M.C. Mehta v. Union of India (Oleum Gas Leak Case, 1987): Absolute Liability का सिद्धांत
भूमिका
भारतीय न्यायशास्त्र में M.C. Mehta v. Union of India (1987) जिसे प्रायः Oleum Gas Leak Case कहा जाता है, पर्यावरण कानून का ऐतिहासिक और क्रांतिकारी निर्णय है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने “Absolute Liability” नामक सिद्धांत प्रतिपादित किया, जिसने पारंपरिक अंग्रेजी कानून के सिद्धांत Strict Liability को पीछे छोड़ दिया।
यह मामला सीधे तौर पर भोपाल गैस त्रासदी (1984) से जुड़ा हुआ था, जिसने न्यायपालिका और विधायिका दोनों को यह सोचने पर मजबूर किया कि खतरनाक और जोखिम भरे उद्योगों को यदि केवल “अपवादों से युक्त दायित्व” (Strict Liability) के तहत जिम्मेदार ठहराया जाएगा, तो वे आसानी से बच निकलेंगे।
मामले की पृष्ठभूमि
दिसंबर 1985 में दिल्ली में स्थित Shriram Food and Fertilizer Industry (डीसीएम लिमिटेड का एक हिस्सा) से Oleum Gas का रिसाव हुआ।
- इस गैस रिसाव से एक वकील (Advocate) की मृत्यु हो गई।
- कई लोग गंभीर रूप से बीमार पड़ गए।
- घटना ने दिल्ली में दहशत फैला दी और लोगों ने इसे भोपाल गैस त्रासदी की पुनरावृत्ति के रूप में देखा।
इस घटना के तुरंत बाद M.C. Mehta, जो एक सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद् और वकील थे, ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका (PIL) दायर की।
मुख्य कानूनी प्रश्न
- क्या Shriram जैसे खतरनाक उद्योगों को शहर के बीच संचालित होने की अनुमति दी जानी चाहिए?
- क्या उद्योग केवल Strict Liability (Rylands v. Fletcher, 1868) तक ही जिम्मेदार होंगे या कोई नया सिद्धांत लागू होना चाहिए?
- क्या न्यायालय पीड़ितों को त्वरित राहत और मुआवजा प्रदान कर सकता है?
- क्या अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) में स्वच्छ और सुरक्षित पर्यावरण शामिल है?
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस मामले में अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया।
- Absolute Liability सिद्धांत का प्रतिपादन
- न्यायालय ने कहा कि खतरनाक और जोखिम भरी गतिविधि करने वाले उद्योग पूर्ण रूप से जिम्मेदार होंगे।
- यदि उनकी गतिविधियों से कोई हानि होती है तो वे बिना किसी अपवाद (Exception) के क्षतिपूर्ति देंगे।
- इस प्रकार Rylands v. Fletcher (Strict Liability) में मौजूद अपवाद जैसे Act of God, Plaintiff’s Fault आदि भारत में मान्य नहीं होंगे।
- अनुच्छेद 21 का विस्तार
- सुप्रीम कोर्ट ने माना कि जीवन के अधिकार में केवल शारीरिक अस्तित्व ही नहीं, बल्कि सुरक्षित और स्वच्छ पर्यावरण का अधिकार भी शामिल है।
- न्यायिक नवाचार
- कोर्ट ने कहा कि भारत जैसे घनी आबादी वाले देश में यदि खतरनाक उद्योगों को अपवादों के सहारे बच निकलने दिया गया, तो भोपाल जैसी त्रासदियाँ बार-बार होंगी।
- इसलिए Absolute Liability भारतीय संदर्भ में आवश्यक है।
- न्यायपालिका का सक्रिय दृष्टिकोण
- कोर्ट ने यह भी कहा कि न्यायालयों का दायित्व है कि वे संविधान की व्याख्या समाज के बदलते परिवेश और समस्याओं के अनुरूप करें।
Absolute Liability बनाम Strict Liability
Strict Liability (Rylands v. Fletcher, 1868) | Absolute Liability (Oleum Gas Leak, 1987) |
---|---|
अपवादों (Exceptions) के साथ लागू होता है – जैसे Act of God, Plaintiff’s Fault | कोई अपवाद मान्य नहीं। |
“No-fault liability” सीमित रूप से | “No-fault liability” पूर्ण रूप से |
केवल तभी जब खतरनाक वस्तु बाहर निकलकर नुकसान पहुँचाए | यदि खतरनाक गतिविधि से नुकसान हुआ तो उद्योग हमेशा जिम्मेदार होगा |
अंग्रेजी कानून का सिद्धांत | भारतीय कानून का स्वदेशी सिद्धांत |
निर्णय का महत्व
- भारतीय पर्यावरण कानून में मील का पत्थर
- पहली बार भारत में एक नया सिद्धांत विकसित हुआ जिसने अंग्रेजी कानून को पीछे छोड़ दिया।
- पर्यावरणीय न्याय का सुदृढ़ीकरण
- जीवन के अधिकार (अनुच्छेद 21) को पर्यावरण से जोड़ा गया।
- उद्योगों पर कठोर संदेश
- कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि उद्योग मुनाफे की आड़ में पर्यावरण और मानव जीवन के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकते।
- विधायी प्रभाव
- इस निर्णय ने आगे चलकर पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 और अन्य पर्यावरणीय नियमों को मजबूत आधार प्रदान किया।
संबंधित मामले
- Bhopal Gas Tragedy (1984) – इसने Absolute Liability की प्रेरणा दी।
- Indian Council for Enviro-Legal Action v. Union of India (1996) – Polluter Pays Principle को लागू किया।
- Vellore Citizens Welfare Forum v. Union of India (1996) – सतत विकास और Precautionary Principle को मान्यता।
आलोचनाएँ
- कई विद्वानों ने कहा कि कोर्ट ने Absolute Liability का सिद्धांत बना तो दिया, लेकिन उसके क्रियान्वयन के लिए स्पष्ट कानूनी प्रावधान नहीं दिए।
- सरकार और प्रदूषण नियंत्रण संस्थाओं की उदासीनता के कारण कई बार उद्योग आदेशों से बचने की कोशिश करते हैं।
- पीड़ितों को वास्तविक और त्वरित राहत मिलना अक्सर कठिन होता है।
निष्कर्ष
M.C. Mehta v. Union of India (Oleum Gas Leak Case, 1987) भारतीय पर्यावरण कानून और संवैधानिक व्याख्या का स्वर्णिम निर्णय है। इसने यह स्थापित किया कि खतरनाक और जोखिम भरे उद्योगों को पूर्ण जिम्मेदारी (Absolute Liability) उठानी होगी।
यह फैसला केवल पर्यावरण संरक्षण तक सीमित नहीं रहा, बल्कि इसने नागरिकों के मौलिक अधिकार – जीवन के अधिकार – को और भी व्यापक बनाया। आज भी यह निर्णय भारतीय पर्यावरण न्यायशास्त्र की नींव है और औद्योगिक इकाइयों को यह चेतावनी देता है कि वे लाभ की होड़ में नागरिकों और पर्यावरण की बलि नहीं चढ़ा सकते।
Case Summary Table: Oleum Gas Leak (1987)
बिंदु | विवरण |
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केस का नाम | M.C. Mehta v. Union of India (Oleum Gas Leak Case), 1987 |
अदालत | भारत का सर्वोच्च न्यायालय |
पीठ (Bench) | न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती एवं अन्य |
स्थान | Shriram Food & Fertilizer Industry, दिल्ली |
घटना | Oleum Gas का रिसाव → 1 व्यक्ति की मौत, कई घायल |
याचिकाकर्ता | M.C. Mehta (पर्यावरणविद् व वकील) |
मुख्य प्रश्न | 1. क्या उद्योगों पर केवल Strict Liability लागू होगी? 2. क्या नया सिद्धांत आवश्यक है? 3. क्या अनुच्छेद 21 में सुरक्षित पर्यावरण शामिल है? |
निर्णय | – Absolute Liability सिद्धांत प्रतिपादित – अनुच्छेद 21 में सुरक्षित पर्यावरण का अधिकार शामिल – उद्योग बिना अपवाद जिम्मेदार होंगे |
सिद्धांत | 1. Absolute Liability (बिना अपवाद) 2. पर्यावरणीय न्याय 3. जीवन का अधिकार + स्वच्छ पर्यावरण |
महत्व | – भारतीय पर्यावरण कानून में क्रांतिकारी मोड़ – भोपाल गैस त्रासदी से प्रेरित निर्णय – आगे के मामलों में आधारभूत सिद्धांत बना |