1. मीडिया कानून का अर्थ क्या है?
मीडिया कानून उन विधिक नियमों और सिद्धांतों का समूह है जो समाचार पत्र, टेलीविजन, रेडियो, सिनेमा, इंटरनेट और सोशल मीडिया जैसे मीडिया प्लेटफॉर्मों के संचालन को नियंत्रित करता है। इसका उद्देश्य सूचना के प्रसार को सुनिश्चित करना, पत्रकारिता की स्वतंत्रता की रक्षा करना और समाज के हित में अभिव्यक्ति की सीमाएं निर्धारित करना है। भारत में मीडिया कानून का आधार संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) में दी गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, जो कि मौलिक अधिकार है। हालांकि, यह स्वतंत्रता पूर्ण नहीं है और इसमें अनुच्छेद 19(2) के तहत कुछ युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाए गए हैं, जैसे – राष्ट्र की सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, अश्लीलता, मानहानि आदि। मीडिया कानून में प्रेस परिषद अधिनियम, सिनेमेटोग्राफ अधिनियम, सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम और मानहानि कानून आदि शामिल होते हैं।
2. प्रेस की स्वतंत्रता और इसकी संवैधानिक स्थिति क्या है?
भारत में प्रेस की स्वतंत्रता संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ में निहित है। यद्यपि संविधान में ‘प्रेस की स्वतंत्रता’ का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, परंतु सुप्रीम कोर्ट ने इसे अनुच्छेद 19(1)(a) का अभिन्न अंग माना है। यह स्वतंत्रता प्रेस को सरकार की आलोचना करने, भ्रष्टाचार उजागर करने और जनहित के मुद्दे उठाने की अनुमति देती है। किंतु यह स्वतंत्रता पूर्ण नहीं है। अनुच्छेद 19(2) के तहत सरकार कुछ वैध कारणों से इस पर प्रतिबंध लगा सकती है जैसे – भारत की अखंडता, नैतिकता, अदालत की अवमानना, मानहानि, राज्य की सुरक्षा आदि। स्वतंत्र प्रेस लोकतंत्र की रीढ़ है, जो सत्ता के दुरुपयोग पर नियंत्रण रखती है। परंतु, जब मीडिया असत्य सूचना या घृणा फैलाती है, तब उसे कानून के तहत उत्तरदायी भी ठहराया जा सकता है।
3. प्रेस परिषद अधिनियम, 1978 का उद्देश्य क्या है?
प्रेस परिषद अधिनियम, 1978 के तहत भारत सरकार ने प्रेस की स्वतंत्रता बनाए रखने, प्रेस में नैतिकता सुनिश्चित करने और जनहित की रक्षा हेतु ‘प्रेस परिषद’ की स्थापना की। यह एक वैधानिक निकाय है, जिसे प्रेस से संबंधित शिकायतों की जांच करने और अनुशासन बनाए रखने की शक्ति प्राप्त है। परिषद पत्रकारों, संपादकों और समाचार पत्र मालिकों को एक आचार संहिता के अंतर्गत कार्य करने के लिए प्रेरित करती है। इसका मुख्य कार्य पत्रकारिता के उच्च मानकों को प्रोत्साहित करना और प्रेस के दुरुपयोग को रोकना है। प्रेस परिषद का अध्यक्ष सर्वोच्च न्यायालय का सेवानिवृत्त न्यायाधीश होता है। यह परिषद अपने अधिकार क्षेत्र में स्वत: संज्ञान लेकर या प्राप्त शिकायतों पर निर्णय कर सकती है, हालांकि इसके निर्णय बाध्यकारी नहीं होते, बल्कि नैतिक रूप से प्रभावशाली माने जाते हैं।
4. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर कानूनों का प्रभाव क्या है?
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जैसे टेलीविजन और रेडियो पर भी भारतीय विधियों का व्यापक प्रभाव है। इन माध्यमों के लिए विशेष कानून और नियामक प्राधिकरण कार्यरत हैं, जैसे – भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (TRAI), प्रसार भारती अधिनियम, और सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय। इसके अतिरिक्त, सैटेलाइट चैनलों और केबल नेटवर्क के लिए ‘केबल टेलीविजन नेटवर्क (विनियमन) अधिनियम, 1995’ लागू होता है। यह अधिनियम विज्ञापनों, कार्यक्रमों और कंटेंट के लिए दिशानिर्देश प्रदान करता है, जिससे समाज में सौहार्द बना रहे और अश्लीलता या हिंसात्मक सामग्री रोकी जा सके। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(2) के अनुसार, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की स्वतंत्रता पर भी कुछ सीमित प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। कोर्ट ने समय-समय पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को ‘संतुलित रिपोर्टिंग’ की सलाह दी है ताकि वह जनभावनाओं को भड़काने का माध्यम न बने।
5. मीडिया और मानहानि कानून का संबंध क्या है?
मीडिया रिपोर्टिंग में मानहानि (Defamation) एक संवेदनशील मुद्दा है। जब कोई पत्रकार या मीडिया संस्थान झूठी या बिना प्रमाण के सूचना प्रसारित करता है जिससे किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा को नुकसान होता है, तो वह मानहानि का अपराध बनता है। भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 499 और 500 में मानहानि की परिभाषा और सजा का प्रावधान है। मीडिया की भूमिका सूचना देना है, न कि झूठ फैलाना। हालांकि पत्रकारिता में सत्य के आधार पर की गई आलोचना को न्यायोचित ठहराया जा सकता है, लेकिन यदि वह दुर्भावना से प्रेरित हो या झूठी हो, तो मानहानि की श्रेणी में आ जाती है। सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि प्रेस की स्वतंत्रता निरंकुश नहीं है और उसे समाज की मर्यादा और कानून के अनुरूप ही कार्य करना चाहिए।
6. मीडिया ट्रायल क्या है और इसका प्रभाव न्यायपालिका पर कैसा पड़ता है?
मीडिया ट्रायल एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें समाचार माध्यम किसी आरोपी या मामले की रिपोर्टिंग करते हुए उसे जनता की नजरों में दोषी या निर्दोष सिद्ध करने लगते हैं, जबकि मामला अभी न्यायालय में विचाराधीन होता है। यह पत्रकारिता की स्वतंत्रता की सीमा से आगे बढ़कर न्यायिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप का रूप ले लेता है। मीडिया ट्रायल कभी-कभी जनता की राय को प्रभावित कर सकता है, जिससे निष्पक्ष सुनवाई प्रभावित हो सकती है। यह ‘न्याय में देरी नहीं बल्कि न्याय में हस्तक्षेप’ का उदाहरण बन सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने भी चेताया है कि मीडिया को विचाराधीन मामलों में संयम बरतना चाहिए और न्याय प्रक्रिया को बाधित नहीं करना चाहिए। मीडिया को रिपोर्टिंग का अधिकार है, लेकिन वह न्यायालय का स्थान नहीं ले सकता। अतः मीडिया ट्रायल से न्यायपालिका की निष्पक्षता खतरे में पड़ सकती है।
7. सोशल मीडिया और कानून के बीच क्या संबंध है?
सोशल मीडिया जैसे फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम आदि पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रयोग होता है, लेकिन इसकी सीमाएं भी हैं। भारत में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (IT Act) के तहत नियंत्रित होते हैं। इसमें धारा 66A (जो अब निरस्त हो चुकी है), धारा 69A (वेबसाइटों को ब्लॉक करने की शक्ति) और अन्य प्रावधान शामिल हैं। सोशल मीडिया पर फेक न्यूज़, साइबर बुलिंग, धार्मिक घृणा, अश्लीलता या राष्ट्रविरोधी सामग्री को पोस्ट करना अपराध है। इसके लिए व्यक्ति को जेल और जुर्माने की सजा हो सकती है। भारत सरकार ने 2021 में “IT Rules” को और अधिक कड़ा बनाया, जिससे सोशल मीडिया कंपनियों पर जवाबदेही और पारदर्शिता बढ़ी। सोशल मीडिया का सही प्रयोग अभिव्यक्ति का माध्यम है, लेकिन अनुचित प्रयोग पर कानून कार्रवाई करता है।
8. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमाएं क्या हैं?
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत हर नागरिक को ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ प्राप्त है, लेकिन यह अधिकार पूर्ण नहीं है। अनुच्छेद 19(2) में इसके आठ युक्तियुक्त प्रतिबंध बताए गए हैं — जैसे राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों से संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता, अदालत की अवमानना, मानहानि, अपराध के लिए उकसावा, और भारत की संप्रभुता व अखंडता। इन सीमाओं के तहत यदि कोई व्यक्ति या मीडिया संस्थान झूठी सूचना फैलाता है, हिंसा भड़काता है या अदालत की गरिमा को ठेस पहुँचाता है, तो उस पर कानूनी कार्रवाई की जा सकती है। उदाहरण के लिए, कोई रिपोर्ट अगर समाज में सांप्रदायिक तनाव उत्पन्न करे, तो वह प्रतिबंध के दायरे में आ सकती है। इस प्रकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ दायित्व और जिम्मेदारी भी जुड़ी होती है।
9. केबल टेलीविजन नेटवर्क अधिनियम, 1995 क्या है?
‘केबल टेलीविजन नेटवर्क (विनियमन) अधिनियम, 1995’ का उद्देश्य केबल टीवी प्रसारण को विनियमित करना और उसमें सामाजिक, सांस्कृतिक व नैतिक संतुलन बनाए रखना है। यह अधिनियम यह सुनिश्चित करता है कि टीवी चैनलों द्वारा प्रसारित सामग्री अश्लील, हिंसक, घृणास्पद या राष्ट्रविरोधी न हो। इसमें विज्ञापनों, समाचार, धारावाहिकों और फिल्मों के लिए विशेष दिशानिर्देश जारी किए गए हैं। अधिनियम के तहत ‘प्रोग्राम कोड’ और ‘एडवर्टाइजिंग कोड’ निर्धारित किए गए हैं, जिनका पालन करना अनिवार्य है। यदि कोई चैनल या केबल ऑपरेटर इन नियमों का उल्लंघन करता है, तो सरकार उसे चेतावनी दे सकती है, चैनल बंद कर सकती है या लाइसेंस रद्द कर सकती है। यह कानून मीडिया की आज़ादी को नियंत्रित नहीं करता, बल्कि समाज के हित में मर्यादा बनाए रखने की दिशा में कार्य करता है।
10. प्रेस और न्यायालय के बीच संतुलन क्यों आवश्यक है?
प्रेस और न्यायपालिका दोनों लोकतंत्र के स्तंभ हैं। प्रेस को जानकारी देने और जनमत बनाने का अधिकार है, जबकि न्यायपालिका को निष्पक्ष निर्णय लेने का दायित्व है। यदि प्रेस, विचाराधीन मामलों में निर्णयात्मक भाषा का प्रयोग करता है या आरोपी को पहले ही दोषी साबित कर देता है, तो इससे निष्पक्ष सुनवाई बाधित हो सकती है। इसे ‘अदालत की अवमानना’ भी माना जा सकता है। अतः दोनों संस्थाओं के बीच संतुलन आवश्यक है। सुप्रीम कोर्ट ने कई बार कहा है कि मीडिया को जानकारी देने का अधिकार है, लेकिन निर्णय देने का नहीं। न्यायपालिका के कार्यों में बाधा उत्पन्न करने वाली रिपोर्टिंग से बचना चाहिए। संतुलन से दोनों संस्थाएं स्वतंत्र भी रहेंगी और जनता का विश्वास भी बना रहेगा।
11. प्रेस की नैतिकता क्या है?
प्रेस की नैतिकता से तात्पर्य उन मानकों और आदर्शों से है जिनका पत्रकारों को पालन करना चाहिए। इसमें सत्यता, निष्पक्षता, ईमानदारी, जनहित, संवेदनशीलता, और गोपनीयता जैसे मूल्य शामिल होते हैं। पत्रकारों को खबरों को बिना तोड़-मरोड़ के प्रस्तुत करना चाहिए और अफवाहों से बचना चाहिए। प्रेस परिषद द्वारा जारी ‘पत्रकार आचार संहिता’ एक मार्गदर्शक है, जिसमें बताया गया है कि समाचार लेखन करते समय क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए। पत्रकारिता का उद्देश्य केवल सनसनी फैलाना नहीं, बल्कि जागरूकता बढ़ाना, सत्ता को जवाबदेह बनाना और लोकतंत्र को मजबूत करना है। प्रेस की नैतिकता का पालन न करने पर पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है।
12. सिनेमेटोग्राफ अधिनियम, 1952 क्या है?
सिनेमेटोग्राफ अधिनियम, 1952 भारत में फिल्मों की सेंसरशिप को नियंत्रित करता है। इस अधिनियम के तहत ‘केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड’ (CBFC) का गठन हुआ है जो यह तय करता है कि कौन-सी फिल्में सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए उपयुक्त हैं। बोर्ड फिल्मों को U (सभी के लिए), U/A (अभिभावक की देखरेख में), A (केवल वयस्कों के लिए), और S (विशेष वर्ग) प्रमाणपत्र देता है। यदि कोई फिल्म देश की संप्रभुता, नैतिकता, धार्मिक भावनाओं या कानून-व्यवस्था के लिए खतरा उत्पन्न करती है, तो CBFC उसे अस्वीकृत कर सकती है या उसमें कटौती कर सकती है। यह अधिनियम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मान्यता देते हुए समाज के नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा करता है।
13. मीडिया और सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 का संबंध क्या है?
सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 (RTI Act) ने मीडिया को सशक्त बनाया है। इस अधिनियम के तहत कोई भी नागरिक सरकारी कार्यालयों से सूचना प्राप्त कर सकता है। पत्रकार और मीडिया संस्थान इस अधिकार का प्रयोग करके भ्रष्टाचार उजागर कर सकते हैं और जनहित के मुद्दों को प्रकाश में ला सकते हैं। RTI से पत्रकारों को प्राथमिक जानकारी मिलती है जिससे वे तथ्यों के साथ रिपोर्टिंग कर सकते हैं। इससे पारदर्शिता बढ़ती है और सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित होती है। मीडिया के लिए RTI एक सशक्त उपकरण है जो लोकतंत्र को मजबूती देता है। हालांकि, कुछ सूचनाएं (जैसे – राष्ट्रीय सुरक्षा, व्यक्तिगत जानकारी) इस अधिनियम के दायरे से बाहर होती हैं।
14. मीडिया पर अदालत की अवमानना कानून कैसे लागू होता है?
मीडिया को रिपोर्टिंग की स्वतंत्रता प्राप्त है, लेकिन यह स्वतंत्रता न्यायपालिका के सम्मान और अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं कर सकती। यदि कोई मीडिया संस्थान अदालत के आदेशों की अवहेलना करता है, झूठी या भ्रामक रिपोर्टिंग करता है जिससे न्याय प्रक्रिया प्रभावित होती है, तो उस पर ‘अवमानना’ की कार्यवाही हो सकती है। भारत में ‘अवमानना अधिनियम, 1971’ इस संबंध में लागू होता है। यह दो प्रकार की अवमानना को मान्यता देता है – ‘न्यायालय की अवमानना’ और ‘आदेश की अवमानना’। मीडिया संस्थानों को विचाराधीन मामलों में रिपोर्टिंग करते समय सावधानी बरतनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि मीडिया को ‘न्यायिक मर्यादा’ बनाए रखनी चाहिए, ताकि न्यायपालिका की निष्पक्षता और सम्मान सुरक्षित रह सके।
15. मीडिया और लोकतंत्र के बीच क्या संबंध है?
मीडिया को लोकतंत्र का “चौथा स्तंभ” कहा जाता है क्योंकि यह सरकार और जनता के बीच सेतु का कार्य करता है। मीडिया नागरिकों को सूचना देता है, नीतियों पर बहस कराता है और भ्रष्टाचार को उजागर करता है। यह जनता की आवाज को सरकार तक पहुंचाने में सहायक होता है। स्वतंत्र और निष्पक्ष मीडिया किसी भी लोकतंत्र की रीढ़ होती है। प्रेस की स्वतंत्रता से सत्ता पर नियंत्रण बना रहता है और लोकशाही में पारदर्शिता आती है। हालांकि मीडिया को निष्पक्ष और जिम्मेदार रहना चाहिए। जब मीडिया पूर्वाग्रहपूर्ण या भ्रामक सूचना देता है, तो यह लोकतंत्र को नुकसान पहुँचा सकता है। इसलिए, मीडिया की स्वतंत्रता और जवाबदेही दोनों आवश्यक हैं।
16. मीडिया और सेंसरशिप क्या है?
सेंसरशिप उस प्रक्रिया को कहते हैं जिसमें किसी सामग्री (जैसे फिल्म, टीवी शो, समाचार आदि) को सरकार या किसी अधिकृत संस्था द्वारा सार्वजनिक प्रदर्शन से पहले जांचा जाता है ताकि वह सामाजिक, धार्मिक, नैतिक या राष्ट्रीय सुरक्षा के दृष्टिकोण से आपत्तिजनक न हो। भारत में सेंसरशिप मुख्यतः ‘सिनेमेटोग्राफ अधिनियम, 1952’ और ‘केबल टेलीविजन नेटवर्क अधिनियम, 1995’ द्वारा नियंत्रित होती है। मीडिया की स्वतंत्रता के बावजूद, जब कोई सामग्री सार्वजनिक शांति, शालीनता, या देश की एकता को खतरे में डालती है, तो सेंसरशिप लागू की जाती है। हालांकि, अधिक सेंसरशिप अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश भी बन सकती है। इसीलिए अदालतों ने समय-समय पर यह स्पष्ट किया है कि सेंसरशिप का प्रयोग संतुलित और न्यायसंगत तरीके से होना चाहिए।
17. पीआईएल (जनहित याचिका) और मीडिया का संबंध क्या है?
जनहित याचिका (Public Interest Litigation – PIL) एक ऐसा विधिक माध्यम है जिससे कोई भी व्यक्ति सामाजिक या जनहित के मुद्दों को न्यायालय के समक्ष ला सकता है, भले ही वह स्वयं उससे प्रभावित न हो। मीडिया जनहित याचिकाओं की जानकारी को जनता तक पहुंचाने और सामाजिक सुधार हेतु जागरूकता फैलाने का काम करता है। मीडिया द्वारा उठाए गए मुद्दे कई बार PIL के रूप में अदालत में प्रस्तुत होते हैं। उदाहरण के लिए, पर्यावरण प्रदूषण, महिला सुरक्षा, बाल श्रम आदि पर मीडिया रिपोर्टिंग के आधार पर कई PIL दायर हुई हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी माना है कि मीडिया PIL के माध्यम से जन-जागरूकता और न्याय प्राप्ति के क्षेत्र में सहायक होता है। परंतु PIL को सनसनी फैलाने या व्यक्तिगत लाभ के लिए दुरुपयोग नहीं किया जाना चाहिए।
18. मीडिया में फेक न्यूज की समस्या और कानूनी उपाय क्या हैं?
फेक न्यूज का अर्थ है – जानबूझकर गलत, भ्रामक या झूठी जानकारी फैलाना। सोशल मीडिया, व्हाट्सऐप, ब्लॉग्स और वेबसाइट्स के माध्यम से यह तेजी से फैलती है। इससे सामाजिक सौहार्द, सार्वजनिक व्यवस्था और लोकतंत्र को नुकसान पहुंच सकता है। भारत में फेक न्यूज से निपटने के लिए IPC की विभिन्न धाराएं (जैसे 153A, 505), IT Act की धारा 66 और 69A, और मीडिया नियमन से संबंधित दिशानिर्देश लागू होते हैं। सरकार ने फेक न्यूज की पहचान और रोकथाम के लिए फैक्ट-चेक पोर्टल और डिजिटल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के लिए दिशा-निर्देश भी जारी किए हैं। मीडिया संस्थानों और नागरिकों की जिम्मेदारी है कि वे खबरों को सत्यापन के बाद ही साझा करें, ताकि समाज में अफवाह और घृणा न फैले।
19. डिजिटल मीडिया पर नियमन की आवश्यकता क्यों है?
डिजिटल मीडिया में वेबसाइट्स, यूट्यूब चैनल्स, ऑनलाइन न्यूज़ पोर्टल्स और सोशल मीडिया शामिल हैं, जो बिना किसी संपादकीय नियंत्रण के व्यापक रूप से सामग्री प्रसारित करते हैं। यह मीडिया स्वतंत्र और सुलभ है, लेकिन इसके दुरुपयोग की संभावना भी अधिक है। फेक न्यूज, धार्मिक विद्वेष, अश्लीलता और चरमपंथी विचारधाराएं डिजिटल मीडिया के माध्यम से आसानी से फैल सकती हैं। इसी कारण भारत सरकार ने 2021 में “IT (Intermediary Guidelines and Digital Media Ethics Code) Rules” लागू किए, जिसमें डिजिटल प्लेटफॉर्म्स के लिए जवाबदेही तय की गई। इन नियमों के तहत OTT और न्यूज़ पोर्टलों को आचार संहिता का पालन करना आवश्यक है, और सरकार को आपत्तिजनक कंटेंट हटाने का अधिकार भी प्राप्त है। इससे डिजिटल स्वतंत्रता और सामाजिक जिम्मेदारी के बीच संतुलन बना रहता है।
20. मीडिया और नैतिक पत्रकारिता में क्या संबंध है?
नैतिक पत्रकारिता का तात्पर्य ऐसी पत्रकारिता से है जो सत्य, निष्पक्षता, जनहित, और मानवीय गरिमा का पालन करती है। मीडिया को लोकतंत्र का प्रहरी कहा जाता है, परंतु यदि वह सनसनी फैलाने, पूर्वाग्रहपूर्ण या व्यक्तिगत लाभ के लिए झूठी खबरें प्रसारित करे, तो यह नैतिक पत्रकारिता का उल्लंघन होता है। प्रेस परिषद और अन्य संस्थाएं पत्रकारिता के लिए आचार संहिता तय करती हैं, जैसे कि अफवाहों से बचाव, पीड़ितों की पहचान की गोपनीयता, और विज्ञापनों तथा समाचारों का पृथक्करण। मीडिया को समाज की संवेदनाओं का ध्यान रखते हुए संतुलित व जिम्मेदार रिपोर्टिंग करनी चाहिए। नैतिक पत्रकारिता न केवल जनता का विश्वास बनाए रखती है, बल्कि समाज में शांति और विकास को भी प्रोत्साहित करती है।
21. मीडिया के लिए प्रेस परिषद के दिशा-निर्देश क्या हैं?
प्रेस परिषद भारत में प्रिंट मीडिया की निगरानी और मार्गदर्शन के लिए गठित एक वैधानिक संस्था है, जो पत्रकारिता की नैतिकता बनाए रखने हेतु दिशा-निर्देश जारी करती है। इसके निर्देशों में सत्यता की पुष्टि, अफवाहों से बचाव, अश्लील या घृणास्पद सामग्री से दूरी, पीड़ितों की गोपनीयता की रक्षा, और न्यायिक प्रक्रिया के मामलों में संयमित रिपोर्टिंग जैसे बिंदु शामिल हैं। प्रेस परिषद मीडिया संस्थानों को निष्पक्ष, जिम्मेदार और समाज के हित में रिपोर्टिंग के लिए प्रेरित करता है। इसके दिशा-निर्देश बाध्यकारी नहीं होते, लेकिन पत्रकारिता में नैतिक अनुशासन स्थापित करते हैं। यदि कोई समाचार पत्र या पत्रकार इन मानकों का उल्लंघन करता है, तो परिषद सार्वजनिक रूप से उसकी निंदा कर सकती है।
22. मीडिया और सूचनात्मक रिपोर्टिंग में अंतर क्या है?
सूचनात्मक रिपोर्टिंग एक ऐसी पत्रकारिता शैली है जिसमें तथ्यों को निष्पक्ष रूप से प्रस्तुत किया जाता है, बिना किसी व्यक्तिगत राय, पूर्वाग्रह या विश्लेषण के। इसका उद्देश्य पाठक को तथ्यात्मक जानकारी देना होता है। दूसरी ओर, मीडिया कभी-कभी भावनात्मक, सनसनीखेज और पूर्वाग्रह से प्रेरित रिपोर्टिंग करता है, जिसे व्याख्यात्मक रिपोर्टिंग या पक्षपाती पत्रकारिता भी कहा जाता है। सूचनात्मक रिपोर्टिंग में डेटा, तिथियां, नाम, स्थान आदि स्पष्ट होते हैं, और यह पाठक को स्वयं निष्कर्ष निकालने की स्वतंत्रता देता है। निष्पक्ष और तथ्यपरक रिपोर्टिंग लोकतंत्र की मजबूती के लिए अत्यंत आवश्यक है, जबकि पक्षपाती रिपोर्टिंग समाज में भ्रम और वैमनस्य पैदा कर सकती है।
23. मीडिया की भूमिका चुनाव प्रक्रिया में क्या होती है?
मीडिया चुनावों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह मतदाताओं को राजनीतिक दलों के घोषणापत्र, उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि, प्रमुख मुद्दों और मतदान प्रक्रिया की जानकारी प्रदान करता है। मीडिया चुनाव प्रचार, जनमत संग्रह और बहसों के माध्यम से जनता को सूचित और जागरूक बनाता है। हालांकि, चुनाव आयोग ने आचार संहिता के तहत मीडिया को चुनावों के दौरान संतुलित, निष्पक्ष और तथ्यपरक रिपोर्टिंग करने के निर्देश दिए हैं। ‘पेड न्यूज’ और ‘फेक न्यूज’ जैसे खतरे भी चुनावों में मीडिया की निष्पक्षता को प्रभावित कर सकते हैं। चुनाव आयोग मीडिया निगरानी समितियों के माध्यम से मीडिया की निगरानी करता है। निष्पक्ष मीडिया स्वस्थ लोकतंत्र और स्वतंत्र चुनाव प्रक्रिया के लिए अनिवार्य है।
24. पेड न्यूज क्या है और यह कैसे लोकतंत्र को प्रभावित करता है?
पेड न्यूज उस स्थिति को कहते हैं जब कोई राजनीतिक दल, उम्मीदवार या संस्था किसी समाचार माध्यम को पैसा देकर अपनी छवि सुधारने या प्रतिद्वंदी को बदनाम करने हेतु खबर प्रकाशित कराता है। यह खबर आम पाठक को विज्ञापन नहीं, बल्कि सामान्य समाचार के रूप में प्रस्तुत की जाती है। पेड न्यूज लोकतंत्र के लिए खतरनाक है क्योंकि यह मतदाताओं को भ्रमित करता है, निष्पक्ष चुनाव प्रक्रिया को बाधित करता है और पत्रकारिता की साख को नुकसान पहुंचाता है। चुनाव आयोग और प्रेस परिषद ने पेड न्यूज को गैरकानूनी और अनैतिक माना है। यदि किसी उम्मीदवार के खिलाफ पेड न्यूज प्रमाणित हो जाती है, तो उसे चुनाव व्यय में जोड़ा जाता है। मीडिया की निष्पक्षता ही उसकी सबसे बड़ी पूंजी है, जिसे पेड न्यूज से बचाकर रखा जाना चाहिए।
25. मीडिया का संवैधानिक महत्व क्या है?
भारतीय संविधान में मीडिया की स्वतंत्रता का कोई अलग प्रावधान नहीं है, लेकिन अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में प्रेस की स्वतंत्रता को भी शामिल किया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने कई निर्णयों में स्पष्ट किया है कि प्रेस की स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ही विस्तार है। मीडिया को जानकारी प्राप्त करने, विचार व्यक्त करने और सूचना प्रसारित करने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है। साथ ही, अनुच्छेद 19(2) में इसके सीमाएं भी निर्धारित की गई हैं जैसे — सार्वजनिक व्यवस्था, मानहानि, शालीनता आदि। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में प्रेस नागरिकों को सशक्त बनाने, सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करने और लोकतंत्र को जीवंत बनाए रखने का कार्य करता है।
26. भारतीय दंड संहिता (IPC) और मीडिया का क्या संबंध है?
भारतीय दंड संहिता (IPC) मीडिया से संबंधित कई अपराधों और उनके दंड को परिभाषित करती है। मीडिया रिपोर्टिंग में यदि कोई जानकारी मानहानि (धारा 499), अफवाह (धारा 505), धार्मिक भावनाओं को आहत करने (धारा 295A), या सार्वजनिक उपद्रव (धारा 153A) को जन्म देती है, तो वह अपराध की श्रेणी में आ सकती है। उदाहरण के लिए, किसी समाचार चैनल द्वारा बिना पुष्टि के प्रसारित झूठी सूचना यदि सांप्रदायिक तनाव फैला दे, तो उस पर आपराधिक मामला दर्ज हो सकता है। मीडिया की स्वतंत्रता का उपयोग करते समय उसे इन आपराधिक प्रावधानों का ध्यान रखना आवश्यक है। हालांकि प्रेस को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिली है, लेकिन जब वह कानून का उल्लंघन करता है, तब IPC के अंतर्गत उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। इसलिए, मीडिया को तथ्यात्मक, संतुलित और संवेदनशील रिपोर्टिंग करनी चाहिए।
27. मीडिया और गोपनीयता के अधिकार (Right to Privacy) का संबंध क्या है?
गोपनीयता का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति का मूल अधिकार है जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में एक ऐतिहासिक फैसले में अनुच्छेद 21 के अंतर्गत माना है। मीडिया को जानकारी साझा करने की स्वतंत्रता है, परंतु यह स्वतंत्रता किसी व्यक्ति की निजी जिंदगी में अतिक्रमण नहीं कर सकती। जैसे – बलात्कार पीड़िता की पहचान उजागर करना, किसी की निजी बातचीत प्रसारित करना या बिना अनुमति के किसी का व्यक्तिगत वीडियो दिखाना गोपनीयता का उल्लंघन माना जाता है। भारतीय दंड संहिता और IT अधिनियम के तहत भी इस प्रकार की हरकतों पर दंडात्मक प्रावधान हैं। मीडिया को रिपोर्टिंग करते समय व्यक्ति की गरिमा, निजता और संवेदनशीलता का सम्मान करना चाहिए। गोपनीयता और प्रेस स्वतंत्रता के बीच संतुलन बनाए रखना लोकतंत्र के लिए आवश्यक है।
28. मीडिया और सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के अंतर्गत पत्रकारों की भूमिका क्या है?
सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 (RTI) ने पत्रकारों को पारदर्शिता और सत्य के लिए एक मजबूत औजार प्रदान किया है। इसके तहत पत्रकार सरकारी विभागों से जानकारी मांग सकते हैं और उसे जनता के समक्ष ला सकते हैं। पत्रकार इस अधिकार का प्रयोग भ्रष्टाचार उजागर करने, नीतियों की समीक्षा करने और जनहित के मामलों पर सटीक रिपोर्टिंग के लिए करते हैं। RTI पत्रकारिता में तथ्यात्मकता और विश्वसनीयता को बढ़ाता है। कई प्रमुख घोटाले जैसे – 2G स्पेक्ट्रम, आदर्श घोटाला आदि की जानकारी RTI के माध्यम से ही सामने आई। हालांकि, RTI का दुरुपयोग न हो, इसका ध्यान रखना भी आवश्यक है। पत्रकारों को सूचना प्राप्त करने के साथ-साथ उसे संवेदनशीलता, सत्यता और निष्पक्षता के साथ प्रस्तुत करना चाहिए।
29. प्रेस की आज़ादी बनाम राष्ट्रीय सुरक्षा – संतुलन कैसे बनाएं?
प्रेस की आज़ादी और राष्ट्रीय सुरक्षा दोनों लोकतंत्र के आवश्यक घटक हैं। अनुच्छेद 19(1)(a) प्रेस को स्वतंत्रता देता है, जबकि अनुच्छेद 19(2) राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे विषयों पर युक्तियुक्त प्रतिबंध की अनुमति देता है। मीडिया को राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी जानकारी जैसे सैन्य योजनाएं, सीमा से संबंधित संवेदनशील विवरण आदि को सार्वजनिक करने से परहेज करना चाहिए। ऐसा करने से देश की सुरक्षा पर खतरा उत्पन्न हो सकता है। उदाहरणस्वरूप, पठानकोट हमले के दौरान मीडिया द्वारा लाइव रिपोर्टिंग ने सुरक्षा बलों की रणनीति को उजागर कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट और सरकार समय-समय पर मीडिया को सलाह देती है कि वह संवेदनशील मामलों में संयमित और जिम्मेदार रिपोर्टिंग करें। संतुलन का तात्पर्य यह है कि प्रेस जनता को सूचित भी करे, लेकिन राष्ट्रीय हितों को आघात न पहुँचाए।
30. प्रसार भारती अधिनियम, 1990 क्या है और इसका उद्देश्य क्या है?
प्रसार भारती अधिनियम, 1990 भारत सरकार द्वारा संसद में पारित एक कानून है जिसके तहत ‘प्रसार भारती’ नामक स्वायत्त संस्था की स्थापना की गई। इसका उद्देश्य दूरदर्शन और आकाशवाणी को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करके एक स्वतंत्र सार्वजनिक प्रसारण सेवा के रूप में विकसित करना था। यह संस्था समाचार, शिक्षा, मनोरंजन, संस्कृति और लोकहित से संबंधित कार्यक्रमों का प्रसारण करती है। प्रसार भारती का उद्देश्य निष्पक्ष, संतुलित और विविधता से भरपूर सामग्री प्रस्तुत करना है जिससे जनता में जागरूकता और एकता बढ़े। यद्यपि यह सरकार द्वारा वित्त पोषित है, फिर भी इसे संपादकीय स्वतंत्रता प्राप्त है। यह संस्था मीडिया की स्वतंत्रता और जवाबदेही के बीच संतुलन स्थापित करती है।
31. आपराधिक मानहानि बनाम प्रेस स्वतंत्रता में क्या अंतर है?
प्रेस को आलोचना करने, सत्ताधारियों की जांच करने और स्वतंत्र विचार प्रकट करने की स्वतंत्रता प्राप्त है। परंतु जब कोई समाचार या रिपोर्ट किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा को जानबूझकर या लापरवाही से ठेस पहुंचाती है, तो वह आपराधिक मानहानि के अंतर्गत आ सकती है। IPC की धारा 499 और 500 इस अपराध को परिभाषित करती हैं। पत्रकारिता का उद्देश्य तथ्यों के आधार पर सत्य को उजागर करना है, न कि किसी की छवि खराब करना। सुप्रीम कोर्ट ने 2016 में आपराधिक मानहानि की वैधता को बरकरार रखते हुए कहा कि प्रेस स्वतंत्रता निरंकुश नहीं हो सकती। अतः पत्रकारों को तथ्य जांचने, निष्पक्ष रिपोर्टिंग करने और निजता का सम्मान करने जैसे सिद्धांतों का पालन करना चाहिए ताकि प्रेस स्वतंत्रता और व्यक्तिगत प्रतिष्ठा में संतुलन बना रहे।
32. कंटेंट रेगुलेशन और OTT प्लेटफॉर्म पर सरकार की भूमिका क्या है?
OTT प्लेटफॉर्म जैसे Netflix, Amazon Prime, Hotstar आदि डिजिटल माध्यम से फिल्मों, वेबसीरीज और डॉक्यूमेंट्री का प्रसारण करते हैं। इन पर पहले कोई स्पष्ट रेगुलेशन नहीं था, जिससे कई बार आपत्तिजनक, अश्लील या धार्मिक रूप से संवेदनशील कंटेंट प्रसारित हुआ। इसे नियंत्रित करने हेतु सरकार ने फरवरी 2021 में “IT Rules, 2021” लागू किए। इसके तहत OTT प्लेटफॉर्म्स को ग्रेडेड कंटेंट क्लासिफिकेशन (U, U/A, A) अपनाने, शिकायत निवारण अधिकारी नियुक्त करने और सरकारी दिशा-निर्देशों का पालन करने की बाध्यता दी गई। ये नियम दर्शकों की भावनाओं और संवैधानिक मर्यादाओं की रक्षा करने के उद्देश्य से लागू किए गए हैं। इससे दर्शकों के अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच संतुलन बनाए रखना संभव होता है।
33. मीडिया की जवाबदेही (Accountability) क्यों जरूरी है?
मीडिया समाज को सूचना देने, सच्चाई उजागर करने और लोकतंत्र को मजबूत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। परंतु जब मीडिया असत्य, पक्षपातपूर्ण या भ्रामक सूचना देता है, तब उसकी जवाबदेही (Accountability) अनिवार्य हो जाती है। जवाबदेही का तात्पर्य है कि मीडिया अपनी रिपोर्टिंग के लिए उत्तरदायी हो और आलोचना या कानूनी कार्यवाही का सामना करने को तैयार रहे। प्रेस परिषद, कोर्ट, सूचना आयोग और जनता के माध्यम से मीडिया की निगरानी होती है। लोकतंत्र में शक्ति के साथ जवाबदेही आवश्यक होती है। जवाबदेही से मीडिया की विश्वसनीयता बढ़ती है, और वह एक जिम्मेदार लोकतांत्रिक संस्था के रूप में स्थापित होता है।
34. मीडिया के अधिकारों की सीमाएं क्या हैं?
मीडिया को संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त है, परंतु यह स्वतंत्रता अनुच्छेद 19(2) के तहत सीमित भी है। मीडिया देश की सुरक्षा, नैतिकता, मानहानि, सार्वजनिक व्यवस्था, और न्यायपालिका की गरिमा को प्रभावित करने वाले विषयों पर रिपोर्ट करते समय संयम बरतने को बाध्य है। उदाहरण के लिए – किसी आरोपी को अदालत द्वारा दोषी ठहराए बिना मीडिया द्वारा दोषी करार देना अवमानना की श्रेणी में आ सकता है। अश्लील सामग्री, घृणास्पद भाषण, अफवाह या फेक न्यूज पर भी कानूनी प्रतिबंध हैं। इसलिए मीडिया को स्वतंत्रता के साथ अपनी सामाजिक और कानूनी जिम्मेदारी निभानी होती है।
35. मीडिया और बच्चों के अधिकार के बीच संतुलन कैसे बनाएं?
बच्चों से जुड़े मामलों जैसे – यौन शोषण, बाल अपराध, बाल विवाह या शोषण की रिपोर्टिंग करते समय मीडिया को विशेष सतर्कता रखनी होती है। POCSO Act, 2012 के तहत किसी पीड़ित बच्चे की पहचान उजागर करना कानूनन अपराध है। बाल अपराधी के नाम, फोटो या परिवार के विवरण देना भी प्रतिबंधित है। इसके अलावा, मीडिया को बच्चों के मानसिक और भावनात्मक विकास का ध्यान रखते हुए अश्लील या हिंसक सामग्री प्रसारित करने से भी बचना चाहिए। बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए “राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग” (NCPCR) कार्य करता है जो मीडिया की रिपोर्टिंग पर नजर रखता है। मीडिया को चाहिए कि वह बच्चों के मुद्दों को संवेदनशीलता और जिम्मेदारी के साथ प्रस्तुत करे, ताकि उनके अधिकारों का उल्लंघन न हो।
36. मीडिया और सांप्रदायिक सद्भाव – एक जिम्मेदारीपूर्ण भूमिका कैसे निभाए?
मीडिया समाज में जनमत निर्माण का एक शक्तिशाली साधन है। इसलिए उसे ऐसी खबरें प्रसारित करने में अत्यधिक सतर्कता बरतनी चाहिए जो सांप्रदायिक तनाव उत्पन्न कर सकती हैं। झूठी या भड़काऊ खबरें दो समुदायों के बीच वैमनस्य पैदा कर सकती हैं। भारतीय दंड संहिता की धारा 153A और 295A ऐसे कार्यों को दंडनीय बनाती हैं जो धर्म, जाति, भाषा आदि के आधार पर द्वेष फैलाएं। प्रेस परिषद ने भी इस संदर्भ में दिशा-निर्देश दिए हैं कि मीडिया रिपोर्टिंग करते समय किसी धार्मिक या संवेदनशील मुद्दे को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत न किया जाए। मीडिया को सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखने हेतु सटीक, निष्पक्ष और संयमित भाषा का प्रयोग करना चाहिए। सांप्रदायिक शांति लोकतंत्र की नींव है और मीडिया की जिम्मेदारी है कि वह समाज को जोड़ने का कार्य करे, न कि विभाजन का।
37. लाइव रिपोर्टिंग की विधिक सीमाएं क्या हैं?
लाइव रिपोर्टिंग समाचार की ताजगी और विश्वसनीयता बढ़ाती है, परंतु इसके भी कानूनी और नैतिक प्रतिबंध होते हैं। विशेषतः सुरक्षा से जुड़े मामलों जैसे आतंकवादी हमले, सैन्य ऑपरेशन या बचाव अभियान में लाइव रिपोर्टिंग रणनीतिक जानकारी को उजागर कर सकती है, जिससे जान-माल की हानि हो सकती है। उदाहरण के लिए 26/11 मुंबई हमले में मीडिया द्वारा की गई लाइव कवरेज ने आतंकवादियों को सुरक्षाबलों की स्थिति की जानकारी दी। सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी रिपोर्टिंग पर चिंता जताई थी। ‘केबल टेलीविजन नेटवर्क अधिनियम’ और ‘आपदा प्रबंधन अधिनियम’ के तहत सरकार को ऐसे मामलों में प्रसारण पर नियंत्रण का अधिकार है। मीडिया को संवेदनशील मुद्दों पर लाइव रिपोर्टिंग करते समय राष्ट्रीय सुरक्षा, पीड़ितों की निजता और जांच प्रक्रिया का सम्मान करना चाहिए।
38. मीडिया और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 का संबंध क्या है?
सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (IT Act) भारत में साइबर कानून को नियंत्रित करता है। डिजिटल मीडिया और सोशल मीडिया इसके दायरे में आते हैं। धारा 66 (कंप्यूटर अपराध), धारा 67 (अश्लील सामग्री का प्रकाशन), और धारा 69A (वेबसाइट ब्लॉकिंग) जैसे प्रावधान मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर लागू होते हैं। यदि कोई न्यूज़ पोर्टल, यूट्यूब चैनल या ब्लॉग फर्जी खबर, नफरत फैलाने वाली पोस्ट या अश्लील सामग्री प्रकाशित करता है, तो IT Act के तहत कार्रवाई की जा सकती है। 2021 में सरकार ने IT Rules लागू किए, जिससे डिजिटल मीडिया पर निगरानी और जवाबदेही की प्रणाली मजबूत हुई। मीडिया संस्थानों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनका कंटेंट कानूनी और नैतिक मानकों के अनुरूप हो।
39. भारतीय संविधान में मीडिया की भूमिका का महत्व क्या है?
भारतीय संविधान में मीडिया का प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं है, लेकिन अनुच्छेद 19(1)(a) में दी गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत प्रेस और मीडिया की स्वतंत्रता समाहित मानी जाती है। मीडिया को निष्पक्ष रूप से सूचना प्रदान करने, सरकार की नीतियों की समीक्षा करने और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा हेतु आलोचना करने का अधिकार है। यह लोकतंत्र के लिए आवश्यक है कि प्रेस स्वतंत्र रूप से कार्य कर सके। मीडिया जनता और सरकार के बीच संवाद का माध्यम है और लोकतांत्रिक प्रणाली में पारदर्शिता बनाए रखने में सहायक है। संविधान के अनुच्छेद 19(2) में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कुछ प्रतिबंध हैं, जिनका मीडिया को पालन करना होता है। इस प्रकार, संविधान मीडिया को स्वतंत्रता तो देता है, साथ ही जिम्मेदारी भी निर्धारित करता है।
40. मीडिया और न्यायिक गोपनीयता का संतुलन कैसे बनाए रखें?
न्यायालय में विचाराधीन मामलों की रिपोर्टिंग करते समय मीडिया को न्यायिक गोपनीयता (judicial confidentiality) का विशेष ध्यान रखना चाहिए। यदि कोई मामला सब-जुडिस (under trial) है, तो उस पर पूर्वाग्रहयुक्त रिपोर्टिंग न्याय प्रक्रिया को प्रभावित कर सकती है। मीडिया ट्रायल से अभियुक्त का पक्ष न्यायालय में कमजोर हो सकता है, जिससे निष्पक्ष सुनवाई बाधित होती है। सुप्रीम कोर्ट ने कई बार मीडिया को चेताया है कि वह ‘न्यायालय का निर्णय’ स्वयं न दे, बल्कि केवल तथ्यात्मक जानकारी तक सीमित रहे। प्रेस को निष्पक्ष, संतुलित और बिना हस्तक्षेप के रिपोर्टिंग करनी चाहिए ताकि न्यायालय अपना कार्य स्वतंत्र रूप से कर सके। न्यायिक गोपनीयता न्याय की मूल भावना का हिस्सा है और मीडिया को उसका सम्मान करना चाहिए।
41. मीडिया और राष्ट्रद्रोह कानून (Sedition Law) का क्या संबंध है?
भारतीय दंड संहिता की धारा 124A के तहत राष्ट्रद्रोह (Sedition) वह अपराध है जिसमें कोई व्यक्ति या संस्था भारत सरकार के खिलाफ घृणा, अवमानना या असंतोष को बढ़ावा देता है। मीडिया रिपोर्टिंग में यदि कोई समाचार या लेख सरकार को अस्थिर करने, हिंसा भड़काने या देश की संप्रभुता को चुनौती देने का कार्य करता है, तो वह राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में आ सकता है। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि असहमति या आलोचना मात्र राष्ट्रद्रोह नहीं है, जब तक कि वह हिंसा के लिए प्रेरित न करे। प्रेस को लोकतांत्रिक व्यवस्था में आलोचना करने का अधिकार है, लेकिन वह राष्ट्रविरोधी कार्यवाही का माध्यम नहीं बन सकता। अतः मीडिया को विवेकपूर्ण और जिम्मेदार रिपोर्टिंग करनी चाहिए।
42. समाचार की तथ्य-जांच (Fact-Checking) क्यों जरूरी है?
तथ्य-जांच (Fact-checking) पत्रकारिता की गुणवत्ता और विश्वसनीयता का आधार है। फर्जी समाचार (Fake News) समाज में भ्रम, घृणा और तनाव उत्पन्न कर सकते हैं। सोशल मीडिया के युग में गलत सूचनाएं तेजी से फैलती हैं, जिससे मीडिया की भूमिका और अधिक जिम्मेदार बन जाती है। किसी भी समाचार के प्रकाशन से पहले उसके स्रोत, संदर्भ और प्रामाणिकता की जांच करना अनिवार्य है। भारत सरकार ने “PIB Fact Check” जैसे तंत्र विकसित किए हैं जो फेक न्यूज को पहचानने में सहायता करते हैं। पत्रकारों और मीडिया संस्थानों को प्रशिक्षित फैक्ट-चेकिंग प्रणाली अपनानी चाहिए ताकि वे अपने पाठकों को सही और प्रमाणिक जानकारी प्रदान कर सकें। इससे न केवल मीडिया की साख बनी रहती है बल्कि लोकतंत्र भी मजबूत होता है।
43. मीडिया और बाल यौन शोषण के प्रकरणों की रिपोर्टिंग कैसे होनी चाहिए?
बाल यौन शोषण के मामलों की रिपोर्टिंग करते समय मीडिया को POCSO Act, 2012 के प्रावधानों का पालन करना अनिवार्य है। इस अधिनियम के तहत किसी भी पीड़ित बच्चे की पहचान उजागर करना कानूनी अपराध है, चाहे वह नाम, तस्वीर, स्कूल, पता या अन्य पहचान संबंधी जानकारी हो। मीडिया को ऐसे मामलों में संवेदनशीलता और गोपनीयता बनाए रखते हुए तथ्यों को प्रस्तुत करना चाहिए। रिपोर्टिंग का उद्देश्य न्याय दिलाना और जागरूकता फैलाना होना चाहिए, न कि सनसनी फैलाना। प्रेस परिषद और राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) ने इस संबंध में स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी किए हैं। बच्चों के अधिकारों की रक्षा मीडिया की नैतिक और कानूनी जिम्मेदारी है।
44. मीडिया की सामाजिक जिम्मेदारियाँ क्या हैं?
मीडिया की सामाजिक जिम्मेदारियाँ केवल सूचना देना भर नहीं हैं, बल्कि समाज में जागरूकता फैलाना, सकारात्मक सोच विकसित करना और शांति-सद्भाव बनाए रखना भी है। उसे झूठी, सनसनीखेज और विभाजनकारी खबरों से परहेज करना चाहिए। मीडिया को शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, महिला सशक्तिकरण जैसे विषयों को प्राथमिकता देनी चाहिए। समाज में जब कोई आपदा, दंगा या महामारी जैसी स्थिति उत्पन्न होती है, तब मीडिया की भूमिका और अधिक बढ़ जाती है। सही जानकारी, राहत और बचाव से जुड़ी सूचनाएं और अफवाहों का खंडन मीडिया की जिम्मेदार भूमिका को दर्शाता है। इस प्रकार, मीडिया केवल लोकतंत्र का प्रहरी ही नहीं, बल्कि सामाजिक विकास का भी माध्यम है।
45. मीडिया और ट्रायल बाय मीडिया (Trial by Media) – प्रभाव और समस्याएं क्या हैं?
“ट्रायल बाय मीडिया” वह स्थिति होती है जब कोई मामला न्यायालय में लंबित हो, और मीडिया अपनी रिपोर्टिंग द्वारा आरोपी को पहले ही दोषी या निर्दोष घोषित कर दे। यह न्यायिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप माना जाता है और इससे निष्पक्ष सुनवाई बाधित होती है। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा है कि मीडिया का कार्य रिपोर्ट करना है, निर्णय देना नहीं। ट्रायल बाय मीडिया आरोपी की प्रतिष्ठा, जीवन और न्याय के अधिकार को प्रभावित कर सकता है। यह न्यायालय की अवमानना की श्रेणी में भी आ सकता है। मीडिया को न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र का सम्मान करते हुए संतुलित, निष्पक्ष और संवेदनशील रिपोर्टिंग करनी चाहिए। मीडिया की शक्ति के साथ उसकी जिम्मेदारी भी जुड़ी होती है।
46. मीडिया और अदालत की अवमानना (Contempt of Court) के बीच क्या संबंध है?
मीडिया को स्वतंत्र रूप से कार्य करने का अधिकार है, परंतु यह स्वतंत्रता न्यायालय की गरिमा और निष्पक्षता को प्रभावित नहीं कर सकती। जब कोई समाचार संस्था न्यायालय की कार्यवाही का गलत चित्रण करती है या न्यायाधीशों के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करती है, तो यह अवमानना मानी जाती है। भारत में Contempt of Courts Act, 1971 के तहत यदि कोई व्यक्ति या संस्था न्यायालय के आदेशों की अवहेलना करता है या उसकी निष्पक्षता पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है, तो उसके विरुद्ध अवमानना की कार्यवाही की जा सकती है। मीडिया को चाहिए कि वह विचाराधीन मामलों में संयम बरते, केवल तथ्य प्रस्तुत करे, और न्यायपालिका की गरिमा बनाए रखे। सुप्रीम कोर्ट ने कई बार दोहराया है कि प्रेस स्वतंत्रता महत्वपूर्ण है, परंतु यह निरंकुश नहीं हो सकती। न्यायपालिका की निष्पक्षता लोकतंत्र की रीढ़ है और मीडिया को उसका सम्मान करना चाहिए।
47. पीड़ित की पहचान उजागर करना – मीडिया की कानूनी जिम्मेदारी क्या है?
भारत के कानूनों के अनुसार, बलात्कार, यौन उत्पीड़न, बच्चों से संबंधित अपराधों आदि में पीड़ित की पहचान उजागर करना सख्त रूप से वर्जित है। भारतीय दंड संहिता की धारा 228A और POCSO Act के तहत यदि कोई मीडिया हाउस या पत्रकार पीड़िता का नाम, पता, स्कूल, रिश्तेदार या अन्य कोई पहचान प्रकाशित करता है, तो वह दंडनीय अपराध है। सुप्रीम कोर्ट ने भी ऐसे मामलों में गोपनीयता को प्राथमिकता देते हुए मीडिया को चेताया है। पहचान उजागर करने से पीड़ित को सामाजिक कलंक, मानसिक आघात और जीवन में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। मीडिया की जिम्मेदारी है कि वह पीड़ित की गरिमा और निजता का सम्मान करे, और केवल तथ्यों की संवेदनशील व संयमित प्रस्तुति करे। ऐसा न करना न केवल अवैध है, बल्कि अनैतिक भी।
48. मीडिया और राजनीतिक प्रचार के बीच अंतर कैसे किया जाए?
मीडिया का कार्य है निष्पक्ष और तथ्यात्मक जानकारी जनता तक पहुंचाना, जबकि राजनीतिक प्रचार का उद्देश्य किसी दल या नेता की छवि बनाना या प्रचार करना होता है। जब मीडिया निष्पक्षता छोड़कर किसी विशेष विचारधारा, पार्टी या व्यक्ति का समर्थन करता है, तो वह ‘पक्षपाती मीडिया’ बन जाता है। ऐसे में खबरें प्रचार सामग्री जैसी दिखती हैं। चुनाव आयोग ने ‘पेड न्यूज’ की परिकल्पना इसी संदर्भ में की है, जिसमें पैसे लेकर खबरों के रूप में प्रचार किया जाता है। मीडिया को विज्ञापन और समाचार के बीच स्पष्ट भेद बनाए रखना चाहिए। स्वतंत्र पत्रकारिता लोकतंत्र की रीढ़ है, जबकि प्रचार आधारित रिपोर्टिंग जनता को भ्रमित करती है। प्रेस परिषद और चुनाव आयोग मीडिया की इस भूमिका पर निगरानी रखते हैं। पत्रकारों को अपनी भूमिका एक प्रहरी की तरह निभानी चाहिए, न कि किसी दल के प्रवक्ता की तरह।
49. मीडिया और चुनाव आचार संहिता का क्या संबंध है?
चुनाव आचार संहिता वह नियमों का समूह है जिसे चुनाव आयोग द्वारा प्रत्येक चुनाव से पहले लागू किया जाता है ताकि निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव संपन्न हो सकें। मीडिया को भी इन नियमों का पालन करना आवश्यक होता है। चुनाव के दौरान मीडिया को संतुलित रिपोर्टिंग करनी होती है, किसी पार्टी या प्रत्याशी को अनुचित बढ़ावा नहीं देना चाहिए। मतगणना से 48 घंटे पूर्व ‘नो कैंपेन पीरियड’ में किसी प्रकार की चुनाव संबंधित सामग्री प्रकाशित या प्रसारित करना वर्जित है। ‘पेड न्यूज’ की निगरानी के लिए चुनाव आयोग ने मीडिया निगरानी समितियां गठित की हैं। यदि कोई चैनल या अखबार जानबूझकर गलत जानकारी फैलाता है, तो उसके विरुद्ध कार्रवाई हो सकती है। मीडिया की निष्पक्ष भूमिका लोकतंत्र की विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए अत्यंत आवश्यक है।
50. मीडिया और प्रेस की आजादी बनाम सोशल मीडिया की आजादी – अंतर स्पष्ट करें।
मूलतः प्रेस और सोशल मीडिया दोनों ही अभिव्यक्ति के माध्यम हैं, परंतु इनके संचालन और उत्तरदायित्व में बड़ा अंतर है। प्रेस (अखबार, चैनल, पत्रिकाएं) एक संपादकीय प्रक्रिया, नैतिक दिशा-निर्देश और संस्थागत निगरानी के अधीन कार्य करता है। वहीं सोशल मीडिया (जैसे फेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब) पर कोई भी व्यक्ति अपनी राय, सूचना या सामग्री स्वतः साझा कर सकता है, जिसमें संपादकीय नियंत्रण का अभाव होता है। प्रेस परिषद और कानूनों द्वारा पारंपरिक मीडिया की जवाबदेही तय की जाती है, जबकि सोशल मीडिया की निगरानी के लिए हाल ही में IT Rules, 2021 लागू किए गए हैं। प्रेस की आजादी नियंत्रित, संस्थागत और पेशेवर होती है, जबकि सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति अधिक व्यक्तिगत और अनियंत्रित होती है। दोनों की स्वतंत्रता महत्वपूर्ण है, परंतु जिम्मेदारी और उत्तरदायित्व भी उतना ही आवश्यक है।