LAW of Crime ii Short Answer

-: लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर :-

प्रश्न 1. संज्ञेय एवं असंज्ञेय अपराधों पर टिप्पणी कीजिए। Comment on cognizable and non-cognizable offences.

उत्तर- संज्ञेय तथा असंज्ञेय अपराध (Cognizable & Non-cognizable (offence)– दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 2 (ग) में संज्ञेय अपराध या संज्ञेय मामले को परिभाषित किया गया है। धारा 2 (ग) के अनुसार “वह अपराध जिसे इस संहिता की प्रथम अनुसूची के अनुसार या उस समय प्रचलित किसी अन्य विधि के अनुसार संज्ञेय अपराध के रूप में दर्शाया गया है, संज्ञेय अपराध कहलाता है। ऐसे अपराध में सम्बन्धित अपराधी को पुलिस अधिकारी बिना वारण्ट के गिरफ्तार कर सकने के लिये सक्षम है और इस प्रकार के अपराध से सम्बन्धित मामला, संज्ञेय मामला कहलाता है।

     संज्ञेय अपराध गम्भीर अपराध होते हैं, जिनके लिए भारी दण्ड का प्रावधान है। इससे समाज विचलित रहता है और समाज में अव्यवस्था फैल जाती है। इस अपराध में पुलिस अधिकारी शीघ्रातिशीघ्र प्रथम सूचना के आधार पर अन्वेषण प्रक्रिया प्रारम्भ कर देता है और मजिस्ट्रेट की बिना अनुमति के भी अभियुक्त को गिरफ्तार कर सकता है।

       असंज्ञेय अपराध – दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 2 (ठ) में असंज्ञेय अपराध को परिभाषित किया गया है। धारा 2 (ठ) के अनुसार वह अपराध जिसके लिए पुलिस अधिकारी को वारण्ट के बिना अभियुक्त को गिरफ्तार करने का अधिकार नहीं होता, असंज्ञेय अपराध कहलाता है और इस प्रकार का मामला असंज्ञेय मामला कहलाता है।

    अतः असंज्ञेय अपराध वह अपराध है जिसमें पुलिस अधिकारी अभियुक्त को वारण्ट के बिना गिरफ्तार नहीं कर सकता।

     अपराधों का वर्गीकरण अपराध की प्रकृति के आधार पर किया गया है। गम्भीर एवं संगीन प्रकृति के अपराधों को संज्ञेय अपराध की श्रेणी में तथा सामान्य प्रकृति के अपराधों को असंज्ञेय अपराध की श्रेणी में रखा गया है। प्रथम अनुसूची के कुछ अपवादों को छोड़कर 3 वर्ष या उससे अधिक के कारावास से दण्डनीय अपराधों को संज्ञेय अपराध और 3 वर्ष से कम कारावास से दण्डनीय अपराधों को असंज्ञेय अपराध माना गया है।

प्रश्न 2. परिवाद को परिभाषित कीजिए। उसके आवश्यक तत्व बताइये। Define ‘Complaint’. State its essentials.

उत्तर—परिवाद (Complaint )- दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (घ) के अनुसार परिवाद से तात्पर्य इस संहिता के अधीन मजिस्ट्रेट द्वारा कार्रवाई किये जाने की दृष्टि से मौखिक या लिखित रूप में उससे किया गया यह कथन अभिप्रेत है कि किसी व्यक्ति ने, चाहे वह ज्ञात हो या अज्ञात अपराध किया है, किन्तु इसके अन्तर्गत पुलिस रिपोर्ट नहीं है।

      परिवाद के निम्न आवश्यक तत्वों को परिभाषित किया जा सकता है-

(i) परिवाद वह मौखिक या लिखित कथन है, जिसमें किसी आपराधिक घटना के तथ्य दिये हुए होते हैं

(ii) यह मजिस्ट्रेट के सामने इस उद्देश्य से किया जाता है कि ज्ञात अथवा अज्ञात व्यक्ति ने कोई आपराधिक कार्य किया है।

(iii) इस कथन द्वारा मजिस्ट्रेट से यह निवेदन किया जाता है कि वह ऐसे ज्ञात अथवा अज्ञात व्यक्ति के खिलाफ कार्यवाही करे:

(iv) परिवाद के अन्तर्गत पुलिस रिपोर्ट शामिल नहीं है;

(v) पुलिस रिपोर्ट उसी स्थिति में परिवाद मानी जा सकती है जब वह अन्वेषण के पश्चात् असंज्ञेय अपराध होना प्रकट करती हो।

     उच्चतम न्यायालय द्वारा मोहम्मद युसुफ बनाम श्रीमती आफाक जहाँ एवं अन्य, ए० आई० आर० 2006 एस० सी० 705 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि परिवाद का कोई विशिष्ट प्रारूप निर्धारित नहीं है ऐसी पिटीशन जो मजिस्ट्रेट को सम्बोधित है। और अपराध किये जाने से सम्बन्धित है, और इस अनुरोध के साथ समाप्त हुई है कि दोषी के विरुद्ध उचित कार्यवाही की जाये, यह परिवाद है।

प्रश्न 3. अन्वेषण एवं जाँच में अन्तर स्पष्ट कीजिए।Distinguish between Investigation & Enquiry.

उत्तर- अन्वेषण एवं जाँच में अन्तर को निम्न आधारों पर स्पष्ट कर सकते हैं-

अन्वेषण

1) अन्वेषण की प्रकृति न्यायिक नहीं होती है

2) अन्वेषण का उद्देश्य साक्ष्यों को एकत्रित करना होता है

3) अन्वेषण कोई भी पुलिस अधिकारी या मजिस्ट्रेट द्वारा प्राधिकृत व्यक्ति कर सकता है किन्तु मजिस्ट्रेट स्वयं नहीं कर सकता है।

4) अन्वेषण में उन व्यक्तियों को शपथ नहीं दिलाई जा सकती जिनका परीक्षण किया जा रहा है या जिनसे प्रश्न पूछा जा रहा है।

5) अन्वेषण साक्ष्य इकट्ठा करने के लिए किया जाता है।

जाँच

1) जाँच की प्रकृति न्यायिक होती है।

2) जाँच का उद्देश्य अभियुक्त को दोषमुक्त करना अथवा सत्र न्यायालय के सुपुर्द करना होता है।

3) जाँच मजिस्ट्रेट अथवा न्यायालय द्वारा की जा सकती है।

4) जाँच में शपथ दिलाई जा सकती है।

5) जाँच इसलिए की जाती है कि अभियुक्त के विरुद्ध प्रथमदृष्ट्या कोई मामला बनता है या नहीं।

प्रश्न 4. अन्वेषण एवं विचारण में अन्तर स्पष्ट करें। Distinguish between investigation and trials.

उत्तर- अन्वेषण एवं विचारण में निम्नलिखित अन्तर है जो इस प्रकार हैं-

(1) दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 154 से लेकर धारा 176 तक अन्वेषण के बारे में प्रावधान किया गया है जबकि विचारण के बारे में धारा 225 से लेकर धारा 265 तक में प्रावधान किया गया है।

(2) अन्वेषण का मुख्य उद्देश्य साक्ष्यों को खोजना एवं एकत्रित करना होता है जबकि विचारण का मुख्य उद्देश्य अभियुक्त को दोषमुक्त अथवा दोषसिद्ध करना होता है।

(3) अन्वेषण कोई भी पुलिस अधिकारी या मजिस्ट्रेट द्वारा प्राधिकृत व्यक्ति कर सकता है किन्तु मजिस्ट्रेट स्वयं नहीं कर सकता जबकि विचारण मजिस्ट्रेट द्वारा न्यायालय में किया जाता है।

(4) अन्वेषण साक्ष्य एकत्रित करने के लिए किया जाता है जबकि विचारण केवल अपराध पर विचार करने के लिए होता है।

(5) अन्वेषण में उन व्यक्तियों को शपथ नहीं दिलाई जा सकती जिनका परीक्षण किया जा रहा है या जिनसे प्रश्न पूछा जा रहा है जबकि विचारण में शपथ दिलाई जाती है।

प्रश्न 5. (क) पुलिस रिपोर्ट (Police Report).

         (ख) पुलिस स्टेशन (Police Station).

उत्तर (क) — पुलिस रिपोर्ट (Police Report) — दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (द) या (r) के अनुसार, पुलिस रिपोर्ट से तात्पर्य ऐसी रिपोर्ट से है जो किसी पुलिस अधिकारी द्वारा संहिता की धारा 173 (2) (i) के अन्तर्गत मजिस्ट्रेट को भेजी जाती है। पुलिस रिपोर्ट अन्वेषण के पश्चात् प्रस्तुत की जाती है एवं धारा 173 (2) (i) के अन्तर्गत उसमें निम्नलिखित बातों का उल्लेख किया जाता है-

(i) पक्षकारों का नाम

(ii) सूचना की प्रकृति;

(iii) उन व्यक्तियों के नाम जो मामले की परिस्थितियों से परिचित होते हैं;

(iv) उस अपराध का उल्लेख जिसका किया जाना प्रतीत होता है;

(v) अभियुक्त की गिरफ्तारी का उल्लेख;

(vi) उन प्रतिभुओं सहित या रहित बन्धपत्रों का उल्लेख जिनके अन्तर्गत अभियुक्तों को छोड़ दिया गया है।

(vii) यदि वह धारा 173 के अधीन अभिरक्षा में भेजा जा चुका है तो उसका उल्लेख। इस संहिता के अधीन किसी संज्ञेय अपराध का अन्वेषण करने वाले पुलिस अधिकारी द्वारा भेजी गई रिपोर्ट ‘पुलिस रिपोर्ट’ होती है और ऐसी रिपोर्ट पर मजिस्ट्रेट अपराध का संज्ञान कर सकता है। स्टेट ऑफ बिहार बनाम चन्द्रभूषण सिंह, ए० आई० आर० (2001) एस० सो० • 429 के मामले में रेलवे सम्पत्ति (अविधिपूर्ण कब्जा) अधिनियम, 1966 की धारा 8 के अधीन रेलवे सुरक्षा बल के अधिकारी द्वारा प्रस्तुत जाँच रिपोर्ट को उच्चतम न्यायालय द्वारा धारा 173 के अर्थान्तर्गत आरोपपत्र नहीं माना गया है। यह मात्र एक परिवाद है।

उत्तर (ख ) – पुलिस स्टेशन (Police Station) [ धारा 2 (5) ] – पुलिस थाना से कोई भी चौकी या स्थान अभिप्रेत है जिसे राज्य सरकार द्वारा साधारणतया या विशेषतया पुलिस थाना घोषित किया गया है और इसके अन्तर्गत सरकार द्वारा इस निमित्त विनिर्दिष्ट कोई स्थानीय क्षेत्र भी आता है।

     एक गश्त घर (beat house) जब तक कि सामान्य या विशेष रूप से राज्य सरकार द्वारा पुलिस थाना होना घोषित न कर दिया जाय, पुलिस थाना नहीं है।

    यदि सरकार ने दो पुलिस थाने की सीमा किसी नदी की मध्य धारा के द्वारा निर्धारित किया है और वह नदी अपना अनुक्रम बदलती है तो पुलिस थाने का सीमा क्षेत्र स्वयमेव घट-बढ़ जायेगा।

प्रश्न 6. समन एवं वारण्ट में अन्तर स्पष्ट कीजिए। Distinguish between Summon and Warrant.

उत्तर- समन मामला एवं वारण्ट मामले में अन्तर को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-

समन मामला

(1) समन मामले सामान्य प्रकृति के होते हैं ।

(2) समन मामले में 2 वर्ष से ज्यादा कारावास का दण्ड नहीं दिया जा सकता।

(3) समन मामले में अभियुक्त के विचारण में संक्षिप्त प्रक्रिया अपनाई जाती है।

(4) समन मामला यदि एक बार समाप्त हो जाता है तो उसका पुनर्जीवन नहीं हो सकता है।

वारण्ट मामला

(1) वारण्ट मामले गम्भीर प्रकृति के होते हैं।

(2) वारण्ट मामला मृत्युदण्ड, आजीवन कारावास एवं 2 वर्ष से अधिक के कारावास से दण्डनीय हो सकता है।

(3) वारण्ट मामले में संक्षिप्त प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती ।

(4) वारण्ट मामला पुनर्जीवित किया जा सकता है, यदि अभियुक्त को उन्मोचित कर दिया गया है।

प्रश्न 7. (क) न्यायिक कार्यवाही को परिभाषित कीजिए।Define Judicial proceedings.

(ख) “पीड़ित” को परिभाषित कीजिए। Define “Victim.”

उत्तर (क) – न्यायिक कार्यवाही- दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (i) के  अनुसार-

    ” न्यायिक कार्यवाही से अभिप्राय ऐसी कार्यवाही से है जिसमें शपथ पर वैध रूप से साक्ष्य लिया जाता है या लिया जा सकता है।”

    न्यायिक कार्यवाही एक विस्तृत शब्द है जिसमें जाँच तथा विचारण दोनों सम्मिलित है। किसी जाँच को न्यायिक कार्यवाही माने जाने के लिए निम्नांकित बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिए-

(1) जाँच का उद्देश्य:

(2) जाँच की प्रकृति एवं

(3) जाँच करने वाले व्यक्ति की शक्तियाँ।

       चिमन सिंह बनाम स्टेट ऑफ मध्य प्रदेश, ए० आई० आर० (1951) के मामले में यह कहा गया कि ऐसी जाँच को मात्र एक प्रशासनिक जांच माना जायेगा जिसमें जाँच अधिकारी द्वारा न तो मजिस्ट्रेट की शक्तियों का प्रयोग किया जाता है और न उसकी रिपोर्ट को सरकार मानने के लिए आबद्ध होती है।

उत्तर (ख ) – पीड़ित (Victim)- दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 2 (ब-क) के अनुसार-

    ” पीड़ित ” से ऐसा व्यक्ति अभिप्रेत है जिसे उस कार्य या लोप के कारण कोई हानि या क्षति कारित हुई है जिसके लिए अभियुक्त व्यक्ति पर आरोप लगाया गया है और “पीडित” पद के अन्तर्गत उसका संरक्षक या विधिक वारिस भी है।

   ऐसा व्यक्ति, जिसकी पत्नी की चिकित्सकों की लापरवाही से मृत्यु हो गई हो, संहिता की धारा 2 (ब-क) के अर्थान्तर्गत ‘पीड़ित है [डॉ० कुनालशाह बनाम स्टेट ऑफ वेस्ट बंगाल, ए० आई० आर० (2015) कलकत्ता 370]

प्रश्न 8. परिवाद एवं प्रथम सूचना रिपोर्ट में अन्तर कीजिए। Distinguish between Complaint and First Information Report

उत्तर- परिवाद एवं प्रथम सूचना रिपोर्ट में निम्नलिखित अन्तर हैं जो इस प्रकार –

(1) परिवाद के सन्दर्भ में दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 2 (घ) में कहा गया है कि परिवाद से अभिप्राय ऐसे मौखिक या लिखित दोषारोपण से है जो मजिस्ट्रेट के समक्ष कार्यवाही के लिए प्रस्तुत किया जाता है जबकि प्रथम सूचना रिपोर्ट के सन्दर्भ में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 में कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति किसी संज्ञेय मामले की सूचना पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को देता है तो उसे प्रथम सूचना रिपोर्ट कहते हैं।

(2) परिवाद प्रस्तुत होने पर मजिस्ट्रेट द्वारा जाँच की जाती है जबकि प्रथम सूचना रिपोर्ट प्रस्तुत होने पर अन्वेषण प्रारम्भ किया जाता है।

(3) परिवाद को अन्वेषण हेतु पुलिस अधिकारी को भेजा जा सकता है, लेकिन प्रथम सूचना रिपोर्ट मजिस्ट्रेट को नहीं भेजी जा सकती।

(4) परिवाद पर जाँच के पश्चात् अपराध का प्रसंज्ञान लिया जाता है जबकि प्रथम सूचना रिपोर्ट पर अन्वेषण के पश्चात् आरोप-पत्र संस्थित किया जाता है।

प्रश्न 9. ( क ) जमानतीय तथा गैर जमानतीय अपराध में अन्तर को स्पष्ट कीजिए। Distinguish between bailable and non-bailable offence.

(ख) महानगरीय क्षेत्र Metropolitan area

उत्तर (क) – जमानतीय तथा गैर-जमानतीय अपराध में अन्तर- जमानतीय तथा गैर-जमानतीय अपराध में निम्नलिखित अन्तर हैं –

(1) जमानतीय अपराध साधारण प्रकृति का अपराध होता है जबकि गैर-जमानतीय अपराध की प्रकृति गम्भीर होती है।

(2) जमानतीय अपराध में जमानत प्राप्त करना अभियुक्त का अधिकार होता है जबकि गैर-जमानतीय अपराध में अभियुक्त को जमानत न्यायालय के विवेक पर प्राप्त होता है।

(3) जमानतीय अपराध के बारे में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 436 में प्रावधान किया गया है जबकि गैर-जमानतीय अपराध के बारे में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 437 में उपबन्ध किया गया है।

उत्तर (ख ) – महानगरीय क्षेत्र – राज्य सरकार अधिसूचना द्वारा घोषित कर सकती है कि उस तारीख से, जो अधिसूचना में विनिर्दिष्ट की जाये, राज्य का कोई क्षेत्र जिसमें ऐसा नगर या नगरी समाविष्ट है जिसको जनसंख्या 10 लाख से अधिक है, इस संहिता के प्रयोजनों के लिए महानगर क्षेत्र होगा। [ धारा 8 (1) ]

     राज्य सरकार अधिसूचना द्वारा, महानगर क्षेत्र की सीमाओं को बढ़ा सकती है, कम करे सकती है या परिवर्तित कर सकती है, किन्तु ऐसी कमी या परिवर्तन इस प्रकार नहीं किया जाएगा कि उस क्षेत्र की जनसंख्या दस लाख से कम रह जाए। [ धारा 8(3)]

     जहाँ किसी क्षेत्र के महानगर क्षेत्र घोषित किए जाने या घोषित समझे जाने के पश्चात् ऐसे क्षेत्र की जनसंख्या दस लाख से कम हो जाती है वहाँ ऐसा क्षेत्र ऐसी तारीख को और उससे, जो राज्य सरकार, अधिसूचना द्वारा इस निमित्त विनिर्दिष्ट करे, महानगर क्षेत्र नहीं रहेगा, किन्तु महानगर क्षेत्र न रहने पर भी ऐसी जाँच, विचारण या अपील जो ऐसे न रहने के ठीक पहले ऐसे क्षेत्र में किसी न्यायालय या मजिस्ट्रेट के समक्ष लम्बित थी, इस संहिता के अधीन इस प्रकार निपटाई जाएगी मानो वह महानगर क्षेत्र हो। [धारा 8(4)]

     जहाँ राज्य सरकार उपधारा (3) के अधीन, किसी महानगर क्षेत्र की सीमाओं को कम करती है या परिवर्तित करती है वहाँ ऐसी जाँच, विचारण या अपील पर जो ऐसे कम करने या परिवर्तन के ठीक पहले किसी न्यायालय या मजिस्ट्रेट के समक्ष लम्बित थी, ऐसे कम करने या परिवर्तन का कोई प्रभाव नहीं होगा और ऐसी प्रत्येक जाँच, विचारण या अपील इस संहिता के अधीन उसी प्रकार निपटाई जाएगी मानो ऐसी कमी या परिवर्तन न हुआ हो।

प्रश्न 10. वारण्ट मामला। Warrant case.

उत्तर- वारण्ट मामला (Warrant case) – दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (थ) या (x) के अनुसार, वारण्ट मामले से अभिप्राय ऐसे मामले से है जो किसी ऐसे अपराध से सम्बन्धित होता है जिसमें दो वर्ष से अधिक का कारावास या आजीवन कारावास या मृत्युदण्ड का आदेश दिया जा सकता है। किसी मामले में मजिस्ट्रेट द्वारा वारण्ट जारी कर दिये जाने मात्र से वह मामला वारण्ट मामला नहीं हो सकता। पब्लिक प्रॉसिक्यूटर बनाम हिन्दुस्तान मोटर्स, ए० आई० आर० (1970) आन्ध्र प्रदेश 176 के मामले में अभिनिर्णीत किया गया है कि समन एवं वारण्ट मामलों की कसौटी दण्ड़ की अवधि है। यदि कोई मामला 50 रुपये के अर्थदण्ड से दण्डनीय है तो वह समन मामला माना जायेगा।

प्रश्न 11. आरोप क्या है? आरोप के अवयवों को इंगित कीजिए। What is a charge? Mention the contents of a charge.

उत्तर- आरोप (Charge) — “आरोप अभियुक्त के विरुद्ध अपराध की जानकारी का ऐसा लिखित कथन होता है जिसमें आरोप के आधारों के साथ-साथ समय, स्थान, व्यक्ति एवं वस्तु का भी उल्लेख रहता है, जिसके बारे में अपराध किया गया है।”

     इस प्रकार आरोप का मुख्य उद्देश्य अभियुक्त पर अपराध का दोष लगाना है। इसके आधार पर ही अभियुक्त अपनी प्रतिरक्षा के तर्क प्रस्तुत करता है। सामान्य रूप से आरोप तभी लगाया जाता है जब मजिस्ट्रेट इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि अभियुक्त के विरुद्ध प्रथमदृष्ट्या मामला बनता है, इसलिए आरोप एवं परिवाद में अन्तर किया जाता है, परिवाद किसी अपराध की एक सूचना मात्र होता है जिसकी सत्यता आरोप का रूप लेती है। दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा-211 से 224 तक में आरोप के सम्बन्ध में विभिन्न प्रावधान किये गये हैं।

     आरोप की विषयवस्तु (Contents of Charge) – धारा 211 के अनुसार आरोप-पत्र की विषयवस्तु में निम्नलिखित चीजें सम्मिलित होंगी-

(i) प्रत्येक आरोप में उस अपराध का कथन होगा जिसका अभियुक्त पर आरोप है;

(ii) यदि उस अपवाद का सृजन करने वाली विधि द्वारा उसे कोई विनिर्दिष्ट नाम दिया गया है, तो आरोप में उसी नाम से उस अपराध का वर्णन किया जाएगा;

(iii) यदि उस अपराध का सृजन करने वाली विधि द्वारा उसे कोई विनिर्दिष्ट नाम नहीं दिया गया है तो अपराध की इतनी परिभाषा देनी होगी जितने से अभियुक्त को इस बात की सूचना हो जाए, जिसका उस पर आरोप है;

(iv) वह विधि और विधि की वह धारा, जिसके विरुद्ध अपराध किया जाना कथित है, अपराध में उल्लिखित होगी:

(v) यह तथ्य कि आरोप लगा दिया गया है इस कथन के समतुल्य है कि विधि द्वारा अपेक्षित प्रत्येक शर्त जिससे आरोपित अपराध बनता है जब विशिष्ट मामले में पूरी हो गयी है:

(vi) आरोप न्यायालय की भाषा में लिखा जाएगा।

प्रश्न 12. संज्ञेय और असंज्ञेय अपराध में अन्तर बताइये।Distinguish between cognizable and non-cognizable offence.

उत्तर- संज्ञेय और असंज्ञेय अपराधों में निम्न अन्तर हैं –

संज्ञेय अपराध

(1) संज्ञेय अपराध गम्भीर प्रकृति के होते हैं ।

(2) कुछ अपवादों के अलावा 3 वर्ष या 3 वर्ष से अधिक कारावास से दण्डनीय अपराध संज्ञेय अपराध होते हैं ।

(3) संज्ञेय अपराध के मामले में पुलिस अभियुक्त को बिना वारण्ट के गिरफ्तार कर सकती है।

(4) संज्ञेय अपराध के मामले में पुलिस अधिकारी बिना मजिस्ट्रेट के आदेश के ही अन्वेषण कर सकता है।

असंज्ञेय अपराध

(1) असंज्ञेय अपराध सामान्य प्रकृति के होते हैं।

(2) कुछ अपवादों को छोड़कर 3 वर्ष से कम कारावास से दण्डनीय अपराध असंज्ञेय अपराध होते हैं।

(3) असंज्ञेय अपराध के मामले में पुलिस अभियुक्त को बिना वारण्ट के गिरफ्तार नहीं कर सकती।

(4) असंज्ञेय अपराध के मामले में बिना मजिस्ट्रेट के आदेश के अन्वेषण नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 13. जाँच एवं विचारण में अन्तर । Differentiate between an inquiry and trial.

उत्तर- जाँच एवं विचारण में अन्तर-

जाँच (Inquiry)

(1) जाँच मजिस्ट्रेट अथवा न्यायालय द्वारा की जा सकती है

(2) जाँच इसलिए की जाती है कि अभियुक्त के विरुद्ध प्रथमदृष्ट्या कोई मामला बनता है या नहीं।

(3) जाँच की प्रकृति न्यायिक होती है। तथा इसका उद्देश्य अभियुक्त को दोषमुक्त करना अथवा सत्र न्यायालय के सुपुर्द करना होता है।

विचारण (Trial)

(1) विचारण मजिस्ट्रेट द्वारा न्यायालय में किया जाता है।

(2) विचारण केवल अपराध पर विचार करने के लिए होता है।

(3) विचारण की प्रकृति भी न्यायिक है। इसका उद्देश्य अभियुक्त को दोषमुक्त अथवा दोषसिद्ध करना होता है ।

प्रश्न 14. न्यायिक मजिस्ट्रेटों की स्थानीय अधिकारिता की विवेचना कीजिए। Discuss the local jurisdiction of Judicial Magistrate.

उत्तर- न्यायिक मजिस्ट्रेटों की स्थानीय अधिकारिता– दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 14 के अनुसार-

(1) उच्च न्यायालय के नियन्त्रण के अधीन रहते हुए मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट समय-समय पर उन क्षेत्रों की स्थानीय सीमाएँ परिनिश्चित कर सकता है जिनके अन्दर धारा 11 या धारा 13 के अधीन नियुक्त मजिस्ट्रेट उन सब शक्तियों का या उनमें से किन्हीं का प्रयोग कर सकेंगे, जो इस संहिता के अधीन उनमें निहित की जाएं :

      किन्तु विशेष न्यायिक मजिस्ट्रेट का न्यायालय उस स्थानीय क्षेत्र के भीतर जिसके लिए वह स्थापित किया गया है, किसी स्थान में अपनी बैठक कर सकता है। [ ५० प्र० संहिता संशोधन अधिनियम, 1978 द्वारा जोड़ा गया]

(2) ऐसा परिनिश्चय द्वारा जैसा उपबन्धित है, उसके सिवाय प्रत्येक ऐसे मजिस्ट्रेट की अधिकारिता और शक्तियों का विस्तार जिले में सर्वत्र होगा।

(3) जहाँ धारा 11 या धारा 13 या धारा 18 के अधीन नियुक्त मजिस्ट्रेट की स्थानीय अधिकारिता का विस्तार, यथास्थिति, उस जिले या महानगर क्षेत्र के जिसके भीतर वह मामूली तौर पर अपनी बैठकें करता है, बाहर किसी क्षेत्र का है वहाँ इस संहिता में सेशन न्यायालय, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट या मुख्य महानगर मजिस्ट्रेट के प्रति निर्देश का ऐसे मजिस्ट्रेट के सम्बन्ध में, जब तक कि सन्दर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो, यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह उसकी स्थानीय अधिकारिता के सम्पूर्ण क्षेत्र के भीतर उक्त जिला या महानगर क्षेत्र के सम्बन्ध में अधिकारिता का प्रयोग करने वाले, यथास्थिति, सेशन न्यायालय, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट या मुख्य महानगर मजिस्ट्रेट के प्रति निर्देश है।

प्रश्न 15. लोक अभियोजक । Public Prosecutor.

उत्तर- लोक अभियोजक (Public Prosecutor )- दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 24 में उच्च न्यायालय एवं जिलों में लोक अभियोजक एवं अपर लोक अभियोजक की नियुक्ति तथा उनकी अर्हताओं के बारे में प्रावधान किया गया है। राज्य सरकार अथवा केन्द्रीय सरकार उच्च न्यायालय से परामर्श कर उच्च न्यायालय के लिए केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकार की ओर से किसी अभियोजन, अपील या अन्य कार्यवाही के संचालन के लिए लोक अभियोजक की नियुक्ति कर सकती है। केन्द्रीय सरकार किसी जिले या स्थानीय क्षेत्र में किसी मामले या किसी वर्ग के मामलों के संचालन के प्रयोजनों के लिए एक या अधिक लोक अभियोजक नियुक्त कर सकती है। राज्य सरकार प्रत्येक जिले के लिए एक लोक अभियोजक नियुक्त करेगी।

        लोक अभियोजक की नियुक्ति के लिए जिला मजिस्ट्रेट द्वारा सेशन न्यायाधीश के परामर्श से उपयुक्त व्यक्तियों का पैनल तैयार किया जाता है। ऐसा पैनल तैयार करते समय जिला मजिस्ट्रेट से अपने विवेक का प्रयोग करने तथा सांविधिक दायित्वों का निर्वहन करने की अपेक्षा की जाती है। यदि जिला मजिस्ट्रेट द्वारा लोक अभियोजक की नियुक्ति करने में सांविधिक दायित्वों का निर्वहन नहीं किया जाता है तो ऐसी नियुक्ति अपास्त किये जाने योग्य होती है। जैसा कि श्रीमती नीलिमा सदानन्द वर्तक बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र, ए० आई० आर० (2005) बम्बई 431 के बाद में स्पष्ट किया गया है।

प्रश्न 16. लोक अभियोजक के अधिकारों तथा नियुक्ति की अर्हता का वर्णन कीजिए। Discuss the powers and qualifications for appointment of Public Prosecutor.

उत्तर- लोक अभियोजक के अधिकार तथा उनकी नियुक्ति की अर्हता – दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 24 में उच्च न्यायालय एवं जिलों में लोक अभियोजक एवं अपर लोक अभियोजक की नियुक्ति तथा उनकी अर्हताओं के बारे में प्रावधान किया गया है। राज्य सरकार अथवा केन्द्रीय सरकार उच्च न्यायालय से परामर्श कर उच्च न्यायालय के लिए केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकार की ओर से किसी अभियोजन, अपील या अन्य कार्यवाही के संचालन के लिए लोक अभियोजक की नियुक्ति कर सकती है। इसी प्रकार प्रत्येक जिले में भी राज्य सरकार एक लोक अभियोजक एक या अधिक अपर लोक अभियोजक की नियुक्ति कर सकती है।

      दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 24 के खण्ड (7) एवं (8) में क्रमश: लोक अभियोजक एवं विशेष लोक अभियोजक को नियुक्ति की अर्हताएं निश्चित की गई हैं-

(i) केन्द्रीय सरकार अथवा राज्य सरकार द्वारा लोक अभियोजक अथवा अपर लोक अभियोजक पद के लिए उसी व्यक्ति को नियुक्त किया जा सकेगा जो कम से कम 7 वर्ष तक अधिवक्ता के रूप में कार्य कर चुका हो; तथा

(ii) केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकार किसी मामले या किसी वर्ग के मामलों में प्रयोजनों के लिए अधिवक्ता को जो कम से कम 10 वर्ष तक विधि व्यवसाय करता रहा हो, विशेष लोक अभियोजक नियुक्त कर सकती है।

प्रश्न 17. (क) जमानतीय अपराध । Bailable offence.

(ख) गैर-जमानतीय अपराध । Non-bailable offence.

उत्तर (क)- जमानतीय अपराध (Bailable offence)- संहिता की धारा 2 (क) के अनुसार, जमानतीय अपराध से ऐसा अपराध अभिप्रेत है, जो प्रथम अनुसूची में जमानतीय के रूप में दिखाया गया है या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि द्वारा जमानतीय बनाया गया है। और जमानतीय अपराध से कोई अन्य अपराध अभिप्रेत है।

अतः जमानतीय अपराध वह अपराध है जो-

(i) प्रथम अनुसूची में जमानतीय अपराध के रूप में दिखाया गया है, अथवा

(ii) तत्समय प्रवृत्त किसी विधि द्वारा जमानतीय बनाया गया है, अथवा

(iii) अजमानतीय अपराध नहीं है।

उत्तर (ख ) – गैर जमानतीय अपराध (Non Bailable Offence) — अजमानतीय अपराध वह अपराध है जो जमानतीय अपराध नहीं होता है अर्थात् वे सभी अपराध जो जमानतीय अपराध नहीं होते हैं, अजमानतीय अपराध के अन्तर्गत आते हैं।

          जमानतीय अपराध की संहिता की धारा 2 (क) में दी गई परिभाषा से यह स्पष्ट नहीं होता कि वे कौन से अपराध हैं जो जमानतीय एवं अजमानतीय हैं। प्रथम अनुसूची में भारतीय दण्ड संहिता के अधीन अपराधों को विशेष रूप में एवं अन्य विधियों के अधीन किए गए अपराधों को सामान्य रूप में बाँटा गया है और प्रत्येक अपराध के बारे में यह उल्लेख किया गया है कि वह जमानतीय या अजमानतीय अपराध है। कुछ अपवादों के अतिरिक्त 3 वर्ष या 3 वर्ष से अधिक कारावास से दण्डनीय अपराधों को अजमानतीय अपराध की श्रेणी में एवं केवल जुर्माने से दण्डनीय या 3 वर्ष से कम कारावास से दण्डनीय अपराधों को अजमानतीय अपराध की श्रेणी में रखा गया है।

         जमानतीय अपराध में जमानत की माँग एक अधिकार के रूप में की जा सकती है, अजमानतीय अपराध में जमानत स्वीकार किया जाना न्यायालय के विवेक पर निर्भर है। हालांकि अजमानतीय अपराध में भी अभियुक्त को जमानत पर न छोड़ा जाना एक अपवाद है।

            मोतीराम बनाम मध्य प्रदेश राज्य, ए० आई० आर० 1978 एस० सी० 1594 के मामले में जस्टिस कृष्णा अय्यर ने विचार व्यक्त किया था कि अजमानतीय अपराधों में भी अभियुक्त को जमानत पर रिहा करना एक नियम है और ऐसा न करना केवल एक अपवाद है।

प्रश्न 18 एक सम्यक् विचारण के आवश्यक अवयव।Essentials of a fair trial.

उत्तर – सम्यक् विचारण (Fair Trail) — “विचारण शब्द को दण्ड प्रक्रिया संहिता में परिभाषित नहीं किया गया है। विचारण एक कार्यवाही है जिसमें अधिकारिता सम्पन्न न्यायाधिकरण द्वारा किसी मामले का परीक्षण एवं अवधारण अन्तर्बलित (involve) होता है। यह एक न्यायिक कार्यवाही है जिसका अन्त अभियुक्त को दोषसिद्धि या दोषमुक्ति से होता है अर्थात् जिसमें किसी न्यायालय द्वारा किसी अपराध के अभियुक्त को दोषसिद्ध अथवा दोषमुक्त विनिश्चत किया जाता है।

      एक सम्यक् विचारण के निम्नलिखित आवश्यक अवयव हैं जो इस प्रकार हैं-

(1) विचारण की प्रकृति न्यायिक होती है।

(2) विचारण मजिस्ट्रेट द्वारा किया जाता है।

(3) विचारण का उद्देश्य अभियुक्त को दोषसिद्ध या दोषमुक्त करना है।

(4) विचारण केवल अपराध पर विचार करने हेतु किया जाता है।

(5) विचारण में शपथ दिलायी जाती है।

(6) एक सम्यक विचारण में अभियुक्त और अभियोजन की सुनवाई तथा बहस का उचित अवसर दिया जाता है।

(7) एक सम्यक् विचारण में न्यायाधीश अभियोजन द्वारा लगाये गये आरोपों को सुनता है। यदि न्यायाधीश देखता है कि अभियुक्त पर कोई मामला नहीं बन रहा है तो उसे उन्मोचित कर दिया जाता है।

प्रश्न 19. किन परिस्थितियों में एक प्राइवेट व्यक्ति गिरफ्तारी कर सकता है? Under what circumstances a Private Person can carry out arrest?

उत्तर- दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 43 में प्राइवेट व्यक्ति द्वारा गिरफ्तारी और ऐसी गिरफ्तारी पर प्रक्रिया के बारे में उपबन्ध किया गया है। धारा 43 के अनुसार निम्न परिस्थितियों में एक प्राइवेट व्यक्ति गिरफ्तारी कर सकता है-

(1) कोई प्राइवेट व्यक्ति किसी ऐसे व्यक्ति को जो उसकी उपस्थिति में अजमानतीय और संज्ञेय अपराध करता है, या किसी उद्घोषित अपराधी को गिरफ्तार कर सकता है या गिरफ्तार करवा सकता है और ऐसे गिरफ्तार किए गये व्यक्ति को अनावश्यक विलम्ब के बिना पुलिस अधिकारी के हवाले कर देगा या हवाले करवा देगा या पुलिस अधिकारी को अनुपस्थिति में ऐसे व्यक्ति को अभिरक्षा में निकटतम पुलिस थाने ले जाएगा या भिजवाएगा।

(2) यदि यह विश्वास करने का कारण है कि ऐसा व्यक्ति धारा 41 के उपबन्धों के अन्तर्गत आता है तो पुलिस अधिकारी उसे फिर से गिरफ्तार करेगा।

(3) यदि यह विश्वास करने का कारण है कि उसने असंज्ञेय अपराध किया है और वह पुलिस अधिकारी की माँग पर अपना नाम और निवास बताने से इन्कार करता है या ऐसा नाम या निवास बताता है, जिसके बारे में ऐसे अधिकारी को यह विश्वास करने का कारण है कि वह मिथ्या है, तो उसके विषय में धारा 42 के उपबन्धों के अधीन कार्यवाही की जाएगी किन्तु यदि यह विश्वास करने का कोई पर्याप्त कारण नहीं है कि उसने कोई अपराध किया है तो वह तुरन्त छोड़ दिया जाएगा।

प्रश्न 20. जमानत एवं पैरोल में अन्तर कीजिए।Differenciate between Bail and Parole.

उत्तर– जमानत एवं पैरोल में निम्नलिखित अन्तर है जो इस प्रकार हैं-

      जमानत किसी व्यक्ति को वैध कारावास से मुक्त करवाने का वह साधन है जिसके देने के बाद वह व्यक्ति अपने आपको उसे बताये गये समय तथा स्थान पर उपस्थित होकर अपने को न्यायालय के क्षेत्राधिकार तथा निर्णय के लिए प्रस्तुत करेगा। जमानत से तात्पर्य किसी व्यक्ति को हिरासत से कैद से, कारावास से या किसी भी प्रकार के नियन्त्रण से रिहा करना और उसे ऐसे व्यक्ति के हाथों सुपुर्द करना है जो जरूरत पड़ने पर उस व्यक्ति को प्रस्तुत करने के लिए अपने आप को बाध्यकारी करता है जबकि पैरोल में कुछ समय तक कारावास में रह चुके अपराधी को उसके अच्छे आचरण के आश्वासन पर सशर्त कुछ समय के लिए कारागृह से मुक्त कर दिया जाता है, जिससे वह अपने परिवार वालों के साथ रह सके और फिर कारागृह में लौट आवे।

       जमानत की प्रक्रिया के बारे में दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 436 से 450 तक में प्रावधान किया गया है जबकि पैरोल के बारे में अपराधी परिवीक्षा अधिनियम, 1958 में प्रावधान किया गया है।

प्रश्न 21. प्रथम सूचना रिपोर्ट से आप क्या समझते हैं? समझाइये। What do you mean by F.I.R.? Explain.

उत्तर- प्रथम सूचना रिपोर्ट (First Information Report ) – जब कोई संज्ञेय अपराध घटित हो तब कोई भी व्यक्ति ऐसे संज्ञेय अपराध के बारे में पुलिस को सूचना दे सकता है। ऐसी सूचना को ही प्रथम सूचना रिपोर्ट (F.I.R.) कहा जाता है। संहिता की धारा 154 में प्रथम सूचना रिपोर्ट लिखाने की विधि का वर्णन किया गया है।

(1 ) धारा 154 का विश्लेषण इस प्रकार है- 

(i) सूचना संज्ञेय अपराध से सम्बन्धित होनी चाहिए;

(ii) सूचना पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को दी जानी चाहिए;

(iii) सूचना मौखिक या लिखित किसी भी रूप में दी जा सकती है:

(iv) यदि सूचना मौखिक है तो उसी पुलिस अधिकारी द्वारा या उसके अधीनस्थ द्वारा लिखी जायेगी एवं सूचना देने वाले को पढ़कर सुनायी जायेगी;

(v) सूचना चाहे लिखित हो या मौखिक, उस पर सूचना देने वाले व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षर किया जायेगा;

(vi) सूचना का सार राज्य सरकार द्वारा विहित किसी पुस्तक में लिखा जायेगा। [ धारा 154 (1)]

       परन्तु यदि किसी स्त्री द्वारा, जिसके विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 326 (क), 326 (ख), 354, 354 (क), 354 (ख), 354 (1), 354 (1), 354 (), 376, 376 (क), 376 कख, 376 ख, 376 ग, 376 घ, 376 घक, 376 घख, 376 ङ. या धारा 509 के अधीन किसी अपराध के किए जाने या किए जाने का प्रयत्न किए जाने का अधिकथन किया गया है, कोई इत्तिला दी जाती है तो ऐसी इत्तिला किसी महिला पुलिस अधिकारी या किसी महिला अधिकारी द्वारा अभिलिखित की जाएगी और ऐसी स्त्री को विधिक सहायता और किसी स्वास्थ्य देखभाल कार्यकर्ता या महिला संगठन या दोनों की सहायता उपलब्ध कराई जायेगी। [ दण्ड विधि (संशोधन) अधिनियम, 2018 द्वारा संशोधित ]

(2) सूचना देने वाले व्यक्ति को उपर्युक्त विधि से लिखित सूचना की प्रतिलिपि निःशुल्क दी जायेगी। [ धारा 154 (2) ]

       उच्चतम न्यायालय ने रमेश कुमारी बनाम एन० सी० टी० ऑफ देलही एवं अन्य, ए० आई० आर० (2006) एस० सी० 1322 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया है कि धारा 154 के उपबन्ध आज्ञापक हैं और संज्ञेय अपराध प्रकट करने वाली  सूचना को सम्बद्ध अधिकारी रजिस्टर करने के लिए बाध्य है।

(3) यदि पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी सूचना लिखने से इन्कार करता है तो व्यथित व्यक्ति सूचना का सार लिखित रूप में डाक द्वारा सम्बद्ध पुलिस अधीक्षक को भेज सकता है। ऐसी सूचना से यदि किसी संज्ञेय अपराध का किया जाना प्रकट होता है, तब या तो पुलिस अधीक्षक स्वयं अन्वेषण करेगा या अपने अधीनस्थ पुलिस अधिकारी द्वारा अन्वेषण करवायेगा। [ धारा 154 (3) ]

प्रश्न 22. प्रथम सूचना रिपोर्ट का साक्ष्यिक महत्व।Evidentiary value of First Information Report.

उत्तर- प्रथम सूचना रिपोर्ट का सात्यिक महत्व – यद्यपि प्रथम सूचना रिपोर्ट मौलिक या सारवान् साक्ष्य नहीं होती है, लेकिन किसी अपराध का अन्वेषण प्रथम सूचना रिपोर्ट के आधार पर ही किया जाता है।

        मीनाक्षी अग्रवाल एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य, (2001) द० नि० संग्रह 167 के बाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा अभिनिर्धारित किया गया कि यदि F.IR. मैं संज्ञेय अपराध का कारित किया जाना प्रकट होता है, साक्ष्य एवं उपलब्ध सामग्री यात्रियों के विरुद्ध है, तो प्रथम सूचना रिपोर्ट को अभिखण्डित नहीं किया जा सकता।

      यदि रिपोर्टकर्त्ता गवाह के रूप में विचारण के समय बुलाया जाता है तो प्रथम सूचना रिपोर्ट का उपयोग भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 157 के अन्तर्गत रिपोर्टकर्त्ता को सम्पुष्टि के लिए या धारा 145 के अन्तर्गत खण्डन के लिए किया जा सकता है। प्रथम सूचना रिपोर्ट में थोड़ी त्रुटि या कमी के आधार पर प्रथम सूचना रिपोर्ट की प्रमाणिकता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

      नाथू सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, (1977) 4 S.C.C. 293 के मामले में यह धारित किया गया कि यदि प्रथम सूचना रिपोर्ट लिखवाते समय घटनाओं के वर्णन करने में थोड़ी भूल हो जाती है और उस भूल का स्पष्टीकरण दे दिया जाता है तो ऐसी F.I.R. के आधार पर अभियुक्त को दोषसिद्ध किया जा सकता है और ऐसी प्रथम सूचना रिपोर्ट पर संदेह करना अनुचित है।

       उत्तर प्रदेश राज्य बनाम लल्ला सिंह, (178) 1 S.C.C, 142 के मामले में यह निर्णीत किया गया कि यदि किसी प्रथम सूचना रिपोर्ट में सभी गवाहों के नामों का उल्लेख नहीं किया गया है तो इस आधार पर प्रथम सूचना रिपोर्ट के साक्ष्यात्मक महत्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

प्रश्न 23. सर्च वारण्ट से क्या तात्पर्य है? What is meant by search warrant?

उत्तर- सर्च वारण्ट (Search Warrant) — किसी मामले की जाँच, अन्वेषण या परीक्षण के लिए अभियुक्त या पक्षकारों की व्यक्तिगत उपस्थिति के अतिरिक्त सम्बन्धित दस्तावेजों एवं अन्य चीजों की आवश्यकता पड़ती है। इनके अभाव में न्याय के उद्देश्य के भी विफल होने की सम्भावना रहती है लेकिन जब कोई दस्तावेज अथवा वस्तु किसी ऐसे व्यक्ति के आधिपत्य में हो जो उसे प्रस्तुत नहीं करना चाहता हो तो न्यायालय ऐसे दस्तावेजों अथवा वस्तुओं की तलाशी के लिए तलाशी वारण्ट जारी करते हैं।

धारा 93 के अनुसार-

(क) जहाँ किसी न्यायालय को यह विश्वास करने का कारण है कि वह व्यक्ति जिसको धारा 91 के अधीन समन या आदेश या धारा 92 की उपधारा (1) के अधीन अपेक्षा सम्बोधित की गयी है या की जाती है, ऐसे समन या अपेक्षा द्वारा यथापेक्षित दस्तावेज या चीज पेश नहीं करेगा या हो सकता है पेश न करे अथवा

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