“Marriage Has Long Been Used to Control Women and Must Instead Uphold Equality, Respect & Fairness in India – Supreme Court of India”
(भारत के सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक कथन: विवाह को नियंत्रण का नहीं, समानता और सम्मान का माध्यम बनना होगा)
प्रस्तावना
भारत में विवाह (Marriage) केवल एक कानूनी संस्था नहीं, बल्कि एक सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक व्यवस्था है, जिसने सदियों से समाज की बुनियाद को आकार दिया है। परंतु इसी व्यवस्था का उपयोग लंबे समय तक महिलाओं पर नियंत्रण, अधीनता और असमानता बनाए रखने के औज़ार के रूप में भी किया गया है।
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक ऐतिहासिक अवलोकन में कहा कि —
“Marriage has long been used as an instrument to control women, their bodies, choices, and freedom. The institution must evolve to ensure equality, respect, and fairness.”
यह टिप्पणी भारतीय समाज और न्यायशास्त्र दोनों के लिए गहरे महत्व की है, क्योंकि यह विवाह संस्था की मूल संरचना और उसमें निहित लैंगिक असमानताओं पर प्रश्न उठाती है। यह निर्णय आधुनिक भारत में संवैधानिक नैतिकता (constitutional morality) के आलोक में विवाह को पुनर्परिभाषित करने का प्रयास है।
पृष्ठभूमि
यह अवलोकन सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ द्वारा 2025 में दिया गया, जिसमें न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना शामिल थे। मामला एक वैवाहिक विवाद से संबंधित था, जिसमें पत्नी ने आरोप लगाया था कि विवाह के नाम पर उसके अधिकारों और स्वतंत्रता का दमन किया गया।
इस मामले के दौरान अदालत ने व्यापक टिप्पणी करते हुए कहा कि —
विवाह, जैसा कि पारंपरिक रूप से समझा जाता है, अक्सर पुरुष वर्चस्व और महिला अधीनता की प्रणाली बन गया है। न्यायालय ने कहा कि समय आ गया है जब विवाह को समानता (equality), गरिमा (dignity), स्वतंत्रता (freedom) और सम्मान (respect) के सिद्धांतों पर पुनर्स्थापित किया जाए।
न्यायालय का दृष्टिकोण (Judicial Perspective)
सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि विवाह का उद्देश्य दो समान व्यक्तियों के बीच परस्पर सम्मान और साथ का संबंध स्थापित करना होना चाहिए, न कि किसी एक का दूसरे पर नियंत्रण।
न्यायालय ने कहा:
“In a constitutional democracy, marriage cannot remain a private space of inequality. The constitutional values of dignity, equality, and autonomy must enter every household.”
इस कथन से न्यायालय ने संकेत दिया कि भारतीय संविधान केवल सार्वजनिक जीवन में ही नहीं, बल्कि निजी संबंधों में भी समानता और गरिमा को लागू करने की मांग करता है।
भारत में विवाह की पारंपरिक संरचना
भारतीय समाज में विवाह को अक्सर एक पवित्र संस्था (sacred institution) माना गया है। परंतु इसकी पवित्रता के पीछे एक पितृसत्तात्मक संरचना (patriarchal structure) छिपी रही है, जिसमें महिलाओं को पति की अधीनता में रहने के लिए बाध्य किया गया।
- प्राचीन काल में स्त्रियों को “पति की संपत्ति” के रूप में देखा गया।
- विवाह के बाद महिला की पहचान उसके पति से जुड़ जाती थी — “अमुक की पत्नी”।
- विधवाओं, तलाकशुदा या अविवाहित महिलाओं के प्रति समाज का रवैया अक्सर अपमानजनक रहा।
विवाह को इस प्रकार से गढ़ा गया कि वह पुरुष के लिए अधिकार और महिला के लिए कर्तव्य का प्रतीक बन गया। यही मानसिकता दहेज प्रथा, वैवाहिक बलात्कार (marital rape), घरेलू हिंसा (domestic violence), और संपत्ति में असमान अधिकार जैसी समस्याओं की जड़ है।
संवैधानिक दृष्टिकोण (Constitutional Vision)
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 सभी नागरिकों को समानता, भेदभाव से स्वतंत्रता, और जीवन व स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करते हैं। विवाह संस्था में इन अधिकारों का अनुपालन आवश्यक है।
- Article 14 – Equality before Law:
विवाह में पति-पत्नी दोनों को समान कानूनी और सामाजिक दर्जा प्राप्त होना चाहिए। - Article 15 – Non-Discrimination:
राज्य या समाज किसी भी व्यक्ति के साथ लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकता। - Article 21 – Right to Life and Personal Liberty:
यह अनुच्छेद व्यक्तिगत स्वतंत्रता, गरिमा, और आत्मनिर्णय (autonomy) का अधिकार देता है। विवाह में महिला की सहमति, इच्छा और स्वतंत्रता को इसी अनुच्छेद से सुरक्षा मिलती है।
न्यायालय ने कहा कि यदि विवाह किसी महिला के अधिकारों को सीमित करता है या उसे हिंसा, निर्भरता या नियंत्रण की स्थिति में रखता है, तो वह संविधान के इन अनुच्छेदों का उल्लंघन करता है।
महत्वपूर्ण न्यायिक दृष्टांत (Precedents Cited)
सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कई पूर्व मामलों का संदर्भ दिया जिनमें विवाह और समानता के सिद्धांत को पुनर्परिभाषित किया गया था:
- Joseph Shine v. Union of India (2018)
इस मामले में व्यभिचार (adultery) को अपराध की श्रेणी से बाहर करते हुए न्यायालय ने कहा कि “महिला कोई वस्तु नहीं है, जिस पर पति का स्वामित्व हो।” - Shafin Jahan v. Asokan K.M. (2018)
केरल के ‘हदिया केस’ में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि “विवाह का चुनाव व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हिस्सा है, जिसे कोई भी व्यक्ति, चाहे वह राज्य हो या परिवार, नियंत्रित नहीं कर सकता।” - Independent Thought v. Union of India (2017)
इस फैसले में न्यायालय ने कहा कि बाल विवाह में सहमति का कोई अर्थ नहीं होता और बाल विवाह में बलात्कार को अपराध माना जाएगा। - Suchita Srivastava v. Chandigarh Administration (2009)
इस मामले में महिला की reproductive autonomy को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई।
इन निर्णयों ने विवाह के भीतर महिला की गरिमा और स्वतंत्रता को संवैधानिक सुरक्षा दी, जिसे इस नवीनतम निर्णय ने और सुदृढ़ किया।
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य अवलोकन
- Marriage cannot be a license to control women.
विवाह किसी पुरुष को महिला की स्वतंत्रता पर अधिकार नहीं देता। - Equality must be the foundation of every marriage.
विवाह में समानता केवल कानूनी औपचारिकता नहीं, बल्कि व्यवहारिक वास्तविकता होनी चाहिए। - Respect and fairness are indispensable.
पति-पत्नी का संबंध ‘ownership’ का नहीं, ‘partnership’ का होना चाहिए। - Constitutional morality must guide private relationships.
विवाह जैसे निजी संबंधों में भी संवैधानिक मूल्य लागू होने चाहिए, ताकि व्यक्ति की गरिमा सुरक्षित रहे।
न्यायालय की सामाजिक टिप्पणी
न्यायालय ने टिप्पणी की कि भारतीय समाज में विवाह को अक्सर “महिला की सुरक्षा” के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, लेकिन वास्तव में यह उसे सामाजिक निगरानी और नियंत्रण के जाल में फंसा देता है।
“Women are often taught that marriage is their ultimate goal, but not that it must also be their space of dignity. We must unlearn this conditioning.”
अदालत ने कहा कि विवाह तब तक पूर्ण नहीं हो सकता जब तक उसमें पारस्परिक सम्मान, भावनात्मक समानता और आत्मनिर्णय का अधिकार न हो।
महिलाओं के अधिकार और आधुनिक दृष्टिकोण
आधुनिक भारत में महिलाएँ शिक्षा, रोजगार, राजनीति और न्याय के सभी क्षेत्रों में सक्रिय हैं। परंतु विवाह संस्था अभी भी पुरातन सोच से बंधी है।
इस निर्णय के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट ने संकेत दिया कि अब समय आ गया है कि —
- विवाह को पितृसत्तात्मक नियंत्रण के औज़ार के रूप में नहीं,
- बल्कि दो समान व्यक्तियों के बीच अनुबंध के रूप में देखा जाए।
यह परिवर्तन तभी संभव है जब समाज, विधि और शिक्षा – तीनों मिलकर विवाह के विचार को gender-neutral और rights-based बनाएँ।
निर्णय का प्रभाव (Impact of the Judgment)
- सामाजिक सुधार की दिशा में कदम:
यह निर्णय विवाह संस्था में लैंगिक समानता लाने की दिशा में एक मील का पत्थर है। - कानूनी सुधार का आधार:
यह फैसला भविष्य में Uniform Civil Code, marital rape criminalisation, और domestic violence laws के विस्तार जैसे विषयों पर नीतिगत बहस का मार्ग प्रशस्त करेगा। - महिला सशक्तिकरण (Empowerment):
यह निर्णय स्पष्ट करता है कि महिला को केवल “घर की इज़्ज़त” नहीं, बल्कि “स्वतंत्र नागरिक” के रूप में देखा जाना चाहिए। - विवाह की पुनर्परिभाषा:
यह फैसला विवाह को “ownership” से “partnership” की ओर ले जाने वाला परिवर्तनकारी निर्णय है।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का यह कथन केवल एक न्यायिक टिप्पणी नहीं, बल्कि सामाजिक सुधार का घोषणापत्र है।
भारत में विवाह अब उस युग में प्रवेश कर रहा है जहाँ वह नियंत्रण का माध्यम नहीं, बल्कि समानता, सम्मान और प्रेम का प्रतीक बनेगा।
संविधान ने हर नागरिक — चाहे वह पुरुष हो या महिला — को गरिमा और स्वतंत्रता का अधिकार दिया है। अब यह जिम्मेदारी समाज और कानून दोनों की है कि विवाह संस्था को उसी संवैधानिक आत्मा के अनुरूप ढाला जाए।
“Marriage should not bind women in chains of obedience,
It must be a union of equals — guided by love, liberty, and law.”