MC मेहता बनाम भारत संघ (1987): गंगा नदी प्रदूषण मामले में ऐतिहासिक न्यायिक हस्तक्षेप

MC मेहता बनाम भारत संघ (1987): गंगा नदी प्रदूषण मामले में ऐतिहासिक न्यायिक हस्तक्षेप
(MC Mehta v. Union of India, 1987 – Ek Itihasik Faisla Ganga Nadi ke Pradushan Par)

प्रस्तावना
भारत की पवित्र नदियों में से एक, गंगा, केवल धार्मिक आस्था का ही केंद्र नहीं है, बल्कि करोड़ों लोगों की जीवन रेखा भी है। किंतु विगत दशकों में गंगा नदी अत्यधिक प्रदूषण की शिकार हो गई, विशेष रूप से औद्योगिक कचरे के कारण। 1987 में पर्यावरणविद एम.सी. मेहता ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की, जिसका उद्देश्य गंगा नदी को प्रदूषण से मुक्त कराना था। इस ऐतिहासिक मामले ने भारत के पर्यावरणीय कानून और न्यायिक सक्रियता को एक नई दिशा दी।

मामले की पृष्ठभूमि
एम.सी. मेहता बनाम भारत संघ (1987) का यह केस कानपुर शहर में स्थित चमड़ा उद्योगों द्वारा गंगा नदी में छोड़े जा रहे विषैले कचरे के खिलाफ दायर किया गया था। यह पाया गया कि कारखाने बिना किसी अपशिष्ट उपचार संयंत्र के सीधे कचरा गंगा में छोड़ रहे थे। इससे न केवल जल प्रदूषित हो रहा था बल्कि मछलियों की मृत्यु, बीमारियों का प्रसार और धार्मिक प्रदूषण भी हो रहा था।

सुप्रीम कोर्ट की भूमिका और निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका को गंभीरता से लिया और पर्यावरण संरक्षण की दिशा में एक ऐतिहासिक निर्णय दिया। न्यायालय ने कहा कि जीवन का अधिकार (अनुच्छेद 21) केवल जीवित रहने का अधिकार नहीं है, बल्कि एक स्वच्छ और प्रदूषण रहित वातावरण में जीने का अधिकार भी है। न्यायालय ने निम्नलिखित आदेश दिए:

  1. प्रदूषणकारी कारखानों को बंद करने के निर्देश: जिन कारखानों ने प्रदूषण नियंत्रण संयंत्र नहीं लगाया था, उन्हें बंद करने का आदेश दिया गया।
  2. ट्रीटमेंट प्लांट की स्थापना: सभी औद्योगिक इकाइयों को शीघ्र ही प्रभावी अपशिष्ट शोधन संयंत्र (Effluent Treatment Plant – ETP) लगाने के निर्देश दिए गए।
  3. राज्य सरकार की जिम्मेदारी: राज्य सरकार को आदेश दिया गया कि वह इन आदेशों के अनुपालन की निगरानी करे और रिपोर्ट प्रस्तुत करे।
  4. नागरिकों की भूमिका: कोर्ट ने कहा कि नागरिकों की भी यह जिम्मेदारी है कि वे अपने पर्यावरण की रक्षा करें और गंगा को प्रदूषित करने से बचाएं।

मामले का कानूनी महत्व
यह फैसला भारतीय पर्यावरण न्यायशास्त्र में मील का पत्थर माना जाता है। इस केस ने “जनहित याचिका” (PIL) को प्रभावशाली बनाया और अनुच्छेद 21 की व्याख्या को विस्तारित करते हुए “स्वस्थ पर्यावरण” को मौलिक अधिकार का हिस्सा माना गया। इसके अलावा, न्यायालय ने “पोल्ल्युटर पे प्रिंसिपल” (Polluter Pays Principle) और “सस्टेनेबल डेवलपमेंट” जैसे सिद्धांतों को भारत में लागू करने का मार्ग प्रशस्त किया।

प्रभाव और अनुपालन
इस फैसले के बाद कई कारखानों ने अपशिष्ट उपचार संयंत्र स्थापित किए और प्रदूषण नियंत्रण उपाय अपनाए। इसके साथ ही केंद्र और राज्य सरकारों ने गंगा एक्शन प्लान जैसे योजनाओं को गति दी। यद्यपि समस्याएं अभी भी पूरी तरह समाप्त नहीं हुई हैं, किंतु इस फैसले ने एक मजबूत कानूनी और नैतिक आधार प्रदान किया।

न्यायिक सक्रियता और पर्यावरण संरक्षण
MC मेहता का यह केस एक उदाहरण है कि किस प्रकार भारतीय न्यायपालिका ने अपनी सक्रिय भूमिका निभाते हुए प्रशासन और समाज को पर्यावरण संरक्षण के लिए जागरूक और बाध्य किया। सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया कि यदि सरकार और उद्योग प्रदूषण को रोकने में असफल होते हैं, तो न्यायपालिका हस्तक्षेप कर सकती है।

निष्कर्ष
MC मेहता बनाम भारत संघ (1987) एक ऐतिहासिक निर्णय है जिसने भारत में पर्यावरणीय जागरूकता और संरक्षण की दिशा में निर्णायक भूमिका निभाई। यह केस न केवल गंगा नदी के संरक्षण के लिए एक निर्णायक कदम था, बल्कि पूरे भारत में पर्यावरणीय मामलों के लिए एक उदाहरण भी बन गया। आज भी यह निर्णय पर्यावरणीय कानूनी अध्ययन और न्यायिक सक्रियता का प्रमुख आधार बना हुआ है। न्यायपालिका की इस भूमिका ने यह सिद्ध किया कि स्वच्छ जल और स्वच्छ वातावरण केवल संवैधानिक अधिकार ही नहीं, बल्कि मानव अस्तित्व की बुनियादी आवश्यकता हैं।