LEGAL ETHICS, ACCOUNTABILITY FOR LAWYERS Long Answer

: दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर :-

प्रश्न 1. भारत में विधि-व्यवसाय के विकास पर संक्षिप्त निबन्ध लिखिये तथा स्वतंत्रता के पश्चात् विधि-व्यवसाय में आये बदलावों का वर्णन कीजिए। Write a short note on the development of legal profession in India and describe the changes which took place in legal profession after independence.

उत्तर- ब्रिटिश भारत के पूर्व विधि व्यवसाय- ब्रिटिश भारत के पूर्व विधि व्यवसाय का स्वरूप व्यवस्थित नहीं था। प्राचीन भारत में विधि व्यवसाय के सम्बन्ध में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। कौटिल्य ने अपनी पुस्तक “अर्थशास्त्र” में विधि-व्यवसाय के अस्तित्व का उल्लेख नहीं किया है। इसलिए अधिक सम्भावना है कि उस समय विधि व्यवसाय का अस्तित्व नहीं था।

      किन्तु न्यायमूर्ति आशुतोष मुखर्जी ने इस मत को ठीक नहीं माना है कि हिन्दू काल में विधिक व्यवसाय का अस्तित्व नहीं था। उनके मत में प्राचीन भारत में भी विधि व्यवसाय होता था किन्तु सत्य यह है कि विधि व्यवसाय का जो स्वरूप वर्तमान समय में विद्यमान है उसका सृजन और विकास निःसन्देह ब्रिटिश भारत में ही हुआ है।

     नेमबरूमल सेट्टी बनाम एम० पी० नरसिम्हाचारी, (1916) 37 आई० सी० 699 के मामले में न्यायालय का यह विचार था कि मुस्लिम काल में वादकारियों का प्रतिनिधित्व वकीलों द्वारा किया जाता था। वाद के मूल्य का कुछ प्रतिशत वकील प्राप्त करता था किन्तु विधि व्यवसाय व्यवस्थित नहीं था।

(2) ब्रिटिश भारत में विधि व्यवसाय – जिस रूप में विधि-व्यवसाय आज विद्यमान है, उसका सृजन और विकास ब्रिटिश काल में क्रमशः हुआ है। ब्रिटिश काल के प्रारम्भ में विधि-व्यवसाय पर उचित ध्यान नहीं दिया गया। ईस्ट इण्डिया कम्पनी को विधि-व्यवसाय व्यवस्थित करने में कोई रुचि नहीं थी। कम्पनी की बस्तियों में एक समान न्यायिक प्रणाली नहीं थी। न्यायालयों की स्थापना कम्पनी द्वारा की गयी थी और उन्हें अधिकार भी कम्पनी ने ही दिये थे। अतः न्यायालय कम्पनी के ही अधीन हुआ करते थे। विधि व्यवसायियों के लिए वहाँ कोई स्थान नहीं था।

     सन् 1726 के राजपत्र (चार्टर) द्वारा प्रत्येक प्रेसीडेन्सी नगर- बम्बई, कलकत्ता और मद्रास में एक मेयर के न्यायालय की स्थापना की गयी। वास्तव में इस राजपत्र द्वारा भारत में सर्वप्रथम ब्रिटिश सम्राट के न्यायालय की स्थापना हुई। इस राजपत्र का आशय था कि भारत में ऐसे न्यायालय स्थापित किये जायें जिनका स्तर इंग्लैण्ड के न्यायालयों के समतुल्य हो। यह राजपत्र इसलिए भी प्रसिद्ध है कि इसके द्वारा सर्वप्रथम तीनों ही प्रेसीडेन्सी नगरों में एक समान न्यायिक पद्धति लागू की गयी। परन्तु इस राजपत्र ने विधि-व्यवसाय को सुनियोजित करने पर उचित बल नहीं दिया। बहुत से ऐसे व्यक्ति-विधि व्यवसाय करते थे जिन्हें विधि का कोई ज्ञान नहीं था। यहाँ तक कि मेयर न्यायालय के न्यायाधीश भी सामान्य व्यक्ति होते थे, जिन्हें विधि का कोई ज्ञान नहीं होता था।

      सन् 1753 में एक नवीन राजपत्र जारी किया गया। इसके द्वारा 1726 के राजपत्र में कई संशोधन किये गये परन्तु विधि व्यवसाय को व्यवस्थित करने के निमित्त कोई महत्वपूर्ण उपबन्ध नहीं बनाया गया। इस राज-पत्र में भी विधि-व्यवसाय करने वालों के लिए विधिक शिक्षा एवं विधिक प्रशिक्षण हेतु कोई महत्वपूर्ण उपबन्ध नहीं रखा गया।

     विधि व्यवसाय को सुनियोजित करने में रेग्युलेटिंग ऐक्ट, 1773 का योगदान उल्लेखनीय है। इस ऐक्ट के द्वारा ब्रिटिश सम्राट ने एक राजपत्र जारी करके कलकता में एक सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की। इसके परिणामस्वरूप कलकत्ता में मेयर का न्यायालय समाप्त हो गया। बाद में चलकर सन् 1801 में मद्रास तथा 1823 में बम्बई में भी सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गयी।

       एक महत्वपूर्ण राजपत्र सन् 1774 ई० में जारी किया गया। इस राजपत्र के खण्ड दो ने सुप्रीम कोर्ट को इस बात के लिए सशक्त किया कि वह जितनी संख्या में उचित समझें, एडवोकेटों और अटार्नियों को अनुमोदित, स्वीकृत और सूचीबद्ध कर लें। उपर्युक्त एडवोकेट और एटानों को यह अधिकार कि वे मुकदमें के पक्षकारों की ओर से न्यायालय के समक्ष उपस्थित होकर उनकी ओर से अभिवचन कर सकें। इन सूचीबद्ध विधि व्यवसायियों के अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्ति न्यायालय के समक्ष उपस्थित नहीं हो सकता था। किन्तु दुःखद बात यह थी कि भारतीय वकीलों के लिए सुप्रीम कोर्ट में जाने का कोई अवसर प्रदान नहीं किया गया था।

       1861 का इण्डियन हाईकोर्ट्स ऐक्ट- यह दोहरी न्यायिक व्यवस्था को समाप्त करने के लिए बनाया गया था। इस ऐक्ट के पारित होने के ठीक पूर्व दो प्रकार के न्यायालय थे- ब्रिटिश सम्राट का न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) तथा मोफस्सिल क्षेत्रों में स्थापित कम्पनी के न्यायालय। दोनों प्रकार के न्यायालयों में टकराव होता रहता था। इसको समाप्त करने के निमित्त 1861 का ऐक्ट पारित किया गया। इस ऐक्ट का मुख्य उद्देश्य सुप्रीम कोर्ट और कम्पनी की अदालतों को समाप्त करना और प्रेसीडेन्सी नगरों में से प्रत्येक में एक हाईकोर्ट की स्थापना करना था। इन हाईकोर्ट को वकील, अटार्नी और एडवोकेट को सूचीबद्ध करने और अनुमोदित करने की शक्ति प्रदान की गयी।

      1879 में लीगल प्रेक्टिशनर्स ऐक्ट – पारित किया गया। इस ऐक्ट ने उन हाईकोर्टों को भी सम्बद्ध प्रान्तीय सरकार की पूर्व अनुमति से वकीलों और मुख्तारों की योग्यता और प्रवेश. आदि के सम्बन्ध में नियम बनाने का अधिकार प्रदान किया जो शाही राजपत्र द्वारा स्थापित नहीं की गयी थी। इस ऐक्ट के द्वारा अटार्नी के अतिरिक्त विधि व्यवसाय करने वालों को दो अन्य वर्गों एडवोकेट और वकील में विभाजित किया गया।

      1923 में सर एडवर्ड चामियर की अध्यक्षता में इण्डियन बार कमेटी गठित हुई। इस कमेटी को अखिल भारतीय स्तर पर बार के गठन और हाईकोर्ट के लिए अखिल भारतीय कौंसिल की स्थापना के सम्बन्ध में विचार करना और सुझाव देना था। इस कमेटी ने यह सुझाव दिया कि सभी हाईकोर्ट के विधि-व्यवसायियों का केवल एक वर्ग हो और उसे एडवोकेट का नाम दिया जाय। इस कमेटी के कुछ सुझावों को क्रियान्वित करने के लिये 1926 में इण्डियन बार कौंसिल ऐक्ट अधिनियमित किया गया। इस ऐक्ट का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश भारत में कुछ न्यायालयों में बार कौंसिल का गठन एवं स्थापना करना, ऐसी कौंसिल को कुछ शक्ति प्रदान करना और उन पर कुछ कर्तव्य आरोपित करना था।

(3) अखिल भारतीय विधिज्ञ कमेटी, 1951- स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद 1951 में अखिल भारतीय विधिज्ञ (बार) कमेटी न्यायमूर्ति एस० आर० दास की अध्यक्षता में नियुक्त की गयी। कमेटी ने अखिल भारतीय बार कौंसिल और स्टेट बार कौंसिल की स्थापना की सिफारिश की। कमेटी ने यह भी सिफारिश की कि जो व्यक्ति विधि स्नातक नहीं हैं, उन्हें वकील और मुख्तार के रूप में सूचीबद्ध नहीं किया जाना चाहिए।

      इसके साथ ही इसने यह भी सुझाव दिया कि एडवोकेटों की एक सूची तैयार की जानी चाहिए और उन्हें देश के किसी भी न्यायालय में प्रैक्टिस करने का अधिकार होना चाहिए।

        सन् 1958 में विधि आयोग ने अपनी 14वीं रिपोर्ट में एकीकृत अखिल भारतीय बार की स्थापना की सिफारिश की विधि आयोग ने बार को वरिष्ठ अधिवक्ता और अधिवक्ता में विभाजित करने का सुझाव दिया।

(4) अधिवक्ता अधिनियम, 1961 – सन् 1961 में भारतीय संसद ने अधिवक्ता अधिनियम पारित किया। इसका उद्देश्य विधि-व्यवसाय सम्बन्धी विधि को संकलित और संशोधित करना और स्टेट बार कौंसिल तथा बार कौंसिल ऑफ इण्डिया के गठन के सम्बन्ध में उपबन्ध करना है। इस अधिनियम का विस्तार सम्पूर्ण भारत पर है। बार कौंसिल ऑफ इण्डिया वृत्तिक आचरण और शिष्टाचार के मानक का निर्धारण करती है और इसके उल्लंघन पर दण्ड के सम्बन्ध में भी नियम बना सकती है। यह विधि शिक्षा का स्तर निर्धारित करती है और उन विश्वविद्यालयों को मान्यता प्रदान करती है जिनकी विधि-स्नातक की डिग्री प्राप्तकर्ता को अधिवक्ता (एडवोकेट) के रूप में सूचीबद्ध किया जा सकता है। यह राज्य विधिज्ञ परिषद् (स्टेट बार कौंसिल) पर नियन्त्रण भी रखती है और अधिवक्ताओं के हितों की रक्षा भी करती है।

      स्वतन्त्रता के पश्चात् विधि-व्यवसाय में आये बदलाव – भारतीय बार कौंसिल ऐक्ट, 1926 विधिक व्यवसायियों की आकांक्षाओं को पूरा करने में असफल हो गया था और उनमें से अधिकारीगण जिनमें वकील, प्लीडर एवं मुख्तार शामिल थे, लीगल प्रैक्टिशनर्स ऐक्ट 1879 द्वारा शासित होते थे। उसके पश्चात् वर्ष 1951 में आल इण्डिया बार कमेटी जिसके अध्यक्ष न्यायमूर्ति एस० आर० दास थे, का गठन अखिल भारतीय बार के विधि व्यवसायियों की मांगों पर विचार सम्पूर्ण भारत के लिए किया गया था। सम्पूर्ण भारत में विधि व्यवसाय को एकरूपता प्रदान करने के लिए भी माँग की गयी थी।

       अखिल भारतीय बार समिति, 1951- अखिल भारतीय बार समिति ने 1951 में निम्नलिखित सिफारिशें की थीं-

(I) एक रूप राष्ट्रीय बार की स्थापना।

(2) किसी अधिवक्ता के प्रवेश के लिए न्यूनतम अर्हता यह निर्धारित की गयी कि वह विज्ञान, वाणिज्य अथवा कला में स्नातक होने के पश्चात् किसी विश्वविद्यालय में कम से कम दो वर्ष तक विधि का अध्ययन किया हो।

(3) प्रक्रियात्मक विधि, परिसीमा अधिनियम, स्टाम्प अधिनियम एवं न्यायालय फीस अधिनियम जैसे व्यवहारिक विषयों पर एक वर्ष तक उसने प्रशिक्षु का प्रशिक्षण पाया हो।

(4) विधि व्यवसाय में ऐसे व्यक्तियों को प्रवेश का प्रतिषेध जो स्नातक न हो । विधिक आचार, अधिवक्ताओं की जवाबदेही पर प्रश्नोत्तर

(5) बम्बई एवं कलकत्ता उच्च न्यायालयों में वैध प्रणाली को बनाये रखना।

(6) सामान्य अधिवक्ता सूची का रख-रखाव अखिल भारतीय बार कौंसिल द्वारा किया जायेगा तथा अधिवक्ता को उच्चतम न्यायालय से लेकर भारत के अधीनस्थ न्यायालयों तक में प्रैक्टिस करने का अधिकार होगा।

(7) वैधानिक निकायों की स्थापना अर्थात् राष्ट्रीय स्तर पर अखिल भारतीय बार कौंसिल और राज्य स्तर पर राज्य बार कौंसिल की स्थापना।

(8) बार कौंसिल को शक्ति प्रदान करना अर्थात् अधिवक्ताओं का नामांकन, निलम्बन एवं उन्हें हटाने की शक्ति प्रदान करना।

(9) सभी न्यायालयों में राष्ट्रीय भाषा का अंगीकार करना, अतः कानूनों एवं अधिनियमों के अनुवाद की राष्ट्रीय भाषा में ईप्सा की गयी। न्यायालय की भाषा भी राष्ट्रीय भाषा होनी चाहिए।

      विधि आयोग की 14वीं रिपोर्ट – वर्ष 1953 में अखिल भारतीय बार कौंसिल, 1951 ने अपनी रिपोर्ट सौंपी थी जिसका क्रियान्वयन सरकार द्वारा किया गया था। इसी बीच विधि आयोग ने श्री एम० सी० सीतलवाद की अध्यक्षता में वर्ष 1958 को अपनी 14वीं रिपोर्ट प्रस्तुत की थी और आयोग ने न्यायिक प्रशासन में कतिपय सुधारों की अनुशंसा की थी। यह उल्लेखनीय है कि विधि आयोग अखिल भारतीय बार कौंसिल की अधिकांश अनुशंसाओं से सहमत हो गया था। किन्तु आयोग ने विधिक व्यवसायियों के विभिन्न श्रेणियों को समाप्त करने की अनुशंसा की थी तथा सभी विधिक व्यवसायियों को केवल एक ही श्रेणी में शामिल करने की अनुशंसा की थी। यद्यपि विधि आयोग द्वारा सीनियर एडवोकेट एवं एडवोकेट के रूप में विभाजित किया गया था। स्वायत्तता प्राप्त करने की दृष्टि से, अखिल भारतीय बार कौंसिल की स्थापना की अनुशंसा की गयी थी। विधि आयोग कलकत्ता एवं बम्बई उच्च न्यायालयों में द्वैध प्रणाली के अपनाये जाने के भी पक्ष में था।

      यद्यपि विधि आयोग ने अपनी 14वीं रिपोर्ट में विधिक शिक्षा की प्रचलित दशा का उल्लेख किया था जैसा कि आयोग ने प्रेक्षण किया था “यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमें अपने देश की बहुसंख्यक शिक्षण संस्थाओं में दी जाने वाली विधिक शिक्षा की खराब स्थिति का उल्लेख करना पड़ रहा है।” सम्भवतः विधि आयोग की रिपोर्ट में अखिल भारतीय बार कमेटी की रिपोर्ट की बात को बढ़ा-चढ़ा कर कहा गया था जो वर्ष 1953 में प्रस्तुत की गयी थी और जिसके परिणामस्वरूप अधिवक्ता अधिनियम, 1961 का अधिनियमन किया गया था, जिसका उद्देश्य विधि-व्यवसाय सम्बन्धी विधि को संकलित और संशोधित करना और बार कौंसिल तथा अखिल भारतीय बार कौंसिल के गठन के सम्बन्ध में उपबन्ध करना है। इस अधिनियम का विस्तार सम्पूर्ण भारत पर है। अधिवक्ता अधिनियम, 1961 राज्य बार परिषद् और भारतीय बार परिषद् (Bar Council of India) के गठन, कार्य और शक्तियों के सम्बन्ध में उपबन्ध करता है।

प्रश्न 2. विधि व्यवसाय की महत्ता पर एक निबन्ध लिखिए। Write an essay on the importance of legal profession.

उत्तर— विधि व्यवसाय एक आम पुरुषों द्वारा अपनाये जाने वाला व्यवसाय है। इस व्यवसाय द्वारा न केवल कथित व्यक्ति के लिए न्याय की ईप्सा की जाती है बल्कि न्याय के प्रशासन में सहायता भी प्रदान की जाती है। दूसरे शब्दों में अधिवक्ताओं की सहायता के बिना न्यायालयों द्वारा न्यायपूर्ण एवं स्वच्छ निर्णय देना अतिमानवीय कार्य होगा।

      यह सत्य है कि विधि का विषय बहुत जटिल है। यह अनुभव किया गया है कि विभिन्न अधिनियमों एवं विनियमों की भाषा सरल नहीं होती है बल्कि पर्याप्त जटिल होती है। इस प्रकार से इसे समझना सरल काम नहीं होता है। मुकदमों के सिलसिले में पक्षकार अधिवक्ताओं की परामर्श प्राप्त करते हैं और विभिन्न प्रकार के अधिनियमों एवं विनियमों का सही अर्थ समझते हैं। माधव सिंह (ए० आई० आर० 1923 पटना 185) के मामले में पटना उच्च न्यायालय ने यह प्रेक्षण किया है कि-“अधिवक्तागण एवं प्लीडरों का नामांकन न केवल न्याय के प्रशासन में न्यायालयों को सहायता प्रदान करना होता है बल्कि ऐसी व्यावसायिक परामर्श देने के लिए होता है जिसके लिए वे जनता की उन व्यक्तियों द्वारा भुगतान के हकदार होते हैं जो उनकी सेवा में प्राप्त करते हैं।

        यह एक भ्रम है कि अधिवक्तागण अपने मुवक्किलों के हाथ का खिलौना होते हैं और वे अपने मुवक्किलों के हित का कार्य करते समय उनके अनुदेशों का अनुसरण करते हैं। वस्तुतः अधिवक्तागण मामले के न्यायपूर्ण एवं स्वच्छ व्यवहार के लिए न्यायालय के प्रति उत्तरदायी होते हैं। बाबू द्वारका प्रसाद मित्तल (ए० आई० आर० 1924 इला० 253) के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने यह प्रेक्षण किया है कि अधिवक्तागण न केवल उस व्यक्ति के अभिकर्ता होते हैं जो उन्हें भुगतान करता है बल्कि वे न्यायालय की न्याय के प्रशासन में सहायता करते हैं। सी० एल० आनन्द के अनुसार ‘जनरल प्रिन्सपल्स ऑफ लीगल इथिक्स’ में उन्होंने यह प्रेक्षण किया है कि न्याय प्रशासन के समुचित रूप से कार्य करने के लिए पाँच आवश्यक तत्व होते हैं-

(i) बुद्धि अथवा सामाजिक न्याय पर आधारित सुव्यवस्थित विधियों;

(ii) विधि में निष्णात अधिवक्तागण:

(iii) व्यावसायिक आचार के उच्च सिद्धान्त;

(iv) न्यायिक उत्क्रम के रूप में बेंच एवं बार;

(v) स्वच्छ विचारण का उचित वातावरण।

       समाज की प्रगति का अस्तित्व न्याय के प्रशासन की स्वच्छता एवं क्षमता पर निर्भर करता है जिसमें अधिवक्ताओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है विशेष रूप से समाज में कानून और व्यवस्था को स्थापित करने में होती है जिसके बिना समाज का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा। जैसा कि सी० एल० आनन्द ने ठीक ही कहा है कि अधिवक्तागण समाज में व्यवस्था स्थापित करने में न्यायाधीशों के साथ हाथ बँटाते हैं। न्यायाधीश एवं अधिवक्तागण मुकदमों की अभिवृद्धि नहीं करते हैं बल्कि उनका न्यायपूर्ण निपटारा करते हैं। अधिवक्ताओं द्वारा इंफित अनुतोष कोई पूर्वकार्य नहीं होता है बल्कि यह न्याय पर आधारित होता है। विधिक न्याय का अभिवाक् करना प्रत्येक अधिवक्ता का प्राथमिक लक्ष्य होता है तथा विधिक न्याय का अभिवाक वह अपने मुवक्किल की ओर से विधि के अनुसार अनुचित साधनों को अपनाये बिना करता है। अधिवक्ता विधि के उल्लंघन के विरुद्ध संरक्षक की भूमिका निभाता है।

     यह उल्लेखनीय है कि विधि के सुधार में अधिवक्ता महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वे अपने व्यवसाय के कारण सक्षम होते हैं अर्थात् विधिक सुधार करने के लिए विधिक व्यवसाय द्वारा सक्षम होता है। यह सत्य है कि अधिवक्तागण विधि के प्रतिदिन निर्वचन करने एवं प्रयोग करने के कारण अनुभवी होते हैं और उन्हें विधि की कमियों एवं कमी की जानकारी होती है तथा न्यायिक प्रणाली की भी उन्हें जानकारी होती है। इस प्रकार से अधिवक्तागण विधि के क्षेत्र में विधि सुधार का परामर्श देने में सर्वाधिक सक्षम वर्ग बन गये हैं। विधायन का मसौदा तैयार करना बहुत ही कठिन कार्य है किन्तु अधिवक्ताओं से अधिक इस कार्य में दिशा निर्देश देने के लिए कोई भी व्यक्ति उपयुक्त नहीं है।

      यह तर्क दिया गया है कि विधि व्यवसाय एक शानदार व्यवसाय है तथा इस व्यवसाय में अत्यधिक उत्साह होता है। विधि का सृजन व्यक्तिगत प्राप्ति के लिए नहीं होता है बल्कि समाज के कल्याण, शांति एवं व्यवस्था के लिए होता है। विधि व्यवसाय को धन ऐंठने का पेशा कहना उचित नहीं है। विधि व्यवसाय न्याय के प्रशासन की एक महत्वपूर्ण शाखा है। विधि व्यवसाय के नीतिशास्त्र के अनुसार कोई अधिवक्ता प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अपना विज्ञापन नहीं कर सकता है इस प्रकार से विधि व्यवसाय कोई वाणिज्यिक व्यवसाय नहीं होता है। भारतीय न्यायालयों ने बहुत से अवसरों पर यह बात अभिपुष्ट की है कि एक अधिवक्ता न्यायालय का अधिकारी होता है और उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह न्यायालय की गरिमा एवं सदाचार को दृष्टिपथ में रखते हुये न्यायालय के प्रति सम्मानपूर्ण दृष्टिकोण अपनायेगा और यह सम्मान समाज की शांति, प्रगति एवं कल्याण के लिए आवश्यक है। हमराज एल० चुलानी बनाम बार कौंसिल ऑफ महाराष्ट्र एण्ड गोवा (ए० आई० आर० 1996 एस० सी० 1708) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह ठीक ही कहा है कि “विधि व्यवसाय न्याय के प्रशासन में न्यायपालिका का भागीदार है।”

       अतः अधिवक्ताओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वे पूरे समय तक ऐसे तरीके से आचरण करेंगे जो न्यायालय के अधिकारी के रूप में उनकी प्रास्थिति के अनुरूप होगा। वह समाज का एक विशेषाधिकार प्राप्त सदस्य होता है तथा उसके मस्तिष्क में यह बात हमेशा बनी रहती है कि ऐसे व्यक्ति के लिए क्या विधिपूर्ण एवं नैतिक होगा जो बार का सदस्य हो।

प्रश्न 3. नैतिकता क्या है? वकालत में नैतिकता की भूमिका की विवेचना करें? What is ethics? Discuss its role in advocacy.

उत्तर- नैतिकता या आचार (Ethics) – विधिक व्यवसाय में आचार से तात्पर्य ऐसे आचरण की संहिता से है जो चाहे लिखित हो अथवा अलिखित परन्तु विधि व्यवसाय करने वाले अधिवक्ता के अपने समाज के प्रति, अपने मुवक्किल के प्रति, विधि में अपने प्रतिपक्षी के प्रति और न्यायालय के प्रति उसके व्यवहार को विनियमित करती हो। इस प्रकार से विधिक व्यवसाय के आचार से तात्पर्य उन नियमों एवं व्यवहार से है जो कि अधिवक्ताओं अथवा विधिवेत्ताओं के व्यावसायिक आचरण को विनियमित करते हैं। अधिवक्ता का आचरण विशेष नियमों से विनियमित होता है और इसे विधि व्यवसाय का आचार कहा जाता है।

     विधिक आचार का मुख्य प्रयोजन विधिक व्यवसाय के सम्मान और मर्यादा को बनाये रखना और अधिवक्ताओं एवं न्यायाधीशों के बीच मित्रतापूर्ण सम्बन्ध बनाये रखना है। संयुक्त राज्य अमेरिका के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश मार्शल के अनुसार विधि व्यवसाय का मूलभूत उद्देश्य विधिक व्यवसाय की मर्यादा और सम्मान को बनाये रखना, न्याय के सर्वोच्च मानक की अभिवृद्धि में बेंच और बार के मध्य मित्रतापूर्ण सहयोग की भावना सुनिश्चित करना, परामर्शदाता का उसके मुवक्किल, प्रतिपक्षी और साक्षियों के साथ उचित और सम्मानपूर्ण व्यवहार की स्थापना करना; विधिज्ञ वर्ग के अन्तर्गत भाई-चारे की भावना की स्थापना करना तथा इस बात को सुनिश्चित करना है कि विधिज्ञ वर्ग सामान्य समुदाय के प्रति भी अपने उत्तरदायित्व का सम्पादन करते हैं।

       यह उल्लेखनीय है कि अमेरिकी बार एसोसिएशन कमेटी ने भी विधिक आचार संहिता पर बल दिया है। न्यायाधीश सुन्दरम अय्यर ने कहा है कि केवल न्यायाधीश विधिज्ञों को नियन्त्रित नहीं कर सकते हैं। यह आवश्यक है कि विधिक व्यवसाय करने वाले स्वयं अपने को निर्देशित करने हेतु नियम बनायें और अनुशासन बनाये रखने के लिए इनका अपना निकाय हो। किसी अधिवक्ता को यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि चूंकि वह किसी विशिष्ट मुवक्किल का प्रतिनिधित्व कर रहा है फिर भी वह न्यायालय का एक अधिकारी है और उसका कर्त्तव्य न केवल अपने मुवक्किल के प्रति है बल्कि सम्पूर्ण समाज के प्रति है और सामान्य जनता के प्रति भी है। अतः किसी अधिवक्ता की विशेष जिम्मेदारी होती है क्योंकि उसका विशेषाधिकार विस्तृत होता है और उसकी भाषण की स्वतंत्रता विशेष रूप से असीमित होती है। इस प्रकार से किसी अधिवक्ता को अपवादात्मक लाभ का प्रयोग अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए कभी नहीं करना चाहिए।

     डॉ सी० एल० आनन्द ने भी विधिक आचार पर बल देते हुए कहा है कि राज्य का केवल यही कर्त्तव्य नहीं है कि वह अयोग्य अथवा अक्षम विधिज्ञों से व्यक्तियों को बचायें बल्कि उनसे भी बचाने का कर्त्तव्य है जो व्यावसायिक सेवा के आभार की उपेक्षा करते हैं।

      न्यायमूर्ति वाश ने अपनी ‘एडवोकेट’ नामक पुस्तक में यह कहा है कि एक अधिवक्ता का यह प्रधान कर्त्तव्य होता है कि वह भद्र पुरुष बने। यदि उसमें एक भद्र पुरुष के नैसर्गिक गुण नहीं हैं तो वह निश्चित रूप से परेशानी में पड़ जायेगा।

      सरशिध स्वामी ने कहा है कि यह सत्य है कि आचार पर प्रवचन देकर किसी व्यक्ति को आवश्यक रूप से नैतिक नहीं बनाया जा सकता है किन्तु यह स्मरण रहे कि परम्परागत मानक की समाप्ति बहुधा अज्ञानता के कारण होती है। व्यवसाय में लाभ नियमों का ज्ञान उसके उच्च स्तर को बनाये रखने में महत्वपूर्ण योगदान होता है। विधि व्यवसाय से सम्बन्धित आचार संहिता का अनुसरण करने के लिए लिखित आचरण संहिता आवश्यक है। यद्यपि प्रारम्भ में इंग्लैण्ड में लिखित आचार संहिता की प्रशंसा नहीं हुई किन्तु बाद में जनरल कौंसिल ऑफ बार ने एक पुस्तक प्रकाशित की। इसमें विधिज्ञों के मार्गदर्शन के लिए एक पूर्ण संहिता का समावेश किया गया। भारत में अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 49 (1) (ग) के अन्तर्गत उपलब्ध शक्ति का प्रयोग करते हुए भारतीय विधिज्ञ परिषद् ने अधिवक्ताओं के लिए आचार संहिता बना दी है। यह उल्लेखनीय है कि भारत में अधिवक्ताओं के लिए आचार संहिता का निर्माण बार कौंसिल ऑफ इंडिया द्वारा अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 49 (1) (ग) के अधीन नियम निर्माण शक्ति के अन्तर्गत किया गया है। अधिवक्ताओं को शासित करने वाली नियमावली की प्रस्तावना में यह घोषणा की गयी है कि एक अधिवक्ता पूरे समय न्यायालय के एक अधिकारी के रूप में, समाज के विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के सदस्य के रूप में और एक भद्र पुरुष के रूप में, अपने मस्तिष्क पर इस बात को दृष्टिपथ में रखते हुए अपनी प्रास्थिति (हैसियत) बरकरार रखेगा कि ऐसे व्यक्ति के लिए जो बार का सदस्य नहीं है जो कुछ भी विधिपूर्ण एवं नैतिक, अन्यथा किसी बार में सदस्य के लिए अनैतिक हो सकता है। उपर्युक्त बाध्यताओं पर बिना कोई प्रतिकूल प्रभाव डाले एक अधिवक्ता अपने मुवक्किल के हितों को निडर भाव से मान्य ठहराता है और उसका आचरण बनाये गये नियमों की दिलोजान से अभिपुष्टि करता है। एतदपश्चात् वरित नियमों में सामान्य दिशा- निर्देश के रूप में अपनाये गये आचरण के सिद्धान्त एवं शिष्टाचार अन्तर्विष्ट है किन्तु उसके विनिर्दिष्ट उल्लेख का अर्थान्वयन अन्य आज्ञापक ऐसे समान नियमों का प्रत्याख्यान के रूप में नहीं लगाया जाना चाहिए जिनका विनिर्दिष्ट रूप में उल्लेख नहीं किया गया है। अतः यह कहा जा सकता है कि चूँकि विधि व्यवसाय जनता के व्यापक कल्याण के लिए राज्य द्वारा बनाया गया है इसलिए विधि व्यवसाय एक रोजगार नहीं है बल्कि व्यवसाय है और ऐसा व्यवसाय है जिसकी गरिमा एवं निष्ठा को बनाये रखने के लिए आचार संहिता की आवश्यकता है।

प्रश्न 4. अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की विशिष्टतायें क्या हैं? संक्षेप में वर्णन कीजिए। What are important features of the Advocate Act, 19612 Briefly describe them.

उत्तर- अधिवक्ता अधिनियम, 1961 का अधिनियमन अखिल भारतीय बार कमेटी, 1951 एवं विधि आयोग की रिपोर्ट का परिशीलन के पश्चात् किया गया था। इस अधिनियम को निम्नलिखित विशेषतायें हैं –

(1) स्वायत्तशासी प्रास्थिति (Autonomous Status) – अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के अन्तर्गत भारतीय विधिज्ञ परिषद् एवं राज्य विधिज्ञ परिषदों को स्वायत्तशासी निकायों की प्रास्थिति दी गयी है। इन निकायों को उनके स्वयं के कार्यों के सम्बन्ध में नियम बनाने की शक्ति प्रदान की गयी है।

(2) समान राज्य बार कौंसिल- उक्त अधिनियम द्वारा दो अथवा दो से अधिक राज्यों के लिए समान राज्य बार कौंसिल (राज्य विधिज्ञ परिषद्) के गठन का प्रावधान किया गया है अर्थात् असम, नागालैण्ड, मेघालय, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा एवं अरुणाचल प्रदेश के सात पूर्वोत्तर राज्यों के लिए एक ही बार कौंसिल का प्रावधान किया गया है तथा पंजाब एवं हरियाणा राज्यों के लिए समान राज्य बार कौंसिल का प्रावधान किया गया है।

(3) बार कौंसिल ऑफ इण्डिया (भारतीय विधिज्ञ परिषद्) का गठन- अधिवक्ता अधिनियम, 1961 ने एक अखिल भारतीय बार कौंसिल के गठन का प्रावधान किया है जिसे बार कौंसिल ऑफ इण्डिया के नाम से जाना जाता है। इस कौंसिल में भारत के महान्यायवादी, भारत के सालिसिटर जनरल तथा प्रत्येक राज्य के बार कौंसिल द्वारा अपने सदस्यों से चुने गये एक-एक सदस्य शामिल होंगे। बार कौंसिल ऑफ इण्डिया के अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष होंगे जिनका निर्वाचन बार कौंसिल ऑफ इण्डिया के सदस्यों द्वारा किया जायेगा। बार कौंसिल ऑफ इण्डिया को एक निगमित निकाय की मान्यता प्राप्त है।

(4) अधिवक्ता के रूप में प्रवेश के लिए एक समान शर्ते – अधिवक्ता अधिनियम की धारा 24 में अधिवक्ता के रूप में प्रवेश पाने की ईप्सा करने वाले व्यक्ति के लिए आवश्यक एक समान शर्तों एवं अर्हताओं का प्रावधान किया गया है। किसी राज्य की सूची में किसी व्यक्ति को अधिवक्ता के रूप में शामिल किया जा सकता है यदि वह निम्नलिखित शर्तों को पूरी करता हो-

(1) वह भारत का नागरिक हो।

(2) उसने 21 वर्ष की आयु पूरी कर ली हो।

(3) उसने किसी मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय से तीन वर्ष का पाठ्यक्रम पूरा करने के पश्चात् विधि में स्नातक उपाधि प्राप्त कर ली हो बशर्ते कि इस प्रकार की डिग्री को बार कौंसिल ऑफ इण्डिया द्वारा मान्यता दी गयी हो।

(4) उसने संबंधित राज्य की बार कौंसिल को देय नामांकन शुल्क (अर्थात् रु० 750 रुपये जिसमें से 600 रुपये संबंधित राज्य की बार कौंसिल को तथा शेष 150 रुपये बार कौंसिल ऑफ इण्डिया को देव होगा, जमा कर दिया है।

(5) उसे ऐसी अन्य शर्तों का अनुपालन करना आवश्यक है जो राज्य बार कौंसिल द्वारा निर्मित नियमों में विनिर्दिष्ट किया जा सकता है।

(5) अधिवक्ताओं के दो वर्गों का सृजन- अधिवक्ता अधिनियम, 1961 द्वारा अधिवक्ताओं के दो वर्गों का सृजन किया गया है अर्थात् वरिष्ठ अधिवक्ता (Senior Advocate) एवं अन्य अधिवक्ता उच्चतम न्यायालय अथवा उच्च न्यायालय के किसी अधिवक्ता को बार में उसकी स्थिति अथवा विधि के क्षेत्र में उसके विशेष ज्ञान अथवा अनुभव के आधार पर वरिष्ठ अधिवक्ता की मान्यता देने की शक्ति प्राप्त है। फिर भी बार कौंसिल ऑफ इण्डिया द्वारा निर्मित नियमावली द्वारा वरिष्ठ अधिवक्ता की प्रैक्टिस पर कतिपय प्रतिबन्ध लगाये गये हैं। कोई वरिष्ठ अधिवक्ता किसी कनिष्ठ अधिवक्ता के बिना उपस्थित नहीं हो सकता है। वरिष्ठ अधिवक्ता कार्य नहीं कर सकता है। बल्कि वह केवल अभिवाक कर सकता है।

(6) अधिवक्ताओं की कोई सामान्य सूची नहीं- मूल अधिनियम में अधिवक्ता की दो सूचियों का प्रावधान किया गया था अर्थात् एक सूची की तैयारी एवं रख-रखाव राज्य बार कौंसिल द्वारा की जायेगी जिसे राज्य सूची (State Roll) कहा जायेगा और दूसरी सूची का निर्माण एवं रख-रखाव बार कौंसिल ऑफ इण्डिया द्वारा किया जायेगा जिसे सामान्य सूची (Comon Roll) कहा जायेगा। किन्तु संशोधन अधिनियम, 1973 (60 वर्ष 1973) द्वारा ‘कॉमन रोल’ शब्द के स्थान पर ‘स्टेट रोल’ शब्द रख दिया गया है। इस प्रकार से वर्तमान समय में अधिवक्ताओं की कोई सामान्य सूची (Common Roll) नहीं है बल्कि केवल अधिवक्ताओं की राज्य सूची (State Roll of Advocates ) ।

(7) लिखित आचार संहिता- अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के अधिनियमन के पूर्व अधिवक्ताओं के लिए कोई लिखित आचार संहिता नहीं थी किन्तु इस अधिनियम के अन्तर्गत वर्तमान समय में बार कौंसिल ऑफ इण्डिया द्वारा वृत्तिक आचार एवं शिष्टाचार के मानक से संबंधित नियम बनाये गये हैं।

(8) विधिक शिक्षा हेतु नियमों का विनियमन – अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के अन्तगत बार कौंसिल ऑफ इण्डिया को यह शक्ति दी गयी है कि वह ऐसी विधिक शिक्षा के मानक के संबंध में नियम निर्माण करे जो अधिवक्ता के रूप में प्रवेश के लिए आवश्यक होगी। इस प्रकार से बार कौंसिल ऑफ इण्डिया एक ऐसा विनियामक निगमित निकाय है जो देश में विधिक शिक्षा को शासित करने हेतु नियम निर्माण करता है।

(9) विधि व्यवसाय की हकदारी- अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 30 में यह प्रावधान किया गया है कि यदि किसी व्यक्ति का अधिवक्ता के रूप में नामांकन हो जाता है तो वह उच्चतम न्यायालय सहित सभी न्यायालयों में प्रैक्टिस करने का हकदार हो जाता है। फिर भी अधिवक्ता के कुटुम्ब न्यायालयों, औद्योगिक अधिकरणों एवं भूमि अधिकरणों आदि के समक्ष प्रैक्टिस करने से निर्वाचित किया गया है। उक्त धारा की प्रवर्तनीयता को सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अल्तेश रैन बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया (ए० आई० आर० 1988 एस० सी० 1768) के मामले में लाया गया है और न्यायालय ने केन्द्र सरकार को 6 महीने के भीतर इस बात पर विचार करने का निर्देश दिया था कि अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 30 को प्रवर्तित किया जा सकता है अथवा नहीं। यह उल्लेखनीय है कि उक्त तिथि तक उक्त धारा को प्रवर्तित नहीं किया गया था।

प्रश्न 5. (i) ‘अधिवक्ता’ शब्द से आप क्या समझते हैं? विधि व्यवसाय के लिए कौन-कौन सी अर्हताओं का होना जरूरी है? क्या कोई व्यक्ति जो अधिवक्ता नहीं है, विधि व्यवसाय कर सकता है? निर्णीत वादों की सहायता से समझाइए ।What do you mean by the term ‘Advocate’? What are the qualifications for practising Law? Can a person, who is not an advocate, practice law? Explain with the help of decided cases.

(ii) अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के अन्तर्गत अधिवक्ता के नामांकन हेतु वर्णित प्रक्रिया को समझाइये तथा वरिष्ठ तथा अन्य अधिवक्ता के बारे में अधिनियम में क्या उपबन्ध किया गया है? स्पष्ट करें। Discuss the procedure for enrolment of an Advocate as prescribed under Advocates Act, 1961 and what provision has been made in reference to senior Advocate and other Advocate under the Act ? Explain.

(iii) क्या अधिवक्ता के अलावा अन्य व्यक्ति न्यायालय में उपसंजात हो सकता है? वर्णन कीजिए। Whether a person other than advocate can appear in court? Discuss.

उत्तर (i) – अधिवक्ता (Advocate) – अधिवक्ता न्यायालय का आफिसर होता है। और उसका यह कर्तव्य होता है कि वह न्यायालय के प्रति आदरपूर्ण रुख या दृष्टिकोण बनाये रखे। अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 2 (क) के अनुसार- “अधिवक्ता” से तात्पर्य इस अधिनियम के उपबन्धों के अधीन किसी नामावली में दर्ज अधिवक्ता अभिप्रेत हैं ।

       राज्य विधिज्ञ परिषद् अधिवक्ताओं की सूची तैयार करती है और इसकी प्रतिलिपि भारतीय विधिज्ञ परिषद् को भेजती है। इस सूची में जिन अधिवक्ताओं का नाम होता है, वह भारत के किसी भी न्यायालय में प्रेक्टिस कर सकते हैं।

       ऐसे व्यक्ति, जिन्हें राज्य नामावली में अधिवक्ताओं के रूप में प्रविष्ट किया जा सकता है – अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 24 के अनुसार कोई भी व्यक्ति इस अधिनियम और इसके अधीन बनाये गये नियमों के प्रावधानों के अधीन रहते हुए नामावली में अधिवक्ता के रूप में प्रविष्ट किये जाने के लिए योग्य तभी होगा जब वह निम्नलिखित शर्तों को पूरा करता है-

(क) वह भारत का नागरिक हो;

       परन्तु इस अधिनियम के अन्य उपबन्धों के अधीन रहते हुए ऐसे किसी अन्य देश का राष्ट्रिक, किसी राज्य नामावली में अधिवक्ता के रूप में उस दशा में प्रविष्ट किया जा सकेगा जब वह सम्यक् रूप से अर्हित (योग्य) भारत का नागरिक उस अन्य देश में विधि-व्यवसाय करने के लिए अनुज्ञात हो।

(ख) उसने 21 वर्ष की आयु पूरी कर ली है;

(ग) उसने-

(i) भारत के राज्य क्षेत्र के किसी विश्वविद्यालय से 12 मार्च, 1967 से पूर्व विधि की उपाधि प्राप्त कर ली है; या

(ii) किसी ऐसे क्षेत्र के, जो भारत शासन अधिनियम, 1935 द्वारा परिनिश्चित भारत के भीतर 15 अगस्त, 1947 के पूर्व समाविष्ट था, किसी विश्वविद्यालय से, उस तारीख के पूर्व विधि की उपाधि प्राप्त कर ली है; या

(iii) उपखण्ड (iii-क) में जैसा उपबन्धित है, को छोड़कर, विधि विषय में 3 वर्ष के पाठयक्रम को पूरा करने के पश्चात् भारत के किसी ऐसे विश्वविद्यालय से जिसे भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा, इस अधिनियम के प्रयोजनों के लिए, मान्यता प्राप्त है, 12 मार्च, 1967 के पश्चात् विधि की उपाधि प्राप्त कर ली है; या

(iii-क) विधि विषय में ऐसा पाठ्यक्रम पूरा करने के पश्चात् जिसकी अवधि शिक्षण वर्ष 1967-68 या किसी पूर्ववर्ती शिक्षण वर्ष से आरम्भ होकर दो शिक्षण वर्षों से कम को न हो, भारत के किसी ऐसे विश्वविद्यालय से जिसे भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा इस अधिनियम के प्रयोजनों के लिए मान्यता प्राप्त है, विधि की उपाधि प्राप्त कर ली है; या

(iv) अन्य किसी दशा में भारत के राज्य क्षेत्र से बाहर के किसी विश्वविद्यालय से विधि की उपाधि प्राप्त की है, यदि उस उपाधि को, इस अधिनियम के प्रयोजनों के लिए, भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा मान्यता प्राप्त है; या

(v) वह ऐसी अन्य शर्तें पूरी करता है, जो इस अध्याय के अधीन राज्य परिषद द्वारा बनाये गये नियमों में विनिर्दिष्ट की जाएँ तथा उसने, नामांकन के लिए, भारतीय स्टाम्प अधिनियम, 1899 के अधीन प्रभार्य शुल्क, यदि कोई हो और राज्य विधिज्ञ परिषद् को संदेय 250/- रुपये की नामांकन फीस दी है।

        परन्तु जहाँ ऐसा व्यक्ति अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का सदस्य है और ऐसे प्राधिकारी से, जो विहित किया जाए, उस आशय का प्रमाणपत्र पेश करता है वहाँ उसके द्वारा राज्य विधिज्ञ परिषद् को संदेय नामांकन फीस 125/- रुपये होगी।

             इस उपधारा के प्रयोजनों के लिए किसी व्यक्ति को भारत के किसी विश्वविद्यालय से विधि की उपाधि प्राप्त उस तारीख से समझा जाएगा, जिस तारीख को उस उपाधि की परीक्षा के परिणाम, विश्वविद्यालय द्वारा अपने सूचना पट्ट पर प्रकाशित किये जाते हैं या अन्यथा यह घोषित किया जाता है कि उसने परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है।

       धारा-24 (2) में कहा गया है कि कोई वकील या प्लीडर जो विधि स्नातक है, राज्य नामावली में अधिवक्ता के रूप में प्रविष्ट किया जा सकता है, यदि वह-

(क) इस अधिनियम के उपबन्धों के अनुसार, ऐसे नामांकन के लिए आवेदन नियत दिन से दो वर्षों के भीतर, न कि उसके पश्चात् करता है; और

(ख) उपधारा (1) के खण्ड (क), (ख), (ङ) और (च) में विनिर्दिष्ट शर्तें पूरी करता है।

धारा 24 (3) में कहा गया है कि कोई व्यक्ति जो-

(क) कम से कम 3 वर्षों तक वकील या प्लीडर या मुख्तार रहा हो या किसी विधि के अन्तर्गत किसी भी समय किसी उच्च न्यायालय के या किसी संघ राज्यक्षेत्र में न्यायिक आयुक्त के न्यायालय में अधिवक्ता के रूप में नामांकित किए जाने का हकदार था; या

(ख) किसी विधि के उपबन्धों के आधार पर (चाहे अभिवचन द्वारा या कार्य द्वारा या दोनों के द्वारा) विधि-व्यवसाय करने के लिए अधिवक्ता से भिन्न रूप में 1 दिसम्बर, 1961 के पूर्व हकदार था, या जो इस प्रकार हकदार होता यदि वह उस तारीख को लोक सेवा में न होता; या

(ग) भारत शासन अधिनियम, 1935 द्वारा परिनिश्चित बर्मा में समाविष्ट किसी क्षेत्र के किसी उच्च न्यायालय का, 1 अप्रैल, 1937 के पूर्व अधिवक्ता था; या

(घ) भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा इस निमित्त बनाए गए किसी नियम के अधीन अधिवक्ता के रूप में नांमांकित किए जाने के लिए हकदार है,

       हंसराज एल० छुलानी बनाम बार कौंसिल ऑफ महाराष्ट्र एण्ड गोवा, ए० आई० आर० 1996 एस० सी० 1708 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया है कि भारतीय विधिज्ञ परिषद् का वह नियम जो अन्य व्यवसाय कर रहे हैं, उन्हें विधिक व्यवसाय करने से वर्जित करता है, मनमाना नहीं है और भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के उल्लंघन में नहीं है। यह अयुक्तियुक्त प्रतिबन्ध आरोपित नहीं करता है और इस कारण अनुच्छेद 19 (1) (छ) के भी उल्लंघन में नहीं है। विधिक व्यवसाय ऐसा व्यवसाय है जो कि पूर्ण समय ध्यान देने की अपेक्षा करता है। उच्चतम न्यायालय ने यह भी मत व्यक्त किया है कि निःसन्देह अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत जीविका का अधिकार भी सम्मिलित है। परन्तु जो व्यक्ति अन्य व्यवसाय और वह भी चिकित्सा सम्बन्धी व्यवसाय करता है, उसे अधिवक्ता के रूप में नामांकित करने से अस्वीकार करने पर यह नहीं कहा जा सकता कि उसे जीविका का अधिकार अस्वीकार किया गया है।

      थामस, पी० सी० बनाम बार कौंसिल ऑफ केरल, ए० आई० आर० (2006) केरल 69 के बाद में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया है कि केवल पुरोहित अथवा तपस्वनी होना अधिवक्ता के रूप में नामांकित होने के लिए अयोग्यता नहीं माना जाएगा अर्थात् केवल इस आधार पर किसी व्यक्ति को अधिवक्ता के रूप में नामांकित करने से मना नहीं किया जा सकता कि वह पुरोहित अथवा तपस्वनी है। परन्तु यदि पुरोहित अथवा तपस्वनी को पूर्णकालिक शिक्षक अथवा नर्स के रूप में नियोजित किया गया है तो वे अधिवक्ता के रूप में नामांकित होने के अयोग्य होंगे। ऐसी दशा में उसे यह कहा जा सकता है कि यदि वह नियुक्ति छोड़ दे तो ही उसका नामांकन अधिवक्ता के रूप में होगा। यदि पुरोहित अथवा तपस्वनी अंशकालिक सेवा प्रदान करने हेतु नियुक्त किये गये हों और उसका कर्त्तव्य ऐसा है जिसके पालन करने पर पूर्णकालिक अधिवक्ता के कार्य प्रभावित नहीं होते हों तो उसे अधिवक्ता के रूप में नामांकित किए जाने की अनुमति प्रदान की जा सकती है।

      क्या अधिवक्ता से भिन्न व्यक्ति, विधि व्यवसाय कर सकता है- अधिवक्ता अधिनियम की धारा 29 के अनुसार, केवल अधिवक्ता वर्ग ही विधि व्यवसाय करने का हकदार है। धारा 29 के अनुसार इस अधिनियम और उसके अधीन बनाए गए किन्हीं नियमों के उपबन्धों के अधीन रहते हुए, नियत दिन से विधि-व्यवसाय करने के लिए हकदार व्यक्तियों का एक ही वर्ग होगा, अर्थात् “अधिवक्ता”। धारा 55, विद्यमान कुछ विधि- व्यवसायियों के अधिकारों को सुरक्षित करता है, अर्थात् प्लीडर, वकील तथा न्यायवादी (Attorney), मुख्तार तथा राजस्व अभिकर्ता। वे विधि-व्यवसाय को जारी रख सकते हैं।

       धारा 30 के अनुसार इस अधिनियम के अधीन रहते हुए प्रत्येक अधिवक्ता जिसका नाम राज्य नियमावली में दर्ज है, ऐसे समस्त राज्यक्षेत्रों में, जिन पर इस अधिनियम का विस्तार है –

(i) सभी न्यायालयों में, जिसमें उच्चतम न्यायालय भी सम्मिलित हैं;

(ii) किसी ऐसे अधिकरण या व्यक्ति के समक्ष, जो साक्ष्य लेने के लिए वैध रूप से प्राधिकृत है;

(iii) किसी अन्य ऐसे प्राधिकारी या व्यक्ति के समक्ष जिसके समक्ष ऐसा अधिवक्ता उस समय प्रवृत्त किसी विधि द्वारा या उसके अधीन विधि-व्यवसाय करने का हकदार है, साधिकार विधि-व्यवसाय करने का हकदार होगा।

       यह धारा अत्यन्त महत्वपूर्ण धारा है जो कि अधिवक्ताओं को व्यवसाय का अधिकार प्रदान करती है, परन्तु केन्द्रीय सरकार द्वारा इसे प्रभाव में न लाए जाने के कारण अधिवक्ताओं का अभी भी बहुत से अधिकरणों जैसे कि औद्योगिक अधिकरणों, पारिवारिक न्यायालय इत्यादि में उपस्थित होना निषिद्ध है।

       अधिवक्ता अधिनियम की धारा 33 के अनुसार इस अधिनियम में या उस समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में जैसा उपबन्धित है उसके सिवाय, कोई व्यक्ति, नियत दिन को या उसके पश्चात् किसी न्यायालय में या किसी प्राधिकरण या व्यक्ति के समक्ष विधि-व्यवसाय करने का हकदार तब तक नहीं होगा जब तक वह इस अधिनियम के अधीन अधिवक्ता के रूप में नामांकित न हो।

        हालांकि अधिनियम की धारा 32 यह उपबन्ध करती है कि कोई न्यायालय, प्राधिकरण या व्यक्ति अपने समक्ष किसी विशिष्ट मामले में किसी व्यक्ति को, जो इस अधिनियम के अधीन अधिवक्ता के रूप में नामांकित नहीं हैं, उपसंजात होने की अनुज्ञा दे सकेगा।

       सुरेन्द्र राज जायसवाल बनाम चैरिटी कमिश्नर, ए० आई० आर० (2003) ए० पी० 317 के बाद में आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया है कि प्रैक्टिस करने का अधिकार और किसी विशिष्ट वाद में उपस्थित होने का अधिकार दोनों में भेद है। न्यायालय किसी व्यक्ति को सामान्य रूप से प्रत्येक बाद में उपस्थित होने की अनुमति प्रदान नहीं कर सकता है। ऐसे अधिकार का प्रयोग केवल अधिवक्ता द्वारा ही किया जा सकता है।

उत्तर (ii)- अधिवक्ता के रूप में प्रवेश के लिए आवेदन विहित प्रारूप में उस राज्य के विधिज्ञ परिषद् को किया जायेगा जिसकी अधिकारिता के भीतर आवेदक विधि-व्यवसाय करना चाहता है। राज्य विधिज्ञ परिषद् आवेदक के आवेदन-पत्र को अपनी नामांकन समिति के सम्मुख प्रस्तुत करेगा। अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 10 (ख) के अनुसार नामांकन समिति, राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा अपने सदस्यों में से निर्वाचित तीन सदस्यों से मिलकर बनेगी।

       अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 26 में अधिवक्ता के रूप में प्रवेश के लिए आवेदनों के निपटारा की प्रक्रिया का वर्णन किया गया है। इसके अनुसार-

(1) राज्य विधिज्ञ परिषद् अधिवक्ता के रूप में प्रवेश के लिए प्रत्येक आवेदन को अपने नामांकन समिति को निर्दिष्ट करेगा और ऐसी समिति उपधारा (2) और उपधारा (3) के उपबन्धों के अधीन रहते हुए और किसी ऐसे निर्देश के अधीन रहते हुए, जो इस निमित्त राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा लिखित रूप में दिया जाये, विहित रीति से आवेदन का निपटारा करेगी।

       परन्तु यदि भारतीय विधिज्ञ परिषद् का, या तो इस निमित्त उसे किये गये निर्देश पर या अन्यथा, यह समाधान हो जाता है कि किसी व्यक्ति ने किसी आवश्यक तथ्य के सम्बन्ध में दुर्व्यपदेशन द्वारा या कपट द्वारा असम्यक् असर डालकर, अधिवक्ता नामावली में अपना नाम दर्ज करवाया है, तो वह उस व्यक्ति को सुनवाई का अवसर देने के पश्चात्, उसका नाम अधिवक्ता नामावली से हटा सकेगी।

(2) जहाँ किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् की नामांकन समिति, किसी ऐसे आवेदन को इंकार करने का प्रस्ताव करती है वहाँ वह आवेदन को भारतीय विधिज्ञ परिषद् की राय के लिए निर्दिष्ट करेगी और प्रत्येक ऐसे निर्देश के साथ आवेदन के इन्कार किये जाने वाले आधारों के समर्थन में विवरण होगा।

(3) राज्य विधिज्ञ परिषद् की नामांकन समिति उपधारा (2) के अधीन भारतीय विधिज्ञ परिषद् को निर्दिष्ट किसी आवेदन का निपटारा भारतीय विधिज्ञ परिषद् की राय के अनुरूप करेगी।

(4) जहाँ किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् की नामांकन समिति ने अपनी नामावली में अधिवक्ता के रूप में प्रवेश के लिए किसी आवेदन को नामंजूर किया है वहाँ वह राज्य विधिज्ञ परिषद् यथाशक्य शीघ्र, अन्य सभी राज्य विधिज्ञ परिषदों को ऐसी नामंजूरी की सूचना भेजेगी जिसमें उस व्यक्ति के नाम, पते और अर्हताओं का कथन होगा जिसके आवेदन को इंकार किया गया है और आवेदन के ईकार किये जाने के आधार भी दिये जायेंगे।

        वरिष्ठ तथा अन्य अधिवक्ता अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा-16 के अनुसार अधिवक्ताओं के दो वर्ग होंगे जिसमें पहला वरिष्ठ अधिवक्ता और दूसरा अन्य अधिवक्ता। किसी अधिवक्ता को, उसकी सहमति से, ‘वरिष्ठ अधिवक्ता’ का पदनाम दिया जा सकेगा, यदि उच्चतम न्यायालय या किसी उच्च न्यायालय की यह राय है कि वह अपनी योग्यता, विधि-व्यवसायी वर्ग में विधि-व्यवसाय काल का विधि विषयक विशेष ज्ञान या अनुभव के आधार पर ऐसे सम्मान के योग्य है। वरिष्ठ अधिवक्ता अपने विधि-व्यवसाय के मामले में ऐसे प्रतिबन्धों के अधीन होंगे, जिन्हें भारतीय विधिज्ञ परिषद् विधि-व्यवसाय के हित में विहित करें।

       परन्तु जहाँ कोई ऐसा वरिष्ठ अधिवक्ता 31 दिसम्बर, 1965 के पहले उस विधिज्ञ परिषद् को जो ऐसी नामावली रखती है जिसमें उसका नाम दर्ज किया गया है, आवेदन करता है कि वह वरिष्ठ अधिवक्ता नहीं बना रहना चाहता है वहाँ, विधिज्ञ परिषद् उस आवेदन को मंजूरी दे सकेगी और तद्‌नुसार नामावली परिवर्तित की जाएगी। भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा अधिवक्ता अधिनियम की धार। 49 (1) (छ) के अन्तर्गत बनाये गये नियम भी उल्लेखनीय हैं। इस नियम के अनुसार, विधि-व्यवसाय के मामले में कोई भी वरिष्ठ अधिवक्ता किसी भी ऐसे न्यायालय या ट्रिब्यूनल अथवा प्राधिकरण, जिसका उल्लेख अधिवक्ता अधिनियम की धारा 30 में किया गया है, के समक्ष अपना वकातलनामा दाखिल नहीं करेगा अथवा कोई कार्य नहीं करेगा।

      नियम में यह भी बताया गया है कि कोई भी वरिष्ठ अधिवक्ता किसी भी ऐसे न्यायालय अथवा अधिकरण जिसका उल्लेख धारा-30 के अन्तर्गत किया गया हो, में किसी अधिवक्ता जिसका नाम नामवली में नामांकित हो अथवा राज्य नियमावली के भाग II में नामांकित अधिवक्ता के बिना उपस्थित नहीं होगा।

      इसके अतिरिक्त, कोई भी वरिष्ठ अधिवक्ता अभिवचन या शपथपत्र के प्रारूप को तैयार करने के लिए किसी से अनुदेश नहीं लेगा अथवा किसी अन्य साक्ष्य के लिए सलाह नहीं देगा।

       अधिवक्ता अधिनियम की धारा 49 (1) (छ) के अन्तर्गत बनाये गये नियम में आगे यह उपबन्ध है कि वरिष्ठ अधिवक्ता अपने मुवक्किल की ओर से बहस के दौरान कनिष्ठ अधिवक्ता द्वारा दिये गये निर्देशों में कटौती कर सकता है अथवा परिवचन दे सकता है। वरिष्ठ अधिवक्ता किसी मामले में राज्य नामावली के भाग (11) में नामांकित अपने कनिष्ठ अधिवक्ता को उस मामले में उसके द्वारा प्रदत्त सेवाओं के लिए युक्तियुक्त फीस प्रदा कर सकता है। यह नियम यह भी उपबन्ध करता है कि वरिष्ठ अधिवक्ता किसी भी ऐसे वाद में जिसमें कि वह पहले ही कनिष्ठ अधिवक्ता के रूप में उपस्थित हुआ हो, वरिष्ठ अधिवक्ता होने के बाद, उस बाद की अपील में अपीलीय न्यायालय अथवा उच्चतम न्यायालय में पूर्वकधित अधिवक्ता के बिना उपस्थित नहीं हो सकता है। यह उपबन्ध भी किया गया है कि वरिष्ठ अधिवक्ता अपने मुवक्किल से सीधे कोई निर्देश अथवा सलाह इस बारे में नहीं लेगा कि उसे किस न्यायालय अथवा अधिकरण अथवा व्यक्ति अथवा भारतीय प्राधिकरण के समक्ष उपस्थित होना है।

उत्तर (iii)- क्या अधिवक्ता के अलावा अन्य व्यक्ति न्यायालय में उपसंजात हो सकता है? – अधिवक्ता के अलावा अन्य व्यक्ति न्यायालय में उपसंजात नहीं हो सकता क्योंकि धारा 29 के अनुसार केवल अधिवक्ता वर्ग ही विधि व्यवसाय करने का हकदार है। धारा 30 के अनुसार प्रत्येक अधिवक्ता जिसका नाम राज्य नामावली में दर्ज है, किसी भी न्यायालय में साधिकार विधि व्यवसाय करने का हकदार होगा। अधिवक्ता अधिनियम की धारा 33 के अनुसार इस अधिनियम में या उस समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में जैसा उपबन्धित है उसके सिवाय, कोई व्यक्ति, नियत दिन को या उसके पश्चात् किसी न्यायालय में या किसी प्राधिकरण या व्यक्ति के समक्ष विधि-व्यवसाय करने का हकदार तब तक नहीं होगा जब तक वह इस अधिनियम के अधीन अधिवक्ता के रूप में नामांकित न हो।

       फिर भी धारा 32 यह उपबन्ध करती है कि धारा 29 से 34 में के किसी बात के होते हुए भी, कोई न्यायालय, प्राधिकरण, या व्यक्ति अपने समक्ष किसी विशिष्ट मामलें में किसी व्यक्ति को जो इस अधिनियम के अधीन अधिवक्ता के रूप में नामांकित नहीं है, उपसंजात होने की अनुज्ञा दे सकेगा।

      सुरेन्द्र राज जायसवाल बनाम चैरिटी कमिश्नर, ए० आई० आर०, 2003 ए० पी०. 317 के वाद में आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है कि प्रैक्टिस करने का अधिकार और किसी विशिष्ट वाद में उपस्थित होने के अधिकार दोनों में भेद है। न्यायालय किसी व्यक्ति को सामान्य रूप से प्रत्येक वाद में उपस्थित होने की अनुमति प्रदान नहीं कर सकता है। ऐसे अधिकार का प्रयोग केवल अधिवक्ता द्वारा ही किया जा सकता है।

प्रश्न 6. (i) भारतीय विधिज्ञ परिषद् का गठन किस प्रकार किया जाता है? परिषद् की सांविधिक शक्तियों एवं कार्यों का विस्तृत वर्णन कीजिए।

How is Bar Council of India constituted? Discuss its statutory powers and functions in detail.

(ii) अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के अधीन बार कौंसिल ऑफ इंडिया की अनुशासनात्मक शक्तियों की विवेचना कीजिए।

Discuss the disciplinary powers of Bar Council of India under Advocate Act, 1961.

(iii) राज्य विधिज्ञ परिषद् से आप क्या समझते हैं? इसके गठन, कार्यों एवं शक्तियों का वर्णन कीजिए।

What do you mean by State Bar Council. Explain its organisation, powers and functions.

उत्तर (i) – भारतीय विधिज्ञ परिषद् का गठन – अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 4 (1) में यह प्रावधान किया गया है कि उन राज्यक्षेत्रों के लिए, जिन पर इस अधिनियम का विस्तार है, भारतीय विधिज्ञ परिषद् के नाम से ज्ञात एक विधिज्ञ परिषद् होगी जो निम्नलिखित सदस्यों से मिलकर बनेगी-

(1) भारत का महान्यायवादी, पदेन

(2) भारत का महासॉलिसिटर, पदेन

(3) प्रत्येक राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा, अपने सदस्यों में से निर्वाचित एक सदस्य।

         अधिवक्ता अधिनियम की धारा 4 (1-क) के अनुसार कोई भी व्यक्ति भारतीय विधिज्ञ परिषद् के सदस्य के रूप में निर्वाचित होने के लिए तब तक पात्र नहीं होगा जब तक उसके पास धारा 3 (2) के परन्तुक में विनिर्दिष्ट योग्यतायें न हों। इसी अधिनियम की धारा 4 (2) के अनुसार भारतीय विधिज्ञ परिषद् का एक अध्यक्ष तथा एक उपाध्यक्ष होगा जो उस परिषद् द्वारा ऐसी रीति से निर्वाचित किया जाएगा, जो विहित की जाए।

        अधिवक्ता अधिनियम की धारा 4 (2-क) यह स्पष्ट करती है कि अधिवक्ता (संशोधन) अधिनियम, 1977 के प्रारम्भ के ठीक पहले भारतीय विधिज्ञ परिषद् के अध्यक्ष या उपाध्यक्ष का पद धारण करने वाले व्यक्ति ऐसे प्रारम्भ पर यथास्थिति अध्यक्ष या उपाध्यक्ष का पद धारण नहीं करेगा। परन्तु ऐसा व्यक्ति अपने पद के कर्तव्यों का पालन तब तक करता रहेगा जब तक कि भारतीय विधिज्ञ परिषद् का, यथास्थिति, अध्यक्ष या उपाध्यक्ष जो अधिवक्ता (संशोधन) अधिनियम, 1977 के प्रारम्भ के पश्चात् निर्वाचित हुआ है, पदभार सम्भाल नहीं लेता।

         अधिवक्ता अधिनियम की धारा 4 (3) यह उपबन्ध करती है कि भारतीय विधिज्ञ परिषद् के ऐसे सदस्य की, जो राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा निर्वाचित किया गया हो; पदावधि-

(i) राज्य विधिज्ञ परिषद् के ऐसे सदस्य की दशा में, जो वह पद पदेन धारण करता हो, उसके निर्वाचन की तारीख से दो वर्ष होगी या उस अवधि तक होगी जिसको वह राज्य विधिज्ञ परिषद् का सदस्य न रह जाए, इनमें से जो अवधि पहले हो; और

(ii) किसी अन्य दशा में, उतनी अवधि के लिए होगी, जितनी के लिए वह राज्य विधिज्ञ परिषद् के सदस्य के रूप में पद धारण करता हो।

       परन्तु प्रत्येक ऐसा सदस्य भारतीय विधिज्ञ परिषद् के सदस्य के रूप में अपने पद पर तब तक बना रहेगा जब तक उसका उत्तराधिकारी निर्वाचित नहीं कर लिया जाता है।

       अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 10 (ख) के अनुसार बार कौंसिल के किसी निर्वाचित सदस्य ने अपना पद रिक्त किया है, ऐसा तब समझा जायेगा जब उसके बारे में उस बार कौंसिल द्वारा जिसका वह सदस्य है, यह घोषित किया गया हो कि वह उस परिषद् के लगातार तीन अधिवेशनों में पर्याप्त कारण के बिना अनुपस्थित रहा है या जब उसके नाम को किसी कारणवश अधिवक्ताओं की नामावली से हटा दिया गया हो या जब वह भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा बनाये गये किसी नियम के अधीन अन्यथा अयोग्य हो गया हो।

       अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 10 (क) यह स्पष्ट करती है कि भारतीय बार कौंसिल का अधिवेशन नई दिल्ली में होगा। राज्य बार कौंसिल का अधिवेशन उसके मुख्यालय में होगा। बार कौंसिल द्वारा गठित अनुशासन समितियों से भिन्न समितियों का अधिवेशन विधिज्ञ परिषद् (Bar Council) के अपने-अपने मुख्यालय में होगा। प्रत्येक विधिज्ञ परिषद् तथा अनुशासन समितियों से भिन्न उसकी प्रत्येक समिति अपने अधिवेशनों में कारबार के संव्यवहार की बाबत प्रक्रिया के ऐसे नियमों का अनुपालन करेगी, जो विहित किये जाय।

        अधिवक्ता अधिनियम की धारा 14 यह बताती है कि विधिज्ञ परिषद् के लिए किसी सदस्य का कोई भी निर्वाचन केवल इस आधार पर प्रश्नगत नहीं किया जाएगा कि उसमें मत देने के लिए हकदार किसी व्यक्ति को उसकी सम्यक् सूचना नहीं दी गई है। यदि निर्वाचन की तारीख की सूचना कम से कम उस तारीख से 30 दिन पहले, राजपत्र में प्रकाशित कर दी गई हो।

      भारतीय विधिज्ञ परिषद् के कर्त्तव्य- अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा-5 के अनुसार भारतीय विधिज्ञ परिषद् एक शाश्वत उत्तराधिकार तथा सामान्य मुद्रा वाली एक निगमित निकाय है जिसे अचल तथा चल, दोनों प्रकार की सम्पत्ति अर्जित तथा धारण करने, तथा संविदा करने की शक्ति है तथा वह भारतीय विधिज्ञ परिषद् के नाम से वाद ला सकती है अथवा इसी नाम से उस पर वाद लाया जा सकता है। अधिवक्ता अधिनियम की धारा 13 यह स्पष्ट करती है कि विधिज्ञ परिषद् या उसकी समिति द्वारा किया गया कोई भी कार्य केवल इस आधार पर पर प्रश्नगत नहीं किया जायेगा कि यथास्थिति, परिषद् या समिति में से कोई रिक्ति विद्यमान थी, या उसके गठन में कोई त्रुटि या गलती थी।

         अधिवक्ता अधिनियम की धारा 7 के अनुसार भारतीय विधिज्ञ परिषद् के निम्नलिखित कर्तव्य होंगे-

(1) अधिवक्ताओं के लिए वृत्तिक आचार (Professional Ethics) तथा शिष्टाचार के मानक निर्धारित करना;

(2) अपनी अनुशासन समिति द्वारा तथा प्रत्येक राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति द्वारा अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया निर्धारित करना;

(3) अधिवक्ताओं के अधिकारों, विशेषाधिकारों तथा हितों की रक्षा करना;

(4) विधि-सुधार का उन्नयन और उसका समर्थन करना;

(5) इस अधिनियम के अधीन उत्पन्न होने वाले किसी ऐसे मामले में कार्यवाही करना और उसे निपटाना और उसे किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा निर्दिष्ट करना;

(6) राज्य विधिज्ञ परिषदों का साधारण पर्यवेक्षण और उन पर नियन्त्रण करना;

(7) विधि शिक्षा का उन्नयन करना और ऐसी शिक्षा प्रदान करने वाले भारत के विश्वविद्यालयों और राज्य विधिज्ञ परिषदों से विचार-विमर्श करके ऐसी शिक्षा के मानक निर्धारित करना;

(8) ऐसे विश्वविद्यालयों को मान्यता देना, जिनकी विधि की उपाधि, अधिवक्ता के रूप में नामांकित किये जाने के लिए योग्य होगी और उस प्रयोजन के लिए विश्वविद्यालयों में जाना और निरीक्षण करना;

(9) विधिक विषयों पर प्रतिष्ठित विधिशास्त्रियों द्वारा परिसंवादों का संचालन और वार्ताओं का आयोजन करना और विधिक रुचि की पत्र-पत्रिकायें और लेख प्रकाशित करना;

(10) विहित रीति से निर्धनों को विधिक सहायता देने के लिए आयोजन करना।

(11) भारत के बाहर प्राप्त विधि की विदेशी योग्यताओं को, इस अधिनियम के अधीन अधिवक्ता के रूप में प्रवेश पाने के प्रयोजन के लिए पारस्परिक आधार पर मान्यता देना;

(12) विधिज्ञ परिषद् की निधियों का प्रबन्ध करना और उनका विनिधान करना;

(13) अपने सदस्यों के निर्वाचन की व्यवस्था करना;

(14) इस अधिनियम द्वारा या उसके अधीन विधिज्ञ परिषद् को प्रदत्त अन्य सभी कृत्यों का पालन करना;

(15) पूर्वोक्त कृत्यों (ऊपर दिये गये कार्यों के लिए) के निर्वहन के लिए आवश्यक अन्य सभी कार्य करना।

      अधिवक्ता अधिनियम की धारा 7 (क) में कहा गया है कि भारतीय विधिज्ञ परिषद् अन्तर्राष्ट्रीय विधिक निकायों जैसे कि अन्तर्राष्ट्रीय विधिज्ञ संगठन (International Bar Association) या अन्तर्राष्ट्रीय विधिक सहायता संगठन (International Legal Aid Association) की सदस्य बन सकेगी, अभिदान के तौर पर या अन्यथा ऐसे निकायों को, ऐसी राशियों का अभिदान कर सकेगी, जिन्हें वह ठीक समझे और किसी अन्तर्राष्ट्रीय विधि सम्मेलन या परिसंवाद में अपने प्रतिनिधियों के भाग लेने के संदर्भ में व्यय प्राधिकृत कर सकेगी।

        अधिवक्ता अधिनियम की धारा 7 (2) यह उपबन्ध करती है कि भारतीय विधिज्ञ परिषद् विहित रीति से एक या अधिक निधियों का गठन निम्नलिखित प्रयोजन के लिए, अर्थात्

(क) निर्धन, निःशक्त या अन्य अधिवक्ताओं के लिए कल्याणकारी स्कीमों के संचालन के लिए सहायता देने के लिए;

(ख) इस निमित्त बनाये गये नियमों के अनुसार, विधिक सहायता या सलाह देने के लिए कर सकेगी;

(ग) विधिक पुस्तकालयों का निर्माण करने के लिए।

         भारतीय बार कौंसिल इस उपधारा में विनिर्दिष्ट सभी प्रयोजनों या उनमें से किसी प्रयोजन के लिए अनुदान, संदाय, दान या अपकृतियाँ प्राप्त कर सकेगी, जो इस उपधारा के अधीन गठित समुचित निधि या निधियों में जमा की जायेगी।

भारतीय विधिज्ञ परिषद् की शक्तियाँ

(1) अधिवक्ता के रूप में प्रविष्टि- अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 20 यह प्रावधान करती है कि प्रत्येक ऐसा अधिवक्ता, जो नियत दिन के ठीक पूर्व उच्चतम न्यायालय में विधि-व्यवसाय करने के लिए साधिकार हकदार था और जिसका नाम किसी राज्य नामावली में दर्ज नहीं है, किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् की नामावली में अपना नाम दर्ज कराने का आशय विहित समय के भीतर विहित प्ररूप में भारतीय विधिज्ञ परिषद् को प्रकट कर सकेगा और उसको प्राप्त हो जाने पर भारतीय विधिज्ञ परिषद् (Indian Bar Council) यह निर्देश देगी कि ऐसे अधिवक्ता का नाम, किसी फीस के भुगतान के बिना, उस राज्य विधिज्ञ परिषद् की नामावली में दर्ज किया जाय और सम्बद्ध राज्य विधिज्ञ परिषद् ऐसे निदेश का अनुपालन करेगी।

(2) समिति तथा कर्मचारीवृन्द की नियुक्ति- अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 9 भारतीय विधिज्ञ परिषद् को यह शक्ति प्रदान करती है कि वह एक या अधिक अनुशासन समितियों का गठन करेगी। प्रत्येक ऐसी समिति तीन व्यक्तियों से मिलकर बनेगी, इनमें से दो व्यक्ति परिषद् द्वारा अपने सदस्यों में से निर्वाचित होंगे और तीसरा प्रदस्य परिषद् द्वारा ऐसे अधिवक्ताओं में से सहयोजित व्यक्ति होगा जिसके पास धारा 3 (2) के परन्तुक में वर्णित योग्यतायें हो और जो परिषद् का सदस्य न हो। किसी अनुशासन समिति के सदस्यों में से ज्येष्ठतम अधिवक्ता उसका अध्यक्ष होगा।

        अधिवक्ता अधिनियम की धारा १ (क) भारतीय विधिज्ञ परिषद् को एक या अधिक विधिक सहायता समिति गठित करने की शक्ति प्रदान करती है। ऐसी प्रत्येक समिति में अधिक से अधिक 9 और कम से कम 5 ऐसे सदस्य होंगे जो विहित किये जायें। विधिक सहायता समिति के सदस्यों की अर्हतायें, उनके चयन की पद्धति और उनकी पदावधि वह होगी जो विहित की जाय।

       इसके अतिरिक्त, अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 10 (2) के अनुसार भारतीय विधिज्ञ परिषद् निम्नलिखित स्थायी समितियों का गठन करेगी, अर्थात्

(क) एक कार्यकारिणी समिति, जो परिषद् द्वारा अपने सदस्यों में से निर्वाचित 9 सदस्यों से मिलकर बनेगी।

(ख) एक विधिज्ञ शिक्षा समिति जो 10 सदस्यों से मिलकर बनेगी, इसमें पाँच सदस्य परिषद् द्वारा अपने सदस्यों में से निर्वाचित व्यक्ति होंगे तथा 5 सदस्य परिषद् द्वारा सहयोजित ऐसे व्यक्ति होंगे जो उसके सदस्य नहीं हैं।

        अधिवक्ता अधिनियम की धारा 11 के अनुसार भारतीय विधिज्ञ परिषद् एक सचिव नियुक्त करेगी। इसके साथ ही वह भारतीय विधिज्ञ परिषद् को एक लेखपाल तथा ऐसे अन्य व्यक्तियों को अपने कर्मचारीवृन्द के रूप में नियुक्त करने की शक्ति देती है, जिन्हें वह आवश्यक समझे। सचिव तथा लेखपाल की, यदि कोई हो, अर्हताएँ वे होंगी जो विहित की जाय।

(3) लेखा इत्यादि की तैयारी एवं व्यवस्था करने की शक्ति-अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 12 यह प्रावधान करती है कि भारतीय विधिज्ञ परिषद् ऐसी लेखाबहियाँ तथा अन्य बहियाँ ऐसे प्ररूप में और ऐसी रीति से रखवायेगी जो विहित की जाय। भारतीय विधिज्ञ परिषद् के लेखाओं की लेखा परीक्षा कम्पनी अधिनियम, 1956 के अधीन कम्पनियों के लेखा परीक्षकों के रूप में कार्य करने के लिए सम्यक् रूप से योग्य लेखा परीक्षकों द्वारा, ऐसे समयों पर और ऐसी रीति से की जायेगी, जो विहित किये जाएँ।

(4) नियम बनाने की शक्ति – भारतीय विधिज्ञ परिषद् अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा-15 (1) के उद्देश्यों के अन्तर्गत नियम बनाने की शक्ति रखती है। धारा 15 (2) यह प्रावधान करती है कि विशिष्टतया तथा पूर्वगामी शक्ति को व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, ऐसे नियन निम्नलिखित उपबन्ध कर सकेंगे-

(क) बार कौंसिल के सदस्यों का गुरु मतदान द्वारा निर्वाचन, जिनके अन्तर्गत वे शर्ते भी हैं जिनके अधीन रहते हुए व्यक्ति व्यक्ति डाक मत पत्र द्वारा मतदान के अधिकार का प्रयोग कर सकते हैं, निर्वाचक नामावलियाँ तैयार करना और उनका पुनरीक्षण और वह रोति जिससे निर्वाचन के परिणाम प्रकाशित किये जायेंगे।

(ख) भारतीय बार कौंसिल के अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष के निर्वाचन की रीति।

(ग) वह रोति, जिससे और वह प्राधिकारी जिसके द्वारा विधिज्ञ परिषद् के लिए या अध्यक्ष या उपाध्यक्ष के पद के लिए किसी निर्वाचन की विधिमान्यता के बारे में शंकाओं तथा विवादों का अन्तिम रूप से विनिश्चय किया जायेगा।

(घ) भारतीय विधिज्ञ परिषद् में आकस्मिक रिक्तियों का भरना।

(ङ) भारतीय विधिज्ञ परिषद् के अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष की शक्तियाँ तथा कर्तव्य।

(च) धारा 6 (2) तथा धारा 7 (2) में विनिर्दिष्ट वित्तीय सहायता देने या विधिक सहायता या सलाह देने के प्रयोजन के लिए भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा एक या अधिक समितियों का गठन।

(छ) निर्धनों के लिए विधिक सहायता तथा सलाह देने के लिए आयोजन, और उस प्रयोजन के लिए समितियों एवं उपसमितियों का गठन और उनके कृत्य (कार्य) तथा उन कार्यवाहियों का विवरण, जिनके सन्दर्भ में विधिक सहायता या सलाह दी जा सकती है।

(ज) भारतीय विधिज्ञ परिषद् का अधिवेशन बुलाना और उनका आयोजन, उनमें कारबार का संचालन और उनमें गणपूर्ति के लिए आवश्यक सदस्य संख्या।

(झ) भारतीय विधिज्ञ परिषद् के किसी समिति का गठन और उसके कृत्य और किसी ऐसे समिति के सदस्यों को पदावधि।

(ञ) ऐसी किसी समिति का अधिवेशन बुलाना और उनका आयोजन, उनमें कारबार के संव्यवहार एवं गणपूर्ति के लिए आवश्यक सदस्य संख्या

(८) भारतीय विधिज्ञ परिषद् के सचिव, लेखपाल तथा अन्य कर्मचारियों की योग्यतायें और उनकी सेवा की शर्तें।

(ठ) भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा लेखा-बहियों तथा अन्य पुस्तकों का रखा जाना।

(ड) लेखा परीक्षकों की नियुक्ति और विधिज्ञ परिषद् के लेखाओं की लेखा परीक्षा।

(ढ) भारतीय विधिज्ञ परिषद् की निधियों का प्रबन्ध और विनिधान।

        इसके अलावा धारा 15 (3) में यह प्रावधान किया गया है कि किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् (State Bar Council) द्वारा इस धारा के अधीन बनाये गये नियम तब तक प्रभावी नहीं होंगे, जब तक भारतीय विधिज्ञ परिषद् उनका अनुमोदन न कर दे।

         इण्डियन कौंसिल ऑफ लीगल एड बनाम बार कौंसिल ऑफ इण्डिया, ए० आई० आर० 1995 एस० सी० 691 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि किसी ऐसे व्यक्ति को, जिसकी आयु 45 वर्ष से अधिक हो अधिवक्ता के रूप में नार्माकन से रोकने वाला नियम मनमाना, अनुचित तथा भारतीय विधिज्ञ परिषद् के क्षेत्राधिकार अथवा शक्ति के बाहर है और शून्य है।

(5) व्यावसायिक अथवा अन्य अवचार के लिए दण्ड देने की शक्ति- अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 36 भारतीय विधिज्ञ परिषद् को यह शक्ति प्रदान करती है कि वह किसी अधिवक्ता को उसके द्वारा किये गये वृत्तिक अथवा अन्य अवचार के लिए दण्डित कर सकती है। इस धारा के अनुसार जहाँ किसी शिकायत की प्राप्ति पर या अन्यथा, भारतीय विधिज्ञ परिषद् के पास यह विश्वास करने का कारण है कि कोई ऐसा अधिवक्ता जिसका नाम किसी राज्य नामावली में दर्ज नहीं है, वृत्तिक या अन्य अवचार का दोषी रहा है, वहाँ उस मामले को अपनी अनुशासन समिति को निपटारे के लिए निर्दिष्ट करेगी। भारतीय विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति के समक्ष किसी अधिवक्ता के विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाही के लिए लम्बित किन्हीं कार्यवाहियों को या तो स्वप्रेरणा से या किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् की रिपोर्ट पर या किसी हितबद्ध व्यक्ति द्वारा उसको किये गये आवेदन पर, जाँच करने के लिए अपने पास वापस ले सकेगी और उसका निपटारा कर सकेगी।

(6) अपीलीय शक्ति- अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 37 भारतीय विधिज्ञ परिषद् को यह शक्ति प्रदान करती है कि वह इस अधिनियम की धारा 35 के अन्तर्गत दिये गये राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति के आदेशों के विरुद्ध की गई अपील को सुन सकती है। इसके अनुसार किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति की धारा-35 के अधीन दिये गये आदेश या राज्य के महाधिवक्ता के आदेश से व्यथित व्यक्ति, आदेश की संसूचना की तारीख से 60 दिनों के भीतर, भारतीय विधिज्ञ परिषद् को अपील कर सकेगा। प्रत्येक ऐसी अपील की सुनवाई भारतीय विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति द्वारा की जाएगी और वह समिति उस पर ऐसा आदेश जिसके अन्तर्गत राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति द्वारा अधिनिर्णीत दण्ड को परिवर्तित कराने का आदेश भी है, पारित कर सकेगी जैसा वह ठीक समझे। परन्तु भारतीय विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति का कोई भी आदेश, व्यथित व्यक्ति को सुनवाई का उचित अवसर दिये बिना, भारतीय विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति द्वारा इस प्रकार परिवर्तित नहीं किया जायेगा जिससे कि उस व्यक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े।

        धनराज सिंह चौधरी बनाम नाथूलाल विश्वकर्मा, ए० आई० आर० (2012) एस० सी० 628 के वाद में जबकि अधिवक्ता ने विधिज्ञ परिषद की अनुशासनिक कमेटी के समक्ष अपील किया और अपील करने में दो वर्ष का विलम्ब किया और विलम्ब के क्षमा के लिए आवेदन नहीं किया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि अपील खारिज करने योग्य है।

         हरीश उप्पल बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया, 2003, ए० आई० आर० एस० सी० डब्ल्यू० 43 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया है कि अधिवक्ता पर अनुशासनात्मक अधिकारिता यद्यपि कि विधिज्ञ परिषदों में निहित है परन्तु धारा 38 के परिणामस्वरूप इस सम्बन्ध में अन्तिम प्राधिकारी उच्चतम न्यायालय है।

(7) अन्य शक्तियाँ एवं कृत्य – अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 46-क में यह उपबन्ध किया गया है कि यदि भारतीय विधिज्ञ परिषद् का यह समाधान हो जाता है कि किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् को इस अधिनियम के अधीन अपने कर्त्तव्यों का पालन करने के प्रयोजन के लिए निधि की आवश्यकता है तो यह अनुदान के रूप में या अन्यथा, उस विधिज्ञ परिषद् को ऐसी वित्तीय सहायता दे सकेगी, जैसा वह ठीक समझे।

उत्तर (II)- अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 36 का सम्बन्ध बार कौंसिल ऑफ इंडिया की शक्तियों से हैं। इसमें यह प्रावधान किया गया है कि जहाँ किसी परिवाद की प्राप्ति पर अथवा अन्य को बार कौंसिल ऑफ इंडिया के पास यह विश्वास करने का कारण है कि कोई ऐसा अधिवक्ता जिसका नाम किसी राज्य नामावली में दर्ज नहीं है, वृत्तिक या अन्य अवचार का दोषी रहा है, वहाँ वह उस मामले को अपनी अनुशासन समिति को निपटारे के लिए निर्दिष्ट करेगी।

        धारा 36 की उपधारा (2) ने बार कौंसिल ऑफ इंडिया की अनुशासनात्मक समिति को यह शक्ति दी गयी है कि बार कौंसिल ऑफ इंडिया किसी राज्य की बार कौंसिल की अनुशासन समिति के समक्ष किसी अधिवक्ता के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही के लिए लम्बित किन्ही कार्यवाहियों को या तो स्वप्रेरणा से या किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् की रिपोर्ट पर या किसी हित्तबद्ध व्यक्ति द्वारा उसको दिये गये आवेदन पर जाँच करने के लिए अपने पास वापस ले सकेगी और उसका निपटारा कर सकेगी।

       बार कौंसिल ऑफ इंडिया की अनुशासन समिति इस धारा के अधीन किसी मामले के निपटारे में धारा 35 में अधिकथित प्रक्रिया का यथाशक्य अनुपालन करेगी और इस धारा में महाधिवक्ता के निर्देशों का यह अर्थ बताया जायेगा कि वे भारत के महान्यायवादी के प्रति निर्देश हैं।

      धारा 36 की उपधारा (4) में यह प्रावधान किया गया है कि सम्बंधित राज्य बार कौंसिल का यह बाध्यकारी कर्त्तव्य है कि वह बार कौंसिल ऑफ इंडिया द्वारा इस धारा के अधीन पारित आदेश को प्रभावी बनाये।

उत्तर (iii)- राज्य विधिज्ञ परिषद् (State Bar Council) – अधिवक्ता अधिनियम 1961 की ‘धारा 3’ में यह प्रावधान किया गया है कि राज्य विधिज्ञ परिषदों की स्थापना की जायेगी।

       अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के अनुसार प्रत्येक राज्य विधिज्ञ परिषद् शाश्वत उत्तराधिकार और सामान्य मुद्रा वाली एक निगमित निकाय होगी तथा उसे स्थावर एवं जंगम दोनों प्रकार की सम्पत्तियों के अर्जन एवं धारण करने की तथा संविदा करने की शक्ति प्राप्त होगी। धारा 6 के अनुसार राज्य विधिज्ञ परिषद् अपनी नामावली में अधिवक्ता के रूप में व्यक्ति को प्रविष्ट करने, नामावली के अधिवक्ताओं के अधिकारों के विरुद्ध अवचार मामले ग्रहण करने, नामावली के अधिवक्ताओं के अधिकारों, विशेषताओं और हितों की रक्षा करने, विधि सुधार का उन्नयन करने, अपने सदस्यों के निर्वाचन की व्यवस्था करने, विहित रीति से निर्धनों को विधिक सहायता प्रदान करने के लिए आयोजन करने, विधिज्ञ परिषद् की निधियों का प्रबन्ध एवं उनका विनिधान करने जैसे महत्वपूर्ण कार्य करती है।

        राज्य विधिज्ञ परिषद् का गठन अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 3 में राज्य विधिज्ञ परिषद् के संस्थापन एवं गठन के बारे में प्रावधान किया गया है। धारा-3 के अनुसार राज्य विधिज्ञ परिषद् निम्नलिखित सदस्यों से मिलकर बनेगी, अर्थात्

(क) दिल्ली राज्य विधिज्ञ परिषद् की दशा में भारत का अपर महासॉलिसिटर, पदेन, असम, नागालैण्ड, मेघालय, मणिपुर और त्रिपुरा राज्य की विधिज्ञ परिषदों की दशा में प्रत्येक राज्य अर्थात् असम, मणिपुर, मेघालय, नागालैण्ड और त्रिपुरा का महाधिवक्ता पदेन, पंजाब और हरियाणा राज्य विधिज्ञ परिषद् की दशा में प्रत्येक राज्य अर्थात् पंजाब और हरियाणा का महाधिवक्ता पदेन और किसी अन्य राज्य विधिज्ञ परिषद् की दशा में उस राज्य का महाधिवक्ता, पदेन।

(ख) पाँच हजार से अनधिक (अधिक नहीं) के निर्वाचक मण्डल वाली राज्य विधिज्ञ परिषद् की दशा में, 15 सदस्य, 5,000 से अधिक किन्तु 10,000 से कम के निर्वाचक मण्डल वाली राज्य विधिज्ञ परिषद् की दशा में 20 सदस्य और 10,000 से अधिक के निर्वाचक मण्डल वाली राज्य विधिज्ञ परिषद् की दशा में 25 सदस्य, जो राज्य विधिज्ञ परिषद् की निर्वाचक नामावली के अधिवक्ताओं में से आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा’ निर्वाचित हो।

       परन्तु ऐसे निर्वाचित सदस्यों में से यथासम्भव आधे के निकट सदस्य, ऐसे नियमों के अधीन रहते हुए, जो भारतीय विधिज्ञ परिषद्‌ द्वारा इस निमित्त बनाये जायें, ऐसे व्यक्ति होंगे जो किसी राज्य नामावली में कम से कम 10 वर्ष तक अधिवक्ता रहे हों और ऐसे किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में 10 वर्ष की उक्त अवधि की संगणना करने में वह अवधि भी सम्मिलित की जाएगी, जिसके दौरान ऐसा व्यक्ति भारतीय विधिज्ञ परिषद अधिनियम, 1926 के अधीन नामांकित अधिवक्ता रहा हो।

       धारा-3 की उपधारा (2) के परन्तुक किसी भी ऐसे सदस्य की पदावधि को प्रभावित नहीं करेंगे जो कि अधिवक्ता (संशोधन) अधिनियम, 1964 से पूर्व निर्वाचित हुआ हो, परन्तु ऐसे प्रारम्भ के पश्चात् प्रत्येक निर्वाचन, उक्त परन्तुक को प्रभावित करने के लिए, भारतीय विधिज्ञ परिषद द्वारा बनाए गए नियमों के उपबन्धों के अनुसार कराया जायेगा। अधिवक्ता अधिनियम की धारा-3 की उपधारा-4 के अनुसार कोई अधिवक्ता उपधारा (2) के अधीन किसी निर्वाचन में मतदान करने, या किसी राज्य विधिज्ञ परिषद के सदस्य के रूप में चुने जाने और सदस्य होने के लिए तब तक आयोग्य होगा जब तक उसके पास ऐसी योग्यताएँ न हों या वह ऐसी शर्तें न पूरी करता हो जो भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा इस निमित्त विहित की जाय और किन्हीं ऐसे नियमों के अधीन रहते हुए, जो बनाये जायें, प्रत्येक राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा निर्वाचक नामावली तैयार की जायेगी और समय-समय पर पुनरीक्षित की जायेगी।

        सदस्यों के अतिरिक्त, प्रत्येक राज्य विधिज्ञ परिषद का एक अध्यक्ष तथा एक उपाध्यक्ष होंगे जो उस परिषद् द्वारा उस पद्धति से निर्वाचित किये जायेंगे जैसा कि विहित हो। अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा-3 की उपधारा (3-क) यह स्पष्ट करती है कि अधिवक्ता (संशोधन) अधिनियम, 1977 के प्रारम्भ के ठीक पूर्व किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् के अध्यक्ष या उपाध्यक्ष का पद धारण करने वाला प्रत्येक व्यक्ति, ऐसे प्रारम्भ पर, यथास्थिति, अध्यक्ष या उपाध्यक्ष का पद धारण नहीं करेगा।

       परन्तु ऐसा प्रत्येक व्यक्ति अपने पद के कर्त्तव्यों का तब तक पालन करता रहेगा जब तक कि प्रत्येक राज्य विधिज्ञ परिषद् का, यथास्थिति, अध्यक्ष या उपाध्यक्ष जो अधिवक्ता (संशोधन) अधिनियम, 1977 के प्रारम्भ के पश्चात् निर्वाचित हुआ है, पदभार संभाल नहीं लेता।

         राज्य विधिज्ञ परिषद् के कर्त्तव्य- प्रत्येक राज्य विधिज्ञ परिषद् शाश्वत् उत्तराधिकार और सामान्य मुद्रा वाली एक निगमित निकाय होगी जिसे अचल तथा चल, दोनों प्रकार को सम्पत्ति अर्जित और धारण करने तथा संविदा करने की शक्ति होगी और जिस नाम से वह ज्ञात हो, उस नाम से वह वाद ला सकेगी और उस पर वाद लाया जा सकेगा।

         अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 6 राज्य विधिज्ञ परिषदों के कृत्यों से सम्बन्धित है। धारा-6 के अनुसार राज्य विधिज्ञ परिषदों के निम्नलिखित कर्तव्य होंगे-

(i) अपनी नामावली में अधिवक्ता के रूप में व्यक्तियों को प्रविष्ट करना।

(ii) ऐसी नामावली तैयार करना तथा बनाये रखना।

(iii) अपनी नामावली में अधिवक्ताओं के विरुद्ध अवचार के मामले ग्रहण करना तथा उनका अवधारण करना।

(iv) अपनी नामावली के अधिवक्ताओं के अधिकारों, विशेषाधिकारों और हितों की रक्षा करना।

(v) विधि सुधार का उन्नयन तथा समर्थन करना।

(vi) विधिक विषयों पर प्रतिष्ठित विधि-शास्त्रियों द्वारा परिसंवादों का संचालन तथा वार्ताओं का आयोजन करना तथा विधिक रुचि की पत्र-पत्रिकाएँ तथा लेख प्रकाशित करना।

(vii) विहित रीति से निर्धनों को विधिक सहायता प्रदान करने के लिए आयोजन करना।

(viii) विधिज्ञ परिषद् की निधियों का प्रबन्ध तथा उनका विनिधान करना।

(ix) अपने सदस्यों के निर्वाचन की व्यवस्था करना।

(x) इस अधिनियम द्वारा या उसके अधीन विधिज्ञ परिषद् को प्रदत्त अन्य सभी कृत्यों का पालन करना।

(xi) पूर्वोक्त कृत्यों के निर्वहन के लिए आवश्यक सभी कार्य करना।

        अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 22 (1) के अनुसार राज्य विधिज्ञ परिषद् प्रत्येक ऐसे व्यक्ति को, जिनका नाम इस अधिनियम के अधीन उसके द्वारा रखी गई नामावली में दर्ज है, विहित प्ररूप में नामांकन प्रमाणपत्र जारी करेगी तथा धारा 22 (2) के अनुसार ऐसा प्रत्येक व्यक्ति जिसका नाम राज्य नामावली में इस प्रकार दर्ज है, अपने स्थायी निवास स्थान में किसी परिवर्तन की सूचना सम्बद्ध राज्य विधिज्ञ परिषद् को ऐसे परिवर्तन के 90 दिन के भीतर देगा।

       अधिवक्ता अधिनियम की धारा 6 (2) के अनुसार राज्य विधिज्ञ परिषद् विहित रीति से एक या अधिक विधियों का गठन निम्नलिखित प्रयोजन के लिए कर सकता है-

(1) निर्धन, निःशक्त या अन्य अधिवक्ताओं के लिए कल्याणकारी स्कीमों के संचालन के लिए वित्तीय सहायता देने के लिए;

(2) इस निमित्त बनाये गये नियमों के अनुसार विधिक सहायता या सलाह देने के लिए कर सकेगी।

       शक्तियाँ – अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के अन्तर्गत राज्य बार कौंसिल की निम्नलिखित शक्तियाँ हैं-

(1) अधिवक्ता के रूप में नामांकित करने की शक्ति- यदि कोई व्यक्ति अधिवक्ता अधिनियम की धारा 24 के अधीन प्रावधानित आवश्यक शर्तों को पूरा कर लेता है और अधिवक्ता के रूप में प्रवेश करने की ईप्सा करता है और निर्धारित तरीके से एक आवेदन संस्थित कर देता है तो राज्य बार कौंसिल की नामांकन समिति अपने प्रस्ताव द्वारा इस प्रकार के व्यक्ति को अधिवक्ता नामांकित कर देगी।

        यदि राज्य बार कौंसिल की नामांकन समिति इस प्रकार के किसी आवेदन को अस्वीकार करने का प्रस्ताव करती है तो वह इस प्रकार के आवेदन को बार कौंसिल ऑफ इण्डिया की राय के लिए संदर्भित करेगी और इस प्रकार के संदर्भ के साथ अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 26 के अधीन प्रावधानित रूप में आवेदन की अस्वीकृति के समर्थन में दिये गये आधारों को भी दिया जायेगा। फिर भी, राज्य बार कौंसिल की नामांकन समिति से यह अपेक्षा की जाती है कि वह बार कौंसिल की राय की अभिपुष्टि में बार कौंसिल ऑफ इण्डिया को इस प्रकार संदर्भित किये गये किसी आवेदन का निस्तारण कर दे। यदि राज्य बार कौंसिल किसी व्यक्ति के अधिवक्ता के रूप में नामांकन करने के आवेदन को अस्वीकार कर देती है तो राज्य बार कौंसिल इस प्रकार की अस्वीकृति के संबंध में अन्य राज्य बार कौंसिल को यथा संभव शीघ्र सूचना भेज देगी।

(2) राज्य की सूची से नाम हटाने की शक्ति- अधिवक्ता अधिनियम की धारा 24-क के अन्तर्गत राज्य बार कौंसिल को यह अधिकार प्राप्त है कि वह किसी भी ऐसे अधिवक्ता का नाम राज्य बार कौंसिल की सूची से हटा दे जिसकी मृत्यु हो गयी हो अथवा जिससे उस प्रभाव की कोई प्रार्थना की गयी हो।

(3) नियम बनाने की शक्ति- अधिवक्ताओं के प्रवेश एवं नामांकन का कार्य करते समय राज्य बार कौंसिल को यह शक्ति प्राप्त होती है कि वह अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 16 से 27 के अधीन वर्णित उद्देश्यों को पूरा करने हेतु नियमों का निर्माण करे।

        अधिनियम की धारा 28 (1) के अनुसार अध्याय 3 (धारा 16 से 28) के प्रयोजनों को कार्यान्वित करने के लिए राज्य बार कौंसिल नियम बना सकेगी। अधिनियम की धारा 28 (2) में यह प्रावधान किया गया है कि विशिष्टतया और पूर्वगामी शक्ति की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, ऐसे नियम निम्नलिखित के लिए उपबन्ध कर सकेंगे, अर्थात्-

(क) वह समय जिसके भीतर और वह प्ररूप जिसमें कोई अधिवक्ता धारा 20 के अधीन किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् की नामावली में अपना नाम दर्ज कराने का अपना आशय प्रकट करेगा।

(ख) वह प्ररूप जिसके विधिज्ञ परिषद् को उसकी नामावली में अधिवक्ता के रूप में प्रवेश के लिए आवेदन किया जायेगा और वह रीति जिससे ऐरो आवेदन का विधिज्ञ परिषद् की नामांकन समिति द्वारा निपटारा किया जायेगा।

(ग) वे शर्तें जिनके अधीन रहते हुये कोई व्यक्ति ऐसी किसी नामावली में अधिवक्ता के रूप में प्रविष्ट किया जा सकेगा।

(घ) वे किस्तें जिनमें नामांकन फीस दी जा सकेगी।

        फिर भी, जैसा कि अधिनियम की धारा 28 (3) में प्रावधान किया गया है, अध्याय 3 के अधीन बनाये गये नियम तब तक प्रभावी नहीं होंगे जब तक कि वे भारतीय विधिज्ञ परिषद् (Bar Council of India) द्वारा अनुमोदित न कर दिये गये हों।

(4) वृत्तिक अथवा अन्य अवचार के कारण दण्डित करने की शक्ति- अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 35 के अनुसार जहाँ किसी शिकायत की प्राप्ति पर अथवा अन्यथा किसी राज्य बार कौंसिल के पास यह विश्वास करने का कारण होता है कि उसकी नामावली का कोई अधिवक्ता वृत्तिक या अन्य अवचार का दोषी रहा है, वहाँ वह उस मामले को अपने अनुशासन समिति को निपटारे के लिए निर्दिष्ट करेगी।

        धारा 35 की उपधारा (3) के अन्तर्गत राज्य बार कौंसिल की अनुशासन समिति सम्बद्ध अधिवक्ता और महाधिवक्ता को सुनवाई का अवसर देने के पश्चात् निम्नलिखित आदेशों में से कोई भी आदेश पारित कर सकेगी, अर्थात् –

(क) शिकायत खारिज कर सकेगी या जहाँ राज्य बार कौंसिल की प्रेरणा पर कार्यवाहियाँ आरम्भ की गयी थीं वहाँ यह निर्देश दे सकेगी कि कार्यवाहियाँ फाइल कर दी जायें;

(ख) अधिवक्ता को धिग्दण्ड दे सकेगी;

(ग) अधिवक्ता को विधि व्यवसाय से उतनी अवधि के लिए निलंबित कर सकेगी जितनी वह ठीक समझे;

(घ) अधिवक्ता का नाम अधिवक्ताओं की राज्य नियमावली में से हटा सकेगी।

         जहाँ किसी अधिवक्ता को अधिनियम की धारा 35 (3) (ग) के अधीन विधि व्यवसाय करने से निलंबित कर दिया गया हो, वहाँ वह निलंबन की अवधि के दौरान भारत में किसी न्यायालय में या किसी प्राधिकरण या व्यक्ति के समक्ष विधि व्यवसाय करने से विवर्जित कर दिया जायेगा।

     धारा 35 की उपधारा (5) के अनुसार जहाँ किसी महाधिवक्ता को उपधारा (2) के अधीन कोई सूचना जारी की गयी हो, वहाँ महाधिवक्ता राज्य चार कौंसिल की अनुशासन समिति के समक्ष या तो स्वयं या उसकी ओर से हाजिर होने वाले किसी अधिवक्ता के मार्फत हाजिर हो सकेगा।

(5) पुनर्विलोकन करने की शक्ति- अनुशासनात्मक समिति द्वारा पारित किये गये आदेशों के पुनर्विलोकन करने के सम्बन्ध में अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 44 के अधीन प्रावधान किया गया है। उक्त धारा में यह प्रावधान किया गया है कि बार कौंसिल की अनुशासन समिति अपने द्वारा पारित किसी आदेश का उस आदेश की तारीख से 60 दिनों के भीतर स्वप्रेरणा से या अन्यथा पुनर्विलोकन कर सकेगी। यह उल्लेखनीय है कि किसी राज्य बार कौंसिल की अनुशासन समिति का ऐसा कोई भी पुनर्विलोकन आदेश तब तक प्रभावी नहीं होगा जब तक वह भारतीय विधिज्ञ परिषद् (Bar Council of India) द्वारा अनुमोदित न कर दिया गया हो।

(6) समितियों के गठन एवं स्टाफ के सदस्यों को नियुक्त करने की शक्ति – अधिवक्ता अधिनियम की धारा 9 के अनुसार बार कौंसिल एक या अधिक अनुशासन समितियों का गठन करेगी। प्रत्येक ऐसी समिति तीन व्यक्तियों से मिलकर बनेगी। इसमें दो परिषदों द्वारा अपने सदस्यों में से निर्वाचित व्यक्ति होंगे और तीसरा परिषद् ऐसे अधिवक्ताओं में से सहयोजित व्यक्ति होगा जिसके पास धारा 3 की उपधारा (2) के परन्तुक में विनिर्दिष्ट अर्हतायें हों और जो परिषद् का सदस्य न हो। किसी अनुशासन समिति के सदस्यों में से’ ज्येष्ठतम अधिवक्ता उसका अध्यक्ष होगा। अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 11 के अनुसार प्रत्येक बार कौंसिल एक सचिव नियुक्त कर सकेगी और एक लेखपाल और ऐसे अन्य व्यक्तियों को अपने कर्मचारी वृन्द के रूप में नियुक्त कर सकेगी जिन्हें वह आवश्यक समझेगी। धारा 11 की उपधारा (2) के अनुसार सचिव एवं लेखपालों की यदि कोई होंगे, तो वही अर्हतायें होंगी जो विहित की जायेंगी।

(7) लेखा एवं लेखापरीक्षा का रखरखाव – अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 12 के अनुसार प्रत्येक बार कौंसिल ऐसी लेखाबहियाँ ऐसे प्ररूप में और ऐसी रीति से रखवायेगी जो विहित की जायेगी। धारा 12 की उपधारा (2) में यह प्रावधान किया गया है कि बार कौंसिल के लेखाओं की लेखापरीक्षा कम्पनी अधिनियम, 1956 के अधीन कम्पनियों के लेखापरीक्षकों के रूप में कार्य करने के लिए सम्यक् रूप से अर्हित लेखापरीक्षकों द्वारा ऐसे समयों पर और ऐसी रीति से की जायेगी, जो विहित किये जायेंगे।

प्रश्न 7. क्या किसी बार कौंसिल की अनुशासनात्मक समिति को अपने स्वयं के आदेशों के पुनर्विलोकन करने की शक्ति प्राप्त है? विवेचना कीजिए।

Is the disciplinary committee of a Bar Council empowered to renew its own orders? Discuss.

उत्तर- अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 44 के अनुसार किसी बार कौंसिल की अनुशासनात्मक समिति को अपने स्वतः के आदेश का पुनर्विलोकन करने की शक्ति प्रदान की गयी है। यह इसका पुनर्विलोकन या तो अपने स्वयं के प्रस्ताव से करेगी अथवा उक्त आदेश के 60 दिनों के भीतर किसी अन्यथा प्रकार से करेगी।

        फिर भी अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 44 के अन्तर्गत राज्य बार कौंसिल की अनुशासनात्मक समिति के इस प्रकार के किसी भी आदेश का तब तक प्रभाव नहीं होगा जब तक कि इसकी बार कौंसिल आफ इंडिया द्वारा पुष्टि न कर दी जाय।

        इसके अलावा, इस अधिनियम की धारा 48-एए में यह प्रावधान किया गया है कि बार कौंसिल ऑफ इंडिया अथवा इसकी कोई भी समिति, जो इसकी अनुशासनात्मक समिति से भिन्न होगी, अपने स्वयं के प्रस्ताव से अथवा किसी अन्य प्रकार से अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के अधीन पारित उक्त आदेश की तिथि से 60 दिनों के भीतर पुनर्विलोकन कर सकेगी।

          यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि बार कौंसिल ऑफ इंडिया की नियमावली के भाग VII का अध्याय II में पुनर्विलोकन के प्रावधानों का अधिक ध्यान किया गया है। नियम 1 में यह कहा गया है कि अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 44 के अधीन पुनर्विलोकन संबंधी आवेदन सम्यक् रूप से हस्ताक्षरित एक याचिका होगी तथा उसके साथ एक शपथ पत्र होगा तथा उसके साथ निर्धारित शुल्क भी होगा। उक्त नियम के अंतर्गत यह आवश्यक है कि पुनर्विलोकन के आवेदन को पुनर्विलोकन हेतु शासित आदेश की तिथि से 15 दिनों के भीतर दाखिल किया जाना चाहिए। पुनर्विलोकन के प्रत्येक आवेदन के साथ परिवादित आदेश की प्रमाणित प्रति होनी चाहिए और पुनर्विलोकन आवेदन की पाँच अतिरिक्त प्रतियाँ होनी चाहिए तथा शपथपत्र एवं आदेश की भी पाँच अतिरिक्त प्रतियाँ होनी चाहिए और यदि एक से अधिक प्रत्यर्थी हों तो अतिरिक्त सत्य प्रतियाँ उतनी होनी चाहिए जितनी कि आवश्यकता है। इस प्रकार के आवेदन में पुनि पुनर्विलोकन के आधारों का स्पष्ट रूप से उल्लेख होना चाहिए। यदि किसी बार कौंसिल की अनुशासनात्मक समिति द्वारा जो अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 44 के अधीन होगी, यदि पुनर्विलोकन आवेदन की सरसरी तौर पर अस्वीकृति नहीं की जाती है अथवा बार कौंसिल की अनुशासनात्मक समिति की यह इच्छा होती है कि वह अपने धारा 44 के अधीन शक्तियों का प्रयोग स्वप्रेरणा से करें तो बार कौंसिल का सचिव पक्षकारों को निर्धारित प्रारूप में नोटिस जारी करेगा और संबंधित महाधिवक्ता अथवा भारत का अतिरिक्त सालिसिटर जनरल, दिल्ली की बार कौंसिल के मामले में, को नोटिस जारी करेगा। यदि बार कौंसिल की अनुशासनात्मक समिति आवेदन को सुनवाई पर खारिज नहीं करती है और यह विनिश्चय करती है कि पुनर्विलोकन के आवेदन की स्वीकृति दी जानी चाहिए, तो संबंधित अभिलेख के साथ आदेश की प्रतियों के स्वीकृति के लिए बार कौंसिल ऑफ इंडिया के पास भेजा जायेगा।

प्रश्न 8. अधिवक्ताओं द्वारा प्रेक्षण किये जाने योग्य वृत्तिक अवचार एवं शिष्टाचार हेतु बार कौंसिल ऑफ इण्डिया द्वारा निर्धारित नियम क्या हैं? विवेचना कीजिए।

What are the rules prescribed by the Bar Council of India for the professional misconduct and etiquette of the Advocate. Discuss.

या (Or)

‘वकील के लिए लेखाकर्म’ पद से क्या अभिप्रेत है? वकालत में इसके महत्व की विवेचना कीजिए।

What is meant by the expression ‘accountancy for lawyers’? Discuss its importance in lawyering.

उत्तर- अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 49 (1) (ग) के अधीन निर्मित नियमों के अनुसार किसी प्रैक्टिस करने वाले अधिवक्ता को अनेक प्रकार के कर्तव्यों का पालन करना पड़ता है। उसे न केवल अपने मुवक्किल के हितों को देखना पड़ता है बल्कि न्यायालय में विपक्षी सहकर्मियों के प्रति भी उसका कर्त्तव्य होता है तथा प्रशिक्षण प्रदान करने एवं विधिक सहायता देने का भी उसका कर्तव्य होता है। फिर भी, इन कर्त्तव्यों को उसे वृत्तिक नीतिशास्त्र एवं माननीय न्यायालय की गरिमा एवं शिष्टाचार को बनाये रखते हुए पूरा करना पड़ता है। वस्तुतः एक प्रैक्टिस करने वाले अधिवक्ता के इन कर्त्तव्यों को उसकी ओर से किये जाने वाली विधिक बाध्यता समझा जाना चाहिए।

        किसी प्रैक्टिस करने वाले अधिवक्ता द्वारा निम्नलिखित वृत्तिक नीतिशास्त्र का अनुसरण किया जाना आवश्यक है-

(1) अधिवक्ता का न्यायालय के प्रति कर्त्तव्य (Duties of Advocate for Courts) अधिवक्ताओं के न्यायालय के प्रति निम्नलिखित कर्त्तव्य हैं जो इस प्रकार हैं-

(1) अपने वाद को प्रस्तुत करने एवं न्यायालय के समक्ष अन्य कार्य करते समय अधिवक्ता को मर्यादा और सम्मान के साथ आचरण करना चाहिए। यह नियम स्पष्ट कर देता है कि अधिवक्ता न्यायिक अधिकारी का दास नहीं है और खुशामद करना उसके कर्त्तव्य में सम्मिलित नहीं है। यदि किसी न्यायिक अधिकारी के विरुद्ध गम्भीर शिकायत प्राप्त होती है और उसका उचित आधार प्राप्त होता है तो अधिवक्ता का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह उस अधिकारी के विरुद्ध उचित प्राधिकारी के समक्ष शिकायत प्रस्तुत करे।

(2) अधिवक्ता का कर्त्तव्य है कि वह न्यायालय के प्रति आदरपूर्ण दृष्टिकोण या प्रवृत्ति इस बात को ध्यान में रखकर अपनायेगा कि स्वतन्त्र समुदाय के अस्तित्व के लिए न्यायिक पद की मर्यादा आवश्यक है।

(3) कोई भी अधिवक्ता गैर कानूनी या अनुचित साधनों का प्रयोग करके न्यायालय के निर्णय को प्रभावित नहीं करेगा। यह नियम किसी लम्बित वाद के सम्बन्ध में किसी न्यायाधीश से निजी संसूचना की मनाही करता है।

(4) अधिवक्ता अपने मुवक्किल को अनुचित कार्य करने से रोकेगा। वह अपने मुवक्किल को न्यायालय, प्रतिपक्षी पक्षकार के विरुद्ध उन सभी चीजों को करने से राकेगा जो कि उसे उनके सम्बन्ध में स्वयं नहीं करना चाहिए। जो मुवक्किल ऐसे अनुचित कार्य करने की हठ करता है, उसका प्रतिनिधित्व अधिवक्ता नहीं करेगा। अधिवक्ता अपने मुवक्किल का प्रवक्ता नहीं है और पत्राचार में स्वयं अपना निर्णय लेगा और अपने विवेक से कार्य करेगा और संयमित भाषा का प्रयोग करेगा। अभिवचन के दौरान गंदा और कटुभाषी आक्रमण नहीं करना चाहिए और बहस के दौरान क्रोधभरी भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए।

(5) नियम यह भी स्पष्ट कर देता है कि अधिवक्ता सदैव विहित पोशाक में ही न्यायालय में प्रस्तुत होगा और उसकी दिखावट सदैव उपस्थित होने योग्य होनी चाहिए।

(6) नियम यह भी बनाया गया है कि अधिवक्ता अधिनियम की धारा 30 में उल्लिखित किसी न्यायालय, प्राधिकारी अथवा अधिकरण के समक्ष उस स्थिति में उपस्थित, कार्य, अभिवचन अथवा प्रैक्टिस नहीं कर सकेगा जबकि उसका एकाकी सदस्य या किसी सदस्य के साथ पिता, दादा, पुत्र, प्रपौत्र, चाचा, भाई, भतीजा का सम्बन्ध है।

(7) नियम बनाकर यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि कोई भी अधिवक्ता न्यायालय में और न्यायालय के अतिरिक्त ऐसे समारोहों के अवसरों पर तथा ऐसे स्थानों पर जहाँ भारतीय विधिज्ञ परिषद् या न्यायालय विहित करे, के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी पट्टियाँ अथवा गाउन नहीं पहनेगा।

(8) यदि कोई अधिवक्ता किसी संगठन, संस्था, समाज अथवा निगम की कार्यकारिणी समिति का सदस्य है तो वह ऐसे संगठन, संस्था, समाज अथवा निगम के पक्ष या विरोध में किसी न्यायालय अथवा अधिकरण अथवा अन्य प्राधिकारी के समक्ष उपस्थित नहीं होगा।

(9) नियम यह भी बनाया गया है कि किसी अधिवक्ता को किसी ऐसे मामले में जिसमें वह स्वयं आर्थिक रूप से हितबद्ध है, कार्य अथवा अभिवचन नहीं करना चाहिए।

         उपर्युक्त नियमों से यह स्पष्ट हो जाता है कि अधिवक्ता के आचरण और शिष्टाचार हेतु व्यापक उपबन्ध किया गया है।

        स्टेट ऑफ उड़ीसा बनाम नलिनीकान्त मुदुली, ए० आई० आर० 2004 एस० सी० 427 के बाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि अधिवक्ता न्यायालय का अधिकारी होता है और इसलिए न्यायालय की मर्यादा बनाए रखना उसका कर्त्तव्य है और उसे कोई भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जिससे कि न्यायालय का सम्मान कम हो।

        प्रसिद्ध विधिशास्त्री एवं विद्वान सी० एल० आनन्द ने यह मत व्यक्त किया है कि कई। कारणों से अधिवक्ता को चाहिए कि वह न्यायालय का सम्मान करे। न्यायाधीश की भाँति अधिवक्ता भी न्यायालय का अधिकारी होता है और न्यायिक मशीनरी का अभिन्न अंग होता ‘है। विधिक व्यवसाय बेंच और बार से गठित होता है और बेंच और बार दोनों का ही सामान्य उद्देश्य और आदर्श होता है। न्यायाधीश सम्प्रभु का प्रतिनिधित्व करता है। परिणामस्वरूप, न्यायालय का सम्मान वास्तव में सम्प्रभु का सम्मान होता है। न्यायिक प्रशासन के लिए आवश्यक है कि जनता का उसमें विश्वास हो। यदि न्यायाधीशों का सम्मान नहीं होता है तो इसका जनता के विश्वास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। इसीलिए सम्मानजनक और मर्यादापूर्ण न्यायिक प्रशासन के लिए यह आवश्यक है कि मुकदमा करने वाले और जनता न्यायालय का सम्मान करें।

(2) अधिवक्ता का मुवक्किल के प्रति कर्त्तव्य- अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के नियम 11 से लेकर नियम 33 तक अधिवक्ता के मुवक्किल के प्रति कर्त्तव्यों के सम्बन्ध में उपबन्ध किया गया है। जो इस प्रकार है-

(1) नियम 11 के प्रावधान के अनुसार, अधिवक्ता अपनी अवस्थिति और वाद की प्रकृति के अनुसार फीस लेकर मुवक्किल (Client) का पक्षसार (पक्षसार से तात्पर्य ऐसे संक्षिप्त वृतान्त से है जो कि मुवक्किल अधिवक्ता को इस निमित्त देता है कि वह उसके मामले में पैरवी कर सके) या ब्रीफ (Brief) उस स्थिति में स्वीकार करने के लिए बाध्य है जब कि वह पक्षसार (Brief) ऐसे मामले से सम्बन्धित है जो उस न्यायालय, अधिकरण या अन्य प्राधिकारी में है जिसमें प्रैक्टिस करने का वह प्रस्ताव करता है। एस० जे० चौधरी बनाम स्टेट, ए० आई० आर० 1984 एस० सी० 1755 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया कि यदि कोई अधिवक्ता किसी आपराधिक वाद का पक्षसार लेता है तो उसे मामले की प्रतिदिन देखभाल करना चाहिए और आवश्यकता होने पर उपस्थित होना चाहिए और युक्तियुक्त ध्यान देना चाहिए। यदि वह उसकी उचित देखभाल या देखरेख नहीं करता है और आवश्यकता होने पर भी उपस्थित नहीं होता है तो वह व्यावसायिक कदाचार का दोषी ठहराया जा सकता है।

(2) नियम 12 के अनुसार, यदि कोई अधिवक्ता मामले की पैरवी करना स्वीकार कर लेता है तो सामान्यतः बिना पर्याप्त कारण के और मुवक्किल को बिना युक्तियुक्त और पर्याप्त सूचना दिये पैरवी करने से इंकार नहीं कर सकता। यदि अधिवक्ता मामले से अपने को अलग करता है तो वह फीस के उस भाग को वापस करने के लिए बाध्य होगा जो उसने उपार्जित नहीं किया है।

(3) नियम 13 के अनुसार, किसी अधिवक्ता को ऐसे मामले में उपस्थित नहीं होना चाहिए जिसमें उसके पास विश्वास का कारण है कि वह गवाह हो सकता है तो ऐसी दशा में उसे अधिवक्ता के रूप में उपस्थित नहीं होना चाहिए, यदि वह अपने मुवक्किल के हितों को संकट में डाले बिना अवकाश ले सकता है अथवा अपने को उससे अलग कर सकता है। राजेन्द्र नागरथ बनाम एल० बोहरा, ए० आई० आर० (2009) एम० पी० 31 के वाद में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि अधिवक्ताओं से वृत्तिक आचार के जिस उच्चतर स्टैण्डर्ड की अपेक्षा की जाती है, उस सम्बन्ध में भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा बनाए गए नियम पूर्ण संहिता नहीं हैं। दूसरों के लिए जो उचित है, अधिवक्ताओं के लिए अनुचित हो सकता है। न्यायालय ने प्रेक्षण किया है कि यदि वादी की ओर से दाखिल वाद में वह साक्षी के रूप में परीक्षित हुआ है तो वह वादी के विधिवेत्ता अथवा वकील के रूप में कायम नहीं रह सकता। ऐसी दशा में उसे उक्त वाद में वादी के अधिवक्ता के रूप में कार्य करना छोड़ देना चाहिए। कोकान्डा बी० पुनडाचा बनाम के० डी० मनपथी, ए० आई० आर० (2011) एस० सी० 1353 के वाद में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया है कि कार्यवाही का एक पक्षकार दूसरे पक्षकार को प्रतिनिधित्व करने वाले अधिवक्ता को, बिना यह प्रकट किए हुए कि उसका साक्ष्य मामले से उत्पन्न मुद्दे के लिए किस प्रकार सुसंगत है, परिसाक्ष्य के लिए प्रोद्धरित नहीं कर सकता। इस प्रकार बिना उक्त प्रकार के प्रकटीकरण के पक्षकार को उस अधिवक्ता की सेवाओं के उपयोग से वंचित नहीं कर सकता।

(4) नियम 14 के अनुसार, कोई भी अधिवक्ता अपनी नियुक्ति पर या नियुक्ति के दौरान अपने मुवक्किल को पक्षकारों के साथ अपने सम्बन्ध और विवाद में अपने हित, जो कि उसकी नियुक्ति या उसकी नियुक्ति को जारी रखने में मुवक्किल के निर्णय को प्रभावित करने के लिए सम्भावित है, का पूर्ण और सत्य प्रकटीकरण करेगा।

(5) नियम 15 के अनुसार, प्रत्येक अधिवक्ता का यह कर्तव्य है कि वह अपने मुवक्किल के हितों की रक्षा निर्भय होकर उचित और सम्मानजनक तरीके से करे। उसका यह कर्त्तव्य है कि वह स्वयं को या अन्य किसी को होने वाले अप्रिय परिणाम का ध्यान न देते हुए ऐसा कार्य करे।

(6) नियम 16 के अनुसार, अभियोजन के आपराधिक विचारण के लिए प्रस्तुत होने वाला अधिवक्ता इस ढंग से अभियोजन करेगा कि किसी निर्दोष व्यक्ति के विरुद्ध दोषसिद्ध न हो जाय। किसी अभियुक्त को निर्दोष ठहराने योग्य तथ्यों को छिपाने का कार्य निष्ठापूर्वक टाला जाएगा। इस प्रकार से किसी अभियुक्त को निर्दोष सिद्ध करने वाले तथ्यों को दबाने या छिपाने का कोई प्रयास नहीं करना चाहिए।

(7) नियम 17 यह स्पष्ट कर देता है कि कोई भी अधिवक्ता भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 126 के अनुसार किसी मुवक्किल द्वारा अपने अधिवक्ता को उसके नियोजन के लिए दी गई संसूचना उस अधिवक्ता द्वारा प्रकट नहीं की जा सकती। गुरू नानक प्रोविजन स्टोर्स बनाम दलहोलूमल श्यामलाल, ए० आई० आर० 1994 गुजरात 31 के मामले में न्यायालय ने कहा कि किसी अवैध प्रयोजन को अग्रसर करने के निमित्त दी गई सूचना यदि कोई व्यक्ति अधिवक्ता से ऐसे वचनपत्र के आधार पर वाद संस्थित करने को कहता है जो कूटरचित है। यह सूचना प्रकट किये जाने से संरक्षित नहीं है।

(8) नियम 18 के अनुसार, कोई भी अधिवक्ता मुकदमेंबाजी उकसाने में किसी भी समय पक्षकार नहीं बनेगा।

(9) नियम 19 के अनुसार, कोई भी अधिवक्ता अपने मुवक्किल अथवा उसके प्राधिकृत अभिकर्ता को छोड़कर किसी अन्य के निर्देशों पर कार्य नहीं करेगा।

(10) नियम 20 के अनुसार, कोई भी अधिवक्ता मुकदमे के परिणाम पर समाश्रित मेहनताना या फीस का अनुबन्ध नहीं करेगा। कोथी कोथी जै राम बनाम विश्वनाथ, ए० आई० आर० 1925 बाम्बे 470 के मामले में मुवक्किल और अधिवक्ता के मध्य हुए करार के अन्तर्गत अधिवक्ता ने वचन दिया कि वह अपनी फीस तभी लेगा जबकि मुकदमे का फैसला मुवक्किल के पक्ष में दिलवाने में सफल होगा। इसे लोकनीति के विरुद्ध होने के कारण शून्य ठहराया गया।

(11) नियम 21 के अनुसार, कोई भी अधिवक्ता किसी भी अनुयोज्य दावा में हित अथवा हिस्सा प्राप्त करने के लिए क्रय या दुर्व्यापार या अवैध व्यापार अथवा अनुबन्ध (करार) नहीं करेगा।

(12) नियम 22 के अनुसार, कोई अधिवक्ता कार्यवाही में पारित ऐसी डिक्री या आदेश जिसमें वह व्यावसायिक रूप से नियुक्त या संलग्न था, के क्रियान्वयन में बेची जाने वाली सम्पत्ति को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष (परोक्ष) रूप से अपने नाम में अथवा अन्य किसी व्यक्ति के लाभ के लिए न तो क्रय करेगा और न ही नीलामी में बोली लगायेगा।

(13) नियम 23 के अनुसार, कोई भी अधिवक्ता मुवक्किल के प्रति अपने निजी दायित्व जो कि उसके नियोजन के दौरान उत्पन्न नहीं हुआ है, को उसे अपने मुवक्किल द्वारा देय फीस से समायोजित नहीं कर सकता है।

(14) नियम 24 के अनुसार, कोई भी अधिवक्ता मुवक्किल द्वारा उसमें रखे गये विश्वास का दुरुपयोग नहीं करेगा अथवा लाभ नहीं उठायेगा।

(15) नियम 25 के अनुसार, अधिवक्ता को चाहिए कि वह अपने मुवक्किल के धन का लेखा-जोखा रखे।

(16) नियम 26 के अनुसार, यदि मुवक्किल या उसकी ओर से कोई धन प्राप्त होता है तो अधिवक्ता को चाहिए कि लेखों में इस बात का उल्लेख करे कि धन को फीस के लिए प्राप्त किया है अथवा खर्चों के निमित्त प्राप्त किया है।

(17) नियम 27 के अनुसार, यदि कोई अधिवक्ता अपने मुवक्किल के लिए कोई धन प्राप्त होता है तो उसे चाहिए कि शीघ्रातिशीघ्र इसकी सूचना मुवक्किल को दे दे।

(18) नियम 28 के अनुसार, कार्यवाही की समाप्ति के बाद खर्च के लिए दी गयी अथवा भेजी गयी रकम अथवा कार्यवाही के दौरान प्राप्त रकम यदि बची है तो उसको अपने देय निर्धारित फीस में समायोजित कर सकता है।

(19) नियम 29 के अनुसार, यदि फीस निर्धारित नहीं है तो कार्यवाही की समाप्ति के बाद बचे हुए धन में से न्यायालय के नियमों के अनुसार देय फीस घटाकर शेष धन वह मुवक्किल को वापस कर देगा।

(20) नियम 30 के अनुसार, मुवक्किल द्वारा लेखे की एक प्रति, माँगे जाने पर, उसे प्रदान की जाएगी बशर्ते आवश्यक नकल शुल्क का भुगतान किया जाता है।

(21) नियम 31 के अनुसार, अधिवक्ता को कोई भी ऐसी व्यवस्था नहीं करनी चाहिए जिससे कि जो कोष उसके पास है, वह लाभ में परिवर्तित हो जाय।

(22) नियम 32 के अनुसार, कोई भी अधिवक्ता जिस कार्यवाही में वह मुवक्किल द्वारा नियुक्त किया गया है, उसके प्रयोजन तु मुवक्किल को धन उधार नहीं देगा।

(23) नियम 33 के अनुसार, अधिवक्ता जिसने कभी किसी संस्था के मुकदमों या अपील में सलाह दी है अथवा अभिवचन किया है तो वह प्रतिपक्षी पक्षकार के लिए अभिवचन या उपस्थित या कार्य नहीं करेगा।

         उपर्युक्त नियमों से स्पष्ट हो जाता है कि अधिवक्ता और मुवक्किल के सम्बन्धों को सौहार्द्रपूर्ण एवं विश्वसनीय बनाने में उक्त नियम अत्यन्त उपयोगी हैं। इन नियमों के पालन पर निश्चय ही अधिवक्ता और मुवक्किल के सम्बन्धों में विश्वसनीयता बढ़ेगी और विधिक व्यवसाय का स्तर ऊँचा उठेगा। विकास देशपाण्डे बनाम बार कौंसिल ऑफ इण्डिया, ए० आई० आर० (2003) एस० सी० 308 के वाद में एक अधिवक्ता ने मुवक्किल से मिथ्या व्यपदेशन द्वारा मुख्तारनामा (Power of Attorney) प्राप्त किया और उसकी सम्पत्ति बेच दिया और विक्रय से प्राप्त धन का अपने लाभ के लिए प्रयोग किया। अनुशासनिक समिति ने उसे घोर वृत्तिक कदाचार का दोषी ठहराया और उसको प्रेक्टिस करने से स्थायी रूप से वर्जित कर दिया। यह दण्ड उच्चतम न्यायालय द्वारा अनुमोदित किया गया।

        ए० एस० मोहम्मद रफी बनाम स्टेट ऑफ तमिलनाडु, ए० आई० आर० (2011) एस० सी० 308 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया है कि बार एसोसिएशन का संकल्प कि अधिवक्तागण किसी विशिष्ट अभियुक्त व्यक्ति का बचाव नहीं करेंगे, व्यावसायिक आचार के विरुद्ध है। इसके अतिरिक्त यह संविधान और संविधि के भी विरुद्ध है। ऐसा संकल्प शून्य ठहराया गया।

(3) प्रतिपक्षी के प्रति कर्त्तव्य- प्रतिपक्षी के प्रति अधिवक्ता के कर्त्तव्य के सम्बन्ध में बार कौंसिल ऑफ इण्डिया ने नियम बनाया है। नियम 34 एवं 35 का सम्बन्ध एक विधि- व्यवसाय में लगे हुए अधिवक्ता का अपने प्रतिपक्षी से है। नियम 34 में यह व्यवस्था की गयी है कि किसी विवाद के विषय में अधिवक्ता उस अधिवक्ता के माध्यम के सिवाय किसी भी पक्षकार से किसी तरह से संसूचना अथवा वार्ता नहीं करता जो अधिवक्ता उस पक्षकार का प्रतिनिधित्व करता है अर्थात् पक्षकार का प्रतिनिधित्व करने वाले अधिवक्ता के माध्यम से हो विवाद के विषय पर वार्ता का प्रावधान किया गया है।

          नियम 35 में यह प्रावधान किया गया है कि अधिवक्ता अपने प्रतिपक्षी को दिये गये समस्त वचनों को पूरा करने का यथाशक्ति प्रयास करेगा, भले ही वह लिखित न हो अथवा न्यायालय के नियमों के अन्तर्गत प्रवर्तनीय न हो।

(4) सहकर्मियों के प्रति कर्त्तव्य- विधि व्यवसाय करने वाले अधिवक्ता का अपने (4) सहकर्मियों के प्रति भी कर्तव्य होता है। बार कौंसिल ऑफ इण्डिया ने इस सम्बन्ध में भी नियमों की रचना की है। नियम 36 ए, 37, 38 एवं 39 इस सम्बन्ध में महत्वपूर्ण हैं।

       नियम 36 में यह व्यवस्था की गयी है कि कोई भी अधिवक्ता कार्य के लिए याचना अथवा विज्ञापन नहीं करेगा। ऐसा वह प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष किसी भी रूप में नहीं कर सकता है। विज्ञापन चाहे परिपत्र, दलाल, निजी सूचनाओं, निजी सम्बन्धों, अनावश्यक साक्षात्कार प्रेरित करने वाले समाचार पत्रों में टिप्पणियाँ अथवा जिस मामले में अधिवक्ता के रूप में नियुक्त हुआ हो, उसके सम्बन्ध में अपना फोटोचित्र छपवाना, किसी भी माध्यम से विज्ञापन देना वर्जित है। यह नियम बनाया गया है कि अधिवक्ता के नाम का बोर्ड अथवा पट्टी युक्तियुक्त आधार की होनी चाहिए। साइन बोर्ड, नाम की पट्टी या लेखा सामग्री से ऐसा संकेत नहीं मिलना चाहिए कि वह किसी विधिज्ञ परिषद् अथवा संगम का सदस्य या अध्यक्ष है अथवा रह चुका है, अथवा न्यायाधीश या महाधिवक्ता रह चुका है अथवा यह कि वह किसी विशिष्ट मामले से सम्बद्ध रहा है अथवा किसी विशिष्ट प्रकार के कार्य में दक्ष है।

      नियम 37 के अनुसार कोई भी अधिवक्ता किसी अधिकरण द्वारा विधि के अनधिकृत प्रैक्टिस को सम्भव बनाने में अथवा सम्भव बनाने में सहायता के रूप में अपने नाम के प्रयोग की अनुमति नहीं प्रदान करेगा।

        नियम 38 में यह प्रावधान किया गया है कि अधिवक्ता नियमों के अन्तर्गत कर योग्य फीस से कम फीस स्वीकार नहीं करेगा जब मुवक्किल उसका संदाय करने में सक्षम हो।

      नियम 39 के अनुसार यदि किसी मामले में नियुक्त किया गया अधिवक्ता वकालतनामा अथवा उपस्थित होने का ज्ञापन दाखिल कर दिया है तो बिना उसकी सम्मति के कोई भी अधिवक्ता उस मामले में उपस्थित नहीं होगा। ऐसे मामले में यदि सहमति प्रस्तुत नहीं की जाती है तो वह न्यायालय से प्रार्थना करेगा और न्यायालय की अनुमति प्राप्त करने के पश्चात् ही उपस्थित होगा। उल्लेखनीय है कि इस नियम का निर्माण अधिवक्ता में स‌द्भावना बढ़ाने हेतु किया गया है।

(5) अन्य कर्त्तव्य – नियम 40 में यह व्यवस्था की गयी है कि कोई भी अधिवक्ता जिसका नाम राज्य बार कौंसिल की सूची (नामावली) में दर्ज हो गया हो, राज्य बार कौंसिल को एक निर्धारित धनराशि प्रदान करेगा। राज्य बार कौंसिल की’ नामावली से उद्भूत प्रत्येक । अधिवक्ता राज्य बार कौंसिल को 1 अप्रैल, 1984 से इन नियमों के अन्त में उपवर्णित विशेष कथनों के साथ प्रत्येक तीसरे वर्ष रुपये 30 की धनराशि राज्य बार कौंसिल को भुगतान करेगा तथा प्रथम भुगतान दिनांक 1 अप्रैल, 1984 को अथवा उसके पूर्व करेगा अथवा ऐसे बढ़े हुए समय पर करेगा जिसकी अधिसूचना बार कौंसिल ऑफ इण्डिया अथवा सम्बन्धित राज्य वार कौंसिल द्वारा की जायेगी। फिर भी किसी अधिवक्ता को यह स्वतन्त्रता प्राप्त होगी कि वह उक्त धनराशि का भुगतान रुपये 10 की समान वार्षिक किश्तों में करे जो दिनांक 1 अप्रैल, 1984 को या उसके पहले भुगतान किये जाने योग्य होगी तथा इस उद्देश्य हेतु किसी अधिवक्ता से पहले ही प्राप्त की गयी धनराशि का समायोजन दिनांक 1 अप्रैल, 1984 को उसके द्वारा देय धनराशि के प्रति समायोजित कर दिया जायेगा।

       नियम 41 में यह प्रावधान है कि राज्य बार कौंसिल द्वारा एकत्र की गयी ऐसी सभी धनराशि जो नियम 40 के अनुसार एकत्र की जाती है, को एक पृथक् निधि में जमा किया जायेगा, जिसे ‘राज्य बार कौंसिल ऑफ इण्डिया एडवोकेट वेलफेयर फण्ड’ कहा जायेगा और उसे नियम 41 में प्राविधित बैंक में जमा किया जायेगा।

       नियम 43 में यह व्यवस्था है कि यदि किसी अधिवक्ता को धारा 24 ‘क’ के अन्तर्गत उल्लिखित अपराध के लिए सिद्धदोष किया गया है अथवा दिवालिया घोषित किया गया है अथवा उसने पूर्वकालिक या अशंकालिक सेवा की हो या कार्यरत अधिवक्ता से भिन्न व्यापार या पेशा कर रहा है अथवा अधिवक्ता अधिनियम में उल्लिखित अनर्हता (disquali- fication) उपगत कर ली है तो वह उसकी घोषणा उस राज्य के बार कौंसिल को देगा जिसमें वह नामांकित होगा। ऐसी घोषणा अनर्हता की तिथि से 90 दिनों के अन्दर दे दी जानी चाहिए। यदि वह 90 दिनों के अंदर ऐसी घोषणा नहीं करता है या न करने का पर्याप्त कारण बतलाने में चूक करता है तो नियम 42 में गठित कमेटी उस अधिवक्ता के प्रैक्टिस करने के अधिकार को निलम्बित करते हुए आदेश पारित कर सकती है।

        नियम 44 के अनुसार किसी पीड़ित अधिवक्ता को नियम 42 एवं 43 के अन्तर्गत पारित आदेश के विरुद्ध अपील 30 दिनों के भीतर बार कौंसिल ऑफ इण्डिया के यहाँ कर देनी चाहिए।

(6) प्रशिक्षण देने का कर्त्तव्य – नियम 45 के अनुसार राज्य बार कौंसिल द्वारा अधिनियम के अन्तर्गत अधिवक्ता के रूप में नामांकित होने के लिए निर्धारित प्रशिक्षण देने के निमित्त किसी अधिवक्ता द्वारा फीस या प्रीमियम की माँग करना अथवा स्वीकार करना अनुचित है।

(7) विधिक सहायता प्रदान करने का कर्त्तव्य- नियम 46 के अनुसार अधिवक्ता के रूप में विधि व्यवसाय करने वाला प्रत्येक अधिवक्ता अपने मस्तिष्क में यह बात रखेगा कि वह व्यक्ति जिसे अधिवक्ता की वास्तव में जरूरत है, उसे विधिक सहायता प्राप्त करने का अधिकार है भले ही वह इसके लिए पूर्ण अथवा पर्याप्त रूप में अदा करने में सक्षम न हो। अधिवक्ता द्वारा आर्थिक सीमा के भीतर निर्धन को विधिक सहायता देना समाज के प्रति एक सर्वोच्च आभार है।

(8) अन्य नियोजनों पर प्रतिबन्ध – नियम 47 से 52 का सम्बन्ध अन्य नियोजनों पर लगाये गये प्रतिबन्धों से है। ये प्रतिबन्ध निम्नवत् हैं-

(i) कोई अधिवक्ता किसी व्यापार में व्यक्तिगत रूप से नहीं लगेगा परन्तु वह किसी फर्म में निष्क्रिय भागीदार हो सकता है बशर्ते कि उपयुक्त राज्य बार कौंसिल के मत में व्यापार या कारोबार की प्रवृत्ति विधिक सहायता के सम्मान के प्रतिकूल न हो। भूपेन्द्र कुमार शर्मा बनाम बार एसोसिएशन, ए० आई० आर० 2002 एस० सी० 47 के बाद में कहा गया कि एक अधिवक्ता को अधिवक्ता के रूप में नामांकित होने के बाद भी कारबार करते हुए पाया गया। अधिवक्ता को व्यावसायिक कदाचार के लिए दोषी ठहराया गया।

(ii) कोई अधिवक्ता किसी कम्पनी का प्रबन्ध निदेशक अथवा सचिव नहीं हो सकता है।

(iii) कोई अधिवक्ता किसी व्यक्ति, सरकार, फर्म, निगम अथवा समुत्थान का पूर्णकालिक वैतनिक कर्मचारी उस समय तक ही हो सकता है जब तक कि वह विधि व्यवसाय करता है।

(iv) कोई अधिवक्ता जिसे विरासत में अथवा उत्तराधिकार में परिवार का कोई व्यापार मिला हो, वह उसे जारी रख सकता है किन्तु उस व्यापार या कारोबार के प्रबन्ध में व्यक्तिगत रूप में भाग नहीं ले सकता है। ऐसे व्यापार में भिन्न व्यक्तियों के साथ वह हिस्सा तो बनाये रख सकता है किन्तु उसके प्रबन्ध में वह व्यक्तिगत रूप से भागीदार नहीं बना रह सकता है।

        इस प्रकार से हम देखते हैं कि उपर्युक्त नियम एक विधि व्यवसायी अधिवक्ता के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश हैं जिनका पालन उसे विधि-व्यवसाय के दौरान करना पड़ेगा। फिर भी यदि इन नियमों का प्रेक्षण करने में असफल होगा, वृत्तिक कदाचार माना जायेगा और वृत्तिक नीतिशास्त्र का भंग किया जाना समझा जायेगा।

प्रश्न 9 (i) क्या किसी अधिवक्ता एवं उसके मुवक्किल के बीच का संबंध वैश्वासिक होता है। स्पष्ट करें।

Whether the relation between an advocate and his client fiduciary? Explain.

(ii) अधिवक्ताओं द्वारा किये गये अवचार के संबंध में राज्य बार कौंसिल द्वारा क्या दण्ड दिया जा सकता है?

What punishment can be inflicted by the State Bar Council for misconduct of the advocates?

उत्तर (i)– एक अधिवक्ता एवं उसके मुवक्किल के बीच का सम्बन्ध निश्चित रूप से वैश्वासिक सम्बन्ध होता है क्योंकि एक अधिवक्ता एवं उसके मुवक्किल के बीच विश्वास का होना अति आवश्यक है। सामान्यतया जहाँ पक्षकारों के बीच वैश्वासिक सम्बन्ध विद्यमान होता है वहाँ संविदा जैसे कतिपय करार की उपधारणा की जा सकती है। वी० सी० रामगड़ी राय बनाम डी० गोपालन (AIR 1979 SC 281) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रेक्षण किया है कि अधिवक्ता एवं उसके मुवक्किल के बीच का सम्बन्ध विशुद्ध रूप से वैयक्तिक होता है जिसमें उच्च श्रेणी का व्यक्तिगत विश्वास अंतर्ग्रस्त रहता है।” आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने यह प्रेक्षण किया है कि कोई अधिवक्ता किसी मुवक्किल का अभिकर्ता अथवा सेवक मात्र ही नहीं होता है बल्कि वह उससे कहीं अधिक होता है। (इन री मोहब्बत अली खान, AIR 1958 A.P. 116)

        श्री सी० एल० आनन्द के अनुसार भारत में अधिवक्ता एवं उसके मुवक्किल के बीच का संबंध एक विशेष संविदा की प्रकृत्ति का होता है अर्थात् अभिकर्ता एवं प्रधान का होता है। फिर भी कोई अधिवक्ता अपने मुवक्किल का अभिकर्ता अथवा प्रवक्ता मात्र नहीं होता है क्योंकि वह विधि एवं प्रयोग द्वारा अधिकथित नीति शास्त्रीय संहिता का अनुसरण करने के लिए बाध्य होता है। इस प्रकार से, अधिवक्ता एवं उसके मुवक्किल के बीच के संबंध न्यासी एवं लाभार्थी अथवा विश्वास का संबंध होता है। उन्होंने आगे यह भी प्रेक्षण किया था कि वाद में अधिवक्ता एवं उसके मुवक्किल के बीच के सभी संव्यवहारों पर न्यायालय द्वारा उत्साहपूर्वक एवं शंकापूर्वक नजर रखी जाती है। यद्यपि संव्यवहार अवैध नहीं होता है। फिर भी न्यायालय बहुत ही निकट से इसकी संवीक्षा करती है और इस बात के लिए दृढ़ सबूत की अपेक्षा करती है कि कोई अधिवक्ता अपने मुवक्किल के विश्वास का कोई असम्यक् लाभ नलेले।

        भारतीय विधिज्ञ परिषद् (Bar Council of India) द्वारा निर्मित नियम 14 के अंतर्गत कोई अधिवक्ता अपने नियुक्त किये जाने के प्रारम्भ में तथा उसके जारी रहने के दौरान पक्षकारों से अपने सम्बंध के विषय में पूर्ण खुलासा कर देगा और अपने नियुक्त करने अथवा अपनी नियुक्ति को जारी रखने से मुवक्किल के निर्णय पर प्रभाव डालने के संभावित विवाद अथवा अपने हित के विषय में स्पष्ट रूप से खुलासा कर देगा। इसके अलावा नियम 15 में यह प्रावधान किया गया है कि किसी अधिवक्ता का यह कर्त्तव्य होगा कि वह किसी अन्य का ध्यान रखे बिना सम्पूर्ण स्वच्छ एवं प्रतिष्ठित साधनों से अपने मुवक्किल के हितों को निडर भाव से मान्य ठहराये। फिर भी अधिवक्ता नियमावली के नियम 22 में यह प्रावधान किया गया है कि कोई अधिवक्ता प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से अपने नाम अथवा किसी अन्य नाम से अपने लाभ के लिए अथवा किसी अन्य व्यक्ति के लाभ के लिए किसी • डिक्री के निष्पादन में बेची गयी अथवा किसी वाद, अपील अथवा अन्य कार्यवाहियों के निष्पादन में बेची गयी किसी ऐसी सम्पति को न तो खरीदेगा और न ही शर्त लगायेगा जिससे वह किसी भी प्रकार से नियुक्त किया गया है। फिर भी यह प्रतिषेध किसी अधिवक्ता को अपने मुवक्किल के लिए किसी ऐसी सम्पत्ति पर शर्त लगाने अथवा क्रय करने से नहीं रोकता है जिसे उसका मुवक्किल स्वयं विधिक रूप से शर्त लगा सकता था अथवा क्रय कर सकता था बशर्ते कि उक्त अधिवक्ता का इस संबंध के स्पष्ट रूप से अभियुक्त कर दिया गया हो। नियम 24 के अनुसार कोई अधिवक्ता ऐसी कोई चीज नहीं कर सकता है जिसके द्वारा वह अपने मुवक्किल द्वारा व्यक्त विश्वास का लाभ उठा सके अथवा उसका दुरुपयोग कर सके।

        किसी अन्य व्यक्ति को धोखा देने के उद्देश्य से अधिवक्ता एवं मुवक्किल के बीच की गयी दुरभि संधि वृत्तिक अवचार है। इस प्रकार से अधिवक्ता एवं उसके मुवक्किल के बीच के वैश्वासिक संबंध को सामान्य रूप से परिसंकट पूर्ण बनाया गया है। जहाँ किसी अधिवक्ता ने ऐसी सम्पत्ति का क्रय किया था जो वाद की विषय-वस्तु थी और उसे उसने अपने मुवक्किल से कुछ पैसा फेक कर खरीदा था और सम्पत्ति पर मुवक्किल के हक पर संदेह था और अधिवक्ता को इस तथ्य की जानकारी थी फिर भी उसने उक्त सम्पत्ति को किसी अन्य व्यक्ति को बेच दी थी और लाभ कमाया था वहाँ न्यायालय ने उक्त अधिवक्ता को वृत्तिक अवचार का दोषी ठहराया।

        इसी तरह एक अन्य मामले में एक वरिष्ठ अधिवक्ता ने अपने स्वयं के कनिष्ठ अधिवक्ता को एक चकबंदी के मामले में परिवादी का मुख्तार नियुक्त किया था और उसने अपने कनिष्ठ अधिवक्ता को गलत दिशा निर्देश दिया और परिवादी की सम्पत्ति का निस्तारण अपने पिता के पक्ष में करवाने का प्रयास किया। इस मामले में वरिष्ठ अधिवक्ता को वृत्तिक अवचार का दोषी ठहराया गया। परिणामस्वरूप उसे दो वर्षों के लिए विधि व्यवसाय करने से निलम्बित कर दिया गया।

उत्तर (ii) – अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के अध्याय 5 का संबंध अधिवक्ताओं के वृत्तिक अवचार से है। उक्त अधिनियम की धारा 35 में यह प्रावधान किया गया है कि जहाँ कहीं भी परिवाद की प्राप्ति पर या किसी अन्य प्रकार से किसी बार कौंसिल को यह विश्वास हो जा जाता है कि उसकी सूची का यदि कोई अधिवक्ता वृत्तिक अथवा अन्य अवचार का दोषी पाया जाता है तो यह मामले को निस्तारण के लिए अनुशासनात्मक समिति को संदर्भित कर देगा।

        अधिवक्ता (संशोधन) अधिनियम, 1973 द्वारा यह जोड़ा गया है कि राज्य बार कौंसिल या तो अपने स्वयं के प्रस्ताव से अथवा किसी हितबद्ध व्यक्ति द्वारा दिये गये आवेदन पर अनुशासनात्मक समिति के समक्ष लम्बित कार्यवाही को वापस कर देती है और यह निर्देश दे सकती है कि उस राज्य बार कौंसिल की किसी अन्य अनुशासनात्मक समिति द्वारा जाँच करवायी जाय।

       अधिवक्ता अधिनियम की धारा 35 (2) के अनुसार किसी राज्य बार कौंसिल की अनुशासनात्मक समिति किसी मामले की सुनवाई के लिए तारीख निश्चित कर सकती है और सम्बन्धित अधिवक्ता को कारण बताओ नोटिस जारी कर सकता है और राज्य के महाधिवक्ता को भी नोटिस जारी कर सकता है।

       धारा 35 की उपधारा (3) में किसी अधिवक्ता के वृत्तिक अवचार अथवा अन्य अवचार के मामले का निपटारा करते समय राज्य बार कौंसिल की अनुशासनात्मक समिति द्वारा अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया का प्रावधान किया गया है। उक्त उपधारा में यह कहा गया है कि सम्बंधित अधिवक्ता अथवा महाधिवक्ता को सुनवाई का अवसर दिये जाने के पश्चात् राज्य बार कौंसिल की अनुशासनात्मक समिति निम्नलिखित आदेशों में से कोई भी आदेश पारित कर सकती है अर्थात-

(क) परिवाद को खारिज कर सकता है अथवा जहाँ राज्य बार कौंसिल की प्रेरणा पर कार्यवाहियाँ प्रारम्भ की जाती हैं वहाँ यह निर्देश दे सकता है कि कार्यवाहियाँ संस्थित कर दी जाय।

(ख) अधिवक्ता को धिग्दण्ड (reprimand) कर सकता है।

(ग) अधिवक्ता को विधि व्यवसाय करने से ऐसे समय के लिए निलम्बित कर सकता है जैसा वह उचित समझे।

(घ) अधिवक्ता का नाम अधिवक्ता की राज्य सूची से हटा सकता है।

       अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 35 (4) में यह प्रावधान किया गया है कि जहाँ किसी अधिवक्ता को उपधारा (3) के खण्ड (ग) के अंतर्गत प्रैक्टिस से निलम्बित कर दिया जाता है, वहाँ वह निलम्बन के समय के दौरान भारत के किसी भी न्यायालय में अथवा किसी प्राधिकरण के अथवा किसी भी व्यक्ति के समक्ष प्रैक्टिस करने से विवर्जित होगा।

प्रश्न 10. (1) वृत्तिक नीतिशास्त्र (Professional Ethics) के स्वर्णिम सिद्धान्तों को लिखिए।

Describe the Golden principles of Professional Ethics.

(ii) “वृत्तिक आचार” से क्या तात्पर्य है? विधिक व्यवसाय (वकालत पेशे) में इसका क्या महत्व है?

What is meant by Professional Ethics? What is its importance in legal profession (Advocacy)?

अथवा (or)

अधिवक्ताओं के लिए आचार संहिता क्या है? सम्बन्धित प्रावधानों का उल्लेख करते हुए विस्तृत वर्णन कीजिए।

What is code of conduct for advocates? Discuss in detail with relevant provisions.

उत्तर (i) – किसी व्यवसाय के लिए आचार संहिता एवं नीतिशास्त्र आवश्यक है और विधि व्यवसाय इसका अपवाद नहीं है। इस प्रकार से किसी अन्य व्यवसाय की तरह विधि व्यवसाय को भी व्यावसायिक नीतिशास्त्र के निम्नलिखित स्वर्णिम सिद्धान्त हैं-

(1) उच्च श्रेणी का नैतिक चरित्र बनाये रखिए तथा अपने ज्ञान को सुधारने का प्रयास करते रहिए और इस सिद्धान्त को अंगीकार कीजिए कि ईमानदारी सर्वोत्तम नीति है।

(2) स्वयं के विज्ञापन के कार्य में मत लगिये। व्यावसायिक गुणों के साथ विज्ञापन अपने आप हो जायेगा।

(3) कर्तव्य एवं हित के बीच संघर्ष होने की स्थिति में कर्त्तव्य को वरीयता दीजिए।

(4) मुवक्किल के हाथ का खिलौना मत बनिये।

(5) ऐसे किसी भी विचारण में आप नियुक्त न हो जिसमें आप साक्षी हों।

(6) अपने न्यायालय एवं मुवक्किल के प्रति हमेशा स्वच्छ छवि रखिए।

(7) वाद के पूर्व अपने मुवक्किल को मुवक्किल के मामले के सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों ही बिन्दुओं के विषय में बताइए।

(8) सभी विधिक एवं स्वच्छ माध्यमों से उत्पन्न बेहतर प्रदर्शन करें।

(9) अपने मुवक्किल के प्रति व्यूत मत होइये।

(10) अस्थायी समृद्धि प्राप्त करने के लिए अनुचित धनीय लाभ की ओर मत भागिये।

(11) दुरभिसंधि युक्त विधि व्यवसाय से दूर रहिए।

(12) बेईमानीपूर्ण वादों को बढावा न दें।

(13) उत्पीड़न के उत्पादन न बनें।

(14) अवैध प्रतितोषण न प्राप्त कीजिए।

(15) बेंच एवं बार दोनों का सम्यक् राम्मान करें।

        निः संदेह विधि व्यवसाय एक दूरस्थ व्यवसाय है और उसके लिए व्यापक तैयारी की आवश्यकता पड़ती है किन्तु यदि स्वयं पर आस्था एवं आत्मविश्वास के साथ कार्य किया जाय तो यह अतिशीघ्र आसान हो ज्जाता है। यद्यपि सफलता की प्रक्रिया धीमी होती है किन्तु सुनिश्चित होती है। इस व्यवसाय के लिए यह अपेक्षित है कि व्यावसायिक कार्य का संपादन अत्यंत सावधानीपूर्वक किया जाय। यदि कठिन परिश्रम से कार्य किया जाय तो वह दिन दूर नहीं है जब सफलता कदम चूम लेगी क्योंकि यह सर्वविदित है कि ईमानदारी और कठिन परिश्रम कभी भी निष्फल नहीं होता है। अंततोगत्वा एक दिन ऐसा आता है जब न केवल सम्मान और प्रशंसा की प्राप्ति होती है बल्कि करोड़ो में धन भी मिलता है और व्यक्ति समृद्धिशाली हो जाता है।

उत्तर (ii) – वृत्तिक आचार (Professional ethies) वृत्तिक आचार से तात्पर्य ऐसे आचरण की संहिता से है जो चाहे लिखित हो या मौखिक परन्तु विधि-व्यवसाय करने वाले अधिवक्ताओं के स्वयं के प्रति, अपने मुवक्किल के प्रति, विधि में अपने प्रतिपक्षी के प्रति और न्यायालय के प्रति उसके व्यवहार को विनियमित करती हो।

       वृत्तिफ-आचार का मुख्य उद्देश्य विधि व्यवसाय के सम्मान और मर्यादा को बनाए रखना और अधिवक्ताओं एवं न्यायाधीशों के बीच मित्रतापूर्ण सम्बन्ध बनाए रखना है। न्यायमूर्ति मार्शल एवं डॉ० सी० एल० आनन्द ने भी उपरोक्त उद्देश्य का समर्थन किया। उनके अनुसार विधिक आचार के उद्देश्य को निम्नलिखित तरह से गिनाया जा सकता है-

(1) विधिक व्यवसाय की मर्यादा और सम्मान को बनाए रखना,

(2) न्याय के सर्वोच्च मानक की अभिवृद्धि में बेंच और बार के मध्य मित्रतापूर्ण ( सहयोग की भावना सुनिश्चित करना,

(3) परामर्शदाता का उसके मुवक्किल, प्रतिपक्षी और साक्षियों के साथ उचित और सम्मानपूर्ण व्यवहार की स्थापना करना,

(4) विधिज्ञ वर्ग के अन्तर्गत भाईचारे की भावना की स्थापना करना, तथा

(5) इस बात को सुनिश्चित करना कि विधिज्ञ वर्ग सामान्य समुदाय के प्रति अपने उत्तरदायित्व का सम्पादन करते हैं।

       न्याय-प्रशासन सभ्य समाज के अस्तित्व के लिए अत्यन्त आवश्यक है। न्यायाधीश वर्ग और अधिवक्तागण दोनों ही न्याय प्रशासन के आवश्यक अंग हैं और इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। न्यायाधीश विधि का प्रशासन अधिवक्ता वर्ग के सहयोग से करते हैं, अतः न्याय प्रशासन में अधिवक्ताओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अधिवक्ता वाद से सम्बन्धित विधिक सामग्री एकत्रित करके न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करते हैं और इस सामग्री के आधार पर न्यायाधीश निर्णय देते हैं। अधिवक्ताओं के अभाव में न्यायाधीश के लिए सही निर्णय देना एक अलौकिक (Super Human) कार्य होगा।

       एक अधिवक्ता के अस्तित्व का उचित आधार बताते हुए न्यायमूर्ति श्री पी० एन० सप्रू ने कहा है कि “किसी भी विवाद का प्रत्येक पक्षकार इस स्थिति में होना चाहिए कि वह निष्पक्ष अधिकरण के समक्ष अपने पक्ष को सर्वोत्तम ढंग से सबसे अधिक प्रभावी ढंग से प्रस्तुत कर सके।”

       देश में जो कानून बन रहे हैं, उनकी भाषा प्रायः बहुत जटिल होती है, जिसे समझना दुष्कर कार्य होता है। नागरिकों को कानून के वास्तविक अर्थ को समझाने के लिए अधिवक्ता की सलाह की आवश्यकता होती है। इसलिए एक अधिवक्ता का यह कर्त्तव्य है कि वह उन व्यक्तियों को सलाह दे जिन्हें उनकी आवश्यकता होती है और इसके लिए ये फीस या मेहनताना के हकदार होते हैं।

      एक योग्य अधिवक्ता समाज में शान्ति तथा व्यवस्था बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। डॉ० सी० एल० आनन्द ने ठीक ही लिखा है कि “अधिवक्ता न्यायाधीशों के साथ समाज में शान्ति-व्यवस्था बनाये रखने के उत्तरदायित्व में हिस्सा लेते हैं। उनका कार्य विवादों को बढ़ावा देना नहीं है बल्कि उन विवादों का उचित समाधान ढूँढना है।” इस प्रकार अधिवक्तागण उचित सामाजिक एवं विधिक व्यवस्था की स्थापना के लिए कार्य करते हैं और यह कार्य समाज के श्रेष्ठतम कार्यों में से एक है। जिस व्यवस्था के लिए वह कार्य करते हैं, वह व्यवस्था किसी की हानि के लिए नहीं बल्कि न्याय की विजय के लिए होती है। न्याय प्राप्त करने की चाहत सभी को होती है। अधिवक्ता इसकी प्राप्ति में सहायता प्रदान करता है।

      अधिवक्ता विधि के सुधार में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। अपने अनुभव के कारण उन्हें विधि का ज्ञान होता ता है है और इस कारण विधि के दोषों को दूर करने में उनके सुझाव का विशेष महत्व होता है।

      विधिक व्यवसाय अत्यन्त सम्मानजनक व्यवसाय है। इसका सृजन व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं बल्कि लोकहित के लिए किया गया है। यह मुद्रा अर्जन का पेशा नहीं है बल्कि न्यायिक प्रशासन का एक भाग है। चूंकि यह कारबार (business) या व्यापार (trade) नहीं है, इसलिए अधिवक्ता कार्य हेतु याचना अथवा विज्ञापन नहीं कर सकता। अधिवक्ता अपने मुवक्किल (client) के हाथों की कठपुतली नहीं होता है जो उनके इशारों अथवा आदेशानुसार अपना आचरण करे। जो फीस देता है, अधिवक्ता उसका अभिकर्ता मात्र नहीं होता है। न्याय के उचित प्रशासन में न्यायालय की सहायता करना ही उसका कर्त्तव्य होता है।

       अधिवक्ता न्यायालय का आफिसर होता है और उसका कर्त्तव्य होता है कि वह न्यायालय के प्रति आदरपूर्ण रुख या दृष्टिकोण बनाये रखे। भारतीय विधिज्ञ परिषद् के नियमों के अनुसार अपने मामले की प्रस्तुति तथा न्यायालय के समक्ष अन्य किसी कार्य के दौरान अधिवक्ता को आत्मसम्मान और मर्यादा के साथ आचरण करना चाहिए। न्यायालय के प्रति आदरपूर्ण दृष्टिकोण इस बात को ध्यान में रखकर अपनाया जाता है कि स्वतन्त्र समुदाय के कायम रहने के लिए न्यायिक पद की मर्यादा आवश्यक है। इन्हीं बातों पर जोर देते हुए उच्चतम न्यायालय ने हंसराज एल० छुलानी बनाम बार कौंसिल ऑफ महाराष्ट्र एण्ड गोवा, ए० आई० आर० 1996, एस० सी० 1708 के वाद में मत व्यक्त किया है कि “न्यायिक प्रशासन में विधिक व्यवसाय न्यायालय के साथ भागीदार होता है।” भारत में अधिवक्ता अधिनियम, 1961 द्वारा विधिज्ञों के आचरण को नियंत्रित करने, अधिवक्ताओं और न्यायाधीशों में मित्रतापूर्ण सम्बन्ध बनाये रखने और विधिक व्यवसाय के स्तर को ऊँचा उठाने के निमित्त विस्तृत उपबन्ध बनाया गया है।

प्रश्न 11. अधिवक्ता नियमावली से किसी अधिवक्ता का नाम हटाये जाने की क्या प्रक्रिया है। वर्णित कीजिए।

Discuss the procedure of removal of the name of an Advocate from Advocate role.

उत्तर- अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 26 (क) के अनुसार राज्य विधिज्ञ परिषद किसी भी उस अधिवक्ता का नाम राज्य नियमावली से हटाने की शक्ति जिसकी या तो मृत्यु हो गयी हो या जिससे (अधिवक्ता) का नाम हटाने का आवेदन-पत्र प्राप्त हो गया हो। अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 35 के अनुसार जहाँ किसी शिकायत की प्राप्ति पर अथवा अन्यथा किसी राज्य बोर कौंसिल के पास यह विश्वास करने का कारण होता है कि उसकी नामावली का कोई अधिवक्ता वृत्तिक या अन्य अवचार का दोषी रहा होता है, वहाँ वह उस मामले को अपने अनुशासन समिति को निपटारे के लिए निर्दिष्ट करेगी।

        धारा 35 की उपधारा (3) के अन्तर्गत राज्य बार कौसिल की अनुशासन समिति सम्बद्ध अधिवक्ता और महाधिवक्ता को सुनवाई का अवसर देने के पश्चात् निम्नलिखित आदेशों में से कोई भी आदेश पारित कर सकेगी अर्थात् –

(क) शिकायत खारिज कर सकेगी या जहाँ राज्य बार कौंसिल की प्रेरणा पर कार्यवाहियाँ आरम्भ की गयी थीं, वहाँ यह निर्देश दे सकेगी कि कार्यवाहियाँ फाइल कर दी जाएं:

(ख) अधिवक्ता को धिग्दण्ड दे सकेगी;

(ग) अधिवक्ता को विधि व्यवसाय से उतनी अवधि के लिए निलम्बित कर सकेगी जितनी वह ठीक समझे;

(घ) अधिवक्ता का नाम अधिवक्ताओं की राज्य नियमावली में से हटा सकेगी।

        जहाँ किसी अधिवक्ता को अधिनियम की धारा 35 (3) (ग) के अधीन विधि व्यवसाय करने से निलम्बित कर दिया गया हो, वहाँ वह निलम्बन की अवधि के दौरान भारत के किसी न्यायालय में या किसी प्राधिकरण या व्यक्ति के समक्ष विधि व्यवसाय करने  से विवर्जित कर दिया जायेगा।

       धारा 35 की उपधारा (5) के अनुसार जहाँ किसी महाधिवक्ता को उपधारा (2) के अधीन कोई सूचना जारी की गयी हो वहाँ महाधिवक्ता राज्य बार कौंसिल की अनुशासन समिति के समक्ष या तो स्वयं या उसकी ओर से हाजिर होने वाले किसी अधिवक्ता के प्रत हाजिर हो सकेगा।

प्रश्न 12 अधिवक्ताओं के विधि व्यवसाय के अधिकार पर संक्षिप्त पिणी लिखें। Write short note on the rights to legal factice of an Advocate.

उत्तर-अधिवक्ताओं के विधि व्यवसाय का अधिक (The Rights to Legal Practice of an Advocate)- अधिवक्ता अधिनयम, 1961 की धारा 29 में अधिवक्ताओं के विधि-व्यवसाय के अधिकार के बार्म प्रावधान किया गया है। धारा 29 में यह स्पष्ट कहा गया है कि केवल अधिवक्ता ही विधि-व्यवसाय करने का हकदार है। धारा-29 के अनुसार अधिवक्ता अधिनियम् और उसके अधीन बनाये गये किन्हीं नियमों के उपबन्धों के अधीन रहते हुए नियत मि से विधि-व्यवसाय करने के लिए हकदार व्यक्तियों का एक ही वर्ग होगा, अर्थात् अधिवक्ता। इस प्रकार से अधिवक्ता ही व्यक्तियों का एक ऐसा मान्यता प्राप्त वर्ग है जो विधि की प्रैक्टिस करने का हकदार होता है।

        अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 55 विद्यमान प्लीडर, वकील, न्यायवादी, मुख्तार तथा राजस्व अभिकर्ताओं नामक विधिक व्यवसायियों के अधिकारों को भी सुरक्षित करती है। धारा-55 यह प्रावधान करती है कि अधिवक्ता अधिनियम में किसी बात के होते हुए भी-

(i) प्रत्येक प्लीडर या वकील, जो उस तारीख से जिसको अध्याय 4 (धारा 29 से 34 तक) लागू होती हैं, ठीक पहले उस हैसियत में विधि-व्यवसायी अधिनियम, 1879, बाम्बे प्लीडर्स ऐक्ट, 1920 या किसी अन्य विधि के उपबन्धों के आधार पर विधि-व्यवसाय कर रहा है और जो इस अधिनियम के अधीन अधिवक्ता के रूप में नामांकित किये जाने के लिए चयन नहीं करता है या उसके लिए योग्य नहीं है।

(ii) प्रत्येक मुख्तार जो उक्त तारीख के ठीक पहले विधि-व्यवसायी अधिनियम, 1879 या किसी अन्य विधि के प्रावधानों के आधार पर, उस हैसियत में, विधि व्यवसाय. कर रहा है, और जो इस अधिनियम के अधीन अधिवक्ता के रूप में नामांकित किए जाने के लिए चयन नहीं करता है या उसके लिए योग्य नहीं है।

(iii) प्रत्येक राजस्व अभिकर्ता जो उक्त तारीख के ठीक पहले, विधि-व्यवसायी अधिनियम, 1879 या किसी अन्य विधि के उपबन्धों के आधार पर उस हैसियत में विधि-व्यवसाय कर रहा है।

      इस अधिनियम द्वारा, विधि-व्यवसायी अधिनियम, 1879 बाम्बे प्लीडर्स ऐक्ट, 1920 या अन्य विधि के सुसंगत उपबन्धों के निरसन (समाप्त) होते हुए भी, किसी न्यायालय में या राजस्व कार्यालय में या किसी प्राधिकरण या व्यक्ति के समक्ष विधि-व्यवसाय करने के सम्बन्ध में उन्हीं अधिकारों का उपभोग करता रहेगा जिनका उक्त तारीख के ठीक पहले, यथास्थिति, उसने उपभोग किया था या जिसके अधीन वह था और तद्‌नुसार पूर्वोक्त अधिनियमों या विधि के सुसंगत उपबन्ध, ऐसे व्यक्तियों के सम्बन्ध में वैसे ही प्रभावी होंगे, मानों उनका निरसन ही न हुआ हो।

       अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 30 के अधीन यह प्रावधान किया गया है कि इस अधिनियम के उपबन्धों के अधीन रहते हुए, प्रत्येक अधिवक्ता को जिसका नाम राज्य नामावली में दर्ज है, ऐसे समस्त राज्यक्षेत्रों के जिन पर इस अधिनियम का विस्तार है, प्रैक्टिस करने का अधिकार होगा। दूसरे शब्दों में ऐसा अधिवक्ता जिसका नाम राज्य सूची में दर्ज होता है, उच्चतम न्यायालय सहित सभी न्यायालयों में अधिवक्ता के रूप में प्रैक्टिस करने का हकदार होगा तथा ऐसे किसी भी अधिकरण अथवा व्यक्ति के समक्ष व्यवसाय करने का हकदार होगा जो साक्ष्य लेने के लिए विधिक रूप से प्राधिकृत होगा तथा किसी भी प्राधिकारी अथवा व्यक्ति के समक्ष प्रैक्टिस करने का हकदार होगा, जिसके समक्ष इस प्रकार का अधिवक्ता किसी तत्समय प्रवृत्त विधि के द्वारा अथवा उसके अन्तर्गत विधि की प्रैक्टिस करने का हकदार होगा।

       अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 33 में यह घोषणा की गई है कि इस अधिनियम में या उस समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में जैसा उपबन्धित है, उसके सिवाय कोई व्यक्ति नियत दिन को या उसके पश्चात् किसी न्यायालय में या किसी प्राधिकरण या व्यक्ति के समक्ष विधि व्यवसाय करने का हकदार तब तक नहीं होगा जब तक वह इस अधिनियम के अधीन अधिवक्ता के रूप में नामांकित न हो। यह उल्लेखनीय है कि विधि व्यवसाय करने का किसी अधिवक्ता का अधिकार आत्यन्तिक नहीं है बल्कि वह कतिपय अपवादों के अधीन है। जैसे कि अधिनियम की धारा 32 ने किसी विशेष मामले में न्यायालय के समक्ष ऐसे व्यक्ति को उपस्थित होने की भी स्वीकृति देने की शक्ति न्यायालय को दी है जो इस अधिनियम के अन्तर्गत अधिवक्ता के रूप में नामांकित न हो। इस अधिनियम की धारा 32 में यह कहा गया है कि अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के अध्याय 4 में किसी बात के होते हुए भी कोई न्यायालय, प्राधिकरण या व्यक्ति अपने समक्ष किसी विशिष्ट मामले में किसी व्यक्ति को जो इस अधिनियम के अधीन अधिवक्ता के रूप में नामांकित नहीं है, उपसंजात होने की अनुज्ञा दे सकेगा।

       यह उल्लेखनीय है कि विधि व्यवसाय करने का अधिकार कोई आत्यन्तिक अधिकार नहीं है क्योंकि न्यायालय किसी खास मामले में किसी ऐसे व्यक्ति को भी उपस्थित होने को स्वीकृति दे सकता है जो किसी भी राज्य की अधिवक्ता सूची में नामांकित नहीं है तथा अवचार आदि के आधार पर किसी अधिवक्ता को प्रैक्टिस करने से वंचित किया जा सकता है।

       बार कौंसिल ऑफ इण्डिया बनाम हाईकोर्ट ऑफ केरल, ए० आई० आर० 2004 एस० सी० 2227 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि प्रैक्टिस करने का अधिवक्ता का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है। यह सांविधिक अधिकार है जिसे अधिवक्ता अधिनियम, 1961 ने प्रदान किया है और इसके परिणामस्वरूप अधिवक्ता अधिनियम में विहित शर्तें अधिवक्ताओं के सम्बन्ध में लागू होती हैं। धारा 34 (1) स्पष्ट रूप से उपबन्ध करती है कि उच्च न्यायालय नियम बना सकता है जिसके अधीन अधिवक्ता को उच्च न्यायालय और इसके अधीनस्थ न्यायालयों में प्रैक्टिस करने की अनुमति प्रदान की जा सकेगी।

         पी० सी० जोस बनाम नन्द कुमार, ए० आई० आर० 1997 केरल 243 के बाद में न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया कि अधिवक्ता अधिनियम की धाराएँ 23, 29 एवं 33 के अनुसार न्यायालय कक्ष में विधिज्ञ सदस्य को कतिपय विशेषाधिकार न्यायालय का ऑफीसर होने के नाते प्राप्त हैं। कोई भी वादी जो बगैर अधिवक्ता की मदद के अपना वाद स्वयं संचालित कर रहा हो, केवल इस आधार पर न्यायालय में बैठने के अधिकार का दावा नहीं कर सकता है कि संविधान ने सबको समानता का अधिकार दिया है। न्यायालय के मत में यह महत्व नहीं रखता कि अधिवक्ता को न्यायालय कक्ष में बैठने के सम्बन्ध में प्राथमिकता देने के निमित्त कोई सांविधानिक उपबन्ध नहीं है।

        बलराज सिंह मलिक बनाम सुप्रीम कोर्ट ऑफ इण्डिया, ए० आई० आर० (2012) दिल्ली 79 के बाद में दिल्ली उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया है कि कौन व्यक्ति उच्चतम न्यायालय के समक्ष कार्य कर सकता है और अभिवचन कर सकता है, इस सम्बन्ध में उच्चतम न्यायालय को नियम बनाने की शक्ति प्राप्त है। इस प्रकार उच्चतम न्यायालय अपने समक्ष कार्य करने के अधिकार के सम्बन्ध में ही नहीं बल्कि अभिवचन करने के सम्बन्ध में भी नियम बना सकता है। उच्चतम न्यायालय द्वारा बनाया गया नियम कि जो अधिवक्ता इसके द्वारा विहित शर्तों को पूरा करेंगे वे ही उच्चतम न्यायालय के समक्ष कार्य करने के हकदार होंगे अधवा अभिवचन के हकदार होंगे और इस प्रकार की शर्तों को पूरा करने वाले अधिवक्ताओं को ‘एडवोकेट ऑन रिकार्ड’ नाम देने को संविधान के अनुच्छेद 14 के उल्लंघन में नहीं माना गया। न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया कि ऐसा नियम बनाना उच्चतम न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में है और इसे विभेदकारी (discriminatory) नहीं माना जा सकता और इस प्रकार संविधान के अनुच्छेद 14 के उल्लंघन में नहीं ठहराया जा सकता।

        अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 49 (1) (क-ज) भारतीय विधिज्ञ परिषद् को यह शक्ति प्रदान करती है कि वह उन शर्तों से सम्बन्धित नियम बना सकती है जिनके अधीन रहते हुए किसी अधिवक्ता को विधि-व्यवसाय करने का अधिकार होगा और वे परिस्थितियाँ जिनमें किसी व्यक्ति के बारे में यह समझा जायेगा कि वह किसी न्यायालय में विधि-व्यवसाय करता है। इस शक्ति के प्रयोग में भारतीय विधिज्ञ परिषद् ने कुछ नियम बनाये हैं, जो इस प्रकार हैं-

(i) यह प्रत्येक अधिवक्ता का कर्तव्य है कि वह यह सुनिश्चित करे कि उसका नाम राज्य विधिज्ञ परिषद् की नामावली में विद्यमान है।

(ii) कोई भी अधिवक्ता किसी भी ऐसे व्यक्ति अथवा विधि-व्यवसायी जो कि अधिवक्ता न हो, के साथ पारिश्रमिक में हिस्सेदारी के निमित्त समझौता अथवा भागीदारी नहीं करेगा।

(iii) प्रत्येक अधिवक्ता को यह चाहिए कि वह विधिज्ञ परिषद् को हमेशा उसका नाम जिस नामावली में है, उसके बारे में तथा अपने पते के परिवर्तन के बारे में संसूचित करता रहे।

(iv) भारतीय विधिज्ञ परिषद् या राज्य विधिज्ञ परिषद् किसी भी अधिवक्ता से उस ( – राज्य विधिज्ञ परिषद् का नाम पूछ सकता है जिसकी नामावली पर उसका नाम विद्यमान है तथा अन्य जानकारियाँ भी प्राप्त करने का हकदार है।

(v) यदि कोई अधिवक्ता अपने विधि-व्यवसाय को स्वेच्छा से स्थगित करना चाहता है तो उससे यह अपेक्षित है कि वह इसकी जानकारी राज्य विधिज्ञ परिषद् जिसकी नामावली में उसका नाम दर्ज है, को पंजीकृत डाक द्वारा संसूचित कर देगा तथा इसके साथ ही अपने नामांकन का प्रमाणपत्र भी भेज देगा। जब कभी भी कोई अधिवक्ता जो अपने व्यवसाय को स्थगित कर चुका है, अपने व्यवसाय को पुनः आरम्भ करना चाहता है तो उसे अपने इस आशय के निमित्त राज्य विधिज्ञ परिषद् के सचिव को आवेदन करना चाहिए तथा उसे यह शपथ-पत्र भी देना पड़ेगा कि उसने अपने व्यवसाय के स्थगन के दौरान कोई ऐसा प्रतिबन्ध ग्रहण नहीं किया जिसका अधिवक्ता अधिनियम के अध्याय III की धारा 24-क में उल्लेख है।

 

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