M.C. Mehta v. Union of India (1987) – भारत में Absolute Liability का सिद्धांत
प्रस्तावना
भारतीय विधि व्यवस्था में M.C. Mehta v. Union of India (1987) का निर्णय ऐतिहासिक महत्व रखता है। इस मामले में भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने पर्यावरणीय कानून और दायित्व (liability) के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी सिद्धांत प्रतिपादित किया, जिसे Absolute Liability के नाम से जाना जाता है। यह सिद्धांत औद्योगिक दुर्घटनाओं, प्रदूषण और खतरनाक पदार्थों से होने वाले नुकसान के लिए उद्योगों पर कठोर दायित्व (liability) लगाता है। यह निर्णय न केवल भारतीय विधि में बल्कि अंतरराष्ट्रीय पर्यावरणीय कानून में भी मार्गदर्शक बना। इस केस ने भारत में औद्योगिक जिम्मेदारी को पुनर्परिभाषित किया और कहा कि समाज में लाभ कमाने के लिए खतरनाक गतिविधियों में संलग्न उद्योगों को जनता की सुरक्षा और स्वास्थ्य की जिम्मेदारी अनिवार्य रूप से उठानी होगी।
मामले की पृष्ठभूमि
इस मामले की पृष्ठभूमि ओलियम गैस रिसाव (Oleum Gas Leak) की घटना है। दिसंबर 1985 में भोपाल गैस त्रासदी के कुछ ही समय बाद दिल्ली में श्रीराम फूड एंड फर्टिलाइजर इंडस्ट्री से खतरनाक ओलियम गैस का रिसाव हुआ। यह उद्योग दिल्ली के घनी आबादी वाले इलाके में स्थित था। गैस रिसाव से सैकड़ों लोग प्रभावित हुए और एक वकील की मौत हो गई। इस घटना से जनता में गहरी चिंता उत्पन्न हुई क्योंकि इससे पता चला कि बड़े उद्योग बिना उचित सुरक्षा उपायों के चल रहे थे, जिससे हजारों लोगों का जीवन खतरे में था।
प्रसिद्ध पर्यावरणविद् और अधिवक्ता M.C. Mehta ने इस घटना को लेकर जनहित याचिका (Public Interest Litigation) दायर की। याचिका में मांग की गई कि उद्योगों को खतरनाक गतिविधियों के लिए कठोर जिम्मेदार ठहराया जाए और प्रभावित लोगों को उचित मुआवजा मिले।
मुख्य विधिक प्रश्न (Legal Issues)
इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के सामने निम्नलिखित प्रमुख प्रश्न थे –
- क्या Rylands v. Fletcher (1868) द्वारा प्रतिपादित Strict Liability का सिद्धांत भारत में लागू होगा?
- क्या उद्योगों को खतरनाक और हानिकारक गतिविधियों के लिए बिना किसी अपवाद के जिम्मेदार ठहराया जा सकता है?
- पीड़ित व्यक्तियों को किस प्रकार का मुआवजा दिया जाना चाहिए और किस आधार पर दिया जाना चाहिए?
- क्या भारत में पर्यावरण संरक्षण के लिए एक नए दायित्व सिद्धांत की आवश्यकता है?
न्यायालय का निर्णय
सर्वोच्च न्यायालय की पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति P.N. भगवती प्रमुख थे, ने इस मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाया। न्यायालय ने कहा कि –
- Strict Liability (Rylands v. Fletcher) का सिद्धांत भारत में पर्याप्त नहीं है क्योंकि इसमें कई अपवाद (exceptions) मौजूद हैं, जैसे Act of God, plaintiff’s fault, consent of plaintiff, statutory authority आदि।
- भारत जैसे घनी आबादी वाले और विकासशील देश में इन अपवादों को मान्यता देना उचित नहीं होगा।
- इसलिए न्यायालय ने एक नया सिद्धांत प्रतिपादित किया, जिसे Absolute Liability कहा गया।
Absolute Liability का सिद्धांत
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा –
- पूर्ण जिम्मेदारी (No Exceptions):
यदि कोई उद्योग खतरनाक या हानिकारक गतिविधियों में संलग्न है और उससे किसी को नुकसान होता है, तो वह उद्योग पूर्ण रूप से जिम्मेदार होगा। इसमें कोई अपवाद (exception) लागू नहीं होगा। - सामाजिक जिम्मेदारी (Social Responsibility):
उद्योग समाज से संसाधन लेकर लाभ कमाता है। अतः उसे समाज के प्रति जिम्मेदार रहना होगा। यदि उसके कार्यों से किसी की जान या संपत्ति को नुकसान होता है तो वह क्षतिपूर्ति (compensation) देने के लिए बाध्य होगा। - पर्यावरणीय सुरक्षा (Environmental Safety):
उद्योगों का दायित्व है कि वे अपनी गतिविधियों को इस प्रकार संचालित करें कि जनता के स्वास्थ्य, जीवन और पर्यावरण को खतरा न हो। - मुआवजा का निर्धारण:
न्यायालय ने कहा कि मुआवजा प्रभावित लोगों की संख्या और नुकसान की गंभीरता के आधार पर तय होना चाहिए।
Rylands v. Fletcher और Absolute Liability का अंतर
पहलू | Strict Liability (Rylands v. Fletcher) | Absolute Liability (M.C. Mehta v. UOI) |
---|---|---|
अपवाद (Exceptions) | कई अपवाद हैं, जैसे Act of God, Plaintiff’s fault, Consent, Statutory Authority | कोई अपवाद नहीं, उद्योग हर हाल में जिम्मेदार |
आधार | इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति के समय प्रतिपादित | भारतीय परिस्थितियों और सामाजिक जरूरतों पर आधारित |
प्रकृति | सशर्त दायित्व | कठोर और निरपेक्ष दायित्व |
उद्देश्य | केवल क्षतिपूर्ति सुनिश्चित करना | सामाजिक और पर्यावरणीय न्याय सुनिश्चित करना |
निर्णय का महत्व
- नया सिद्धांत: इस केस ने भारतीय विधि में Absolute Liability का सिद्धांत स्थापित किया।
- पर्यावरण संरक्षण: पर्यावरण और जनसामान्य की सुरक्षा सर्वोच्च प्राथमिकता बन गई।
- जनहित याचिका की शक्ति: इस मामले ने यह सिद्ध किया कि जनहित याचिका के माध्यम से जनता के मौलिक अधिकारों की रक्षा की जा सकती है।
- औद्योगिक जिम्मेदारी: उद्योगों को चेतावनी मिली कि वे लाभ कमाने के लिए जनता के जीवन और स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकते।
- नीतिगत प्रभाव: इस निर्णय के बाद पर्यावरण संरक्षण से संबंधित कई कानून बने, जैसे –
- पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986
- राष्ट्रीय हरित अधिकरण अधिनियम, 2010
आलोचना (Criticism)
- कुछ विद्वानों का मानना है कि Absolute Liability सिद्धांत उद्योगों पर अत्यधिक बोझ डालता है।
- इससे विदेशी निवेश प्रभावित हो सकता है क्योंकि निवेशक कठोर दायित्व से डर सकते हैं।
- लेकिन दूसरी ओर, यह तर्क भी दिया गया कि मानव जीवन और पर्यावरण की सुरक्षा किसी भी आर्थिक लाभ से अधिक महत्वपूर्ण है।
निष्कर्ष
M.C. Mehta v. Union of India (1987) का फैसला भारतीय न्यायशास्त्र में मील का पत्थर है। इसने यह सुनिश्चित किया कि खतरनाक और जोखिम भरी गतिविधियों में संलग्न उद्योग समाज के प्रति पूर्ण जिम्मेदारी (Absolute Liability) वहन करेंगे। इस केस ने न केवल भारत में पर्यावरणीय न्याय को मजबूती दी, बल्कि यह संदेश भी दिया कि विकास और उद्योगीकरण की दौड़ में मानव जीवन और पर्यावरण की उपेक्षा नहीं की जा सकती। यह निर्णय आज भी भारत में औद्योगिक और पर्यावरणीय कानून का आधारस्तंभ है और इसे “भारतीय पर्यावरण न्यायशास्त्र का Magna Carta” कहा जाता है।