“M/s Supreme Bhiwandi Wada बनाम महाराष्ट्र राज्य: सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट निर्देश – धारा 156(3) CrPC के तहत पुलिस जांच का आदेश देने से पूर्व शपथ पर शिकायतकर्ता की जांच आवश्यक नहीं”

“M/s Supreme Bhiwandi Wada बनाम महाराष्ट्र राज्य: सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट निर्देश – धारा 156(3) CrPC के तहत पुलिस जांच का आदेश देने से पूर्व शपथ पर शिकायतकर्ता की जांच आवश्यक नहीं”


प्रस्तावना:
भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 156(3) न्यायिक प्रणाली में एक महत्वपूर्ण प्रावधान है, जो मजिस्ट्रेट को पुलिस को अपराध की जांच का आदेश देने की शक्ति प्रदान करता है। परंतु एक लंबे समय से यह प्रश्न न्यायिक विवाद का विषय रहा है कि क्या धारा 156(3) CrPC के तहत मजिस्ट्रेट द्वारा जांच का आदेश देने से पहले, CrPC की धारा 200 के तहत शिकायतकर्ता को शपथ पर जांचना अनिवार्य है या नहीं। M/s Supreme Bhiwandi Wada बनाम महाराष्ट्र राज्य व अन्य के निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने इस जटिल प्रश्न का स्पष्ट उत्तर दिया है।


मामले की पृष्ठभूमि:
M/s Supreme Bhiwandi Wada ने मजिस्ट्रेट के उस आदेश को चुनौती दी, जिसमें शिकायत पर पुलिस जांच का निर्देश धारा 156(3) CrPC के तहत दिया गया, जबकि शिकायतकर्ता को शपथ पर जांच (oath) के लिए बुलाया नहीं गया था। याचिकाकर्ता का तर्क था कि मजिस्ट्रेट को जांच आदेश देने से पहले धारा 200 CrPC के अंतर्गत शिकायतकर्ता का परीक्षण करना चाहिए था।


मुख्य कानूनी प्रश्न:
क्या मजिस्ट्रेट, CrPC की धारा 156(3) के अंतर्गत, किसी भी आपराधिक शिकायत पर पुलिस जांच का आदेश देने से पहले शिकायतकर्ता को शपथ पर जांचने (examine on oath) के लिए बाध्य है?


सुप्रीम कोर्ट का निर्णय:
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट शब्दों में दोहराया कि:

“जब मजिस्ट्रेट को केवल पुलिस जांच का आदेश देना होता है (Section 156(3) के तहत), तब शिकायतकर्ता को शपथ पर जांचने की आवश्यकता नहीं होती। यह अनिवार्यता केवल तब लागू होती है जब मजिस्ट्रेट स्वयं संज्ञान लेकर आगे की प्रक्रिया शुरू करना चाहता है, अर्थात् धारा 200 CrPC के अंतर्गत।”

अतः, धारा 156(3) के अंतर्गत आदेश पारित करते समय, मजिस्ट्रेट के लिए शिकायतकर्ता की शपथ पर जांच आवश्यक नहीं है।


धारा 156(3) और धारा 200 CrPC के बीच अंतर:

तत्व धारा 156(3) CrPC धारा 200 CrPC
उद्देश्य पुलिस को जांच का निर्देश देना मजिस्ट्रेट द्वारा स्वयं संज्ञान लेना
शपथ पर जांच आवश्यक नहीं आवश्यक है
जांच कौन करता है पुलिस मजिस्ट्रेट
आदेश का स्वरूप पूर्व-संज्ञानात्मक संज्ञानात्मक

यह अंतर कानूनी दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे यह निर्धारित होता है कि मजिस्ट्रेट की भूमिका कितनी सक्रिय या निष्क्रिय होगी।


न्यायिक दृष्टिकोण:
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि हर मामले में मजिस्ट्रेट को शिकायतकर्ता को शपथ पर जांचना अनिवार्य कर दिया जाए, तो इससे CrPC की धारा 156(3) का उद्देश्य ही विफल हो जाएगा। धारा 156(3) का उद्देश्य यही है कि प्राथमिक स्तर पर यदि कोई संज्ञेय अपराध का आरोप है, तो मजिस्ट्रेट बिना समय गंवाए पुलिस को जांच का आदेश दे सके।

इसके अतिरिक्त, अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि इस धारा के अंतर्गत जांच का आदेश देने से पूर्व मजिस्ट्रेट को शिकायत की सत्यता या साक्ष्य की गहराई में नहीं जाना होता — यह कार्य पुलिस का होता है।


पूर्ववर्ती न्यायिक दृष्टांत:
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने पहले के कई निर्णयों की पुनः पुष्टि की, जिनमें प्रमुख हैं:

  1. Priyanka Srivastava v. State of U.P. (2015) – जहाँ यह कहा गया कि धारा 156(3) CrPC के तहत याचिका के साथ शपथ पत्र अनिवार्य है, परंतु यह शपथ पत्र शिकायतकर्ता की शपथ पर जांच का विकल्प नहीं है।
  2. Ramdev Food Products v. State of Gujarat (2015) – इस मामले में भी कहा गया कि धारा 156(3) CrPC के अंतर्गत पुलिस जांच का आदेश मजिस्ट्रेट के विवेक पर आधारित होता है, न कि शिकायतकर्ता की शपथ पर जांच की बाध्यता पर।

इस निर्णय का प्रभाव:

  1. मजिस्ट्रेट का विवेक सुरक्षित:
    यह निर्णय मजिस्ट्रेट को यह अधिकार देता है कि यदि वह प्राथमिक दृष्टि से शिकायत को संज्ञेय अपराध मानता है, तो वह तुरंत पुलिस जांच का आदेश दे सकता है।
  2. शिकायतकर्ताओं को राहत:
    कई मामलों में शपथ पर जांच की प्रक्रिया मुकदमा दायर करने की प्रक्रिया को लंबा और बोझिल बना देती थी। अब, शिकायतकर्ता पुलिस जांच के लिए सीधे मजिस्ट्रेट से आग्रह कर सकते हैं।
  3. प्रक्रियात्मक स्पष्टता:
    यह निर्णय आपराधिक प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण स्पष्टता लाता है — धारा 200 और 156(3) के प्रयोग को लेकर अब कोई भ्रम नहीं रहना चाहिए।

निष्कर्ष:
M/s Supreme Bhiwandi Wada बनाम महाराष्ट्र राज्य व अन्य का निर्णय भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में प्रक्रियात्मक न्याय और त्वरित पुलिस जांच की अवधारणा को मजबूती देता है। सुप्रीम कोर्ट ने यह दोहराया कि मजिस्ट्रेट की शक्ति स्वायत्त है और कानून द्वारा निर्देशित है — न कि प्रत्येक मामले में शिकायतकर्ता की शपथ पर जांच से बंधी हुई।

यह निर्णय न केवल विधि के तकनीकी पहलुओं को स्पष्ट करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि न्यायिक प्रक्रिया अनावश्यक जटिलताओं से मुक्त रहे और त्वरित न्याय संभव हो सके।