शीर्षक:
“Mens Rea का क्षरणः क्या नए कानून अपराध के उद्देश्य को भूल रहे हैं?”
परिचय
दंड विधि की नींव दो महत्वपूर्ण स्तंभों पर टिकी होती है — Actus Reus (अपराधमूलक कृत्य) और Mens Rea (अपराधिक मंशा)। इन दोनों के समन्वय से ही किसी व्यक्ति को अपराधी ठहराया जा सकता है। लेकिन बीते कुछ दशकों में अनेक नए कानूनों, विशेष रूप से आर्थिक, पर्यावरणीय और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े विधानों में Mens Rea की भूमिका धीरे-धीरे कमजोर होती जा रही है। यह स्थिति एक गंभीर विधिक विमर्श को जन्म देती है – क्या कानून अब अपराध की मूल भावना और न्याय की आत्मा को भुला रहे हैं?
Mens Rea: अपराध की आत्मा
Mens Rea लैटिन शब्द है जिसका अर्थ है – गिल्टी माइंड यानी अपराध करने की मानसिक मंशा। भारतीय दंड संहिता (IPC) और अन्य पारंपरिक अपराध कानूनों में Mens Rea की उपस्थिति आवश्यक मानी गई है। जैसे हत्या (Sec. 302), चोरी (Sec. 378), धोखाधड़ी (Sec. 420) आदि में अभियोजन को यह साबित करना होता है कि आरोपी ने न केवल आपराधिक कृत्य किया बल्कि उसकी मंशा भी दोषपूर्ण थी।
नए कानूनों में Mens Rea की क्षीण होती भूमिका
हाल के वर्षों में बने कई विशेष कानूनों जैसे –
- PMLA (Prevention of Money Laundering Act)
- NDPS Act (Narcotic Drugs and Psychotropic Substances Act)
- UAPA (Unlawful Activities Prevention Act)
- Environment Protection Act
- Companies Act, 2013
इनमें कई अपराध “strict liability” पर आधारित हैं, जहां अभियुक्त की आपराधिक मंशा (Mens Rea) की उपस्थिति सिद्ध करना आवश्यक नहीं होता। उदाहरणतः NDPS एक्ट के तहत अभियुक्त को दोषी ठहराने के लिए यह पर्याप्त है कि उसके पास मादक पदार्थ पाए गए – चाहे वह जानबूझकर हों या नहीं।
Strict Liability बनाम Mens Rea: न्यायिक संघर्ष
कानून में Strict Liability और Absolute Liability जैसे सिद्धांतों का उपयोग उन अपराधों में किया जाता है जहाँ जनहित और सुरक्षा सर्वोच्च मानी जाती है। परंतु जब ऐसे सिद्धांतों का अंधाधुंध प्रयोग होने लगता है, तब न्याय का संतुलन डगमगाने लगता है।
UAPA जैसे कानून में अभियुक्त की मंशा को दरकिनार कर, केवल संगठन से जुड़ाव या साहित्य रखने मात्र पर गिरफ्तारी हो सकती है, जो न्याय के मूलभूत सिद्धांत — “Innocent Until Proven Guilty” — का उल्लंघन करता है।
न्यायपालिका की चिंता
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भी कई मामलों में इस चिंता को उजागर किया है।
- Kedar Nath Singh v. State of Bihar (1962) में कोर्ट ने कहा कि केवल शब्दों से देशद्रोह नहीं सिद्ध होता, जब तक उसमें हिंसा या विद्रोह की मंशा न हो।
- Arup Bhuyan v. State of Assam (2011) में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि किसी संगठन से जुड़ाव तब तक अपराध नहीं है जब तक कोई आपराधिक कृत्य न हो या उसे करने की मंशा न हो।
यह स्पष्ट करता है कि न्यायपालिका Mens Rea के सिद्धांत को अब भी प्रासंगिक और आवश्यक मानती है।
कानून निर्माताओं की दुविधा: राष्ट्रीय सुरक्षा बनाम व्यक्तिगत स्वतंत्रता
वर्तमान समय में आतंकवाद, साइबर अपराध, आर्थिक अपराध और संगठित अपराधों ने अपराध की प्रकृति को बदल दिया है। कई बार अपराधी अपनी मंशा को छिपा लेते हैं या जटिल ढांचों के माध्यम से अपराध करते हैं, जिससे उनकी दोषपूर्ण मानसिकता को सिद्ध करना कठिन हो जाता है।
इसलिए विधायिका ने कुछ कानूनों में Mens Rea की शर्त को हटाकर या कमजोर करके अभियोजन की प्रक्रिया को सरल बनाया है। यद्यपि यह राष्ट्रीय सुरक्षा और सार्वजनिक हित के दृष्टिकोण से उचित प्रतीत होता है, लेकिन यह भी तय करना होगा कि इससे व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण न हो।
न्याय का संतुलन कैसे बने?
- विधायी विवेक: कानून बनाते समय यह सावधानी जरूरी है कि कब Mens Rea को अनिवार्य माना जाए और कब नहीं। सभी अपराधों को एक ही दृष्टिकोण से नहीं देखा जा सकता।
- न्यायिक परीक्षण: अदालतों को अधिकार होना चाहिए कि वे हर केस में यह देखें कि आरोपी की मंशा दोषपूर्ण थी या नहीं।
- मानवाधिकार की रक्षा: जब तक किसी व्यक्ति की दोषपूर्ण मानसिकता स्पष्ट न हो, तब तक उसे अपराधी मानना संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता) के विरुद्ध है।
- व्यक्तिगत और जनहित का संतुलन: यह सुनिश्चित करना होगा कि सुरक्षा सुनिश्चित करने की प्रक्रिया में निर्दोष व्यक्ति उत्पीड़न का शिकार न बने।
निष्कर्ष
Mens Rea केवल दंड विधान की तकनीकी शर्त नहीं है, बल्कि यह अपराध को नैतिक और कानूनी रूप से समझने की कुंजी है। जब कोई कानून अपराधी की मानसिक स्थिति को दरकिनार कर केवल क्रियात्मक आधार पर दंड देता है, तो वह न्याय की आत्मा से दूर चला जाता है।
आज जरूरत है कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका — तीनों इस सिद्धांत के महत्व को पुनः समझें और न्याय के उस संतुलन को बनाए रखें जहाँ अपराध की गंभीरता, उद्देश्य और व्यक्ति की मानसिक स्थिति — तीनों का समन्वय हो। कानून को सख्त होना चाहिए, लेकिन अंधा नहीं।
“जब न्याय केवल क्रिया पर केंद्रित हो जाए और मंशा को न देखे, तब दंड का उद्देश्य बदले की भावना बन जाता है — न कि सुधार और संतुलन।”