जिस बच्चे को अभिस्वीकृति किया जा रहा है वह व्यभिचार (जिना) का ही परिणाम हो,

(3) पक्षकारों की आयु ऐसी हो जिससे पिता-पुत्र का सम्बन्ध प्रतीत होता हो,

(4) शिशु यदि वयस्क हो तो यह आवश्यक है कि वह अभिस्वीकृति को सही माने या अभिस्वीकृति की पुष्टि करे।

प्रश्न 34. तलाक के विभिन्न रूप क्या हैं?

What are different forms of Talaq?

उत्तर- तलाक के विभिन्न प्रारूप (Different Modes of Talaq) – तलाक के विभिन्न प्रारूपों को निम्न तालिका के रूप में प्रकट किया जा सकता है :

तलाक-उल- सुन्नत (Talaq-ul-sunnat)- तलाक-उल-सुन्नत या तलाक-उल सुन्नत के दो रूप हैं:

(1) अहसन तथा (2) हसन।

     अहसन- अहसन शब्द का अर्थ है- सबसे अच्छा। यह तलाक का सर्वोत्तम अनुमोदित ढंग है। अहसन के अन्तर्गत तलाक की घोषणा पति द्वारा पत्नी के तुहर काल (रजस्वला मासिक धर्म काल) में की जाती है। यदि मासिक धर्म न होते हों अर्थात् यदि मासिक बन्द हो गया हो या मासिक प्रारम्भ ही न हुआ हो तो तुहर-काल में तलाक के उच्चारण का नियम लागू नहीं होगा तथा तलाक किसी भी समय दिया जा सकता है।

     तलाक-ए-हसन (Talaq-e-hasan)– तलाक-ए-हसन में तलाक-ए-अहसन की भाँति ही तीन बार तलाक की घोषणा की जाती है। तलाक-हसन भी तलाक का अच्छा एवम् अनुमोदित रूप है। तलाक-ए-हसन में तलाक-ए-अहसन की भाँति घोषणा तीन लगातार तुहर-काल (रजस्वला-काल) में होती है।

   तलाक-ए-बिद्दत (Talaq-e-biddat)- तलाक-ए-बिद्दत का शाब्दिक अर्थ है अनियमित तलाक। यह तलाक ऐसा है जिसमें तलाक-ए-अहसन या तलाक-ए-हसन दोनों प्रारूपों में से किसी का भी पालन नहीं होता। शिया शाखा के अन्तर्गत तलाक-ए-बिद्दत मान्य नहीं है तथा शिया लोग इसे प्रभावहीन तलाक मानते हैं। सुन्नी विधि में यद्यपि इस तलाक को मान्यता प्राप्त हैं परन्तु यह निन्दनीय तथा पापमय माना जाता है।

प्रश्न 35. इला और खुला में अन्तर कीजिए।

Explain the difference between Ila and Khula.

उत्तर- इला एवं खुला में अन्तर– जब कोई वयस्क एवं स्वस्थचित्त मुस्लिम पति अपनी पत्नी के साथ 4 मास या उससे अधिक अवधि तक सम्भोग (Sexual Intercourse) न करने की शपथ खाता है और 4 महीने या उससे अधिक अवधि तक सम्भोग नहीं करता है तो इसे इला द्वारा विवाह-विच्छेद कहते हैं।

     इला के लिए कहे गये शब्द अभिव्यक्त और विवक्षित हो सकते हैं उदाहरणार्थ “मैं अल्लाह की कसम खाकर कहता हूँ कि “मैं तुम्हारे साथ सम्भोग नहीं करूंगा” अर्थात् “अल्लाह की कसम मैं तुम्हारे पास नहीं आऊँगा।”

   इला में पत्नी को ‘मुला’ और पति को ‘मुली’ कहते हैं।

  जबकि ‘खुला’ का शाब्दिक अर्थ है-हटाना या उतारना विधि में इसका अर्थ होता है-पति द्वारा पत्नी पर अपने अधिकार और प्रभुत्व को किसी धन के बदले में छोड़ देना पत्नी द्वारा अपनी सम्पत्ति से पति को दिये गये मुआवजे के एवज में वैवाहिक बन्धन को विच्छेद के प्रयोजनार्थ किया गया यह एक करार है।

    पति-पत्नी के मध्य जब कभी भी वैमनस्य हो जाय और उन्हें इस डर की आशंका हो कि वे उन कर्तव्यों को पूर्ण रूप से न कर पायेंगे जिनको कि उन्हें ईश्वरीय आदेशों के अनुसार करना चाहिए, तो पत्नी को चाहिए कि वह पति को धन देकर अपने को विवाह बन्धन से मुक्त करा ले, क्योंकि कुरान में कहा गया है

     “यदि पत्नी कुछ धन पति को देकर अपना पीछा छुड़ा ले तो इसमें पति या पत्नी पर कोई पाप नहीं।”

खुला द्वारा विवाह-विच्छेद के आवश्यक तत्व हैं :

(1) पति-पत्नी दोनों की सहमति, और

(2) विवाह बन्धन से मुक्ति पाने के लिए पत्नी की ओर से प्रतिफल का दिया जाना।

प्रश्न 36. हिबा क्या है? What is Hiba?

उत्तर- हिबा (Hiba) – का शाब्दिक अर्थ है दूसरे पर आर्थिक हित के बिना आधिपत्य प्राप्त करना हिबा या दान मुस्लिम धर्म में भी एक अच्छा कार्य माना गया है क्योंकि मोहम्मद साहब ने भी कहा था: “एक-दूसरे को भेंट (उपहार) दो जिससे कि तुम लोग परस्पर मित्र हो जाओ।”

     मुस्लिम विधि के विद्वान अमीर अली ने हिबा या दान की परिभाषा देते हुए कहा कि हिबा प्रतिफल के बिना एक अन्तरण (Transfer) है जिसके द्वारा एक व्यक्ति अपनी सम्पत्ति को या किसी वस्तु के तत्व (Substance) को दूसरे को इस प्रकार से देता है कि दूसरा उस वस्तु का स्वामी बन जाय। विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई हिबा की परिभाषा के विश्लेषण करने से हम पाते हैं कि :

(1) हिबा एक जीवित व्यक्ति द्वारा किसी दूसरे जीवित व्यक्ति के पक्ष में किया ? गया, सम्पत्ति का अन्तरण है जिसमें एक जीवित व्यक्ति, दूसरे जीवित व्यक्ति को सम्पत्ति में (दान की वस्तु में) अपने स्वामित्व के अधिकारों का अन्तरण करता है। हिबा में सम्पत्ति का विनिमय (Exchange) नहीं होना चाहिए:

(2) यह अन्तरण शर्तों के अधीन नहीं होना चाहिए;

(3) हिबा के अन्तर्गत दाता से आदाता अर्थात् दाता से दानग्रहीता को सम्पत्ति का अन्तरण तुरन्त हो जाता है न कि भविष्य में।

(4) हिबा में सम्पत्ति का अन्तरण बिना प्रतिफल के होता है। प्रतिफल के साथ अन्तरण विक्रय (Sale) होता है;

(5) हिबा पर सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम का अध्याय 7 लागू नहीं होता परन्तु यह मुस्लिम वैयक्तिक विधि (Muslim Personal Law) से शासित होता है।

प्रश्न 37. हिबा के प्रकार।    Kinds of Hiba.

उत्तर – उत्तर- मुस्लिम विधि निम्नलिखित चार प्रकार के दान स्वीकार करती है :-

(1) हिबा, जिसे वास्तविक अर्थ में दान कहा जाता है;

(2) सदका

(3) हिबा बिल-इवाज:

(4) हिबा-ब-शर्त-उल-इवाज।

(1) हिबा – हिबा बिना किसी प्रतिफल के सम्पत्ति का अन्तरण है जो तुरन्त प्रभावी होता है। व्यावहारिक रूप में (In practice) हिबा के इसी रूप या किस्म को हिबा या दान कहा जाता है।

( 2 ) सदका – धार्मिक उद्देश्य से दिये गये दान को ‘सदका’ कहते हैं।

(3) हिया-बिल-इवाज– एक दान (हिबा) के बदले (एवज) में दूसरा दान हिवा बिल-इवाज है। हिबा-बिल-एवज के दो पृथक् दान होते हैं। इस संव्यवहार में दो व्यक्तियों के मध्य पारस्परिक दान होता है जिसमें बारी-बारी से दाता (Donor) तथा दानग्रहीता (आदाता, Donce) होते हैं।

(4) हिबा-ब-शर्त-उल्-इवाज- यह हिबा बिल-इवाज का ही एक रूप है जिसमें शर्त (Condition) लगी हुई है। जहाँ कोई दान इस माँग के साथ दिया जाता है कि दानग्रहीता इस दान के उपलक्ष्य में दाता को कोई निर्धारित वस्तु देगा तो इसे हिबा-ब-शर्त-उल-इवाज कहते हैं।

प्रश्न 38. हिबा के आवश्यक तत्वों की व्याख्या कीजिए।

Explain essential ingredients of gifts.

उत्तर-  हिबा (Hiba) का शाब्दिक अर्थ है दूसरे पर आर्थिक हित के बिना आधिपत्य प्राप्त करना। हिबा या दान मुस्लिम धर्म में भी एक अच्छा कार्य माना गया है क्योंकि मोहम्मद साहब ने भी कहा था : “एक दूसरे को भेंट (उपहार) दो जिससे कि तुम लोग परस्पर मित्र हो जाओ।”

     मुस्लिम विधि के विद्वान अमीर अली ने हिबा या दान की परिभाषा देते हुए कहा कि हिबा प्रतिफल के बिना एक अन्तरण (Transfer) है जिसके द्वारा एक व्यक्ति अपनी सम्पति को या किसी वस्तु के तत्व (Substance) को दूसरे को इस प्रकार से देता है कि दूसरा उस वस्तु का स्वामी बन जाय।

एक वैध हिबा (दान) के निम्न आवश्यक तत्व हैं (1) दाता की दान करने की क्षमता (Capacity of Donor),

(2) दानग्रहोता या आदाता (Donee) को दान ग्रहण करने की क्षमता।

(3) दान के लिए विषय वस्तु का अस्तित्व (Existence) आवश्यक है।

(4) दान या हिना की वैधता के लिए दान या हिया के लिए आवश्यक औपचारिकता (Formalities) का पूरा होना आवश्यक है।

(1) दाता की दान करने की क्षमता (Capacity of Donor)- मुस्लिम विधि के अन्तर्गत हिबा की सर्वप्रथम आवश्यकता यह है कि जो व्यक्ति हिला कर रहा है यह मुसलमान होने के साथ-साथ वयस्क तथा स्वस्थ मस्तिष्क का होना चाहिए अर्थात् एक पागल या अवयस्क मुस्लिम पुरुष या स्त्री हिबा करने में सक्षम नहीं है। एक अवयस्क द्वारा किया गया हिबा शून्य होता है।

(2) दानग्रहीता या आदाता (Donce) की सक्षमता – दान किसी भी ऐसे व्यक्ति के पक्ष में किया जा सकता है जिसका अस्तित्व है तथा जो सम्पत्ति धारण करने में समर्थ है। अर्थात् दान किसी अजन्मे (Unborn) के प्रति नहीं किया जा सकता। एक अवयस्क दानग्रहीता (Donee) हो सकता है परन्तु अवयस्क या पागल के पक्ष में किए गए दान में दान की सम्पत्ति पर कब्जा संरक्षक द्वारा प्राप्त किया जाना चाहिए।

(3) दान की विषय-वस्तु (Subject-matter of Gift)- ऐसी कोई भी वस्तु दान की विषय-वस्तु हो सकती है जिस पर कब्जा (Possession) तथा स्वामित्व (Ownership) के अधिकार का प्रयोग किया जा सकता है।

(4) दान की आवश्यक औपचारिकताएँ (Essential formalities of Gift) – मुस्लिम विधि में वैध दान (हिबा) के लिए तीन प्रमुख औपचारिकताएँ पूरी की जानी आवश्यक हैं –

(1) दाता द्वारा दान की घोषणा-एजाब

(2) दानग्रहीता (आदाता Donee) द्वारा दान की स्वीकृति कबूल

(3) दाता द्वारा दानग्रहीता को सम्पत्ति के कब्जे का अन्तरण-कब्जा

     उपरोक्त औपचारिकताएँ पूर्ण होने पर दान वैध होता है, चाहे दान लिखित हो या मौखिक

प्रश्न 39. वसीयत की परिभाषा दीजिये।

Define will.

उत्तर- वसीयत की परिभाषा- वसीयत की परिभाषा उस विलेख (Deed) या दस्तावेज (Document) को कहते हैं जिसके द्वारा कोई व्यक्ति अपनी सम्पत्ति का ऐसा निस्तारण करे कि वह उसकी मृत्यु के पश्चात् प्रभावी तथा जो स्वभाव से उसके जीवन काल में चलायमान तथा विखण्डनीय (Ambulatory and Revocable) हो।

     सुन्नी- शाखा द्वारा मान्यता प्राप्त फतवा-ए-आलमगीरी में कहा गया है-“वसीयतकर्ता को मृत्यु पर प्रभावी होने वाले किसी विशिष्ट वस्तु, मुनाफा, प्रस्ताव या वृत्ति (Gratuity) के सम्पत्तिक अधिकार को प्रदान करना ही वसीयत है।”

   शिया- शाखा के प्रसिद्ध ग्रन्थ शराय-उल-इस्लाम के अनुसार वसीयत एक ऐसा कार्य है जिसके द्वारा किसी वस्तु के स्थूल (Corpus) या उपभोग (Usufruct) या किसी अधिकार को दिया जाता है तथा जो वसीयतकर्ता की मृत्यु के पश्चात् लागू होता है।

     संक्षेप में वसीयत किसी सम्पत्ति के स्वामी के उस आशय की विधिक घोषणा है जिसे वह अपनी मृत्यु के पश्चात् प्रभावी करने की इच्छा रखता हो। वसीयत एक इच्छापत्र है जिसके द्वारा एक व्यक्ति इस आशय की घोषणा करता है कि उसकी मृत्यु के पश्चात् किस प्रकार उसकी सम्पत्ति का न्यागमन (उत्तराधिकार) प्रभावी हो। यह इच्छापत्र वसीयतकर्ता की मृत्यु के पश्चात् लागू होती है।

    जो व्यक्ति वसीयत द्वारा इच्छा व्यक्त करता उसे वसीयतकर्ता (Testater या वसी) कहते हैं तथा वसीयत द्वारा जो वस्तु दी जाती है उसे वसीयत की विषय-वस्तु कहते हैं तथा जिस व्यक्ति के पक्ष में वसीयत की जाती है उसे रिक्थग्राही (legatee) कहते हैं। वसीयत को लागू करने के लिए जिस व्यक्ति को नियुक्त किया जाता है उसे निष्पादक (Executor) कहते हैं। यदि वसीयत न्यायालय में विवक्षित है तो उस विवाद को सुनने के पश्चात् न्यायालय का वह आदेश कि वसीयत किस प्रकार लागू हो तथा वसीयत के अनुसार उत्तराधिकार किसे प्राप्त हो, प्रशासन-पत्र (Probate) कहलाता है।

प्रश्न 40. एक वसीयतकर्ता की योग्यता क्या है?

What is the qualification of a testator?

उत्तर- एक वसीयतकर्ता की योग्यता-सम्पत्ति को अन्तरण करने की योग्यता (क्षमता) वसीयतकर्ता (Testator) में अवश्य हो। जो अवयस्क न हो और न ही पागल या विकृतचित हो ऐसा प्रत्येक मुसलमान, चाहे वह स्त्री हो या पुरूष वसीयत कर सकता है। 18 वर्ष की आयु प्राप्त करने के बाद ही अवयस्कता की समाप्ति होती है, और जब उसके शरीर या सम्पत्ति, या दोनों के सिलसिले में न्यायालय द्वारा किसी संरक्षक की नियुक्ति हुई हो तो अवयस्कता की समाप्ति 21 वर्ष पूरा होने पर होगी।

     अवयस्क द्वारा की गई वसीयत शून्य होती है भले ही वह वयस्कता प्राप्ति के पश्चात मरे, किन्तु यदि वयस्कता-प्राप्ति के पश्चात् उसने उस वसीयत की पुष्टि कर दी है वसीयत प्रभावी होगी। किसी पागल द्वारा की गई वसीयत मान्य नहीं है। स्वस्थचित्त व्यक्ति द्वारा की गई वसीयत उस समय शून्य हो जाती है जब वह पागल हो जाता है और पागल की हालत में उसकी मृत्यु हो जाती है।

    शराय-उल-इस्लाम में यह वर्णित है कि वसीयत निष्पादन के लिए पूर्ण सोचने समझने की शक्ति का होना आवश्यक है। मानसिक दुर्बलता, बुढ़ापा, बीमारी या अन्य किसी कारण से हो सकती है जिससे कि वसीयत करने की शक्ति क्षीण हो जाती है।

    वसीयतकर्ता यदि वसीयत करते समय मुस्लिम है, बाद में इस्लाम त्यागकर अन्य धर्म ग्रहण कर लेता है, और उसकी मृत्यु भी गैर-मुस्लिम के रूप में होती है, तो हनफी विधि के अनुसार ऐसी वसीयत मान्य एवं प्रभावी रहेगी।

    परन्तु मलिकी विधि के अन्तर्गत वसीयत वसीयतकर्ता के धर्मत्याग के कारण अमान्य एवं निष्प्रभावी हो जायेगी। मलिकी विधि में यह आवश्यक है कि वसीयतकर्ता वसीय करते समय मुस्लिम हो तथा मृत्यु के समय भी मुस्लिम बना रहे।

    यदि कोई व्यक्ति अपने ऊपर घातक चोट करे या आत्महत्या करने के विचार से जहर छाले, और तत्पश्चात् कोई वसीयत करे तो ऐसी वसीयत शून्य होती है। किन्तु यदि वह पहले बसोचत करे और तत्पश्चात् आत्महत्या करे तो वसीयत मान्य होती है। मजहर हुसैन बनाम बोधा बीवी, (1898) 21 इलाहाबाद 91 प्रिवी कौंसिल के बाद में प्रिवी कौंसिल ने किया कि वसीयत उस स्थिति में मान्य और वैध थी जबकि वसीयत करते समय वसीयतकर्ता ने आत्महत्या करने का निश्चय कर रखा था।

प्रश्न 41. मर्ज-उल-मौत (मृत्यु शैय्या दान) की व्याख्या करें। Explain Death-bed-gift.

उत्तर- मर्ज-उल-मौत (Death-bed-gift)- मर्ज-उल-मौत (मृत्यु शैय्या दान) एक ऐसा संव्यवहार है जो दान तथा वसीयत दोनों के तत्व अपने में लिये रहता है। मर्ज-उल-मौत अरबी शब्द है जिसका अर्थ होता है, मृत्य-रोग अर्थात् ऐसा रोग जिसके कारण रोगी की मृत्यु हो जाय। यदि कोई दान उस समय दिया गया हो जबकि दाता के मन में यह आशंका उत्पन्न हो गई थी कि वह मर जायेगा तो वह दान मर्ज-उल-मौत के दौरान किया गया दान कहा जाता है।

प्रश्न 42. हिबा-बिल-एवज से आप क्या समझते हैं?

What do you understand by Hiba Bil Ewaz?

उत्तर- हिबा बिल-एवज (Hiba Bil Ewaz)– एक दान (हिवा) के बदले (एवज) में दूसरा दान हिबा-बिल-एवज है। हिबा बिल-एवज के दो पृथक् दान होते हैं। इस संव्यवहार में दो व्यक्तियों के मध्य पारस्परिक दान (Mutual Gift) होता है जिसमें दोनों बारी-बारी से दाता (Donor) तथा दानग्रहीता (आदाता : Donee) होते हैं। उदाहरण के रूप में ‘क’ अपने घोड़े का दान ‘ख’ को करता है तथा उसके पश्चात् ‘ख’ अपने एक ऊँट का दान ‘क’ को करता है। यहाँ यदि ‘ख’ यह कहे कि वह ऊँट का दान घोड़े के एवज में या बदले (Exchange) में दे रहा है तो इस परिस्थिति में दोनों दान अखण्डनीय (Irrevocable) हो जाते है। दान के दोनों संव्यवहारों में दान की सभी औपचारिकताएँ यथा प्रस्ताव तथा स्वीकृति एवम् सम्पत्ति के कब्जे का तात्कालिक अन्तरण पृथक्-पृथक् रूप से होना आवश्यक है। यदि वास्तव में देखा जाय तो हिबा-बिल-एवज दान है ही नहीं क्योंकि दान प्रतिफल रहित होना चाहिए परन्तु यहाँ एक दान दूसरे दान का प्रतिफल होता है। प्रतिफल के साथ किया गया दान ((हिवा) वास्तव में दान न होकर विक्रय (Sale) या अधिक से अधिक विनिमय (Exchange) माना जा सकता है।

प्रश्न 43. वसीयत तथा हिबा में अन्तर बताइए ।

Distinguish between Will and Hiba.

उत्तर-       वसीयत तथा हिबा में अन्तर

(Differences between Will and Hiba)

वसीयत (Will)

(1) वसीयत चूँकि वसीयतकर्त्ता की मृत्यु के पश्चात् प्रभावी होती है अतः अन्तरण वसीयत के पश्चात्वर्ती समय में होता है।

(2) वसीयत में कब्जे का परिदान आवश्यक शर्त नहीं है।

(3) वसीयत में सम्पत्ति या विषय-वस्तु का अस्तित्व वसीयतकर्त्ता के मरने के समय तक हो जाय तो यह पर्याप्त है।

(4) वसीयतकर्त्ता अपनी सम्पत्ति के एक तृतीयांश (1/3) से अधिक की वसीयत नहीं कर सकता तथा अपने उत्तराधिकारियों के पक्ष में वह वसीयत नहीं कर सकता ।

(5) वसीयतकर्त्ता अपनी मृत्यु के पूर्व अर्थात् वसीयत प्रभावी होने से पूर्व उसे विखण्डित कर सकता है।

(6) वसीयत के सम्बन्ध में मुशा का सिद्धान्त लागू नहीं होता ।

हिबा (Hiba)

(1) हिबा में सम्पत्ति का अन्तरण तुरन्त होता है।

(2) हिबा में कब्जे का परिदान आवश्यक शर्त है।

(3) हिबा में विषय-वस्तु का दान के संव्यवहार के समय अस्तित्व में होना आवश्यक है।

(4) हिबाकर्त्ता के दान करने के अधिकार पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। वह अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति दान में दे सकता है।

(5) हिबा को न्यायालय की आज्ञप्ति (Decree) द्वारा ही विखण्डित अथवा प्रतिसंहरित किया जा सकता है।

(6) हिबा के सम्बन्ध में मुशा (Musha) का सिद्धान्त लागू होता है।

प्रश्न 44. मुस्लिम विधि के अन्तर्गत वसीयत रद्द करने के कौन से तरीके हैं? What are the modes of revocation of a will under Muslim Law?

उत्तर- वसीयत का प्रतिसंहरण (विखण्डन) (Revocation of Will) – वसीयतनामा एक ऐसा इच्छापत्र है जिसे मृत्यु से पूर्व किसी भी समय वापस लिया जा सकता है या विखण्डित किया जा सकता है। वसीयत का प्रतिसंहरण या विखण्डन मृत्यु से पूर्व किसी भी समय किया जा सकता है। यहाँ तक कि मरणासन्न रोग के दौरान भी वसीयत का विखण्डन (Revocation) किया जा सकता है।

वसीयत का प्रतिसंहरण या विखण्डन– (i) अभिव्यक्त (Expressed) अथवा (ii) विवक्षित (Constructive-Implied) रूप से किया जा सकता है।

(i) अभिव्यक्त प्रतिसंहरण (विखण्डन) (Expressed Revocation)—वसीयत वसीयतकर्ता की मौखिक या लिखित रूप से अभिव्यक्ति द्वारा प्रतिसंहरित या विखण्डित की जा सकती है। जैसे वसीयतकर्ता मौखिक या लिखित अभिव्यक्त द्वारा कहे कि उसने वसीयत को विखण्डित या प्रतिसंहरित कर दिया है या वसीयत वापस ले ली है तो वह वसीयत रद्द या निरस्त समझी जाती है।

(ii) प्रतिलक्षित, विवक्षित अथवा उपलक्षित (Implied) विखण्डन- यदि वसीयत करने के पश्चात् वसीयतकर्ता ऐसा व्यवहार या आचरण करता है जिससे यह एकमात्र अनुमान लगता है कि वसीयतकर्ता द्वारा अपनी वसीयत वापस ले ली गई है या प्रतिसंहरित कर दी गई है तो यह विखण्डन (प्रतिसंहरण) विवक्षित प्रतिसंहरण कहलाता है।

प्रश्न 45 दाय के अवतरण के प्रकार बतलायें।

Explain kinds of Devolution of Inheritance.

उत्तर-दाय या उत्तराधिकार का अवतरण (Devolution of Inheritance)- उत्तराधिकार का अन्तरण तीन श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है-

(1) हिस्सेदार,

(2) अवशिष्टधारी; तथा

(3) दूरस्थ नातेदारी।

प्रश्न 46. (क) वक्फ कितने प्रकार के होते हैं? बतलाइये। How many kinds of Wakf? Explain it.

(ख) वक्फ अलल औलाद से आप क्या समझाते हैं? What do you undrstand by wakf-Alal-Aulad?

उत्तर (क) वक्फ की परिकल्पना धार्मिक जीवन से सम्बन्धित है। किसी अचल सम्पत्ति को धार्मिक प्रयोजन के लिए स्थिर करना ही वक्फ का उद्देश्य है। हिन्दू विधि में भी अचल सम्पत्ति को धार्मिक प्रयोजनों के लिए स्थिर करने की व्यवस्था है। स्वयं पैगम्बर मोहम्मद साहब ने अपनी भूमि के एक टुकड़े का वक्फ किया था जिसका उपयोग यात्रियों के ठहरने के लिए किया जाता रहा। अबूबकर के पश्चात् खलीफा हुए उमर ने अपनी सम्पत्ति का पवित्रतम उपयोग करने के बारे में जब पैगम्बर से राय ली तो पैगम्बर ने उन्हें इस सम्पत्ति का वक्फ करने की राय दी। इस राय को स्वीकार कर उमर ने उक्त भूमि को वक्फ के रूप में समर्पित किया जो तब तक चलता रहा जब तक सम्पत्ति बंजर नहीं हो गई।

       “वक्फ का तात्पर्य है किसी सम्पत्ति का किसी व्यक्ति द्वारा जो मुसलमान धर्म का अनुयायी हो, ऐसे प्रयोजन के लिए स्थायी समर्पण है जो (प्रयोजन) मुस्लिम विधि के अनुसार धार्मिक पवित्र या खैराती (धर्मार्थ) हो” – धारा (2) वक्फ मान्यकरण अधिनियम, 1913.

कुछ सार्वजनिक या पब्लिक वक्फ निम्न हैं-

(1) मस्जिद- मस्जिद सार्वजनिक या पब्लिक वक्फ माना जाता है। मस्जिद किसे कहेंगे के बारे में फतवा-ए-आलम गौरी में कहा गया है कि “इमारत बनने योग्य किसी खाली भूमि पर जब उसका स्वामी किसी कौम या व्यक्तियों के समूह को यह निर्देश दे कि वे लोग वहाँ नमाज पढ़ने के लिए एकत्र हों तो वह स्थान मस्जिद बन जाता है।

(2) कब्रिस्तान (Graveyard)- मुस्लिम विधि में कब्रिस्तान दो प्रकार का होता है- (i) प्राइवेट कब्रिस्तान, (ii) सार्वजनिक कब्रिस्तान।

(i) प्राइवेट कब्रिस्तान- कोई कब्रिस्तान प्राइवेट तब होता है जब वहाँ केवल संस्थापक, नातेदार और उनके वंशजों के मुर्दे गाड़े जाते हों। ऐसे कब्रिस्तान में जो कोई व्यक्ति संस्थापक के कुटुम्ब से सम्बन्धित नहीं होता है वह अपने मुर्दे वहाँ नहीं गाड़ सकता है।

(ii) सार्वजनिक कब्रिस्तान- यदि किसी कब्रिस्तान में आम जनता में से किसी को मुर्दे गाड़ने की आज्ञा दी जाय तो विधि यह उपधारणा करेगी कि वह कब्रिस्तान सार्वजनिक कब्रिस्तान है।

(3) दरगाह – दरगाह शब्द का शाब्दिक अर्थ है प्रवेशद्वार। बहुधा इसका प्रयोग किसी मुस्लिम सन्त के समाधि के लिए होता है जैसे- दरगाह खाजा साहेब, अजमेर में मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह है। भारत में दरगाह किसी महान दरवेश (फकीर) की कब्र को कहते हैं।

(4) खानकाह – मुस्लिम विधि में खानकाह उस स्थान को कहते हैं जहाँ दरवेश तथा सत्य-अन्वेषक अन्य लोग धार्मिक शिक्षा तथा उपासना के अभ्यास के लिए एकत्र होते हैं। यह मुस्लिम धार्मिक संस्था बहुत कुछ मामलों में हिन्दुओं के मठ से मिलती-जुलती है। खानकाह के प्रमुख को ‘सज्जादनसीन’ कहते हैं जिसका अर्थ होता है आध्यात्मिक मुखिया। ‘सज्जादनसीन’ दो शब्दों से मिलकर बना है, सज्जाद् नसीन, ‘सज्जाद’ का अर्थ है चटाई और ‘नसीन’ का अर्थ है आसीन या बैठा हुआ है। सार्वजनिक नमाज या प्रार्थना के समय सज्जादनसीन को सबसे आगे चटाई पर बैठने को मिलता है।

(5) मदरसा- मुस्लिम विधि में मदरसा एक प्रकार की पाठशालायें हैं। मदरसा भी एक प्रकार का ववफ है जिसमें धनी और निर्धन दोनों वर्ग के लोग रुचि लेते हैं और प्रलाभ प्राप्त करते हैं। इस प्रकार वक्फकर्ता विशेष तौर पर ऐसे वक्फ का निर्माण केवल निर्धनों के लिए ही कर सकता है उस दशा में केवल निर्धन ही उससे लाभ या फायदा प्राप्त कर सकेंगे

उत्तर (ख) वक्फ अलल-औलाद (Wakf-Alal-Aulad) या पारिवारिक वक्फ – मुस्लिम विधि में सार्वजनिक वक्फ के साथ-साथ व्यक्तिगत (निजी) वक्फ को भी समान रूप से मान्यता दी गई है। सार्वजनिक वक्फ वह है जो सामान्य जनता (General Public) के लाभ के लिए हो। सार्वजनिक वक्फ धार्मिक तथा पुण्यार्थ कार्यों के लिए होता है। इसके प्रतिकूल व्यक्तिगत (Private) या निजी वक्फ अपने परिवार के सदस्यों या वंशजों (वारिसों) के प्रलाभ के लिए होता है। सार्वजनिक तथा व्यक्तिगत वक्फ में स्पष्टतः कोई अन्तर नहीं होता दोनों वक्फ शाश्वत तथा असंक्राम्य होते हैं।

       वास्तव में एक ऐसा वक्फ जो अजन्मे (unborn) वारिसों के लिए होता है वह वक्फ-अलल-औलाद कहलाता है। यह एक पारिवारिक बन्दोवस्त है। वक्फ अलल औलाद किसी भी परिस्थिति में समाप्त नहीं होता जब वारिसों का क्रम समाप्त हो जाय तो सम्पूर्ण सम्पत्ति का उपयोग धार्मिक तथा खैरात तथा जनकल्याण के लिए किया जाता है। धार्मिक तथा पुण्यार्थ कार्यों को किसी परिभाषा की सीमा में बाँध पाना सम्भव नहीं है। अपने परिवार के सदस्यों तथा वारिसों को दान देना एक पुण्य (सबाब) का कार्य है तथा पैगम्बर मोहम्मद साहब ने भी उसको मान्यता दी है। हिदाया में भी कहा गया है-गरीबों तथा भिखारियों को खैरात देने की अपेक्षा अपने रिश्तेदारों को खैरात देना कहीं अधिक अच्छा है। सर्वश्रेष्ठ खैरात वह है जिसे कोई व्यक्ति अपने परिवार वालों को अर्पित करता है।

        वक्फ अलल-औलाद दो प्रकार से हो सकता है- (1) पूर्णतः कुटुम्ब के लिए, (2) अंशतः कुटुम्ब के लिए तथा अंशतः पुण्यार्थ, (3) ऐसा वक्फ जिसमें यह वर्णित हो कि वारिसों का क्रम समाप्त हो जाने पर सम्पत्ति को पुण्यार्थ कार्यों में लगाया जाय।

प्रश्न 47. आरियत तथा सदका क्या है?

What is Areeat and Sadaqua?

उत्तर- आरियत तथा सदका (Areeat and Sadaqua)- एक निश्चित अवधि के लिए किसी सम्पत्ति के लाभांश के प्रयोग का अधिकार ‘आरियत’ कहलाता है, इस प्रकार के दान की मुख्य विशेषताएँ निम्न हैं-

(क) इस प्रकार का दान किसी भी समय रह किया जा सकता है।

(ख) इस दान में सम्पत्ति के स्वामित्व का अन्तरण नहीं होता है।

(ग) दानग्रहीता (Donce) की मृत्यु के बाद इस प्रकार के दान द्वारा प्राप्त सम्पत्ति उसके उत्तराधिकारियों को नहीं, बल्कि दाता के उत्तराधिकारियों या नामित व्यक्ति को मिलती है।

(घ) इस दान के लिए यह अनिवार्य है कि निर्धारित समय के लिए दिया गया हो।

       सदका (Sadaqua) यह धार्मिक उद्देश्य से किया गया दान है। जब किसी दान देने का लक्ष्य यह हो कि उससे ईश्वर प्रसन्न होकर दूसरे संसार में उसे अच्छा फल देगा तो इस प्रकार के दान को सदका कहते हैं। इसमें कब्जा देना आवश्यक है।

        फैजी के अनुसार, “सदका का उपभोग द्वारा व्यय होने वाली सम्पत्ति के दान के अर्थ में समझना आधुनिक दृष्टिकोण से अच्छा होगा।”

प्रश्न 48. हकशुफा को परिभाषित कीजिए।

Define Pre-Emption.

उत्तर- हकशुफा – यह एक ऐसा वरीयता प्राप्त अधिकार है जिसके द्वारा सहस्वामी, सहभागीदार या पड़ोसी अपनी अचल सम्पत्ति अपरिचित क्रेता को बेचने पर उस सम्पत्ति पर क्रेता का स्थान, उस सम्पत्ति का मूल्य चुका कर ग्रहण कर सकता है। [गोविन्द दयाल बनाम इनायतुल्लाह, (1885) 7 इलाहाबाद 755]

       हकशुफा या पूर्वक्रयाधिकार एक ऐसा अधिकार है जो अचल सम्पत्ति के स्वामी को यह अधिकार देता है कि वह ऐसी अन्य अचल सम्पत्ति को खरीद ले जिसका विक्रय किसी अन्य (अपरिचित) व्यक्ति को किया जा चुका है।

       हकशुफा से आशय है बेची गई भूमियों का उतने मूल्य पर स्वामी हो जाना जितने पर क्रेता ने उसे खरीदा हो चाहे भले हो वह न बेचना चाहता हो- हिदाया।

प्रश्न 49. मुस्लिम विधि के अन्तर्गत शुफा (पूर्वक्रयाधिकार) कौन कर सकता है?

Who can claim right of Pre-Emption under Muslim Law?

उत्तर – हकशुफा की माँग करने वाले व्यक्ति- जो निम्न हैं-

1. शफी-ए-शरीक (Shafi-a-Sharik) – किसी एक ही पूर्वज के उत्तराधिकारीगण आपस में सह-उत्तराधिकारी या सह-भागीदार कहलाते हैं। विक्रेता तथा पूर्व क्रयाधिकारी यदि परस्पर सहभागी हों तो पूर्व क्रयाधिकारी शुफा-ए-शरीक कहलाता है। शुफा-ए-शरीक अथवा सहभागोदार को अन्य सभी प्रकार से पूर्व क्रयाधिकारी की तुलना में प्राथमिकता दी गई है।

2. शफी-ए-खलीत – शफो-ए-खलीत छूटों (immunities) तथा अनुलम्बों (Appendages) आदि के भागीदार, जैसे मार्ग (रास्ता) के अधिकार, जल-निस्तारण आदि के अधिकार प्राप्त व्यक्तियों का शुफा का हक होता है।

        ‘खलीत’ का शाब्दिक अर्थ है- ‘मिला-जुला’ अर्थात् ‘शफी-ए-खलीत’ (घर या भूमि के) उपयोगों (उपयोगी रचना) में हिस्सेदार।

3. शफी-ए-जार (Shafi-i-jar)- इसका अर्थ है-पड़ोस की अचल सम्पत्ति का स्वामी। शुफा के इस अधिकार की मुख्य विशेषता यह है कि यह अधिकार बढ़ो अचल सम्पत्तियों के विक्रय के मामलों में लागू नहीं होता। उदाहरणार्थ, यह बड़ी-बड़ी जमींदारी की सम्पत्ति या गाँव आदि जैसी बड़ी-बड़ी अचल सम्पत्ति के सन्दर्भ में लागू नहीं होता है।

प्रश्न 50. मुशा का सिद्धान्त क्या है?

What is Principles of Musha?

उत्तर- ‘मुशा’ का सिद्धान्त (Principle of Musha) मुशा के सिद्धान्त का सम्बन्ध दान (हिबा) के सम्बन्ध में सम्पत्ति पर कब्जे के परिदान से सम्बन्धित है। मुशा से तात्पर्य है, सम्पत्ति का अविभक्त भाग। यद्यपि मुशा अरबी ‘शुयआ’ से उत्पन्न है जिसका अर्थ है भ्रम (confusion) जहाँ सम्पत्ति दान की विषय-वस्तु या दान नहीं हुआ है परन्तु सम्पत्ति के एक भाग या अंश का हौ दान हुआ है वहाँ यह भ्रम की स्थिति है कि क्या सम्पत्ति के एक अंश का किया हुआ दान वैध होगा या नहीं? इस भ्रम की स्थिति को स्पष्ट करना, मुशा के सिद्धान्त का उद्देश्य है।

       यदि दान की विषय-वस्तु का विभाजन उस वस्तु की प्रकृति के कारण सम्भव नहीं है तो ऐसी सम्पत्ति के अविभक्त भाग का दान वैध तथा मान्य है। यदि किसी सम्पत्ति के अविभक्त भाग जैसे कुआँ का दान किया गया है तो दान वैध तथा मान्य है। इस सम्पत्ति के अविभक्त अंश का दान सुन्नी शाखा की हनफी विधि के अनुसार शून्य नहीं है परन्तु अनियमित (Irregular) है। मुशा के अनुसार यदि कोई व्यक्ति जिसने ऐसी अविभक्त सम्पत्ति का दान किया है जिसका विभाजन सम्भव है तो यदि दाता सम्पत्ति के विभाजन के पश्चात् विभाज्य अंश का दान दानग्रहीता (आदाता: Donee) को अर्पित कर दे तो यह दान नियमित तथा वैध हो जाता है।

प्रश्न 51. मुतवल्ली कौन बन सकता है? व्याख्या कीजिए। Who can appoint Mutwalli Explain it?

उत्तर – मुतवल्ली कौन बन सकता है- कोई भी ईमानदार व्यक्ति चाहे. पुरुष हो या स्त्री, मुतवल्ली के पद पर नियुक्त किया जा सकता है, और वक्फकर्ता अपने को या अपने वंशजों को वक्फ सम्पत्ति का मुतवल्ली नियुक्त करने का अधिकारी है।

        स्त्री की नियुक्ति – मुतवल्ली के पद पर स्त्री की नियुक्ति हो सकती है। किन्तु जहाँ मजहबी (धार्मिक) कार्यों को करना पड़ता है वहाँ कोई भी स्त्री मुतवल्ली नहीं हो सकती है। सज्जादनशीन (आध्यात्मिक मुखिया), किसी दरगाह का मुजावर, या किसी मस्जिद के इमाम के कार्य ऐसे हैं जिसे कोई स्त्री नहीं कर सकती।

        गैर-मुस्लिम व्यक्ति की नियुक्ति- गैर-मुस्लिम व्यक्ति भी किसी पुण्यार्थ या गैर मजहबी (secular) वक्फ का मुतवल्ली हो सकता है। किन्तु जहाँ मुतवल्ली को मजहबी (धार्मिक) कार्य करने होते हैं वहाँ उसकी नियुक्ति मुतवल्ली के पद पर नहीं हो सकती है। इस प्रकार कोई भी गैर मुस्लिम व्यक्ति की नियुक्ति किसी खानकाह या दरगाह के सञ्जादनशीन या मस्जिद के इमाम के पद पर नहीं हो सकती है।

       अवयस्क की नियुक्ति मुतवल्ली के रूप में – सामान्य नियम यह है कि मुतवल्ली के पद पर किसी भी अवयस्क की नियुक्ति नहीं हो सकती है। सैयद हसन बनाम धीरहसन, (1917) 40 मद्रास 941 के बाद में मुतवल्ली के रूप में अवयस्क की नियुक्ति को मद्रास उच्च न्यायालय ने शून्य घोषित किया था हालांकि यह प्रश्न उस समय उठा था जब वह वयस्क हो चुका था। किन्तु यदि मुतवल्ली का पद वंशानुगत हो और जो उत्तराधिकार का हकदार है वह अवयस्क हो, या जहाँ वक्फनामे में मुतवल्ली के पद का उत्तराधिकार का ढंग दिया हुआ हो और प्रथम मुतवल्ली या तत्पश्चात् मुतवल्ली की मृत्यु पर इस पद पर आसीन होने वाला व्यक्ति अवयस्क हो तो न्यायालय तब तक के लिए मुतवल्ली का कार्य करने के लिये अन्य व्यक्ति की नियुक्ति कर सकता है जब तक कि वह अवयस्क वयस्कता आयु न प्राप्त कर ले। इस कार्यवाहक मुतवल्ली को उतना ही अधिकार होगा जितना कि किसी स्थायी मुतवल्ली को, न कि उससे अधिक।

प्रश्न 52. जिना एवं जिना के परिणाम।

Zina and consequences of Zina.

उत्तर- जिना (Zina) भारत में प्रचलित मुस्लिम विधि के अनुसार जिना या लियाँ (Lian) का अर्थ है-पति द्वारा पत्नी पर परपुरुष गमन (Adultery) का मिथ्या आरोप। इस प्रकार यदि पति अपनी पत्नी पर परपुरुषगमन (व्यभिचार) का मिथ्या आरोप लगाता है तो इस आधार पर पत्नी विवाह विच्छेद हेतु न्यायालय में बाद प्रस्तुत कर सकती है। यदि पति द्वारा लगाया गया आरोप सिद्ध हो जाता है तो न्यायालय विवाह विच्छेद की आज्ञप्ति प्रदान करेगा। इसी प्रकार यदि न्यायालय द्वारा विवाह विच्छेद की आज्ञप्ति पारित करने से पूर्व पति पत्नी पर लगाया गया पर-पुरुषगमन का आरोप वापस ले लेता है तो न्यायालय विवाह-विच्छेद की आज्ञप्ति प्रदान नहीं करेगा। [ तुफैल अहमद बनाम जमीला खातून, ए० आई० आर० 1940 कलकत्ता 95 ]

प्रश्न 53. मुस्लिम विधि में प्राकृतिक संरक्षकों को कौन से अधिकार प्राप्त है? What are the Powers of Natural Guardians under Muslim Law?

उत्तर – मुस्लिम विधि के अनुसार एक पिता अपने अवयस्क पुत्र या पुत्री का स्वाभाविक तथा नैसर्गिक संरक्षक होता है। पिता के रहते अवयस्क सन्तान की सम्पत्ति से सम्बन्धित संरक्षक अन्य व्यक्ति नहीं हो सकता। मुस्लिम विधि की सुन्नी शाखा के अनुसार पिता के अभाव में एक अवयस्क की सम्पत्ति का संरक्षक पिता द्वारा निष्पादक के रूप में नियुक्त व्यक्ति होता है। यदि पिता कोई निष्पादक नहीं नियुक्त करता है तो अवयस्क सन्तान का पितामह उसकी सम्पत्ति से सम्बन्धित संरक्षक होता है। यदि पितामह ने कोई निष्यादक नियुक्त किया है तो उसकी मृत्यु के पश्चात् पितामह द्वारा नियुक्त निष्पादक अवयस्क सन्तान की सम्पत्ति का संरक्षक होता है। शिया शाखा के अनुसार अवयस्क की सम्पत्ति का संरक्षक उसका पिता ही होता है। पिता के अभाव में पितामह तथा पितामह के अभाव में उसके द्वारा नियुक्त कोई निष्पादक उसकी सम्पत्ति के सम्बन्ध में उसका संरक्षक होता है। किसी अवयस्क को सम्पत्ति में निष्पादक नियुक्त करने का अधिकार सिर्फ पिता या पितामह को ही होता है। चाचा या भाई अवयस्क की सम्पत्ति के सम्बन्ध में निष्यादक नियुक्त नहीं कर सकते हैं। उनके द्वारा नियुक्त निष्पादक वैध संरक्षक नहीं होता है।

प्रश्न 54. मुस्लिम विधि में माता-पिता के भरण-पोषण का दायित्व किस पर है? Who is liable to Provide maintenance to Parents under Muslim Law?

उत्तर- निर्धन एवं अशक्त स्थिति में माता-पिता भरण-पोषण का दावा करने के हकदार हैं। अमीर अली का कहना है कि जब बच्चे तनावपूर्ण स्थिति में होते हैं। वे अपने माता-पिता का भरण-पोषण करने के लिए तब तक बाध्य नहीं हैं जब तक कि वे अपनी जीविका स्वतः कमाने में समर्थ न हो जाये। पुत्रियों का यह दायित्व हो जाता है कि वे अपने निर्धनता से ग्रस्त माता-पिता का भरण-पोषण करें। जब कोई माँ गरीब है और पुत्र अपनी जीविका चलाने में सक्षम हो तो वह अपने संसाधनों के अनुसार उसका समर्थन करने के लिए बाध्य है। जहाँ एक से अधिक व्यक्तियों का भरण-पोषण किया जाना हो, वहाँ दायित्व का प्रभाजन उस हिस्से के अनुसार कर दिया जाता है जिसके लिए इस प्रकार के व्यक्ति उत्तराधिकार हकदार होंगे। जहाँ पुत्री धनी हो और उसकी तुलना में पुत्र निर्धन हो वहाँ भरण-पोषण का बड़ा अनुपात पुत्री पर होगा।

प्रश्न 55. वस्तुतः संरक्षक से आप क्या समझते हैं?

What do you understand by ‘De facto’ Guardians?

उत्तर- वस्तुतः संरक्षक (‘De facto’ Guardians) वस्तुतः या तथ्यतः संरक्षक से तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से है जो न तो अवयस्क का पिता है न ही उसका पितामह तथा न ही उसके द्वारा अवयस्क की सम्पत्ति के सम्बन्ध में नियुक्त कोई निष्पादक है परन्तु वह अवयस्क की देखभाल तथा व्यवस्था इस प्रकार करता है कि जैसे वह अवयस्क का संरक्षक हो। विधि वस्तुतः संरक्षक को कोई विशेष अधिकार न देकर उसे अवयस्क की सम्पत्ति का अभिरक्षक (Custodian) ही मानती है। यदि अवयस्क के पिता या पितामह द्वारा इन्हें निष्पादक नियुक्त नहीं किया गया है तो अवयस्क की माता, भाई, चाचा, अवयस्क की सम्पत्ति के सम्बन्ध में ‘वस्तुतः संरक्षक’ मान लिये जाते हैं। ‘वस्तुतः संरक्षक’ की नियुक्ति विधिपूर्ण ढंग से नहीं की जाती पर वे अपने को अवयस्क की सम्पत्ति का अभिरक्षक मानते हुए उसकी व्यवस्था करते हैं।

       मथयिन सिद्दीक बनाम मुहम्मद कुंजन पारेथ कुट्टी, ए० आई० आर० 1996 एस० सी० 1003 के वाद में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पिता की अनुपस्थिति में अन्य विधिक रूप से मान्यता प्राप्त संरक्षक विक्रय करने के लिए सक्षम है परन्तु पिता की मृत्यु के पश्चात् न्यायालय द्वारा संरक्षक नियुक्त नहीं किया गया था तथा माता ने सम्पत्ति का विक्रय किया। उक्त विक्रय को अवैध इस आधार पर माना गया कि माता ने अवयस्क की सम्पत्ति विक्रय करने के पूर्व न्यायालय से अनुमति नहीं प्राप्त की थी। अतः विक्रय निरस्त किया गया।

प्रश्न 56. वास्तविक संरक्षक या विधितः संरक्षक में अन्तर स्पष्ट करें।

Distinguish between de-facto and de-Jure guardians.

उत्तर – वास्तविक संरक्षक (de-facto) या विधितः संरक्षक (de-jure guardians) में अन्तर-

(1) वास्तविक संरक्षक विधि की दृष्टि में अवयस्क की सम्पत्ति का अभिरक्षक (Custodian) मात्र होता है। जबकि विधितः संरक्षक विधि की दृष्टि में अवयस्क की सम्पत्ति के वास्तविक संरक्षक होते हैं।

(2) अवयस्क की माता, भाई, चाचा आदि वस्तुतः संरक्षक होते हैं जब तक कि पिता या पितामह की वसीयत द्वारा उन्हें निष्पादक न बनाया गया हो, जबकि विधितः संरक्षक जिसे नैसर्गिक संरक्षक भी कहते हैं। इसके अन्तर्गत पिता, पिता के वसीयत द्वारा नियुक्त निष्पादक, पितामह व पितामह में निष्पादक ही आते हैं।

(3) अवयस्क की सम्पत्ति का संरक्षक या निष्पादक वसीयत द्वारा नियुक्त करने का हकदार केवल पिता और पितामह है। जबकि माता, भाई, चाचा द्वारा नियुक्त निष्पादक किसी अवयस्क की सम्पत्ति का वैध संरक्षक या निष्पादक नहीं हो सकता है।

 

Adv. Prem Kumar Nigam 

Mob. 9758516448

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