प्रश्न 12. (i) मोटर यान अधिनियम, 1988 के अन्तर्गत बिना त्रुटि के प्रतिकर देने के दायित्व की विवेचना कीजिए। Discuss the liability of giving compensation without fault under Motor Vehicles Act, 1988.
(II) निम्न पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें –
(i) मोटर यानों का पर व्यक्ति जोखिम बीमा
(ii) बीमा प्रमाणपत्र का प्रभाव
(iii) टक्कर मार कर भागने सम्बन्धी मोटर दुर्घटनाओं में प्रतिकर सम्बन्धी विशेष उपबन्ध।
Write short notes on the following –
(1) Other person risk insurance.
(ii) Effect of insurance certificate.
(iii) Special provisions for compensation in hit and run accident.
उत्तर (i)- बिना त्रुटि के प्रतिकर देने का दायित्व (Liability without fault and its applicability under MV Act, 1988)–मोटर यान अधिनियम की धारा 140 कतिपय मामलों में त्रुटि के बिना दायित्व” के एक नये दायित्व का सृजन करती है। भारत के उच्चतम न्यायालय, अनेक उच्च न्यायालयों तथा विधि आयोग ने त्रुटि के बिना दायित्व के सिद्धान्त को मोटर यान अधिनियम में समाविष्ट करने की सिफारिश की थी। धारा 140 यह उपबन्धित करती है कि यदि मोटर यानों के प्रयोग में हुई दुर्घटना के परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो यान के स्वामी को 25,000 रुपये की नियत राशि प्रतिकर के रूप में देना होगा और यदि किसी व्यक्ति को कोई स्थायी निःशक्तता हो जाती है तो उस ऐसे व्यक्ति को 12,000 रुपये की नियत रकम प्रतिकर के रूप में देना होगा। इस धारा के अधीन प्रतिकर के लिए किसी दावे में दावेदार को यह साबित करना जरूरी नहीं है कि दुर्घटना यान के स्वामी या चालक की ओर से किसी दोषपूर्ण कृत्य, उपेक्षा या व्यतिक्रम के कारण हुई थी।
रामधनी गुप्ता बनाम मोहम्मद इब्राहिम, (1985) ए० सी० जे० 476 इलाहाबाद के बाद में अभिनिर्धारित किया गया है कि धारा 140 के अधीन सृजित दायित्व भविष्यलक्षी है। यह धारा अधिनियम के लागू होने के दिन के पूर्व घटी दुर्घटनाओं के मामले पर लागू नहीं होती है। चूंकि धारा 140 के अधीन दायित्व त्रुटि के बिना है। अतः यदि किसी दुर्घटना में दो या दो से अधिक मोटर वाहन शामिल हैं तो सभी वाहनों के स्वामियों और उनके बीमाकर्ताओं का पृथक् एवं संयुक्त दायित्व होता है। दायित्व केवल दोषी वाहनों का ही नहीं होता है। त्रुटि के बिना दायित्व के आधार पर दी गई प्रतिकर की राशि त्रुटि के आधार पर दी जाने वालो राशि में से घटा दी जायेगी।
ए० कौशनुमा बेगम बनाम न्यू इण्डिया इन्स्योरेन्स कम्पनी लिमिटेड, ए० आई० आर० (2001) एस० सी० 485 के मामले में अपीलार्थी हाजी मोहम्मद हनीफ की पत्नी और बच्चों ने 1986 में दावा अधिकरण में, जीप के स्वामी के विरुद्ध जिसकी टक्कर से अपीलार्थी की मृत्यु हो गई थी 2,36,000 रुपये प्रतिकर के लिए पिटीशन फाइल किया। दुर्घटना जीप के अगले टायर के फटने के कारण हुई थी। अपीलार्थी सड़क पर जा रहा था उसी समय टायर के फट जाने से जीप उलट गई और अपीलार्थी को टक्कर मार दिया जिससे उसे गम्भीर चोटें पहुँचीं और बाद में उसकी मृत्यु हो गई। दावा अभिकरण ने उसका प्रतिकर के लिए दावा खारिज कर दिया। इसके विरुद्ध उसने उच्चतम न्यायालय में अपील फाइल की। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि यद्यपि जीप का चालक उपेक्षावान नहीं था जिससे यात्री की मृत्यु हो गयी थी किन्तु अभिकरण के समक्ष प्रतिकर के लिए उसका दावा वाद योग्य था और जीप का स्वामी राइलैण्ड्स बनाम फ्लैचर के मामले में प्रतिपादित कठोर दायित्व के सिद्धान्त के आधार पर नुकसानी देने के लिए प्रतिनिधायी रूप से दायी था।
न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि मोटर वाहन अधिनियम की धारा 140 के अधीन उपबन्धित बिना ” त्रुटि के दायित्व” कठोर दायित्व के नियम से भिन्न है। पहले में प्रतिकर की रकम निश्चित रहती है और उसका भुगतान किया जाना आवश्यक है भले ही नियम का कोई अपवाद लागू होता हो। यह कानूनी दायित्व है जिसके बिना दावा करने वाला व्यक्ति कोई प्रतिकर नहीं पा सकता है। मोटर वाहन के प्रयोग से उत्पन्न दुर्घटनाओं के मामले में प्रतिकर का दावा अपकृत्य विधि के अन्तर्गत किया जा सकता है और यह भी बिना किसी अधिनियम की सहायता के मोटर यान अधिनियम यह अनुमति देता है कि बिना त्रुटि के दायित्व’ के नियम के अधीन प्राप्त प्रतिकर अधिकरण द्वारा प्रदान की गई अन्तिम रकम में से घटाया जा सकता है। अतः मोटर वाहन अधिनियम की धारा 140 मोटर वाहन के प्रयोग से घटी दुर्घटना से पीड़ित व्यक्ति अधिकरण से प्रतिकर प्राप्त कर सकता है जब तक कि अपवादों में से एक लागू न होता हो।
(ii) मोटर यानों का पर व्यक्ति जोखिम बीमा– मोटर यान अधिनियम, 1988 के अनुसार पर व्यक्ति जोखिम बीमा कराना अनिवार्य है। प्रत्येक यान के स्वामी के लिए पर व्यक्ति जोखिम बीमा कराना अनिवार्य है। धारा 146 यह उपबन्धित करती है कि कोई भी व्यक्ति सार्वजनिक स्थान में मोटर यान का उपयोग यात्री से भिन्न रूप में तभी करेगा या किसी अन्य से करायेगा या उसे करने देगा जब तक कि उस व्यक्ति या उस अन्य व्यक्ति द्वारा उस यान के उपयोग के सम्बन्ध में ऐसी बीमा पालिसी प्रवृत्त है जो इस अध्याय के अनुपालन में है, अन्यथा नहीं।
अधिनियम की धारा 146 और अध्याय 11 की अन्य धाराओं का उद्देश्य पर व्यक्ति के हित की रखा करना है जो किसी यान के प्रयोग से क्षतिग्रस्त होता है। यदि यान का पर व्यक्ति जोखिम बीमा है तो वह बीमा कम्पनी से प्रतिकर प्राप्त कर सकता है और इस नुकसानी के लिए उसे यान के स्वामी या चालक की वित्तीय स्थिति पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है। एशियाटिक इन्स्योरेन्स कम्पनी लिमिटेड बनाम धन्नामल अश्वनी, ए० आई० आर० 1964 एस० सी० 1735
(iii) बीमा प्रमाणपत्र का प्रभाव – अधिनियम की धारा 156 के अनुसार जब बीमाकर्ता ने ऐसी बीमा संविदा के बारे में, जो बीमाकर्ता और बीमाकृत व्यक्ति के बीच है, बीमा प्रमाणपत्र दे दिया है, तब उसका निम्न प्रभाव होता है –
(1) यदि और जब तक प्रमाणपत्र में वर्णित पालिसी, बीमाकर्ता द्वारा बीमाकृत को नहीं दी गई है तो और तब तक बीमाकर्ता की बाबत यहाँ तक बीमाकर्ता और बीमाकृत से भिन्न किसी व्यक्ति के बीच की बात है, यह समझा जायेगा कि उसने बीमाकृत व्यक्ति को बीमा पालसी दे दी है जो सभी प्रकार से ऐसे प्रमाणपत्र में दिये हुए वर्णन और विशिष्टियों के अनुरूप हैं; और
(2) यदि बीमाकर्ता ने प्रमाणपत्र में वर्णित पालिसी बीमाकृत को दे दी है किन्तु पालिसी के वास्तविक निबन्धन पालिसी की उप विशिष्टियों से, जो प्रमाणपत्र में उल्लिखित हैं, उन व्यक्तियों के लिए कम अनुकूल हैं जो पालिसी के अधीन या आधार पर बीमाकर्ता के विरुद्ध दावा या तो प्रत्यक्ष रूप से या बीमा के माध्यम से करते हैं, तो जहाँ तक बीमाकर्ता से भिन्न किसी व्यक्ति के बीच की बात है, पालिसी की बाबत यह समझा जायेगा कि वह सभी प्रकार से उन विशिष्टियों के अनुरूप है जो उक्त प्रमाणपत्र में उल्लिखित है।
(iv) टक्कर मारकर भागने सम्बन्धी मोटर दुर्घटनाओं में प्रतिकर सम्बन्धी विशेष उपबन्ध (Special provisions for compensation in hit and run accident) अधिनियम की धारा 161, 162 और 163 में टक्कर मारकर भागने सम्बन्धी मोटर दुर्घटनाओं के मामले में प्रतिकर के बारे में विशेष उपबन्ध किया गया है। इस धारा में प्रयुक्त गम्भीर चोट ( grievous hurt) शब्द का वही अर्थ है जो भारतीय दण्ड संहिता में है। टक्कर मार कर भागने सम्बन्धी मोटर दुर्घटनाओं” से ऐसे मोटर यान या मोटर यानों के उपयोग से उद्भूत दुर्घटना से अभिप्रेत है जिनकी पहचान इस प्रयोजन के लिए युक्तियुक्त प्रयत्न करने के बाद अभिनिश्चित नहीं की जा सकती है। धारा 161 के अधीन केन्द्रीय सरकार को टक्कर मार कर भागने सम्बन्धी मोटर दुर्घटना में प्रतिकर के भुगतान के लिए योजना बनाने की शक्ति प्रदान की गई है। इस अधिनियम और स्कीम के उपबन्धों के अधीन रहते हुए ऐसे मामलों में प्रतिकर के रूप में निम्न रकम दी जायेगी –
(क) मृत्यु के मामले में 2,00,000 रुपये की नियत राशि:
(ख) गम्भीर चोट के मामले में पचास हजार रुपये की नियत राशि या कोई उच्चतर राशि जैसा केन्द्रीय सरकार द्वारा विहित किया जाए।
उक्त प्रतिकर के लिए आवेदन धारा 166 के उपबन्धों के अनुसार दिये जायेंगे।
प्रश्न 13. ‘मानसिक आघात’ दायित्व से सम्बन्धित नियमों का संगत वादों की सहायता से वर्णन कीजिए।
Explain the rule relating the liability of “Nervous Shock” cases with the help of relevant cases.
उत्तर – विधि की इस शाखा का उद्भव अभी बहुत दीर्घकालीन नहीं है। इसके अन्तर्गत किसी व्यक्ति को तब उपचार प्रदान होता है जब वह शारीरिक रूप से क्षतिग्रस्त नहीं होता, वरन केवल तन्त्रिकाघात से क्षतिग्रस्त होता है जो उस व्यक्ति को किसी चीज को सुनने अथवा देखने से होता है। उदाहरण के लिए विल्किन्सन बनाम डाउटन, (1897) एल० आर० 2 क्यू० बी० 57 नामक बाद में वादिनी को मजाक में ही कहा गया कि उसके पति की एक दुर्घटना में दोनों टाँगें टूट गई हैं। इसके फलस्वरूप वादिनी उस समाचार को सुनकर तन्त्रिकाघात के कारण गम्भीरतम रूप से बीमार हो गई थी।
अर्थात् तन्त्रिकाघात, भौतिक या शारीरिक घात से अधिक खतरनाक या घातक होता है। तन्त्रिकाघात यद्यपि अदृश्य होता है परन्तु इसकी चोट इतनी घातक होती है कि इससे मृत्यु भी हो सकती है।
सन् 1888 ई० से लेकर 1897 ई० तक इंग्लैण्ड में भी तन्त्रिकाघात (या मानसिक आघात) को क्षति का कारक नहीं माना जाता था। अपकृत्य के वाद में सफल होने के लिए यह साबित करना होता था कि क्षति या चोट छड़ी, थप्पड़, गोली या तलवार जैसे भौतिक माध्यमों से लगी हो।
विक्टोरियन रेलवे कमिश्नर बनाम कोल्टा (1998) एल० आर० 13 ए० सी० 322 नामक वाद में भी प्रीवी काउन्सिल ने कहा कि प्रत्येक आघात (चोट) के बिना कान से सुनने या आँख से देखने से लगे आघात या जिसे तंत्रिकाघात कहते हैं, इस प्रकार की चोटों को मान्यता नहीं दी। प्रिवी काउन्सिल के अनुसार जब तक भौतिक या दृश्य एवं बाह्य आघात से चोट नहीं लगती, चोट के लिए लाया गया वाद सफल नहीं होना चाहिए।
डुलियु बनाम ह्वाइट एण्ड सन्स, (1901) के० बी० 669 नामक वाद में न्यायाधिपति कैनेडी ने यद्यपि तंत्रिकाघात की कार्यवाही को मान्यता तो दी थी परन्तु उन्होंने इस पर कठोर शर्त भी लागू की, जब उन्होंने यह कहा कि ऐसी किसी कार्यवाही के लिए आघात को ऐसा होना चाहिए जो स्वयं अपनी ही तात्कालिक दैहिक क्षति के युक्तियुक्त भय से उत्पन्न हुआ हो। इसका मतलब यह हुआ कि यदि ‘क’ की उपेक्षा से ‘अ’ के लिए खतरा उत्पन्न हो जाता है तो ‘अ’ कार्यवाही कर सकता है यदि वह तंत्रिकाघात से पीड़ित होता है। परन्तु यदि दूसरी तरफ ‘अ’ के खतरे को देख कर अथवा सुनकर एक दूसरा व्यक्ति जैसे ‘ब’ तंत्रिका से क्षतिग्रस्त होता है तो ‘व’ इस आघात के लिए ‘क’ के विरुद्ध कार्यवाही नहीं कर सकता। यह निर्णय न्यायोचित नहीं प्रतीत होता।
हैमबुक बनाम स्टोक्स ब्रदर्स, (1925) 1 के० बी० 141 का वाद ऐसी कार्यवाही को मान्यता प्रदान करता है जिसमें ‘अ’ के प्रति उत्पन्न शारीरिक खतरा ‘ब’ को तंत्रिकाघात से क्षतिग्रस्त करता है। इस वाद में एक संकरी गली में जैसे ही एक महिला अपने बच्चों को छोड़ गई उसने देखा कि एक लारी अत्यधिक तीव्रता के साथ उस ढलुई और सँकरी गली की ओर दौड़ती चली जा रही है। महिला अपने बच्चों की संरक्षा के निमित्त भयभीत हो गई। एक अन्य देखने वाले व्यक्ति ने उस महिला से बताया कि उस महिला के लड़के जैसा एक लड़का क्षतिग्रस्त हो गया है, वह महिला तंत्रिकाघात से पीड़ित हुई और अन्ततः उसकी मृत्यु हो गई। प्रतिवादी के विरुद्ध की गई कार्यवाही में जिसने लापरवाही के साथ उस लारी को चालक के बगैर छोड़ रखा था, उसे उत्तरदायी ठहराया गया, यद्यपि कि वह महिला, जो तंत्रिकापात से पीड़ित हुई थी, स्वयं लारी से उत्पन्न खतरे की परिधि में नहीं थी। इस प्रकार दुलियु बनाम ह्वाइट में दिये निर्णय को न्यायाधीश लाई एटकिन ने अस्वीकार कर दिया।
अतः अब यह आवश्यक नहीं है कि तंत्रिकाघात की कार्यवाही को सफल बनाने के लिए बादी स्वयं शारीरिक आघात की परिधि के भीतर हो, तथापि यह आवश्यक है कि वादी किसी ऐसे स्थान पर उपस्थित रहा हो जहाँ पर तंत्रिकामात के माध्यम से क्षति के कारित होने की कल्पना की जा सकती हो।
जहाँ प्रतिवादी वादी के प्रति सावधानी रखने का कोई कर्तव्य धारण नहीं करता और इस प्रकार वादी को हुई किसी भी क्षति के लिए उसे उत्तरदायी नहीं बनाया जा सकता।
बौरहिल बनाम यंग, (1943) ए० सी० 92 के बाद में वादी, जो एक मछली बेचने वाली महिला थी, जब एक ट्राम कार से उतर रही थी, उसने एक दुर्घटना घटित होने जैसी आवाज सुनी परन्तु वह स्वयं उसको देख न सकी थी, क्योंकि वह उस घटनास्थल से 50 फीट दूर थी और दृष्टिपथ में ट्राम कार बाधा बन रही थी। उस दुर्घटना में एक असावधान मोटर साइकिल चालक कालग्रस्त हो गया था तथा इस मोटर साइकिल चालक के मृत शरीर को जब हटा दिया गया तब वह महिला दुर्घटना स्थल पर गई और उसने सड़क पर मृतक के रक्त को देखा। उसके परिणामस्वरूप उसे तंत्रिकाघात हुआ और एक महीने बाद उसने एक मृत शिशु को जन्म दिया।
उसने मोटर साइकिल चालक के निजी प्रतिनिधियों के विरुद्ध वाद संस्थित किया। हाउस ऑफ लाईस ने यह निर्णय दिया कि मृतक से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती थी कि वह वादी के प्रति किसी प्रकार की क्षति का पूर्वानुमान कर सकता था और इस प्रकार वह वादी के प्रति सावधानी बरतने का कोई भी कर्तव्य धारण नहीं कर सकता था। अतः मोटर साइकिल चालक के प्रतिनिधियों को किसी प्रकार से उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सका।
किंग बनाम फिलिप्स, (1953) 1 क्यू० बी० 929 नामक वाद में प्रतिवादी के सेवक ने उपेक्षा के साथ टैक्सी बिना देखे पीछे की, टैक्सी के पीछे एक बालक तीन पहिये की साइकिल चला रहा था। बालक की साइकिल चपेट में आ गई। बालक की माँ उस स्थान से 70-80 गज की दूरी पर ऊपर की एक खिड़की के पास खड़ी थी और उसने केवल यह देखा कि बच्चे की साइकिल टैक्सी के नीचे आ गई है। उसे बालक की चिल्लाहट भी सुनाई पड़ी परन्तु वह बालक को न देख सकी। बालक और उसकी साइकिल को अत्यन्त हल्की क्षति कारित हुई थी, परन्तु माँ तंत्रिकाघात से क्षतिग्रस्त हो गई। यह धारित किया गया कि माँ क्षति की युक्तियुक्त आशंका की परिधि से पूर्ण बाहर थी अतः उसे क्षति के लिए प्रतिवादी उत्तरदायी नहीं ठहराये गये न्यायाधिपति सिंगलटन के अनुसार, ‘चालक बालक के प्रति कर्तव्य धारण करता था, परन्तु वह उसकी माँ के सम्बन्ध में कुछ नहीं जानता था क्योंकि वह राजमार्ग पर नहीं थीं तथा ड्राइवर को यह नहीं जात हो सकता था कि वह खिड़की के पास खड़ी होगी और न ही वहाँ ऐसा कोई कारण ही उपस्थित था कि वह इस बात का अनुमान करता कि वह उसकी टैक्सी को देखेगी।
इस मामले के तम्य हैम्बुक बनाम स्टोक्स ब्रदर्स के तथ्यों से काफी कुछ मिलते-जुलते जिसमें नुकसान पाने में सफल हो गई थी यद्यपि उसे भी अपने बच्चों की रक्षा के भय से तंत्रिका कारित हुआ था। अतः तंत्रिका को किसी कार्यवाही के प्रयोजन के लिए यह आवश्यक नहीं है कि कोई व्यक्ति स्वयं अपनी ही शारीरिक क्षति के घेरे में होना हो पर्याप्त है कि वह इस प्रकार अवस्थित है कि यदि वह कुछ देखता या सुनता है तो उसे आघात लग सकता था। अत: किंग बनाम फिलिप्स के मामले में निर्णय को काफी आलोचना हुई और पुनर्विचार को भी माँग की गई।
प्रश्न 14 (अ) उपेक्षा के अपकृत्य के आवश्यक तत्व क्या है? उपेक्षा के अपकृत्य के विद्वेष की महत्ता स्पष्ट करें।
What are the elements of negligence? Explain the importance of Malice in Tort of negligence.
अथवा (or)
“बाद योग्य असावधानी का मामला तब तक उत्पन्न नहीं होगा जब तक सावधानी बरतने के लिए कर्त्तव्य का भंग न किया जाए। ‘व्याख्या कीजिए। निर्णीत वादों का भी उल्लेख कीजिए।
“No call of actionable negligence will arise unless there is a breach of duty to take care, “Explain. Refer to decided cases also.
(ब) योगदायी उपेक्षा में दायित्व से सम्बन्धित विभिन्न सिद्धान्तों का वर्णन करें।
Describe various theories in relation to liability under contributory negligence.
अथवा (or)
अंशदायी असावधानी के सिद्धान्त की पूर्णरूपेण विवेचना कीजिए। Discuss fully the doctrine of contributory negligence.
उत्तर (A) – उपेक्षा (Negligence) – सामान्य परिभाषा के अनुसार वहाँ जहाँ सावधानी बरतने का कर्तव्य है, युक्तियुक्त सावधानी का अभाव ही उपेक्षा के अपकृत्य का गठन करता है। प्रमुख विधिशास्त्रियों ने उपेक्षा की निम्न परिभाषा दी है ” उपेक्षा में सावधानी बरतने के विधिक कर्तव्य का उल्लंघन किया जाता है ऐसे मामलों में जहाँ सावधानी बरतना विधि द्वारा अपेक्षित होता है। “ – सामण्ड
“उपेक्षा एक अपकृत्य के रूप में सावधानी बरतने के विधिक कर्तव्य का उल्लंघन है जिसके परिणामस्वरूप प्रतिवादी के न चाहने पर भी वादी को क्षति पहुँचती है।” – विनफील्ड
कार्यवाही योग्य उपेक्षा किसी ऐसे व्यक्ति के प्रति सामान्य सावधानी अथवा कौशल के प्रयोग में उपेक्षा का बरतना है जिसके प्रति प्रतिवादी सावधानी और कौशल के आचरण का कर्तव्य धारण करता है और जिस उपेक्षा के परिणामस्वरूप वादी को अपने शरीर अथवा सम्पत्ति की क्षति भोगनी पड़ी है। हेवेन बनाम पेण्डर [ (1883) 11 क्वीन बेंच डिवीजन 503.] उपरोक्त परिभाषाओं के विश्लेशण से उपेक्षा के निम्न तत्व परिलक्षित होते हैं। इस प्रकार उपेक्षा के अपकृत्य को साबित करने हेतु निम्न तत्व साबित करने होते हैं –
(1) प्रतिवादी का वादी के प्रति सावधानी बरतने का विधिक कर्तव्य था,
(2) प्रतिवादी ने इस विधिक कर्तव्य का उल्लंघन किया था,
(3) प्रतिवादी की इस असावधानी के कारण वादी को क्षति या हानि हुई थी।
(1) वादी के प्रति सावधानी बरतने का विधिक कर्तव्य (Legal duty to take (care) उपेक्षा के अपकृत्य में सफल होने के लिए यह साबित करना पड़ता है कि प्रतिवादी वादी के प्रति सावधानी बरतने के विधिक कर्तव्य के अधीन था तथा प्रतिवादी ने इस कर्तव्य का उल्लंघन किया था। विधिक कर्तव्य कब तथा किन सम्बन्धों के कारण उत्पन्न होते हैं इसके सम्बन्ध में कोई कठोर नियम नहीं है। यह प्रत्येक मामले के तथ्य तथा परिस्थितियों पर निर्भर करता है।
पड़ोसी का सिद्धान्त- डोनोघ बनाम स्टीवेन्सन [ (1932) अपील केसेज 562.] नामक प्रख्यात वाद में लार्ड एटकिन ने कहा कि सामान्य प्रवर्तन की किसी बात का मिलना कितना कठिन है जिसमें यह परिभाषित किया गया हो कि विभिन्न पक्षकारों के बीच कौन से सम्बन्ध ऐसे हैं जो कर्तव्य की विद्यमानता को जन्म देते हैं। न्यायालयों का सम्बन्ध केवल उन्हीं सम्बन्धों से होता है जो उनके समक्ष वास्तविक वाद कारण के रूप में उपस्थित होते हैं तथा इतना पर्याप्त है कि क्या उन परिस्थितियों में कर्तव्य विद्यमान था। लार्ड एटकिन ने इस वाद में यह नियम प्रतिपादित किया, “ऐसे कर्तव्यों अथवा लोपों, चूकों (omissions) से बचने में आप अवश्य ही युक्तियुक्त सावधानी का बर्ताव करें जिनके निमित्त आप यह पूर्वानुमान कर सकते हैं कि वे सम्भाव्यता आपके पड़ोसी को क्षति पहुँचा सकते हैं।” पड़ोसी की परिभाषा देते हुए लाई एटकिंन कहते हैं “पड़ोसी ऐसे व्यक्ति हैं जो मेरे कार्य से इतनी निकटता तथा प्रत्यक्षता के साथ प्रभावित होते हैं कि मैं ऐसा कार्य या लोप करते समय युक्तियुक्ततः यह सोच सकता हूँ कि वे उनसे प्रभावित होंगे।
संक्षेप में कहें तो सावधानी बरतने के विधिक कर्तव्य के अस्तित्व की (विद्यमानता की) प्रमुख कसौटी यह है कि क्या प्रतिवादी यह पूर्वानुमान लगा सकता था कि उसको असावधानी उसके पड़ोसी को क्षति या नुकसान पहुँचा सकती थी। यहाँ पड़ोसी का अर्थ ऐसे व्यक्तियों से लगाया जाना चाहिए जो आपके फर्म से इतनी निकटता तथा प्रत्यक्षता से जुड़े होते हैं कि मैं अपने कार्य या लोप करते समय यह उचित रूप से सोच सकता हूँ कि वे मेरे कार्य या लोप से प्रभावित होंगे।
डोनोघ बनाम स्टीवेन्सन (Donough v. Stevenson ) [ ( 1932) A.C. 562.) नामक बाद में प्रतिवादी की ओर से यह तर्क दिया गया था कि वह वादी के प्रति सावधानी बरतने का विधिक कर्तव्य धारण नहीं करता था। हाउस ऑफ लाईस ने यह निर्णय दिया कि जिंजर वियर का निर्माता वादी के प्रति सावधानी बरतने का विधिक कर्तव्य धारण करता था कि वह देखे कि बोतल में कोई हानिकारक तत्व न मिलने पाये, यदि वह अपने उस कर्तव्य में विफल रहता है तो वह उस क्षति के लिए उत्तरदायी है जो जिजर बियर के पीने से उपभोक्ता को होती है। लाई एटकिन ने कहा “किसी उत्पाद वस्तु का निर्माता जिसे वह उस रूप में बेचता है कि उससे यह प्रदर्शित होता है कि उसका आशय उस उत्पाद को उसी रूप में जिसमें अन्तिम उपभोक्ता के पास भेजना है और उसे इस बात का ज्ञान है कि उस उत्पाद का कहाँ भी बीच में कोई युक्तियुक्त परीक्षण नहीं किया जायेगा और उसे यह भी जान है कि उस वस्तुको तैयार करने में अथवा उस उत्पाद को विक्रय के निमित्त प्रस्त करने में यदि उसकी ओर से युक्तियुक्त सावधानी का बरताव नहीं किया गया तो इसके परिणामस्वरूप उस वस्तु का उपभोक्ता अपने जीवन या सम्पत्ति की हानि उठा सकता है तो ऐसे उपभोक्त के प्रति वह युक्तियुक्त सावधानी बरतने का कर्तव्य रखता है।”
इस वाद में अ अपीलकर्ता ने अपने मित्र के लिए एक जिजर बोतल खरीदी। बोतल का कुछेक भाग एक बोतल में उड़ेला गया; बची हुई बियर जब गिलास में डाली गयी तो उसमें घोघा (snail) पाया गया। शराब पीने के परिणामस्वरूप वह गम्भीर रूप से बीमार पड़ गई। जिजर बीयर की बोतल अपारदर्शी थी। इंग्लैण्ड के सर्वोच्च न्यायालय हाउस ऑफ लाइंस ने प्रतिवादी को उत्तरदायी ठहराया जबकि प्रतिवादी का यह विधिक कर्तव्य था कि वह देखें कि बोतल में जहरीले पदार्थ न पाये जायें। यदि वह इस कर्तव्य का उल्लंघन करता है तो वह उत्तरदायों होगा।
डोनोघ बनाम स्टीवेन्सन में प्रतिवादी का यह तर्क था कि उसका वादी के प्रति कोई कर्तव्य नहीं था परन्तु हाउस ऑफ लाईस ने यह तर्क अमान्य करते हुए कहा कि उपभोक्ता वस्तुओं के निर्माता का यह विधिक कर्तव्य होता है कि वह यह देखे कि उसके द्वारा निर्मित उपभोक्ता सामग्री अन्तिम उपभोक्ता तक हानि रहित अवस्था में पहुंचे क्योंकि यह पूर्वानुमान लगाया जा सकता है कि यदि हानिकारक उपभोक्ता सामग्री उपभोक्ता तक पहुँचती है तो उसके प्रयोग से उपभोक्ता को हानि होगी, खासकर वहाँ जहाँ उपभोक्ता को सामग्री के परीक्षण का उचित अवसर न हो।
(2) प्रतिवादी ने सावधानी बरतने के अपने विधिक कर्तव्य का भंग किया हो (Breach of duty by defendant)– कर्तव्य भंग से तात्पर्य यह है कि प्रतिवादी ने सम्यक् सावधानी का अनलुपालन नहीं किया है। यह मापदण्ड एक विवेकशील व्यक्ति का हैं। यदि प्रतिवादी ने एक विवेकशील व्यक्ति की भाँति सद्भावतया सावधानीपूर्वक कार्य किया है तो उसे असावधान व्यक्ति नहीं माना जायेगा। परन्तु यदि उसका उल्टा है तोवह सावधानी बरतने के कर्तव्य भंग का दोषी होगा।
यदि कोई व्यक्ति विशेष व्यवसाय चला रहा है जहाँ विशेष सावधानी की आवश्यकता है तो ऐसी परिस्थिति में सामान्य सावधानी का मापदण्ड नहीं होगा। इसके लिए विशेष सावधानी बरतनी होगी, अर्थात् किसी विशेष परिस्थिति में कितनी सावधानी बरतनी चाहिए इसकी अवधारणा करते समय न्यायालय को निम्नलिखित पर ध्यान देना होता है-
(a) खतरे की मात्रा, तथा
(b) खतरे के प्रति सावधानी का स्तर ।
जैसे – एक व्यक्ति जो एक भरी बन्दूक लेकर सार्वजनिक स्थान पर चलता है, उससे उस व्यक्ति की अपेक्षा अधिक सावधानी बरतने की अपेक्षा की जाती है जो एक लकड़ी की छड़ी लेकर ऐसे स्थान पर चलता है।
डॉ० लक्ष्मण बालकृष्ण जोशी बनाम डॉ० त्रिम्बक बापू गोडबोले (ए० आई० आर० 1969 सु० को०] 128.) नामक बाद में वादी के पुत्र का पैर टूट गया था प्रतिवादी ने दर्द निवारक औषधि दिये बिना उपचार में अतिशय बल प्रयोग किया उच्चतम न्यायालय ने प्रतिवादी को उपेक्षा के लिए उत्तरदायी माना।
श्रीमती सोनियाबाई रामस्वरूप मौर्य बनाम डॉ० प्रमोद शर्मा, ए० आई० आर० (2012) मध्य प्रदेश 21 के मामले में रोगी को उदर पौड़ा की शिकायत थी। चिकित्सकों ने उसके अपेन्डिक्स की शल्य क्रिया की और तत्पश्चात् उसने चिकित्सालय छोड़ दिया। किन्तु अगले दिन उसकी स्थिति गम्भीर हो गई की उसकी मृत्यु हो गयी। इस आधार पर कि चिकित्सकों द्वारा अपने कर्तव्य पालन में उपेक्षा बरतने की कारण रोगी मृत्यु हो गयी, प्रतिकर हेतु दावा किया गया। विशेषज्ञों का कहना था कि चिकित्सकों द्वारा शल्यक्रिया से पूर्व रोगों का भली प्रकार परीक्षण नहीं किया गया था। रोगी उस समय हेपेटाइटिस रोग से भी पीड़ित था जिसे ध्यान में नहीं लिया गया। विशेषज्ञ दल के एक सदस्य का यह निष्कर्ष था कि रोगी को जब शल्य क्रिया की गयी तब वह पीलिया रोग से ग्रसित था अतः शल्य क्रिया पूर्ण होने के पश्चात् उसकी स्थिति बिगड़ती ही चली गयी। इस प्रकार विशेषज्ञ दल की रिपोर्ट से यह तो स्पष्ट हो गया था कि चिकित्सकों द्वारा किये गये उपचार में उपेक्षा का तत्व विद्यमान था। न्यायालय ने चिकित्सकों को उपेक्षा का दोषी ठहराया।
(3) वादी को प्रतिवादी की उपेक्षा के परिणामस्वरूप क्षति (damage) हुई हो– उपेक्षा के बाद में दायित्व निर्धारण हेतु यह साबित किया जाना आवश्यक है कि प्रतिवादी के उपेक्षात्मक कार्य के परिणामस्वरूप वादी को क्षति कारित हुई थी। यह भी साबित किया जाना आवश्यक है कि वादी को हुई क्षति प्रतिवादी के उपेक्षात्मक या असावधानीपूर्वक किए गए कार्य का प्रत्यक्ष या निकटतम परिणाम है न कि अप्रत्यक्ष या दूरस्थ परिणाम है।
क्षतिपूर्ति का निर्धारण करते समय मुद्रास्फीति को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। जहाँ बाद 15 वर्षों से लम्बित था वहाँ मुद्रा के अवमूल्यन को ध्यान में रखते हुए दावाकर्ता के दावे को मुद्रा के वर्तमान मूल्य के अनुरूप बढ़ाया गया। [बलराम प्रसाद बनाम कुनाल साहा, (2014) 1 एस० सी० सी० 384]
उपेक्षा के मामले में विद्वेष का महत्व – विद्वेष या दुराशय अपकृत्य के मामले में अब प्रमुख कारक नहीं है क्योंकि कोई अवैध कार्य इसलिए वैध नहीं हो जाता कि उसका आशय अच्छा था या उसके करने में दुराशय का अभाव था। इसी प्रकार एक वैध कार्य इसलिए अवैध नहीं हो जाता कि उसे करने के पीछे दुराशय था। इसी प्रकार यदि युक्तियुक्त सावधानी बरतने का कर्तव्य है तथा किसी व्यक्ति ने उस कर्तव्य का भंग युक्तियुक्त सावधानी न बरत कर किया है तो वह उत्तरदायी होगा चाहे उसने यह कर्तव्य भंग सद्भावपूर्वक किया हो या दुर्भावपूर्वक इस प्रकार उपेक्षा के मामले में दुराशय या विद्वेष का कोई महत्व नहीं है।
(B) सहदायी उपेक्षा (Contributory Negligence) या योगदायी उपेक्षा जब वादी स्वयं को सावधानी के अभाव द्वारा उस क्षति में योगदान देता है जो प्रतिवादी की उपेक्षा या अपकृत्य पूर्ण आचरण के कारण होती है तो वादो को योगदायी उपेक्षा का दोषी माना जाता है। योगदायी उपेक्षा या सहदायी उपेक्षा, उपेक्षा के बाद में प्रतिवादी को उपलब्ध एक बचाव है। यदि प्रतिवादी यह साबित करने में सफल हो जाता है कि वादी अपनी सुरक्षा के लिए युक्तियुक्त सावधानी लेने में असफल था तथा वादी की यह सावधानी की कमी उसे हुई क्षति के लिए योगदायी कारक (contributory factor) थी तो वह अपने दायित्व से • सकता है या उसका दायित्व कम हो सकता है।
योगेन्द्र पाल चौधरी बनाम दुर्गादास (1972 सुप्रीम कोर्ट जर्नल 483, दिल्ली) नामक बाद में एक पदयात्री एकाएक सड़क पार करने का प्रयत्न करते समय चलते वाहन से टकरा गया। उसे हुई क्षति के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय ने उसे योगदायी उपेक्षा का दोषी माना।
रूरल ट्रान्सपोर्ट बनाम बेजलुम बीबी (ए० आई० आर० 1980 कलकत्ता 165) नामक बाद में यात्री बस की छत पर यात्रा कर रहे थे कि चालक यह तथ्य भूल गया तथा बस एक बैलगाड़ी को बचाते समय कच्चे रोड पर उतर गई जिससे बस की छत पर बैठे लोग घायल हुए। कलकत्ता उच्च न्यायालय ने यात्रियों को योगदायी उपेक्षा का दोषी पाया। योगदायी उपेक्षा कहाँ तक बचाव है? (How far Contributory Negligence is defence?)
योगदायी उपेक्षा से सम्बन्धित विभिन्न सिद्धान्त– कामन लॉ के अन्तर्गत इंग्लैण्ड में योगदायी उपेक्षा (contributory negligence) एक अच्छा बचाव था। यदि प्रतिवादी वादी की योगदायी उपेक्षा साबित कर देता था तो वादी का दावा असफल हो जाता था। इस प्रकार उपेक्षापूर्ण प्रतिवादी के लिए वादी की उपेक्षा दायित्व मुक्ति का एक साधन बन गयी जब कि ऐसे मामलों में वादी की ओर से सावधानी बरतने के कर्तव्य का भंग नहीं होता था परन्तु वह अपनी सुरक्षा के लिए वांछित सावधानी बरतने में असफल होता था, अतः वादी की तनिक भी असावधानी उसे प्रतिकर से वंचित कर देती थी। भले ही प्रतिवादी ने युक्तियुक्त सावधानी के कर्तव्य का भंग ही क्यों न किया हो।
उपरोक्त नियम या सिद्धान्त से बड़ी कठिनाई हुई तथा इस सिद्धान्त के कारण उपेक्षापूर्ण दायित्व से उपेक्षा का दोषी होने के बावजूद प्रतिवादी बच जाता था क्योंकि वादी ने अपनी उपेक्षा से हुई क्षति में योगदान किया था भले ही प्रतिवादी की उपेक्षा क्षति का मुख्य कारण रही हो। अतः उपरोक्त सिद्धान्त के स्थान पर अन्तिम अवसर (Last opportunity) के नियम का प्रतिपादन किया गया।
अन्तिम अवसर का नियम (Last Opportunity Rule)- इस नियम के अनुसार वादी तथा प्रतिवादी (जब दो व्यक्ति) उपेक्षा के दोषी हों वहाँ यह देखा जायेगा कि दुर्घटना को बचाने का अन्तिम अवसर किस व्यक्ति (वादी या प्रतिवादी) के पास था तथा दुर्घटना में हुई सम्पूर्ण क्षति के लिए वही पक्षकार (व्यक्ति) उत्तरदायी माना जाता था जिसके पास दुर्घटना बचाने (निवारित करने) का अन्तिम अवसर था। इस प्रकार यदि दुर्घटना बचाने का अन्तिम अवसर वादी के पास था तो सम्पूर्ण क्षति के लिए वादी उत्तरदायी होता था तथा यदि प्रतिवादी अन्तिम अवसर पर उपेक्षित था जिसके कारण दुर्घटना हुई तो सम्पूर्ण क्षति के लिए प्रतिवादी उत्तरदायी ठहराया जाता था।
डेविस बनाम मान [ (1872) 10 एम० तथा डब्लयू० 546.] नामक वाद इस नियम पर उपयुक्त उदाहरण है। इस मामले में वादी ने अपने गधे के दोनों अगले पैर बाँध कर सँकरी गली में गधे को छोड़ दिया था, प्रतिवादी अपनी घोड़ा गाड़ी से तेजी से जा रहा था तथा चालक की उपेक्षा के कारण गधे को चोट लगी तथा वह मर गया। यहाँ वादी भी दोषी था क्योंकि उसने अपने गधे के दोनों अगले पैर बाँध कर उसे सँकैरी गली में छोड़ने का उपेक्षापूर्ण कार्य किया था परन्तु चूँकि दुर्घटना को निवारित करने या बचाने का अन्तिम अवसर प्रतिवादी घोड़ागाड़ी के स्वामी के पास था जिसमें वह उपेक्षा का दोषी था परन्तु वादी अपनी उपेक्षा के बावजूद प्रतिवादी से प्रतिकर प्राप्त करने में सपुल रहा क्योंकि दुर्घटना को बचाने का अन्तिम अवसर प्रतिवादी के पास था जिसमें वह उपेक्षा का दोषी था।
इस नियम का समर्थन करते हुए लार्ड पार्कर ने कहा कि यदि अन्तिम अवसर का सिद्धान्त न हो तो एक चालक आम रास्ते पर पड़ी वस्तुओं या मानवों या पशुओं को कुचल कर भी दायित्व से बच सकता है क्योंकि ये वस्तुएँ आम रास्ते पर रखने का दोषी वादी था या कुछ लोग सड़क पर सोने के दोषी थे।
अन्तिम अवसर का सिद्धान्त भी असन्तोषजनक था क्योंकि एक पक्षकार जिसका दोष पहले होता था दोषी होने के बावजूद दायित्व से बच जाता था तथा वह पक्षकार जिसका अन्तिम दोष होता था वह दुर्घटना की समस्त क्षति के लिए अकेले उत्तरदायी होता था।
आनुपातिक समायोजन का सिद्धान्त- सन् 1911 में मेरिटाइम कन्वेंशन अधिनियम पारित किया गया। उसी पर आधारित 1945 में विधि सुधार अधिनियम (Law Reform Act) इंग्लैण्ड में पारित किया गया। इस अधिनियम की धारा 1 के अनुसार जहाँ किसी व्यक्ति को अंशत: अपनी उपेक्षा तथा अंशतः प्रतिवादी की उपेक्षा के कारण क्षति पहुँचती है तो उसके नुकसानी का दावा सिर्फ इस आधार पर ही खारिज नहीं कर दिया जायेगा कि वादी ने भी उपेक्षा बरती थी परन्तु क्षति के लिए प्रतिकर की राशि उसी मात्रा में कम कर दी जायेगी जिस मात्रा में वादी क्षति के लिए उत्तरदायी था। इसे प्रतिकर के आनुपातिक विभाजन या समायोजन का सिद्धान्त (Doctrine of apportionment of damage) कहा गया। इस सिद्धान्त के अनुसार घटना में क्षति के लिए निर्धारित प्रतिकर की सम्पूर्ण धनराशि का वादी तथा प्रतिवादी के दोष या उपेक्षा के अनुपात में समायोजन या विभाजन कर दिया जायेगा तथा वादी की उपेक्षा या दोष के प्रतिशत के अनुपात में धनराशि सम्पूर्ण राशि में से कम कर प्रतिकर वादी को दिया जायेगा। उदाहरण के लिए, यदि प्रतिकर की धनराशि 10,000 रुपये है तथा बादी की उपेक्षा तथा प्रतिवादी के दोष का अनुपात 37 है तो वादी को 3,000 रुपये कम कर सात हजार प्रतिकर दे दिया जायेगा।
प्रश्न 15. “घटना अपनी कहानी स्वयं कहती है” या “स्वयं सूक्ति प्रमाण” – सूत्र की व्याख्या कर इस सूक्ति को निर्णीत वादों की सहायता से समझाइए।
Discuss the maxim “RES IPSA LOQUITOUR”. Explain the maxim with the help of decided cases.
उत्तर– सामान्य नियम के अनुसार उपेक्षा के अपकृत्य में सफल होने के लिए वादी को सफलतापूर्वक यह साबित करना होता है कि प्रतिवादी ने अपने युक्तियुक्त सावधानी बरतने के विधिक कर्तव्य का उल्लंघन किया है। अर्थात् वादी को प्रतिवादी की उपेक्षा साबित करनी होती है। परन्तु कुछ मामले या परिस्थितियाँ ऐसी हो सकती हैं जहाँ प्रतिवादी की उपेक्षा का अनुमान मामले की परिस्थितियों के आधार पर निकाला जा सकता है। मामले के तथ्यों के अवलोकन से यह स्पष्ट अनुमान लगता है कि प्रतिवादी ने वादी के प्रति सावधानी बरतने के अपने विधिक कर्तव्य का उल्लंघन किया है अर्थात् घटना के तथ्य तथा परिस्थितियाँ स्वयं • प्रतिवादी की उपेक्षा की कहानी कहती हैं। दूसरे शब्दों में मामले की परिस्थितियाँ स्वयं इस बात का प्रमाण होती है कि प्रश्नगत माले में प्रतिवादी उपेक्षा का दोषी था। मामले की परिस्थितियों के अवलोकन से कोई भी व्यक्ति इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि प्रतिवादी ने उचित सानी नहीं ली थी। इसी को “स्वयं सूक्ति प्रमाण” या “घटना स्वयं बोलती हैं ” से या “घटना अपनी कंपनी स्वयं कहती है” (Res ipsa loquitur) नामक सूक्ति से प्रकट किया जाता है। इसका अर्थ है ‘दुर्घटना केवल एक बात बताती है कि यदि प्रतिवादी असावधान नहीं होता तो घटना नहीं घटती या दुर्घटना नहीं होती। ऐसे मामलों में वादी को सिर्फ यही साबित करना होता है कि दुर्घटना घटी थी। प्रतिवादी को यह अवसर प्राप्त है कि वह अपनी युक्तियुक्त सावधानी को साबित करे। इस सूक्ति का प्रभाव सिर्फ यही है कि वादी को प्रतिवादी की उपेक्षा साबित नहीं करनी पड़ती। परन्तु प्रतिवादी अपनी युक्तियुक्त सावधानी सावित कर दायित्व से बच सकता है। यहाँ वादी द्वारा प्रतिवादी की उपेक्षा साबित करने के स्थान पर प्रतिवादी को अपनी सावधानी साबित करनी होती है। इस सूक्ति का प्रभाव यह है कि सावधानी साबित करने का भार प्रतिवादी पर चला जाता है तथा वादी को यह लाभ प्राप्त हो जाता है कि वह प्रतिवादी की उपेक्षा साबित करने के भार से मुक्त हो जाता है। यह सूक्ति या नियम विधि का नियम न होकर साक्ष्य का नियम है।
इस बिन्दु पर म्यूनिसिपल कार्पोरेशन, दिल्ली बनाम सुभागवन्ती (ए० आई० आर० 1966 सु०को० 1750.) नामक वाद महत्वपूर्ण है। इस वाद में दिल्ली की चाँदनी चौक में स्थित घंटाघर के गिर जाने के कारण कुछ व्यक्तियों की मृत्यु हो गई। घंटाघर नगर निगम के एकाकी नियन्त्रण में था। उसके रख-रखाव का दायित्व नगर निगम का था। इसकी औसत आयु 40 से 50 वर्ष थी परन्तु जब घंटाघर गिरा तब उसकी उम्र 80 वर्ष थी। इन परिस्थितियों में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि घंटाघर का गिरना अपनी कहानी स्वयं कहता है। इस मामले की परिस्थितियों से एक ही अनुमान निकलता है कि नगर निगम घंटाघर के रख-रखाव के मामले में उपेक्षित था अर्थात् उसने सावधानी बरतने के अपने विधिक कर्तव्य का उल्लंघन किया था। चूँकि प्रतिवादी उपेक्षा के अभाव के तथ्य को साबित नहीं कर पाया अतः प्रतिवादी नगर निगम उत्तरदायी था।
अल्का बनाम भारत संघ (ए० आई० आर० 1993 दिल्ली 267. ) नामक वाद में दिल्ली के शक्ति नगर के आवासियों की जल आपूर्ति हेतु एक जल विद्युत पम्प चलाया गया था। पम्प खुला था तथा विद्युत मोटर चालू थी। इसके पर्यवेक्षण के लिए कोई सहायक नहीं था। अलका एक 6 वर्ष की लड़की वहाँ चली गयी तथा उसे काफी चोट आई। दिल्ली उच्च न्यायालय ने प्रतिवादी को उत्तरदायी ठहराते हुए वादी को 1,50,000 रुपये (डेढ़ लाख रुपये) क्षतिपूर्ति दिलाई।
गंगाराम बनाम कमला बाई (ए० आई० आर० 1979 कर्नाटक 100.) नामक वाद में एक टैक्सी का अगला टायर फट कया जिसके फलस्वरूप टैक्सी उलट गई। टैक्सी के दो यात्री मारे गए। चूँकि टैक्सी कच्चे मार्ग पर 20 फीट तक घसीटती गई थी। जिसके चिन्ह कच्चे मार्ग पर थे जिससे यह स्पष्ट होता था कि टैक्सी की गति आवश्यकता से अधिक तेज थी। यह निर्णय दिया गया कि घटना की परिस्थितियों के अवलोकन से सिर्फ दो अनुमान निकलता था, प्रथम यह कि जीप का टायर पुराना था तथा दूसरा यह कि टैक्सी अत्यधिक तीव्र गति से चलायी जा रही थी। अतः इस मामले में स्वयं सूक्ति प्रमाण (Res Ipsa loquitur) का नियम लागू होगा तथा प्रतिवादी चूँकि असावधानी या उपेक्षा की उपधारणा का खण्डन करने में सफल नहीं थे अतः प्रतिवादी उत्तरदायी थे।
श्याम सुन्दर बनाम राजस्थान राज्य (ए० आई० आर० 1974 सु० को० 890.) नामक बाद में राजस्थान सरकार की एक ट्रक एक दिन सिर्फ चार मील ही चली थी कि उसके इंजन में आग लग गई। ट्रक में सवार एक व्यक्ति नवनीत लाल कूद गया तथा एक पत्थर से टकरा जाने के कारण मर गया। यह पाया गया कि एक दिन ट्रक नौ घंटे में सिर्फ 70 मील ही चली थी तथा चूँकि रेडियेटर बार-बार गरम हो जाता था अतः प्रत्येक 6 या 7 मील पर उसमें पानी डालना पड़ता था। यह निर्णय दिया गया कि चूँकि सामान्य परिस्थितियों में सामान्य इंजन इस प्रकार आग नहीं पकड़ता तथा सामान्य ट्रक का रेडियेटर इस प्रकार शीघ्र गरम नहीं होता अतः वादी की परिस्थितियों से सिर्फ एक ही अनुमान निकलता था कि चालक ऐसे ट्रक को चलाने में उपेक्षा का दोषी था, चूँकि चालक दुर्घटना का कारण स्पष्ट नहीं कर सका जो सिर्फ उसकी जानकारी में था अतः प्रतिवादी उत्तरदायी थे।
पिलूतला सावित्री बनाम गोजीनेमी कमलेन्द्र कुमार, ए० आई० आर० 2000 आन्ध्र प्रदेश 467 के बाद में अधिवक्ता के मकान के ऊपर प्रथम तल का एक भाग अचानक गिर पड़ा और अधिवक्ता की मृत्यु हो गई। प्रतिवादी का मकान त्रुटिपूर्ण था। अतः आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा कि “घटना स्वयं प्रमाण” का सिद्धान्त लागू होगा अतः प्रतिवादीगण •प्रतिकर देने के लिए दायी हैं।
उपेक्षा की उपधारणा का खण्डन (Rebuttal of the presumption of negligence) –”स्वयं सूक्ति प्रमाण ” या “घटना स्वयं बोलती है” यह नियम सिर्फ उपेक्षा या सावधानी साबित करने के भार को वादी से प्रतिवादी पर परिवर्तित कर देती है। ऐसे मामलों में वाद की परिस्थितियों में प्रतिवादी की उपेक्षा की उपधारणा (अनुमान) की जाती है तथा प्रतिवादी पर यह भार डालती है कि प्रतिवादी इस उपधारणा का खण्डन करे। यदि प्रतिवादी सफलता द्वारा साक्ष्य के माध्यम से यह साबित करने में सफल हो जाता है कि वह उपेक्षा का दोषी नहीं था अर्थात् उसने मामले में अपेक्षित सावधानी बरती थी तो उक्त उपधारणा या अनुमान खण्डित हो जाता है। यदि प्रतिवादी यह साबित कर देता है कि दुर्घटना ऐसे कारणों से हुई जिसका निवारण करना उसके नियन्त्रण के बाहर था तो वह अपने दायित्वों से बच सकता है।
नागमती बनाम मद्रास निगम (ए० आई० आर० 1956 मद्रास 59.) एक फुटपाथ पर लोहे के खम्बे का रोशनदान गिर जाने के कारण एक व्यक्ति को चोट लगी तथा वह मर गया। रोशनदार गिरने के कारण अज्ञात थे। निगम के विरुद्ध उपेक्षा की उपधारणा (अनुमान) की गई। परन्तु निगम ने यह लोहे का स्तम्भ सिर्फ 30 वर्ष पूर्व लगाया गया था जबकि इसकी आयु 50 वर्ष थी। इस स्तम्भ को तीन फुट गहरे गड्ढे में लोहे के साकेट के अन्दर सीमेन्ट से जोड़ा गया था। इस प्रकार निगम ने अपनी ओर से उपेक्षा के अनुमान या उपधारणा का खण्डन कर दिया। अत: नगर निगम उत्तरदायी नहीं था।
सूक्ति तब लागू नहीं होती जब अन्य अनुमान या उपधारणा सम्भव हो – यह सूक्ति तभी लागू होती है जब मामले की परिस्थितियां ऐसी हों जिनमें दुर्घटना सिर्फ प्रतिवादी की उपेक्षा के कारण घटित हो सकती थी।
जहाँ दुर्घटना के दो स्पष्ट कारण हैं वहाँ यह सूक्ति लागू नहीं होती बाल्केली बनाम लन्दन एण्ड साउथ वेस्टर्न रेलवे कं० ((1886) 12 A.C. 41.] नामक वाद में एक व्यक्ति का शव प्रतिवादी की रेल लाइन पर पड़ा था। इस वाद में रेल चालक ने कोई सीटी नहीं बजाई थी। यह निर्णय दिया गया कि इस वाद की परिस्थितियों से दो निकलते हैं (1) उस व्यक्ति की पहले हत्या कर रेल लाइन पर शव को फेंक दिया गया होगा या रेल से व्यक्ति की मृत्यु हुई होगी। यह सूक्ति तभी लागू होती है जब उपेक्षा स्पष्ट तथा असंदिग्ध हों। यदि दुर्घटना का कारण सम्भवतया दूसरे हो सकते हैं वहाँ यह सूक्ति लागू नहीं होती।
प्रश्न 16 क्षति की दूरस्थता के सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए। सुसंगत वादों को सहायता से युक्तियुक्त पूर्वानुमान की कसौटी पर प्रकाश डालिए। क्षति के निर्धारण सम्बन्धी इस विषय में क्या नियम हैं?
Discuss theories of Remoteness of Damage. With the help of relevant cases throw light on test of reasonable probableness. What are rules in determining damage in this regard.
अथवा (or)
‘एक वादी को सफलता तभी मिल सकती है जब उसकी क्षति प्रतिवादो के व्यवहार का निकटस्थ कारण हो।” व्याख्या कीजिए।
“A Plaintiff will succeed only if his injury is a proximate cause of the defendant’s conduct.” Explain.
उत्तर– अपकृत्य होने के पश्चात् दायित्व का प्रश्न उठता है। अपकृत्यपूर्ण कार्य के अन्तहीन परिणाम होते हैं। इस विषय में यह प्रश्न उठता है कि क्या एक अपकृत्यकर्ता, अपने अपकृत्यपूर्ण कार्य के अन्तहीन परिणामों के लिए उत्तरदायी होगा या उसके दायित्व को अपकृत्यपूर्ण कार्य के किसी विशेष परिणाम तक सीमित किया जायेगा। इस सम्बन्ध में नियम यह है कि एक अपकृत्यकर्ता सिर्फ उन्हीं परिणामों के लिए उत्तरदायी होगा जो उसके अपकृत्यपूर्ण कार्य का निकटस्थ (Proximate) परिणाम है। एक अपकृत्यकर्ता अपने अपकृत्यपूर्ण कार्य के उन परिणामों के लिए उत्तरदायी नहीं होता जो दूरस्थ परिणाम (Remote consequence) होते हैं। किसी भी प्रतिवादी को एक अपकृत्यपूर्ण कार्य के लिए अनन्त सीमा तक उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। इस विषय में नियम है “”Proxima causa non Remota causa est audiendus.” (प्रोक्सिमा काजा नान रिमोटा काजा एस्ट आडियेन्डस) अर्थात् निकटस्थ परिणाम न कि दूरस्थ परिणाम पर ध्यान दिया जायेगा।
अपकृत्यकर्ता के दायित्व की सीमा रेखा तय करने हेतु इस प्रश्न का उत्तर महत्वपूर्ण होगा कि क्या अपकृत्यपूर्ण कार्य तथा उससे, परिणत क्षति में निकटस्थ सम्बन्ध था या दूरस्थ यदि उत्तर है कि क्षति तथा अपकृत्य में सीधा तथा निकटस्थ सम्बन्ध है तो प्रतिवादी उत्तरदायी होगा। परन्तु यदि अपकृत्य तथा उसके परिणामस्वरूप होने वाली क्षति में दूरस्थ सम्बन्ध है तो अपकृत्यकर्ता को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। निकटस्थ का अर्थ है कार्य तथा परिणाम में सीधा तथा प्रत्यक्ष सम्बन्ध इस सम्बन्ध में 1850 से पूर्व इंग्लैण्ड के न्यायालय में एक व्यक्ति को उसके अकृत्यपूर्ण कार्य के सभी परिणामों के लिए उत्तरदायी ठहराया जाता था जो उसके कार्य का प्रत्यक्ष एवं स्वाभाविक परिणाम हो।
स्टाक बनाम शेफर्ड (17 WBI 892.) नामक वाद में अ ने भीड़ में एक जलती हुई हुरहुरी (Squits) फेंकी जो ब पर पड़ी, ब ने अपनी प्रतिरक्षा में उसे आगे फेंक दिया, जो स पर गिरी, स ने अपनी प्रतिरक्षा में उसे आगे फेंक दिया जो द पर पड़ी और वहाँ दग गई जिसके परिणामस्वरूप द की एक आँख फूट गई। न्यायालय ने अ को उत्तरदायी ठहराया क्योंकि वादी को पहुँची क्षति प्रतिवादी के कृत्य का सीधा परिणाम था। यद्यपि उसके कृत्य तथा क्षति में अन्य दो व्यक्तियों का भी हस्तक्षेप था।
हेन्स बनाम हारबुड, (1935)1 के० बी० 146 के बाद में प्रतिवादी के सेवक ने उपेक्षा के साथ एक भीड़ भरी गली में एक घोड़ागाड़ी छोड़ दी जिसकी देखभाल के लिए वहाँ कोई भी व्यक्ति नहीं था। एक बालक द्वारा घोड़े पर कंकड़ फेंकने के कारण वे भाग खड़े हुए, जिसके परिणामस्वरूप एक पुलिसकर्मी, जिसने सड़क पर महिलाओं और बच्चों को बचाने के लिए घोड़ों को रोकने का प्रयत्न किया क्षतिग्रस्त हो गया। प्रतिवादी ने प्रतिरक्षा में यह तर्क दिया कि यहाँ ‘परिणामों की दूरस्थता’ (Remoteness of consequences) थी, अर्थात् बालक की शरारत क्षति का निकटस्थ कारण थी और प्रतिवादी के सेवक की उपेक्षा दूरस्थ कारण थी। यहाँ यह तर्क अस्वीकार किया गया तथा प्रतिवादी को उत्तरदायी ठहराया गया क्योंकि बच्चों की ओर से ऐसी शरारत का किया जाना प्रत्याशित था।
परन्तु 1850 के पश्चात् स्थिति में परिवर्तन आया तथा क्षति की दूरवर्तिता (Remoteness of damage) के दो प्रमुख सिद्धान्त विकसित हुए।
(1) युक्तियुक्त पूर्वानुमान की कसौटी (Test of Reasonable Probableness)
(2) प्रत्यक्ष परिणाम की कसौटी (Test of Direct Consequences)
(1) युक्तियुक्त पूर्वानुमान की कसौटी (Test of Reasonable Probable ness) – इस कसौटी के अनुसार यदि किसी अपकृत्य के परिणामस्वरूप हुई क्षति इस प्रकार की है जिसका पूर्वानुमान कोई भी विवेकशील (reasonable) व्यक्ति कर सकता था तो क्षति दूरवर्ती नहीं मानी जायेगी तथा प्रतिवादी उससे होने वाली सभी क्षतियों के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। परन्तु यदि कोई विवेकशील व्यक्ति क्षतियों का पूर्वानुमान उन परिस्थितियों में नहीं कर सकता तो ऐसी क्षति दूरस्थ मानी जायेगी भले ही उसकी असावधानी से उत्पन्न क्षति उसके कृत्य का प्रत्यक्ष परिणाम ही क्यों नहीं। इस सिद्धान्त को पुराने विनिश्चयों से स्पष्ट किया जा सकता है। प्रथम वाद रिगबी बनाम हिविर [ (1850) 5 एक्स 240.] तथा दूसरा वाद ग्रीनलैण्ड बनाम चैपलिन [ (1850) 5 एक्स 243.] नामक वादं उल्लेखनीय है। ग्रीनलैण्ड बनाम चैपलिन नामक वाद में न्यायालय ने कहा :
“इस कसौटी के अनुसार जब कोई व्यक्ति अनुचित कार्य करता है तो उससे उत्पन्न होने वाले उन्हीं परिणामों के लिए दायी होता है जिसका पूर्वानुमान वह कर सकता था न कि उन सभी परिणामों के लिए जिनके घटित होने के बारे में वह सोच भी नहीं सकता था।”
(2) प्रत्यक्ष परिणाम की कसौटी (Test of Direct Consequences ) – पूर्वानुमान की कसौटी को इन री पोलेमिस (In Re Polemis) तथा फर्नेस विथी कम्पनी लि० [(1921) 3 K.B. 560.) नामक वादों में कोर्ट ऑफ अपील ने अस्वीकार कर दिया। इस वाद में कोर्ट ऑफ अपील ने यह निर्णय दिया कि एक व्यक्ति अपने अपकृत्यपूर्ण कृत्य के सभी प्रत्यक्ष परिणामों के लिए उत्तरदायी होगा चाहे उसने अपकृत्य के परिणामों का पूर्वानुमान किया हो अथवा नहीं।
इस बाद में प्रतिवादी ने वादी के जहाज को पेट्रोल ढोने के लिए किराये पर लिया था। यात्रा के दौरान पेट्रोल के कुछ टीनों (Tins) से पेट्रोल का रिसाव होने लगा तथा जहाज के कमरे में पेट्रोल की भाप भर गई। एक बन्दरगाह पर प्रतिवादी के सेवक सामान लाद रहे थे कि उनकी असावधानी से लकड़ी का तख्ता उस कमरे में गिर पड़ा जिसके फलस्वरूप एक चिन्गारी उत्पन्न हुई तथा जहाज में गिरे पेट्रोल से आग लग गई। इसके परिणामस्वरूप जहाज जल कर राख हो गया। लार्ड न्यायाधीश स्कूटन ने प्रतिवादी को उत्तरदायी ठहराते हुए कहा कि, “उस बात की अवधारणा करना कि कोई कार्य उपेक्षापूर्ण है या नहीं यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि क्या कोई विवेकशील व्यक्ति यह समझता है कि उससे किसी को क्षति पहुँच सकती है तो प्रतिवादी उत्तरदायी होगा। यदि ऐसा नहीं है तो वह कार्य उपेक्षापूर्ण नहीं होगा…..यदि कार्य उपेक्षा का सीधा परिणाम है तो प्रतिवादी उत्तरदायी होगा भले ही उसके निश्चित प्रभाव का पूर्वानुमान प्रतिवादी द्वारा नहीं किया जा सकता था।”
इन री पोलेमिस के वाद में न्यायालय ने स्मिथ बनाम लन्दन रेलवे कम्पनी [ (1870) एल० आर० 6 सी० पी० 14.] नामक वाद में किये गये निर्णय को पुष्ट किया।
युक्तियुक्त – पूर्वानुमान की कसौटी – वर्तमान स्थिति– वेगन माउण्ड वाद (Wagon Mound Case) प्रत्यक्ष परिणाम की कसौटी जो इन री पोलेमिस के वाद में प्रतिपादित की गई थी उसे वेगन माउण्ड (Wagon Mound) वाद द्वारा प्रीवी काउन्सिल ने अस्वीकार कर दिया तथा पूर्वानुमान की कसौटी को स्वीकार किया।
ओवरब्रिज टैंकशिप (यू० के०) लिमिटेड बनाम मार्ट्स डाक एण्ड इन्जिनियरिंग कम्पनी लिमिटेड [ (1961) अपील केसेज 388.] नामक वाद में जो वेगन माउण्ड वाद नाम से प्रसिद्ध हुआ, में प्रतिवादी तेल ढोने के जहाज का स्वामी था। उसका जहाज आस्ट्रेलिया के सिडनी बन्दरगाह पर तेल ले जा रहा था। यहाँ से करीब 600 फीट की दूरी पर जहाज खड़ा होने तथा मरम्मत का एक घाट था। प्रतिवादी के सेवकों की उपेक्षा के फलस्वरूप अधिक मात्रा में जहाज से तेल निकल कर समुद्र तल पर फैल गया तथा जहाज मरम्मत के घाट तक फैल गया। यह सुनिश्चित करने के पश्चात् कि तेल प्रज्जवलनशील नहीं है। मरम्मत घाट के प्रबन्धक ने वेल्डिंग को जारी रखने की अनुमति दी। दो दिन पश्चात् समुद्र तल पर आग लग गई तथा जहाज को भारी क्षति हुई।
निचले न्यायालय ने इन री पोलेमिस के निर्णय को स्वीकार करते हुए प्रतिवादी को उत्तरदायी ठहराया। परन्तु प्रीवी काउन्सिल ने उसके निर्णय को उलट दिया तथा यह निर्णय दिया कि इन री पोलेमिस के वाद में प्रतिपादित प्रत्यक्ष परिणाम की कसौटी उचित नहीं है। प्रीवी कौन्सिल के अनुसार यदि एक विवेकशील व्यक्ति क्षति का पूर्वानुमान नहीं कर सकता तो प्रतिवादी के उपेक्षापूर्ण कार्य का सीधा परिणाम होने के बावजूद वादी को प्रतिकर नहीं मिल सकता।
वेगन माउण्ड के बाद में प्रीवी काउन्सिल द्वारा दिया गया निर्णय आंग्ल न्यायालयों पर मान्य नहीं था किन्तु अंग्रेजी न्यायालयों ने अपने विनिश्चयों में प्रीवी काउन्सिल के वेगन माउण्ड नामक बाद में दिये गए विनिश्चय का अनुमोदन किया। हाजेज बनाम लाई एडवोकेट [ (1963) अपील केसेज 836] नामक बाद में इंग्लैण्ड के सर्वोच्च न्यायालय हाउस ऑफ लाइंस ने वेगन माउण्ड के वाद में प्रतिपादित क्षति की दूरस्थता विषयक पूर्वानुमान की कसौटी का अनुमोदन किया। इस वाद में टेलीफोन विभाग के सेवकों ने भूमिगत उपकरण की देखभाल करने के लिए सड़क में लगे मेनहोल को खोला। मेनहोल के ऊपर तम्बू तना था तथा चारों ओर पैराफिन के लैम्प जले थे परन्तु वह चारों ओर से असुरक्षित था। एक दिन आठ वर्ष का एक बालक तम्बू में घुस आया और बल्च से खेलने लगा। बल्च मेनहोल में गिर पड़ा विस्फोट हुआ तथा बालक बुरी तरह घायल हो गया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि टेलीफोन कम्पनी उत्तरदायी थी क्योंकि सड़क पर मेनहोल खुला छोड़ देना एक उपेक्षापूर्ण कार्य था और इस बात का पूर्वानुमान किया जा सकता था कि मेनहोल असुरक्षित होने के कारण लड़के उसमें घुस सकते थे तथा लैम्प से खेल सकते थे तथा घायल हो सकते थे। पूर्वानुमान की कसौटी उघठी बनाम टर्नर मैन्युफैक्चरिंग कम्पनी [(1964) 1 Q.B. 518.] तथा डैपर बनाम होल्डर [ (197) 2 आल इंग्लैण्ड रिपोर्टर 210.] नामक वादों में स्वीकार तथा अनुमोदित की गई।
भारत में वर्तमान स्थिति (Present Position in India) – भारतीय न्यायालयों ने भी युक्तियुक्त पूर्वानुमान की कसौटी को ही उचित माना है। यद्यपि इस बिन्दु पर उच्चतम न्यायालयों का कोई निर्णय नहीं है तथापि वेगन माउण्ड के निर्णय के पश्चात् भारतीय न्यायालयों के निर्णयों से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय न्यायालयों ने युक्तियुक्त पूर्वानुमान की कसौटी को ही लागू किया है।
नीरज बनाम कृष्णामूर्ति (ए० आई० आर० 1966 केरल 172.) नामक बाद में एक विद्यालय के कुछ बच्चे सड़क पार करने के लिए एकत्र हुए। प्रतिवादी की लारी बस के पीछे आ रही थी। लारी बस के करीब सौ गज पीछे 25 से 30 कि०मी० प्रति घण्टा की रफ्तार से आ रही थी। बस के जाने के पश्चात् बच्चे तुरन्त सड़क पार करने लगे। ऐसा करते समय एक बच्चे को लारी के धक्के से चोट लगी वह घायल हो गया। केरल उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि प्रतिवादी चूँकि इस स्थिति में क्षति का पूर्वानुमान कर सकते थे अतः इस क्षति के लिए उत्तरदायी थे। इस सिद्धान्त को आलोकनाथ बनाम गुरू प्रसाद (ए० आई० आर० 1963 उड़ीसा 21.) तथा एम० मदप्पा बनाम करियप्पा (ए० आई० आर० 1964 मैसूर) नामक वादों में क्रमश: उड़ीसा तथा मैसूर उच्च न्यायालय ने अनुमोदित किया।
प्रश्न 17. (A) अपमान या मानहानि क्या है? अपमान के आवश्यक तत्व क्या हैं? अपमान के अपकृत्य के प्रतिवादों को संक्षेप में समझाइए। कब अपमान स्वतः अनुयोज्य है?
What is defamation? What are the essential elements of defamation? Discuss in brief the defences in tort of defamation? When the defamation is actionable per se?
अथवा (or)
मानहानि के आवश्यक तत्वों का वर्णन कीजिए। मानहानि के वाद के बचावों की विवेचना कीजिए।
Describe the essential elements of defamation. State the defences of an action for defamation.
(B) वक्रोक्ति की व्याख्या उदाहरण सहित करें।
Discuss ‘Innuendo’ with examples.
उत्तर – प्रतिष्ठा या चरित्र एक व्यक्ति की मूल्यवान, शायद सबसे अधिक मूल्यवान सम्पत्ति है। प्रतिष्ठाहीन या अपमानित जीवन जीने की अपेक्षा मरना ही श्रेयस्कर समझा जाता है। यह भी कहा गया है कि चरित्र चला गया तो समझिए सब कुछ चला गया। किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा को क्षति ही अपमान है। प्रतिष्ठा को क्षति पहुँचाना उस व्यक्ति की सम्पत्ति को क्षति पहुँचाना है।
अपमान, प्रतिवादी का एक ऐसा लिखित या मौखिक प्रकाशित कथन है, जिससे वादी समाज के सही सोच वाले व्यक्तियों के बीच उपहास का पात्र बना हो। प्रतिवादी का लिखित या मौखिक कथन जिससे वादी की प्रतिष्ठा को क्षति पहुँचती है अपमान है। अपमानजनक कथन का प्रकाशन अपकृत्य के साथ-साथ भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 499 तथा 500 के अन्तर्गत अपराध के रूप में परिभाषित है। मौखिक अपमानजनक कथन को अपवचन (slander) कहते हैं जबकि लिखित अपमानजनक कथन को अपलेख (libel) कहते हैं।
अंग्रेजी विधि में अपवचन (slander) तथा अपलेख (libel) में अन्तर किया गया है। अपवचन, अपमानजनक कथनों का अस्थायी रूप में प्रकाशन होता है, यह मौखिक हो सकता है या संकेतों के माध्यम से भी हो सकता है जबकि अपलेख, अपमानजनक शब्दों का स्थायी प्रारूप में प्रकाशन है। यह लिखित, मुद्रित, चित्र या मूर्ति या पुतले के रूप में भी हो सकता है। अपवचन तथा अपलेख में दूसरा अन्तर यह है कि अपवचन कानों को सम्बोधित होता है जबकि अपलेख आँखों को सम्बोधित होता है। युसोपोफ बनाम एम० जी० एम० पिक्चर्स लि० [(1934) 50 टी० एल० आर० 581.] नामक वाद में यह निर्णय दिया गया कि सिनेमा फिल्म अपलेख है क्योंकि यह चित्र के रूप में होता है तथा उसमें मौखिक (शब्दों). कथन का अंकन भी स्थायी होता है। इस वाद में राजकुमारी नताशा को एक दुश्चरित्र व्यक्ति रास्पुटीन के साथ बलात्कारात्मक सम्बन्धों के साथ प्रदर्शित किया गया था। वायरलेस टेलीग्राफ के माध्यम से प्रकाशित अपमानजनक कथन को स्थायी रूप से मानते हुए इसे भी अपलेख (libel) माना गया है। ग्रामोफोन पर रिकार्ड किये गये कथन का स्थायी रूप है। इस कारण इसे अपलेख (libel) माना गया है भले ही यह सिर्फ कान को सम्बोधित होता है आँखों को नहीं।
जैसा कि कहा गया है इंग्लैण्ड में अपवचन तथा अपलेख में अन्तर किया गया है। वहाँ अपवचन को एक दीवानी. अपकृत्य या अपकार माना गया है परन्तु अपलेख (libel) को अपराध माना गया है। परन्तु भारत में अपवचन तथा अपलेख में कोई अन्तर नहीं किया गया है तथा दोनों भा० द० सं० की धारा 499 में अपराध हैं। इंग्लैण्ड में अपलेख (libel) स्वतः अनुयोज्य (actionable per se) है जबकि अपवचन (slander) के मामले में वादी को प्रतिकर प्राप्त करने हेतु क्षति का नुकसान (damage) साबित किया जाना आवश्यक है। भारत में इस बिन्दु पर मतभेद है। परन्तु अधिकांश विद्वान भारत में अपलेख तथा अपवचन दोनों को | स्वतः अनुयोज्य मानते हैं।
अपमान के आवश्यक तत्व (Essential Elements of Defamation)-अपमान के अपकृत्य के निम्न आवश्यक तत्व हैं-
(1) शब्द या कथन अपमानजनक हों,
(2) अपमानजनक कथन वादी से सन्दर्भित या वादी को सम्बोधित हों,
(3) अपमानजनक कथन का प्रकाशन हुआ हो।
(1) कथन अपमानजनक होना चाहिए (The Statement must be defamating) – कथन अपमानजनक होने से यह तात्पर्य है कि प्रश्नगत कथन से वादी की प्रतिष्ठा को क्षति हुई हो। अपमानजनक कथन ऐसा होना चाहिए जिससे वादी की प्रतिष्ठा उस समाज के सही सोच वाले व्यक्तियों की दृष्टि में कम हुई है जिस समाज में वह रहता है। कथन के फलस्वरूप वादी अपने समाज में उपहास का पात्र बना हो, अपमानजनक कथन के प्रकाशन के फलस्वरूप वादी समाज के सही सोच वाले व्यक्तियों की नजरों से बचने को बाध्य हुआ हो। अपमानजनक कथन मौखिक, लिखित, मुद्रित या चित्र के प्रदर्शन से या मूर्ति या पुतले (Effigy) के माध्यम से किया जा सकता है। अपमानजनक कथन किसी व्यक्ति के आचरण से भी अनुमानित (infered) किया जा सकता है। उदाहरण के रूप में, जी० श्रीधर मूर्ति बनाम बेल्लारी नगर निगम (ए० आई० आर० 1982 कर्नाटक 287.] नामक बाद में नगर निगम ने एक व्यक्ति के विरुद्ध गिरफ्तारी वारण्ट जारी कराया, उसके फर्नीचर, सामान तथा किताबें जब्त कर ली गईं। कर्नाटक उच्च न्यायालय ने नगर निगम की इस कार्यवाही को अपमानजनक व्यवहार माना।
एक कथन अपमानजनक है या नहीं इसके निर्धारण का मापदण्ड समाज के सही सोच वाले व्यक्तियों का आंकलन है न कि उन व्यक्तियों का आंकलन जो विशिष्ट सोच रखते हैं या जिनकी सोच समाज की सोच नहीं है।
यदि अपमानजनक कथन से किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा को क्षति पहुँचती है तो प्रतिवादी का यह बचाव सफल नहीं होगा कि कथन का आशय अपमान करना नहीं था। इस प्रकार अपमान के मामले में आशय का कोई महत्व नहीं है। अपमान की आवश्यकता किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा को क्षति है, आशय महत्वपूर्ण नहीं है।
यह स्मरण रखना चाहिए कि कोई ऐसा कथन जो उतावलेपन में या क्रोध में बोले गए हों या कोई ऐसी गाली जिससे सुनने वाला अपमानित महसूस करने का अनुमान नहीं लगाता तो वह कथन अपमानजनक नहीं होंगे। सिर्फ वही कथन जो किसी व्यक्ति जिससे वे सम्बोधित हैं, की भावना को आहत करे या उसके परेशानी का कारण बने अपमानजनक कथन माने जायेंगे। रामधारा बनाम फूलवती बाई [ (1970 क्रि० लॉ जर्नल 286 (मध्य प्रदेश) ] नामक वाद में पैंतालिस वर्षीय एक विधवा को उसकी पुत्रवधू के मामा की रखैल कहा गया। यह निर्णय दिया गया कि यह न सिर्फ अश्लील गाली थी परन्तु यह उस महिला के चरित्र पर लांछन था तथा यह अपमान के तुल्य था।
(2) कथन या शब्द वादी को सन्दर्भित होना चाहिए (The words must refer to plaintiff) – अपमान के बाद में सफल होने के लिए यह साबित करना आवश्यक है कि जिस कथन के विरुद्ध वह शिकायत कर रहा है वह उसी को सन्दर्भित या सम्बोधित था। यह अर्थहीन है कि प्रतिवादी का आशय वादी का अपमान करने का नहीं था। इस प्रकार जिस व्यक्ति को अपमान कथन प्रकाशित किया गया था (बादी के बारे में अपमानजनक बात कही। गयी थीं) उसे युक्तियुक्त रूप से यह अनुमान होना चाहिए कि अपमानजनक बातें वादी के बारे में ही कही गई थीं।
हल्टन बनाम जोन्स [ (1910) अपील केसेज 20.] नामक वाद में एक उपन्यासकार ने एक कल्पित चरित्र ‘जोन्स’ सृजित किया। परन्तु फ्रान्स के एक वकील ने यह तर्क प्रकट किया कि उससे उसकी प्रतिष्ठा को क्षति हुई है। वह यह साबित करने में सफल रहा। यह निर्णय दिया गया कि प्रतिवादी उत्तरदायी था भले ही उसका आशय जोन्स को अपमानित करना नहीं था।
न्यूस्टीड बनाम लन्दन एक्सप्रेस न्यूजपेपर लि० [ (1939) 4 आल इंग्लैण्ड रिपोर्टर 319.] नामक वाद में प्रतिवादी ने एक लेख प्रकाशित किया जिसमें यह लिखा गया कि हेराल्ड न्यूस्टीड एक केम्बरवेल व्यक्ति द्विविवाह के लिए सजा पाया था। यह कहानी एक हेराल्ड न्यूस्टीड नामक व्यक्ति जो बार (शराबघर) में काम करता था उसके लिए सत्य थी। एक अन्य हेराल्ड न्यूस्टीड नामक व्यक्ति ने इस अपमानजनक कथन के लिए वाद संस्थित किया। वह नाई था। चूँकि कथन को वादी को सन्दर्भित माना गया अतः प्रतिवादी उत्तरदायो था।
इस प्रकार के निर्णय से काफी कठिनाई हुई अतः पोर्टर कमेटी का गठन किया गया तथा पोर्टर कमेटी की संस्तुति पर इंग्लैण्ड ने Defamation Act, 1952 पारित किया जिसमें इस प्रकार की परिस्थितियों से निपटने की व्यवस्था थी। इस अधिनियम की धारा 4 के अनुसार ऐसी परिस्थितियों में दायित्व से बचने के लिए प्रतिवादी को दो बातें साबित करनी होती हैं।
(1) प्रकाशन का आशय वादी के प्रति इस कथन को प्रकाशित करने का आशय नहीं। था तथा उसे उन परिस्थितियों का ज्ञान नहीं था जिनमें कथन प्रतिवादी को सन्दर्भित हो सकता था।
(2) कथन प्रथम दृष्ट्या अपमानजनक नहीं थे तथा प्रकाशनकर्ता को उन परिस्थितियों का ज्ञान नहीं था जिनके अन्तर्गत इस कथन से वादी की प्रतिष्ठा को क्षति पहुँच सकती थी, दोनों मामलों में प्रतिवादी ने युक्तियुक्त सावधानी बरती थी। भारतीय न्यायालयों ने इस सम्बन्ध में अंग्रेजी स्थिति को स्वीकार किया है।
एक वर्ग के व्यक्तियों का अपमान (Defamation of a class of Persons) – जब अपमानजनक कथन एक वर्ग के व्यक्तियों को सम्बोधित है तो उस वर्ग का सिर्फ एक व्यक्ति तब तक वाद में सफल नहीं हो सकता जब तक वह यह न सिद्ध कर दे कि युक्तियुक्त रूप से यह कहा जा सकता है कि अपमानजनक कथन उसे ही सन्दर्भित या सम्बोधित था।
इस प्रकार ईस्टवुड बनाम होम्स [ (1858) 1 एफ० एण्ड एफ० 347.] नामक वाद में एक कथन लिखा गया कि एक स्थान के सभी वकील चोर हैं, एक विशिष्ट वकील तब तक बाद नहीं ला सकता जब तक वह यह सिद्ध न करे कि उस विशिष्ट वकील के प्रति कुछ अपमानजनक लिखा गया था।
धीरेन्द्र नाथ सेन बनाम रजत कान्त भद्र (ए० आई० आर० 1970 कलकत्ता 216. ) नामक बाद में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि यदि एक समाचार पत्र के सम्पादकीय में एक समुदाय के आध्यात्मिक प्रमुख के बारे में अपमानजनक कथन छपा है तो उस समुदाय के एक व्यक्ति को अपमानजनक कथन के प्रकाशन के विरुद्ध बाद लाने का कोई अधिकार नहीं है।
भागीदारी एक विधिक व्यक्तित्व नहीं है। सभी भागीदार सामूहिक रूप से फर्म के रूप में जाने जाते हैं अतः भागीदारी फर्म के प्रति अपमानजनक कथन भागीदारों के प्रति अपमानजनक कथन माने जायेंगे।
मृतक का अपमान (Defamation of Deceased) मृतक का अपमान अपकृत्य नहीं है। परन्तु यदि किसी मृतक के अपमान से एक जीवित व्यक्ति की प्रतिष्ठा को क्षति पहुँचती है या यदि किसी मृतक के अपमान से परिवार या अन्य सम्बन्धियों की भावना को चोट पहुंचती हैं तो ऐसा लांछन बाद योग्य अपमान होगा। स्पष्टीकरण धारा 495 भारतीय दण्ड संहिता।
(3) अपमानजनक कथन (शब्दों) का प्रकाशन हुआ हो (The defamating words must be published) प्रकाशन से तात्पर्य है, अपमानजनक शब्दों को उस व्यक्ति के अलावा, अन्य व्यक्ति की जानकारी या संज्ञान में लाना, जिसे वे शब्द सम्बोधित या सन्दर्भित किए गए हों। अ, एक अपमानजनक कथन व को सम्बोधित करता है यदि यह कथन स की जानकारी में आ गया तो यह कहा जायेगा कि अपमानजनक कथन का प्रकाशन हो गया है। अपमानजनक कथन का प्रकाशन अपमान के अपकृत्य का सबसे आवश्यक तत्व है। जब तक प्रकाशन सिद्ध न कर दिया जाय अपमान के अपकृत्य के लिए लाया गया वाद सफल नहीं हो सकता। अपमानजनक कथन को सिर्फ वादी को संसूचित किया जाना पर्याप्त नहीं है क्योंकि अपमान किसी व्यक्ति की उस प्रतिष्ठा के प्रति हमला या क्षति है जो वादी के सम्बन्ध में अन्य व्यक्ति के आंकलन में होती है। वादी स्वयं को क्या समझता है अर्थात् वादी स्वयं अपनी प्रतिष्ठा का आंकलन किस प्रकार करता है यह महत्वहीन है। अपमानजनक कथन के लिए न्यायालय यह देखता है कि क्या वादी समाज के उन व्यक्तियों के आंकलन में अपमानजनक कथन के फलस्वरूप उपहास का पात्र बना है? या क्या वह अपमानजनक कथन के कारण समाज में मुँह चुराता है। इस प्रकार जब तक अपमानजनक कथन का संज्ञान वादी के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति को नहीं होता तब तक उपरोक्त बातें घटित नहीं होंगी। अपने स्वयं के टाइपिस्ट को अपमानजनक पत्र लिखाना पर्याप्त प्रकाशन है। बुल मैन बनाम हिल [(1891) 1 क्यू० वी० 524.] किसी ऐसी भाषा में वादी को पत्र प्रेषित करना जिसका ज्ञान वादी को था प्रकाशन नहीं होगा। महेन्द्रराम बनाम हरनन्दन प्रसाद (ए० आई० आर० 1958 पटना 445.) यदि पत्र वादी को प्रेषित था तथा गलत ढंग से किसी अन्य व्यक्ति द्वारा पढ़ लिया जाता है। प्रतिवादी उत्तरदायी नहीं होगा। अरुमुगा मुदालियर बनाम अन्नामली मुदालियर (ए० आई० आर० 1966 मद्रास लॉ जर्नल 223.) जैसे पुत्र को सम्बोधित तथा प्रेषित पत्र पिता पढ़ ले स्वामी को सम्बोधित तथा प्रेषित पत्र सेवक पढ़ ले। इन मामलों में अपमानजनक कथन का प्रकाशन नहीं माना जायेगा तथा प्रतिवादी उत्तरदायी नहीं होगा।
परन्तु यदि वादी को प्रेषित पत्र के बारे में प्रतिवादी यह अनुमान लगा सकता था कि पत्र वादी के अतिरिक्त किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा पढ़ लिए जाने की सम्भावना है तो पत्र के प्रकाशन की उपधारणा या अनुमान लगाया जायेगा तथा प्रतिवादी उत्तरदायी होगा। उदाहरण के लिए, पोस्ट कार्ड या टेलीग्राम के रूप में यदि पत्र प्रेषित किया जाय, तो इसे प्रकाशन माना जायेगा। परन्तु यदि पोस्ट कार्ड में लिखे कथन की भाषा ऐसी है कि परिस्थितियों के ज्ञान के अभाव में कोई सामान्य बुद्धि का व्यक्ति कथन को अपमानजनक नहीं मानता तो वह प्रकाशन नहीं माना जायेगा। इसी प्रकार की स्थिति तब होगी जब पत्र उस भाषा में लिखा गया हो जसका ज्ञान पत्र प्राप्तकर्ता (प्रेषिती) को नहीं है या पत्र जिसको सम्बोधित तथा प्रेषित है वह व्यक्ति इतना अन्धा है कि वह पत्र पढ़ नहीं सकता या बहरा व्यक्ति होने के कारण सुन नहीं सकता।
यदि अपमानजनक पत्र वादी को इस प्रकार प्रेषित है सामान्य व्यापार के अनुक्रम में उसके सेवक द्वारा लिपिक द्वारा, दम्पत्ति द्वारा खोले जाने की सम्भावना है या वे व्यक्ति पत्र को पढ़ लेते हैं तो अपमानजनक कथन का प्रकाशन माना जायेगा।
महेन्द्र राम बनाम हरनन्दन प्रसाद (ए० आई० आर० 1958 पटना 445.) नामक वाद में अपमानजनक पत्र उर्दू में लिखा गया था। वादी उर्दू नहीं जानता था अतः उसने पत्र दूसरे व्यक्ति से पढ़वाया। यह निर्णय दिया गया कि प्रतिवादी तब तक उत्तरदायी नहीं होगा जब तक यह साबित न कर दिया जाय कि पत्र लिखते समय प्रतिवादी को यह जानकारी थी कि वादी उर्दू भाषा नहीं जानता तथा इसलिए पत्र को दूसरे से पढ़वाया जाना आवश्यक होगा।
यदि दो व्यक्ति मिलकर पत्र लिखते हैं तथा किसी किसी को प्रेषित करते हैं तथा पत्र दूसरे द्वारा पढ़ा नहीं जाता तो पत्र का प्रकाशन नहीं माना जायेगा क्योंकि पत्र लिखने वाले दोनों व्यक्ति संयुक्त अपकृत्यकर्ता हैं तथा विधि की दृष्टि में एक हैं।
पति तथा पत्नी के मध्य संसूचना (Communication between Wife and Husband)– विधि की दृष्टि में पति तथा पत्नी एक व्यक्ति हैं तथा पति द्वारा अपमानजनक कथन का प्रकाशन या पत्नी द्वारा अभिव्यक्त अपमानजनक या पति को प्रकाशन, प्रकाशन नहीं माना जाता।
टी० जे० पोनर बनाम एम० सी० बर्गीज (ए० आई० आर० 1970 सु० को०) इस वाद में यह प्रश्न उठाया कि क्या पति द्वारा पत्नी को लिखा गया अपमानजनक पत्र जो उसकी पत्नी के पिता से सम्बन्धित था, पिता द्वारा साबित किया जा सकता है। इस मामले में वादी ने पत्र अपने पिता को दिया था। इस बाद में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि जब तक पति द्वारा प्रेषित पत्र पत्नी के पास था यह विशेषाधिकृत था तथा इसे प्रकाशन नहीं माना जा सकता परन्तु ज्यों ही अपमानजनक पत्र तीसरे व्यक्ति के हाथ में किसी प्रकार पहुँच जाता है यह गोपनीय नहीं रहता तथा इसका प्रकाशन माना जायेगा।
यदि अपमानजनक कथन की पुनरावृत्ति होती है तो प्रत्येक पुनरावृत्ति नवीन वाद कारण को जन्म देती है।
अपमान के बाद में प्रतिवाद (Defences in cases of Defamation) अपमान बाद में वादी के दावे से मुक्ति हेतु प्रतिवादी को निम्न बचाव या प्रतिवाद उपलब्ध हैं –
(1) औचित्य या सत्य कथन,
(2) उचित या निष्पक्ष टीका टिप्पणी,
(3) विशेषाधिकार (Privilege)– विशेषाधिकार सीमित या पूर्ण हो सकता है।
(1) औचित्य या सत्य कथन (Justification or Truth)–अपमान या अवमानना के दीवानी वाद में कथन की सत्यता एक पूर्ण बचाव है। यदि प्रतिवादी यह साबित कर दे कि अपमानजनक कथन एक सत्य कथन के रूप में निरूपित किया गया था तो प्रतिवादी अपने दायित्व से मुक्त हो जायेगा। परन्तु आपराधिक विधि के अन्तर्गत यह साबित करना कि अपमानजनक कथन सत्य था कोई बचाव नहीं है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 499 के प्रथम अपवाद के अनुसार यदि लांछन सत्य था तो भी प्रतिवादी को दायित्व से बचने के लिए यह साबित करना होगा कि लांछन लोकहित में प्रकाशित किया गया था।
दीवानी विधि के अन्तर्गत यदि सत्य कथन प्रकाशित किया गया था तो यह एक अच्छा बचाव होगा। भले ही उसका प्रकाशन विद्वेषतापूर्वक किया गया हो। यदि कथन सारवान् रूप से सत्य है तो उसमें छोटी-मोटी असंगतता से कोई अन्तर नहीं पड़ता।
एलेक्जेण्डर बनाम पूर्वोत्तर रेलवे [(1885) 6 B and S. 340.] नामक वाद इस बिन्दु को स्पष्ट करता है। इस वाद में वादी बिना टिकट यात्रा करने के लिए एक पाउण्ड अर्थदण्ड या 14 दिनों के कारावास से दण्डित किया गया था। प्रतिवादी ने यह प्रकाशित किया कि वादी को एक पाठण्ड के अर्थदण्ड या तीन सप्ताह के कारावास से दण्डित किया गया था। यह ” निर्णय दिया गया कि प्रतिवादी उत्तरदायी नहीं थे क्योंकि कथन सारवान् रूप से (substantially) सत्य था।
यदि प्रतिवादी यह साबित नहीं कर पाता कि कथन सत्य था तो प्रतिवादी उत्तरदायी होगा। राधेश्याम तिवारी बनाम एकनाथ (ए० आई० आर० 1985 बम्बई 285.) नामक वाद ने प्रतिवादी ने वादी, जो एक खण्ड विकास अधिकारी (B.D.O.) था, के बारे में एक कथन प्रकाशित किया जिसमें यह कहा गया था कि वादी जाली प्रमाण पत्र जारी करता है, घूस लेता है तथा भ्रष्ट तथा अवैध साधन का प्रयोग करता है। अपमान के अन्तर्गत वाद में प्रतिवादी कथन की सत्यता को साबित नहीं कर पाया। अतः प्रतिवादी को प्रतिकर के लिए उत्तरदायी ठहराया गया।
अपमान अधिनियम, 1952 की धारा 5 के अन्तर्गत भी ऐसे ही प्रावधान किए गए हैं। यद्यपि भारत में इस बिन्दु पर कोई विधि नहीं है परन्तु स्थिति इंग्लैण्ड के समान ही हैं।
(2) उचित टीका-टिप्पणी (Fair Comment)-उचित टीका-टिप्पणी ( fair comment) यदि लोक हित में की गई है तो अपमान के वाद में अच्छा प्रतिवाद है। उचित टीका-टिप्पणी के प्रतिवाद के अन्तर्गत निम्न आवश्यक शर्तों को साबित करना होगा।
(1) यह टीका-टिप्पणी होनी चाहिए न कि सत्य तथ्य का निरूपण अर्थात् इसमें कथनकर्ता या लेखक ने किसी व्यक्ति के बारे में अपना विचार या मत प्रकट किया हो न कि तथ्य के सत्यता का यथावत् निरूपण न किया हो।
(2) इस प्रकार की टीका-टिप्पणी उचित (fair) होनी चाहिए।
(3) टीका-टिप्पणी लोकहित (Public interest) में होनी चाहिए।
(3) विशेषाधिकार (Privilege)– कुछ परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं जहाँ विधि में वाक् स्वतन्त्रता को महत्व दिया जाता है तथा वादी की प्रतिष्ठा को वाक् स्वतन्त्रता के सामने समर्पण करना होता है। विधि में इन परिस्थितियों को विशेषाधिकृत परिस्थितियाँ कहते हैं। इन परिस्थितियों में लोकहित की यह माँग होती है कि व्यक्ति के प्रतिष्ठा के अधिकार वाक स्वतन्त्रता को स्वीकार करें।
यह विशेषाधिकार दो प्रकार का हो सकता है- (1) पूर्ण विशेषाधिकार (2) सीमित विशेषाधिकार ।
(1) पूर्ण विशेषाधिकार (Absolute Privileges)—पूर्ण विशेषाधिकार थे स्थितियाँ हैं, जहाँ यदि यह साबित कर दिया जाय कि अपमानजनक कथन विशेषाधिकृत परिस्थिति में किया गया था तो प्रतिवादी को दायित्व से मुक्ति प्राप्त हो जायेगी। ये स्थितियाँ निम्न हैं—
(i) विधान मण्डलों में दिये जाने वाले वक्तव्य-ये निम्न हैं –
(क) संसदीय कार्यवाही- संविधान के अनुच्छेद 105 (2) के अनुसार (क) संसद के किसी भी सदन के सदस्य द्वारा किया जाने वाला कथन (ख) संसद के प्राधिकार के अन्तर्गत प्रकाशित कोई प्रतिवेदन (Report), पत्र, मतदान या कार्यवाही को किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।
(ख) विधान मण्डल की कार्यवाही– संविधान का अनुच्छेद 194 (2) उपरोक्त विशेषाधिकार प्रत्येक राज्य के विधानमण्डल के सदस्यों तथा उसके प्राधिकार के अन्तर्गत हुए प्रकाशनों के सम्बन्ध में प्राप्त हैं।
इस प्रकार यदि यह साबित कर दिया जाय कि प्रश्नगत कथन संसद या विधानमण्डल के सदस्य द्वारा संसद या विधानमण्डल में दिया गया वक्तव्य था तो उसे किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।
(ii) न्यायिक कार्यवाही (Judicial proceedings)– विधि द्वारा मान्यता प्राप्त किसी न्यायालय में चल रही किसी भी कार्यवाही के दौरान बोले हुए अपवचन या लिखे गए। अपकथन के लिए किसी न्यायाधीश या वकील या साक्षी या पक्षकार के विरुद्ध कोई भी वाद नहीं किया जा सकेगा। भले ही ये अपकथन या अपवचन विद्वेषता के अन्तर्गत हों, यदि ये अपवचन या अपकथन दुर्भावना, क्रोध, बिना किसी औचित्य के साथ हो तो भी यह विशेषाधिकार लागू होगा यह विशेषाधिकार ऐसे न्यायाधिकरण (Tribunals) की कार्यवाहियों पर भी लागू होगा यदि उन्हें न्यायालय का दर्जा विधि द्वारा प्राप्त है।
भारत में उक्त विशेषाधिकार न्यायिक अधिकारी संरक्षा अधिनियम, 1850 (Judicial Officers Protection Act, 1850) द्वारा प्रदान किया गया है। अपने मुवक्किल (पक्षकार) के मामले में अभिवचन (Pleading) के दौरान एक वकील द्वारा बोले गए अपवचन के बारे में भी उपरोक्त विशेषाधिकार प्राप्त है यदि ये अपक विधिक कार्यवाही के दौरान बोले गये। हों। परन्तु यदि वकील के ये अपकथन या अपवचन मामले से असम्बन्धित हों या न्यायालय के समक्ष चल रहे मामले से असम्बन्धित हैं तो यह विशेषाधिकार लागू नहीं होगा। एक साक्षी या गवाह द्वारा यदि विशेषाधिकार का दावा किया गया है तो भी यही सिद्धान्त तथा नियम लागू होंगे।
(2) सीमित विशेषाधिकार (Limited or Qualified Privileges) – (i) यदि कोई कथन कर्तव्य के निर्वहन में या किसी हित के संरक्षण के लिए किया गया है तो यह सौमित विशेषाधिकार के अन्तर्गत अपमान के बाद में प्रतिकर से बचने का बचाव हो सकता है।
भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 499 का नौंवा अपवाद यह प्रावधान करता है कि किसी दूसरे व्यक्ति के चरित्र या प्रतिष्ठा पर लगाया गया लांछन अपमान नहीं होगा यदि कथन या वचन सद्भावपूर्वक कथनकर्ता के हितों के संरक्षण के लिए किया गया हो या किसी लोकहित के संरक्षण के लिए किया गया हो। इसके कुछ उदाहरण निम्न हैं –
(क) एक दुकानदार, क से (जो उसका व्यापार देखता है) कहता है, ज को कुछ मत बेचना जब तक वह नकद मूल्य का भुगतान न करे। उसकी ईमानदारी के बारे में मेरी राय अच्छी नहीं है। यह कथन दुकानदार ने अपने हित के संरक्षण के लिए किया था अतः यदि यह कथन सद्भाव में किया गया है तो दुकानदार ज के अपमान के लिए उत्तरदायी नहीं होगा।
(ख) एक मजिस्ट्रेट अपने उच्च अधिकारी को अपने विधिक कर्तव्यों के पालन में एक प्रतिवेदन (Report) प्रेषित करता है जिसमें ज के बारे में लांछन लगाया गया है। यदि यह लांछन सद्भावपूर्वक लगाया गया है तो अ मजिस्ट्रेट ज के अपमान के लिए उत्तरदायी नहीं होगा।
(ii) संसदीय कार्यवाही की रिपोर्ट का प्रकाशन- भारत में संसदीय कार्यवाही (प्रकाशन संरक्षण) अधिनियम, 1977 की धारा 3 (1) यह प्रावधान करती है कि यदि कोई व्यक्ति सद्भावपूर्वक संसद के किसी सदन की कार्यवाही की सारवान् रूप से सत्य प्रतिवेदन (Report) प्रकाशित करता है तो वह किसी भी दीवानी या आपराधिक दायित्व के लिए किसी न्यायालय में उत्तरदायी नहीं होगा। जब तक यह सिद्ध न कर दिया जाय कि ऐसा प्रकाशन दुर्भावना या विद्वेष के अन्तर्गत किया गया था।
(iii) सीमित विशेषाधिकार (Qualified Privilege)– यह विशेषाधिकार उन मामलों में भी लागू होता है जहाँ प्रतिवादी ने अपवचन या अपकथन विद्वेषता या दुर्भावना के अन्तर्गत नहीं किया है, विद्वेष की उपस्थिति इस बचाव को समाप्त कर देती है।
(B) वक्रोक्ति (Innuendo )
वक्रोक्ति ऐसे अपवचन या अपकथन को कहते हैं जो प्रथम दृष्ट्या तो प्रशंसात्मक लगते हैं परन्तु यदि कथन या वचन को विद्यमान परिस्थितियों पर लागू किया जाता है तो वे अपमानजनक या उपहासात्मक लगते हैं। यहाँ कथनकर्ता की भाषा तो प्रशंसात्मक लगती है परन्तु ऐसे कथन के पीछे उसका आशय दूसरे व्यक्ति का अपमान करना होता है। ये कथन व्यंगात्मक कथन होते हैं, वक्रोक्ति ऐसे कथन होते हैं जो प्रथम दृष्टया निर्दोष हो सकते हैं परन्तु अपने गुप्त अर्थों में या द्वितीय (गौण) अर्थों में ये कथन अपमानजनक माने जाते हैं। जब अपवचन या अपकथन का प्राकृतिक तथा सामान्य अर्थ अपमानजनक नहीं होता परन्तु वादी अपमान के लिए वाद लाना चाहता है तो उसे उसके अपवचन या अपकथन के गुप्त तथा गौण अर्थ अर्थात् वक्रोक्ति को साबित करना पड़ेगा जिससे अपवचन या अपकथन अपमानजनक हो जाता है। यहाँ तक कि प्रशंसापूर्ण कथन भी किसी विशिष्ट संदर्भ में अपमानजनक हो सकते हैं।
अ, कहता है, व एक ईमानदार व्यक्ति है, वह कभी भी घड़ी नहीं चुरा सकता। यह कथन उस परिस्थिति में लागू किया जाता है जिसमें ब को बेईमान व्यक्ति समझा जाता है तो यह कथन अपमानजनक होगा तथा कथन को वक्रोक्ति (Innuendo) कहा जायेगा।
कैपिटल एण्ड काउन्टीज बैंक बनाम हेन्टी एण्ड सन्स [ (1882) 7 ए० सी० 741.] नामक बाद में प्रतिवादी जो, कैपिटल एण्ड काउन्टीज बैंक पर जारी चेक को प्राप्त करते थे, ने एक परिपत्र अपने अधिकांश ग्राहकों को प्रेषित कर कथन किया कि “हेन्टी एण्ड सन्स यह सूचना जारी करते हैं कि वे कैपिटल एण्ड काउन्टीज बैंक की किसी भी शाखा पर जारी चेक को स्वीकार नहीं करेंगे। यह परिपत्र कई अन्य लोगों को प्राप्त हुआ। बैंक ने प्रतिवादी हेन्टी एण्ड सन्स पर अपमान के लिए वाद किया कि परिपत्र बैंक के दिवालिएपन को प्रदर्शित करता था, यह निर्णय दिया गया कि परिपत्र से प्राकृतिक अर्थों में कोई लांछन युक्तियुक्त व्यक्त नहीं समझा जायेगा। अतः प्रतिवादी अपमान के लिए उत्तरदायी नहीं होगा।
टोली बनाम जे० एस० फ्राई एण्ड सन्स लि० [ (1931) अपील केसेज 333.] नामक वाद में वादी एक गोल्फ चैम्पियन था। प्रतिवादी के विज्ञान में निहित अपमानजनक कथन के लिए बादी ने बाद किया। विज्ञापन में टोली को एक बेहतरीन गोल्फ शॉट मारते हुए दिखाया गया था तथा उसकी जेब से प्रतिवादी का चाकलेट लटकता हुआ दिखाया गया था। वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध वक्रोक्ति का वाद दाखिल किया। उसने कहा कि हास्य-चित्र निकालने का प्रभाव यह था जैसे कि उसने अपना चित्र विज्ञापन के लिए प्रयोग किए जाने को अनुमति दी थी। इस प्रकार यह अर्थ निकलता था कि उसने अपनी प्रतिष्ठा पैसे के लिए बेच दी थी। उसका तर्क था कि उसके मित्रों ने भी उक्त विज्ञापन का यही अर्थ लगाया था। हाउस ऑफ लाईस ने निर्णय दिया कि वक्रोक्ति जिन परिस्थितियों में कई गई थी उससे उसका अर्थ अपमानजनक था क्योंकि वादी ने यह प्रदर्शित किया था कि जिस क्लब का वह सदस्य था उस क्लब में यह नियम था कि जो सदस्य अपनी प्रतिष्ठा पैसे के लिए बेचेगा उसकी उसको सदस्याता समाप्त की जा सकती है या उसे इस्तीफा देने को कहा जा सकता है।
सलेनादनदासी बनाम गलाजा माल रेड्डी एवं अन्य, ए० आई० आर० (2008) आन्ध्र प्रदेश, के मामले में एक तेलगू दैनिक समाचार पत्र में समाचार छपा था कि वादी, जो एक अधिवक्ता था, उसने एक हरिजन महिला के साथ बलात्कार किया था। यह समाचार वादी के विरुद्ध एक प्रथम इत्तिला रिपोर्ट के आधार पर प्रकाशित किया गया था जिसमें पर्याप्त हेरफेर किया गया था। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि वह वादी के विरुद्ध हानिकारक था। अत: वादी 10,000 रुपये नुकसानी का हकदार था। इस प्रकार के मानहानिकारक समाचार का प्रकाशन प्रेस की स्वतन्त्रता के आधार पर नहीं प्रकाशित किया जा सकता था।
प्रश्न 18. (अ) भूमि के प्रति अतिचार से आप क्या समझते हैं? भूमि के प्रति अतिचार के आवश्यक तत्व क्या हैं?
What do you understand by trespass to land? What are the essential elements of tort of trespass to land.
(ब) प्रारम्भ से अतिचार’ से आपका क्या तात्पर्य है? यहाँ दायित्व किस स्थिति ‘उत्पन्न होता है?
What do you understand by treaspass ab intlo’? Under what circumstances liability arises here? (Under this tort).
उत्तर (अ)- किसी को भूमि, भवन या परिसर पर बिना किसी विधिक औचित्य के अनधिकृत प्रवेश ही भूमि के प्रति अतिचार का अपकृत्य है। किसी व्यक्ति की भूमि, भवन या परिसर के साथ बिना विधिपूर्ण औचित्य के हस्तक्षेप ही भूमि के प्रति अतिचार है। भूमि, भवन या परिसर के साथ हस्तक्षेप प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार से हो सकता है। किसी की भूमि पर पत्थर फेंकना या किसी की भूमि पर अनधिकृत रूप से पेड़ लगाना ये सब भूमि के प्रति अतिचार के अप्रत्यक्ष तथा प्रत्यक्ष उदाहरण हैं परन्तु विद्युत आपूर्ति या जल आपूर्ति काट देना भूमि के प्रति अतिचार नहीं माना जा सकता। भूमि के प्रति अतिचार के निम्न आवश्यक तत्व हैं –
(1) किसी को भूमि, भवन या परिसर पर प्रवेश,
(2) यह प्रवेश बिना विधिक औचित्य के हो,
(3) भूमि के प्रति अतिचार करने के प्रति अपकृत्य है,
(4) भूमि के प्रति अतिचार स्वतः अनुयोज्य हैं।
(1) भूमि, भवन या परिसर पर प्रवेश – किसी की भूमि, भवन या परिसर पर प्रवेश प्रत्यक्ष रूप से या किसी भौतिक वस्तु के माध्यम से किया जा सकता है। उदाहरण के रूप में यदि मैं किसी की भूमि, भवन या परिसर पर चल कर जाता हूँ यह भूमि, भवन या परिसर पर प्रत्यक्ष प्रवेश है या मैं अपने पशु किसी की भूमि पर प्रवेश करा देता हूँ यह प्रत्यक्ष प्रवेश है। परन्तु यदि मैं किसी व्यक्ति की भूमि पर पत्थर फेंकता हूँ या धुआँ या बारीक कण या दूषित वायु या पानी प्रवेश कराता हूँ या किसी की भूमि पर छड़ी रखता हूँ यह उसकी भूमि पर अप्रत्यक्ष या किसी माध्यम से प्रवेश कराना हुआ।
अनुमति की सीमा का उल्लंघन करना भी भूमि के प्रति अतिचार अपकृत्य होगा। यदि किसी व्यक्ति को बैठक में आमन्त्रित किया गया है तथा वह शयन कक्ष में अन्यत्र प्रवेश करता है तो यह माना जायेगा कि उसने भूमि के प्रति अतिचार का अपकृत्य किया। अनुमति की सीमा का उल्लंघन भी अतिचार होगा। परन्तु यदि क्षेत्रों का उचित सीमांकन नहीं हुआ है उस स्थिति में सीमा पार करना भूमि के प्रति अतिचार का गठन नहीं करेगा।
यदि भूमि का कब्जाधारी, अतिचार के कई मामलों में चुप रहता है तो प्रवेश करने वाला व्यक्ति अतिचारी नहीं रह जाता।
माधव विठ्ठल कुट्वा बनाम माधवदास वल्लभ दास (ए० आई० आर० बम्बई 49 ) नामक बाद में बम्बई उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि बहुमंजिली इमारतों में ऊपरी मंजिल पर रहने वाले व्यक्ति का यह अधिकार है कि वह नीचे उपलब्ध स्थान पर अपने वाहन खड़ा करें तथा ऐसा करने से वे अतिचारी नहीं माने जा सकते।
(2) भूमि या भवन पर प्रवेश अनधिकृत होना चाहिए – किसी भूमि या भवन पर अधिकृत प्रवेश भूमि के प्रति अतिचार के अपकृत्य में एक अच्छा बचाव है। यदि किसी भूमि, भवन या परिसर पर प्रवेश अनुज्ञप्ति, आमंत्रण या विधिपूर्ण औचित्य के साथ है तो यह अतिचार का अपकृत्य नहीं होगा। इस प्रकार यदि एक पुलिस अधिकारी किसी उपयुक्त अधिकारों के आदेश के अन्तर्गत गिरफ्तारी या जाँच के लिए किसी भूमि, भवन या परिसर पर प्रवेश करता है तो यह प्रवेश विधिक औचित्य के अन्तर्गत या अधिकृत प्रवेश माना जायेगा। आमंत्रण मौखिक या विवक्षित हो सकता है।
(3) भूमि के प्रति अतिचार कब्जे के प्रति अपकृत्य है न कि स्वामित्व के प्रति – भूमि के प्रति अतिचार स्वामित्व के विरुद्ध अपकृत्य नहीं है यह अपकृत्य कब्जे के विरुद्ध अपकृत्य है। अर्थात् वही व्यक्ति जिसके कब्जे में भूमि या भवन है वही अतिचार के अपकृत्य के लिए वाद ला सकता है। अर्थात् एक किरायेदार जो किसी भवन या भूमि के कब्जे में है उस भूमि या भवन के स्वामी के विरुद्ध भी अतिचार के लिए बाद ला सकता है। यदि भूस्वामी ने किरायेदार के अत्यधिक कब्जे का अतिक्रमण किया है अर्थात् अनधिकृत प्रवेश किया है।
इसी प्रकार एक भूमि का पट्टाधारी, उस भूमि के पट्टाकर्ता के विरुद्ध भूमि के प्रति अतिचार के लिए वाद ला सकता है यदि पट्टाधारी के भूमि के कब्जे का अतिक्रमण पट्टाकर्ता द्वारा किया जाता है।
ग्राह्य बनाम पीट [ (1801) 1 ईस्ट 244. ] नामक बाद में वादी पट्टे के अन्तर्गत भूमि धारण करता था। यह पट्टा शून्य था परन्तु भूमि पट्टाधारी (वादी) के कब्जे में थी परन्तु उसे उस व्यक्ति के प्रति अतिचार के लिए वाद लाने का अधिकार था जो उस भूमि पर अनधिकृत प्रवेश करता है क्योंकि कोई भी कब्जा अपकृत्य कर्ता के विरुद्ध वैध कब्जा है।
इस प्रकार एक व्यक्ति कब्जाधारी है अतिचार के लिए वाद ला सकता है भले ही उसका कब्जा त्रुटिपूर्ण हो। परन्तु एक भूमि का स्वामी यदि कब्जाधारी नहीं है तो वह भूमि के प्रति अतिचार के लिए वाद नहीं ला सकता।
(4) भूमि के प्रति अतिचार स्वतः अनुयोज्य है- “भूमि के प्रति अतिचार स्वतः अनुयोज्य है” इसका तात्पर्य यह है कि अतिचार के अपकृत्य के प्रतिकर प्राप्त करने हेतु यह साबित करना आवश्यक नहीं है कि आशय या जानकारी या विद्वेष साबित किया जाय भूमि के प्रति अतिचार आशय, जानकारी या द्वेष के सबूत के अभाव में भी वादी सफल होता है। यहाँ वादी को सिर्फ यही साबित करना होता है कि उसके भूमि, भवन या परिसर पर किसी व्यक्ति ने बिना किसी विधिक औचित्य के प्रवेश किया था, भूमि के प्रति अतिचार में वादी को कोई क्षति या नुकसान साबित करना आवश्यक नहीं है। किसी सम्पत्ति पर प्रत्येक आक्रमण चाहे एक मिनट के लिए ही क्यों न हो अतिचार है। प्रतिवादी की ओर से ईमानदारी पूर्वक गई भूल किसी व्यक्ति को भूमि के प्रति अतिचारी को दोषी बनाती है। इस प्रकार यदि एक व्यक्ति एक भूमि को अपनी मानकर भी अनधिकृत प्रवेश करता है तो भी वह अतिचार दोषी होगा। यदि कोई व्यक्ति अपरिहार्य दुर्घटना के अन्तर्गत प्रवेश करता है तो यह एक अच्छा बचाव हो सकता है।
अतिचार के विरुद्ध उपचार –
(1) भूमि पर पुनः प्रवेश,
(2) बेदखली के लिए वाद,
(3) मध्यवर्ती लाभ के लिए वाद,
(4) अतिचारी को पकड़े रखना।
(1) भूमि पर पुनः प्रवेश- इस उपचार के अन्तर्गत वादी को यह अधिकार है कि वह उचित बल का प्रयोग कर अतिचारी को बाहर निकाल कर अपनी भूमि पर पुन: प्रवेश कर सकता है।
(2) बेदखली के लिए वाद- वादी अतिचारी को बेदखल करने की विधिक प्रक्रिया प्रारम्भ कर सकता है।
(3) मध्यवर्ती लाभ के लिए वाद– यदि एक अतिचारी भूमि पर कोई लाभ अतिचार की अवधि में कमा लेता है तो बादी को यह अधिकार है कि उस मध्यवर्ती लाभ को अतिचारी से प्राप्त करे।
(4) अतिचारी को पकड़े रखना– यदि किसी व्यक्ति के पशु ने अतिचार का अपकृत्य किया है तो वादी को यह अधिकार है कि वह पशु को तब तक पकड़े रख सकता है। जब तक वह अपना प्रतिकर उसके स्वामी से वसूल न कर ले।
उत्तर (ब)- प्रारम्भ से अतिचार (Trespass Ab Initio)
जब कोई व्यक्ति किसी परिसर पर विधिक प्राधिकार के अन्तर्गत प्रवेश करता है परन्तु प्रवेश करने के पश्चात् वहाँ पर कोई अपकृत्य करके प्रश्नगत विधिक प्राधिकार का दुरुपयोग करता है तो उसे उस परिसर या सम्पत्ति के सम्बन्ध में प्रारम्भ से अतिचारी माना जाता है। यद्यपि उसने मूल रूप में विधिपूर्वक प्रवेश किया परन्तु विधि उसे प्रारम्भ से ही अतिचारी मानती है। विधि यह उपधारण करती है कि उसने जब मूल रूप में प्रवेश किया था तभी उसका आशय अपकृत्यपूर्ण था। अतः वादी उससे उसके द्वारा किए गए अपकृत्यपूर्ण कार्य के लिए प्रतिकर पाने का हकदार होने के अतिरिक्त उसके मूल प्रवेश को ही अतिचार का अपकृत्य मानते हुए उसके मूल प्रवेश के सम्बन्ध में भी प्रतिकर प्राप्त कर सकता है।
किसी व्यक्ति को प्रारम्भ से अतिचारी मानने के लिए उस व्यक्ति द्वारा किया गया पश्चात्वर्ती कार्य अकरण (Non feasant) (कुछ करने का लोप या चूक करना) नहीं होना चाहिए। वह कार्य एक सक्रिय अपकृत्य (Misfeasant) या अपकार होना चाहिए। अर्थात् उसके द्वारा कुछ न कुछ किया जाना आवश्यक है।
इस बिन्दु पर छः बढ़इयों वाला बाद (Six Carpenters case) [ (1610) 8 Corep. 14.] उल्लेखनीय है। इस मामले में छः बढ़इयों ने एक शराब घर में प्रवेश किया तथा शराब का आदेश दिया। शराब पीने के पश्चात् उन्होंने भुगतान करने से इन्कार कर दिया। उन्होंने इसके अतिरिक्त कोई भी सक्रिय कार्य (postive act) नहीं किया। चूँकि भुगतान न करना एक सक्रिय कार्य न होकर निष्क्रिय कार्य (Non feasance) मात्र था अतः उन्हें प्रारम्भ से अतिचारी (trespasser ab initio) नहीं माना गया।
यह उल्लेखनीय है कि सिर्फ अपकार (Misfeasance) ही उसके विधिपूर्ण प्रवेश को प्रारम्भ से अतिचार नहीं बनाती। उनके द्वारा किया गया अपकार (Misfeasance) ऐसा होना चाहिए जो उसकी उस स्थान पर उपस्थिति अविधिपूर्ण बनाती हो, यह आवश्यक है।
इस बिन्दु को इलियास बनाम पासमोर ((1934) 2K.B. 164.) नामक बाद स्पष्ट करता है। इस बाद में प्रतिवादी कुछ पुलिस अधिकारी वादी की भूमि पर उसे गिरफ्तार करने के लिए गए। वहाँ उन्होंने कुछ दस्तावेजों को हटाया जबकि उन्हें ऐसा करने का विधिक अधिकार नहीं था। अतः इसे अपकार (Misfeasance) माना गया। उनका दस्तावेजों को हटाना उनके यहाँ गिरफ्तार करने हेतु उपस्थिति अनुचित नहीं हो पाती क्योंकि उन्हें एक विधिपूर्ण उद्देश्य (गिरफ्तारी) अभी भी पूरी करनी है। उन्हें न्यायालय ने दस्तावेज हटाने के सम्बन्ध में हो अतिचारी माना, प्रारम्भ से अतिचारी नहीं माना।
प्रश्न 19: शरीर के प्रति अतिचार के अन्तर्गत कौन-कौन से अपकृत्य सम्मिलित हैं? प्रत्येक की व्याख्या कीजिए। क्या मिथ्या बन्दीकरण के अपकृत्य में यह साबित किया जाना आवश्यक है कि वादी को मिथ्या बन्दीकरण के तथ्य की जानकारी थी?
या
आक्रमण, प्रहार तथा मिथ्या बन्दीकरण के अपकृत्य की संक्षेप में व्याख्या करें। मिथ्या बन्दीकरण के अपकृत्य में क्या यह साबित किया जाना आवश्यक है कि वादी को इस तथ्य की जानकारी हुई थी कि उसका मिथ्या बन्दीकरण हुआ है?
या
आक्रमण, प्रहार तथा मिथ्या बन्दीकरण के आवश्यक तत्वों को समझाएं।
What torts are included under trespass to body? Explain each of them. In Tort of false imprisonment is it necessary to prove the plaintiff had knowledge of fact of false imprisonment?
OR
Explain in brief the torts of Assault, Battery and False imprisonment. Is it necessary to prove the knowledge in case of false imprisonment?
OR
Explain in brief the essential elements of Assault, Battery and False imprisonment.
उत्तर– प्रत्येक व्यक्ति का यह विधिक अधिकार है कि वह अपने शरीर को दूसरे व्यक्ति के हस्तक्षेप से परे जिस प्रकार चाहे स्वतन्त्रतापूर्वक उपयोग करे। इस प्रकार यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के शरीर की सुरक्षा की आशंका उत्पन्न करता है या बिना किसी विधिक औचित्य के किसी व्यक्ति के शरीर से हस्तक्षेप करता है या बिना किसी विधिक औचित्य के उसके आवागमन की स्वतन्त्रता को पूर्णरूप से बाधित करता है तो यह कहा जायेगा कि वह क्रमश: आक्रमण, प्रहार तथा मिथ्या बन्दीकरण के अपकृत्य का दोषी होगा।
इस प्रकार शरीर के प्रति अतिचार (trespass to person) के अन्तर्गत आक्रमण, प्रहार तमा मिथ्या बन्दीकरण के अपकृत्य सम्मिलित हैं।
(1) आक्रमण (Assault)
प्रसिद्ध विधिशास्त्री विनफील्ड के अनुसार आक्रमण प्रतिवादी का ऐसा कार्य है जो वादी के मन में प्रतिवादी द्वारा प्रहार किये जाने की युक्तियुक्त आशंका (apprehension) उत्पन्न करता है।
जब प्रतिवादी का कार्य इस प्रकार का है जिससे वादी के मन में युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न होती है कि प्रतिवादी वादी पर प्रहार करेगा आक्रमण का अपकृत्य पूरा हो जाता है। आक्रमण के अपकृत्य में क्षति करने का प्रयास होता है। किसी व्यक्ति की ओर भरी हुई पिस्तौल तानना या किसी व्यक्ति की ओर छड़ी दिखाना या पानी से भरी बाल्टी फेंकने का प्रयास करना, यह दिखाना कि वादी प्रतिवादी पर थूक देगा ये सब वे कार्य हैं जिससे वादी के मन में यह आशंका उत्पन्न हो जाती है कि वादी के शरीर को अविधिक रूप से उसकी इच्छा के विरुद्ध क्षति पहुंचाने हेतु स्पर्श किया जायेगा। यदि वादी के मन में प्रहार की युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न हो जाती है कि प्रतिवादी प्रहार कर देगा तो आक्रमण का अपकृत्य पूर्ण हो जाता है। यदि वादी की ओर प्रतिवादी पिस्तौल तानता है तथा प्रतिवादी यह जानता है कि पिस्तौल खाली है तो आक्रमण का अपकृत्य नहीं होगा। इस प्रकार आक्रमण के अपकृत्य में सफल होने के लिए यह साबित किया जाना आवश्यक है कि प्रतिवादी उसको युक्तियुक्त आशंका को साकार करने में सक्षम था। दूसरे शब्दों में यह साबित किया जाना आवश्यक है कि प्रतिवादी अपनी धमकी को कार्यान्वित करने में सक्षम था।
इस प्रकार यदि एक व्यक्ति चलती ट्रेन से प्लेटफार्म पर खड़े व्यक्ति को छड़ी दिखाता है। तथा वह उस व्यक्ति से इतनी दूर चला गया है कि वह यदि छड़ी फेंके तो भी वह प्लेटफार्म पर खड़े व्यक्ति तक नहीं पहुँच सकती तो यह आक्रमण नहीं होगा।
बावीसेट्टी वेंकटा सूर्याराव बनाम नन्दी पतिमुथैय्या (ए० आई० आर० 1964 आन्ध्र प्रदेश 382.) नामक बाद में वादी के पास कुछ लगान बकाया था। लगान माँगने पर उसने असमर्थता व्यक्ता की। इस पर लगान वसूलने वाले अधिकारी ने उसकी सोने की बाली (ear ring) में से कुछ सोना कटाने के लिए सुनार बुलाया। सुनार जब तक बाली काटने के लिए। आगे बढ़ता एक दूसरे व्यक्ति ने लगान का भुगतान कर दिया। आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि चूँकि प्रतिवादी ने न तो कुछ किया और न ही उसने कुछ कहा। यहाँ प्रहार को धमकी दूरवर्ती थी। हिंसा को तात्कालिक आशंका नहीं थी अतः आक्रमण का अपकृत्य गठित नहीं हुआ।
इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति धमकी के साथ बल प्रयोग के लिए आगे बढ़ता है तो उसे हमला (आक्रमण) माना जायेगा भले ही जब हमलावर अपनी परिकल्पना (Design) को पूरा करने के पहले ही रोक लिया जाता है। स्टीफेन बनाम मायर्स [ (1830) 4 सो० एण्ड पो० 349 ] नामक वाद में वादी एक परिषद का अध्यक्ष था। प्रतिवादी भी इसी मेज पर बैठा था परन्तु प्रतिवादी तथा वादी के मध्य कुछ लोग बैठे थे। बहस जब गर्म हो उठी तब प्रतिवादी उग्र बन गया। सभा ने बहुमत द्वारा निर्णय किया कि प्रतिवादी को सभा से बाहर निकाल दिया जाय। प्रतिवादी उस पर यह कहते हुए मुक्का दिखाते हुए बोला कि बाहर किये जाने से पूर्व वह अध्यक्ष को कुरसी से गिरा देगा। परन्तु पास बैठे व्यक्ति ने उसे रोक लिया। प्रतिवादी को हमला (आक्रमण) के लिए उत्तरदायी ठहराया गया।
(2) प्रहार (Battery)
किसी व्यक्ति पर बिना किसी विधिक औचित्य के उस पर आशय के साथ बल प्रयोग करना ही प्रहार के अपकृत्य का गठन करता है। दूसरे शब्दों में किसी व्यक्ति को उसकी इच्छा के विरुद्ध बिना किसी विधिक औचित्य के तनिक भी स्पर्श करना ही प्रहार का अपकृत्य है, जैसे किसी व्यक्ति पर पानी फेंकना, उसकी इच्छा के विरुद्ध उसे छड़ी या अन्य वस्तु से स्पर्श करना, या किसी व्यक्ति पर थूक देना ही प्रहार का अपकृत्य है।
प्रहार के अपकृत्य के दो आवश्यक तत्व है –
(1) किसी व्यक्ति पर बल प्रयोग किया गया हो,
(ii) यह बल प्रयोग बिना विधिक औचित्य के हो।
(i) बल प्रयोग (Use of force) – किसी व्यक्ति के शरीर के विरुद्ध उस व्यक्ति की इच्छा के विपरीत तनिक सा भी बल प्रयोग प्रहार होगा भले ही वादी को कोई शारीरिक क्षति हो या नहीं। शारीरिक चोट आवश्यक नहीं है। किसी को क्रोध में स्पर्श करना, प्रहार है। बल प्रयोग शारीरिक स्पर्श के बिना भी हो सकता है। छड़ी से स्पर्श, गोली का स्पर्श, पानी का स्पर्श, किसी के चेहरे पर थूकना, किसी व्यक्ति के नीचे से कुरसी हटा कर उसे गिरा देना। ये सभी बल प्रयोग के उदाहरण हैं। किसी व्यक्ति की ओर ऊष्मा, प्रकाश, गैस, विद्युत आदि फेंकना यदि इनका स्पर्श हो जाय तो यह प्रहार की श्रेणी में आएगा। यदि उससे वादी को व्यक्तिगत तकलीफ या शारीरिक चोट पहुँचे। सिर्फ किसी को शांतिपूर्वक रोकना प्रहार नहीं होगा। इन्स बनाम बाइल (1844) सी० एण्ड के० 257.] नामक बाद में अवैध रूप से पुलिस मैन ने एक दीवार की भाँति खड़े होकर वादी को रोका। यह प्रहार का अपकृत्य नहीं माना गया।
(ii) बल प्रयोग बिना किसी विधिक औचित्य के (Use of force without lawful justification)- प्रहार के बाद में यह साबित किया जाना आवश्यक है कि प्रतिवादी के शरीर के विरुद्ध बल प्रयोग बिना किसी विधिक औचित्य के हुआ था। मुख्य न्यायाधीश हाल्ट ने कहा यदि कई व्यक्ति एक संकरी गली से गुजरते हैं तथा उनके शरीर एक दूसरे को बिना किसी हिंसा की परिकल्पना के स्पर्श करते हैं तो इसे प्रहार नहीं कहा जा सकता। परन्तु यदि उनमें से कोई हिंसा का प्रयोग करते हैं तथा असम्भ्यों की तरह व्यवहार करते हैं तो वह प्रहार होगा।
यदि किसी डूबते हुए व्यक्ति को बचाने हेतु या भूख हड़ताल पर बैठे व्यक्ति को जबरदस्ती खिलाने हेतु, अचेत व्यक्ति को आपरेशन करने हेतु उसकी इच्छा के विरुद्ध बल प्रयोग किया जाता है तो यह प्रहार नहीं होगा।
प्रताप दाजी बनाम बी० बी० एण्ड सी० आई० रेलवे [ (1975) 1 बम्बई 52.] नामक वाद में एक बिना टिकट यात्री को उतरने को कहा गया उसने इन्कार किया। उसे बलपूर्वक उतार दिया गया। यह निर्णय दिया गया कि यह बल प्रयोग विधिक औचित्य के साथ था।
इसी प्रकार एक अतिचारी को बलपूर्वक बेदखल करना विधिक औचित्य के साथ बल प्रयोग माना जाता है।
पी० केदार बनाम के० ए० अलगरास्वामी (ए० आई० आर० 1965 मद्रास 438.) नामक बाद में मद्रास उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि एक विचाराधीन कैदी को हथकड़ी लगाकर जंजीर से बाँधना प्रहार का उदाहरण है। यहाँ बल प्रयोग बिना किसी विधिक औचित्य के माना जायेगा।
(3) मिथ्या बन्दीकरण या मिथ्या कारावास (False Imprisonment) बिना किसी विधिक औचित्य के किसी की आवागमन की स्वतन्त्रता पर पूर्ण प्रतिबन्ध अधिरोपित करना मिथ्या कारावास का अपकृत्य होगा चाहे यह थोड़े ही देर के लिए क्यों न हो। यह स्मरणीय है कि जहाँ एक व्यक्ति से आवागमन को व्यक्तिगत स्वतन्त्रता छीन ली गई हो वहाँ मिथ्या बन्दीकरण का अपकृत्य होगा यदि यह बिना किसी विधिक औचित्य के हो। यह आवश्यक नहीं कि मिथ्या बन्दीकरण चहारदीवारी में हो यह आकाश में हो सकता है, यह ट्रेन में हो सकता है, यह मैदान में हो सकता है, यह किसी व्यक्ति के आवास में हो सकता है। आवश्यक यह है कि वादी की आवागमन को व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर पूर्ण प्रतिबन्ध (अवरोध) (total restraint) हो।
मिथ्या बन्दीकरण अपकृत्य के निम्न आवश्यक तत्व हैं –
(i) किसी व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर पूर्ण अवरोध हो,
(ii) यह अवरोध बिना किसी विधिक औचित्य के हो।
(i) पूर्ण अवरोध (Total restraint) – आपराधिक विधि के अन्तर्गत अवरोध पूर्ण हो या आंशिक, वाद लाया जा सकता है। यदि अवरोध पूर्ण है तथा वादी किसी भी दिशा में जाने से रोका जाता है तो यह मिथ्या परिरोध (wrongful confinement) होता है जिसे भा० द० सं० की धारा 340 के अन्तर्गत अपराध के रूप में परिभाषित किया गया है। दूसरी ओर यदि अवरोध आंशिक है तथा वादी एक विशिष्ट दिशा में जाने से निवारित किया जाता है तो यह सदोष अवरोध होता है जिसे भा० द० सं० की धारा 339 के अन्तर्गत परिभाषित किया गया है। मिथ्या कारावास जो अपकृत्य के अन्तर्गत एक दीवानी अपकार है तभी गठित होता है, जब व्यक्ति पर पूर्ण अवरोध डाला जाय।
यदि किसी व्यक्ति को एक विशेष दिशा में ही जाने से रोका जाय तथा उसे अन्य दिशा में जाने की स्वतन्त्रता हो तो वह कारावास नहीं माना जायेगा। इस अपकृत्य के गठन के लिए यह आवश्यक है कि किसी व्यक्ति को एक निश्चित परिसीमा या परिधि से बाहर जाने से पूर्ण तथा प्रतिबन्धित या वंचित कर दिया जाय।
बर्ड बनाम जोन्स [ (1945) 7 क्यू० बी० 742. ] नामक बाद में हैमर स्मिथ पुल पर वाहन पथ (सड़क) को न रोक कर सार्वजनिक पथ मार्ग का एक भाग प्रतिवादी द्वारा दोषपूर्ण रीति से बन्द कर दिया गया था। क्योंकि उसके एक ओर कुछ लोगों के बैठने व्यवस्था थी। यह निर्णय दिया गया कि चूंकि वादी के आवागमन को सिर्फ एक दिशा में ही प्रतिबन्धित किया गया था तथा वादी अन्य दिशा में जाने को स्वतन्त्र था अतः प्रतिवादी मिथ्या कारावास का दोषी नहीं होगा।
मी० बनाम कुकशैंक [ (1902) 86 एल० टी० 708.] नामक बाद में एक दोषमुक्त (acquitted) बन्दी को एक प्रकोष्ठ में ले जाया गया तथा वहाँ उसे कुछ मिनट के लिए निरुद्ध (detained) करके रखा गया। यह निर्णय दिया गया कि वादी की स्वतन्त्रता चाहे कुछ ही क्षण के लिए प्रतिबन्धित की गई अतः प्रतिवादी मिथ्या कारावास के दोषी थे।
वादी का ज्ञान (Knowledge of Plaintiff)- इस बिन्दु पर मतभेद रहा है कि क्या वादी का यह ज्ञान कि उसकी स्वतन्त्रता पर अवरोध डाला गया है, मिथ्या कारावास की संरचना के लिए आवश्यक है?
हेरिंग बनाम बॉयल [ 1949 ई० आर० 1126 (1934)] नामक बाद में एक विद्यालय के अध्यापक ने दोषपूर्ण ढंग से एक बच्चे को उसकी माता के साथ जाने से तब तक के लिए रोका गया जब तक उसकी माता बालक द्वारा विद्यालय को देय धन का भुगतान नहीं कर देती। बालक को इस तथ्य का ज्ञान नहीं था कि उसे अवरुद्ध किया गया था। यह निर्णय दिया गया कि चूँकि बालक को कारावास होने के तथ्य का ज्ञान नहीं था अतः मिथ्या कारावास का अपकृत्य गठित नहीं हुआ।
परन्तु मियरिंग बनाम ग्राहेम ह्वाइट एवियेशन कं० [ (1920) 122 एल० टी० 44.] नामक वाद में यह निर्णय दिया गया कि मिथ्या कारावास की कार्यवाही में अवरोध का ज्ञान अपकार का आवश्यक तत्व नहीं है क्योंकि उसका गठन तब भी हो सकता है जब कारावासित व्यक्ति को अपने स्वयं के कारावास का ज्ञान भी न हो।
लार्ड एटकिन ने मत व्यक्त किया कि “मुझे लगता है कि किसी व्यक्ति को तब भी कारावासित किया जा सकता है जब स्वयं उसे कारावासित होने के तथ्य का ज्ञान न हो। मेरे विचार से एक व्यक्ति को तब भी कारावासित किया जा सकता है जब सो रहा हो या जब वह नशे में हो या जब वह अचेत अवस्था में हो या जब वह विकृत चित्त (पागल) हो। हाँ यह अवश्य है कि ऐसे मामलों में इस प्रश्न से कि वादी को अपने कारावास का ज्ञान था अथवा नहीं, नुकसानी की मात्रा कम या अधिक हो सकती है।
इस विषय पर मियरिंग का निर्णय कुछ उचित प्रतीत होता है।
(ii) अवरोध बिना किसी विधिक औचित्य के हो (Restraint must be without lawful Justification)– यदि किसी व्यक्ति को विधिक औचित्य के अन्तर्गत अवरोधित या कारावासित किया जाता है तो प्रतिवादी उत्तरदायी नहीं होगा। परन्तु कैदी को रिहाई के पश्चात् कुछ मिनट के लिए कारावासित करना विधि-विरुद्ध माना जायेगा।
रुदल शाह बनाम बिहार राज्य (ए० आई० आर० 1983 सु० को० 1086. ) नामक वाद में अपीलार्थी को 1968 में सत्र न्यायालय द्वारा दोष-मुक्त कर दिया गया तथा उसकी रिहाई का आदेश दिया गया था परन्तु उसकी रिहाई बिना किसी विधिक औचित्य के 14 वर्ष पश्चात् 1982 में की गई। उच्चतम न्यायालय ने बिहार सरकार को उत्तरदायी माना।
भीम सिंह बनाम जम्मू एण्ड कश्मीर राज्य (ए० आई० आर० 1986 सु० को 494 ) नामक वाद में भीम सिंह विधान सभा के सदस्य को बिना किसी विधिक औचित्य के कारावासित किया गया था। राज्य सरकार को मिथ्या कारावास के लिए उत्तरदायी माना गया।
किसी व्यक्ति की निरुद्धि (Detention) के लिए यदि कोई औचित्य विद्यमान रहता है तो प्रतिवादी मिथ्या कारावास या मिथ्या विरोध के लिए उत्तरदायी नहीं होगा। इस प्रकार यदि कोई व्यक्ति किन्हीं शर्तों के अधीन एक परिसर में प्रवेश करता है तथा उन्हीं शर्तों के अधीन उसे परिसर से बाहर नहीं जाने दिया जाता तो उसका अवरोध विधिक औचित्य के अन्तर्गत माना जायेगा।
राबिन्सन बनाम बाल मेन फेरी कम्पनी [(1910) अपील केसेज़ 295.] नामक वाद में वादी ने एक घाट पर इस आशय से प्रवेश किया कि वह नाव से उस पार जायेगा। वादी ने जब यह देखा कि अगले 20 मिनट तक उस पार जाने के लिए कोई नाव उपलब्ध नहीं है तो उसने वापस आना चाहा। उससे बाहर आने के लिए एक पैनी शुल्क माँगा गया किन्तु उसने यह शुल्क जमा करने से इन्कार कर दिया। परन्तु घाट पर लगाई गई सूचना के अनुसार उसे वापस आने हेतु एक पैनी देना आवश्यक था। प्रतिवादी ने वह भुगतान करने तक वादी को रोके रखा। यह निर्णय दिया गया कि प्रतिवादी उत्तरदायी नहीं था क्योंकि उसका अवरोध औचित्यपूर्ण था।
इसी प्रकार न्यायिक अधिकारी संरक्षण अधिनियम, 1850 न्यायिक अधिकारियों को अपने कार्य के निष्पादन में किए गए किसी कार्य को संरक्षण प्रदान करता है। यदि कोई व्यक्ति किसी न्यायिक अधिकारी के आदेश से गिरफ्तार किया जाता है तो वह ऐसे न्यायिक अधिकारी के विरुद्ध मिथ्या कारावास या किसी अन्य अपकृत्य के लिए वाद नहीं ला सकता। उसे यह संरक्षण तब भी प्राप्त है जब वह अपने अधिकार का अतिक्रमण करता है परन्तु इसके लिए यह आवश्यक है कि उसने प्रश्नगत आदेश (कार्य) अपने कर्तव्यों के सद्भावपूर्वक निष्पादन करते हुए दिया हो। यह संरक्षण तभी प्राप्त होगा जब न्यायिक अधिकारी न्यायिक कर्तव्यों का निर्वहन कर रहा हो।
बादी को पलायन के मार्ग (Means of escape) की उपलब्धता – यदि वादी को पलायन का मार्ग उपलब्ध था जिसकी उसे जानकारी थी तथा वह पलायन के मार्ग का प्रयोग करने में सक्षम था तो उसे मिथ्या कारावास के लिए वाद में सफलता नहीं मिलेगी। परन्तु यदि पलायन का मार्ग ऐसा है जिसका युक्तियुक्त प्रयोग वादी नहीं कर सकता था तो उसे मिथ्या कारावास के लिए प्रतिकर प्राप्त होगा।
प्रश्न 20 उपताप से आप क्या समझते हैं? इसके आवश्यक तत्व क्या हैं? इसके विभिन्न प्रकार क्या हैं? क्या कोई प्राइवेट व्यक्ति सार्वजनिक उपताप के लिए वाद चला सकता है?
What do you understand by ‘Nuisance’. What are essential ingredients of Nuisance? What are various kinds of nuisance? Can a Private Person sue for Public Nuisance?
उत्तर- उपताप को अंग्रेजी में न्यूसेन्स (Nuisance) कहते हैं जो फ्रेन्च भाषा के न्यूरे (Nuire) और लैटिन के नोसिरे (Nocere) शब्द से बना है जिसका अर्थ बाधा उत्पन्न करना या क्षति करना होता है। विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई उपताप (Nuisance) की परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं –
ब्लैकस्टोन– “किसी सम्पत्ति पर आधिपत्य रखने वाले व्यक्ति के अधिकार को क्षति पहुँचाना ताकि उसके उपयोग में व्यवधान पैदा हो और तीसरे पक्षकार द्वारा सम्पत्ति या अधिकार का अनुचित ढंग से उपयोग किया जाय, उपताप कहलाता है।”
पोलक– “ऐसा उपकृत्य उपताप कहलाता है जिसमें एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के सम्पत्ति के उपभोग में अथवा सामान्य अधिकारों के प्रयोग में बाधा पहुंचाता है।”
सामण्ड– “उपताप वहाँ होता है जहाँ प्रतिवादी अपनी भूमि से या कहीं अन्यत्र से क्षतिकारक वस्तुओं को बिना विधिक औचित्य के वादी की भूमि में जाने देता है। ऐसी वस्तुओं में पानी, दुर्गन्ध, धुंआ, गैस, शोर ताप, प्रकम्पन, विद्युत आदि की उपेक्षा शामिल हैं।”
डॉ० विनफील्ड– “किसी व्यक्ति की भूमि या उससे सम्बन्धित किसी के अधिकार प्रयोग या उपभोग में अवैध हस्तक्षेप को उपताप कहते हैं।
अतः एक अपकृत्य के रूप में न्यूसेन्स का अर्थ भूमि के उपयोग अथवा उपभोग से अथवा उससे सम्बन्धित किसी अधिकार के साथ विधि विरुद्ध हस्तक्षेप से है। व्यक्ति के आराम, स्वास्थ्य अथवा सुरक्षा के प्रतिकूल किये गये हस्तक्षेप, उपताप की श्रेणी में आते हैं।
उपाबेन बनाम भाग्य लक्ष्मी चित्र मन्दिर, ए० आई० आर० 1978 गुजरात 13 के बाद में कहा गया कि उपताप एक ऐसा अपकृत्य है जो भावनाओं को ठेस पहुँचाता है या स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह है और जिससे किसी दूसरे व्यक्ति को असुविधा, कष्ट अथवा तकलीफ होती है।
अतः उपताप की एक निश्चित परिभाषा नहीं है।
उपताप के बारे में तीन बातें महत्वपूर्ण हैं –
(1) उपताप एक लैटिन कहावत “Sic utere tuo al alienmum non leadash अर्थात् “अपनी सम्पत्ति का उपयोग इस ढंग से करो कि अपनी सम्पत्ति के दुरुपयोग द्वारा किसी अन्य व्यक्ति के सम्पत्ति को हानि न पहुँचे।” सम्पत्ति सम्बन्धी शान्तिपूर्ण उपयोग के अधिकार को यदि किसी भी प्रकार का आघात पहुँचता है तो वह उपताप माना जायेगा।
(2) उपताप उपेक्षा से भिन्न है, अत: उपताप में यह बचाव नहीं लिया जा सकता है कि प्रतिवादी ने सावधानी से कार्य किया था।
(3) उपताप अतिचार से भी भिन्न होता है क्योंकि उपताप में अवरोध स्थायी होता है जबकि अतिचार में अस्थायी अवरोध होता है।
आवश्यक तत्व (Essential Elements) उपताप के निम्नलिखित आवश्यक तत्व हैं –
(1) अनुचित हस्तक्षेप- उपताप के लिए प्रतिवादी का कृत्य अनुचित हस्तक्षेप की श्रेणी में आना चाहिए। यद्यपि उपताप के लिए प्रतिवादी के कृत्य का अनुचित हस्तक्षेप होना आवश्यक है, परन्तु प्रत्येक अनुचित हस्तक्षेप उपताप नहीं माना जा सकता। किसी कृत्य का उपताप होना या न होना उसकी परिस्थिति, निरन्तरता एवं प्रकृति के आधार पर तय किया जाता है।
क्रिस्टी बनाम डेवी, (1893) 1 सी० एच० 316 के बाद में वादी एवं प्रतिवादी एक ही मकान में रहते थे। वादी संगीत की कक्षायें चलाता था जिससे प्रतिवादी को असुविधा होती थी, अतः वादी जब संगीत की कक्षा चलाता तो प्रतिवादी दीवार पीट-पीटकर शोर मचाता था। न्यायालय ने प्रतिवादी के कृत्य को अनुचित हस्तक्षेप मानते हुए उसे उपताप का दोषी पाया।
(2) भूमि या इससे सम्बन्धित अधिकार के प्रति हस्तक्षेप – उपताप में दायित्व के लिए हस्तक्षेप अनुचित होने के साथ-साथ भूमि या उससे सम्बन्धित अधिकारों में होना चाहिए। यह हस्तक्षेप किसी भी प्रकार का हो सकता है। उदाहरण के लिए दूसरे की भूमि में धुआँ, गैस, आदि छोड़ना अर्थात् पेड़ की डाल अथवा जड़ें उगाना उपताप माना जाता है। भूमि से सम्बन्धित अधिकारों में हस्तक्षेप, जैसे- अवलम्बन के अधिकार में हस्तक्षेप भी उपताप है।
प्राकृतिक अधिकारों, जैसे वायु अथवा प्रकाश प्राप्त करने के अधिकारों में हस्तक्षेप भी उपताप माना जाता है। इसी प्रकार शारीरिक सुख-सुविधा में हस्तक्षेप भी उपताप माना जा सकता है। यदि एक व्यक्ति के अधिकार के उपभोग का ढंग दूसरों की सुख सुविधा में अनुचित हस्तक्षेप करता है तो उसे उपताप माना जायेगा। जैसे-जोर-जोर से गाना, निरन्तर घण्टे बजाना, अशान्त सराय आदि।
वादी का संवेदनशील होना –
सेण्ट हेलेन्स स्मेल्टिंग कम्पनी बनाम टिपिंग, (1865) 77 एच० एल० सी० 642 के बाद में कहा गया कि यदि वादी अत्यन्त संवेदनशील है, उसकी इस संवेदनशीलता के कारण उसे क्षति कारित होती है तो वैसी परिस्थिति में यदि कार्य युक्तियुक्त है, तो मात्र इसलिए वह कार्य अयुक्तियुक्त नहीं बन जाता कि उससे संवेदनशील वादी को क्षति कारित हुई जैसे शोरगुल होने पर सामान्य व्यक्ति को कोई व्यवधान उत्पन्न नहीं होता परन्तु वादी को उसकी संवेदनशीलता के कारण व्यवधान उत्पन्न करता है ऐसा व्यवधान वादी के प्रतिकूल उपताप नहीं माना जायेगा।
सुख-सुविधा या आराम में बाधा– चूँकि विधि तुच्छ बातों पर ध्यान नहीं देती इसलिए इस आधार पर उपताप के लिए कार्यवाही तभी हो सकती है जब वादी की सुख सुविधा में सारवान् बाधा या व्यवधान उत्पन्न हुआ हो। कौन-सी बाधा या व्यवधान सारभूत है। कौन सा नहीं इसका निर्धारण प्रत्येक वाद के तथ्यों व परिस्थितियों के आधार पर अलग अलग किया जाता है।
डॉ० रामबाज सिंह बनाम बाबू लाल, ए० आई० आर० 1982 इलाहाबाद 285 के वाद में क एक डाक्टर था। ब ने उसके दरवाजे से 40 फुट की दूरी पर ईंट पीसने वाली एक चक्की लगाई जिससे क के दवाखाने में फर्नीचर, कपड़ों आदि पर ईंट का पाउडर (सुख) जम जाती थी। शोरगुल तेज होता था तथा मरीजों को तकलीफ होती थी। इसके अतिरिक्त क का तर्क था कि ब ने चक्की म्युनिसिपैलिटी से बिना लाइसेन्स लिए लगाई थी। अभिनिर्धारित हुआ कि प्रतिवादी व प्राइवेट न्यूसेंस के लिए दायी था औरवादी क नुकसानी पाने का हकदार था।
(3) क्षति – उपताप तभी अनुयोज्य होता है जबकि प्रतिवादी के अनुचित कार्य से वादी को क्षति हुई हो। उपताप के लिए दायित्व स्थापित करने के लिए खति को सारवान् होना चाहिए।
उपताप के भेद (Kinds of Nuisance) – उपताप दो प्रकार का होता है –
(1) लोक उपताप (Public Nuisance)
(2) प्राइवेट उपताप (Private Nuisance) –
(1) लोक उपताप (Public Nuisance)– ऐसा विधि विरुद्ध कृत्य जिससे जन सामान्य को जीवन, सुरक्षा स्वास्थ्य औरसम्पत्ति के लिए खतरा, आघात, व्यवधान या क्षोभ उत्पन्न हो या लोक अधिकारों में अवरोध उत्पन्न हो, लोक उपताप कहलाता है।
उदाहरण– जब कोई व्यक्ति लोकमार्ग पर खाई खोदता है या अन्य किसी प्रकार का व्यवधान पैदा करता है तो इसे लोक उपताप कहा जाता है। ऐसे कार्य से बहुत से लोगों को परेशानी हो सकती है लेकिन यदि ऐसे कृत्य के लिए सबको वाद करने का अधिकार दे दिया जाय तो वादों की संख्या में बहुत वृद्धि हो जाएगी, इसलिए वादों की संख्या अधिक न हो, लोक उपताप को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 268 के अधीन अपराध घोषित किया गया है।
लोक न्यूसेन्स के लिए वाद का अधिकार- सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 91 (1) के अनुसार, लोक उपताप या अन्य ऐसे दोषपूर्ण कार्य की दशा में जिससे लोक पर प्रभाव पड़ना सम्भव है, घोषणा याव्यादेश के लिए या ऐसे अन्य अनुतोष के लिए जो मामले की परिस्थितियों में समुचित हो वाद- (क) महाधिवक्ता द्वारा, या (ख) दो या अधिक व्यक्तियों द्वारा, ऐसे लोक न्यूसेन्स या अन्य दोषपूर्ण कार्य के कारण ऐसे व्यक्तियों को विशेष नुकसान न होने पर भी न्यायालय की इजाजत से संस्थित किया जा सकता है।
(2) प्राइवेट उपताप (Private Nuisance)- किसी व्यक्ति द्वारा किसी दूसरे व्यक्ति या व्यक्तियों की सुख-सुविधा, स्वास्थ्य अथवा सम्पत्ति में किये गये अनुचित हस्तक्षेप को प्राइवेट न्यूसेन्स कहते हैं। प्राइवेट न्यूसेंस का प्रभाव व्यक्ति या व्यक्तियों पर पड़ता है। प्राइवेट न्यूसेंस में प्रतिवादी द्वारा किये गये कृत्यों का अवैध होना आवश्यक नहीं है। प्राइवेट न्यूसेंस प्रतिवादी द्वारा अपनी भूमि पर तब किया जा सकता है जब प्रतिवादी के कार्यों का परिणाम उसकी भूमि तक सीमित न रह कर वादी की भूमि तक पहुँच जाता है।
प्राइवेट उपताप की कार्यवाही के लिए निम्नलिखित तत्वों का होना आवश्यक है –
(1) दोषपूर्ण बाधा व्यवधान या हस्तक्षेप
(ii) बाधा व्यवधान या हस्तक्षेप भूमि के प्रयोग या उपभोग के साथ हुआ हो; तथा
(iii) क्षति।
व्यक्ति की सम्पत्ति को हानि या उसके सुख-सुविधा या स्वास्थ्य में हुआ प्रत्येक हस्तक्षेप उपताप की कोटि में नहीं लाया जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति से यह आशा की जाती है कि वह साधारण बाधा, शोर या कम्पन को बर्दाश्त करेगा जिससे दूसरे अपने अधिकारों का उपयोग कर सकें।
उषाबेन बनाम भाग्य लक्ष्मी चित्र मन्दिर, ए० आई० आर० 1978 गुजरात 13 के मामले में वादी ने प्रतिवादी को जो सिनेमा हाल का मालिक था, “जय सन्तोषी माँ” नामक चित्र को प्रदर्शित करने से रोकने के लिए न्यायालय से व्यादेश जारी करने के लिए वाद संस्थित किया। वादी का तर्क यह था कि उक्त फिल्म प्रदर्शित करने से उसकी धार्मिक भावना को ठेस पहुँचती थी क्योंकि फिल्म में सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती तीनों देवियों को आपस में ईर्ष्यालु दिखाया गया था और उनका उपहास किया गया था। न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि धार्मिक भावना को ठेस पहुँचाना एक अनुयोज्य अपकृत्य नहीं था। इसके अतिरिक्त वादी फिल्म को पुनः देखने के लिए बाध्य नहीं था। अतएव प्रतिवादी किसी उपताप के लिए दोषी नहीं थे।
क्या कोई प्राइवेट व्यक्ति सार्वजनिक उपताप के लिए वाद चला सकता है – प्राइवेट व्यक्ति सामान्यतया सार्वजनिक उपताप के लिए कोई वाद नहीं ला सकता परन्तु जब किसी प्राइवेट व्यक्ति को जनसाधारण की क्षतियों के साथ कोई विशेष क्षति सहन करनी पड़ती है तब पीड़ित व्यक्ति को दीवानी कार्यवाही करने का अधिकार प्राप्त हो जाता है और तब वह सार्वजनिक उपताप के लिए वाद चला सकता है।
उदाहरण- ‘अ’ कोई खाई लोकमार्ग पर खोदता है तो आस-पास के बहुत से लोगों को परेशानी या व्यवधान उत्पन्न हो सकता है लेकिन ‘ब’, ‘अ’ द्वारा खोदी गई खाई में गिर जाता है और उसका पैर टूट जाता है तो ‘ब’, ‘अ’ के खिलाफ दीवानी कार्यवाही कर सकता है क्योंकि ‘अ’ द्वारा किया गया कार्य लोक उपताप के साथ-साथ प्राइवेट उपताप की श्रेणी में माना जाएगा और लोक उपताप और प्राइवेट उपताप दोनों के लिए दायी होगा। परन्तु ‘ब’ ऐसा वाद तभी कर सकेगा, जब वह यह साबित कर दे कि –
(i) उसे जनसाधारण द्वारा उठाई गई क्षति से अधिक क्षति हुई है; (ii) ऐसी क्षति सामान्य न होकर विशिष्ट क्षति है:
(iii) क्षति वास्तविक और प्रत्यक्ष है जो उसके किसी कृत्य के परिणाम से उत्पन्न नहीं है।
रोज बनाम माइल्स (1815) 4 एम० एण्ड एस० 101 के बाद में प्रतिवादी ने अपनी नाव सँकरे सार्वजनिक घाट पर इस प्रकार बाँध रखी थी जिससे वादी अपनी नाव को घाट पर नहीं ले जा पाता था और दूसरे रास्ते से माल लाने और ले जाने में अधिक धन खर्च करना पड़ता था, निर्णीत हुआ कि प्रतिवादी प्राइवेट और लोक दोनों उपताप के लिए दोषी था। लोक न्यूसेंस के लिए दीवानी कार्यवाही चलाने हेतु विशेष क्षति सिद्ध किया जाना आवश्यक है।
रामदास एण्ड सन्स बनाम भुवनेश्वर प्रसाद सिंह, ए० आई० आर० 1973 पटना 294 के बाद में अपीलार्थी गण रजिस्टर्ड भागीदारी फर्म के भागीदार थे। फर्म ने पाइप लाइन बिछाने का ठेका लिया था। अपीलार्थी ने पाइप लाइन बिछाने के लिए सरकारी अस्पताल के सामने सड़क पर गड्ढा खोद रखा था। गड्ढों को खुला ही छोड़ रखा था। लाइट की भी व्यवस्था नहीं किया था। प्रत्यर्थी जो रात में ताल जा रहा था, गड्ढे में गिर कर घायल हो गया। अभिनिर्धारित हुआ कि अपीलार्थी गण लोक उपताप के साथ-साथ प्राइवेट उपताप के लिए भी दायी थे।